गुडगाँव के ऑटो मज़दूरों का आंदोलन

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03 अक्तूबर 2009 से रीको ऑटो फैक्ट्री गुड़गाँव के मजदूर अपनी माँगों को लेकर हड़ताल पर थे। 18 अक्तूबर 2009 रविवार की शाम मजदूरों की हड़ताल तुड़वाने फैक्ट्री के सुरक्षागार्ड व मालिकों ने भाड़े के गुण्डों को बुलाकर हड़ताली मजदूरों पर कातिलाना हमला किया जिसमें सुरक्षा में लगी पुलिस फायरिंग में गोली लगने से एक मजदूर की मौत हो गई और 40 अन्य घायल हो गये। हड़ताली मजदूरों पर फायरिंग की इस घटना से मानेसर औद्योगिक क्षेत्र में काम करने वाले लगभग 30 हजार उन मजदूरों में जबरदस्त गुस्से की लहर दौड़ गई जो पिछले कई महीनों से अपने हकों की खातिर फैक्ट्री मालिकों के खिलाफ आंदोलन छेड़े हुए हैं। रीको ऑटो के हड़ताली मजदूरों पर हुए कातिलाना हमले के विरोध में 20 अक्तूबर 2009 को गुडगाँव व मानेसर के उ़द्योग मजदूरों ने काम पूरी तरह बंद रखा। हालांकि मजदूर संगठनों द्वारा हड़ताल तो वापस ले ली गई लेकिन प्रबंधकों के खिलाफ आंदोलन चला रहे विभिन्न फैक्ट्री मजदूरों द्वारा इस घटना के विरोध में काम बंद रखने का आह्वान एक अहम और दिलचस्प घटना है। मंगलवार सुबह से ही रीको ऑटो तथा सनबीम कास्टिंग के सताये मजदूरों ने राष्ट्रीय राजमार्ग-8 पर जबरदस्त विरोध प्रदर्शन किया और उसे पूरी तरह ठप कर दिया। इस विरोध प्रदर्शन में उनके साथ सोना कोयो स्टीयरिंग सिस्टम्स, टी.आई.मैटल्स, ल्यूमैक्स इंडस्ट्रीज, बजाज व हीरो होंडा मोटर्स लिमिटेड के मजदूर समूह भी शामिल थे। स्थानीय प्रशासन की आधिकारिक जानकारी के मुताबिक गुड़गाँव मानेसर की 70 ऑटो स्पेयर पार्ट निर्माता कंपनियों के करीब एक लाख मजदूरों ने इस एक दिन की हड़ताल में हिस्सा लिया। भले ही 21 अक्तूबर 2009 को ज्यादातर कंपनियों के मजदूर अपने काम पर आ गये और उनका आंदोलन आगे नहीं बढ़ा लेकिन यह काबिलेगौर है कि इस तरह की घटनाएँ भारत के मजदूर आंदोलन में एक अहम मुकाम और मालिकों के शोषण के खिलाफ मजदूरों के प्रतिरोध की जबरदस्त दस्तक है।

यह भारत के अलग-अलग हिस्सों में फैल रही वर्ग संघर्ष की चेतना का ही नतीजा है। भला जुलाई 2005 में गुड़गाँव मानेसर के हीरो होंडा मजदूरों के जुझारू संघर्ष को कोई भुला सकता है? जिसके बाद मजदूर आंदोलनों का क्रमिक दौर तो हम देखते ही हैं साथ ही हम उन्हें इस कुव्वत से भी लैस पाते हैं कि मालिकों सेअपने मसले वे खुद निपटाने और हकों की लड़ाई खुद लड़ने में समर्थ हैं।

आर्थिक उभार (विकास) के कड़वे फल

सन् 2007 के पहले के तमाम साल भारत की अर्थव्यवस्था के तीव्र विकास के वर्ष होने के बावजूद वर्किंग क्लास की दशा बेहतर होने की बजाय बद से बदतर ही हुई है। रोजगार छिन जाने की चिंता और डर एक कटु सच्चाई है। तीव्र आर्थिक विकास एवं अर्थव्यवस्था में बढ़ोत्तरी के बावजूद फैक्ट्री मालिकों द्वारा बड़े पैमाने पर स्थाई मजदूरों को हटाकर उनकी जगह गैर कानूनी ढंग से कम मजदूरी पर ठेका मजदूरों को काम पर रखा जा रहा है। जबकि हीरो होंडा, मारुति और हुंडई सरीखी कंपनियों का उत्पादन इस दौरान कई गुना बढ़ा है। हीरो होंडा का उत्पादन 2 लाख गाड़ियों से बढ़कर 36 लाख तक जा पहुँचा है लेकिन इसके विपरीत स्थाई रोजगार में भारी कमी हुई है और कहीं-कहीं तो 'जगह' ही खत्म कर दी गई है। उनकी जगह 'अस्थाई' मजदूरों की भर्ती मालिकों ने कर डाली है। देश की हर कंपनी की यही कहानी है। मुनाफा कमाने की गलाकाट होड़ में लगी देश की ये ऑटो मोबाइल व पुर्जा कंपनियाँ मजदूरों पर कातिलाना हमला करने से भी बाज नहीं आ रहीं। मुनाफे ने इनको अंधा बना दिया है लिहाजा मजदूरों का बुरी तरह दमन करने पर ये उतारू हैं।

इस सदी के प्रारंभिक वर्ष वर्किंग क्लास के लिए बड़े कठिनाई भरे रहे हैं और संघर्ष की राह काँटों भरी। वर्किंग क्लास के खिलाफ मालिकों के जुल्म-ज्यादती व हिंसा दुनिया का एक कड़वा सच है। सन् 2007 के आर्थिक विध्वंस ने इस कोढ़ में खाज का काम किया है, यानी हालात और बद से बदतर हुए हैं। सभी क्षेत्रों में बड़ी तादाद में रोजगार कम हुआ है। वेतन में कटौती के साथ-साथ उनकी सुविधाओं पर कुल्हाड़ी चली है। उधर रोजमर्रा खाने-पीने की चीजों के दाम सारी हदें पार कर गये हैं। आटा, दाल, चीनी व सब्जियों के दाम कई गुना बढ़ गये हैं। गत दो वर्ष से हम ऐसा ही देख रहे हैं और यह प्रभाव मौसमी नहीं है। एक तरफ तो जरूरत की चीजों के दाम आसमान छू रहे हैं दूसरी तरफ उनकी मजदूरी में निरंतर कमी होते जाने से उनका जीवन यापन दूभर हो गया है।

आज भले ही मालिक (उद्योगपति) आर्थिक मंदी के खत्म होने और भारतीय अर्थव्यवस्था के पुनः पटरी पर आने व वृद्धि की बात कर रहे हैं लेकिन मजदूरों की हालत में कोई बदलाव नहीं आया है। उल्टे स्थाई रोजगार की जगह कैज्वल लेबर (दिहाड़ी मजदूर) से काम लेने से रोजगार और मजूरी दोनों घटे हैं।

वर्ग संघर्ष का विकास

मजदूरों ने अपने आकाओं के खिलाफ जो प्रतिरोध हाल के वर्षों में खड़ा किया है उससे यह उन्हें अच्छी तरह समझ में आ गया है कि एकजुट होकर जब तक वे लड़ना नहीं सीखेंगे मालिक इसी तरह उनका दमन व उत्पीड़न करते रहेंगे। इस समझ के नतीजे पिछले कुछ वर्षों के मजदूर आंदोलनों में साफ दिखाई दिये हैं, जब मालिकों को उनके सामने झुकना पड़ा है। दुनिया में उठा वर्ग-संघर्ष का उभार वर्किंग क्लास की संगठित चेतना का ही नतीजा है। इसके असंख्य उदाहरण दुनिया के हर देश में देखने को मिल जाएँगे। जिसमें कोरिया की पाँचवें नंबर की सबसे बड़ी कार निर्माण कंपनी सेंडयोंड (Ssangyong) के प्लांट पर जुलाई 2009 में दो महीने से अधिक समय तक मजदूर वर्ग ने कब्जा कर रखा था। इसी तरह अप्रैल एवं जुलाई 2009 में ब्रिटेन की दो कार कंपनियों विस्टियोन (Visteon) और वेस्तास विंडसिस्टम्स (Vestas Windsystems) को मजदूरों ने अपने कब्जे में कर लिया। अक्तूबर 2009 की ब्रिटेªन के पोस्टल कर्मियों की हड़ताल मशहूर है। मजदूर वर्ग के ऐसे ही आंदोलन जर्मनी, तुर्की, मिश्र, चीन व बांग्लादेश में भी हुए हैं।

भारत के मजदूर वर्ग का आंदोलन

वर्तमान आर्थिक संकट और मालिकों के जुल्म दोनों ही मजदूर वर्ग के बुलंद इरादे व हौंसले को झुका पाने में नाकाम रहे हैं, उल्टे इन अग्नि परीक्षाओं से गुजर कर वे और अधिक मजबूत हो गये हैं तभी तो उनमें इनसे लड़ने की कुव्वत व जज्वा हिलोरे लेता दिखता है। जिसमें सरकारी क्षेत्र के कर्मचारियों की हड़ताल बहुत महत्वपूर्ण है। बैंक कर्मियों की देशव्यापी हड़ताल तो हुई ही, जनवरी 2009 में देशभर के तेल कर्मियों, एयर इंडिया के पायलटों की हड़ताल तथा एल.आई.सी. के डेढ़ लाख व प.बंगाल के ढाई लाख एवं बिहार राज्य के सरकारी कर्मचारियों की हड़तालें मजदूर वर्ग की विकसित होती वर्गीय चेतना व भविष्य के मजदूर आंदोलनों के दिशा संकेत हैं। इन हड़तालों में कुछ तो बड़ी टकराव भरी रही हैं और सरकार ने सख्ती से हड़तालियों के आंदोलन को दबाने की कोशिश की है। तेल कर्मचारियों की सन2009 की हड़ताल को तोड़ने राज्य सरकार 'एस्मा' कानून का बेजा इस्तेमाल करने से भी नहीं चूकी और कर्मचारियों का दमन किया है। बिहार राज्य के कर्मचारियों की हड़ताल के प्रति भी सरकार ने यही भूमिका अख्तियार की जबकि तेल कर्मियों की दमन कार्यवाही से सरकार इस डर से बैकफुट पर आ गई कि कहीं हड़ताल दूसरे पब्लिक सैक्टर-संस्थानों में न फैल जाए।

पब्लिक सैक्टर के अपने साथियों की भाँति दूसरे बहुत से क्षेत्रों के मजदूरों ने भी अपनी माँगों से एक इंच भी टस से मस न होकर सरकार को मुँहतोड़ जवाब दिया है। जिसमें गुजरात के हीरा मजदूरों का आंदोलन सबसे अहम और आँखें खोल देने वाली मिसाल है। हीरा मजदूरों के आंदोलन की चिंगारी ने जंगल की आग का जो रूप, सूरत अहमदाबाद, राजकोट व अमरेली आदि में अख्तियार किया, उसे काबू में लाने में सरकार के हाथ-पाँव फूल गये लिहाजा भारी पुलिस बल का सहारा उसे लेना पड़ा। देश के सब बड़े ऑटोमोबिल गढ़ तमिलनाडु, महाराष्ट्र, गुड़गाँव व मानेसर में ये घटनाएँ आम हैं जो बताता है कि मजदूर अपने रोजगार, बेहतर जीवन यापन व इंसानी हकों के लिए किसी भी हद से गुजरने के लिये तैयार है। मालिकों की नाइंसाफी के खिलाफ इंसानी हकों की जिद पर वे अडिग, अटल और दृढ़ निश्चय है।

चैन्नई में भारत की दूसरी सबसे बड़ी कार निर्माता हुंडई मोटर्स के मजदूर बेहतर मजदूरी के लिए अप्रैल, मई व जुलाई 2009 में हड़ताल कर चुके हैं। मालिकों ने मजदूरों के आंदोलन को दबाने की पुरजोर कोशिश की। भारत भर की अपनी फैक्ट्रियों को बंद करने की बंदर भभकी भी कंपनी देती रही है। कोयंबतूर की ऑटो पार्ट निर्माता कंपनी 'प्रिकोल इंडिया' के मजदूर भी पिछले दो साल से मालिकों द्वारा स्थाई मजदूरों की छुट्टी करने और उनकी जगह ठेका या अस्थाई-दिहाड़ी मजदूरों से काम लेने के खिलाफ आंदोलन कर रहे हैं। इस आंदोलन ने तब हिंसक रूप ले लिया जब सितंबर 2009 में प्रबंधकों ने 52 स्थाई मजदूरों की छुट्टी करते हुए उनकी जगह अनियत दिहाड़ी 'कैज्वल' मजदूरों की भर्ती कर डाली। मालिक व मजदूरों के बीच 22 सितंबर 2009 को हुए इस खूनी टकराव में 'प्रिकोल इंडिया' के वरिष्ठ प्रबंधक को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा। इसी समय तमिलनाडु की एम.आर.एफ.टायर्स और नोकिया कंपनियों के मजदूरों और मालिकों के बीच संघर्ष की घटनाएँ अहम हैं। बेहतर मजदूरी की माँग में महाराष्ट्र के नासिक की 'महिंद्रा एण्ड महिंद्रा' के मजदूरों को मई 2009 में हड़ताल पर जाना पड़ा। पुणे की क्यूमिन्स इण्डिया (Cummins India) तथा बॉशस (Bosch) की उत्पादन इकाइयों के मजदूरों को भी बेहतर मजदूरी और अनियतकालीन (casualisation) मजदूरों को काम पर रखने के खिलाफ 15 और 25 सितंबर 2009 को हड़ताल करनी पड़ी।

मजदूर आंदोलनों में इज़ाफा यानी विकसित होती वर्गीय चेतना

आज हम देखते हैं कि बड़ी संख्या में मजदूर अपने मालिकों के हमलों का जवाब देने सीधे दो-दो हाथ करने को तैयार हैं। देशभर में तमाम जगह मजदूर आंदोलन की घटनाओं में इजाफा साफ तौर पर मजदूर आंदोलन की आगामी संभावनाओं और उसके विस्तार पाते जाने की भविष्यवाणी है। गुजरात के हीरा मजदूरों की सामूहिक हड़ताल इसकी एक जीती जागती मिसाल है। ऐसा ही हम तमिलनाडु, पुणे व नासिक में देखते हैं जहाँ के ऑटो मजदूरों ने मालिकों की मनमानी के खिलाफ एकजुट होकर सफल हड़ताल को अंजाम दिया। इस दौरान ऐसे भी बहुतेरे मौके आये हैं जब मजदूर वर्ग से घबराकर बुर्जुआजी ने बचाव में दमन से कदम वापस खींचे हैं। घटनाओं (आंदोलन) का बार-बार होना बताया है कि सभी क्षेत्रों के मजदूर, मालिकों द्वारा सताये जा रहे हैं। घटनाओं में इज़ाफा दर इज़ाफा उनके इस दमन व उत्पीड़न की उपज है। गुजरात राज्य के हीरा मजदूरों की सामूहिक हड़ताल इसकी एक जीती जागती मिसाल है। ऐसा ही हम तमिलनाडु, पुणे और नासिक में देखते ही जहाँ की ऑटोमोबाइल कंपनी के मजदूरों ने मालिकों की मनमानी के खिलाफ एकजुट होकर सफल हड़ताल को अंजाम दिया। ऐसे भी मौके आये हैं जब मजदूर वर्ग के आंदोलन से डरकर बुर्जुआजी ने बचाव की मुद्रा में दमन से कदम वापस खींचे हैं। मजदूर असंतोष एवं आंदोलनों की घटनाओं में इजाफा दर इजाफा बताया है कि सभी क्षेत्रेों के मजदूर, मालिकों द्वारा बुरी तरह सताये जा रहे हैं।

गुड़गाँव-मानेसर के फैक्ट्री मजदूरों के अलावा अलग-अलग फैक्ट्रियों के मजदूर  भी अपने मालिकों के जुल्म के खिलाफ संघर्ष छेड़े हुए हैं। होंडा मोटरसाइकिल के मजदूर कितने ही महीने से बेहतर मजदूरी के लिए आंदोलन कर रहे हैं साथ ही ठेका मजदूरों को खत्म करने की माँग पर डटे हुए हैं। प्रबंधकों के अनुसार मजदूरों के इस आंदोलन ने उत्पादन में 50 फीसदी की गिरावट ला दी है जिससे नये उत्पादन का रास्ता भी बंद हो गया। इसीलिए मजदूरों को डराने-धमकाने के लिए होंडा मोटरसाइकिल के प्रबंधकों ने 10 अक्टूबर 2009 को धमकी भरा फरमान जारी किया कि भारत में वह अपनी उत्पादन इकाइयाँ या तो बंद कर देगा या फिर देश के किसी दूसरे हिस्से में ले जाएगा। रीको ऑटो कंपनी के ढाई हजार मजदूर भी अपने 16 साथियों को नौकरी से निकाले जाने और बेहतर मजदूरी के लिए सितंबर 2009 से आंदोलन पर थे। सनबीम कास्टिंग के एक हजार मजदूर भी बेहतर मजदूरी की माँग में 03 अक्टूबर 2009 से आंदोलन पर थे। टी.आई.मैटल, माइक्रोटेक, एफ.सी.सी., रीको, सत्यम ऑटो तथा अन्य बहुत सी कंपनियों के लगभग 25 हजार मजदूर हड़ताल पर भले ही न हों लेकिन अपनी माँगों के लिए सन 2009 से वे बराबर आंदोलन कर रहे हैं।

बिजनेस लाइन (Business Line) पात्रिका की 02 अक्तूबर 2009 की एक रिपोर्ट के मुताबिक, ''गुड़गाँव-मानेसर क्षेत्र की सहायक ऑटो उत्पादन इकाइयों के कुल 25 से 30 हजार मजदूरों के सप्ताह में 6 दिन आंदोलन पर रहने के कारण उत्पादन इकाइयों को पुर्जों की आपूर्ति न होने से उत्पादन बुरी तरह प्रभावित हो रहा है।'' अपने आकाओं की चिंता में परेशान एकनॉमिक्स टाइम्स, 11 अक्तूबर 2009 को अपनी वेबसाइट में खिलता है ''गुड़गाँव-मानेसर बैल्ट में घड़ी-घड़ी उठने वाली मजदूर समस्याएँ सभी उद्योगों के लिए सचमुच चिंता का विषय हैं। मजदूरों की समस्याओं के चलते हीरो होंडा और मारुति-सुजूकी जैसी बड़ी कंपनियों की आपूर्ति बुरी तरह प्रभावित हुई है।''

सच्चाई है कि इधर अनेक कंपनियों के मजदूर हड़ताल पर हैं उधर हजारों की संख्या में मजदूर अपना आंदोलन खत्म करने के लिए तैयार नहीं हैं। ये हालात वास्तव में मजदूरों की लड़ाई को और आगे की तरफ ले जाने के साथ-साथ उनमें पैदा होती वर्गीय एकता की प्रबल संभावनाओं का आइना है। इसी वर्गीय एकता के बूते अपने मालिकों को मुँहतोड़ जवाब देने की कुव्वत व ताकत का हौंसला उनमें बुलंद है। इसी आशंका से बुर्जुआजी भयभीत हैं और मजदूर यूनियनें भी इस स्थिति से बचने की फिराक में रहती हैं यानी प्रायः मालिकों की तलवाचाटू और मजदूर वर्ग के हितों की दुश्मन वे रही हैं। गुड़गाँव के मजदूर आंदोलन में रीको कंपनी के एक मजदूर की मौत के मामले में यूनियनों की भूमिका यकीनन वर्किंग क्लास के दुश्मन की रही हैं और मजदूर वर्ग में विस्तार पाती वर्गीय एकता की राह में ये यूनियन सबसे बड़ी रुकावट हैं। मजदूर आंदोलनों की भ्रूण हत्या करने पर ये आमादा हैं। गुड़गाँव में एक दिन की कार्यवाही के बहाने यूनियनों की पुरजोर कोशिश रही कि मजदूरों में उठी वर्गीय एकता की चेतना और भाईचारे को किस तरह खत्म किया जाए। बावजूद इसके 20 अक्तूबर को हुई मजदूरों की हड़ताल उनकी वर्गीय एकता व भाईचारे का अनूठा प्रदर्शन था जिसमें लगभग एक लाख मजदूर शामिल हुए। यह अनूठा प्रदर्शन उनके फौलादी इरादों व बुलंद हौंसले को बयान करने के साथ-साथ बुर्जुआजी से दो-दोे हाथ करने की उनकी दिलेरी को भी दिखाता है।

दूसरी तरफ बेहतर मजदूरी और रोजगार छिन जाने के खिलाफ आंदोलन कर रहे गुड़गाँव की हयुंडई, प्रिकोल, एम एण्ड एम तथा अन्य कंपनियों के मजदूर आंदोलनों को यूनियनों द्वारा नाकाम करने की पुरजोर कोशिशें हुई हैं और इन आंदोलनों को उन्होंने (यूनियन) अपने अस्तित्व की रक्षा और फौरी स्वार्थ के लिये बराबर इस्तेमाल किया है। इसमें कोई दो राय नहीं कि वर्गीय संघर्ष के विकास का अपना एक गति विज्ञान (dynamic) है लेकिन इस गति (dynamic) का असलियत में रूपांतरण होने के लिए ज़रूरी है कि मजदूर यूनियनो की वर्किंक क्लास विरोधी साजिशों को भलीभाँति समझें और बिना किसी मध्यस्थ  के आंदोलन की बागडोर खुद थामें। समय का तकाजा है कि परिवर्तन के इच्छुक क्राँतिकारी मजदूरों की मदद कर पाएँ ताकि वह संघर्ष करने की क्षमता और शक्ति का अंदाजा लग सके और मजदूर यूनियनों की सर्वहारा वर्ग विरोधी चालों का भंडाफोड़ कर सकें।                                                    

एएम, अक्टूबर 2009