कश्मीर - राष्ट्रवादी टकरावों के बावजूद्, साढ़े चार लाख मजदूरों द्वारा स्थापित अपना वर्ग अस्तित्व

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कई दशकों से जम्मू और कश्मीर में पूंजीपति वर्ग के दो परस्पर विरोधी गिरोह एक ओर  "राष्ट्रीय एकता'' के नाम पर तो दूसरी ओर, कश्मीर की "आजादी"' के  नाम पर शोषित अवाम का खून बहाने में व्यस्त हैं। इसने "गुलाबों की इस घाटी" को मौत, तबाही, कंगाली और अफरातफरी की घाटी में बदल दिया है। सैकडों, हजार लोग हिंसक रूप से उखड फेंके गये तथा कश्मीर से भागने को मज़बूर किये गये, या तो कश्मीरी हिंदुओं के खिलाफ निर्देशित जातीय शुद्धीकरण की प्रक्रिया द्वारा अथवा जीविका की तलाश में कश्मीर से पलायन को मजबूर आतंकित मुस्लिम के रुप में। अलगाववादियों और भारतीय राज्य ने हमेशा ही मजदूरों के अस्तित्व और उसके संघर्षों को इस भ्रमजाल के जरिये नकारने की कोशिश की कि कश्मीर में इन खूनी गिरोहों द्वारा लडे जाने वाला संघर्ष ही एकमात्र संधर्ष है।

और फिर भी, कश्मीर में मजदूर वर्ग ने पिछले कुछ वर्षों में बडी द्रढता के साथ उभरने की कोशिश की है और कई सारी बडी हडतालें व संघर्ष किये हैं ।

मजदूरों ने अपने वर्गीय हितों के लिये लडने का प्रयास किया

कश्मीर में मजदूरों के वर्तमान संघर्षों के चक्र की जडें 2008 की उनकी मुठभेडों में खोजी जा सकती हैं। मार्च 2008 में, राज्य सरकार की संस्था जेकेऐसआरटीसी (जम्मू और कश्मीर  राज्य सडक परिवहन निगम) ने घोषणा की कि मजदूरों की संख्या अधिक होने के कारण निगम घाटे में चल रहा है। सरकार ने मजदूर कम करने की अपनी मंशा जाहिर कर दी और वीआरएस (स्वैच्छिक अवकाश योजना) की घोषणा कर दी। लेकिन दमनकारी हथकंडे अपनाये जाने के वाबजूद भी गिने चुने ही वीआरएस के लिये आगे आये। सरकार ने घोषणा की कि वह संचित कोला (जीवन निर्वाह भत्ता) और अन्य पिछले वेतन का भुगतान नहीं कर सकती। अपनी रोजी रोटी पर हो रहे हमलों तथा शासकों द्वारा पिछले वेतन के भुगतान की मनाही कर दिये जाने की स्थिति में मजदूरों ने अपना संघर्ष विकसित करने का प्रयास किया। मजदूरों के गुस्से को भांपते हुये ट्रांसपोर्ट युनियनों ने संघर्ष को दो घंटे की हडताल, सरकारी दफ्तरों तक मार्च आदि रसमी संघर्षों  में बदल कर मजदूरों के गुस्से को ठंडा करने की कोशिश की। उस समय मैनेजमेंट तथा यूनियनें, प्रथम द्वारा मज़दूरों की मांगों पर विचार करने का "वादा" कर के तथा दूसरे द्वार उन वादों पर "भरोसा'' करने का स्वांग रच कर, मजदूरो के गुस्से पर ढक्कन रखने में सफल हो गये।

एक वर्ष से अधिक समय के पश्चात, नौकरियां जाने का खतरा अधिक बढ गया था। इस अवधि में शासकों के वादों का कोई नतीजा नहीं निकला। उन्हें आगे भी कई महीनों की पगार का भुगतान नहीं किया गया। उनका पिछला वेतन संचित होता गया। आर्थिक स्थिति और ज्यादा खराब हो गयी तथा "खाद्यान मुद्रास्फीति" 16 प्रतिशत से अधिक पर टिकी थी। इससे ट्रांसपोर्ट मजदूरों में गुस्से और लडाकूपन की एक और लहर पैदा हुयी। वर्ष 2009 के मध्य में जेकेऐसआरटीसी के मजदूरों द्वारा कई सारी लघु हडतालें  और प्रदर्शन आयोजित किये गये। किन्तु जे के ऐस आर टी सी के मजदूर अपने आन्दोलन को एकजुट करने तथा उसे और अधिक विस्तार देने में असफल रहे। वे राज्य कर्मचारियों के अन्य भागों से अलग थलग पड गये। युनियनें फिर एक बार, निरर्थक और नाटकीय कर्मकान्डों के माध्यम से मजदुरों के निश्चय को कम करने तथा उनके गुस्से को ढीला करने में सफल हो गयीं। उदाहरण के तौर पर, हडतालों में लडाकूपन पैदा करने के स्थान पर उन्होंने मजदूरों को अपने बच्चों के हाथों में "हमारे पापा को  वेतन दो'' की तख्तियां दे कर प्रदर्शन में शामिल होने को कहा। यह निम्न पूंजीवादी भावना को  उद्वेलित तो कर सकती है किन्तु शासकों पर इसका कोई प्रभाव पडने वाला नहीं। और न कुछ हुआ भी। यूनियनों ने मजदूरों की द्रढता को कमजोर करने तथा हडतालों के विस्तृत रूप में फैलने से रोकने के लिये इसी प्रकार के  कुछ और अन्य निरर्थक आन्दोलनों का प्रयोग किया।

किन्तु जे के  ऐस आर टी सी के मजदूर ही शासकों के हमलों का विरोध करने वाले एकमात्र नहीं थे। यधपि, ऐस आर टी सी के मजदूरों के आन्दोलन में हमलों के खिलाफ लडने की अधिक क्षमता प्रदर्शित हुयी किन्तु राज्य कर्मचारियों के अन्य भाग भी उन्हीं हमलों के शिकार थे। सभी राज्य कर्मचारियों का वेतन पिछले कई साल से रुका पडा था जिसका भुगतान सरकार नहीं कर रही थी। ट्रासंपोर्ट कर्मचारियों के बार बार के आन्दोलनों ने उनके लिये एक प्रेरणा का और एकजूट होने के केन्द्र का कार्य किया।

पांच लाख सरकारी कर्मचारी हडताल पर

जम्मू और कश्मीर में सरकारी कर्मचारी जनवरी 2010 से ही अपने संधर्ष को अपनी सांझी मांगों के इर्द गिर्द एकजूट करने में लगे थे - पिछले वेतन का भुगतान, बेहतर पगार और अस्थायी तथा तदर्थ राज्य कर्मियों को नियमित किया जाना। इन संधर्षों में तदर्थ तथा अस्थायी कर्मचारियों के साथ शिक्षक भी शामिल हो गये। हालांकि यूनियनें नियंत्रण बनाये रखने में सक्षम रहीं किन्तु यह कर्मचारियों की लामबन्दी और उनकी लड़ने के प्रति द्रढता की अभिव्यक्ति ही थी जिसके कारण यूनियनों को भी जनबरी 2010 में एक या दो दिन की लगातार हडतालों का आव्हान करना पडा। इन हडतालों में राज्य के साढे चार लाख कर्मचारी शामिल हुये।

यूनियनों ने यद्यपि जो कुछ भी वे कर सकती थीं किया, किन्तु वे संधर्ष के लडाकू जज्वे को रोकने में वास्तव में असफल रहीं। यह उस समय स्पष्ट हो गया जब राज्य के सरकारी कर्मचारियों ने हडताल की कार्यवाही पर जोर देना शुरू किया। साढे चार लाख कर्मचारियों की हडताल 3 अप्रैल 2010 को शुरू हुई। कर्मचारियों की मांगें वही थीं - बेहतर वेतन, पिछले रुके वेतन, जिसकी रकम अब 4300 करोड के लगभग हो गयी थी, का भुगतान और तदर्थ तथा अस्थायी कर्मचारियों को नियमित किया जाना। 3 अप्रैल से सार्वजनिक परिवहन ठप कर दिया गया, राज्य द्वारा संचालित स्कूलों में ताले जड दिये गये और सभी सरकारी दफ्तर बंद कर दिये गये। यहां तक कि जिलों के सरकारी दफ्तर बंद थे, समुचा प्रशासन पंगु हो गया।

राज्य का असली चेहरा नंगा

अपने सभी कर्मचारियों की द्रढ हडताली कार्यवाही के मुकाबले, राज्य ने अपना असली चेहरा, दमन का धिनौना चेहरा दिखाना शुरू कर दिया।

राज्य ने पहले कर्मचारियों के सबसे असुरक्षित भागों को निशाना बनाया। सरकार ने तदर्थ तथा ठेके पर रखे  कर्मचारियों को चेतावनी दी कि यदि वे हडताल जारी रखते हैं तो वे नियमित किये जाने के अधिकार से वंचित कर दिये जायेंगे। दैनिक वेतन भोगी हडताल का हिस्सा बनते हैं तो उनको भी यही परिणाम भुगतना होगा। किन्तु धमकियां हडताल को तोडने में कारगर नहीं हुयीं।

दमन को और तेज़ करते हुए, जम्मू और कश्मीर सरकार ने हडताली राज्य कर्मचारियों पर आवश्यक सेवा अनुरक्षण अधिनियम ( ऐस्मा ) थोप दिया। राज्य के वित्त मंत्री ने कहा कि कर्मचारियों ने हमें ऐस्मा लागू करने को मजबूर किया है और हडतालियों को एक वर्ष की जेल भुगतनी पड सकती है। एक और मंत्री ने कर्मचारियों पर समाज को "फिरौती" का निशाना बनाने का दोषी बताया।

किन्तु हडताली कर्मचारियों पर इस क्रूर कानून को थोपने और हडताल को तोडने के लिये धमकियों तथा ब्लैकमेलिंग का प्रयोग करने वाली जम्मू और कश्मीर सरकार पहली और एकमात्र सरकार नहीं है। पिछले कुछ महीनों में केन्द्रीय तथा विभन्न राज्य सरकारों ने देश के विभिन्न भागों में मजदूर वर्ग के विभिन्न खंडों द्वारा की गयी हडताल की कार्यवाहियों के खिलाफ दमन की वही उत्सुकता दिखाई है। हडतालों का दमन करने में वे सभी एक समान क्रूर रहे हैं। यह पूंजीपतियों में मजदूर वर्ग और उसके संघर्ष के डर को दिखलाता है।

जम्मू और कश्मीर सरकार ऐस्मा लागू करके शान्त नहीं बैठी। उसने मजदूरों में फूट डालने का काम जारी रखा तथा हडताली कर्मचारियों का दमन और तेज़ कर दिया। हडताली कर्मचारियों के जलूस और प्रदर्शन पुलिस द्वारा तितर बितर किये गये। 10 अप्रैल को 13 हडताली कर्मचारी गिरफ्तार कर लिये गये। जब कर्मचारियों ने अपने साथियों की गिरफ्तारी के विरोध में श्रीनगर के सिटी सैन्टर की ओर मार्च करने की कोशिश की तो पुलिस ने लाठी चार्ज कर मार्च को तितर बितर करने का प्रयास किया। फलस्वरूप, हडताली कर्मचारियों और पुलिस के बीच टकराव हो गया। इसके वाबजूद, बहुत से कर्मचारी लाल चैक तक पहुचने में सफल हो गये जहां और अधिक कर्मचारी गिरफ्तार कर लिये गये।

श्रीनगर का लाल चैक जो अलगाववादियों एवं भारतीय राज्य के बीच अनेकों बार खूनी मुठभेडों के स्थल के रूप में प्रसिद्ध है वहां हडताली कर्मचारियों और पुलिस के बीच मुठभेड निसन्देह एक असाधाराण घटना थी। राज्य कर्मचारियों का यह प्रतिरोधी संघर्ष इस बात की घोषणा थी कि पूंजीपतियों के विभिन्न गिरोहों के बीच जारी गैंग बार के बीच मजदूर अपने वर्ग चरित्र को सुरक्षित रखने ओर अपने वर्ग हितो के लिये लडने में सक्षम है।

यूनियनों ने कर्मचारियों को बांटा और हतोत्साहित किया

कर्मचारी जब सरकारी दमन का प्रतिरोध करने के लिये अपनी हडताल  को मजबूत करने की कोशिश कर रहे थे तब यूनियनें कर्मचारियों में फूट डालने में व्यस्त थीं। यह उन्होंने हडताल को सहयोग करने के नाम पर किया। राज्य कर्मचारियों के विभिन्न भागों की ढेर सारी यूनियनें हैं - सैक्रैटैरिएट स्टाफ यूनियन, जेसीसी, ऐम्प्लाईज जाँइन्ट ऐक्शन कमेटी ( ईजेएसी ), ट्रांसपोर्ट वर्कर्स यूनियन आदि। जबकि कर्मचारी पहले ही कई दिनों से हडताल पर थे, इन यूनियनों में से प्रत्येक ने अपनी अलग अलग कार्य योजना प्रस्तुत करनी शुरु कर दी। इस प्रकार उन्होंने कर्मचारियों को बांटने और संघर्ष के जज्वे को कमजोर करने का काम किया। जेसीसी ने सात दिन और आगे हडताल जारी रखने का ऐलान किया। दूसरों ने भी और अन्य कार्यक्रम रखे। इन सभी विभाजनकारी कोशिशों और राज्य के दमन के बीच कर्मचारी अपनी हडताल को 12 दिन तक जारी रखने में सफल रहे।

बारहवें दिन के अंत में, उन यूनियनों में से एक, ईजेएसी, ने मुख्यमंत्री के साथ हुई वार्ता और सरकार द्वारा किये गये वादों पर संतोष व्यक्त किया और कर्मचारियों को काम पर वापस जाने के लिये निर्देशित किया। इस प्रकार 12 दिन की हडताल के बाद भी कर्मचारी एक बार फिर सिर्फ शासकों के थोथे वादों के साथ बिना कुछ भौतिक लाभ हासिल किये खाली हाथ काम पर वापस लौटे।

जम्मू और कश्मीर  के राज्य कर्मियों की हडताल का महत्व

जम्मू और कश्मीर के 4,50,000 राज्य कर्मियों की अप्रैल हडताल, राज्य में कई सालों में हुये मजदूरों के संधर्षों में एक प्रमुख संघर्ष था। मजदूरों में फैलते विश्व व्यापी जुझारूपन के बीच यह कई सालों से राज्य कर्मचारियों के विभिन्न हिस्सों में जमा होते गुस्से का प्रतिफल था। ट्रांसपोर्ट वर्करों, बैंक कर्मचारियों तथा अन्य भागों के मजदूरों द्वारा लगातार की जाने वाली हडतालों और संघर्षों ने इसका मार्ग प्रशस्त किया। भारतीय राज्य और अलगाववादियों के एकाधिकारवादी और हिंसक सिद्धान्तों के मुकाबले में यह हडताल मजदूर वर्ग के वर्गीय अस्तित्व एवं वर्गीय एकता की सशक्त अभिव्यक्ति थी। इसकी कुछ प्रमुख कमजोरियों के वाबजूद इस हडताल ने पूंजीवाद द्वारा प्रस्तुत परिप्रेक्ष्य के विपरीत एक अलग ही परिप्रेक्ष्य प्रदर्शित किया। जहां कश्मीर में पूंजीवाद के सभी धडे शैतानी हिन्सा, हिन्सक बंटवारा, रोजाना की मारकाट, आतंक और बर्बरता का परिप्रेक्ष्य प्रस्तुत कर रहे हैं; वहीं मजदूर वर्ग, न्यूनत्म में, विभिन्न धर्मों और क्षेत्रों के मजदूरों की एकजूट होने और मिल कर, कंधे से कंधा मिला कर, अपने साझो हितों के लिए संघर्ष करने की क्षमता प्रदर्शित करने में सक्षम रहा।

हडताल को लगे आघात यह सबक सिखाते हैं कि भविष्य में जम्मू और कश्मीर के राज्य कर्मचारी जब कभी हडताल पर जायें तब उन्हें इस समय की भांति, अलगाववादी और दमनकारी एकाधिकारवादी दोनों सिद्धान्तों को खारिज करना होगा। इसके अतिरिक्त उन्हें यूनियनों की तिकडमबाजियों पर नजर रखनी होगी तथा उन्हें अहसास करना होगा कि यूनियनें उनकी दोस्त नहीं हैं। कर्मचारियों को अपना संघर्ष अपने हाथों में लेना होगा और उसका स्वयं संचालन करना होगा। एक प्रभावकारी संधर्ष संचालित करने का यही एकमात्र रास्ता है।

किन्तु गरीबी के, आतंक के, हिन्सा और भय के जीवन से मुक्ति के लिये उन्हें अपने संधर्ष को पूंजीवाद और राष्ट्रीय ढांचे के विध्वंस, तथा कम्युनिज्म एवं मानवीय बिरादरी की स्थापना के संधर्ष तौर पर विकसित करना होगा।

अकबर 10 मई 2010