बाबरी मस्जिद का ध्वंस

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दुनिया के मजदूरों एक हो।                            मजदूरों का कोई देश नहीं होता।

मन्दिर-मस्जिद-पंजाब-कश्‍मीर

भारतीय पूँजीवाद की सड़ती काया

इससे पहले कि हम सबका विनाश कर दे, आओ पूँजीवाद का नाश कर दें।

मौत तथा तबाही के काफिले और रथ फिर जगह-जगह महाभारत रचने चल निकले हैं। मन्दिर और मस्जिद के, कार-सेवा और उसे रोकने के नाम पर खून-खराबे तथा मारकाट का सालाना ‘उत्‍सव’ अब नरसंहारों के स्‍थायी तांडव का रूप अख्तियार कर रहा है। पंजाब और कश्‍मीर में लम्‍बे ‘सफल परीक्षणों’ के बाद अब समूचे हिंदोस्‍तान को एक बूचड़खाने में तबदील करने के शासक वरग के प्रयास रंग ला रहे हैं। रही कसर पूरी करने में जी-जान से जुटे हैं शासक वरग के सभी प्रतिद्वन्‍द्धी गुट –हिंदूवादी, मुस्लिमवादी, खालिस्‍तानी, कश्‍मीरी, धर्मनिरपेक्ष-वामपंथी, आरक्षणवादी तथा उसके विरोधी, सब।

आज क्‍यों ऐसा हो रहा है? क्‍यों समूचा समाज तेजी से खौफनाक हिंसा तथा अराजकता के गर्त में डूबता जा रहा है? परंपरागत शासक धड़ो के, राज करने के उनके ‘धर्मनिरपेक्ष’ ‘जनवादी’ तथा ‘समतावादी’ तरीकों – जो खुद भी मजदूर वरग की, शोषितों की छाती पर मूँग दलने के, उसे रौंदने के ही तरीके हैं – के मायाजाल का टाट क्‍यों समेटा जा रहा है? उनकी जगह शासक-मालिक वरग के अत्‍याधिक उन्‍मादी तथा बहशी धड़े मजदूरो–शोषितों की छाती पर कैसे सवार होते जा रहे हैं? क्‍या बात केवल मन्दिर की और केवल मस्जिद की है? क्‍या जड़ में धार्मिक-जातिय-भाषायी कटरवादी विचारों का प्रसार भर है? जिससे उभरने के लिए बस थोड़ी समझदारी की, थोड़ी धर्म-निरपेक्षता की जरुरत है?

नहीं जड़ कही और, कहीं गहरी है। देखने के लिए जरुरत है मन्दिर-मस्जिद फसाद पर गड़ी नज़र को थोड़ा घुमाने की। पंजाब। कश्‍मीर। असम जहाँ मजहब मारकाट का बहाना नहीं। प्रतिद्वंदी शासक गिरोहों द्वारा रचे रक्‍तपात से लथपथ तथा भयभीत श्रीलंका में भी ‘मसला’ न सिरफ धर्म नहीं, वह अब भाषावाद भी नहीं। और मुस्लिम पाकिस्‍तान में, हैदराबाद-कराची, सारा सिंध शासक वरग के प्रतिद्वंदी गुटों की संगीनों के आतंक तले सांस लेता है। सामाजिक ताने-बाने की जानी-अनजानी सब सीवनों को हर जगह नोंचा-फाडा और उधेड़ा जा रहा है और इन फटनों में से अब बाहर झांक-निकल रहे हैं शासक वरग के अत्‍याधिक घिनौने, अभी तक अंधेरों में खड़े ये चेहरे।

शासक वरग में भड़की इस खींचातान, इस मारामारी की जड़ में है मौजूदा पूँजीवादी समाज के आर्थिक आधारों का लम्‍बे समय से चला आ रहा टूटन। मजदूर वरग तथा शोषित आबादी इस टूटन को अपनी आर्थिक बरबादी में महसूस कर रही है। इस बरबादी ने ही पढ़े-लिखे शहरी-देहाती कंगालों को एक खतरनाक पेट्रोल डम्‍प में बदल दिया है जो अभी अगस्‍त में ही ‘आरक्षण’ की चिंगारी से झुलस और फट उठा था। स्‍वयं शासक वरग – अपनी सारी पारटियों तथा सलाहकारों समेत – पिछले बरसों से, आज तो और भी, इस आर्थिक विनाश से बौखलाया हुआ है। अर्थव्‍यवस्‍था का पहले ही करजों से कचूमर निकल रखा है और शासक वरग फिर झोली फैलाए दुनिया में निकल पड़ा है क्‍योंकि, स्‍वयं उनके मुताबिक, उसकी जेब में अब एक महीने के खरीद फरोख्‍त के भी पैसे नहीं। धनबाद तथा मेहम के माफिया गिरोहों के सरगना, मौजूदा प्रधानमंत्री श्री चंद्रशेखर ने कुर्सी पर झपटते ही घोषणा कर दी है – कड़की (साफ है, मजदूरों-मेहनतकशों के लिए) हमारा मूलमंत्र होगा।

पर यह आर्थिक विनाश किसी एक शासक गुट की कुनीतियों का नतीजा नहीं। इनके शरीक पाकिस्‍तान की भी हालत इन्‍हीं जैसी है। लातिनी अमेरिका में आर्थिक ध्‍वंस ने पिछले बरस अनेकों अमेरिकी माडल देशो में खूनी दंगों तथा सामाजिक विस्‍फोटो को भड़काया। आर्थिक पतन ने एक महाशक्ति के रूप में रूसी मालिक वरग की कमरतोड़ दी है। इसने दशकों से रूसी गुट में स्‍थापित तथा मजदूरों का रक्‍त पीती स्‍तालिनवादी पूँजीवादी व्‍यवस्‍थाओं को – जिन्‍हें वामपंथी ‘समाजवाद’ कहते थे – ध्‍वस्‍त कर दिया है। अब दुनिया की एकमात्र महाशक्ति अमेरिका के शासक वरग के सरगना बुश ने अपने यहाँ आर्थिक ठहराव की घोषणा की है।

नहीं, चौतरफी मारकाट की जड़ में पूँजीवाद का यह चौतरफा आर्थिक विनाश किन्‍हीं कुनीतियों का फल नहीं। असल में, खुद पूँजीवाद ही आज एक जबरन जिंदा कुनीति बन गया है। उसके, पूँजीवाद के, सारे भारतीय-अमेरिकी-रूसी माडल सामाजिक विकास के गले में फँदा बन गए है। वह, पूँजीवाद, पतनशील तथा जानलेवा रूप से बिमार हो गया है। मार्क्‍स ने दरसाया था कि जानलेवा रूप से बीमार-पतनशील किसी समाज व्‍यवस्‍था को अगर वक्‍त रहते मिटा नहीं दिया जाता, उसे अगर बदल नहीं दिया जाता तो उस बीमार समाज की काया, उसका तानाबाना, सड़ने लगता है। शोषित वरगों का जीवन असहनीय बदहाली में, मानवीय संबंधों की टूटन-सड़न में, नैतिक सांस्‍कृतिक पतन में, चौतरफी मारकाट में तथा शासक वरग की सबसे अंधेरी विचारधाराओं के गर्त में धकेला जाने लगता है। पतनशील पूँजीवाद में आज यही हो रहा है – भारत में, और सारी दुनिया में। पूँजीवाद की काया का यह सड़न ही शासक वरग के प्रतिद्वंदी खूनी गुटों को, अन्‍धेरे के इन जीवों को जन्‍म दे रहा है। मारकाट के उन्‍मादी अभियानों द्वारा वे एक दूसरे को मात देते एक दूसरे के हिस्‍से पर हाथ साफ करते हैं। मन्दिर-मस्जिद के या सिख/कश्‍मीरी/असमी ‘आजादी’ के इन उन्‍मादी अभियानों द्वारा वे मजदूरों-शोषितों को बांटने का, उन्‍हें इस सड़ती व्‍यवस्‍था के खिलाफ जाने से रोकने और उसकी नीवों को पुख्‍ता करने का भी प्रयास कर रहे है। पर इन गुटों के ये अभियान, यह गुत्‍थम-गुत्‍था बर्बरता की ओर उसके धँसाव को तेज ही करेगी। ये ‘ताकतें’ जो दशकों से इस व्‍यवस्‍था की प्रबन्‍धक तथा पहरेदार हैं, बिखर ही इसलिए रही है क्‍योंकि पूँजीवादी व्‍यवस्‍था, उनके पैरों तले की यह जमीन, धसक रही है। बढ़ती हिंसा तथा मारकाट द्वारा ही अब इसे बचाए रखा जा सकता है। विकल्‍प है बर्बरता या मजदूर क्रान्ति।

केवल मजदूर क्रान्ति से ही सडांध मारती इस लाश को, पूँजीवाद को, दफन किया जा सकता है। केवल मजदूर क्रान्ति से ही पूँजी के इन नरभक्षी गिरोहों को बोतलबन्‍द करने का, समाजवाद के निर्माण का काम हाथ में लिया जा सकता है। यह काम केवल मजदूर वरग, तथा शोषित ही कर सकते है और इसे आज ही शुरु करना होगा। इस शुरुआत का पहला कदम है कि शासक वरग द्वारा बरसाये आर्थिक सख्‍ती के कोडों के समक्ष हम मजदूर घुटने नहीं टेकें। मन्दिर-मस्जिद वालों की कुचालों में नहीं आएं और अपने जीवन हालातों की रक्षा के लिए शासक वरग के खिलाफ अपना वर्ग संघर्ष छेड़ें। जैसे राजस्‍थान के 40000 ट्रान्‍सपोर्ट मजदूरों ने 30 अक्‍तूबर से पहले तब किया जब शासक गिरोह जयपुर में मजहवी नरसंहार रच रहे थे। जैसे ये ट्रांसपोर्ट मजदूर तथा संघर्षरत 4.5 लाख दूरसंचार मज़दूर आज कर रहे है। धर्म-जाति-भाषा के विभाजनों पर पार पाकर, ऐसे संघर्षों को बढ़ाकर, चारों और फैलाकर, एकीकृत करके और उनका संचालन अपनी आम सभाओं द्वारा स्‍वयं अपने हाथों में लेकर – इस प्रक्रिया से हम अपने आपको, मजदूर वरग को शासक वरग के खिलाफ एक जुझारु ताकत के रूप में उभार सकते है। इस प्रक्रिया से तथा मजदूर वरग की पुरानी विरासत से सबक लेकर, सचेत और संगठित होकर हम अपने आपको, मजदूर वरग को ऐसी इंकलाबी ताकत में बदल सकते हैं जो पूँजीवादी बर्बरता का, इस मारकाट का अन्‍त कर सके। खुशहाली तथा भाईचारे भरे समाज का निर्माण कर सके। इस काम को हाथ में लेने में दिलचस्‍पी रखने वाले सब मजदूरों को विचार विमर्श के लिए एक दूसरे के तथा हमारे साथ सम्‍पर्क साधना चाहिए।

कम्‍युनिस्‍ट इंटरनेशनलिस्‍ट,  25 नवंबर 1990, सम्‍पर्क -- पोस्‍ट बाक्‍स नं- 25, एनआईटी, फरीदाबाद, हरियाणा

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