1871 का पेरिस कम्यून : जब मजदूर वर्ग ने पहली बार सत्ता संभाली

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घटना 140 वर्ष पहले की है जब फ्रांस के पूंजीपति वर्ग ने करीब 20,00 मजदूरों का कत्ले आम कर सर्वहारा के प्रथम क्रांतिकारी अनुभव को मिटा दिया। पेरिस कम्यून पहला अवसर था जब मजदूर वर्ग इतनी बडी ताकत से इतिहास के मंच पर प्रकट हुआ। पहली बार, मजदूरों ने यह दिखा दिया कि वे पूंजीवाद की राज्य मशीनरी को तहस-नहस करने में सक्षम हैं और इस प्रकार उसने साबित किया कि समाज में वही एकमात्र क्रान्तिकारी वर्ग है। आज शासक वर्ग हर कीमत पर मजदूरों को यह यकीन दिलवाने की कोशिश कर रहा है कि मानवता के पास समाज के लिये पूंजीवाद के सिवा कोई परिप्रेक्ष नहीं और आधुनिक विश्व की भयानक बर्वरता तथा कष्टों के सामने मजदूर वर्ग को लाचारी तथा नपुंसकता के विचारों से संक्रमित करने की कोशिश कर रहा है। तब आज यह आवश्यक है कि मजदूर वर्ग अपने विगत का मंथन करे ताकि वह अपने में, अपनी ताकत में और अपने संधर्षों में निहित भविष्य के लिए विश्वास पुनः हासिल कर सके। पेरिस कम्यून का विकट तजुर्बा इस बात का सबूत है कि उस समय कम्युनिस्ट क्रांति के लिये परिस्थितियां परिपक्व न होते हुये भी सर्वहारा ने दिखा दिया कि वही वह एकमात्र शक्ति है जो पूंजीवादी व्यवस्था को चुनौती दे सकती है।

मजदूरों की कई पीढियों के लिए,  पेरिस कम्यून मजदूर आन्दोलन के इतिहास के लिये संदर्भ विन्दु रहा है। 1905 और 1917 की रुसी क्रांतियां खासकर पेरिस कम्यून के उदाहरणों और सबकों से अभिप्रेरित रहीं, और जब तक 1917 की क्रांति ने विश्व सर्वहारा के संधर्षों के प्रमुख प्रकाश स्तम्भ का इसका सथान नहीं ले लिया।

आज,  पूँजीपति वर्ग का प्रचार अभियान अक्तूबर के क्रांतिकारी अनुभव को सदा के लिये दफनाने की, और स्तालिनवाद को साम्यवाद बता कर मजदूरों को भविष्य के उनके अपने द्रष्टिकोण से दूर करने की कोशिश कर रहा है। क्योंकि पेरिस कम्यून को वह झूठ फैलाने में प्रयोग नहीं किया जा सकता, अतएव सत्तधारी वर्ग ने इस धटना को अपनी बता कर, राष्ट्रवाद अथवा गणतांत्रिक मून्यों की रक्षा के लिये एक आन्दोलन बता कर हमेशा इसके वास्तविक अर्थ को छिपाने की कोशश की है।

पूंजी के खिलाफ एक लड़ाई, न कि एक राष्ट्रवादी संघर्ष

पेरिस कम्यून की स्थापना 1870 के फ्रांस-प्रशा युद्ध में सेडान में नेपोलियन बोनापार्ट की हार के सात महीने बाद हुयी। 4 सितम्बर 1870 को पेरिस के मजदूर बोनापार्ट के सैनिक दु-साहसिक कार्यों द्वारा थोपी भीषण परिस्थितियों के खिलाफ उठ खडे हुये। जब गणतंत्र की घोषणा की गई तब बिस्मार्क की सेनायें पेरिस के मुख्य दरवाज पर पडाव डाले हुये थीं। तत्पश्चात, प्रशा की सेना के मुकाबले राजधानी की सुरक्षा का जिम्मा राट्रीय सुरक्षा गार्डों ने, जो शुरू में निम्न मध्यम वर्ग की टुकडियों से गठित थे, संभाला। भूख से पीड़ित मजदूरों के झुंड इसमें भरती होने लगे और वे जल्द ही उसकी टुकडियों का बहु भाग बन गये। शासक वर्ग इस घटना को प्रशियाई हमलावरों के खिलाफ  एक "लोकप्रिय" प्रतिरोध के रंग में रंगने की कोशिश करता है, किन्तु अति शीघ्र ही पेरिस की सुरक्षा के संघर्ष ने समाज के दो प्रमुख वर्गों, सर्वहारा और पूंजीपति वरग, के बीच  अमिट अंतर्विरोधों के विस्फोट को जगह दे दी। 131 दिन की घेराबन्दी के बाद फ्रान्स की सरकार ने घुटने टेक दिये और प्रशा की सेना के साथ युद्ध विराम के समझौते पर दस्तखत किये। गणातांत्रिक सरकार के नये नेता थियरे ने समझा कि युद्धस्थिति की समाप्ति के साथ यह आवश्यक है कि पेरिस के सर्वहारा को तुरन्त निहत्था कर दिया जाय। क्योंकि वह शासक वर्ग के लिये एक खतरा था। 18 मार्च 1871 को थियरे ने पहले छल-कपट का सहारा लिया : यह दलील देते हुये कि हथियार राज्य की सम्पत्ति हैं उसने 200 से अधिक तोपों से सज्जित राट्रीय सुरक्षा गार्डों के तोपखाने को, जिसे मजदूरों ने मोमार्ट तथा बैलेविली में छिपा दिया था, छीनने के लिये सेना की टुकडियां भेजीं। मजदूरो की ओर से तगडे प्रतिरोध तथा सेना और पेरिस की आबादी के बीच पैदा हुये भाइचारे के आन्दोलन के फल स्वरूप वह प्रयास विफल हो गया। पेरिस को निहत्था करने के प्रयास की पराजय ने बारूद में एक चिनगारी का काम किया और उसने पेरिस के मजदूरों और वर्साई में छिप कर बैठी पूंजीवादी सरकार के बीच गृहयुद्ध छेड़ दिया। 18 मार्च को राट्रीय सुरक्षा गार्डों की केन्द्रीय कमेटी ने, जिसने अस्थायी तौर पर सत्ता की बागडोर संभाली ली थी, घोषणा की: "शासक वर्गों में फूट परस्ती और गद्दारियों के बीच राजधानी के सर्वहारा ने समझ लिया है कि अब घडी आ गयी है कि वह सार्वजनिक मामलों को अपने हाथों में लेकर स्थिति को नियंत्रण में करे (....)। सर्वहारा ने समझ लिया है कि यह उसका उद्दात अधिकार एवं पूर्ण कर्तव्य है कि वह अपने भाग्य को अपने हाथों में ले ले, और इसकी जीत को सुनिश्चत करने के लिए सत्ता पर कब्जा कर ले"। उसी दिन कमेटी ने सार्वभौम मताधिकार के आधार पर विभिन्न जिलों से प्रतिनिधियों के तुरन्त निर्वाचन की घोषणा की। ये चुनाव 26 मार्च को सम्पन्न हुये; और दो दिन बाद कम्यून की घोषणा कर दी गयी। इसमें बहुत सारे रुझानों का प्रतिनिधित्व था : जहां ब्लांकीवादियों का बहुमत था वहीं अल्पमत के सदस्य अधिकतर इन्टरनेशनल वर्कर्स एसोशियेसन (प्रथम इन्टरनेशनल) से जुडे प्रूधोंवादी समाजवादी थे।

तुरन्त ही, वर्साई सरकार ने मजदूर वर्ग, जिन्हें थियरे ने "धुर्त कचरा" करार दिया, के कब्जे से पेरिस को वापिस हासिल करने के लिये जवाबी हमला किया। फ्रांस का पूंजीपति वर्ग प्रशा की सेना द्वारा राजधानी पर जिस बमबारी की निन्दा करता था, वह बमबारी लगातार दो महीने तक, जब तक कम्यून जीवित रहा, जारी रही।

किसी बाहरी दुश्मन से पितृ भूमि की रक्षा के लिये नहीं बल्कि अपने घर के दुश्मनों के खिलाफ, वर्साई सरकार में निरुपित "अपने" बुर्जुआज़ी के खिलाफ अपनी रक्षा की लिये पेरिस सर्वहारा ने अपने शोषकों के सामने हथियार डालने से इनकार कर दिया था और कम्यून की स्थापना की थी।

पूँजीपदी राज्य के विनाश के लिए एक लड़ाई, न कि गणतांत्रिक स्वतंत्रताओं की रक्षा के लिए

पूँजीपति वर्ग अपने बदतरीन झूठ यथार्थ के आभास में से खींचता हैं। सर्वहारा के पहले क्रांतिकारी तजुर्बे को मात्र गणतांत्रिक स्वतंत्रताओं के, राजशाही सेनाओं, जिन के पीछे फ्रांस का पूँजीपति वर्ग लामबन्द हो गया था, के विरुद्ध जनतंत्र के बचाव के स्तर तक गिराने के लिए पूँजीपति वर्ग हमेशा इस तथ्य पर निर्भर करता रहा है कि कम्यून वास्तव में 1789 के सिद्धान्तों पर आधारित था। किन्तु कम्यून की सच्ची भावना को उन पोशाकों में नहीं पाया जा सक्ता जो 1871 के युवा सर्वहारा ने पह्न रखी थीं। इसमें निहित भविष्य की संभानाओं के मद्देनजर, यह आन्दोलन सदैव ही विश्व सर्वहारा के अपनी मुक्ति के संघर्ष में एक अहम प्रथम चरण रहा है। इतिहास में यह पहला अवसर था जब  पूँजीपति वर्ग की आधिकारिक सत्ता को उनकी एक राजधानी में उखाड फेंका गया था। और यह विशाल संघर्ष सर्वहारा का ही काम था न कि किसी अन्य वर्ग का। निश्चय ही यह सर्वहारा अल्प विकसित था, वह शिल्प की अपनी पुरानी स्थिति से बमुश्किल उबर पाया था और वह अभी भी, निम्न-पूँजीपति वर्ग तथा 1789 से पैदा भ्रमों के बोझ तले दबा हुआ था : इसके बावजूद कम्यून के पीछे चालक शक्ति वही था। यद्यपि क्रांति अभी ऐतिहासिक संभावना नहीं थी (क्योंकि सर्वहारा अभी भी अपरिपक्व था तथा पूँजीवादी उत्पादक शक्तियों ने विकास की अपनी सम्भावनाओं को खतम नहीं किया था) कम्यून भावी सर्वहारा संघर्षो की दिशा का संदेशवाहक बना।

और भी, जबकि कम्यून ने पूँजीवादी क्रांति के सिद्धातों को अपनाया, पर उसने निश्चय ही उसमें वही अन्तर्वस्तु नहीं डाली। पूँजीपति वर्ग के लिये "स्वतंत्रता"  का अर्थ है स्वतंत्र व्यापार तथा उज़रती श्रम को शोषित करने की आजादी, "समानता" का अर्थ कुलीनतंत्रीय विशेषाधिकारों के खिलाफ संघर्ष में पूंजीपतियों के बीच में समानता से अधिक कुछ नहीं,  और "भाईचारे" का अर्थ है श्रम और पूंजी के बीच सामंजस्य, दूसरे शदों में शोषितों का शोषकों के सामने समर्पण। कम्यून के मजदूरों के लिये  "समानता, स्वतंत्रता और भाईचारे'' का अर्थ था श्रम दासता का, मनुष्य द्वारा मनुष्य के शोषण का और समाज के वर्गों में विभाजन का अन्त। कम्यून द्वारा उदघोषित दूसरी दुनियां का यह ख्याल मजदूरों द्वारा कम्यून के दो महीनों के अस्तित्व के दौरान सामाजिक जीवन को संगठित करने के तरीके मे प्रतिबिंबित हुआ। कम्यून का असली वर्गीय स्वभाव उसके आर्थिक एवं राजनैतिक कदमों में निहित है, न कि भूत काल से लिये गये नारों के झाम में।

अपनी अधिघोषणा के दो दिन बाद, कम्यून ने अपनी ताकत की पुष्टि करते हए राजकीय ढांचे पर सीधे हमले करते ह्ए अनेक कदम उठाए: सामाजकि उत्पीडन को समर्पित पुलिस बल, स्थायी सेना, तथा जबरिया भर्ती (एक्मात्र मान्यता प्रप्त सैन्य बल था राष्ट्रीय सुरक्षा गार्ड) का खात्मा; समूचे राज्यकीय प्रशासन का विनाश, चर्च की सम्पत्ति की जब्ती,  फंसी पे लटकाए जाने का अन्त,  मुफ्त लाजिमी शिक्षा आदि,  अन्य प्रतीकात्मक कदमों की तो बात ही नहीं जैसे वैन्डोम कालम, शासक वर्ग के अंध राष्ट्रवाद का वह प्रतीक जिसे नेपोलियन प्रथम ने खडा किया था, का विनाश। उसी दिन कम्यून ने यह घोषणा करके कि "कम्यून का झंडा सार्वभौमिक गणतंत्र का ही झंडा है" अपने सर्वहारा चरित्र  को पुष्ट कर दिया। कम्यून के लिये विदेशियों के चुनाव (जैसे  सुरक्षा मामलों के लिये पोलैन्ड के दौर्नब्रोवस्की तथा श्रम के लिये जिममेवार हंगरी के फ्रंकेल) द्वारा सर्वहारा अंर्तराष्ट्रीयतावाद के सिद्धान्त की स्पष्ट पुष्टि हुई।

इन सभी राजनैतिक कदमों में से एक ने विशेष रूप से यह प्रदर्शित किया कि यह विचार कितना गलत है कि पेरिस सर्वहारा ने गणतांत्रिक जनवाद की रक्षा के लिये विद्रोह किया था : वह है कम्यून के प्रतिनिधियों की स्थायी प्रतिसंहरणीयता जो कि अब उन्हें चुनने वाली संस्था के प्रति निरंतर जवाबदेह थे। यह 1905 की रुसी क्रांति में मजदूर कोंसिलों, जिन्हें लेनिन ने "सर्वहारा की तानाशाही का अन्तत: खोज निकाला गया रुप'' कहा, के उदय से बहुत पहले की बात है। चुने हुये  प्रतिनिधियों को वापस बुलाये जाने का सिद्धान्त, जिसे सर्वहारा ने सत्ता दखल करते वक्त अपनाया, ने एक बार फिर कम्यून के सर्वहारा चरित्र को अनुमोदित किया। पूँजीपति वर्ग की तानाशाही, "जनवादी" राज्य जिसका एक अत्यंत घातक रूप है,  शोषकों की राज्य सत्ता को एक अल्पमत के हाथों में केन्द्रित कर देती है ताकि वे उत्पादकों के विशाल बहुमत का उत्पीडन और शोषण कर सकें। दूसरी ओर, सर्वहारा क्रांति का सिद्धान्त है कि ऐसी कोई सत्ता पैदा न हो जो सवयं को समाज के ऊपर स्थापित कर सके। केवल वही वर्ग सत्ता का इस्तेमाल इस तरह कर सकता है जिसका मकसद ही समाज के ऊपर किसी अल्पमत के हर प्रकार के प्रभुत्व का उन्मूलन करना है।

क्योंकि कम्यून के राजनीतिक कदम स्पष्टत: इसकी सर्वहारा प्रवति को अभिव्यक्त करते थे, यह लाजिमी था कि उसके आर्थिक कदम, वे चाहे कितने ही सीमित रहे हों, मजदूर वर्गीय हितों की रक्षा करें: लगान का उन्मूलन, बेकरी जैसे कुछ व्यवसायों के लिए रात्रिकालीन काम का उन्मूल्न, मजदूरों के वेतनों से जुर्मानों की कटौती का खात्मा, बन्द पडे कारखानों को मजदूरों के प्रबन्धन में चालू करना,  कम्यून के प्रतिनिधियों के वेतन को मजदूरों के वेतन के बरावर सीमित करना।

स्पष्टत:, सामाजिक जीवन को इस भांति संगठित करने का पूंजीवादी राज्य के "जनवादीकरण" से कोई लेना देना नहीं था, उसका तो पूरा जोर उसे मटियामेट करने पर था। और वास्तव में, यही वह मूल सबक है जिसे कम्यून ने भविष्य के समूचे मजदूर आन्दोलन को विरासत में प्रदान किया। यही वह सबक था जिसे रुस में सर्वहारा ने, लेनिन और बोलशेविकों के आव्हान पर, अक्तूबर 1917 में और अधिक स्पष्ट रूप से व्यवहार में उतारा। मार्क्स ने पहले ही र्लुई बोनापार्ट के 18वीं ब्रूमेर में इंगित किया : "अब तक की सभी राजनीतिक क्रांतियों ने राज्य मशीनरी को नष्ट करने की बजाय उसे परिपूर्ण ही किया है" यद्यपि पूँजीवाद को उखाड फेंकने के लिये परिस्थितियां अभी परिपक्व नहीं थीं,  पेरिस कम्यून, जो 19वीं सदी का अंतिम इंकलाब था, 20वीं सदी के क्रांतिकारी आन्दोलनों का अग्रदूत बना : उसने व्वहार में यह प्रदर्शित किया कि "मजदूर वर्ग पहले से ही तैयार राज्य मशीनरी पर मात्र कब्जा करके उसे अपने वर्गीय हितों के निये प्रयोग नहीं कर सकता। चूँकि उसकी राजनैतिक गुलामी का हथियार कभी उसकी मूक्ति का यंत्र नहीं बन सकता" (मार्क्स, फ्रांस में गृह युद्ध)

सर्वहारा चुनौती के मुकाबले पूँजीवाद का खूनी क्रोध  

शासक वर्ग यह कभी स्वीकार नहीं कर सकता कि मजदूर वर्ग कभी उसकी व्यवस्था को चुनौती देने का साहस करे। यही कारण था कि जब उसने हथियारों के बल पेरिस पर पुनः कब्जा किया तब पूँजीपति वर्ग का लक्ष्य राजधानी पर अपनी सत्ता की सिर्फ पुर्नस्थापना ही नहीं था बल्कि वह था मजदूर वर्ग पर ऐसा हत्याकाण्ड बरपा करना जो उसके लिए कभी न भूलने वाला सबक हो। कम्यून के दमन में शासक वर्ग का क्रोंधोन्माद सर्वहारा द्वारा उसमें उत्प्रेरित भय के बराबर था। अप्रैल के शुरू से ही थियरे और बिस्मार्क ने, जिनकी सेनाओं का पेरिस के उत्तरी और पूर्वी किलों पर कब्जा था, कम्यून को कुचलने के लिये अपना "पवित्र गठबन्धन" गठित करना शुरू किया। तब भी, पूँजीपति वर्ग ने अपने वर्गीय दुश्मन से लडने के लिये अपने राष्ट्रीय अंतर्विरोधों को पृष्ठ भूमि में डालने के कौशल का प्रदर्शन किया। फ्रांस और प्रशा की सेनाओं के बीच इस घनिष्ठ गठजोड के कारण राजधानी को पूरी तरह से धेर लिया गया। 7 अप्रैल को वर्साई की सेनाओं ने पेरिस के पश्चिमी किले पर कब्जा कर लिया। राष्ट्रीय सुरक्षा गार्डों की ओर से तगडे  प्रतिरोध के कारण थियरे ने बिस्मार्क को सेडान में बन्दी बनाए गये फ्रांस के 60,000 सैनिकों को रिहा करने के लिये राज़ी कर लिया। और मई के पश्चात से यही सैनिक वर्साई की सरकार के लिये संख्यात्मक शक्ति बने। मई के पहले पखवाडे में दक्षिणी मोर्चा धराशायी हो गया। प्रशा की सेनाओं द्वारा खोली दरार की बदौलत, 21 मई को जनरल गैलीफैट की कमान में वर्साई सेनाओं ने उत्तरी और पूर्वी पेरिस में प्रवेश किया। आठ दिनों तक मजदूर वर्गीय जिलों में भयंकर लडाई जारी रही; कम्यून के अंतिम लडाके बैलेविली और मैलिनमौन्टैन्ट की पहाडियो पर मक्खियों की भांति कट कर गिरते गये। कम्युनार्डों के खूनी दमन का अंत यहीं नहीं हुआ। शासक वर्ग अभी पिटे हुए और निहत्थे सर्वहारा पर, उस "दुष्ट कचरे" पर जिसने उसके वर्गीय प्रभुत्व को चुनौती देने की हिमाकत की थी, प्रति-हिंसा बरपा कर   अपनी जीत का मज़ा चखना चाहता था। जबकि बिस्मार्क की सैनाओं को भगोडों को बन्दी बनाने का आदेश दिया गया, गैलीफेट के गिराहों ने अरक्षित स्त्री, पुरुष और बच्चों का विशाल नरसंहार अंज़ाम दिया: उन्होंने फायरिंग दस्तों और मशीन गनों से निर्दयतया पूर्वक उनकी हत्याएँ की।

"खूनी हफ्ते" का अन्त एक घिनौने कत्ले आम में हुआ: 20,000 से अधिक लोग मारे गये। इसके बाद, आम गिरफ्तारियों का, "मिसाल कायम करने के लिये'' बन्दियों के कत्ल का, ज़बरी-श्रम शिविरों के लिये देश निकाले का दौर चला, सैकडों बच्चे कथित "सुधार गृहों" में धकेल दिये गये। 

शासक वर्ग ने फिर से अपनी हुकूमत इस प्राकार स्थापित की। उसने दिखा दिया कि जब उसकी वर्गीय तानाशाही को चुनौती दी जाती है तो उसकी प्रतिक्रिया क्या होती है। न ही पूँजीपति वर्ग के केवल घोर प्रतिक्रियावादी अंशों ने कम्यून को खून में नहीं डुबोया था। यद्यपि उन्होंने सबसे घिनौने कार्य राजशाही सेनाओं पर छोड दिये थे; इन नरसंहारों और दहशत की पूरी जिमेदारी "जनवादी" रिपब्लिकन धड़े पर है, जिसके पास राष्ट्रीय असेम्बली थी और उदारवादी सांसद थे। सर्वहारा  पूँजीवादी जनतंत्र के इन शानदार कृत्यों को कभी नहीं भुला पायेगा। कभी नहीं!

कम्यून को कुचल कर, जिसके चलते प्रथम इन्टरनेशनल लुप्त हो गया, शासक वर्ग ने समस्त दुनियाँ के मजदूरों पर एक हार बरपा की। और यह हार फ्रांस के मजदूर वर्ग के लिये, जो कि 1830 से ही सर्वहारा सघर्षों में अग्रणी भूमिका निभाता चला आ रहा था, विशेषरूप से पीडा दायक थी। फ्रांस का सर्वहारा वर्गीय मुठभेडों की अग्रिम कतारों में मई 1968 तक नही लौट पाया, तब उसकी विशाल जन हडतालों ने, 40 साल की प्रतिक्रांति के बाद, संघर्षों का एक नया परिप्रेक्ष खोला। और यह कोई इत्तफ़ाक नहीं है : थोडे समय के लिये ही सही, वर्ग संधर्षों में अपनी प्रकाश पुंज की भूमिका जिसे वह एक सदी पहले खो चुका था दुबारा हासिल करके, फ्रांस के सर्वहारा ने पूँजीवाद को उखाड फेंकने के मजदूर वर्ग के ऐतिहासिक संघर्षों के इस नये दौर की पूरी तेजस्वता, शक्ति और गहराई की उद्घोषणा की।

पर कम्यून के विपरीत, मई 1968 से शुरू हुआ यह नया ऐतिहासिक काल तब अस्तित्व में आया है जब सर्वहारा क्रांति न सिर्फ संभव है बल्कि, अगर मानवजाति के जीवित रहने की कोई आशा है,  अत्यंत आवश्यक भी है। अपने झूठों, अतीत के क्रांतिकारी तजुर्बे को झुठलाते अपने प्रचार अभियानों से पूँजीपति वर्ग जिस चीज़ को छिपाना चाहता है वह है : सर्वहारा की शक्ति और तेजस्विता तथा आज के संघर्षों के दांव क्या है।

अवरिल (सर्वप्रथम जुलाई 1991 के रिवोल्यूशन इन्टरनेशनल-202 और अगस्त 1991 के वल्र्ड रिवोल्यूशन-146 में प्रकाशित। अब जुलाई 2011 में वल्र्ड रिवोल्यूशन-346 पुन में प्रकाशित