यूपी के रोड ट्रांसपोर्ट मज़दूर फिर युनियनों द्वारा पराजित

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भारत भर में रोड ट्रांसपोर्ट मज़दूर बुरी तरह से शोषित हैं। चाहे ड्राईवर हों या कंडक्टर या वर्कशाप मज़दूर, सभी का हाल एक ही है। बहुत कम तनखाहें, काम के लंबे और अनाप-शनाप घंटे और कठोर स्थितियाँ, अधिकारी तबके का निरंतर दबाब और दमन। रोज़ की जिन्दगी की यही दिनचर्या है। यह हर जगह के लिए सच है। फिर चाहे राज्यों के रोड ट्रांसपोर्ट निगमों के मज़दूर हों। चाहे राजधानी के, जहां शासक वर्ग अपनी शान की नुमायश खातिर कामंनवेल्थ खेलों जैसे तमाशों पर पैसे खरच करने में कोइ कम नहीं छोडता, डीटीसी मज़दूर हों। यूपी रोड ट्रांसपोर्ट निगम के मज़दूरों की हालत बाकी मज़दूरों से अलग नहीं है।

पूँजीवादी संकट और पूँजी की कड़की की नीतियां

पूँजीवादी संकट की मार मज़दूरों की काम और जीवन की स्थितियों को और भी खराब कर रही है। इस संकट ने 2008 से समूची दुनिया को झकझोर डाला है। दुनिया के अलग अलग हिस्सों में संक़ट की मार से करोडों करोड लोगों की नौकरियां गईं हैं जिसमें दुनिया का अगुआ अमेरिका सबसे आगे है। संकट के झटकों से ग्रीस, आयरलैण्ड, पुर्तगाल और अन्य देशों की पूरी-पूरी अर्थव्यवस्थाओं का पतन हुआ है। हर जगह पूँजीपति वर्ग मज़दूर वर्ग पर कडकी तथा बदहाली थोप रहा है।

यही वह संदर्भ है जिसमें दुनिया भर में पूँजी के कडकी के कदमों के खिलाफ मज़दूरों और शोषितों की युवापीढी की लडाई विकसित हुई है और हो रही है।

सिर्फ 2010 के अंतिम महीनों मे ही ग्रीस, तुर्की, फ्रांस, ब्रिटेन तथा इटली में मज़दूरों तथा छात्रों ने पूँजी की कडकी की नीतियों के खिलाफ विशाल लडाईयां लडीं। टियूनेशिया तथा मिस्र के हालिया जनविद्रोह तथा मज़दूरों के संघर्षों को फिलहाल चाहे जनवाद के भ्रमजाल से भटकाने की भारी कोशिशें हो रही हैं, पर वे बुनियादी रूप बदतरीन जीवन हालातों के खिलाफ शोषित आबादी तथा मज़दूरों के गुस्से का विस्फोट हैं।

भारत में इस संकट की मार का फल है मज़दूर वरग के खिलाफ पूँजीपति वरग के तथा सरकार के अनेक कदमों का और तेज़ हो जाना:

-      इकोनमी के सभी हिस्सों से मज़दूरों का नौक्ररियों से निकाला जाना। भर्तियों का बंद होना;

-      स्थायी नौकरियों के खिलाफ सरकार का तथा निजी क्षेत्र का अभियान;

-      उसके स्थान पर हर जगह, हर क्षेत्र में अस्थायी बहालियां तथा ठेकेदारी प्रथा को आगे बढाना।

-      इन कदमों का मकसद और परिणाम है मज़दूरों की उज़रतों तथा उनके जीवन स्तरों को नीचे गिराना। इस ध्येय की पूर्ति के लिए पूँजीपति वरग तमाम हथकण्डों को इस्तेमाल कर रहा है जिसमें सरकारी निगमों मे निजीकरण भी शामिल है।

मज़दूर वर्ग के जीवनस्तरों के खिलाफ पूँजीपति वर्ग और सरकारी हुकमरानो के हमलों का एक और कारगर हथियार है कीमतों मे बेहिसाब बढोतरी। खुद सरकारी आंकडों मुताबिक पिछले कई सालों से खाध्य-मुद्रास्फिति की दर 18% के आस पास रही है। यह भी औसत है जो जीवन-यापन की खास चीज़ों की कीमतों में और भी बढोतरी को छिपाता है। शासक वरग के इन कदमों का कुल-मिला कर असर यह है कि देशा की अर्थव्यवस्था के तथाकथित विकास के बावज़ूद मजदरों की जीवन स्थितियां बद से बदतरीन हुई हैं।

वर्ग संघर्ष का विकास

अरसे से भारत में मज़दूर वर्ग के विभिन्न हिस्से इन हमलों के खिलाफ लडने की कोशिश कर रहे हैं। आज इसके अनेक उदाहरण हमारे सामने हैं: गुडगांव मे हीरो होण्डा, होण्डा मोटर साईकल्स तथा अन्य अनेक कारखानों में हडतालें। चेन्नाई मे हुन्डई तथा अन्य कारखानों मे संघर्ष। बैंक, एयरलांयस तथा एयरपोर्ट कर्मियों के संघर्ष। अलग अलग रज्यों, जैसे केरल, तामिलनाडू, में राज्य रोड ट्रांसपोर्ट वर्करस की हडतालें भी इसी रुझान की अभिव्यक्ति हैं। इनमें 2008 और 2010 के बीच की कशमीर के राज्य रोड परिवहन निगम के मज़दूरो की हडातालें खास अहमियत रखती है। जहां मज़दूरों ने ना सिरफ अलगाववादियों तथा सरकारी सेना की झडपों के बीच में कई बार हडतालें की। बल्कि ट्रांसपोर्ट मज़दूरो की हडतालें अप्रैल 2010 में कशमीर के पांच लाख सरकारी कर्मियों को 10 दिन की हडताल में खींचने का भी कारक बनीं।

निगम मेनेजमेंट के हमलों के खिलाफ यूपी रोड ट्रांसपोर्ट मज़दूरों के संघर्ष इस आम विकसित होते वर्ग संघर्ष का हिस्सा हैं। जुलाई 2006 में बनारस, गोरखपुर तथा कानपुर क्षेत्र में यूपी रोड ट्रांसपोर्ट निगम के स्थायी तथा अस्थायी मज़दूरों ने बेहतर तनखाहों तथा अस्थायी मजदूरों के स्थायीकरण को लेकर हडताल की। यूपी सरकार ने इसे एसमा लगा कर तथा दमन से दबाने का प्रायस किया। सैकड़ों स्थायी-अस्थायी कर्मियों को नौकरी से निकाल दिया गया। जुलाई 2009 में इलाहाबाद क्षेत्र के ट्रांसपोर्ट मज़दूरों ने हडताल की। अप्रैल 2010 में पूरे प्रदेश में निगम के 15000 अस्थायी मज़दूरों ने स्थयीकरण, बेहतर मज़दूरी तथा काम के बेहतर हालातों की मांग को लेकर हडताल की जिसे फिर प्राशासन ने दबा दिया।

यूपी रोड ट्रांसपोर्ट मज़दूरों का पिछ्ले सालों का एक जुझरू आदोलन था फरवरी 2008 का उनका संघर्ष। इसमे 25000 मज़दूर शामिल हुए। सरकार ने इस आंदोलन को हिंसा और दमन से दबा दिया। 5 फरवरी 2008 को अपनी मांगों के लिए प्रदर्शन कर रहे 8000 ट्रांसपोर्ट मज़दूरों पर पुलिस ने लाठियां बरसायी और फायरिंग की। इसमें एक मज़दूर जानलेवा रूप से घायल हो गया तथा 20 से अधिक अन्य मज़दूर घायल हुए। सैकडों मज़दूरों को हिरासत में ले लिया गया।

मज़दूर संघर्ष - युनियनी चालों द्वारा परास्त

पर ध्यान देने की बात यह है कि ट्रांसपोर्ट मज़दूरों के तमाम संघर्षों के पिटने में सिरफ सरकार का ही नहीं, युनियनों का भी उतना ही बड़ा हाथ है।

युनियनों द्वार ये तमाम कार्यवाहियां मज़दूरों के गुस्से तथा दबाब में की गईं। इनसे पहले युनियनों ने मज़दूरों में हर तरह के विभाजनों को उभारा : ड्रईवरों तथा कंडक्टरों के बीच, बस कर्मियों तथा डिप्पो कर्मियों के बीच, स्थायी तथा अस्थायी कर्मियों के बीच और जातिय तथा पूँजीवादी राजनीतिक गुटबन्दियों (बीएसपी बनाम एसपी, कांग्रेस बनाम बीजेपी आदि) के आधार पर। इस प्रकार मज़दूरों के संघर्षों के शुरू होने से पहले उनकी एकजुटता को मज़बूत करने की बजाए उसे खोखला किया गया। और युनियनों को अगर मज़दूरों के दबाब में हडतालों का आवाहन करना पडा तो उन्होंने उन्हें एक-दो दिन के रस्मी संघर्षों तक सीमित रखने का प्रयास किया। इससे पहले कि ये संघर्ष आगे बढ पाते, युनियनों ने नकली समझोतों की आड में उन्हें खतम कर दिया। इन सभी हथकन्डों से युनियनों ने न सिरफ मज़दूरों के इन संघर्षों को नुकसान पहुँचाया बल्कि संघर्ष के उनके ज़ज्बे को भी कमज़ोर करने का भरसक प्रयास किया।

पर यह चरित्र सिरफ यूपी रोड ट्रांसपोर्ट निगम में सक्रिय युनियनों का ही नहीं है। आज सभी जगह यनियनों का यही हाल है। और यह हाल सभी तरह की युनियनों का है फिर चाहे वे कांग्रेस, बीजेपी, बीएसपी के साथ जुडी युनियनें हों या सीपीआई, सीपीएम अथावा माओवादियों से जुडी युनियने हों या "स्वतंत्र" युनियनें। न सिरफ भारत में बल्कि दुनिया के तमाम देशों में युनियनों की आज यही भूमिका है : मज़दूरों को विभाजित रखना, उनके संघर्षों को विकसित होने से रोकना और न रूक पाए तो उसे रस्मी संघर्ष में बदलना और इस प्राकार पूँजीवादी शोषण के सुचारू चलन को यकीनी बनाना।

मज़दूर संघर्ष के विकास की राह -  युनियनी नियंत्रण से बाहर संघर्ष

इसी लिए आज अगर हम दुनिया में मज़दूरों के संघर्षों पर नज़र डालते हैं तो कुछ चीज़ें पाते हैं। मज़दूरों के संघर्ष वहीं आगे बढ पाए हैं जहां मज़दूर युनियनों के नियंत्रण से बाहर आकर अपने संघर्षों को अपने हाथों मे लेने का प्रयास कर पाए। यह मज़दूरो ने अपनी आम सभाएँ गठित करने के प्रयास करके किया। आम सभाएँ मज़दूरों के लिए अपने संघर्ष, उसके रास्ते, उसकी मांगों पर विचार करने तथा फैसले करने का स्थान हैं। आम सभाएँ स्थापित करने के साथ ही, संघर्षों की जीत के लिए एक और जरूरी कदम है उन्हें फैलाना। ट्रांसपोर्ट मज़दूरों का तथा मज़दूर वर्ग के अन्य तमाम तबकों का एक दूसरे की ओर हाथ बढाना। दुनिया भर के हालिया मज़दूर संघर्षों के यही सबक हैं।

यूपी रोड ट्रांसपोर्ट निगम के मज़दूरों के गुस्से को बेपथ करने तथा उन्हें हतोत्साहित करने का युनियनों का अंतिम प्रपंच हाल में सामने आया। उन्होंने 7 फरवरी 2011 को हडताल की घोषणा की। अनेक बार की तरह ही इस बार भी, इससे पहले के हडताल हो पाए युनियनों ने 5 फरवरी को ही घोषणा की - सरकार ने उनकी मांगों प्रर गौर का आशवासन दिया है।

इसके साथ ही हडताल को वापिस ले लिया। इसके खिलाफ मज़दूरों में गुस्से का भडकना स्वभाविक था। कानपुर डिपो में मज़दूरों ने इकटठा होकर युनियनों के इस भीतरघात का विरोध किया। इस मीटिंगे में मज़दूरों ने डिस्कस किया कि संघर्ष को आगे बढाने के लिये यह जरूरी है कि उसे युनियनों के छिकंजे से निकाल कर अपने हाथों मे लिया जाए। इसके लिए डिपो के तथा अन्य मज़दूरों की आमसभाएँ बुलाने तथा अलग-थलग लडने की बजाए, निगम के तमाम मज़दूरों तथा शहर के अन्य मज़दूरों के साथ मिल कर लडने की बात रखी गई। यह अपने आप में एक छोटे अल्पांश का प्रायास था तथा इन बहसों में डिपो के दो सौ के करीब मज़दूर ही शामिल हुए। पर यह संभवतः मज़दूर वर्ग के भीतर विकसित होते एक रूझान की अभिव्यक्ति हैं। युनियनों पर सवालिया निशान लगाने तथा संघर्ष को अपने हाथ में लेने के रूझानों मज़बूत होना ही मज़दूर वरग के संघर्षों के विकास की राह खोल सकता है।

अलोक/आरबी, 14 फरवरी 2011