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क्योंकि भारत का मजदूर वर्ग अंतरराष्ट्रीय मजदूर वर्ग का एक महत्वपूर्ण दस्ता है, अतएव यहां के मजदूर वर्ग के वर्ग संघर्ष की परस्थितियां और समस्याऐं मूलरूप से अंतरराष्ट्रीय मजदूर वर्ग के वर्ग संघर्ष से अलग नहीं हो सकती। अंतरराष्ट्रीय वर्ग संघर्ष के हालात, समस्याऐं परेशानियां, तथा उसके परिप्रेक्ष पर अंतरराष्ट्रीय कांग्रेस में विस्तार से चर्चा की जा चुकी प्रस्तावित इस रिपोर्ट का लक्ष्य विश्व के ढांचे में भारत में वर्ग संघर्ष के विकास का विश्लेषण करना भर है।
आई सी सी की विगत कांग्रेस में यह सही ही निरूपित किया कि भारत, चीन, ब्राजील तथा अन्य उभरते अर्थतंत्र विश्व सर्वहारा क्रांति के आगामी उभार के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकते हैं। इन देशों में मजदूर वर्ग की बडी तादात और उनका बडा संकेंद्रण है। और भी, इन देशों के संघर्ष, मजदूर वर्ग में अंतरराष्ट्रीय एकता और भाईचारे के विकास की प्रकिया को गति प्रदान करेंगे और पूँजीपति वर्ग द्वारा निरंतर चलाये जा रहे विभाजनकारी कुचक्रों को असरहीन बनायेंगे। इस प्रकार, संपूर्ण आई सी सी तथा सी आई का यह महत्वपूर्ण दायित्व है कि वह मजदूर वर्ग के संघर्ष की संभावित स्थतियों, वर्ग की कतारों में हो रही खदबदाहट, उसकी शक्ति एवं कमजोरी उसकी कठिनाइयों, समस्यसओं, संभावनाओं, उसके परिप्रेक्ष तथा वर्ग दुश्मन द्वारा उसे मार्ग से भटकाने के लिये चली जा रही चालों का गहराई से अध्ययन करें।
पूँजीवाद के केन्द्र में स्थित देशों की भांति, भारत के मजदूर वर्ग का भी दोंनों, सीघे साम्राजवादी शोषण एवं उत्पीणन तथा 1947 के पश्चात स्वतंत्र . देशी पूँजीवाद के घोर शोषण एवं उत्पीणन के खिलाफ बहादुराना संघर्ष का लम्बा इतिहास है। इन संघषों में हजारों मजदूरों की जानें गयीं, उससे अधिक घायल हुये, इसके अलावा,सालों साल जेलों में अमानवीय यातनायें झेलीं। लेकिन यह सभी मजदूर वर्ग के लडाकू जज्वे को कुचलने में नाकाम रहीं। इस गौरवमयी इतिहास की गहराई से निरख-परख करना एक नितांत ही अपरहार्य कार्य है। हम इस रिपोर्ट में इस पर विस्तार से चर्चा नहीं करेंगे। हम वर्तमान के महत्वपूर्ण संघषों पर ही अपना ध्यान केन्द्रित करेंगे। ये संघर्ष अंतरराष्ट्रीय वर्ग संघर्ष की रिपोर्ट में वर्णीत महत्वपूर्ण संघषों के समान तथा उनका चरित्र लिये हुये है।
भारतीय पूँजीपति वर्ग के इन दावों कि उसने संकट के प्रभावों पर पार पा ली है और उसकी गाडी पटरी पर आ गयी है; गुजरात के हीरे के मजदूरों, चेन्नई के हुंडई के मजदूरों का संघर्ष, कोयम्बटूर के ऑटो श्रमिक, भारत की राजधानी से सटे क्षेत्र के ऑटो तथा ऑटो पार्टस के मजदूरों के संघषों ने पोल खोल दी है। गुजरात में ठेके पर काम कर रहे असंगठित तथा गुडगांव के ऑटो कम्पनियों के मजदूरों ने नेतृत्वकारी भूमिका अदा की। गुजरात के हीरे मजदूर चाणचक हडताल पर चले गये। यह हडताल उन क्षेत्रों में भी तेजी के साथ फैल गयी जहां हीरे पर पॉलिश का काम किया जाता है। ये सभी संघर्ष जनवादी राज्य मशीनरी द्वारा कुचल दिये गये। भारत के विभिन्न भागों में मजदूर वर्ग के संघर्ष फूटे जिनमें से मुख्य निम्न हैं: सार्वजनिक क्षेत्र की मुख्य हडतालें हैं - बैक कर्मचारियों की हडताल, अखिल भारतीय पायलटों की हडताल, जनवरी 2009 में तेल कर्मियों की हडताल; तथा जनवरी 2009 में बिहार के राज्यकर्मियों की हडताल। जहां राज्य मशीनरी ने कठोर रूख अपना कर दमन का मार्ग चुना, वहां संधषों ने भी भीषण रूप धारण कर लिया। यह स्थिति 2009 में तेलमजदूरों के सामने उस समय पैदा हो गयी जब राज्य ने मजदूरों पर ऐस्मा थोप दिये जाने के साथ अन्य दमनकारी तरीकों का प्रयोग किया। यही स्थिति बिहार के राज्यकर्मियों की हो गयी जब राज्य ने कर्मचारियों को सबक सिखाने की ठान ली और जब सरकार को यह पता चला कि हडताल सार्वजनिक क्षेत्र के मजदूरों में भी फैलती जा रही है तब सरकार मे अपने कदम वापस खींच लिये।
वर्ष 2008 के 27 अगस्त को बीएसएनएल कर्मी हडताल पर चले गये, उसी वर्ष सितम्बर 24 को बैंककर्मी हडताल पर थे। 2008 के 1 अक्टूबर को सिनेमा के कर्मचारी हडताल पर थे। 2009 की 7 जनवरी को अधिक वेतनमान की मांग को लेकर आई ओ सी, बी पी सी ऐल, हैच पी सी ऐल, तथा गेल कर्मी हडताल पर थे। 30 अप्रैल 2009 को एयरपोर्ट कर्मचारियों ने काम बंद कर दिया। मई 20/21 को बैलैडिला के खान मजदूर खदानों में नहीं उतरे। 25 मई को गोवा में वेतनवृद्धि को लेकर पी डब्लू डी कर्मियों ने चक्का जाम कर दिया। 12 जून 2009 को बैक कर्मी पुनः हडताल पर चले गये। उसी समय अपने अफसरों के व्यवहार के खिलाफ तामिलनाडु में ऐम आर एफ तथा नोकिया के मजदूर 22 सितमबर 2009 को संघर्ष पथ पर थे। इसके अलावा पश्चिमी बंगाल में जूट मिलों के मजदूर तथा गोदी कर्मचारियों की हडतालें रहीं। कोलकता के उप नगरीय इलाकों में जूट मिलों के मजदूर मैनेजमेंट के खिलाफ आन्दोलन रत थे। मैनेजमेंट की ओर से की गयी भडकावे की कार्यवाही ने हालात ऐसे पैदा हुये कि कई लोग मारे गये। चाय बागानों के मजदूर भी कई बार हडताल पर थे।
दुनियां के अन्य भागों में हम देख चुके हैं कि पूँजीवादी राज्य के खिलाफ अपने भावी हितों को सुरक्षित बनाने के लिये मजदूरों की नयी पीढी या भावी मजदूर सर्वहारा के रणक्षेत्र में संघर्षरत हैं। फ्रांस तथा ग्रीस विद्यार्थियों के सघर्ष अत्यंत महत्वपूर्ण अर्थपूर्ण एवं प्रेरणादायिक हैं। आत्म संगठन के लिये प्रयास, सार्वजनिक सभायें, विस्तार ,बहसों में खुलापन, मजदूर वर्ग के विगत के संघर्षों से सबक लेना, मजदूर वर्ग में भाईचारा और एकता पूँजीवाद के अस्तित्व पर सवाल उठाना, इसके अस्तित्व के खिलाफ जबर्दस्त असंतोष का इजहार, वर्ग संघर्ष की नयी स्थिति के विकसित होने की अग्रिम सूचना है।
इस सदर्भ में ; पश्चिम बंगाल के प्राइमरी टीचर्स ट्रेनिंग इन्स्टीट्यू के क्षात्रों का संघर्ष अर्थपूर्ण है। ये क्षात्र या तो सरकारी मान्यता प्राप्त संस्थाओं से ट्रेनिग कोर्स पूरा कर चुके थे अथवा पूरा करने के अंतिम चरण में थे। किन्तु केन्द्रीय शिक्षा प्राधिकरण ने ( ऐन सी ई टी ) ने उन्हें अमान्य घोषित कर दिया। इस प्रकार; कोर्स पूरा करने के बाद जो डिग्री या प्रमाण पत्र उन्होंने प्राप्त किये वे रोजगार की दुनियां में गैर कानूनी और अर्थहीन हो गये। इस भांति, वे विद्यार्थी अकस्मात बेरोजगार हो गये। इनमें वे हजारों अध्यापक भी शामिल हैं जो पहले से ही सरकारी प्राइमरी स्कूलों में सेवा कार्यरत हैं। क्योंकि केन्द्रीय सरकार के अधीन उसी शिक्षा प्राधिकरण की एक कलम से उनके डिग्री तथा सर्टीफिकेट गैर कानूनी घोषित कर दिये गये। इन क्षात्रों का यह ट्रेनिग कोर्स पूरा करने में एक मोटी रकम खर्च हुयी। उनमें से कुछ क्षात्र तो इतने निराश हुये कि कइयों ने आत्म हत्या करली।
इस अनिश्चतता की स्थिति में विद्यार्थियों को अध्यापक की नौकरी पाने के लिये संघर्ष पर जाने को मजबूर कर दिया। लगभग 76 हजार क्षात्र आन्दोलन में शामिल थे। राज्य तथा केन्द्र के सत्ताधारी राजनीतिक दलों द्वारा नौकरी छीन लिये जाने की धमकी के राजनीतिक खेल ने उन अध्यापकों की नींद उडादी जो पहले से ही कार्यरत थे। शुरूआत में, आन्दोलनकारियों में आत्म संगठन का तत्व तथा राजनीतिक दलों और पूजी के दांये-बांये धडों की यूनियनों के प्रति अविश्वास का भाव था। उनका निश्चय था कि वे अपने आन्दोलन में किसी भी राजनीतिक शतरंज की गोटियां नहीं बिछाने देंगे। यदा कदा क्षात्रों को जेल भेज दिये जाने तथा राज्य के अन्य दमनकारी कदमों के खिलाफ पुलिस से हिंसक टकराव भी हुये। इसके वाबजूद, पी टी टी आई क्षात्रों; मजदूर वर्ग की भावी पीढी या भविष्य में मजदूरों की जमात में शामिल होने वाले विद्यार्थियों का यह संधर्ष निकट भविष्य में किसी भी क्षेत्र के मजदूरों के संधर्ष में एक दिशा सूचक सिध्द होगा।
इन संघर्षों की कुछ महत्वपूर्ण विशेषतायें निम्न प्रकार हैं.
हमलों की समकालिकता का अर्थ है संघर्षों में और अधिक अंतःशक्ति की समकालिकता। सत्ता वर्ग के हमलों के शिकार विभिन्न क्षेत्रों के मजदूर हमलों का जवाब देने के लिये अपने क्षेत्रों तथा यूनियनों की सीमाओं को लांघ कर मजदूर वर्ग की एकजुटता की बढती संभावना एक आगे का कदम होगा।
जो कुछ आज दृश्य पटल पर है वह इस बात का सूचक है कि अधिक से अधिक मजदूर अपने मालिकों के हमलों का जवाब देने की ओर आतुर हैं। हालांकि देश के विभिन्न भागों में संघर्षों की संख्या उत्तरोत्तर बढती जा रही है एक भौगोलिक क्षेत्र में संघर्षों में समकालिकता की ओर रूझान है। यह रूझान संघर्षों की कडियां जोडने तथा उनके विस्तार की संभावना को अभिव्यक्त करता है। यह गुजरात के हीरा मजदूरों के संघर्ष में देखा जा सकता है कि वे कई शहरों में सामयिक रूप से (एक साथ) चाणचक हडताल पर चले गये। यही तामिलनाडु और पुणे के ऑटो मजदूरों में देखा जा सकता है, जहां एक ही भौगोलिक क्षेत्र में एक साथ कई सारी हडतालें हुयीं। पूँजीपतियों ने इस खतरे को भांप लिया और दमन कम कर दिया। आज सभी क्षेत्रों में हो रहे हमलों का ही परिणाम संघर्षो की समसामयिकता है। सूरत के हीरा श्रमिकों की हडताल की यह विशेषता है कि उसमें आम हडताल का तत्व देखा जा सकता है। इसका सबूत यह है कि राजकोट और अमरेली के मजदूर भी उनकी मांगों के समर्थन में हडताल पर चले गये।
अहमदाबाद जिले में सैकडों हीरा मजदूरों ने पुलिस पर पथराव किया और बापू नगर इलाके को बंद कराने की कोशिश की। वेतनवृद्धि की मांग को लेकर हडताल गुजरात के उत्तरी भागों पालनपुर और महसाना तक फैल गयी । गुडगांव- मानेसर की बहुत से कारखाने के मजदूर अपने मालिकों के खिलाफ सडकों पर उतर आये। होंडा मोटर साइकिल के मजदूर बेहतर वेतनमान और मालिकों द्वारा स्थायी कर्मचारियों का अस्थाई किये जाने के विरूद्ध कई महीनों तक आंदोलन पर रहे। अन्य कारखानों के मजदूरों ने इनका सक्रियता से सहयोग किया। इसने मजदूर वर्ग के संघर्षों के विस्तार और वृहद एकता की संभावना को जन्म दिया। यही वह मार्ग है जो वर्ग को मालिकों के हमलों का मुकावला करने की क्षमता पैदा करता है। यही वह स्थिति है जिससे मालिक वर्ग भयभीत होता है और इसे टालने कोशिश करता हैं।
निस्संदेह, हाल के संघर्षों में विस्तार, आत्म नियंत्रण और वर्गीय एक जुटता के विकास की संभावनाओं की गतिशीलता है। लेकिन इस गतिशीलता को हासिल करने के लिये मजदूरों के लिये यह आवश्यक है कि वे राज्य तथा यूनियनों की उभरती चालों को समझें और संघर्षों को अपने हाथों में ले लें। स्थिति इस दिशा में बढ रही है कि क्रान्तिकारियों के सामने चनौती यह है कि वे इस गतिक को गहराई से समझें और उसमें ठीक तरह से हस्तक्षेप कर सकें ताकि संघर्षरत मजदूर यूनियनों के जाल से मुक्त होने के लिये अपने आत्मबल और ताकत दोंनो को पहचानें।
गुडगांव के संघर्ष में रिको के एक मजदूर के मारे जाने और कइयों के घायल हे जाने के पश्चात यूनियनों की एकमात्र भूमिका यह थी कि वह किस प्रकार मजदूरों में बढती एकता और संघर्ष के विस्तार के बढते रूझान को अति शीघ्र रोक दें। एक दिन की आम हडताल का नारा देकर उनमें एक साथ आने और वर्गीय भाईचारे के बढते तेबरों को बधिया बना देने का प्रयास किया । इसके वाबजूद, 20 अक्तूबर की हड़ताल में 1 लाख मजदूरों की भागीदारी वर्गीय भाईचारे की जीती जागती मिशाल थी। पूँजीवाद से मुठभेड और उससे दो-दो हाथ करने की इच्छाशक्ति के जज्वे भी इसकी अभिव्यक्ति थी।
यद्यपि, ऊपर गिनाये संघषों में मजदूरों की जोशीली भागीदारी रही किन्तु वे सभी संघर्ष यूनियनों माध्यम से के नियन्त्रण थे। कई मामलो में यूनियनें वर्ग धरातल पर, आत्मगठन तथा प्रसार द्वारा विकसित होते संघर्षों को रोकने के लिये गर्म मुद्रा अपनाने के लिये वाध्या हुई। लेकन हकीकत यह है कि यूनियनों के प्रति बढते अविश्वास के वाबजूद, मजदूर वर्ग अभी भी यूनियनों ढांचे से बाहर निकलने और आत्म संगठन होने योग्य नहीं बन पाया है। हमें अपना ध्यान वर्ग संघर्ष को आम हडताल में विकसित होने की गति शीलता तथा उसमें क्रान्तिकारियों के नेतृत्व के गतिक को गहराई से समझने पर अधिक ध्यान देने की आवश्यकता है।
विश्व के अन्य भागों के समान ही, यहां भी मजदूरों के जीवन काम करने की परस्थितियों पर हो रहे हमलों के खिलाफ तात्कालिक संघर्षों में कूद जाने में भय और हिचक बनी हुयी है। यहां नौकरी छिन जाने तथा काम की सुरक्षा का डर अधिक है क्योंकि मालिक वर्ग द्वारा बिना किसी सामाजिक सुरक्षा के स्थायी नौकरियों के स्थान पर बहुत कम पगार पर अस्थायी या ठेके पर रखे जाने पर जोर अधिक है। इसके अलावा,यूनियनों के परम्परागत तरीके के संघर्ष भी अधिक से अधिक निरर्थक सिद्ध हो रहे हैं तथा वास्तविक विकल्प फिलहाल अस्पष्ट है। किन्तु, फिर भी, इतिहास के सबकों से सीखने तथा पूँजीवाद के खिलाफ संधर्ष विकसित करने के प्रति वर्ग में खदबदाहट है।
स्वयं सेवी संगठनों की गतिविधियां तथा अति वामपंथी शक्तियां भी संघर्षों के मजदूर वर्ग के मैदान में विकसित होने में अडचनें पैदा कर रहे हैं। जनवाद का भ्रमजाल भी एक नकारात्मक पहलू है। यूनियनों क्षेत्रों, धर्मों तथा जातियों के आधर पर विभाजनकारी भावनायें भी महत्वपूर्ण रूकावटें हैं। ये सभी अस्थायी हैं, स्थायी तो पूँजीवादी सम्बन्ध तथा उसका संकट, उसके आंतरिक अंतर्विरोध, मजदूर वर्ग पर बढते हमलों और दमन का सिलसिला है जो वर्ग चेतना, आत्मसंगठन और वर्ग संघर्ष के विकास के प्रति रूझान को प्रतिविम्बित करता है। पर इस गतिशीलता में क्रांतिकारियों की शिरकत भी निर्णयक कारक है।
विश्व के पूँजीपतियों ने भी अपने अनुभवों से मजदूर वर्ग को नियंत्रित करने, उसका दमन करने, उसके सघर्षों को कुचलने तथा हराने के तरीके सीख लिये हैं। उसका एकमात्र लक्ष्य होड, विभाजन तथा भ्रमजाल को घनीभूत करना ताकि मजदूर वर्ग अपने सघर्षों को अपने वर्गीय मैदान में और अधिक लडाकू तथा जागरूक तरीके से विशाल स्तर पर संगठित करने में असफल रहे। विश्व पूँजीवाद के भाडे पर जुटे तमाम अर्थशास्त्री, विद्वान, शोधकर्ता, राजनीतिज्ञ, ट्रेड यूनियन नेतागण दिन रात एक किये हुये हैं। इस कार्य में हिन्दुस्तान का पूँजीपति भी पीछे नहीं है। पूँजीवाद के सभी भागों के लिये यह जीवन मरण का सवाल है।
पूँजीवाद की आर्थिक नीतियों ने बढती मूल्यवृद्धि को जन्म दिया। सरकारी आंकडों के अनुसार, खाद्यानों के दामों में 18 प्रतिशत की वृद्यि हुई किन्तु वास्तव में यह इससे कहीं अधिक हैं। इसके चलते, मजदूरों के बडे भाग को दो जून की रोटी जुटाना मुश्किल हो गया है। इस स्तर पर खतरे को भांपते हुये और इसको टालने के लिये पूँजीपतियों के विभिन्न गुट मंहगाई के खिलाफ संघर्षो की रस्म अदायगी कर दिखावा कर रहे हैं। आर्थिक संकट के लगातार तीव्रतर होते जाने के कारण पूँजीवाद वर्ग संघर्ष को लम्बे सयम तक नहीं टाल सकता। वर्ग की वर्तमान सापेक्ष मुश्किले भावी समय में हिंसक तूफान के रूप में प्रचंड वर्ग संधर्ष फूट पडने की सभावना लिये है।
विश्व के अन्य भागों की समान ही हिन्दुस्तान का पूँजीपति और उसके विशेषज्ञ अतिरिक्त समय लगा कर मजदूरों में यह संदेश देने में जुटे हैं कि संकट अस्थायी है और यह व्यवस्था का जरूरी अंग है, इस पर देर सबेर पार पा ली जायेगी, इसका बुरातम प्रभाव खत्म हो चुका है, जी डी पी में उत्साहवर्धक विकास हो रहा है, निर्यात कुलांचें भर कर दौडने लगा है और अच्छे दिन अब ज्यादा दूर नहीं हैं।
पूँजीवाद का एक और अन्य आजमाया हुआ भरोसेमन्द जाल राष्ट्रवाद है। पूँजीपति और उसका प्रिन्ट व इलैक्ट्रौनिक मीडिया मजदूर वर्ग के कानों में यह स्वर फूकने से नहीं चूकते कि चीन द् ड्रैगन अपनी सैन्य शक्ति का विस्तार कर भारत को घेरने के साम्राजयवादी मंसूवे बना रहा है। लगभग प्रत्येक दिन अखबारों में कोई न कोई कहानी ऐसी छपी होती है जिसमें भारतीय हितों के खिलाफ पाकिस्तानी हुक्मरानों द्वारा शत्रुता पूर्ण गतिविधि का हवाला न हो। भारत के किसी भी कोने में किसी भी आतंकवादी घटना को पाक राज्य द्वारा नियोजित अपराध कर्म घोषित किया जाता है। वे मजदूर वर्ग को साम्राजवादी जुये में जोतने की कोशिश कर रहे हैं। वे मजदूर वर्ग को अतंकवाद के खिलाफ साम्राजवादी युध में लाम्वन्द करने की हर कोशिश क्रर रहे हैं। इस प्रकार मजदूर वर्ग को हमेशा राष्ट्रवाद के गहरे उन्माद में डुबा कर रखा जाता है। मजदूर वर्ग को हमेशा बताया जाता रहता है कि भारत आर्थिक, राजनतिक तथा सामरिक तौर पर अतंर्राष्ट्रीय स्तर पर एक महान शक्ति बनने जा रहा है और इसका मान अतंर्राष्ट्रीय बिरादरी में दिन पर दिन बढता जा रहा है।
और भी, पूँजीवाद मजदूर वर्ग को यह समझाने में कोई कसर बाकी नहीं छोड रहा कि समाजवाद, साम्यवाद और सर्वहारा क्रांति कोरी कल्पना मात्र हैं। मजदूर वर्ग को हमेशा बताया जाता है कि जनवाद ही एक अति उत्तम विकल्प है और सभी समस्याओं को सुलझाने का एकमात्र मार्ग भी।
पूँजी की अति वामपंथी पार्टियां मजदूर वर्ग को इसमें उलझाये रखती हैं कि उनकी नयी जनवादी क्रांति ही जीवन और जीविका की समस्याओं को सुलझाने का एकमात्र विकल्प है।
किन्तु पूँजीपतियों ने यह अहसास किया है कि भ्रमजाल फैलाने के उसके सभी घनीभूत प्रयासों के वाबजूद पूँजीवाद के अस्तित्व पर प्रश्न खडे करने और चेतना के विकास की प्रक्रिया अटल है। चेतना के विकास की प्रक्रिया को पटरी से हटाने तथा कम्युनिस्ट विकल्प की खोज को पूँजीवाद मार्कसवाद के सारतत्व को विकृत करने के प्रयास में जुटा हैं जबकि दूसरी ओर वह यह भी घोषणा करता है कि मार्कस एक महान विचारक थे और मार्कसवाद आज भी प्रासंगिक है। शासक वर्ग हर प्रयास करेगा ताकि मजदूर वर्ग यह चेतना न हासिल कर पाए कि पूँजीवाद का विनाश तथा एक नए सामाज का निर्माण ही व्यवस्था के सडन से पैदा समस्याओं का समाधान कर सकता है।
सीआई, 3 फरवरी 2010
फरबरी 2010 के मध्य आईसीसी ने अपने एशियन सेक्शनों की एक कांफ्रेंस आयोजित की। कांफ्रेंस में फिलिपीन्स, टर्की तथा भारत में आईसीसी के सेक्शनों ने हिस्सा लिया। हमें आस्ट्रेलिया के एक इन्टरनेशनलिस्ट ग्रुप के प्रतिनिधि तथा भारतीय सेक्शन के कई हमदर्दों का स्वागत करके खुशी हुई। आईसीसी की पिछली कांग्रेस में शामिल कोरिया के दो अंतरराष्ट्रीयतावादी ग्रुपों को कांफ्रेंस में आमंत्रित किया गया था पर आखिरी मौके पे वे नहीं आ पाए। इन साथियों ने पान एशियन कांफ्रेंस को एकजुटता एवं शुभकामना संदेश भेजे। साथ ही उन्होंने कांफ्रेंस के लिये कोरिया में वर्ग संघर्ष पर एक लिखित रिपोर्ट भी भेजी।
पान एशियन कांफ्रेंस का लक्ष्य था आईसीसी की 18वीं कांग्रेस के कार्य को जारी रखना और दुनिया में उभरते अंतरराष्ट्रीयतावादी तबके के विकास में भाग लेना। आईसीसी की 18वीं कांग्रेस की मुख्य चिंता - अंतरराष्ट्रीयतावादियों में सहयोग बढाना - इस कांफ्रेंस की भी मुख्य चिंता बनी।
कांफ्रेंस एक शोकाकुल संदेश के साथ प्रारम्भ हुई। उसे दो दिन पहले हुई अमेरिकन सेक्शन के कामरेड जैरी के निधन की जानकारी मिली। कांफ्रेंस ने कामरेड जैरी को, जो अमेरिका में हमारे सेक्शन का एक स्तंभ और बरसों से आईसीसी का जुझारु था, श्रध्दांजलि अर्पित की। उसने साथी के परिवार और अमेरिकन सेक्शन के प्रति एकजुटता प्रकट की।
पान एशियन कांफ्रेंस में पेश रपटें
पान एशियन कांफ्रेंस के दौरान विभिन्न राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय मसलों पर रपटें प्रस्तुत का गयीं - अंतरराष्ट्रीय आर्थिक संकट, एशिया में साम्राज्यवादी प्रतिद्वन्दता, अंतरराष्ट्रीय वर्ग संघर्ष, आईसीसी तथा सेक्शनों की जीवनधारा जिसमें बहस की संस्कृति तथा सिद्धान्त के प्रति अभिरुचि का सवाल भी शामिल था। साथ ही भारत तथा फिलिपीन्स की राष्ट्रीय स्थिति एवं वर्ग संघर्ष और एशिया के विभिन्न सेक्शनों की गतिविधियों पर रिपोर्टें पेश की गयीं।
तीन दिनों के दरम्यान कांफ्रेंस ने इन सभी रिपोर्टों तथा उनसे पैदा हुये प्रश्नों पर भाव पूर्णता से चर्चा की। किन्तु फिर भी हम एजेंडा के सभी प्रश्नों पर समुचित गहराई एवं स्पष्टता से चर्चा नहीं कर पाये। हम यहां कांफ्रेंस में हुयी तमाम चर्चाओं पर रिपोर्ट प्रस्तुत नही करेंगे किन्तु कुछ, अधिक भावपूर्ण अथवा अधिक महत्वपूर्ण, चर्चाओं को ही लेंगे।
एशिया में साम्राज्यवादी प्रतिद्वन्दता
इस प्रश्न पर संपूर्ण रिपोर्ट हमारी वैब साइट पर देखें 1। यह रिपोर्ट और इस पर चर्चा साम्राज्यवादी तनावों पर आईसीसी की 18 वीं कांग्रेस में पेश रिपोर्ट के ढांचे में समाहित थी 2।
कांफ्रेंस के दौरान मुख्य बहसों का केन्द्र था - अमेरिका का कमजोर होना तथा चीन का एक अंतरराष्ट्रीय शक्ति के रुप में उभरना और इसका एशिया में साम्राज्यवादी गठजोडों एवं तनावों पर प्रभाव।
कांफ्रेंस को इसमें कोई संदेह नहीं था कि कमजोर होने के बावजूद अमेरिका विश्व की नम्बर एक ताकत है और इस समय चीन अमेरिका से खुल्लमखुल्ल भिडने की न तो क्षमता और न इच्छा शक्ति रखता है। चीन के उभार की गति और उस द्वारा अमेरिका को चुनौती देने या ना देने की आसन्नता पर चर्चा की गयीं।
एशिया में बढते सैन्यीकरण पर महत्वपूर्ण चर्चा की गयी। एशिया अब विश्व में हथियारों का मुख्य बाजार बन गया है। जब कि चीन इस मद में खर्च करने वालों में पहले नंबर पर है, उसके पीछे-पीछे अन्य देश हैं भारत, सऊदी अरब, जापान तथा आस्ट्रेलिया। चीन और भारत द्वारा सैन्यीकरण के पीछे है उनका बदलता आर्थिक स्वरुप तथा बढती हुयी साम्राज्यवादी महत्वाकांक्षायें। जापान, दक्षिण कोरिया तथा आस्ट्रेलिया के सैन्यीकरण के पीछे एक कारण है अमेरिका का पतन और चीन के उभार से उत्पन्न खतरे की उनकी धारणा।
बहस ने रेखांकित किया कि अमेरिका का पूरा ध्यान अब अफ-पाक युद्ध पर केन्द्रित है। जबकि वह अफगानिस्तान को स्थिर बनाना चाहता है, यह स्वयं पाकिस्तान ही है जो अब अमेरिकन साम्राज्यवाद के लिये मुख्य और बडा इनाम है। कांफ्रेंस के लिए यह सपष्ट था कि अमेरिका अफ-पाक को छोडने की जल्दी में नहीं है। गर वह भविष्य में अफगानिस्तान में अपने सैनिकों की संख्या घटाता भी है, तो भी वह वहां एक मज़बूत उपस्थिति बनाए रखेगा।
चर्चा में, दक्षिण एशिया में गठजोड एवुं पुर्न गठजोड पर ध्यान केन्द्रित किया गया। भारत पाक के बीच तीखा और घातक विरोध, जो आजकल अफगानिस्तान में दोनां के बीच प्राक्सी युद्ध के रुप में फैल रहा है, एक स्थायी सत्य है। भारत और पाक इस वक्त एक युद्ध आरम्भ करना नहीं चाहते। पर उनके सम्बन्धों की अस्थिरता के चलते हमें इस खतरे के प्रति सजग रहना होगा कि मुम्बई 2008 जैसी कोई आतंकवादी कार्रवाई एक सैनिक मुठभेड भडका सकती है।
गत कुछ वर्षों में भारत चीन के बीच बढता तनाव देखा जा सकता है। परिणाम स्वरुप, हिन्दुस्तान अमेरिका के साथ नजदीकी सम्बन्ध बनाने में लगा है। किन्तु समय के चरित्र के चलते, जिसे प्रत्येक व्यक्ति सिर्फ अपने लिये के रुप में परिभाषित किया गया है, दोनों के बीच रिश्ते ठंडे पड रहे हैं। भारत अब रुस जैसे अपने पुराने दोस्तों की ओर निहार रहा है
चर्चा में निम्न प्रश्न भी लिये गयेः
वर्ग संघर्ष
चर्चित विषयों में यह प्रमुख था जिसने कांफ्रेंस में शामिल सभी साथियों को संप्रभावित किया।
वर्ग संघर्ष पर प्रस्तुति ने एक प्रश्न उठाया - अंतरराष्ट्रीय वर्ग संघर्ष में आज हम कहां खडे हैं।
मज़दूर वर्ग के संघर्षों ने 2003 में एक मोड देखा जब वर्ग ने पूंजीपति वर्ग के हमलों का जवाब विकसित करना शुरु किया। किन्तु 2008 में संकट के विनाशकारी विकास और इसके चलते मज़दूर वर्ग द्वारा झेले भौंचक करने वाले हमलों ने वर्ग में भय, हिचक तथा लकवे की स्थिति पैदा की। प्रश्न उठाया गया कि वर्तमान में स्थिति क्या है? क्या वर्ग भय या लकवे जैसी स्थिति से उवर गया है? क्या इस डर का एशिया के मज़दूर वर्ग पर भी वही असर है जो यूरोप तथा अमेरिका के मज़दूर वर्ग पर? क्या वर्ग संघर्ष में नवीनतम विकास वर्ग द्वारा पक्षाघात पर पार पाने तथा संघर्ष पुनः विकसित करने की निशानी है? यद्यपि कोई सटीक उत्तर नहीं मिला; फिर भी चर्चा के दौरान उभरा आम दृष्टिकोण यह था कि वर्तमान संघर्ष इस भ्रांतिपूर्ण स्थिति पर पार पाए जाने की ओर इशारा करते हैं। और भी, विकसित हो रहे संघर्षों की व्यापकता अंतरराष्ट्रीय है और वे सब जगह देखे जा सकते हैं।
इसके साथ ही चर्चा में जोर इस बात पर रहा कि 1968 तथा उसके बाद के विपरीत वर्तमान में वर्ग के अन्दर वर्ग संघर्ष एवम आत्म विश्वास में विकास की गति धीमी है। परिपक्वन की यह मन्दिम प्रक्रिया 2003 से उभरे वर्ग संघर्ष का विशेष चरित्र है। आज भी स्थिति लगभग वैसी ही है। इसका कारण है आज की ऊंचीं बाज़ी - यह एक आम और सही विश्वास है कि आर्थिक स्थिति में सुधार असंभव है। इसके रूबरू वर्ग संकट के प्रभावों को पचाने तथा उनसे सबक लेन में समय ले रहा है।
चर्चा में यह रेखांकित किया गया कि हमें संकट की सघनता तथा वर्ग की ओर से तात्कालिक एवम समानुपातिक प्रतिउत्तर के बीच कोई यांत्रिक संबंध नहीं देखना चाहिये।
तो भी, हम आज भी यूरोप तथा भारत सहित विश्व के अन्य भागों में मजदूर वर्ग के संघर्षों में वर्गीय एकजुटता का विकास देख सकते हैं। कुछ संघर्षों में समकालिकता प्रदर्शित होती है जो विस्तार की संभावना पैदा करता है।
और भी, पिछले सालों से हम एक नयी पीढी का उभार देख रहे हैं जिसने पूंजीवाद पर सवाल उठाना और स्पष्टता खोजना शुरु कर दिया है।
टर्की, फिलीपीन तथा भारत में वर्ग संघर्षों पर भी चर्चा हुई, खासकर गुडगांव के आटो मज़दूरों की तथा गुजरात में डायमंड मज़दूरों की हड़तालों की। पर आम धारणा यह थी कि इस बहस को और विकसित करने की जरूरत है। विशेष रुप से, वर्ग के अन्दर चेतना के वृहद प्रस्फुटन तथा आम हडतालों के विकास के मार्ग को गहराई से समझने तथा चर्चा में लेने की जरुरत है। इस चिंता को प्रस्ताव के एक बिन्दू में ठोस रुप दिया गया और कांफ्रेंस के पश्चात इस पर बहस आगे वढाने का आदेश दिया।
भारत तथा अन्य एशियाई देशों की विशेष स्थिति पर भी प्रश्न उठाये गयेः
चर्चा के दौरान हस्तक्षेप के विषय पर महत्वपूर्ण सवाल उठा। इस सवाल को आईसीसी तथा एशिया में इसके विभिन्न सेक्शनों की गतिविघियों पर चर्चा के दौरान फिर उठाया गया।
आईसीसी की जीवनघारा
आईसीसी की जीवनधारा पर एक रिपोर्ट पेश की गई जिसमें खासकर लातिनी अमेरिका में कई ग्रुपों तथा संपर्कों की ओर हमारा कार्य शामिल था। इससे छिडी बहस में कई सवाल उठाए गए - बह्स की संस्कृति, सिद्धान्त के प्रति अभिरुचि, अनुभवों का हस्तान्तरण तथा मानवीय तजुर्बे के रुप में एक र्जुझारु की गतिविधि।
विवेचना के दौरान यह विचार विकसित हुआ कि अंतरराष्ट्रीयतावादी तबका केवल आईसीसी तथा उसके संपर्कों द्वारा गठित नहीं बल्कि अलग अलग परम्पराओं से आते अन्य अंतरराष्ट्रीयतावादी ग्रुप भी इसका हिस्सा हैं। आईसीसी इस तबके को मजबूत करने तथा उसको गठित करते अन्य ग्रुपों से मिल कर काम करने के प्रयासें में लगी है। जरुरी है कि हम इस भावी सांझे कार्य को विकसित करते रहें - हमारे लिये इस समूचे तबके का मजबूत होना हमारा मजबूत होना है।
बहस की संस्कृति, सिद्धान्त के प्रति अभिरुचि, अनुभवों का हस्तान्तरण
बहस ने याद किया कि मजदूर वर्ग एक चेतना का वर्ग है। अपनी चेतना को विकसित किये बिना, अपने अंतरराष्ट्रीय, ऐतिहासिक अनुभवों को आत्मसात किये बिना वर्ग अपने संघर्षों को पूर्णरुप से विकसित नहीं कर सकता और न ही कर सकता है पूंजीवाद के विघ्वंस के लिये कार्यं।
मौजूदा ऐतिहासिक संदर्भ में एवं खोजी तत्वों की एक नयी पीढी के उभार के संदर्भ में, आईसीसी अनुभवों के हस्तान्तरण में अपनी अपरिहार्य भूमिका देखती है। चर्चा के दौरान यह विचार विकसित हुआ कि भावी पीढी तथा खोजी तत्वों की ओर हस्तक्षेप के दौरन आईसीसी के लिए आवश्यक है कि वह सैद्धान्तिक एवं संगठनात्मक दोनों प्रकार के अनुभवों का हस्तान्तरण करे। अनुभवों के हस्तान्तरण का सवाल सभी जगह अहम है। पर यह एशियन देशों में और भी अहम है यहां कम्युनिस्ट संगठनों का कभी असितत्व नहीं रहा और यहां वामपंथी तथा राष्ट्रवादी ताकतों ने सदा कम्युनिस्ट होने का सवांग रचा है।
किन्तु यह हस्तान्तरण एकतरफा शिक्षाशास्त्रीय कार्य नहीं। इसके विपरीत, यह एक जुझारु गतिविधि है। इस कार्य को नई पीढी की चिंताओं के प्रति खुलापन अपना कर, उसके सवालों को समझने तथा उनका उत्तर देने का प्रायस करके, उठाए जा रहे नए मसलों तथा उन्हें देखने के नए तरीकों के प्रति खुला रुख अपना कर ही पूरा किया जा सकता है। और भी, ऐतिहासिक अनुभवों के हस्तान्तरण के लिये महत्वपूर्ण है कि आईसीसी अपनी पांतों में तथा अपने इर्द गिर्द के तत्वों में बहस की संस्कृति का विकास करे। इस प्रक्रिया के अंग के रुप में सिद्धान्त के प्रति अभिरुचि पैदा करना भी महत्वपूर्ण है।
अनेक हस्तक्षेपों ने क्रांतिकारी तबके तथा मजदूर वर्ग में सिद्धान्त के प्रति अभिरुचि विकसित करने की प्रासंगिकता की बात की।
हस्तक्षेपों ने 19वीं सदी के अंत तथा 20वीं सदी के आरंभ के क्रांतिकारी आन्दोलनों के ऐतिहासिक तज़ुरबे को याद किया। इस वक़्त क्रांतिकारी न सिरफ मज़दूर वर्ग के जीवन की तथा उसके संघर्ष की स्थिति का अध्धयन करते थे बल्कि सदा विज्ञान में विकास का भी ज्ञान रखते थे। क्रांतिकारी सिद्धान्त की रोशनी में उन्होंने निरंतर नई वैज्ञानिक खोजों तथा विचारों के संश्लेषण का कार्य किया। इस वक़्त गहन सैद्धान्तिक सरोकार रखना कम्युनिस्टों में मानक व्यवहार था।
आज, लम्बे प्रतिक्रांतिकारी काल के बाद यह कठिन प्रतीत होता है। तो भी, यदि मजदूर वर्ग को अपना ऐतिहासिक कार्यभार पूरा करने के स्तर तक उठना है तो उसे अपने अतीत से सबक लेना होगा।
सिद्धान्त के प्रति अभिरुचि तथा बहस की संस्कृति विकसित करने में हमें जिस बोझ को वहन करना पडता है उस पर पर महत्वपूर्ण चर्चा हुई। इस मार्ग में अनेक कठिनाइयां हैं:
माओवादियों के साथ अनुभव रखने वाले साथियों ने एक माओवादी "थीसिस" याद किया : "जितना अघिक अघ्ययन करोगे उतने ही अधिक मूर्ख बनोगे"।
चर्चा ने भावी पीढी को अनुभव हस्तान्तरित करने तथा उसका राजनीतकरण करने के एक हथियार के रुप में सिद्धान्त के प्रति अभिरुचि तथा बहस की संस्कृति को सचेत रूप से विकसित करने की जरूरत को रेखांकित किया।
जुझारु गतिविधि का गहन मानवीय चरित्र
आईसीसी की जीवनधारा के शीर्षक के अंतर्गत विकसित हुई एक और बहस थी एक मनवीय गतिविधि के रूप में जुझारु कार्य। इस बहस ने जुझारुओं के सामाजिक जीवन और हमारे राजनैतिक व्यवहार के बीच दीवार खडा करने के प्रयासों को खारिज़ किया। साथ ही इस चर्चा ने पूंजीवाद के भीतर कम्युनिज़म के द्वीपों के निर्माण की धारणाअओं को भी रद्द किया। किन्तु यह जोर देकर कहा गया कि हमारा जीवन हमारे सिद्धान्तों का घोर उल्लंधन नही हो सकता।
समाजवाद तथा स्त्रियों क प्रश्न इस बहस का केन्द्र विन्दु बना। इस चिन्ता के रुप में कि आमतौर पर औरतों के प्रति तथा खासकर उनके इर्द-गिर्द के तबके का अंग औरतों के प्रति कम्युनिस्टों का क्या रवैया होना चाहिये। हो सकता है कि कम्युनिस्टों की एक कांफ्रेंस के लिए यह एक अस्वाभाविक बहस लगे। पर इस स्तर पर सामंती सोच का बरकरार रहना भारत, टर्की तथा फिलिपीन्स जैसे देशों में विषेष रुप से धातक बोझ है। वास्तव में यह चर्चा आईसीसी की एक महिला हमदर्द के आवेगपूर्ण हस्तक्षेप से प्रेरित थी जिसने सवंय आईसीसी के भारतीय सेक्शन के इर्द-गिर्द के तबके में भी गहन पितृसत्तात्मक दृष्टिकोंण की मौजूदगी की ओर इशारा किया।
समय के अभाव के कारण कांफ्रेंस इस विषय को विकसित नहीं कर पाई। उसने सेक्शनों को इस चर्चा को विकसित करने का निर्देश दिया।
हस्तक्षेप का सवाल
कांफ्रेंस ने अपने अस्तित्व के थोडे से समय में आश्चर्यजनक काम अंजाम देने के लिये हमारे फिलिपीनी सेक्शन का स्वागत किया। सेक्शन के कार्य करने की स्थितियों के चलते यह और भी प्रभावशाली हो जाता है - अर्ध-कानूनी स्थिति, राज्य तथा पूंजीपति वर्ग के वाम एवं दक्षिण पंथ के विभिन्न धडों की निजी सेनाओं द्वारा दमन का खतरा, आर्थिक कठिनईयां।
हस्तक्षेप के सवाल पर एक लम्बी तथा अवेगपूर्ण बहस हुई। इस चर्चा में अनेक पॉइंट स्पष्ट हुए:
इस चर्चा का संदर्भ था हमारे भारतीय सेक्शन द्वारा पेश अपने कार्य-कलापों का एक लेखाजोखा। इसमें रेखांकित किया गया:
इसके साथ ही बैलेंसशीट ने अन्य क्षेत्रों में महत्वपूर्ण कमजोरियां को भी रेखांकित किया:
इस आखिरी सवाल को आईसीसी के कुछ करीबी हमदर्दों ने उठाया और यह एक अहम, भावनात्मक बहस का मुद्दा था।
यह चर्चा हमारे सेक्शन तथा हमदर्दों, दोनों के लिए प्रेरक रही। हमारे हमदर्दों ने आगे बढ कर हमारे प्रेस के लिये लिखने तथा अनुवाद करने, वितरण में सहयोग तथा वर्ग सधर्षों में भाग लेने की पेशकश की।
निष्कर्ष
आईसीसी की पान एशियन कांफ्रेंस हमारे संगठन के जीवन में एक महत्वपूर्ण अवसर तथा एशिया में कम्युनिस्ट विचारों एवं सगठनों के विस्तार में एक महन्वपूर्ण मील पत्थर बनी। यद्यपि यह कोई बहुत बडी संख्या नहीं थी, फिर भी यह एशिया में कम्युनिस्टों और अंतरराष्ट्रीयतावादियों की अब तक की संभवतया सबसे बडी सभाओं में से थी।
एशिया में आईसीसी के अनेक जुझारुओं के लिए आईसीसी की एक अंतरराष्ट्रीय मीटिंग का यह पहला अनुभव था। जैसे कुछ साथियों ने व्यक्त किया, पान एशियन कांफ्रेंस में आईसीसी की एक लधु कांग्रेस का रुप दिखाई दिया।
कांफ्रेंस में शामिल आस्ट्रेलिया के डेलीगेट तथा आईसीसी के हमदर्दों के लिये यह एक अलग ही तरह का अनुभव था। उनके लिये यह उस संगठन का जीवन्त अनुभव था जो न सिर्फ अंतरराष्ट्रीयतावादी है बल्कि वह अपने जीवन तथा कार्यशैली में भी अंतरराष्ट्रीय है। आस्ट्रेलिया के युवा साथी ने अभिव्यक्त किया: कांफ्रेंस के अनुभव ने जीवन तथा जुझारू कार्य के प्रति उसके समूचे परिपे्रक्ष को ही बदल दिया है।
कांफ्रेंस के अन्त में भारत के एक हमदर्द ने अपना अनुभव कुछ इस प्रकार समेटा: "कांफ्रेंस के दौरान यह भूल गया कि मैं अपने देश में हूं। विभिन्न देशों के क्रांतिकारियों के साथ काम एवं चर्चा करते हुये मैंने महसूस किया कि मैं एक अंतरराष्ट्रीय जीवन और संघर्ष का हिस्सा हूँ"।
वहां उपस्थित सभी साथियों के ऐसे ही विचार एवं भावनायें थी। आईसीसी की पान एशियन कान्फ्रेंन्स ने इसके प्रत्येक भागीदार को स्पष्टता और अंतरराष्ट्रीय कम्युनिस्ट आंन्दोलन खडा करने के काम के लिये उत्साहित किया।
साकी, 4 अप्रैल 2010
फुट नोट
1. आईसीसी की पान एशियन कांफ्रेंस में साम्राज्यवादी प्रतिद्वन्दता पर प्रस्तुत रिपोर्ट [1]
2. आईसीसी की 18 वीं कांग्रेस: अंतरराष्ट्रीय स्थिति पर प्रस्ताव
3. आईसीसी की पान एशियन कांफ्रेंस में प्रस्तुत भारत में वर्ग संघर्ष पर रिपोर्ट [2]
अमेरिकी साम्राज्यवाद दुनियां भर में तथाकथित दोस्तों और दुश्मनों से समान रूप से उत्तरोतर समस्याओं से धिरता चला जा रहा है। बुश प्रशासन की "अकेला चलो'' की नीति के बाद, 18 महीने पहले हुये ओवामा के चुनाव से यह अनुमान था कि अंतर्राष्ट्रीय अखाडे में वह दाँव पेच के लिये ठोस घरातल स्थापित करने के लिये समय का जुगाड कर लेगा। ओवामा की एक "शांति दूत'' की छवि और उसके प्रशासन की "सहयोग'', "सुलह समझौता'' और कूटनीति की कार्य प्रणाली सभी प्रमुख, खास तौर पर दुसरे नम्बर की, सैनिक ताकतों को अपने सैनिक प्रयास के साथ खडा करने की कोशिश थी ताकि वह अपने दुश्मनों की ओर "हाथ बढा'' स्के। जैसा कि 2009 के बसन्त के इन्टरनेशनल रिव्यू 139 में अंतराष्ट्रीय स्थिति पर प्रकाशित लेख में कहा गया है, ओवामा के चुनाव के वाबजूद अमेरिका का "लक्ष्य अभी भी सैनिक श्रेष्ठता के माध्यम से विश्व पर अमेरिका का नेतृत्व स्थापित करने का है। कूटनीति के प्रति ओवामा की बढती अभिरुचि एक अहम अवस्था तक समय हासिल करने तथा उस सम्बन्ध में अपनी सेना, जो वर्तमान में इतनी अधिक पतली फैली और इतनी थक हुई है कि वह अब इराक तथा अफगानिस्तान के साथ साथ किसी अन्य क्षेत्र में युद्ध लडने की हालत में नहीं, को भविष्य में अनिवार्य हस्तक्षेप के लिये समय तथा जगह प्रदान करना है।''
अब यह प्रतीत होता है कि ओवामा द्वारा घोषित विनियोजन, सहयोग तथा कूटनीति की नीतियों ने, यदि उनका कभी अस्तित्व भी रहा हो, अब बुश की मंडली की नीतियों को जगह दे दी है। बल्कि विश्व परिस्थिति की बढती खतरनाक मांगो के अनुरूप उन्हें विस्तृत और परिस्कृत किया जा रहा है। इस प्रकार लम्बी अवधि में वे विश्व को, जिसे वे नियंत्रित करना चाहते हैं, अस्थिर बनाये रखने में योगदान करेंगी। यदि कोई घटना इस विकास क्रम को प्रदर्शित करती है तो वह है: इस वर्ष के प्रारम्भ में आये भूचाल के पश्चात हैती पर अमेरिकी हमला, जहां अन्य सरकारों तथा अन्य एजेंन्शियों द्वारा अमेरिका के पिछवाडे में हस्तक्षेप के सभी प्रयासों को अमेरिका ने ठोंक दिया। यह अन्य ताकतों के लिये स्पष्ट एवं नृशंस सन्देश था।
अलावा इसके कि इराक से अमेरिकी सेना की वापसी पर ठहराव लगाया जा रहा है और अफगानिस्तान में 30,000 अतिरिक्त सैनिकों का एक "उभार'' अपनी शुरूआत में है, अनेक तत्व हैं जो अमेरिकी साम्राज्यवाद की बढती आग्रहता की जरुरत की ओर इशारा करते हैं। बुश के एकतरफावाद के सिद्धान्त से स्पष्ट संबंध विछेध के रूप में प्रस्तुत नयी अमेरिकी रणनीति एक 52 पन्नों की रिपार्ट में पेश की गयी थी। इसे "मन वांछित दुनिया प्राप्ति का ब्लू प्रिन्ट'' शीर्षक से व्हाइट हाउस की वैब साइट पर चस्पा किय गया था और यह ओबामई भाषा से भरी पडी है। मसलन उसमें कहा गया है कि "हमारी दीर्घकालीन सुरक्षा लोगों को डराने की हमारी योग्यता में नहीं बल्कि उनमें आशा जागृत करने की हमारी क्षमता में निहित है।'' इस नीति का झुकाव चीन, भारत और रूस को संलग्न करना है किन्तु साइबर आतन्कवाद का खतरा रिपोर्ट की सूची में सबसे ऊपर रखा गया है और इस हथियार का प्रयोग विशेष रूप से चीन करता है। अफगगनिस्तान मे अपनी साम्राज्यवादी महत्वाकांक्षा और पाकिस्तान से उसके तनाव पूर्ण रिश्तों के संबन्ध में अमेरिका ने हाल ही में भारत को ऐसा करारा झटका दिया है कि भारत के पूंजीपति वर्ग को प्रति उत्तर प्रकाशित करने के लिये मजबूर होना पडा और सांत्वना के लिये रूस की ओर दौडना पडा। अमेरिका का रूस के साथ काकेशस में तनाव चल ही रहा है। यह किर्गिस्तान में अशांति, जिसके परिणाम स्वरूप किरिगिस्तान की सरकार का पतन हुया, के दौरान और भडक उठा। किरिगिस्तान में अमेरिका तथा रूस दोनों के हवाई अड्डे हैं।
बुश शासन के साथ बुनियादी निरन्तरता प्रदशित करते हुये रिपोर्ट फिर अमेरिका के एकतरफा कार्यवाही करने के अधिकार को सुरक्षित रखती है और पूर्वक्रय और अनुकरणीय प्रतिकारमय हमलों को खारिज नहीं किया गया है। यह नीति हर जगह सैनिक श्रेष्ठता बनाये रखेगी तथा "जनतनत्र और मानवाधिकार'' को प्रोत्साहित करेगी जो कि चीन, ईरान एवं उत्तरी कोरिया के विरुद्ध निर्देशित है। यह बुश की नीतियों से सम्बन्धित "वही घिसी पुरानी" नीतियां नहीं हैं बल्कि उनका और अधिक परिष्कृण हैं ताकि उन्हें और अधिक अस्थिर परिस्थितियों में अमेरिकन सीम्राज्यवाद के लिये और अधिक कारगर बनाया जा सके। गत वर्ष के अंत में, इसे रेखांकित करते हुये अमेरिकी केन्द्रीय कमान्ड के मुखिया जनरल पेट्रयस ने सेना को गुप्त सैनिक अभियानों पर अधिक व्यापक तथा स्थायी रुप से भेजने के लिये एक आदेश पर हस्ताक्षर किये। स्पष्ट रूप से बिवरण अभी अपूर्ण है किन्तु द् गार्जियन (25/5/10) ने लिखा: अमेरिका की सैनिक टुकडियां इरान, यमन, सीरिया, सोमालिया सऊदी अरब और अन्य स्थानों पर कार्यरत हैं। इरान अमेरिका और ब्रिटेन पर लगातार यह आरोप लगा रहा है कि वे क्षेत्रीय जातीय समूहों में असंतोष फैलाने के लिये विशेष सेना को भेज रहे हैं जबकि वे अपने सैनिक अभियान छेडे हुये हैं। द् वाशिंगटन पोस्ट (5/6/10) ने जानकारी दी कि बीते वर्ष के शुरू में ओवामा के पदारूढ होने के समय 60 के मुकाबले में अमेरिका ने अब 70 स्थानों पर अपनी विशेष सेनायें तैनात कर रखी हैं। अखबार आगे लिखता है: ओवामा के अधीन विशेष सैनिक अभियानों के लिये बजट बढाया गया है और बुश शासन के मुकाबले में व्हाइट हाउस में विशेष अभियानों के कहीं अधिक कमांडर उपस्थित हैं। एक अज्ञात अफसर ने कहा कि अब ''वे बातें कम और काम अधिक कर रहे है।'' और इस दिशा में, फारस की खाडी, लाल सागर और हिन्द महासागर के भागों में विशाल रूप से सैनिक क्षमताएं बढाते हुये अमेरिका के पांचवें वेडे ने अपने क्षेत्र का विस्तार किया है।
कूटनीति के रूप में युद्ध
रम्सफील्ड मुताबिक गुप्त सैनिक अभियानों के "प्रत्यक्ष रूप से गुप्त'' में रूपान्तरण की स्वीकृति देते हुये प्रशासन ने साफ कर दिया है कि यह अमेरिका की अपने दुश्मनों पर युद्ध की और ''दोस्तों'' के लिये एक चेतावनी की घोषणा है। ओवामा प्रशासन कूटनीति का भी इसी तरीके से प्रयोग कर रहा है - युद्ध के एक पहलू, साम्राज्यवाद के एक पहलू के रूप में कूटनीति का प्रयोग। इस प्रकार, जब जापान के नये नेता, जिसने गत अगस्त में अपनी डैमौक्रैटिक पार्टी के लिय चुनाव में भारी विजय हासिल की थी, ने अमेरिका के बन्धन को ढीला करते हुये और अधिक स्वतंत्र भूमिका का प्रस्ताव रखा और जापान में अमेरिकी अड्डा बन्द करने का सुझाव दिया (शायद गंभीरता पूर्वक नहीं) तो अमेरिकी प्रशासन ने इसको, विशेषकर जापान के द्वारा चीन के साथ नजदीकी सम्बन्धों की बातचीत को, लेकर तीव्र कूटनीतिक प्रति उत्तर दिया। प्रधान मंत्री यूकियो हतोयामा को उसकी वाशिंगटन यात्रा के दौरान सार्वजनिक तौर पर अपमानित किया गया; अमेरिकी मीडिया के अनुसार ओवामा ने उसे सूचित किया कि "उसके लिए वक्त खतम हो रहा हैं।'' अमेरिका की कूटनीनिक धौंस धपाड, गाली गलौज तथा जापान एशिया-शान्तमहसागर क्षेत्र के लिए परिणामों के विषय में दी गयी चेतावनियों को बढा चढा कर दिखाने के कारण हतोयामा टूट गया और अफसोसपूर्ण मुद्रा में पटरी पर आ गया। और यह सब जनतंत्र तथा अंतर्राष्ट्रीय सहयोग के लिये!
इसी प्रकार, हाल ही में, अमेरिका ने ब्राजील और टर्की द्वारा इरान के साथ उसका यूरेनियम टर्की भेजने का समझौता करने को लेकर दोनों को करारी चपत लगायी, बाबजूद इसके कि यह समझौता संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा तैयार की गयी योजना के समान था जिसे स्वीकार करने के लिये पिछले वर्ष अमेरिका और उसके "साथियों'' ने तेहरान को कहा था। ये थे दोस्ती के लिये बढे हुये हाथ! ब्राजील और टर्की ने इरान के खिलाफ संयुक्त राष्ट्र संघ के नये दंडात्मक पैकज, जिसके लिए अमेरिका पिछले पांच महीने से काम कर रहा था, के विरुद्ध मतदान किया। इस पैकेज में शामिल है "आर्थिक नाकेबंदी, एक विस्तृत शस्त्र निषेध तथा यू ऐन के सदस्य राज्यों को इरान की गतिविधियों पर नजर रखने की चेतावनी। इरान की शिपिंग कम्पनी को निशाना बनाया गया, और यही उन निकायों के प्रति किया गया जो क्रान्तिकारी सुरक्षा गार्डों द्वारा नियंत्रित हैं और जो कि इस्लामिक राज्य की रीढ और इसके परमाणु कार्यक्रम के रखवाले हैं।" ( गार्जियन 10/6/10 ) विगत प्रशासन में बुश द्वारा नियुक्त स्टेट सैक्रेटरी गेटस ने अमेरिका को और अधिक आर्थिक एवं सैन्य सहायता उपलव्ध न कराने तथा यू ऐस को और अधिक ठोस रूप में मदद न करने के लिये यूरोपीय शक्तियों को फटकारने के लिये कूटनीतिक माध्यमों को प्रयोग किया। वैसे मदद की कम ही सेभावना है जबकि उनके हाथ एक दूसरे की गर्दन की ओर बढ रहे हों।
मुश्किल, मुश्किल, मुश्किल
अफगानिस्तान, पाकिस्तान और इराक में युद्धों के अलावा सामरिक महत्व के इस केन्द्रीय क्षेत्र में, इरान, टर्की तथा इजरायल द्वारा पेश बढती समस्याएँ हैं। रूसी गुट के 1989 में पतन के पश्चात छोटी ताकतों के बढते प्रभाव को रेखांकित करता, इजरायल के साथ झगडा संभवतया अधिक गंभीर है। नयी और बडी बस्तियों के निर्माण के सवाल पर पूर्ण अवज्ञा के पश्चात, कथित "गाजा को मदद'' जहाज, मावी मामारा पर हाल की हत्यायों पर सम्बन्ध और अधिक खराब हो गये हैं। अमेरिकी कूटनीति यह प्रदर्शित करने में असाधारण तौर पर आगे चली गयी कि उसने इजरायल को "छह जहाजी बेडे के साथ संयम बरतने'' की चेतावनी दी थी(द् आब्जरवर 7/6/10)। अमेंरिका के स्टेट डिपार्टमैंट ने कहा: "हमने जहाजी बेडे के बारे में कितनी बार सूचना दी। हमने सावधानी और संयम पर जोर दिया'''। इजरायल में अमेरिका के पूर्व राजनयिक ने 5 जून को वाशिंगटन पोस्ट में तर्क किया कि अमेरिका के लिये इजरायल एक बिल्कुल ही विपरीत दिशा में चलने वाला साथी है। उसी प्रकार, टर्की भी इस क्षेत्र में एक सामान्य तथा अधिकाधिक खतरनाक अफरा-तफरी के हालात में अमेरिका से दूर होती दिशा को सुदृढ करता दिखलाई देता है। इराक के साथ युद्ध में अमेरिकी फौजों को अपने इलाके से गुजरने की इजाजत देने से इनकार करने से लेकर, टर्की इरान और सीरिया के साथ अपने सम्बन्धों में अधिक स्वतंत्रत दिशा जाहिर कर रहा है। मावी मामारा पर हमले में बहुत से तुर्क नागरिकों के मारे जाने के पश्चात, अमेरिका द्वारा मध्यस्त टर्की इजरायली गठगन्धन अब पानी में डूबता दिखाई देता है जबकि टर्की फिलिस्तीन-परस्त दुनियां में एक उभरती हुई शक्ति की भूमिका अपनाता दिखाई देता है।
यहां हार्न आव अफ्रीका और उसके आस पास कथित "संकट का वृतांश'' भी है जो विश्व के "गर्म स्थल'' बनने की संभावना रखता है। इथोपियाई सैन्यवाद में अमेरिका और ब्रिटेन की संलग्नता का उल्टा असर हुआ है। नतीजतन, सारे क्षेत्र में अस्थिरता का माहौल है जिसने अल कायदा तथा अन्य आतंकवादी ग्रुपों के लिये उर्वरक भूमि तैयार की है। इथोपिया, इरीटीरिया, सूडान ओर सोमालिया के बीच स्थानीय दुश्मनियां अंतर संबन्धित हैं और बडी साम्राज्यवादी शक्तियों द्वारा इस्तेमाल की जा रही हैं। खाडी के पार अमेरिकन साम्राज्यवाद के लिये अधिकाधिक रिसता हुआ घाव यमन है जिसे अमेरिका तथा ब्रिटेन ने उस देश में अपनी बढती रुचि से संभवतया और खराव कर दिया है। यहां से आतंकवादियों और कट्टरपंथी ग्रुपों के लिये एक सशक्त मार्ग है। उनमें से कुछ आपस में गठजोड कर रही हैं, हॉर्न ऑफ अफ्रीका के गिर्द गुज़रते हुए, उत्तरी केन्या, खाडी तथा सऊदी अरब को अपनी लपेट में ले रही हैं; अमेरिकी शैरिफ द्वारा नियंत्रित करने के लिये यह एक समूचा कानून विहीन क्षेत्र है।
इस क्षेत्र से दूर, अमेरिका के लिये एक और समस्या मार्च में उत्तरी कोरिया के तारपीडो द्वारा दक्षिणी कोरिया के जहाज को डुबा देने में दिखाई दी। उर्पयुक्त उदाहरणों का इशारा किस ओर है? ये सभी उदाहरण यह सिद्ध करने के लिये काफी हैं कि छोटे लुटेरे अमेरिकी गॉड फादर को अपनी सीमाओं तक धकेलने की ओर प्रोलोभित होंगे और अमेरिका के "मित्र'' अपने स्वार्थों को ध्यान में रखते हुये कम भरोसेमन्द बन जायेंगे। साम्राज्यवादी प्रतिद्वन्दता के इस विवेकहीन घालमेल में घटनायें और दुर्धटनायें अमेरिका के नियंत्रण से बाहर हो सकती हैं, और यह अमेरिका पर और अधिक दवाब डालेगा। एक चीज निश्चित हैः अमेरिका, अगर ओवामा की प्रिय "मानवीय'' शब्दावली का प्रोयग करें तो, "शांति और मेलमिलाप'' की भाषा में उत्तर नहीं देगा। वह तो सैन्यवाद तथा युद्ध की खूंखार ताकत से प्रतिउत्तर देगा। इस प्रकार वह स्थिति को और अधिक खतरनाक तथा विश्व फलक पर साम्राज्यवादी टकरावों को कई गुना बढाने के और अनुकूल बना देगा।
बबून, 9 जून 2010, वर्ल्ड रेवोल्यूशन 335, जून 2010
कई दशकों से जम्मू और कश्मीर में पूंजीपति वर्ग के दो परस्पर विरोधी गिरोह एक ओर "राष्ट्रीय एकता'' के नाम पर तो दूसरी ओर, कश्मीर की "आजादी"' के नाम पर शोषित अवाम का खून बहाने में व्यस्त हैं। इसने "गुलाबों की इस घाटी" को मौत, तबाही, कंगाली और अफरातफरी की घाटी में बदल दिया है। सैकडों, हजार लोग हिंसक रूप से उखड फेंके गये तथा कश्मीर से भागने को मज़बूर किये गये, या तो कश्मीरी हिंदुओं के खिलाफ निर्देशित जातीय शुद्धीकरण की प्रक्रिया द्वारा अथवा जीविका की तलाश में कश्मीर से पलायन को मजबूर आतंकित मुस्लिम के रुप में। अलगाववादियों और भारतीय राज्य ने हमेशा ही मजदूरों के अस्तित्व और उसके संघर्षों को इस भ्रमजाल के जरिये नकारने की कोशिश की कि कश्मीर में इन खूनी गिरोहों द्वारा लडे जाने वाला संघर्ष ही एकमात्र संधर्ष है।
और फिर भी, कश्मीर में मजदूर वर्ग ने पिछले कुछ वर्षों में बडी द्रढता के साथ उभरने की कोशिश की है और कई सारी बडी हडतालें व संघर्ष किये हैं ।
मजदूरों ने अपने वर्गीय हितों के लिये लडने का प्रयास किया
कश्मीर में मजदूरों के वर्तमान संघर्षों के चक्र की जडें 2008 की उनकी मुठभेडों में खोजी जा सकती हैं। मार्च 2008 में, राज्य सरकार की संस्था जेकेऐसआरटीसी (जम्मू और कश्मीर राज्य सडक परिवहन निगम) ने घोषणा की कि मजदूरों की संख्या अधिक होने के कारण निगम घाटे में चल रहा है। सरकार ने मजदूर कम करने की अपनी मंशा जाहिर कर दी और वीआरएस (स्वैच्छिक अवकाश योजना) की घोषणा कर दी। लेकिन दमनकारी हथकंडे अपनाये जाने के वाबजूद भी गिने चुने ही वीआरएस के लिये आगे आये। सरकार ने घोषणा की कि वह संचित कोला (जीवन निर्वाह भत्ता) और अन्य पिछले वेतन का भुगतान नहीं कर सकती। अपनी रोजी रोटी पर हो रहे हमलों तथा शासकों द्वारा पिछले वेतन के भुगतान की मनाही कर दिये जाने की स्थिति में मजदूरों ने अपना संघर्ष विकसित करने का प्रयास किया। मजदूरों के गुस्से को भांपते हुये ट्रांसपोर्ट युनियनों ने संघर्ष को दो घंटे की हडताल, सरकारी दफ्तरों तक मार्च आदि रसमी संघर्षों में बदल कर मजदूरों के गुस्से को ठंडा करने की कोशिश की। उस समय मैनेजमेंट तथा यूनियनें, प्रथम द्वारा मज़दूरों की मांगों पर विचार करने का "वादा" कर के तथा दूसरे द्वार उन वादों पर "भरोसा'' करने का स्वांग रच कर, मजदूरो के गुस्से पर ढक्कन रखने में सफल हो गये।
एक वर्ष से अधिक समय के पश्चात, नौकरियां जाने का खतरा अधिक बढ गया था। इस अवधि में शासकों के वादों का कोई नतीजा नहीं निकला। उन्हें आगे भी कई महीनों की पगार का भुगतान नहीं किया गया। उनका पिछला वेतन संचित होता गया। आर्थिक स्थिति और ज्यादा खराब हो गयी तथा "खाद्यान मुद्रास्फीति" 16 प्रतिशत से अधिक पर टिकी थी। इससे ट्रांसपोर्ट मजदूरों में गुस्से और लडाकूपन की एक और लहर पैदा हुयी। वर्ष 2009 के मध्य में जेकेऐसआरटीसी के मजदूरों द्वारा कई सारी लघु हडतालें और प्रदर्शन आयोजित किये गये। किन्तु जे के ऐस आर टी सी के मजदूर अपने आन्दोलन को एकजुट करने तथा उसे और अधिक विस्तार देने में असफल रहे। वे राज्य कर्मचारियों के अन्य भागों से अलग थलग पड गये। युनियनें फिर एक बार, निरर्थक और नाटकीय कर्मकान्डों के माध्यम से मजदुरों के निश्चय को कम करने तथा उनके गुस्से को ढीला करने में सफल हो गयीं। उदाहरण के तौर पर, हडतालों में लडाकूपन पैदा करने के स्थान पर उन्होंने मजदूरों को अपने बच्चों के हाथों में "हमारे पापा को वेतन दो'' की तख्तियां दे कर प्रदर्शन में शामिल होने को कहा। यह निम्न पूंजीवादी भावना को उद्वेलित तो कर सकती है किन्तु शासकों पर इसका कोई प्रभाव पडने वाला नहीं। और न कुछ हुआ भी। यूनियनों ने मजदूरों की द्रढता को कमजोर करने तथा हडतालों के विस्तृत रूप में फैलने से रोकने के लिये इसी प्रकार के कुछ और अन्य निरर्थक आन्दोलनों का प्रयोग किया।
किन्तु जे के ऐस आर टी सी के मजदूर ही शासकों के हमलों का विरोध करने वाले एकमात्र नहीं थे। यधपि, ऐस आर टी सी के मजदूरों के आन्दोलन में हमलों के खिलाफ लडने की अधिक क्षमता प्रदर्शित हुयी किन्तु राज्य कर्मचारियों के अन्य भाग भी उन्हीं हमलों के शिकार थे। सभी राज्य कर्मचारियों का वेतन पिछले कई साल से रुका पडा था जिसका भुगतान सरकार नहीं कर रही थी। ट्रासंपोर्ट कर्मचारियों के बार बार के आन्दोलनों ने उनके लिये एक प्रेरणा का और एकजूट होने के केन्द्र का कार्य किया।
पांच लाख सरकारी कर्मचारी हडताल पर
जम्मू और कश्मीर में सरकारी कर्मचारी जनवरी 2010 से ही अपने संधर्ष को अपनी सांझी मांगों के इर्द गिर्द एकजूट करने में लगे थे - पिछले वेतन का भुगतान, बेहतर पगार और अस्थायी तथा तदर्थ राज्य कर्मियों को नियमित किया जाना। इन संधर्षों में तदर्थ तथा अस्थायी कर्मचारियों के साथ शिक्षक भी शामिल हो गये। हालांकि यूनियनें नियंत्रण बनाये रखने में सक्षम रहीं किन्तु यह कर्मचारियों की लामबन्दी और उनकी लड़ने के प्रति द्रढता की अभिव्यक्ति ही थी जिसके कारण यूनियनों को भी जनबरी 2010 में एक या दो दिन की लगातार हडतालों का आव्हान करना पडा। इन हडतालों में राज्य के साढे चार लाख कर्मचारी शामिल हुये।
यूनियनों ने यद्यपि जो कुछ भी वे कर सकती थीं किया, किन्तु वे संधर्ष के लडाकू जज्वे को रोकने में वास्तव में असफल रहीं। यह उस समय स्पष्ट हो गया जब राज्य के सरकारी कर्मचारियों ने हडताल की कार्यवाही पर जोर देना शुरू किया। साढे चार लाख कर्मचारियों की हडताल 3 अप्रैल 2010 को शुरू हुई। कर्मचारियों की मांगें वही थीं - बेहतर वेतन, पिछले रुके वेतन, जिसकी रकम अब 4300 करोड के लगभग हो गयी थी, का भुगतान और तदर्थ तथा अस्थायी कर्मचारियों को नियमित किया जाना। 3 अप्रैल से सार्वजनिक परिवहन ठप कर दिया गया, राज्य द्वारा संचालित स्कूलों में ताले जड दिये गये और सभी सरकारी दफ्तर बंद कर दिये गये। यहां तक कि जिलों के सरकारी दफ्तर बंद थे, समुचा प्रशासन पंगु हो गया।
राज्य का असली चेहरा नंगा
अपने सभी कर्मचारियों की द्रढ हडताली कार्यवाही के मुकाबले, राज्य ने अपना असली चेहरा, दमन का धिनौना चेहरा दिखाना शुरू कर दिया।
राज्य ने पहले कर्मचारियों के सबसे असुरक्षित भागों को निशाना बनाया। सरकार ने तदर्थ तथा ठेके पर रखे कर्मचारियों को चेतावनी दी कि यदि वे हडताल जारी रखते हैं तो वे नियमित किये जाने के अधिकार से वंचित कर दिये जायेंगे। दैनिक वेतन भोगी हडताल का हिस्सा बनते हैं तो उनको भी यही परिणाम भुगतना होगा। किन्तु धमकियां हडताल को तोडने में कारगर नहीं हुयीं।
दमन को और तेज़ करते हुए, जम्मू और कश्मीर सरकार ने हडताली राज्य कर्मचारियों पर आवश्यक सेवा अनुरक्षण अधिनियम ( ऐस्मा ) थोप दिया। राज्य के वित्त मंत्री ने कहा कि कर्मचारियों ने हमें ऐस्मा लागू करने को मजबूर किया है और हडतालियों को एक वर्ष की जेल भुगतनी पड सकती है। एक और मंत्री ने कर्मचारियों पर समाज को "फिरौती" का निशाना बनाने का दोषी बताया।
किन्तु हडताली कर्मचारियों पर इस क्रूर कानून को थोपने और हडताल को तोडने के लिये धमकियों तथा ब्लैकमेलिंग का प्रयोग करने वाली जम्मू और कश्मीर सरकार पहली और एकमात्र सरकार नहीं है। पिछले कुछ महीनों में केन्द्रीय तथा विभन्न राज्य सरकारों ने देश के विभिन्न भागों में मजदूर वर्ग के विभिन्न खंडों द्वारा की गयी हडताल की कार्यवाहियों के खिलाफ दमन की वही उत्सुकता दिखाई है। हडतालों का दमन करने में वे सभी एक समान क्रूर रहे हैं। यह पूंजीपतियों में मजदूर वर्ग और उसके संघर्ष के डर को दिखलाता है।
जम्मू और कश्मीर सरकार ऐस्मा लागू करके शान्त नहीं बैठी। उसने मजदूरों में फूट डालने का काम जारी रखा तथा हडताली कर्मचारियों का दमन और तेज़ कर दिया। हडताली कर्मचारियों के जलूस और प्रदर्शन पुलिस द्वारा तितर बितर किये गये। 10 अप्रैल को 13 हडताली कर्मचारी गिरफ्तार कर लिये गये। जब कर्मचारियों ने अपने साथियों की गिरफ्तारी के विरोध में श्रीनगर के सिटी सैन्टर की ओर मार्च करने की कोशिश की तो पुलिस ने लाठी चार्ज कर मार्च को तितर बितर करने का प्रयास किया। फलस्वरूप, हडताली कर्मचारियों और पुलिस के बीच टकराव हो गया। इसके वाबजूद, बहुत से कर्मचारी लाल चैक तक पहुचने में सफल हो गये जहां और अधिक कर्मचारी गिरफ्तार कर लिये गये।
श्रीनगर का लाल चैक जो अलगाववादियों एवं भारतीय राज्य के बीच अनेकों बार खूनी मुठभेडों के स्थल के रूप में प्रसिद्ध है वहां हडताली कर्मचारियों और पुलिस के बीच मुठभेड निसन्देह एक असाधाराण घटना थी। राज्य कर्मचारियों का यह प्रतिरोधी संघर्ष इस बात की घोषणा थी कि पूंजीपतियों के विभिन्न गिरोहों के बीच जारी गैंग बार के बीच मजदूर अपने वर्ग चरित्र को सुरक्षित रखने ओर अपने वर्ग हितो के लिये लडने में सक्षम है।
यूनियनों ने कर्मचारियों को बांटा और हतोत्साहित किया
कर्मचारी जब सरकारी दमन का प्रतिरोध करने के लिये अपनी हडताल को मजबूत करने की कोशिश कर रहे थे तब यूनियनें कर्मचारियों में फूट डालने में व्यस्त थीं। यह उन्होंने हडताल को सहयोग करने के नाम पर किया। राज्य कर्मचारियों के विभिन्न भागों की ढेर सारी यूनियनें हैं - सैक्रैटैरिएट स्टाफ यूनियन, जेसीसी, ऐम्प्लाईज जाँइन्ट ऐक्शन कमेटी ( ईजेएसी ), ट्रांसपोर्ट वर्कर्स यूनियन आदि। जबकि कर्मचारी पहले ही कई दिनों से हडताल पर थे, इन यूनियनों में से प्रत्येक ने अपनी अलग अलग कार्य योजना प्रस्तुत करनी शुरु कर दी। इस प्रकार उन्होंने कर्मचारियों को बांटने और संघर्ष के जज्वे को कमजोर करने का काम किया। जेसीसी ने सात दिन और आगे हडताल जारी रखने का ऐलान किया। दूसरों ने भी और अन्य कार्यक्रम रखे। इन सभी विभाजनकारी कोशिशों और राज्य के दमन के बीच कर्मचारी अपनी हडताल को 12 दिन तक जारी रखने में सफल रहे।
बारहवें दिन के अंत में, उन यूनियनों में से एक, ईजेएसी, ने मुख्यमंत्री के साथ हुई वार्ता और सरकार द्वारा किये गये वादों पर संतोष व्यक्त किया और कर्मचारियों को काम पर वापस जाने के लिये निर्देशित किया। इस प्रकार 12 दिन की हडताल के बाद भी कर्मचारी एक बार फिर सिर्फ शासकों के थोथे वादों के साथ बिना कुछ भौतिक लाभ हासिल किये खाली हाथ काम पर वापस लौटे।
जम्मू और कश्मीर के राज्य कर्मियों की हडताल का महत्व
जम्मू और कश्मीर के 4,50,000 राज्य कर्मियों की अप्रैल हडताल, राज्य में कई सालों में हुये मजदूरों के संधर्षों में एक प्रमुख संघर्ष था। मजदूरों में फैलते विश्व व्यापी जुझारूपन के बीच यह कई सालों से राज्य कर्मचारियों के विभिन्न हिस्सों में जमा होते गुस्से का प्रतिफल था। ट्रांसपोर्ट वर्करों, बैंक कर्मचारियों तथा अन्य भागों के मजदूरों द्वारा लगातार की जाने वाली हडतालों और संघर्षों ने इसका मार्ग प्रशस्त किया। भारतीय राज्य और अलगाववादियों के एकाधिकारवादी और हिंसक सिद्धान्तों के मुकाबले में यह हडताल मजदूर वर्ग के वर्गीय अस्तित्व एवं वर्गीय एकता की सशक्त अभिव्यक्ति थी। इसकी कुछ प्रमुख कमजोरियों के वाबजूद इस हडताल ने पूंजीवाद द्वारा प्रस्तुत परिप्रेक्ष्य के विपरीत एक अलग ही परिप्रेक्ष्य प्रदर्शित किया। जहां कश्मीर में पूंजीवाद के सभी धडे शैतानी हिन्सा, हिन्सक बंटवारा, रोजाना की मारकाट, आतंक और बर्बरता का परिप्रेक्ष्य प्रस्तुत कर रहे हैं; वहीं मजदूर वर्ग, न्यूनत्म में, विभिन्न धर्मों और क्षेत्रों के मजदूरों की एकजूट होने और मिल कर, कंधे से कंधा मिला कर, अपने साझो हितों के लिए संघर्ष करने की क्षमता प्रदर्शित करने में सक्षम रहा।
हडताल को लगे आघात यह सबक सिखाते हैं कि भविष्य में जम्मू और कश्मीर के राज्य कर्मचारी जब कभी हडताल पर जायें तब उन्हें इस समय की भांति, अलगाववादी और दमनकारी एकाधिकारवादी दोनों सिद्धान्तों को खारिज करना होगा। इसके अतिरिक्त उन्हें यूनियनों की तिकडमबाजियों पर नजर रखनी होगी तथा उन्हें अहसास करना होगा कि यूनियनें उनकी दोस्त नहीं हैं। कर्मचारियों को अपना संघर्ष अपने हाथों में लेना होगा और उसका स्वयं संचालन करना होगा। एक प्रभावकारी संधर्ष संचालित करने का यही एकमात्र रास्ता है।
किन्तु गरीबी के, आतंक के, हिन्सा और भय के जीवन से मुक्ति के लिये उन्हें अपने संधर्ष को पूंजीवाद और राष्ट्रीय ढांचे के विध्वंस, तथा कम्युनिज्म एवं मानवीय बिरादरी की स्थापना के संधर्ष तौर पर विकसित करना होगा।
अकबर 10 मई 2010
“एक सहमति, फिर भी विरोध”; [1] “मौसम वार्ताओं में इज्ज़त बचाने के लिए आखिरी घड़ी में अफरातफरी”; [2] “ओबामा का मौसम संबन्धी समझौता टेस्ट में फेल” [3].. मीडिया का फैसला एकमत था : ‘ऐतिहासिक’ शिखर वार्ता असफलता में खत्म हुई थी।
हफ्तों पहले से ही मीडिया और राजनीतिबाज बड़ी-बड़ी बातें कर रहे थे कि मनुष्यता और इस ग्रह का भाग्य अब शिखर सम्मेलन के हाथों में है। सम्मेलन के पहले दिन फ्रांस, रूस, चीन, भारत और ब्रिटेन सहित दुनिया के 56 देशों के अखबारों ने एक साँझा सम्पादकीय निकाला जिसकी हेडलाईन थी – ‘‘वर्तमान पीढ़ी पर इतिहास के फैसले पर मुहर लगने में बस चौदह दिन बाकी’’। सम्पादकीय कहता है ‘‘कोपेनहेगन में इकट्ठा हुए 192 देशों के प्रतिनिधियों से हमारा अनुरोध कि वे हिचकें नहीं, विवाद में नहीं पड़ें, एक दूसरे पर दोष नहीं लगाएँ बल्कि राजनीति की महान अधुनिक असफलताओं से इस अवसर को छीन लें। यह न तो अमीर और गरीब विश्व के बीच की लड़ाई है और न ही पूरब और पश्चिम का झगड़ा है।’’ इनकी ये धर्मपरायण भावनाएँ भले ही किसी काम न आई हों, लेकिन सम्पादकीय में कुछ सच मौजूद है : ‘‘विज्ञान को समझना इतना आसान नहीं लेकिन तथ्य स्पष्ट हैं। पृथ्वी का तापमान दो डिग्री सी से ज्यादा न बढ़ने पाये इसके लिए दुनिया को कदम उठाने पड़ेंगे। एक लक्ष्य जिसकी पूर्ति के लिए जरुरी है कि ग्लोबल एमिशन उच्चतम सीमा पर पहुँच कर अगले पांच से दस वर्षों में गिरने लगें। पृथ्वी के तापमान में तीन से चार डिग्री सेंटीग्रेड की बढ़ोतरी, यह अल्पतम बढ़ोतरी है जिसकी आशा हम निष्क्रियता की स्थिति में कर सकते हैं, महाद्वीपों को सुखा डालेगी, हरी-भरी कृषि भूमि रेगिस्तान बन जाएगी। पृथ्वी पर वास करने वाली आधे से ज्यादा प्रजातियाँ हमेशा-हमेशा के लिए लुप्त हो जाएँगी, लाखों की संख्या में लोग विस्थापित हो जाएँगे और बहुत सारे देश समुद्र में डूब जाएँगे।’’ [4]
पूँजीवाद पह्ले ही पृथ्वी का विनाश कर रहा है
असल में, परिस्थिति इससे ज्यादा भयानक और गंभीर है। जलवायु-परिवर्तन [5] के कारण दो करोड साठ लाख लोग पहले ही विस्थापित हो चुके हैं। पृथ्वी के तापमान में एक डिग्री सेंटीग्रेड की बढ़ोतरी, जिसके लिए जरुरी है वातावरण में से कार्बन डाईआक्साइड (सीओ2) को खत्म करना और जिसे नामुमकिन माना जाता है, का परिणाम होगा:
तलहटी में बसे बहुत से द्वीपों तथा देशों का अस्तित्व खतरे में पड जाएगा। दो डिग्री सेंटीग्रेड की वृद्धि, जो एक स्वीकृत लक्ष्य बन चुकी है, उपग्रह के लाखों वाशिन्दों के लिए विनाशकारी सिद्ध होगी : ‘‘अमेजन रेगिस्तान और घास के मैदान में बदल जाएगा; वातारण में कार्बन डाईआक्साइड (सीओ2) के स्तर में वृद्धि दुनिया के महासागरों को इतना अम्लीय बना देगी कि महासागर में बची-खुची मूँगा चट्टानों के साथ-साथ हजारों किस्म की अन्य समुद्री प्रजातियों का जीवन संकट में पड़ जाएगा। पश्चिमी अंटार्कटिक में बिछी बर्फ की मोटी परत भराभरा कर डह जाएगी, आगामी सौ साल में ग्रीनलैण्ड में बिछी बर्फ की चादर पिघल जाने से महासागर के जल स्तर में सात मीटर से भी ज्यादा की बढ़ोतरी तय है। दुनिया के एक तिहाई जीवों का नामोनिशान हमेशा-हमेशा के लिए मिट जाएगा”।[6]
महासागरों के अम्लीकरण पर किये गये शोध के नतीजों को सम्मलेन में सार्वजनिक किया गया, वो दिखाते हैं कि औद्योगिक क्रांति से अब तक महासगारों में ऐसिडिटी, जो तब होती है जब सागरों द्वारा जज़्ब कार्बन डाईआक्साड (सीओ2) बढ़ जाती है, का स्तर तीस प्रतिशत तक बढ़ चुका है। जलवायु परिवर्तन के इस पक्ष के, जिसका अभी तक बहुत कम अध्ययन हुआ है, गहन नतीजे होंगे। “महासागर का अम्लीकरण अविकसित मछली तथा शैल मछलियों से, जो बेहद नाजुक और असुरक्षित होती हैं, शुरु समुद्री खाद्य भण्डारों को प्रभावित करती प्रतिक्रियाओं की एक श्रृंखला ट्रिगर कर सकता है। अरबों-खरबों डालर के मछली उद्योग को यह प्रभावित करेगा और दुनिया की सबसे गरीब आबादी के लिए भोजन का संकट पैदा करेगा। महासागरों के अधिकतर क्षेत्र मूँगा चट्टानों के रहने लायक नहीं रहेंगे और इस प्रकार खाद्यय सुरक्षा, पर्यटन, समुद्रीतटों की सुरक्षा तथा जैविक विविध्ता खतरे में पड़ जाएगी”।[7] फिर, सागरों के अम्लीकरण के स्तर को कम करने का इसके सिवा कोई रास्ता नहीं कि प्राक्रतिक प्रक्रियाओं को अपना काम करने दिया जाए, जो दसियों हजार साल ले लेंगी।
दुनिया के लिए खतरा बने पूँजीवाद के नियम
मानवीय गतिविधि ने हमेशा ही पर्यावरण पर प्रभाव डाला है। लेकिन अपने आरंभ से ही पूँजीवाद ने प्राक्रतिक जगत के प्रति ऐसी अवमानना दिखाई है जो उसके कारखानों, खदानों और खेतों में खून-पसीना बहाने वाले मनुष्यों के प्रति उसके तिरस्कार के समान है। उन्नीसवीं सदी में ब्रिटेन के औद्योगिक शहरों और कस्बों ने देश की आबादी, खासकर मजदूर वर्ग के स्वास्थ्य को अनदेखा करते हुए पर्यावरण में भयंकर गंदगी और प्रदूषण उड़ेला। हालिया अतीत में स्तालिनवाद ने रूस के बड़े-बड़े भूभागों को बंजर बना डाला जबकि आज चीन में जलधाराओं और भूमि के संदूषण को फिर दोहराया जा रहा। लेकिन इस बार दूषणकारी तत्व अतीत की अपेक्षा ज्यादा विषैले हैं।
यह परिस्थिति शासक वर्ग के इस या उस सदस्य की दुर्भावना या अज्ञान से नहीं बल्कि पैदा हुई है पूँजीवाद के मूलभूत नियमों से जिनका सार हमने अपने ‘इंटरनेशल रिव्यू’ के हाल के एक अंक मे प्रस्तुत किया है:
मुनाफा और होड़ पूँजीवाद की चालक शक्तियाँ हैं जिसके दुष्परिणामों ने दुनिया के लिए खतरा पैदा कर दिया है। इसके विपरीत शासक वर्ग बताता है कि पूँजीवाद का आधार मनुष्य की जरूरतों को पूरा करना है। वे तर्क देते हैं कि पूँजीवाद जीवन की जरूरतों और विलासिताओं के लिए ‘उपभोक्ता माँग’ पर ध्यान देता है और वे करोडों लोगों द्वारा आय तथा जीवन स्तर में हासिल बेहतरी की ओर इशारा करते है। यह सच है कि पूँजीवाद ने उत्पादन के ऐसे साधनों को विकसित कर लिया है जिनकी अतीत में कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। बहुतों की जिंदगी में वास्तव में सुधार आया है खासकर विकसित देशों में। लेकिन यह तभी किया गया जब यह पूँजीवाद के असली मकसद - मुनाफा वसूली – के साथ मेल खाता था। पूँजीवाद एक ऐसी आर्थिक प्रणाली है जिसके लिए जरुरी है निरंतर विस्तार पाते जाना, अन्यथा यह ढह जाएगी : व्यवसायों के लिए फलना फूलना जरूरी है अन्यथा वे पिट जाएँगे और उनकी लाश उनके प्रतिद्वंद्वी नोंच डालेंगे; राष्ट्रीय राज्यों के लिए जरुरी है अपने हितों की हिफज़त करना अन्यथा वे अपने प्रतियोगीयोँ के मातहत बना दिए जाएँगे। चूँकि ऐसा शासक वर्ग को कभी बर्दाश्त नहीं होगा, अपनी अर्थव्यस्था अपने समाज और अपनी हैसियत को यथावत रखने के लिए वह किसी भी तरह की कुर्बानी दे सकता है। तभी तो खाद्यान्नों से पटे संसार में लाखों भूखे हैं, क्यों निश्स्त्रीकरण समझौतों और मानवाधिकारों की घोषणाओं के बावजूद चहुँ ओर कभी न खत्म होने वाले युद्ध जारी है; क्यों अर्थव्यवस्था को सहारा देने के लिए हाल ही में खरबों झौंक डाले हैं, जबकि लाखों लोग आज भी समुचित स्वास्थ्य और शिक्षा के अभाव में जीवन गुजार रहे हैं। तभी तो जलवायु परिवर्तन के ज़बर्दस्त साक्ष्यों के बावजूद बुर्जआजी इस ग्रह को सुरक्षित रख पाने में नाकामयाब है।
राष्ट्रीय होड़ के अखाड़े हैं अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन
पूँजीवाद के चालक नियम समाज के हर पहलू को प्रभावित करते हैं और अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन इससे अछूते नहीं है। ऐसे सम्मेलन, भले ही उनका घोषित उद्देश्य कुछ भी क्यों न हो और भले ही सामान्य हित दांव पर लगे हों, प्रतियोगी राष्ट्रों के बीच बढ़त हासिल करने के लिए धींगामुश्ती से ज्यादा कुछ नहीं होते। भव्य अनुष्ठान, मानवाध्किारों, गरीबी उन्मूलन तथा इस उपग्रह की सुरक्षा संबंधी बड़े-बड़े भाषण हमें धोखा देने के लिए लगाये गये मुखौटे भर हैं। इससे पहले रियो डि जेनेरिओ और क्योटो के समान, कोपेनहेगन सम्मेलन का लब्बोलुबाव भी यही है।
कोपेनहेगन में आर्थिक और साम्राज्यवादी दोनों हितों में टकराहट हुई और चूँकि जुडे होने के बावजूद ये एकरूप नहीं हैं, इसने परिस्थिति को और पेचीदा बना दिया जिसमे बदलते गठजोड़ तथा बदलते दृष्टिकोण देखने में आये।
सम्मेलन के दौरान और उसके बाद भी विकसित और विकासशील देशों के बीच तथाकथित टकराव की बात को बहुत तूल दिया गया। यह साफ है कि विकसित अर्थव्वस्थाओं के अपने कुछ सामान्य हित हैं, उसी तरह जैसे कॉफी या लोह अयस्क जैसी बुनियादी वस्तुओं की आपूर्ति करने पर निर्भर देशों के सामान्य हित हैं, पर इनकी एकता दीर्घजीवी नहीं हो सकती। यूरोपियन यूनियन इस सॉंझा समझौते के साथ इस सम्मेलन में आया है कि ग्रीन हाऊस गैसों के एमिशन में सन 2020 तक 20 प्रतिशत की कटौती की जाए और वार्ता अगर सही दिशा में हुई तो सुझाव था कि इसे 30 प्रतिशत तक ले जाया जाए। इस समूह में बड़े और छोटे दोनों ही औद्योगिक क्षेत्र वाली अर्थव्वस्थाऍं मौजूद हैं। बहुत सिकुड चुके औद्योगिक क्षेत्र वाला ब्रिटेन जरमनी, जिसका औद्योगिक क्षेत्र अभी अपेक्षतया व्यापक है, के मुकाबले अधिक महत्वकांक्षी लक्ष्यों को आगे बढ़ाने में अग्रणी है। वहीं भूतपूर्व पूर्वी ब्लॉक के पोलैंड सरीखे देश बीस प्रतिशत से अधिक की कटौती का विरोध करते हैं। सरकारी आँकड़ों के मुताबिक ब्रिटेन ने अपने लक्ष्य की पूर्ति भर ही नही की है बल्कि उसने महत्वपूण ढंग से सऩ 1990 के मुकाबले ग्रीन हाऊस गैसों के एमिशन को क्योटो के अपने साढ़े बारह प्रतिशत के लक्ष्य को पार किया है। सम्मेलन में गॉर्डन ब्राउन उच्च नैतिक धरातल अख्तियार करने तथा दुनिया का अगुवा नेता का रोल अदा करने मे उतावला नज़र आया। असल में ब्रिटेन का यह प्रदर्शन उसकी अर्थ्व्यवस्था में आये बदलावों का नतीजा है और इस तथ्य को प्रकट करता है कि एमिशन की गणना का आधार उपभोग की बजाय उत्पादन है : ‘‘गुजरे तीस वर्षों में ब्रिटेन की अर्थव्यस्था में आए संरचनागत बदलावों का परिणाम है महत्वपूर्ण अनौद्योगिकीकरण। परिणामतः, ब्रिटेन की अर्थव्वस्था की कार्बन तीव्रता में कमी आई है और ब्रिटेन बड़ी तादाद में उन उत्पादों का आयात करता है जिनका निर्माण अपेक्षाकृत कार्बन केंद्रित है। इसलिए ब्रिटेन का उपभोग अप्रत्यक्ष रूप से इन आयातों से जुडे एमिशन के लिए जिम्मेदार है। यदि आयातों और निर्यातों के संतुलन का हिसाब लगाए जाए, तो ब्रिटेन के घोषित एमिशन अप्रत्याशित रूप से अलग होंगे।’’[9] वास्तव में, वे 1990 के बाद से उन्नीस प्रतिशत की वृद्धि दिखाएँगे।[10] संक्षेप में ब्रिटिश पूँजीवाद ने अपने प्रदूषण का उसी तरह दूसरों को ठेका दे दिया है जैसे अपने उत्पादन का। साम्राज्यवादी स्तर पर, कर्ज़ संकट के वक्त की तरह इस सम्मेलन में भी ब्राउन की हताश गतिविधि का कारण है साम्राज्यवादी ताकत के रुप में ब्रिटेन के निरन्तर ह्रास की भरपाई की कोशिश।
अमरीका भी अनौद्योगिकीकरण हो रहा है और वह उन देशों में अपने उत्पादन का पुनर्स्थापन कर रहा है जहाँ खर्चे कम हैं। लेकिन एक विशाल औद्योगिक क्षेत्र अभी उसके पास है। इस क्षेत्र द्वारा भोगी प्रतियोगिता की गहनता का ही नतीजा है कि वह हर उस चीज़ का विरोध करने में सक्रिय है जो उसे लगता है उसे अपने प्रतिद्वंद्धियों के मुकाबले कमज़ोर कर देगी। यह एक वजह है कि क्यों अमरीका हमेशा ही व्यापारिक विवादों में उलझा रहता है और क्यों एक नया विश्व व्यापार समझौता करने के प्रयास बहुधा असफल रहे हैं तथा क्यों उसने क्योटो संधि पर हस्ताक्षर करने से इन्कार कर दिया। अपने प्रशासन के अंतिम वर्षो में बुश को मजबूरीवश स्वीकार करना पड़ा कि जलवायु परिवर्तन एक हकीकत है लेकिन अमरीका ने अपने लक्ष्य पेश किये और ज़ोर दिया कि चीन सरीखे देश भी कटौती करें। ओबामा के राज में लोकलुभावनी बातों के सिवा कुछ भी नहीं बदला है। अमरीका आज भी महत्वपूर्ण कटौतियों का तथा बाध्यकारी समझौतों का विरोध करता है, और आर्थिक व साम्राज्यवादी कारणों से वह ऐसा कुछ भी करने के सख्त खिलाफ है जिससे चीन को कोई लाभ हो।
‘विकासशील’ माने जाने वाले 132 देश सम्मेलन मे जी-77 के रुप मे एकजुट हुए। अपेक्षतया: छोटी अर्थव्यवस्थाओं और थोड़े उद्योगों वाले इन देशों का आम लक्ष्य था अधिकतम संभव वित्तीय सहायता के लिये ज़ोर लगाना। 400 बिलियन डॉलर प्रति वर्ष की वित्तीय सहायता की मांग उन्होंने सम्मेलन में रखी जबकि कुछ ने मांग रखी कि तापमान में अधिकतर वृद्धि 1.5 डिग्री सेंटीग्रेड से अधिक न हो। उन्होंने क्योटो संधि को बरकरार रखने की कोशिश की जोकि हस्ताक्षरकर्ता विकसित देशों से कार्बन एमीशन में कटौती की मांग करती है और जिसके बारे में बहुत से विकसित देशों की आशा है कि वह एक नये कोपेनहेगन समझौते में गुम हो जाएगी।
अब, जब वह दुनिया में सबसे अधिक ग्रीन हाउस गैसें पैदा करनेवाला देश बन गया, तो चीन उसके एमीशन को लेकर बहुत सारी ‘चिंताओं’ का निशाना बन गया है। उसकी अर्थव्यवस्था के तेज विकास ने भारी तादाद में धन उसकी ओर खींचा है और उसे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर एक बृहद् भूमिका अपनाने के सक्षम बनाय है। उसने बहुत से विकासशील देशों के साथ महत्वपूर्ण आर्थिक सम्पर्क कायम कर लिये हैं। वह ऐसी प्राथमिक वस्तुओं के उत्पादन का विकास करने में उनकी सहायता कर रहा है जो चीन को सप्लाई होती हैं तथा उसके उद्योग को जिंदा रखती हैं। दुनिया भर में अपने साम्राज्यवादी दबदबे के विस्तार के उसके चुपचाप परन्तु द़ृढ़ निश्चय प्रयासों की ज़ड मे उसकी यह बढती आर्थिक शक्ति ही है। अपने एमिशन पर किसी भी तरह की महत्वपूर्ण बंदिश स्वीकार करने का अर्थ है अपनी आर्थिक वृद्धि तथा राजनीतिक हैसियत को सीमित करने देना। इसलिए जहां उसने अपने उद्योगों की कार्बन तीव्रता (प्रति उत्पादन इकाई पर खर्च कार्बन की मात्रा) को कम करने का सुझाव पेश किया है, वहीं उसने किसी भी कटौती का तथा स्वतंत्र सत्यापन की अमेरिकी मांग का पुरजोर विरोध किया है। सम्मेलन में वह उसने सवयं को जी-77 से जोड़ा। इसके साथ ही वह बेसिक के रुप मे ज्ञात ब्राजील, दक्षिण अफ्रीका तथा भारत के उस ग्रुप का भी हिस्सा है जो सम्पन्न देशों नीतियों की मुखालफत करता है। इस ग्रुप के अन्दर, ब्राजील जैव ईंधन के प्रमुख उत्पादक के नाते अपना बचाव करता है बावजूद इस तथ्य के कि जैव ईंधन आवश्यक खाद्यय उत्पादन से उत्पादन को मोडता है।
सम्मेलन की छल-छदम भरी तिकडमें
सम्मेलन में प्रतिभागियों की तिकडमें, जिसमें शामिल थी भड़काऊ बयानबाजी और टकराव, उल्लेखनीय हैं। काम में लाया गया एक दांव था बडे पैमाने पर, और बहुत छिपा कर भी नहीं, दस्तावेजों का लीक हो जाना। जैसा कि एक पत्रकार ने टिप्पणी की: “खबरें लीक होना रोजमर्रा की बात थी जहां तक कि अंत मे यह एक बाढ़ बन गया (………..)। गोपनीय दस्तावेजों को जानबूझकर फोटो कापियर पर छोड़ दिया जाता था, अन्य पत्रकारों के हाथों में ठूंस दिये जाते थे अथवा बेव पर डाल दिये जाते थे। लोग उनके फोटोग्राफ लेकर उन्हें लगातार चारों ओर बांट रहे थे”।[11]
कांफ्रेंसों के तीसरे दिन पह्ला संकट तब फूटा जब तथाकथित ‘डेनिस पेपरज़’ सामने आए। शिखर सम्मेलन से पहले यह ‘सर्कल आफ कमिटमेंट’ के रुप मे ज्ञात एक गुप्त ग्रुप द्वारा लिखा गया था जिसमें अमेरिका तथा शिखर सम्मेलन का मेज़बान डेनमार्क भी शामिल थे। इस परचे ने, जिसकी कोइ औपचारिक हैसियत नहीं थी चूँकि इसका मसविदा यू एन के ढांचे के बाहर तैयार किया गया था, क्योटो संधि का तथा हस्ताक्षरकर्ताओं द्वारा एमिशन कटौती की उसकी कानूनी जरुरत का खात्मा कर दिया होता। इसने दो डिग्री सेंटीग्रेड की वृद्धि को सवीकार्य लक्ष्य के रुप में थोप दिया होता तथा फंडिंग व्यवस्थाओं को बदल दिया होता। मंशा थी इसे सम्मेलन पर उसकी आखिरी घडियों में, प्रत्याशित गतिरोध खडा होने पर, थोपना। जी77 देशों की तरफ से इसकी जबरदस्त मुखालफत हुई और उन्होंने विकसित देशों पर सम्मेलन का अपहरण करने तथा आपसी सहमतियां को उस पर थोपना का प्रयास करने का आरोप लगाया।
इसके बाद अनेक विकासशील देशों ने प्रस्ताव रखा कि वैश्विक तापमान की वृद्धि को 1.5 डिग्री सेंटीग्रेड से नीचे रखा जाए चूँकि इससे अधिक कोई भी वृद्धि टुवालु जैसे छोटे-छोटे द्वीपीय राज्यों का विनाश साबित होगी। प्रस्ताव ने कानूनन बाध्य कटौतियों पर सहमति की मांग की। इसका फौरन दूसरे देशों ने विरोध किया जिनमें चीन, सउदी अरब और भारत शामिल थे और इससे जी77 ग्रुप विभाजित हो गया। इस विवाद के कारण वार्ता का कुछ भाग कई घंटों तक स्थगित रहा।
आगामी दिनों में संयुक्त राष्ट्र संघ का एक संशोंधित टैक्सट प्रस्तुत किया गया और यह विवाद जारी रहा, पहले तो इस बात पर कि क्योटो समझौते को क्या एक अलग राह के रुप में रखा जाए या इसे नये समझौते में समाविष्ट कर लिया जाए, और दूसरा विकासशील देशों की सहायता के लिए फंडिंग के सवाल पर। फास्ट ट्रेक फंडिग और लम्बी अवधि की फंडिग के कई प्रस्तव सामने आए। ब्रिटेन सहित कई देशों ने जलवायु परिवर्तन संबंधी उपायों पर खर्च के लिए वित्तीय सौदों पर टैक्स (द टोबिन टैक्स) लगाने की पुरनी मांग दोहराई। संयुक्त राष्ट्र संघ की टैक्स्ट समझौते का एक प्रयास नज़र आती है जिसके मुताबिक विकसित देश तापमान वृद्धि को 2 डिग्री सेंटीग्रेड के नीचे रखने के लिए एमिशन में 25-45 प्रतिशत की कटौती करते हैं। विकासशील देशों के लिए भी एमिशन में 15-30 प्रतिशत की कटौती लाजिमी है, जबकि क्योटो समझौता अपनी जगह प्रभावी रहेगा। असल में विकसित देशों द्वारा प्रस्तावित कटौतियाँ निचले प्रतिशतों तक भी नही पंहुचती, जबकि समझौते की खामियाँ एमिशन को 10 प्रतिशत तक बढ़ने देंगी।
जैसे ही बातचीत दूसरे सप्ताह में पहुँची और सरकारों के अध्यक्ष अनुपलबध समझौते पर हस्ताक्षर करने पहुँचने वाले थे, टकराव उग्रतम हो गये और कुछ अफ्रीकी देशों ने तब तक उपस्थित न होने की धमकी दे डाली जब तक कि समझौते को बदल नहीं दिया जाता। क्योटो संधि के भविष्य पर उठे विवाद के चलते वार्ताओं का एक भाग तब तक फिर स्थगित रहा जब तक अन्तत: यह फैसला नहीं हो गया कि इसे जारी रखा जाएगा।
निगरानी के सवाल पर विवाद तब बढ़ गया जब अमरीका द्वारा रखी बाहरी जाँच की माँग का भारत और चीन ने विरोध किया। सप्ताह के मध्य तक अव्यवस्थाएँ किसी से छिपी नहीं थीं : सम्मेलन के सभापति ने इस्तीफा दे दिया और उसकी जगह डेनमार्क के प्रधानमंत्री को बिठाना गया, एमिशन कटौतियों, फंडिग और निरीक्षण संबंधी प्रस्ताव तथा प्रति-प्रस्ताव इधर-उधर आते जाते रहे, समझौते के यूएन के मसविदे के ढे़रों संशोंधन पेश किये जाने से व्यवहारत: गतिरोध की स्थिति पैदा हो गई। ऐसी अफवाह थी कि ‘डेनिश टैक्स्ट’ का एक संशोधित रूप पेश किया जानेवाला है जबकि जी77 ने एक जवाबी टैक्स्ट तैयार किया। जी77 में एक और फूट उस वक्त सामने आई जब इथोपिया के प्रधानमंत्री तथा सम्मेलन में अफ्रीकी राष्ट्रों के समूह के अध्यक्ष, मेलेस झेनावी ने पेशकश की कि वे ऐसा सौदा स्वीकार कर लें जिसके मुताबिक गरीब देशों को 400 बिलियन डॉलर की उनकी मूल माँग के बजाय 2020 तद 100 बिलियन डालर की वित्तीय सहायता दी जाएगी। लोगों ने यह कहते हुए उन पर आक्रमण किया कि वे अफ्रीकियों की जिंदगी और उम्मीदों का सौदा कर रहे हैं। यह ‘समझौता’ विकसित देशों के कई नुमाइंदों तथा झेनावी के बीच में गहन सौदेबाजी के बाद सामने आया। उसने इन इल्जामों को तूल दिया कि झेनावी दबाव के सामने झुक गए हैं और कि जो देश अपनी अधिकतर अर्थव्यवस्थाओं के लिए दूसरों की सहायता पर निर्भर हैं वे तिज़ोरी के धारक के साथ बहस की स्थिति में नहीं हैं। अंतत: संयुक्त राष्ट्र संघ का एक लीक हुआ दस्तावेज दिखाता है कि इन वार्ताओं में प्रस्तावित एमिशन कटौतियों का नतीजा तापमान में 3 डिग्री सेंटीग्रेड की बढ़ोतरी होगा।
सम्मेलन के आखिरी दिन से पहले, 100 बिलियन डॉलर की वित्तीय सहायता के लक्ष्य को अमेरिकी मंजूरी को एक बहुत बडी उपलब्धि के रुप में पेशा किया गया जिसने सम्मेलन में ओबामा की शिरकत की राह खोल दी थी। असल में यह मंजूरी चीन द्वारा बाहरी निरीक्षण की स्वीकृति की शर्त से जुडी थी जिसे चीन पहले ही खारिज़ कर चुका था, और पैसा मुख्यता गैर-सरकारी स्रोतों से आना था। आने के बाद ओबामा ने दोहराया के चीन निरीक्षण संबंधी अमेरिकी माँग को स्वीकार करे जिसका चीन ने क्रोधपूर्ण जवाब दिया और चीन के राष्ट्रपति हू जिनताओ ने ओबामा के साथ राष्ट्राध्यक्षों की बैठक में शामिल होने से मना कर दिया। सम्मेलन का अंत एक समझौता गांठने के हताशा प्रयासों मे हुआ - बहुत सारी टैक्स्ट घूम रही थीं, ओबामा तथा चीन के प्रधानमंत्री के बीच प्राइवेट बैठकें हुईं और वार्ताकार सुबह तक और फिर आखिरी दिन भी जुटे रहे। सम्मेलन के आखिरी घंटों में अमरीका, ब्रिटेन तथा आस्ट्रेलिया के एक समूह ने डेनमार्क के राष्ट्रपति को सम्मेलन के अध्यक्ष पद से जबरी हटा दिया तत्पश्चात सबसे अधिक शक्तिशाली देशों के एक छोटे से समूह के बीच एक समझौता गडा गया। समझौते की अंतिम टैक्स्ट आधी रात से कुछ समय पहले सामने आई और उस पर तत्काल उन लोगों ने, जो उससे बाहर रखे गए थे, हमला बोल दिया, उसे अंधेरे में किया गया एक सौदा तथा संयुक्त राष्ट्र संघ के खिलाफ एक तख्ता पलट करार दिया।
सम्मेलन का प्रारंभ हुआ समझौते के दो सौ पृष्ठों के एक मसविदे से जिसमें विस्तृत तथा विविध क्षेत्रों का समावेश था। सम्मेलन का अंत हुआ भविष्य संबंधी चन्द पृष्ठों की अस्पष्ट बयानबाजी तथा वादों से जिन्हें आखिरी रात में चन्द मुख्य खिलाडियों ने संयुक्त राष्ट्र संघ के अंतरराष्ट्रीय ढांचे, जिसकी वे दुहाई देते हैं, से बाहर गाँठा गया था। सम्मेलन का अंतिम कार्य समझौते के अस्तित्व को महज नोट भर करना था।
अंत में कोपेनहेगन सम्मेलन से एक उपलब्धि हाथ लगी : इसने दिखा दिया कि पूँजीपति वर्ग दुनिया के भविष्य को अपने हाथो मे रखने के काबिल नहीं और कि जब तक इस वर्ग को और इसकी समर्थित आर्थिक व्यवस्था पर झाडू नहीं फेर दी जाती तब तक न तो इंसानियत का और न ही पृथ्वी का कोई भविष्य है।
नार्थ 03-01-2010
संदर्भ
कोलकता और उसके आसपास दिसम्बर 2009 से लगभग 2,50,000 जूट मिल मज़दूर बेहतर वेतन, बडी संख्या में ठेका मज़दूरों को स्थायी किये जाने, सेवानिवृत्ति की सुविधायें तथा अपने जीवन एवं काम करने की परिस्थितियों से सम्बन्धित अन्य प्रश्नों को ले कर हदताल पर थे। इससे भी परे, वे हड़ताल पर गए ताकि वे अपने पिछली पगार हासिल कर सकें और मालिकों पर उनके स्वास्थ्य बीमा, प्रोविडेंट फन्ड तथा अन्य कटौतियों को जमा करने के लिए दवाब डाल सकें। दो महीने की हड़ताल के बाद, 12 फरबरी 2010 को सभी यूनियनों ने षडयंत्र रच कर मालिकों से कुछ भी हासिल किये बिना मज़दूरों को काम पर लौटने का आदेश दिया। इसके उल्ट, इस धक्के ने मज़दूरों पर और हमलों का रास्ता खोल दिया।
जूट मज़दूरों की हर वर्ष हड़ताल
पश्चिमी बंगाल में वर्तमान हड़ताल जूट मज़दूरों का कोई पहला संघर्ष नहीं था। जूट मज़दूर लगभग हर साल हड़ताल पर जाते रहे हैं। वर्ष 2002, 2004 में प्रमुख हडतालें हुयीं। 2007 की हड़ताल 63 दिन और 2008 की 18 दिन तक चली। अधिकांश अवसरों पर, मज़दूरों के कुछ सहूलतें प्राप्त करने अथवा हमलों के विरोध के प्रयासों को युनियनों के बौसों ने पानी में डुबो दिया।
जूट मज़दूरों के एक के बाद दूसरी बार बुरी तरह भिड जाने के प्रयासों की जड उनकी कार्य करने की अत्यधिक कठोर परिस्थितियां तथा स्तालिनवादी तथा अन्य यूनियनों एवं पार्टियों द्वारा उन्हें हिन्सा तथा दमन से दबाए रखने में निहित हैं। अनेक जूट मिलों की निरंतर अस्थिर स्थिति भी इसका एक कारण है।
जूट मज़दूरों की पगार बहुत कम है। स्थायी मज़दूरों तक को प्रति माह 7000 रुपये के लगभग वेतन मिलता है। प्रत्येक कारखाने में एक तिहाई से अधिक मज़दूर या तो अस्थायी हैं अथवा ठेके पर, जो स्थायी मज़दूरों से आधे से कम, लगभग 100 रुपये दिहाडी, पर काम करते हैं। इनमें से अधिकांश अस्थायी मज़दूरों ने उन्हीं मिलों में काम करते हुये समूचा जीवन गुजार दिया है लेकिन वे स्थायी नहीं हो पाये क्योंकि यह मालिकों के हितों के विपरीत था। बहुधा स्थायी और अस्थायी दोंनो को ही हर महीने पूरे मासिक वेतन और अन्य लाभों का भुगतान नहीं किया जाता। जब पिछला वेतन और अन्य लाभ जमा हो जाते हैं तो उनका भुगतान वर्षों तक नहीं किया जाता। यहां तक कि मज़दूरों की तनख़ाहों में से स्वास्थ्य बीमा (ईऐसआई) ऐवं प्रोविडेंट फन्ड के लिये कानूनी तौर पर की गयी कटौतियों को भी सम्बन्धित संस्थाओं में जमा नहीं किया जाता। और जब सामूहिक समझौते भी होते हैं तो मालिक उनका सम्मान नहीं करते। मालिकान मज़दूरों पर भारी उत्पादकता लक्ष्य थोपने के लिए तालाबन्दी और वेतन भुगतान न करने का सहारा लेते हैं। मालिकान स्तालिनवादी वाम मोर्चा सरकार एवं स्तालिनवादी तथा अन्य यूनियनों के साथ गठजोड होने के कारण बेखौफ यह व्यवहार करने में सफल हो जाते हैं। सरकार, जो अनेक समझौतों में भागीदार है, अपने स्वयं के श्रम कानूनों का पालन करने से इनकार कर देती है।
इस कारण, जूट मज़दूरों के बीच यूनियनों के विरुद्ध गहरा रोष है जिसकी अभिव्यक्ति लगातार इन सधर्षो के दौरान देखने को मिलती है। इस रोष की एक अधिक उग्र अभिव्यक्ति गत शताब्दी के नवें दशक के शुरूआत में कोलकता के विक्टोरिया और कनौरिया जूट मिलों के मज़दूरों के संघर्षों में देखने को मिली। उस समय हडतली मज़दूरों ने दक्षिण एवं वामपन्थी ट्रेड यूनियनों के दफ्तरों पर हमले कर उन्हें तोडफोड डाला और ट्रेड यूनियन नेताओं पर हमले किये। मज़दूरों ने सभी विद्यमान यूनियनों का वहिष्कार कर दिया और कई दिनों तक मिलों पर कब्जा बनाये रखा।
किन्तु पश्चिम बंगाल एक लम्बे समय से वामपंथी जंगल है जिसपर न सिर्फ गत 30 वर्षों से वामपथी लकड़बग्धों
का शासन है वल्कि यहां बहुत सारे वामपंथी दल, ग्रुप, ऐनजीओ और ''बुद्धिजीवी '' विचरण करते हैं। इन्हीं विरोधी वामपंथियों और नाना प्रकार के लोगों ने झूठे नारे दे कर विक्टोरिया और कनौरिया मिलों के मज़दूरों को हतोत्साहित किया और स्थापित यूनियनों को चुनौती देने के उनके प्रयास को पराजित कर दिया। पश्चिम बंगाल के जूट मज़दूरों की यह स्थायी त्रासदी है जो मज़दूरों के संघर्षों के बीच सर्वहारा की धारा के विकास की आवश्यकता को रेखांकित करती है।
वर्तमान हड़ताल
राज्य की वाम मोर्चा सरकार को नेतृत्व प्रदान करने वाली पश्चिम बंगाल की भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) के अधिकारियों की भागीदारी के वाबजूद त्रिपक्षीय समझौते के लिय पांच चक्रों की वार्ता असफल हो जाने के बाद जूट मज़दूरों के बढते दवाब के कारण 20 यूनियनों के संघ को 14 दिसम्बर 2009 को हड़ताल का आव्हान करना पडा। हडताली मजदर न सिर्फ बेहतर वेतन की ही मांग कर रहे थे वल्कि अपनी पुरानी पगार की अदायगी की और लम्बे समय से उनके वेतन से ईऐसआई और पीऐफ के लिये की जाने वाली कटौती की रकम को जमा किये जाने की भी मांग कर रहे थे। जानकारी मुताबिक प्रत्येक मज़दूर का पुरानी पगार का औसतन 37000 रुपये बकाया हैं जो 6 महीने के वेतन के बरावर है। पुरानी पगार को रोकना सरासर चोरी है। और भी, ईऐसआई और पीऐफ के जमा न करने के कारण मज़दूर स्वास्थ सेवाओं और सेवानिवृति के लाभों से वंचित रह जाते हैं।
चूँकि हड़ताल जारी रही, राज्य और केद्रीय सरकारों पर मालिकों ने हस्तक्षेप के लिये दबाब डाला। 'बिजिनेस स्टैन्डर्ड' के अनुसार, बिजिनेस समूहों को यह चिन्ता हुयी कि भारत की बिगडती हुयी आर्थिक व्यवस्था के परिणाम स्वरुप अन्य क्षेत्रों के पीडित मज़दूरों में भी संधर्ष की चिनगारी फूट सकती है। हड़ताल के चलते मालिक वर्ग का पैसे का नुकसान हो रहा था। 'बिजिनेस स्टैन्डर्ड' के मुताविक 16 फरबरी 2010 तक चली 61 दिन की हड़ताल के कारण 22 अरब रुपये का घाटा हुआ।
दिल्ली की सरकार और राज्य की सीपीएम सरकार तथा अन्य राजनैतिक दल एवं यूनियनें मिल कर हडताल को कमजोर बनाने में जुट गये।
राजनैतिक दलों की भूमिका
दिखावे के लिये सभी राजनैतिक पार्टियां हडताली मजदूरों के समर्थन का नाटक कर रहीं थीं । साथ ही वे अपनी नियंत्रित यूनियनों को एक ''व्यावहारिक'' दृष्टिकोंण अपनाने की भी सलाह दे रहीं थीं। पश्चिम बंगाल के मुख्य मंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य ने अपनी पार्टी सीपीएम द्वारा नियंत्रित जूट मजदूरों की सबसे बडी यूनियन, बंगाल चटकल मजदूर यूनियन (बीसीएमयू), के नेता गोविन्द गुहा को सलाह दी कि वे मजदूरों की सभी मांगों पर जोर न डालें। गुहा ने स्वयं प्रैस को बताया "जब हम उनसे मिले मुख्य मंत्री ने हमारी माँगें सुनी और कहा है कि पूरा समझौता करना मुश्किल है़...''
एक पार्टी जिसने अपनी यूनियनों को हडताली मजदूरों के खिलाफ हडताल तोडक का काम करने की सलाह दी वह थी दक्षिणपंथी त्रणमूल कांग्रेस। हालांकि लम्बे समय से यह पार्टी सीपीएम की बाजार समर्थक नीतियों के विरोध का दिखावा करती आ रही थी। टीएमसी ने धोषणा की कि वह "काम को हानि पहुचाने'' के तरीकों का समर्थन नहीं करेगी। इसकी नेता ममता बनर्जी अभी ही जूट हडताल तोडने के एवज में बडे व्यापारिक घरानों से पैसा बटोरने की कोशिश कर रही है।
मजदूरों के लडाकूपन को यूनियनों ने पटरी से उतारा
मजदूरों के व्यापक संघर्षों के दौरान यूनियनों की भूमिका तब स्पष्ट हो जाती है जब उन्हें विभिन्न कारखानों के मजदूरों में सम्बन्घ स्थापित होने से रोकते, मजदूरों की मांगों के साथ जालसाजी करते; मजदूरों को काम पर वापस लाने के लिये झूठ का सहारा लेते और उन्हें बदनाम करते देखा जा सकता है।
मजदूरों में खौलते हुये गुस्से के बावजूद वर्तमान हडताल शुरू से ही यूनियनों के नियंत्रण में थी। इसके अलावा, यूनियनों ने जूट मजदूरों को कोलकता तथा उसके आस पास के अन्य मजदूरों से अलग थलग रखने, और उन्हें यह वादा करके कि यूनियनें उनकी मांगों को पूरा कराने के लिये समझौता कर लेंगीं, निष्क्रिय रखने के लिये काम किया।
वास्तव में, मालिकों, यूनियनों और सरकार के बीच हुआ समझौता हर पहलू से एक विश्वासघात था। न सिरफ मजदूरों को तुष वेतन वृद्धि हासिल हुयी, उनके बकाया वेतन का भुगतान तक नहीं किया गया। उसका भुगतान कई महीनों में किश्तों के रूप में प्रस्तवित किया गया। यहां तक कि उनके चालू वेतन का एक भाग, उनका डीए, मासिक वेतन के साथ नहीं वल्कि तिमाही आधार पर दिया जायेगा।
इसके अतिरिक्त, युनियने अगामी तीन साल तक एक "कोई ह्डताल नहीं" का समझौता लागु करने के लिए राजी हो गईं। बीसीएमयू के नेता मिस्टर गुहा ने मीडिया को बताया : "आने वाले तीन साल तक कोई ह्डताल नहीं होगी"। इस गरंटी का अर्थ है कि मालिकों को जूट मजदूरों की नौकरियों, तनख़ाहों तथा जीवन हालातों पर और हमले करने की खुली छूट मिल जाएगी।
यूनियनों की इस दगावाजी नें हडताल की अवधि के वेतन से वंचित मजदूरों को गुस्से से खौलते छोड दिया।
मजदूरों का रोष हिन्सा में फूटा
हडताल ख्रत्म होने के कुछ दिन बाद यह गुस्सा मजदूरों द्वारा यूनियनों तथा मालिकों पर हिंसक हमलों में फूट पडा।
बृहस्पतिवार, 4 मार्च 2010 को नार्थ 24 परगना में जगद्दल जूट मिल ने मजदूरों पर एक नया हमला शुरू कर दिया। उसने स्थायी मजदूरों के काम को ठेका मजदूरों को स्थानान्तरित करने की कोशिश की। यूनियन नेताओं को नजरन्दाज करते हुये मजदूरों ने स्वतःस्फूर्त तौर पर इसका प्रतिरोध किया और इसे रोक दिया। मजदूरों को डराने और कुचलने तथा ठेकेदारी को बढाने के मकसद से मैनेजमैन्ट ने दूसरी सुबह 6 बजे, जब सुबह की पाली के मजदूर काम पर आये, तब मजदूरों पर गेट बन्द कर दिये और काम स्थगित कर दिया।
इस से जगद्दल जूट मिल के हजारों मजदूरों में सदमे और रोष की लहर दौड गयी। पहले ही उन्हें लम्बे समय तक चली और हाल ही में खत्म हुयी हडताल का वेतन नहीं मिला था। यूनियन नेताओं का इन्तजार किये बिना और उन्हें पूछे बिना मजदूरों ने मालिकों के हमले के जवाब में प्रदर्शन शुरू कर दिया। उन्होंने मांग की कि कामबन्दी तुरन्त वापिस ली जाए और मजदूरों को अन्दर जाने और काम करने दिया जाए।
इस दौरान 56 वर्षीय मजदूर बिश्वनाथ साहू की सदमे के कारण पडे दिल के दौरे से मृत्यु हो गयी। इस दुखद घटना ने मजदूरों के रोष में और पलीता लगा दिया और उन्होंने एक मैनेजर पर हमला कर दिया। लेकिन मजदूरों के गूस्से का मुख्य निशाना यूनियनें थी। मजदूरों को विश्वास था कि मिल की दोनों यूनियनें - राज्य में सत्ताधारी सीपीएम से जुडी सीटू और केन्द्र में सत्ताधारी कांग्रेस से जुडी आईएनटीयूसी - की मिलीभगत से ही मजदूरों पर वर्तमान हमला हुआ था तथा मिल को बन्द किया गया था। क्रुध मजदूरों ने सीटू और आईएनटीयूसी दोनों के दफ्तर तोडफोड डाले। मजदूरों ने कांग्रेस द्वारा नियंत्रित आईएनटीयूसी के नेता बर्मा सिंह के घर पर हमला किया। सीपीएम द्वारा नियंत्रित सीटू के नेता ओमप्रकाश राजभर की मैनेजमैन्ट का पक्ष लेने के कारण पिटायी की गयी। मजदूरों के गुस्से से यूनियनों के नेताओं और पसर्नल मैनेजर को तभी बचाया जा सका जब भारी पुलिस बल ने आ कर मजदूरों का हिंसक दमन किया और उन पर भयंकर लाठी चार्ज किया।
हालांकि हम विश्वास करते हैं कि यह हिंसा मजदूर वर्ग के संघर्षों को आगे नहीं ले जाती तो भी इसमें कोई सन्देह नहीं कि जगद्दल मिल में हुयी जन हिंसा मालिकों और यूनियनों की गद्दारी के खिलाफ मजदूरों के गुस्से का इजहार है।
आगे कैसे बढ़ें
जूट उद्योग पहले से ही संकट में है और अब यह अन्य क्षेत्रों की भांति गहराते विश्व आर्थिक संकट के प्रभाव से नहीं बच सकता। मिल मालिकान न सिर्फ मुनाफा बनाये रखने बल्कि उसे लगातार बढाये जाने पर तुले हैं और यह वे सिर्फ शोषण और मजदूरों की कार्य करने की परिस्थितियों पर हमले तेज करके ही कर सकते हैं। जूट मजदूरों के संघर्षों का लम्बा इतिहास है। उन्होंने बहुत सी लडाकू और वीरोचित लडाईयां लडी हैं। किन्तु उनकी वर्तमान और पिछली हडतालें प्रदर्शित करती हैं कि जूट मजदूर अपनी रक्षा और अपने संघर्षों का विकास केवल उन्हें अन्य क्षेत्रों के मजदूरों के संघर्षों से जोड कर ही कर सकते हैं। और भी, वे यूनियनों के प्रति अपने अविश्वास को निष्क्रिय अविश्वास अथवा अराजक हिन्सा तक ही सीमित नहीं रख सकते। उन्हें यूनियनों की विश्वासघाती भूमिका की स्पष्ट समझ विकसित करनी होगी और उन्हें अपने संघर्षों को यूनियनों के नियंत्रण से निकाल कर अपने हाथों में लेने का प्रयास करना होगा। आगे बढने का यही एकमात्र मार्ग है।
नीरो, 2 मई 2010
ग्रीस में गुस्सा उबाल पर है और सामाजिक स्थिति विस्फोटक। ठीक इस वक्त, ग्रीस सरकार मज़दूर वर्ग पर ताबडतोड हमलों की वौछार कर रही है। मज़दूर वर्ग की सभी पीढियों, सभी भागों को बुरी तरह कुचला जा रहा है। मज़दूर चाहे निजी क्षे़त्र के हों अथवा सार्वजनिक क्षेत्र के, बेरोजगार हों या पेंशनभोगी, चाहे वे अस्थायी संविदा पर काम करने वाले विद्यार्थी ही क्यों न हों, किसी को भी नहीं बख्शा जा रहा है। मज़दूर वर्ग भयंकर गरीबी के खतरे की चपेट में है।
इन हमलों के बर खिनाफ मज़दूर वर्ग ने जवाब देना शुरु कर दिया है। ग्रीस में और अन्यत्र भी, सडकों पर उतर कर, हडतालों पर जा कर लोग यह प्रदर्शित कर रहे हैं कि पूँजीवाद द्वारा अपेक्षित कुर्बानी के लिये वे तैयार नहीं हैं।
लेकिन इस क्षण, संघर्ष अभी भी वास्तव में विशाल नहीं बन पाया है। ग्रीस के मजडूर कठिन दौर से गुज़र रहे हैं। ऐसे में क्या करें जब समूचा प्रचार तंत्र और राजनैतिक मंडलियां यह प्रचार करने में जुटी हों कि देश को दिवालिया होने से बचाने के लिये बेल्ट कसने के अलावा कोई विकल्प नहीं है? राज्य के राक्षस के खिलाफ कैसे खडे हों? शोषितों के पक्ष में शक्तियों का संतुलन स्थापित करने के लिये संधर्ष के कौन से तरीके आवश्यक हैं?
ये प्रश्न सिर्फ ग्रीस के मज़दूरों के ही दरपेश नहीं बल्कि इनका सामना दुनियां भर के मज़दूरों को है। इसमें कोई भ्रम नहीं हो सकता: "ग्रीस की त्रासदी" विश्व पटल पर मज़दूर वर्ग के सामने आने वाला पूर्वानुभव है। इस प्रकार, पुर्तगाल, रोमानियां, जापान, स्पेन (जहां सरकार ने सार्वजनिक क्षेत्र के मज़दूरों के वेतन में 5% कटौती कर दी है) में "ग्रीस छाप कड़की पैकेज'' की पहले ही घोषणा की जा चुकी है। ब्रिटेन में, नई साझा सरकार ने कटौतियों के अपने मंसूबों का इजहार करना शुरु कर दिया है। साथ-साथ किये जाने वाले ये सभी हमले पुनः प्रकट करते हैं कि मज़दूरों की कोई भी राष्ट्रीयता क्यों न हो, वे एक ही वर्ग के हिस्से हैं जिसका हर जगह एक ही हित एवं वही साझा दुश्मन है। पूँजीवाद सर्वहारा को वेज लेबर की भारी जंजीरों का बोझ झेलने के लिये मजबूर करता हैं किन्तु, यही जंजीरें सभी सीमाओं को तोड कर मज़दूरों को एक कडी में पिरोने का काम भी करती हैं।
ग्रीस में, यह हमारे वर्गीय भाई बहिन ही हैं जो हमलों के शिकार हैं और जिन्होंने हमलों का जवाब देना शुरु कर दिया है। उनका संघर्ष हमारा संघर्ष है।
ग्रीस के मज़दूरों के साथ एकजुटता! एक वर्ग, एक संघर्ष !
पूँजीवाद द्वारा लादे गये सभी बंटवारों को हमें खारिज करना है। सभी सत्ताधारियों द्वारा अपनाये गये पुराने सिद्धान्त "बांटो और राज करो" के खिलाफ हमें शोषितों का सिंहनाद बुलन्द करना है: "दुनियां के मजदूरो एक हो!"यूरोप में,विभिन्न राष्ट्रीयताओं के पूँजीपति हमें विश्वास दिलाने की कोशिश कर रहे हैं कि यह सिर्फ ग्रीस की वजह से है कि हमें अपनी बेलट कसनी पड़ रही है। ग्रीस के कर्ता-धर्ता लोगों की बेईमानी जिन्होंने देश को दशकों तक कर्ज पर जिन्दा रहने की इजाजत दी और सरकारी खजाने को खाली कर डाला; वे ही यूरो में "अंतर्राष्ट्रीय विश्वास के संकट" का मुख्य कारण हैं। दूसरी ओर, सरकारें धाटा कम करने तथा वृहद स्तर पर कटौती लगू करने की आवश्यकता की व्याख्या के लिये इस झूठे बहाने का प्रयोग कर रही हैं।ग्रीस में, सभी आधिकारिक पार्टियां हमलों के लिये "विदशी शक्तियों'' को दोषी ठहराते हुये राष्ट्रीय भावनाओं को उभारने में लगी हैं और इसमे कम्यूनिस्ट पार्टी सबसे आगे है। "अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष और यूरोपीय यूनियन मुर्दाबाद!'' "जर्मनी मुर्दाबाद!'' ये नारे ग्रीस के राष्ट्रीय पूँजीवाद की रक्षा में सभी वाम और अतिवाम पंथी पारटियों के जुलूसों में लगाये जा रहे हैं।
अमेरिका में यदि शेयर बाजार गोते लगाता है तो यह यूरोपीय यूनियन में अस्थिरता के चलते है; यदि कंपनियां बन्द हो रही हैं तो यूरो की कमी के कारण है जो डालर और अमेरिकी निर्यात के लिये है बाधा है।
संक्षेप में, प्रत्येक राष्ट्रीय पूँजीपति अपने पडौसी को दोषी ठहरा रहा है और मज़दूर जिनका वह शोषण करता है उन्हें ब्लैकमेल कर रहा है: "कुर्बानियां स्वीकार करो वर्ना हमारा देश कमजोर हो जायेगा, हमारे प्रतिद्वन्दी लाभ उठा ले जायेंगे"। इस प्रकार शासक वर्ग हमारे अन्दर राष्ट्रीयतावाद इंजेक्ट करने की कोशिश कर रह है जो वर्ग संघर्ष के लिये खतरनाक जहर है।
देशों में बंटी यह दुनियाँ हमारी नहीं है। मज़दूर वर्ग को, जिस देश में वह रहता है उसकी पूँजी की जंजीर में जकडे जाने पर कुछ हासिल होने वाला नही है। "राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था की सुरक्षा'' के नाम पर आज कुर्बानियां स्वीकार करना भविष्य में और अधिक कठिन कुर्बानियों के लिये भूमि तैयार करने का मार्ग भर है।
यदि ग्रीस बर्बादी के कगार पर है; यदि स्पेन, इटली, आयरलैंन्ड और पुर्तगाल पीछे-पीछे हैं; यदि ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी, अमेरिका भी गहरे संकट में हैं, यह इस लिये है कि पूँजीवाद एक मरणासन्न व्यवस्था है। इस गर्त में गहरे और गहरे डूब जाना सभी देशों की नियति है। पिछले 40 वर्षो से विश्व की पूँजी संकट में डुबकी लगा रही है। एक के बाद दूसरा मन्दी का दौर आता रहा है। सिर्फ कर्जों का अन्तहीन सिलसिला ही पूँजीवाद को कूछ हद तक विकास करने योग्य रख पाया है। पर इस सब का नतीजा यह है कि आज परिवार, कंपनियाँ, बैंक, तथा राज्य आकंठ कर्ज में डूबे हुये हैं। ग्रीस का दिवालियापन शोषण की इस व्यवस्था के सामान्य और ऐतिहासिक दिवालियेपन का व्यंग चित्र मात्र है।
शासक वर्ग की आवश्यकता है हमें बांटना: हमारी आवश्यकता है एक जुटता !
मज़दूर वर्ग की ताकत उसकी एकता !
घोषित की जा रही कड़की की योजनायें हमारे जीवन की स्थितियों पर खुले, सामान्यीकृत हमले हैं। इसका एकमात्र संभव उत्तर है मज़दूर वर्ग की ओर से विशाल आन्दोलन। इन हमलों का उत्तर अलग-थलग रुप से तुम्हारे अपने कोने, तुम्हारे अपने कारखाने, स्कूल तथा दफ्तर में नहीं दिया जा सकता। विशाल स्तर पर मुकाबला अति आवश्यक है। अकेले कुचल दिये जाने और गरीबी में धकेल दिये जाने से बचने का यही एकमात्र विकल्प है।
किन्तु, संधर्षों की आघिकारिक "विशेषज्ञ" ट्रेड युनियनों द्वारा क्या किया जा रहा है? वे उन्हें एकजुट किये बिना अनेक कार्य स्थ्लों पर हडतालें संगठित कर रहे हैं। वे सक्रिय रुप से क्षेत्रीय अलगाव प्रोत्साहित करती हैं विशेषतया निजी तथा सार्वजनिक क्षेत्र के मज़दूरों के बीच में। वे मज़दूरों को व्यर्थ के "डे आफ एक्शन" पर मार्च कराती हैं। वे वास्तव में, मज़दूरों को बांटने में माहिर हैं। यूनियनें राष्ट्रवाद फैलाने में समान रुप से निपुण हैं। एक उदाहरण: मार्च के मध्य से, ग्रीस की ट्रेड यूनियनों का बहुत ही आम नारा है " ग्रीस खरीदो''।
यूनियनों के अनुसरण का अर्थ है विभाजन तथा पराजय के रास्ते का अनुसरण। मज़दूरों के लिये जरुरी है कि वे संधर्ष अपने हाथों में ले लें। और यह वे आम सभाओं मे संगठित हो कर तथा मांगों और लगाये जाने वाले नारों का फैसला करके, ऐसे प्रतिनिधि चुन कर जिन्हे किसी भी पल वापिस बुलाया जा सके, और मज़दूरों के अन्य ग्रुपों से चर्चा करने तथा उन्हें आन्दोलन में शामिल होने के लिये प्रेरित करने के लक्ष्य से निकट के कारखानों, दफ्तरों, स्कूलों, और अस्पतालों में बडे प्रतिनिधि मंडल भेज कर ही कर सकते हैं।
ट्रेड यूनियनों के दायरे से बाहर जाना, संधर्ष का नियन्त्रण अपने हाथों में लेने का साहस दिखाना, दूसरे क्षेत्र के मज़दूरों को मिलने जाने के कदम उठाना .... यह सब बहुत कठिन लगता है। आज संधर्ष के विकास में आने वाली अडचनों में से एक है: मज़दूर वरग में आत्म विस्वास की कमी है। उसके हाथों में कितनी बडी ताकत है, वह अभी यह पहचान नहीं पाया है। फिलहाल, पूंजीवाद द्वारा किये जा रहे हमलों की हिंसा, आर्थिक संकट की बर्वरता, मज़दूरों में आत्म विश्वास की कमी, यह सब उसे पंगु बनाने का कम करते हैं। स्वयं ग्रीस में, मज़दूरों का प्रतिउत्तर हालातों की गंभीरता की मांग के अनुरुप कहीं कम है। तब भी, भविष्य वर्ग संधर्ष में ही निहित है। हमलों के मुकाबले का एकमात्र मार्ग है विशाल आन्दोलनों का विकास।
कुछ लोग पूछते हैं: "ऐसे संघर्ष क्यों करें? वे हमें कहां ले जाकर खडा करेंगे? चूँकि पूंजीवाद दिवालिया हो गया है, और सुधारों की कोई संभावना नहीं, क्या इसका मतलब यह नहीं कि कोई रास्ता शेष नहीं रहा?'' और वास्तव में, शोषण की इस व्यवस्था के भीतर कोई मार्ग शेष नहीं। किन्तु कुत्तों की भांति व्यवहार किये जाने को अस्वीकार करना तथा पलट कर सामूहिक रुप से जवाब देने का अर्थ है अपनी मान मर्यादा के लिये खडा होना। इसका अर्थ यह अहसास है कि होड और शोषण की इस दूनियां में ऐकजुटता जीवित है और मज़दूर वर्ग वास्तव में इस अमूल्य मानवीय भावना को जीवन में उतारने में सक्षम है। और तब एक अन्य दुनियां की संभावना प्रकट होने लगती है, शोषण, राष्ट्रों तथा सीमाओं से रहित एक दुनियां, एक दुनियां जो इन्सानों के लिये बनी है न कि मुनाफे के लिये। मज़दूर वर्ग अपने पर भरोसा कर सकता है, उसे अपने पर भरोसा करना होगा। वह ही एकमात्र वह वर्ग है जो इस नये समाज का निर्माण करने की और मानवता का स्वयं से समन्जस्य स्थापित करने की क्षमता रखता है, वह छलाँग लगा कर जिसे मार्क्स ने "आवशयक्ता के क्षेत्र से स्वतंत्रता के क्षेत्र में छलाँग लगाना'' कहा।
पूँजीवाद दिवालिया है, किन्तु एक दूसरी दुनियां - कम्युनिज्म संभव है!
इन्टरनेशनल कम्युनिस्ट करन्ट, 24 मई 2010
03 अक्तूबर 2009 से रीको ऑटो फैक्ट्री गुड़गाँव के मजदूर अपनी माँगों को लेकर हड़ताल पर थे। 18 अक्तूबर 2009 रविवार की शाम मजदूरों की हड़ताल तुड़वाने फैक्ट्री के सुरक्षागार्ड व मालिकों ने भाड़े के गुण्डों को बुलाकर हड़ताली मजदूरों पर कातिलाना हमला किया जिसमें सुरक्षा में लगी पुलिस फायरिंग में गोली लगने से एक मजदूर की मौत हो गई और 40 अन्य घायल हो गये। हड़ताली मजदूरों पर फायरिंग की इस घटना से मानेसर औद्योगिक क्षेत्र में काम करने वाले लगभग 30 हजार उन मजदूरों में जबरदस्त गुस्से की लहर दौड़ गई जो पिछले कई महीनों से अपने हकों की खातिर फैक्ट्री मालिकों के खिलाफ आंदोलन छेड़े हुए हैं। रीको ऑटो के हड़ताली मजदूरों पर हुए कातिलाना हमले के विरोध में 20 अक्तूबर 2009 को गुडगाँव व मानेसर के उ़द्योग मजदूरों ने काम पूरी तरह बंद रखा। हालांकि मजदूर संगठनों द्वारा हड़ताल तो वापस ले ली गई लेकिन प्रबंधकों के खिलाफ आंदोलन चला रहे विभिन्न फैक्ट्री मजदूरों द्वारा इस घटना के विरोध में काम बंद रखने का आह्वान एक अहम और दिलचस्प घटना है। मंगलवार सुबह से ही रीको ऑटो तथा सनबीम कास्टिंग के सताये मजदूरों ने राष्ट्रीय राजमार्ग-8 पर जबरदस्त विरोध प्रदर्शन किया और उसे पूरी तरह ठप कर दिया। इस विरोध प्रदर्शन में उनके साथ सोना कोयो स्टीयरिंग सिस्टम्स, टी.आई.मैटल्स, ल्यूमैक्स इंडस्ट्रीज, बजाज व हीरो होंडा मोटर्स लिमिटेड के मजदूर समूह भी शामिल थे। स्थानीय प्रशासन की आधिकारिक जानकारी के मुताबिक गुड़गाँव मानेसर की 70 ऑटो स्पेयर पार्ट निर्माता कंपनियों के करीब एक लाख मजदूरों ने इस एक दिन की हड़ताल में हिस्सा लिया। भले ही 21 अक्तूबर 2009 को ज्यादातर कंपनियों के मजदूर अपने काम पर आ गये और उनका आंदोलन आगे नहीं बढ़ा लेकिन यह काबिलेगौर है कि इस तरह की घटनाएँ भारत के मजदूर आंदोलन में एक अहम मुकाम और मालिकों के शोषण के खिलाफ मजदूरों के प्रतिरोध की जबरदस्त दस्तक है।
यह भारत के अलग-अलग हिस्सों में फैल रही वर्ग संघर्ष की चेतना का ही नतीजा है। भला जुलाई 2005 में गुड़गाँव मानेसर के हीरो होंडा मजदूरों के जुझारू संघर्ष को कोई भुला सकता है? जिसके बाद मजदूर आंदोलनों का क्रमिक दौर तो हम देखते ही हैं साथ ही हम उन्हें इस कुव्वत से भी लैस पाते हैं कि मालिकों सेअपने मसले वे खुद निपटाने और हकों की लड़ाई खुद लड़ने में समर्थ हैं।
सन् 2007 के पहले के तमाम साल भारत की अर्थव्यवस्था के तीव्र विकास के वर्ष होने के बावजूद वर्किंग क्लास की दशा बेहतर होने की बजाय बद से बदतर ही हुई है। रोजगार छिन जाने की चिंता और डर एक कटु सच्चाई है। तीव्र आर्थिक विकास एवं अर्थव्यवस्था में बढ़ोत्तरी के बावजूद फैक्ट्री मालिकों द्वारा बड़े पैमाने पर स्थाई मजदूरों को हटाकर उनकी जगह गैर कानूनी ढंग से कम मजदूरी पर ठेका मजदूरों को काम पर रखा जा रहा है। जबकि हीरो होंडा, मारुति और हुंडई सरीखी कंपनियों का उत्पादन इस दौरान कई गुना बढ़ा है। हीरो होंडा का उत्पादन 2 लाख गाड़ियों से बढ़कर 36 लाख तक जा पहुँचा है लेकिन इसके विपरीत स्थाई रोजगार में भारी कमी हुई है और कहीं-कहीं तो 'जगह' ही खत्म कर दी गई है। उनकी जगह 'अस्थाई' मजदूरों की भर्ती मालिकों ने कर डाली है। देश की हर कंपनी की यही कहानी है। मुनाफा कमाने की गलाकाट होड़ में लगी देश की ये ऑटो मोबाइल व पुर्जा कंपनियाँ मजदूरों पर कातिलाना हमला करने से भी बाज नहीं आ रहीं। मुनाफे ने इनको अंधा बना दिया है लिहाजा मजदूरों का बुरी तरह दमन करने पर ये उतारू हैं।
इस सदी के प्रारंभिक वर्ष वर्किंग क्लास के लिए बड़े कठिनाई भरे रहे हैं और संघर्ष की राह काँटों भरी। वर्किंग क्लास के खिलाफ मालिकों के जुल्म-ज्यादती व हिंसा दुनिया का एक कड़वा सच है। सन् 2007 के आर्थिक विध्वंस ने इस कोढ़ में खाज का काम किया है, यानी हालात और बद से बदतर हुए हैं। सभी क्षेत्रों में बड़ी तादाद में रोजगार कम हुआ है। वेतन में कटौती के साथ-साथ उनकी सुविधाओं पर कुल्हाड़ी चली है। उधर रोजमर्रा खाने-पीने की चीजों के दाम सारी हदें पार कर गये हैं। आटा, दाल, चीनी व सब्जियों के दाम कई गुना बढ़ गये हैं। गत दो वर्ष से हम ऐसा ही देख रहे हैं और यह प्रभाव मौसमी नहीं है। एक तरफ तो जरूरत की चीजों के दाम आसमान छू रहे हैं दूसरी तरफ उनकी मजदूरी में निरंतर कमी होते जाने से उनका जीवन यापन दूभर हो गया है।
आज भले ही मालिक (उद्योगपति) आर्थिक मंदी के खत्म होने और भारतीय अर्थव्यवस्था के पुनः पटरी पर आने व वृद्धि की बात कर रहे हैं लेकिन मजदूरों की हालत में कोई बदलाव नहीं आया है। उल्टे स्थाई रोजगार की जगह कैज्वल लेबर (दिहाड़ी मजदूर) से काम लेने से रोजगार और मजूरी दोनों घटे हैं।
मजदूरों ने अपने आकाओं के खिलाफ जो प्रतिरोध हाल के वर्षों में खड़ा किया है उससे यह उन्हें अच्छी तरह समझ में आ गया है कि एकजुट होकर जब तक वे लड़ना नहीं सीखेंगे मालिक इसी तरह उनका दमन व उत्पीड़न करते रहेंगे। इस समझ के नतीजे पिछले कुछ वर्षों के मजदूर आंदोलनों में साफ दिखाई दिये हैं, जब मालिकों को उनके सामने झुकना पड़ा है। दुनिया में उठा वर्ग-संघर्ष का उभार वर्किंग क्लास की संगठित चेतना का ही नतीजा है। इसके असंख्य उदाहरण दुनिया के हर देश में देखने को मिल जाएँगे। जिसमें कोरिया की पाँचवें नंबर की सबसे बड़ी कार निर्माण कंपनी सेंडयोंड (Ssangyong) के प्लांट पर जुलाई 2009 में दो महीने से अधिक समय तक मजदूर वर्ग ने कब्जा कर रखा था। इसी तरह अप्रैल एवं जुलाई 2009 में ब्रिटेन की दो कार कंपनियों विस्टियोन (Visteon) और वेस्तास विंडसिस्टम्स (Vestas Windsystems) को मजदूरों ने अपने कब्जे में कर लिया। अक्तूबर 2009 की ब्रिटेªन के पोस्टल कर्मियों की हड़ताल मशहूर है। मजदूर वर्ग के ऐसे ही आंदोलन जर्मनी, तुर्की, मिश्र, चीन व बांग्लादेश में भी हुए हैं।
वर्तमान आर्थिक संकट और मालिकों के जुल्म दोनों ही मजदूर वर्ग के बुलंद इरादे व हौंसले को झुका पाने में नाकाम रहे हैं, उल्टे इन अग्नि परीक्षाओं से गुजर कर वे और अधिक मजबूत हो गये हैं तभी तो उनमें इनसे लड़ने की कुव्वत व जज्वा हिलोरे लेता दिखता है। जिसमें सरकारी क्षेत्र के कर्मचारियों की हड़ताल बहुत महत्वपूर्ण है। बैंक कर्मियों की देशव्यापी हड़ताल तो हुई ही, जनवरी 2009 में देशभर के तेल कर्मियों, एयर इंडिया के पायलटों की हड़ताल तथा एल.आई.सी. के डेढ़ लाख व प.बंगाल के ढाई लाख एवं बिहार राज्य के सरकारी कर्मचारियों की हड़तालें मजदूर वर्ग की विकसित होती वर्गीय चेतना व भविष्य के मजदूर आंदोलनों के दिशा संकेत हैं। इन हड़तालों में कुछ तो बड़ी टकराव भरी रही हैं और सरकार ने सख्ती से हड़तालियों के आंदोलन को दबाने की कोशिश की है। तेल कर्मचारियों की सन2009 की हड़ताल को तोड़ने राज्य सरकार 'एस्मा' कानून का बेजा इस्तेमाल करने से भी नहीं चूकी और कर्मचारियों का दमन किया है। बिहार राज्य के कर्मचारियों की हड़ताल के प्रति भी सरकार ने यही भूमिका अख्तियार की जबकि तेल कर्मियों की दमन कार्यवाही से सरकार इस डर से बैकफुट पर आ गई कि कहीं हड़ताल दूसरे पब्लिक सैक्टर-संस्थानों में न फैल जाए।
पब्लिक सैक्टर के अपने साथियों की भाँति दूसरे बहुत से क्षेत्रों के मजदूरों ने भी अपनी माँगों से एक इंच भी टस से मस न होकर सरकार को मुँहतोड़ जवाब दिया है। जिसमें गुजरात के हीरा मजदूरों का आंदोलन सबसे अहम और आँखें खोल देने वाली मिसाल है। हीरा मजदूरों के आंदोलन की चिंगारी ने जंगल की आग का जो रूप, सूरत अहमदाबाद, राजकोट व अमरेली आदि में अख्तियार किया, उसे काबू में लाने में सरकार के हाथ-पाँव फूल गये लिहाजा भारी पुलिस बल का सहारा उसे लेना पड़ा। देश के सब बड़े ऑटोमोबिल गढ़ तमिलनाडु, महाराष्ट्र, गुड़गाँव व मानेसर में ये घटनाएँ आम हैं जो बताता है कि मजदूर अपने रोजगार, बेहतर जीवन यापन व इंसानी हकों के लिए किसी भी हद से गुजरने के लिये तैयार है। मालिकों की नाइंसाफी के खिलाफ इंसानी हकों की जिद पर वे अडिग, अटल और दृढ़ निश्चय है।
चैन्नई में भारत की दूसरी सबसे बड़ी कार निर्माता हुंडई मोटर्स के मजदूर बेहतर मजदूरी के लिए अप्रैल, मई व जुलाई 2009 में हड़ताल कर चुके हैं। मालिकों ने मजदूरों के आंदोलन को दबाने की पुरजोर कोशिश की। भारत भर की अपनी फैक्ट्रियों को बंद करने की बंदर भभकी भी कंपनी देती रही है। कोयंबतूर की ऑटो पार्ट निर्माता कंपनी 'प्रिकोल इंडिया' के मजदूर भी पिछले दो साल से मालिकों द्वारा स्थाई मजदूरों की छुट्टी करने और उनकी जगह ठेका या अस्थाई-दिहाड़ी मजदूरों से काम लेने के खिलाफ आंदोलन कर रहे हैं। इस आंदोलन ने तब हिंसक रूप ले लिया जब सितंबर 2009 में प्रबंधकों ने 52 स्थाई मजदूरों की छुट्टी करते हुए उनकी जगह अनियत दिहाड़ी 'कैज्वल' मजदूरों की भर्ती कर डाली। मालिक व मजदूरों के बीच 22 सितंबर 2009 को हुए इस खूनी टकराव में 'प्रिकोल इंडिया' के वरिष्ठ प्रबंधक को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा। इसी समय तमिलनाडु की एम.आर.एफ.टायर्स और नोकिया कंपनियों के मजदूरों और मालिकों के बीच संघर्ष की घटनाएँ अहम हैं। बेहतर मजदूरी की माँग में महाराष्ट्र के नासिक की 'महिंद्रा एण्ड महिंद्रा' के मजदूरों को मई 2009 में हड़ताल पर जाना पड़ा। पुणे की क्यूमिन्स इण्डिया (Cummins India) तथा बॉशस (Bosch) की उत्पादन इकाइयों के मजदूरों को भी बेहतर मजदूरी और अनियतकालीन (casualisation) मजदूरों को काम पर रखने के खिलाफ 15 और 25 सितंबर 2009 को हड़ताल करनी पड़ी।
आज हम देखते हैं कि बड़ी संख्या में मजदूर अपने मालिकों के हमलों का जवाब देने सीधे दो-दो हाथ करने को तैयार हैं। देशभर में तमाम जगह मजदूर आंदोलन की घटनाओं में इजाफा साफ तौर पर मजदूर आंदोलन की आगामी संभावनाओं और उसके विस्तार पाते जाने की भविष्यवाणी है। गुजरात के हीरा मजदूरों की सामूहिक हड़ताल इसकी एक जीती जागती मिसाल है। ऐसा ही हम तमिलनाडु, पुणे व नासिक में देखते हैं जहाँ के ऑटो मजदूरों ने मालिकों की मनमानी के खिलाफ एकजुट होकर सफल हड़ताल को अंजाम दिया। इस दौरान ऐसे भी बहुतेरे मौके आये हैं जब मजदूर वर्ग से घबराकर बुर्जुआजी ने बचाव में दमन से कदम वापस खींचे हैं। घटनाओं (आंदोलन) का बार-बार होना बताया है कि सभी क्षेत्रों के मजदूर, मालिकों द्वारा सताये जा रहे हैं। घटनाओं में इज़ाफा दर इज़ाफा उनके इस दमन व उत्पीड़न की उपज है। गुजरात राज्य के हीरा मजदूरों की सामूहिक हड़ताल इसकी एक जीती जागती मिसाल है। ऐसा ही हम तमिलनाडु, पुणे और नासिक में देखते ही जहाँ की ऑटोमोबाइल कंपनी के मजदूरों ने मालिकों की मनमानी के खिलाफ एकजुट होकर सफल हड़ताल को अंजाम दिया। ऐसे भी मौके आये हैं जब मजदूर वर्ग के आंदोलन से डरकर बुर्जुआजी ने बचाव की मुद्रा में दमन से कदम वापस खींचे हैं। मजदूर असंतोष एवं आंदोलनों की घटनाओं में इजाफा दर इजाफा बताया है कि सभी क्षेत्रेों के मजदूर, मालिकों द्वारा बुरी तरह सताये जा रहे हैं।
गुड़गाँव-मानेसर के फैक्ट्री मजदूरों के अलावा अलग-अलग फैक्ट्रियों के मजदूर भी अपने मालिकों के जुल्म के खिलाफ संघर्ष छेड़े हुए हैं। होंडा मोटरसाइकिल के मजदूर कितने ही महीने से बेहतर मजदूरी के लिए आंदोलन कर रहे हैं साथ ही ठेका मजदूरों को खत्म करने की माँग पर डटे हुए हैं। प्रबंधकों के अनुसार मजदूरों के इस आंदोलन ने उत्पादन में 50 फीसदी की गिरावट ला दी है जिससे नये उत्पादन का रास्ता भी बंद हो गया। इसीलिए मजदूरों को डराने-धमकाने के लिए होंडा मोटरसाइकिल के प्रबंधकों ने 10 अक्टूबर 2009 को धमकी भरा फरमान जारी किया कि भारत में वह अपनी उत्पादन इकाइयाँ या तो बंद कर देगा या फिर देश के किसी दूसरे हिस्से में ले जाएगा। रीको ऑटो कंपनी के ढाई हजार मजदूर भी अपने 16 साथियों को नौकरी से निकाले जाने और बेहतर मजदूरी के लिए सितंबर 2009 से आंदोलन पर थे। सनबीम कास्टिंग के एक हजार मजदूर भी बेहतर मजदूरी की माँग में 03 अक्टूबर 2009 से आंदोलन पर थे। टी.आई.मैटल, माइक्रोटेक, एफ.सी.सी., रीको, सत्यम ऑटो तथा अन्य बहुत सी कंपनियों के लगभग 25 हजार मजदूर हड़ताल पर भले ही न हों लेकिन अपनी माँगों के लिए सन 2009 से वे बराबर आंदोलन कर रहे हैं।
बिजनेस लाइन (Business Line) पात्रिका की 02 अक्तूबर 2009 की एक रिपोर्ट के मुताबिक, ''गुड़गाँव-मानेसर क्षेत्र की सहायक ऑटो उत्पादन इकाइयों के कुल 25 से 30 हजार मजदूरों के सप्ताह में 6 दिन आंदोलन पर रहने के कारण उत्पादन इकाइयों को पुर्जों की आपूर्ति न होने से उत्पादन बुरी तरह प्रभावित हो रहा है।'' अपने आकाओं की चिंता में परेशान एकनॉमिक्स टाइम्स, 11 अक्तूबर 2009 को अपनी वेबसाइट में खिलता है ''गुड़गाँव-मानेसर बैल्ट में घड़ी-घड़ी उठने वाली मजदूर समस्याएँ सभी उद्योगों के लिए सचमुच चिंता का विषय हैं। मजदूरों की समस्याओं के चलते हीरो होंडा और मारुति-सुजूकी जैसी बड़ी कंपनियों की आपूर्ति बुरी तरह प्रभावित हुई है।''
सच्चाई है कि इधर अनेक कंपनियों के मजदूर हड़ताल पर हैं उधर हजारों की संख्या में मजदूर अपना आंदोलन खत्म करने के लिए तैयार नहीं हैं। ये हालात वास्तव में मजदूरों की लड़ाई को और आगे की तरफ ले जाने के साथ-साथ उनमें पैदा होती वर्गीय एकता की प्रबल संभावनाओं का आइना है। इसी वर्गीय एकता के बूते अपने मालिकों को मुँहतोड़ जवाब देने की कुव्वत व ताकत का हौंसला उनमें बुलंद है। इसी आशंका से बुर्जुआजी भयभीत हैं और मजदूर यूनियनें भी इस स्थिति से बचने की फिराक में रहती हैं यानी प्रायः मालिकों की तलवाचाटू और मजदूर वर्ग के हितों की दुश्मन वे रही हैं। गुड़गाँव के मजदूर आंदोलन में रीको कंपनी के एक मजदूर की मौत के मामले में यूनियनों की भूमिका यकीनन वर्किंग क्लास के दुश्मन की रही हैं और मजदूर वर्ग में विस्तार पाती वर्गीय एकता की राह में ये यूनियन सबसे बड़ी रुकावट हैं। मजदूर आंदोलनों की भ्रूण हत्या करने पर ये आमादा हैं। गुड़गाँव में एक दिन की कार्यवाही के बहाने यूनियनों की पुरजोर कोशिश रही कि मजदूरों में उठी वर्गीय एकता की चेतना और भाईचारे को किस तरह खत्म किया जाए। बावजूद इसके 20 अक्तूबर को हुई मजदूरों की हड़ताल उनकी वर्गीय एकता व भाईचारे का अनूठा प्रदर्शन था जिसमें लगभग एक लाख मजदूर शामिल हुए। यह अनूठा प्रदर्शन उनके फौलादी इरादों व बुलंद हौंसले को बयान करने के साथ-साथ बुर्जुआजी से दो-दोे हाथ करने की उनकी दिलेरी को भी दिखाता है।
दूसरी तरफ बेहतर मजदूरी और रोजगार छिन जाने के खिलाफ आंदोलन कर रहे गुड़गाँव की हयुंडई, प्रिकोल, एम एण्ड एम तथा अन्य कंपनियों के मजदूर आंदोलनों को यूनियनों द्वारा नाकाम करने की पुरजोर कोशिशें हुई हैं और इन आंदोलनों को उन्होंने (यूनियन) अपने अस्तित्व की रक्षा और फौरी स्वार्थ के लिये बराबर इस्तेमाल किया है। इसमें कोई दो राय नहीं कि वर्गीय संघर्ष के विकास का अपना एक गति विज्ञान (dynamic) है लेकिन इस गति (dynamic) का असलियत में रूपांतरण होने के लिए ज़रूरी है कि मजदूर यूनियनो की वर्किंक क्लास विरोधी साजिशों को भलीभाँति समझें और बिना किसी मध्यस्थ के आंदोलन की बागडोर खुद थामें। समय का तकाजा है कि परिवर्तन के इच्छुक क्राँतिकारी मजदूरों की मदद कर पाएँ ताकि वह संघर्ष करने की क्षमता और शक्ति का अंदाजा लग सके और मजदूर यूनियनों की सर्वहारा वर्ग विरोधी चालों का भंडाफोड़ कर सकें।
एएम, अक्टूबर 2009
हमें अपने स्वयं के संघर्ष को नियंत्रित करने की जरूरत है!
नीचे जो पर्चा दिया जा रहा है वह सोमवार 15 नवम्बर को वाम पक्ष के संगठनों के संरक्षण में किंग्स कालेज में हुयी सभा के दौरान बांटा गया था .आने वाले सप्ताह के 'संघर्ष दिवस' के लिए, हम सुझावों, समालोचनाओं और उससे भी बढकर इसे वितरित करने या बेहतर व अद्वतन करने का स्वागत करते हैं.
आई सी सी के टुलोज सेक्शन, जो कि प्रदर्शनों के दौरान हुयी सभाओं व समितियों में काफी सक्रिय था, का एक कॉमरेड मीटिंग में बोल पाया और फ्रांसीसी यनियनों की रणनीति की आलोचना के बावजूद उसने बडे पैमाने पर तारीफ हासिल की. हम उस सभा के कुछ और बिन्दुओं को रखने की कोशिश करेंगे.
ब्रिटेन में काफी वक्त से यह लग रहा था कि नई सरकार की निर्दयी व हमलावर नीतियों ने मजदूर तबके को आहत करके खामोश कर दिया है.
इसमें अपाहिजों को काम के लिये मज़बूर करना, बेकारों को खाली काम पर भेजना , पेंशन की उम्र में इजाफा, शिक्षा के क्षेत्र में वहशियाना कटौती, पब्लिक सेक्टर में हजारों नौकरियों का चले जाना, विश्वविद्वालयों की फीस को तिगुना करना व 16-18 साल के छात्रों के शिक्षापूर्ति भत्ते में भारी कटौती.......ये फेहरिस्त अंतहीन है. मजदूर तबके (बी ए, टयूब, अग्निसेवा आदि) के ताजा संघर्षों को सख्ती से अलग-थलग कर दिया गया.
पर हम एक अंतरराष्ट्रीय वर्ग हैं और यह संकट भी अंतरराष्ट्रीय है। इन कठोर कदमों के खिलाफ ग्रीस, स्पेन और फ्रांस में ताजातरीन व भारी संघर्ष हुए हैं. फ्रांस में पेंशन सुधारों को लेकर हुयी प्रतिक्रिया ने समाज खास कर युवाओं का थ्यान केंद्रित किया है.
लंदन में हुए भारी प्रदर्शन ने दिखा दिया है कि उसी तरह की खिलाफत ब्रिटेन में भी मौजूद है. प्रदर्शन के भारी रुप ने, उसमें छात्रों व शिक्षाकर्मिंयों की भारी भागीदारी ने, प्रदर्शन को जगह ए से जगह बी के बीच एक दमहीन प्रदर्शन तक सीमित करने के प्रस्ताव को ठुकराकर यह दिखा दिया है कि वे जीवन निर्वाह के साधनों में कमीं करने के संबंध मे राज्य के किसी तर्क को नही मानेंगे.
टोरी हेड क्वार्टर पर आरजी नियंत्रण मुटठी भर अराजकतावादियों की साजिश ना थी बल्कि छात्रों व मजदूरों की बडी तादाद के गुस्से का उत्पाद था और प्रदर्शन के समर्थक छात्रों व मज़दूरों के विशाल बहुमत ने इस कदम की एनयूएस के नेतृत्व व मीडिया द्वारा की निन्दा को मानने से इनकार कर दिया.
बहुतों ने कहाः यह प्रदर्शन मात्र शुरूआत था. इसी तरह की प्रतिक्रिया व प्रदर्शन का दिन 24 नवम्बर को होना है. वक्ती तौर पर यह प्रदर्शन ' आधिकारिक' संगठनों जैसे की एनयूएस जो पहले भी दिखा चुका था कि वे आदेश देने वाली ताकतों का हिस्सा हैं द्वारा संगठित किये जा रहे हैं। पर यह प्रदर्शन में बडी तादाद में ना शामिल होने का कोई कारण नहीं। दूसरी तरफ, बडी तादाद में साथ आना संघर्ष की सही ज़रूरत को जाहिर करने का व नये प्रकार के संगठन पैदा करने का सही आधार हैं.
ऐसे प्रदर्शनों व 'संघर्ष दिवसों' से पहले, हमें आगे कैसे बढना है? हमें स्कूल कालेजों विश्वविद्वालयों में वार्ताएं आमसभाएं आदि आयोजित करने की ज़रूरत हैं ताकि प्रदर्शन के लिए जरूरी मदद व इसके मकसदों पर गौर किया जा सके. हमें प्रदर्शनों में 'आमूल परिर्वतनवादी छात्र मजदूर ब्लाक' बनाने की कुछ कॉमरेडों की शुरूआत का सर्मथन करना चाहिए. लेकिन जहां तक मुम्किन हो उन्हे पहले ही से मिल कर तय कर लेना चाहिए कि आधिकारिक संगठनों से अपनी आजादी का इजहार कैसे करेंगें.
ग्रीस के ताजा तजरबे से सीखने की जरूरत है जंहा कब्जा करने ( जिसमें यूनियनों के हेड क्वार्टर पर कब्जा करना भी शामिल है) को जगह बनाने में इस्तेमाल किया गया ताकि वंहा आम सभाएं की जा सकें. और फ्रांस का क्या तजुर्बा था? हमने अल्पसंख्यक छात्रों व मजदूरों को छोटे कस्बों की गलियों में सभाएं करते देखा ना केवल प्रदर्शन तक बाल्कि निरन्तरता के आधार पर जब आंदोलन आगे बढ रहा था.
हमें यह भी साफ करने की जरूरत है कि आदेश देने वाली ताकतें 10 नवम्बर वाली कोमल सोच भविष्य में नहीं रखेंगीं। वे इस वास्ते तैयार हो चुके होंगे कि हमें अल्पविकसित टकरावों के लिए भडकाऐं ता कि हम उन्हें ताकत दिखाने का मौका दे देंगें. फ्रांस में यह एक आम तरकीब है. शोषक ताकतों के खिलाफ एकता दिखाने के आत्म-रक्षा संगठन के लिए जरूरी है कि वे सामूहिक विचारविमर्श व फैसले के साथ बाहर आएं.
यह संघर्ष सिर्फ शिक्षा के क्षेत्र में नही है. पूरा मजदूर तबका ही निशानें पर है. लिहाजा प्रतिरोध को पब्लिक व निजी दोनों क्षेत्रों में बारीकी से फैलाने की जरूरत है. अपने खुद के संघर्षों को नियंत्रित करना ही उन्हे बढाने का एकमात्र रास्ता है
आईसीसी 15/10/2010