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घटना 140 वर्ष पहले की है जब फ्रांस के पूंजीपति वर्ग ने करीब 20,00 मजदूरों का कत्ले आम कर सर्वहारा के प्रथम क्रांतिकारी अनुभव को मिटा दिया। पेरिस कम्यून पहला अवसर था जब मजदूर वर्ग इतनी बडी ताकत से इतिहास के मंच पर प्रकट हुआ। पहली बार, मजदूरों ने यह दिखा दिया कि वे पूंजीवाद की राज्य मशीनरी को तहस-नहस करने में सक्षम हैं और इस प्रकार उसने साबित किया कि समाज में वही एकमात्र क्रान्तिकारी वर्ग है। आज शासक वर्ग हर कीमत पर मजदूरों को यह यकीन दिलवाने की कोशिश कर रहा है कि मानवता के पास समाज के लिये पूंजीवाद के सिवा कोई परिप्रेक्ष नहीं और आधुनिक विश्व की भयानक बर्वरता तथा कष्टों के सामने मजदूर वर्ग को लाचारी तथा नपुंसकता के विचारों से संक्रमित करने की कोशिश कर रहा है। तब आज यह आवश्यक है कि मजदूर वर्ग अपने विगत का मंथन करे ताकि वह अपने में, अपनी ताकत में और अपने संधर्षों में निहित भविष्य के लिए विश्वास पुनः हासिल कर सके। पेरिस कम्यून का विकट तजुर्बा इस बात का सबूत है कि उस समय कम्युनिस्ट क्रांति के लिये परिस्थितियां परिपक्व न होते हुये भी सर्वहारा ने दिखा दिया कि वही वह एकमात्र शक्ति है जो पूंजीवादी व्यवस्था को चुनौती दे सकती है।
मजदूरों की कई पीढियों के लिए, पेरिस कम्यून मजदूर आन्दोलन के इतिहास के लिये संदर्भ विन्दु रहा है। 1905 और 1917 की रुसी क्रांतियां खासकर पेरिस कम्यून के उदाहरणों और सबकों से अभिप्रेरित रहीं, और जब तक 1917 की क्रांति ने विश्व सर्वहारा के संधर्षों के प्रमुख प्रकाश स्तम्भ का इसका सथान नहीं ले लिया।
आज, पूँजीपति वर्ग का प्रचार अभियान अक्तूबर के क्रांतिकारी अनुभव को सदा के लिये दफनाने की, और स्तालिनवाद को साम्यवाद बता कर मजदूरों को भविष्य के उनके अपने द्रष्टिकोण से दूर करने की कोशिश कर रहा है। क्योंकि पेरिस कम्यून को वह झूठ फैलाने में प्रयोग नहीं किया जा सकता, अतएव सत्तधारी वर्ग ने इस धटना को अपनी बता कर, राष्ट्रवाद अथवा गणतांत्रिक मून्यों की रक्षा के लिये एक आन्दोलन बता कर हमेशा इसके वास्तविक अर्थ को छिपाने की कोशश की है।
पूंजी के खिलाफ एक लड़ाई, न कि एक राष्ट्रवादी संघर्ष
पेरिस कम्यून की स्थापना 1870 के फ्रांस-प्रशा युद्ध में सेडान में नेपोलियन बोनापार्ट की हार के सात महीने बाद हुयी। 4 सितम्बर 1870 को पेरिस के मजदूर बोनापार्ट के सैनिक दु-साहसिक कार्यों द्वारा थोपी भीषण परिस्थितियों के खिलाफ उठ खडे हुये। जब गणतंत्र की घोषणा की गई तब बिस्मार्क की सेनायें पेरिस के मुख्य दरवाज पर पडाव डाले हुये थीं। तत्पश्चात, प्रशा की सेना के मुकाबले राजधानी की सुरक्षा का जिम्मा राट्रीय सुरक्षा गार्डों ने, जो शुरू में निम्न मध्यम वर्ग की टुकडियों से गठित थे, संभाला। भूख से पीड़ित मजदूरों के झुंड इसमें भरती होने लगे और वे जल्द ही उसकी टुकडियों का बहु भाग बन गये। शासक वर्ग इस घटना को प्रशियाई हमलावरों के खिलाफ एक "लोकप्रिय" प्रतिरोध के रंग में रंगने की कोशिश करता है, किन्तु अति शीघ्र ही पेरिस की सुरक्षा के संघर्ष ने समाज के दो प्रमुख वर्गों, सर्वहारा और पूंजीपति वरग, के बीच अमिट अंतर्विरोधों के विस्फोट को जगह दे दी। 131 दिन की घेराबन्दी के बाद फ्रान्स की सरकार ने घुटने टेक दिये और प्रशा की सेना के साथ युद्ध विराम के समझौते पर दस्तखत किये। गणातांत्रिक सरकार के नये नेता थियरे ने समझा कि युद्धस्थिति की समाप्ति के साथ यह आवश्यक है कि पेरिस के सर्वहारा को तुरन्त निहत्था कर दिया जाय। क्योंकि वह शासक वर्ग के लिये एक खतरा था। 18 मार्च 1871 को थियरे ने पहले छल-कपट का सहारा लिया : यह दलील देते हुये कि हथियार राज्य की सम्पत्ति हैं उसने 200 से अधिक तोपों से सज्जित राट्रीय सुरक्षा गार्डों के तोपखाने को, जिसे मजदूरों ने मोमार्ट तथा बैलेविली में छिपा दिया था, छीनने के लिये सेना की टुकडियां भेजीं। मजदूरो की ओर से तगडे प्रतिरोध तथा सेना और पेरिस की आबादी के बीच पैदा हुये भाइचारे के आन्दोलन के फल स्वरूप वह प्रयास विफल हो गया। पेरिस को निहत्था करने के प्रयास की पराजय ने बारूद में एक चिनगारी का काम किया और उसने पेरिस के मजदूरों और वर्साई में छिप कर बैठी पूंजीवादी सरकार के बीच गृहयुद्ध छेड़ दिया। 18 मार्च को राट्रीय सुरक्षा गार्डों की केन्द्रीय कमेटी ने, जिसने अस्थायी तौर पर सत्ता की बागडोर संभाली ली थी, घोषणा की: "शासक वर्गों में फूट परस्ती और गद्दारियों के बीच राजधानी के सर्वहारा ने समझ लिया है कि अब घडी आ गयी है कि वह सार्वजनिक मामलों को अपने हाथों में लेकर स्थिति को नियंत्रण में करे (....)। सर्वहारा ने समझ लिया है कि यह उसका उद्दात अधिकार एवं पूर्ण कर्तव्य है कि वह अपने भाग्य को अपने हाथों में ले ले, और इसकी जीत को सुनिश्चत करने के लिए सत्ता पर कब्जा कर ले"। उसी दिन कमेटी ने सार्वभौम मताधिकार के आधार पर विभिन्न जिलों से प्रतिनिधियों के तुरन्त निर्वाचन की घोषणा की। ये चुनाव 26 मार्च को सम्पन्न हुये; और दो दिन बाद कम्यून की घोषणा कर दी गयी। इसमें बहुत सारे रुझानों का प्रतिनिधित्व था : जहां ब्लांकीवादियों का बहुमत था वहीं अल्पमत के सदस्य अधिकतर इन्टरनेशनल वर्कर्स एसोशियेसन (प्रथम इन्टरनेशनल) से जुडे प्रूधोंवादी समाजवादी थे।
तुरन्त ही, वर्साई सरकार ने मजदूर वर्ग, जिन्हें थियरे ने "धुर्त कचरा" करार दिया, के कब्जे से पेरिस को वापिस हासिल करने के लिये जवाबी हमला किया। फ्रांस का पूंजीपति वर्ग प्रशा की सेना द्वारा राजधानी पर जिस बमबारी की निन्दा करता था, वह बमबारी लगातार दो महीने तक, जब तक कम्यून जीवित रहा, जारी रही।
किसी बाहरी दुश्मन से पितृ भूमि की रक्षा के लिये नहीं बल्कि अपने घर के दुश्मनों के खिलाफ, वर्साई सरकार में निरुपित "अपने" बुर्जुआज़ी के खिलाफ अपनी रक्षा की लिये पेरिस सर्वहारा ने अपने शोषकों के सामने हथियार डालने से इनकार कर दिया था और कम्यून की स्थापना की थी।
पूँजीपदी राज्य के विनाश के लिए एक लड़ाई, न कि गणतांत्रिक स्वतंत्रताओं की रक्षा के लिए
पूँजीपति वर्ग अपने बदतरीन झूठ यथार्थ के आभास में से खींचता हैं। सर्वहारा के पहले क्रांतिकारी तजुर्बे को मात्र गणतांत्रिक स्वतंत्रताओं के, राजशाही सेनाओं, जिन के पीछे फ्रांस का पूँजीपति वर्ग लामबन्द हो गया था, के विरुद्ध जनतंत्र के बचाव के स्तर तक गिराने के लिए पूँजीपति वर्ग हमेशा इस तथ्य पर निर्भर करता रहा है कि कम्यून वास्तव में 1789 के सिद्धान्तों पर आधारित था। किन्तु कम्यून की सच्ची भावना को उन पोशाकों में नहीं पाया जा सक्ता जो 1871 के युवा सर्वहारा ने पह्न रखी थीं। इसमें निहित भविष्य की संभानाओं के मद्देनजर, यह आन्दोलन सदैव ही विश्व सर्वहारा के अपनी मुक्ति के संघर्ष में एक अहम प्रथम चरण रहा है। इतिहास में यह पहला अवसर था जब पूँजीपति वर्ग की आधिकारिक सत्ता को उनकी एक राजधानी में उखाड फेंका गया था। और यह विशाल संघर्ष सर्वहारा का ही काम था न कि किसी अन्य वर्ग का। निश्चय ही यह सर्वहारा अल्प विकसित था, वह शिल्प की अपनी पुरानी स्थिति से बमुश्किल उबर पाया था और वह अभी भी, निम्न-पूँजीपति वर्ग तथा 1789 से पैदा भ्रमों के बोझ तले दबा हुआ था : इसके बावजूद कम्यून के पीछे चालक शक्ति वही था। यद्यपि क्रांति अभी ऐतिहासिक संभावना नहीं थी (क्योंकि सर्वहारा अभी भी अपरिपक्व था तथा पूँजीवादी उत्पादक शक्तियों ने विकास की अपनी सम्भावनाओं को खतम नहीं किया था) कम्यून भावी सर्वहारा संघर्षो की दिशा का संदेशवाहक बना।
और भी, जबकि कम्यून ने पूँजीवादी क्रांति के सिद्धातों को अपनाया, पर उसने निश्चय ही उसमें वही अन्तर्वस्तु नहीं डाली। पूँजीपति वर्ग के लिये "स्वतंत्रता" का अर्थ है स्वतंत्र व्यापार तथा उज़रती श्रम को शोषित करने की आजादी, "समानता" का अर्थ कुलीनतंत्रीय विशेषाधिकारों के खिलाफ संघर्ष में पूंजीपतियों के बीच में समानता से अधिक कुछ नहीं, और "भाईचारे" का अर्थ है श्रम और पूंजी के बीच सामंजस्य, दूसरे शदों में शोषितों का शोषकों के सामने समर्पण। कम्यून के मजदूरों के लिये "समानता, स्वतंत्रता और भाईचारे'' का अर्थ था श्रम दासता का, मनुष्य द्वारा मनुष्य के शोषण का और समाज के वर्गों में विभाजन का अन्त। कम्यून द्वारा उदघोषित दूसरी दुनियां का यह ख्याल मजदूरों द्वारा कम्यून के दो महीनों के अस्तित्व के दौरान सामाजिक जीवन को संगठित करने के तरीके मे प्रतिबिंबित हुआ। कम्यून का असली वर्गीय स्वभाव उसके आर्थिक एवं राजनैतिक कदमों में निहित है, न कि भूत काल से लिये गये नारों के झाम में।
अपनी अधिघोषणा के दो दिन बाद, कम्यून ने अपनी ताकत की पुष्टि करते हए राजकीय ढांचे पर सीधे हमले करते ह्ए अनेक कदम उठाए: सामाजकि उत्पीडन को समर्पित पुलिस बल, स्थायी सेना, तथा जबरिया भर्ती (एक्मात्र मान्यता प्रप्त सैन्य बल था राष्ट्रीय सुरक्षा गार्ड) का खात्मा; समूचे राज्यकीय प्रशासन का विनाश, चर्च की सम्पत्ति की जब्ती, फंसी पे लटकाए जाने का अन्त, मुफ्त लाजिमी शिक्षा आदि, अन्य प्रतीकात्मक कदमों की तो बात ही नहीं जैसे वैन्डोम कालम, शासक वर्ग के अंध राष्ट्रवाद का वह प्रतीक जिसे नेपोलियन प्रथम ने खडा किया था, का विनाश। उसी दिन कम्यून ने यह घोषणा करके कि "कम्यून का झंडा सार्वभौमिक गणतंत्र का ही झंडा है" अपने सर्वहारा चरित्र को पुष्ट कर दिया। कम्यून के लिये विदेशियों के चुनाव (जैसे सुरक्षा मामलों के लिये पोलैन्ड के दौर्नब्रोवस्की तथा श्रम के लिये जिममेवार हंगरी के फ्रंकेल) द्वारा सर्वहारा अंर्तराष्ट्रीयतावाद के सिद्धान्त की स्पष्ट पुष्टि हुई।
इन सभी राजनैतिक कदमों में से एक ने विशेष रूप से यह प्रदर्शित किया कि यह विचार कितना गलत है कि पेरिस सर्वहारा ने गणतांत्रिक जनवाद की रक्षा के लिये विद्रोह किया था : वह है कम्यून के प्रतिनिधियों की स्थायी प्रतिसंहरणीयता जो कि अब उन्हें चुनने वाली संस्था के प्रति निरंतर जवाबदेह थे। यह 1905 की रुसी क्रांति में मजदूर कोंसिलों, जिन्हें लेनिन ने "सर्वहारा की तानाशाही का अन्तत: खोज निकाला गया रुप'' कहा, के उदय से बहुत पहले की बात है। चुने हुये प्रतिनिधियों को वापस बुलाये जाने का सिद्धान्त, जिसे सर्वहारा ने सत्ता दखल करते वक्त अपनाया, ने एक बार फिर कम्यून के सर्वहारा चरित्र को अनुमोदित किया। पूँजीपति वर्ग की तानाशाही, "जनवादी" राज्य जिसका एक अत्यंत घातक रूप है, शोषकों की राज्य सत्ता को एक अल्पमत के हाथों में केन्द्रित कर देती है ताकि वे उत्पादकों के विशाल बहुमत का उत्पीडन और शोषण कर सकें। दूसरी ओर, सर्वहारा क्रांति का सिद्धान्त है कि ऐसी कोई सत्ता पैदा न हो जो सवयं को समाज के ऊपर स्थापित कर सके। केवल वही वर्ग सत्ता का इस्तेमाल इस तरह कर सकता है जिसका मकसद ही समाज के ऊपर किसी अल्पमत के हर प्रकार के प्रभुत्व का उन्मूलन करना है।
क्योंकि कम्यून के राजनीतिक कदम स्पष्टत: इसकी सर्वहारा प्रवति को अभिव्यक्त करते थे, यह लाजिमी था कि उसके आर्थिक कदम, वे चाहे कितने ही सीमित रहे हों, मजदूर वर्गीय हितों की रक्षा करें: लगान का उन्मूलन, बेकरी जैसे कुछ व्यवसायों के लिए रात्रिकालीन काम का उन्मूल्न, मजदूरों के वेतनों से जुर्मानों की कटौती का खात्मा, बन्द पडे कारखानों को मजदूरों के प्रबन्धन में चालू करना, कम्यून के प्रतिनिधियों के वेतन को मजदूरों के वेतन के बरावर सीमित करना।
स्पष्टत:, सामाजिक जीवन को इस भांति संगठित करने का पूंजीवादी राज्य के "जनवादीकरण" से कोई लेना देना नहीं था, उसका तो पूरा जोर उसे मटियामेट करने पर था। और वास्तव में, यही वह मूल सबक है जिसे कम्यून ने भविष्य के समूचे मजदूर आन्दोलन को विरासत में प्रदान किया। यही वह सबक था जिसे रुस में सर्वहारा ने, लेनिन और बोलशेविकों के आव्हान पर, अक्तूबर 1917 में और अधिक स्पष्ट रूप से व्यवहार में उतारा। मार्क्स ने पहले ही र्लुई बोनापार्ट के 18वीं ब्रूमेर में इंगित किया : "अब तक की सभी राजनीतिक क्रांतियों ने राज्य मशीनरी को नष्ट करने की बजाय उसे परिपूर्ण ही किया है"। यद्यपि पूँजीवाद को उखाड फेंकने के लिये परिस्थितियां अभी परिपक्व नहीं थीं, पेरिस कम्यून, जो 19वीं सदी का अंतिम इंकलाब था, 20वीं सदी के क्रांतिकारी आन्दोलनों का अग्रदूत बना : उसने व्वहार में यह प्रदर्शित किया कि "मजदूर वर्ग पहले से ही तैयार राज्य मशीनरी पर मात्र कब्जा करके उसे अपने वर्गीय हितों के निये प्रयोग नहीं कर सकता। चूँकि उसकी राजनैतिक गुलामी का हथियार कभी उसकी मूक्ति का यंत्र नहीं बन सकता"। (मार्क्स, फ्रांस में गृह युद्ध)
सर्वहारा चुनौती के मुकाबले पूँजीवाद का खूनी क्रोध
शासक वर्ग यह कभी स्वीकार नहीं कर सकता कि मजदूर वर्ग कभी उसकी व्यवस्था को चुनौती देने का साहस करे। यही कारण था कि जब उसने हथियारों के बल पेरिस पर पुनः कब्जा किया तब पूँजीपति वर्ग का लक्ष्य राजधानी पर अपनी सत्ता की सिर्फ पुर्नस्थापना ही नहीं था बल्कि वह था मजदूर वर्ग पर ऐसा हत्याकाण्ड बरपा करना जो उसके लिए कभी न भूलने वाला सबक हो। कम्यून के दमन में शासक वर्ग का क्रोंधोन्माद सर्वहारा द्वारा उसमें उत्प्रेरित भय के बराबर था। अप्रैल के शुरू से ही थियरे और बिस्मार्क ने, जिनकी सेनाओं का पेरिस के उत्तरी और पूर्वी किलों पर कब्जा था, कम्यून को कुचलने के लिये अपना "पवित्र गठबन्धन" गठित करना शुरू किया। तब भी, पूँजीपति वर्ग ने अपने वर्गीय दुश्मन से लडने के लिये अपने राष्ट्रीय अंतर्विरोधों को पृष्ठ भूमि में डालने के कौशल का प्रदर्शन किया। फ्रांस और प्रशा की सेनाओं के बीच इस घनिष्ठ गठजोड के कारण राजधानी को पूरी तरह से धेर लिया गया। 7 अप्रैल को वर्साई की सेनाओं ने पेरिस के पश्चिमी किले पर कब्जा कर लिया। राष्ट्रीय सुरक्षा गार्डों की ओर से तगडे प्रतिरोध के कारण थियरे ने बिस्मार्क को सेडान में बन्दी बनाए गये फ्रांस के 60,000 सैनिकों को रिहा करने के लिये राज़ी कर लिया। और मई के पश्चात से यही सैनिक वर्साई की सरकार के लिये संख्यात्मक शक्ति बने। मई के पहले पखवाडे में दक्षिणी मोर्चा धराशायी हो गया। प्रशा की सेनाओं द्वारा खोली दरार की बदौलत, 21 मई को जनरल गैलीफैट की कमान में वर्साई सेनाओं ने उत्तरी और पूर्वी पेरिस में प्रवेश किया। आठ दिनों तक मजदूर वर्गीय जिलों में भयंकर लडाई जारी रही; कम्यून के अंतिम लडाके बैलेविली और मैलिनमौन्टैन्ट की पहाडियो पर मक्खियों की भांति कट कर गिरते गये। कम्युनार्डों के खूनी दमन का अंत यहीं नहीं हुआ। शासक वर्ग अभी पिटे हुए और निहत्थे सर्वहारा पर, उस "दुष्ट कचरे" पर जिसने उसके वर्गीय प्रभुत्व को चुनौती देने की हिमाकत की थी, प्रति-हिंसा बरपा कर अपनी जीत का मज़ा चखना चाहता था। जबकि बिस्मार्क की सैनाओं को भगोडों को बन्दी बनाने का आदेश दिया गया, गैलीफेट के गिराहों ने अरक्षित स्त्री, पुरुष और बच्चों का विशाल नरसंहार अंज़ाम दिया: उन्होंने फायरिंग दस्तों और मशीन गनों से निर्दयतया पूर्वक उनकी हत्याएँ की।
"खूनी हफ्ते" का अन्त एक घिनौने कत्ले आम में हुआ: 20,000 से अधिक लोग मारे गये। इसके बाद, आम गिरफ्तारियों का, "मिसाल कायम करने के लिये'' बन्दियों के कत्ल का, ज़बरी-श्रम शिविरों के लिये देश निकाले का दौर चला, सैकडों बच्चे कथित "सुधार गृहों" में धकेल दिये गये।
शासक वर्ग ने फिर से अपनी हुकूमत इस प्राकार स्थापित की। उसने दिखा दिया कि जब उसकी वर्गीय तानाशाही को चुनौती दी जाती है तो उसकी प्रतिक्रिया क्या होती है। न ही पूँजीपति वर्ग के केवल घोर प्रतिक्रियावादी अंशों ने कम्यून को खून में नहीं डुबोया था। यद्यपि उन्होंने सबसे घिनौने कार्य राजशाही सेनाओं पर छोड दिये थे; इन नरसंहारों और दहशत की पूरी जिमेदारी "जनवादी" रिपब्लिकन धड़े पर है, जिसके पास राष्ट्रीय असेम्बली थी और उदारवादी सांसद थे। सर्वहारा पूँजीवादी जनतंत्र के इन शानदार कृत्यों को कभी नहीं भुला पायेगा। कभी नहीं!
कम्यून को कुचल कर, जिसके चलते प्रथम इन्टरनेशनल लुप्त हो गया, शासक वर्ग ने समस्त दुनियाँ के मजदूरों पर एक हार बरपा की। और यह हार फ्रांस के मजदूर वर्ग के लिये, जो कि 1830 से ही सर्वहारा सघर्षों में अग्रणी भूमिका निभाता चला आ रहा था, विशेषरूप से पीडा दायक थी। फ्रांस का सर्वहारा वर्गीय मुठभेडों की अग्रिम कतारों में मई 1968 तक नही लौट पाया, तब उसकी विशाल जन हडतालों ने, 40 साल की प्रतिक्रांति के बाद, संघर्षों का एक नया परिप्रेक्ष खोला। और यह कोई इत्तफ़ाक नहीं है : थोडे समय के लिये ही सही, वर्ग संधर्षों में अपनी प्रकाश पुंज की भूमिका जिसे वह एक सदी पहले खो चुका था दुबारा हासिल करके, फ्रांस के सर्वहारा ने पूँजीवाद को उखाड फेंकने के मजदूर वर्ग के ऐतिहासिक संघर्षों के इस नये दौर की पूरी तेजस्वता, शक्ति और गहराई की उद्घोषणा की।
पर कम्यून के विपरीत, मई 1968 से शुरू हुआ यह नया ऐतिहासिक काल तब अस्तित्व में आया है जब सर्वहारा क्रांति न सिर्फ संभव है बल्कि, अगर मानवजाति के जीवित रहने की कोई आशा है, अत्यंत आवश्यक भी है। अपने झूठों, अतीत के क्रांतिकारी तजुर्बे को झुठलाते अपने प्रचार अभियानों से पूँजीपति वर्ग जिस चीज़ को छिपाना चाहता है वह है : सर्वहारा की शक्ति और तेजस्विता तथा आज के संघर्षों के दांव क्या है।
अवरिल (सर्वप्रथम जुलाई 1991 के रिवोल्यूशन इन्टरनेशनल-202 और अगस्त 1991 के वल्र्ड रिवोल्यूशन-146 में प्रकाशित। अब जुलाई 2011 में वल्र्ड रिवोल्यूशन-346 पुन में प्रकाशित
शिक्षा, नागरिक सेवा, स्थानीय परिषदों के लगभग दस लाख कर्मचारी 30 जून को हड़तालपर जाने की तैयारी क्यों कर रहे हैं ?
उसी कारण से जिस के लिए पिछली शरद ऋतु में अनेक व्यवसायों के पाँच लाख श्रमिकों ने 26 मार्च, 2011 को लंदन की सड़कों पर मार्च किया। और उसी कारण से जिस के लिए दसियों हजार विश्वविद्यालय और स्कूली छात्रों ने प्रदर्शनों, बहिष्कार और अधिग्रहण के समूचे आंदोलनो में भाग लिया।
ये लोग अपने जीवन स्तर पर सरकार द्वारा होने वाले अंतहीन हमलों से आजिज आ चुके हैं, चाहे ये हमले स्वास्थ्य सेवा में कटौती के रूप हों, ट्यूशन फीस की बढ़ोतरी के रुप में हों, बढ़ती बेरोजगारी रुप में हों, वेतन बढोत्तरी में ठहराव के रुप में हों या पेंशन पर हमले के रुप मे हों, जो कि 30 जून की हडताल में एक प्रमुख मुद्दा है। पेंशन पर हमले का, उदाहरण के लिए, फल यह होगा कि शिक्षकों को अपनी पेंशन के लिए अधिक भुगतान करना पडेगा, वे देर से रिटायर होंगे और इस सब के अंत मे उन्हें कम पेंशन से संतोष करना होगा।
कर्मचारी, छात्र, बेरोजगार और पेंशनर सरकार (और थोडे संशोधन से विपक्ष) की इस दलील से निरन्तर कमतर सहमत हैं कि "अर्थव्यवस्था की बेहतरी के लिए हमे यह कटौती करने की जरूरत है, जो वास्तव में हर किसी के हित में है"।
एक लंबे समय से, लोगों ने इसी तरह के तर्क के जवाब में सभी प्रकार का बलिदान दिया है, लेकिन अर्थव्यवस्था अभी भी ढलान पर जा रही है और इसके साथ हमारा जीवन स्तर भी ।
और मिल कर व्यापक रूप से हडताल करने और हमलों के जवाब को जितना संभव हो उतना व्यापक बनाने का विचार हम मे से अधिकाधिक को अब तर्कसंगत लगने लगा है। बजह यह है के हम सब एक ही जैसे हमलों का सामना कर रहे हैं और अलग अलग छितरे हुए कई संघर्ष हार में ही खतम हुए हैं|
लेकिन यहाँ नियोजित "कार्रवाई दिवस" को लेकर एक और सवाल उठता है। हड़ताल के इस निर्णय के पीछे सरकारी यूंनियनो की असली मंशा क्या है? क्या वे वास्तव में सरकारी हमलों के खिलाफ प्रभावी प्रतिक्रिया का आयोजन करना चाहते हैं ?
अगर यह सही है तो उन्होने हजारो मजदूरों को 26 मार्च को लन्दन क्यों तलब किया था, क्या केवल परेड करवाने के लिए, एडमिलीबैंड जैसों के पाखंडी भाषणों को सुनने और फिर घर भेज देने के लिए?
ट्रेड यूनियने हमें क्यों भ्रमाती हैं कि कटौती की यह समस्या मात्र वर्तमान सरकार से जुडी एक विशेष बात है, और कि 'लेबर पारटी' एक विकल्प पेश करने में सक्षम होगी ?
और केवल सार्वजनिक क्षेत्र का एक हिस्सा ही क्यों बुलाया जा रहा है? सार्वजनिक क्षेत्र के बाकी मज़दूरों और निजी क्षेत्र के सभी कामगारों को क्यों नही?
क्या उन पर हमला नही हो रहा ? फिर एक दिन की हडताल क्यों ?
कहीं यह तो नहीं कि ट्रेड यूनियनें 26 मार्च की तरह हमे 'एक्शन' का, प्रतिसंघर्ष का एक दिखावा पेश करना चाहती हैं जो कुल मिलाकर हमारे विभाजनों को मजबूत करेगा और हमारी ऊर्जा को बर्बाद करेगा?
सत्ता के पास हमसे डरने के कारण है।
शासक वर्ग के पास इस डर का अच्छा कारण है कि उसके हमले कहीं बडी प्रतिक्रिया को प्रेरित करेंगे जितनी कि वह आराम से संभाल पाए। उसके सामने इसके सबूत हैं - शरद ऋतु में ब्रिटेन की घटनाएं और 26 मार्च को ब्रिटेन में बडी संख्या में लोगों का सडकों पर उतर आना। उत्तरी अफ्रीका और मध्य पूर्व में बहते विद्रोह का बढ़ता ज्वार जो अब ग्रीस तथा स्पेन मे बडे आंदोलन की शकल में यूरोप में दाखिल हो रहा है। जहाँ दसियों हज़ार लोगों ने, जिनका बहुमत अनिश्चित भविष्य के रुबरु नौजवानों का था, शाहरी चौराहों पर कब्जा जमा लिया था और प्रतिदिन आम सभाएँ कर रहे थे। ऐसी आम सभाएँ जहां जमा लोग न सिरफ सरकार के इन व उन कदमों संबंधी, बल्कि हमारे जीवनों पर प्रभावी पूरे राजनीतिक और सामाजिक ढांचे संबंधी अपनी राय पेश करने को स्वतन्त्र थे।
यह आंदोलन अभी 'क्रांति' नही है पर यह ऐसा माहौल अवश्य पैदा कर रहा है जहां 'क्रांति' के सवाल पर व्यापक रूप से और अधिक गंभीरता से विचार किया जा रहा है।
इसमें हैरानी की कोई बात नहीं है कि ब्रिटेन में सरकार प्रतिरोध को आधिकारिक विरोध की सुरक्षित दीवारों के अंदर फंसा कर रखना चाहती है। इसमे ट्रेड यूनियनी ढ़ांचे का अहम किरदार है जो हमें ट्रेड युनियनी नियमावली में आंकित कठोर दिशा-निदेशों मुताबिक चलाते हैं जो कहते हैं कि: हडताली कार्यावाही संबंधी कोई भी फैसला सामूहिक बैठक में नही होगा, एकजुटता के लिए कोई हडताल नहीं, यदि आवश्यक हो तो अन्य क्षेत्रों के श्रमिकों की हडताली लाईन को तोडो, हो सकता है अन्यथा आपको अवैध "गौण कार्रवाई" में संलग्न पाया जाए, केवल तभी हड़ताल करें अगर आप यूनियन के शुल्क देने वाले सदस्य हों आदि आदि।
संघर्षों को अपने हाथों में ले लो!
क्या इसका मतलब यह है कि 30 जून की कार्रवाई समय की बर्बादी है ?
नहीं, अगर हम इसका इस्तेमाल एकजुट होने, आपस में विचार विमर्श करने तथा प्रतिरोध के अधिक व्यापक और प्रभावी तरीकों पर फैसला लेने के लिए करते हैं। नहीं , अगर इसका उपयोग हम संघर्षों को अपने नियंत्रण में लेने के अपने डर पर पार पाने के लिए करते हैं।
ट्यूनीशिया, मिस्र, स्पेन या ग्रीस की मिसालें हमारे सामने हैं : जब लोग बडी तादाद में इकट्ठा होते हैं, जब वे सार्वजनिक स्थलों पर कब्जा कर लेते हैं तथा बोलने की और सामूहिक फैसले लेने की आज़ादी की मांग करने लगते हैं, तब वे पुलिस दमन तथा मालिकों व अधिकारियो द्वारा सज़ा के भय पर पार पाने लगते हैं। ये मिसालें अनुसरण के लिए हमे एक 'माडल' पेश करती हैं, एक माडल जो कोई नया अविष्कार नही है बल्कि यह पिछली सदी के तमाम विशाल मजदूर संघर्षो मे सामने आया है: खुली आम सभा, जो अपने तमाम प्रतिनिधियों तथा कमीशनों को हाथ उठा कर निर्वाचनीय तथा किसी भी समय बापस बुलाए जाने योग्य बना कर उन्हे नियंत्रण मे रखती है।
30जून 2011 से पहले हम कार्यस्थलों पर आम बैठकों के लिए आवाहन कर सकते हैं, जो की पेशे तथा यूनियन की परवाह किए बिना सभी कर्मचारियों के लिए खुला मंच हों, जहाँ हम तय कर सकें कि एक्शन का अधिकतम संभव फैलाब कैसे हो। स्कूलों और कालेजों में अध्यापको और गैर अध्यापन कर्मचारियों के बीच, स्टाफ और छात्रों के बीच विभाजनों पर पार पाने की जरूरत है ताकि सब को एक साथ लेकर संघर्ष करने की राह निकाली जा सके। नगर निगमों और सरकारी विभागों पर भी यही लागू होता है: सभी प्रकार के डिस्कशन ग्रुप और सामान्य बैठकें इन बँटवारों पर निजात पाने और यह यकीनी बनाने में मदद कर सकती हैं कि संघर्षो में आधिकारिक 'हडतालियों' की अपेछा कहीं अधिक तादाद में मजदूर शामिल हो सकें।
हड़ताल के दिन हमे यह निश्चित करना है कि पिकेटिंग महज टोकन साबित न हो बल्कि आंदोलन को व्यापक तथा गहरा बनाने के काम आए: अपने कार्यस्थल पर हर एक को हड़ताल में शामिल होने के लिए रजामंद करके, अन्य कार्यस्थलों के आंदोलन का समर्थन करने के लिए वहां प्रतिनिधि भेज कर, भविष्य में संघर्ष को कैसे आगे बढाया जाए, इस बाबत विचार विमर्श का फोकस बन कर।
प्रदर्शन निष्क्रिय परेड नहीं रहें और एक रसमी रैली में समाप्त नहीं होने चाहिए। प्रदर्शन, नुक्कड सभाएं करने का एक मौका देते है जहाँ मकसद यूनियनी सरगनाओं और राजनीतिज्ञों के पहले से तयशुदा भाषणों को सुनना नहीं होता। इसके विपरीत मकसद है ज्यादा से ज्यादा लोगों को अपने अनुभव साझे करने व अपने विचार रखने का मौका देना।
एक बात की बहुत चर्चा है, खासकर वामपंथियों की ओर से, वह यह कि कटौतियां व दूसरे हमले वास्तव में "आवश्यक" नहीं हैं और कि इन्हें "विचारधारा" के तहत चलाया जा रहा है|
लेकिन सच्चाई यह कि संकटग्रस्त पूँजीवाद के लिए हमारे जीवन स्तरों को गिराने का प्रयास करना जरुरी तथा अपरिहार्य है। हम शोषितों के लिए जो जरुरी है वह यह नहीं की हम शोषकों को यह समझाने की कोशिश करें कि उन्हें व्यवस्था को बेहतर तरीके से संगठित करना चाहिए। वह है उनके हमलों की आज और कल खिलाफत करना, और यह करते हुए क्रांति का तथा समाज के सम्पूर्ण रूपांतरण का सवाल पेश करने के लिए जरुरी विशवास, आत्मगठन तथा राजनीतिक जागरूकता हासिल करना।
डब्ल्यू आर, 4 जून 2011
www.internationalism.org [2], सीआई, पोस्ट बाक्स न. 25, एन आई टी, फरीदाबाद-121001, हरियाणा
8 मार्च को फिर एक बार सभी नारीवादी समूहों ने अलग-अलग वाम धड़ों के रूप (खासतौर पर समाजवादी पार्टी) में हाज़िर परविर्तनवादी टुटपुँजिया गुटों के अशीर्वाद से अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस मनाया। एक बार फिर इस दिन को, जो महिला मजदूरों के संघर्ष को अभिव्यक्त करता है, पथभ्रष्ट करके उसे एक विशाल प्रजातांत्रिक और सुधारवादी छलकपट और धोखोधड़ी में बदल दिया जाएगा। जिस तरह बुर्जुआजी ने मजदूर दिवस (1 मई) का पूरी तरह से कायाकल्प करते हुए उसे राजकीय पूँजीवाद की संस्था की शक्ल दे डाली है।
परिवार निजी संपत्ति और राज्य की उत्पत्ति (1887) में एजेंल्स नारी के उत्पीड़न की निंदा कर चुके थे और उन्होंने दृढ़ता से इस बात की पुष्टि की कि मातृसत्तात्मक समाजों के खत्म होने और पितृसत्तात्मक समाज के उदय के साथ ही नारी सदा सदा के लिए 'पुरुष वर्ग' की 'सर्वहारा' बन गई। 1891 में अगस्त बेबेल ने नारी और समाजवाद में स्त्रियों की दशा पर किये गये एजेंल्स के कार्य के गहन ऐतिहासिक अध्ययन को जारी रखा है।
उन्नीसवीं शताब्दी के खत्म होने के बाद से ही नारी के शोषण का सवाल पूरी मानवता की मुक्ति के साथ-साथ सर्वहारा वर्ग के संघर्ष से जुड़ा सवाल रहा है। बीसवीं शताब्दी की नारकीय स्थितियाँ असहनीय होने पर सर्वहारा महिलाओं को मजबूर होकर सर्वहारा संघर्ष के मोर्चे पर कूदना पड़ा।
बीसवीं शताब्दी के सर्वहारा आंदोलन में महिलाओं के संघर्ष
मार्च 8 इसका प्रारम्भ है जब न्यूयार्क के कपड़ा मजदूरों ने 8 मार्च 1857 को प्रदर्शन किया, जिसे पुलिस द्वारा दबा दिया गया। हालाँकि प्रत्यक्ष तौर पर अमरीका के सर्वहारा आंदोलन से जुड़ा ऐसा कोइ अभिलेख मौजूद नहीं है जो इस घटना का प्रमाण दे।
सन् 1890 में क्लारा जेटकिन की प्रेरणा से मजदूर वर्ग की प्रमुख पार्टी एस.पी.डी. में जर्मनी में समाजवादी महिला आंदोलन उभरा। उन्होंने रोजा लुक्ज़मबर्ग के समर्थन से 'समानता' नाम की पत्रिका स्थापित की जिसने क्रांति के जरिये पूँजीवाद को उखाड़ उसकी जगह, विश्व कम्युनिस्ट समाज की नींव रखने की घोषणा की। दुनिया भर में, पश्चिमी यूरोप और संयुक्त राज्य दोनों में ही महिला मजदूरों ने शोषण की अमानुशिक परिस्थितियों के खिलाफ लामबंदी शुरू की। उन्होंने मुख्य रूप से काम के घण्टों में कभी करने, पुरुषों के बराबर मजदूरी देने, बाल मजदूरी का उन्मूलन तथा महिला मजदूरों के जीवन यापन की परिस्थितियों में सुधार की माँग रखी। इन आर्थिक माँगों के साथ-साथ उन्होंने राजनीतिक माँगें भी उठाईं, खासकर महिलाओं को वोट के अधिकार की मांग। (हालाँकि उनकी यह राजनीतिक माँग बाद में बुर्जुआजी के उस महिला आंदोलन में डुबो दी गई और उसमें खो गई जिसे 'नारीमताधिकारवादियों' के नाम से जाना जाता है)।
लेकिन खासकर 1907 से महिला मजदूरों और समाजवादियों ने खुद को पूँजीवादी बर्बरता, जो प्रथम विश्व युध्द की पूर्वसूचना थी, के खिलाफ संघर्ष के अगुआदस्तों मे पाया।
उसी वर्ष 17 अगस्त को क्लारा जेटकिन ने स्टुटगर्ट में पहले अंतर्राष्ट्रीय समाजवादी महिला सममेलन का एलान किया। पूरे यूरोप और संयुक्त राज्य से 58 प्रतिनिधियों ने इसमें शिरकत की और महिलाओं के वोट के अधिकार पर एक प्रस्ताव स्वीकृत किया। इस प्रस्ताव को एस.पी.डी की स्टुट्गर्ट काँग्रेस द्वारा स्वीकृत कर लिया गया। सदी के बदलाव पर, उस समय जब एक ही काम के लिए महिलाओं की मजदूरी पुरुषों की आधी थी, अनेक महिला संगठन और बहुत बड़ी तादाद में महिलाएँ सभी मजदूर संघर्षों में सक्रिय रूप से शामिल थीं।
सन् 1908 और 1909 में न्यूयार्क श्हर में कपड़ा-मिल मजदूर महिलाओं के बड़े-बड़े आंदोलन हुए। 'रोटी और गुलाब' की मार्फत भूख से सामूहिक मुक्ति और खुश्हाल जीवन की परिस्थितियाँ, बाल मजदूरी उन्मूलन और बेहतर मजदूरी की माँगे उन्होंने रखीं।
सन् 1910 में महिलाओं की सोशलिस्ट इंटरनेशंल ने शांति के लिए एक अपील जारी की। 8 मार्च 1911 को अंतर्राश्ट्रीय महिला दिवस पर यूरोप भर में एक लाख महिलाओं ने अनेक प्रदर्शन किये। कुछ दिन बाद 25 मार्च को न्यूयार्क की ट्रायंगल कपड़ा फैक्ट्री में लगी भीष्ण आग में फैक्ट्री में सुरक्षा उपायों की कमी के कारण 140 से ज्यादा महिला मजदूरों की जलकर मौत हो गयी। महिलाओं के शोषण की भीषण परिस्थितियों और उनको उनकी राजनीतिक स्वतंत्रता से वंचित करने के बुर्जुआ संसदीय प्रयासों के खिलाफ विद्रोह को इस घटना ने और अधिक धधका दिया। 1913 में दुनिया भर की महिलाएँ वोट के अपने अधिकार की माँग को उठा रहीं थीं। ब्रिटेन में बुर्जुआ 'नारीमताधिकारवादी' भी कुछ ज्यादा ही उग्र रवैया अपना रहे थे।
लेकिन जारशाही रूस में खासकर महिलाओं के संघर्ष ने समस्त मजदूर वर्ग के क्रांतिकारी आंदोलन को प्रेरणा व दिशा प्रदान की। 1912 और 1914 के दौरान रूसी महिला मजदूरों ने गुप्त सभाएँ आयोजित कीं और साम्राज्यवादी हत्याकांडों पर अपना विरोध दर्ज किया। युध्द भड़कने के बाद यूरोप भर की महिलाएँ उनसे मिल गईं।
1915 में फ्रांस की सेना ने युध्द के मोरचे पर कार्यवाही में शात्रु खेमे के 3,50,000 सैनिकों का कत्ले-आम किया। पीछे देश की अर्थव्यवस्था को निरंतर गतिमान बनाये रखने के लिए महिलाएँ बढ़ते शोषण का शिकार बनीं। उनका गुस्सा भड़क उठना स्वाभाविक था इसलिए इस दिशा में महिलाएँ सबसे पहले सक्रिय हुईं। मार्च 8, 1915 को अलेग्जेंड्रा कोलोन्ताई ने ओस्लो के पास क्रिस्ट्रियाना में युध्द के खिलाफ महिलाओं का एक प्रदर्शन आयोजित किया। क्लारा जेटकिन ने महिलाओं का एक नया अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन बुलाया। यह सम्मेलन वास्तव में उस जिमरवाल्ड सम्मेलन की पूर्व प्रस्तावना थी जिसने युध्द के विरोधियों को दोबारा एकजुट किया। 15 अप्रैल 1915 को 12 देशों की 1136 महिलाएँ ला हाये में इकट्ठा हुईं।
जर्मनी में खासतौर पर 1916 में पश्चिम के मजदूर आंदोलन की दो महानतम् महिला शख्सियतें, क्लारा जेटकिन और रोज़ा लुक्ज़मबर्ग ने जर्मन कम्युनिस्ट पार्टी, के.पी.डी., की नींव रखने में निर्णायक भूमिका अदा की। संयुक्त राज्य में ऐमा गोल्डमेन नाम की अराजकतावादी उग्रपंथी (अमरीकी कम्युनिस्ट पार्टी के संस्थापक और पत्रकार जॉन रीड की मित्र) महिला ने साम्राज्यवादी युध्द के खिलाफ एक चुनौतिपूर्ण आंदोलन चलाया। 1917 में रूस खदेड़ दिये जाने से पहले उसे जेल में डाल दिया गया था। इतना ही नहीं उसे अमरीका की सबसे खूँखार और खतरनाक महिला घोषित कर दिया गया।
रूस में महिला मजदूर ही थीं जिन्होंने सर्वहारा वर्ग के क्रांति मार्च का नेतृत्व किया। मार्च 8 (जार्जिया के कलेंडर के मुताबिक फरवरी 23) को पेट्रोग्राद की कपड़ा कारखानों की महिला मजदूरों ने हड़ताल कर डाली और सैलाब की तरह सड़कों पर उतर आईं। 'रोटी और शांति' उनकी मांग थी। महिला मजदूरों ने युध्द के मोर्चे से अपने बेटों और पतियों को वापिस बुलए जाने की मांग की। "हमारे निर्देशों का उल्लंघन करते हुए अनेक मिलों की महिला मजदूर हड़ताल पर चली गईं और इंजीनियरिंग महकमे के मजदूरों का समर्थन जुटाने एक प्रतिनिधिमण्डल उन्होने भेजा। एक भी मजदूर को यह अनुभव नहीं हुआ कि यह क्रांति का पहला दिन होगा"। (ट्राटस्की-रूसी क्रांति का इतिहास) इसलिए 'रोटी और शांति' के नारे ने रूसी क्रांति के लिए एक चिंगारी का काम किया जिसकी पहल पेट्रोगाद की महिला मजदूरों ने की। और इसका ही असर था कि पुतीलोव कारखानों के मजदूर और समूचा मजदूर वर्ग इस आंदोलन में एकजुट शामिल हुए।
नारी आंदोलन का बुर्जुआ जनवाद द्वार समावेशन
12 नवम्बर 1918 को युध्द विराम संधि हो जाने के ठीक एक दिन बाद महिलाओं को वोट का अधिकार देना जर्मन बुर्जुआजी के लिए जुए का एक दांव न था। बल्कि यह तो उनका पूर्व नियोजित एजेंडा था। क्योंकि इसमे कोई आश्चर्य नहीं कि जिस देश में अंतर्राश्ट्रीय समाजवादियों के आंदोलन में रोजा लक्ज़मबर्ग और क्लारा जेटकिन जैसी महानतम् जुझारू व लड़ाका (मिलिटेंट) महिला शख्सियतों का बोलबाला हो और जहाँ पूरी संसद मजदूर वर्ग के लिए ढोल की पोल बन गई हो, वहाँ उनकी इस क्रांतिकारी फौलादी हिम्मत को तोड़ने के लिए शासक वर्ग भला वोट के अधिकार का बतौर सौदेबाजी, इस्तेमाल करने से पीछे कैसे हट सकता था। पूँजीवाद के अपनी पतनशीलता की अवस्था में प्रवेश के साथ न तो किसी सुधारों के और न ही वोट के अधिकार के लिए बल्कि सिर्फ पूँजीवादी व्यवस्था को उखाड़ फैंकने के लिए लडना ही व्यवहारिक रह जाता है।
पहले विश्वयुध्द ने इतिहास के जिस नये काल का शिलान्यास किया वह था, ''युध्द और क्रांतियाँ'' का, जैसा कि 1919 की इंटरनेशनल ने घोषित किया।
1920 के प्रारम्भिक दोर में महिला आंदोलन ने सर्वहारा संघर्ष की दिशा को जरूर अपनाया लेकिन बहुत जल्द ही वह अधोगति का शिकार हो गया और शीघ्र ही उसे पूँजीवादी राज्य द्वारा निगल लिया गया। जिस सर्वहारा आंदोलन से वह पैदा हुआ था, उससे एकदम भिन्न और पृथक हो वह अपने ही स्त्रोत-वर्ग के विरोध में जा खड़ा हुआ। जिसने मिल व फक्ट्रियों में काम करने वाली महिलाओं के यौन उत्पीड़न व शोषण की परिस्थितियों के संबंध में स्वतंत्र रूप से यह भ्रमपूर्ण मिथ्या प्रचार किया कि शोषण पर टिकी और मुनाफे की फिराक में तिकड़म व साजिशों वाले समाज में भी नारी की मुक्ति संभव है। खासकर संयुक्त राज्य में 1920 के प्रारम्भ से ही महिला मुक्ति आंदोलनों ने अपना ध्यान मुख्य रूप से संतति निरोध और गर्भपात अधिकारों पर ही केन्द्रिकत किया।
1920 के मध्य से जर्मनी में महिला आंदोलन बड़ी तेजी से पटरी से उतरकर नाजीवादियों के खिलाफ शुरू हुए संघर्ष की बलि चढ़ गया। यूरोप के दूसरे देशों में खासकर फ्रांस और स्पेन में फासिस्ट विरोधी लड़ाई में अपना हद तक शोषण कराने के बावजूद महिलाएँ वोट के अपने अधिकार की माँग करते थक नहीं रही थीं। उन्हें जरा भी इल्म नहीं था कि बुर्जुआजी द्वारा दूसरे विश्व युध्द में लाखों की संख्या में सर्वहारा हलाल होने के लिए सेना में भर्ती कर लिए जाएँगे।
फ्रांस में महिला आंदोलन को बहुत जल्द ही पूँजीवादी राज्य में व्याप्त तरह-तरह के दलालों जेसे यू.एफ.सी.एस. और केथोलिक महिला संगठनों द्वारा हथिया लिया गया जिनका उद्देश्य था अपने बुर्जुआ हितों की रक्षा के लिए सिर्फ उपनिवेश्वाद और फासिज्म की मुखालफत करना, न कि समूची पूँजीवादी व्यवस्था का विरोध।
हालाँकि फ्रांस के संविधान में महिला मताधिकार को स्थान नहीं दिया गया था, बावजूद इसके लयोन ब्लम ने महिलाओं को सरकार में पहले पहल प्रवेश कराया। 4 जून 1936 को तीन महिलाओं को राज्य का अवर सचिव बनाया। वामपंथी पूँजीवादी पार्टियों की मिलीभगत में इस कदम को एक परिवर्तन की तरह पेश् किया ताकि बड़ी संख्या में महिलाओं को लोकप्रिय जन मोर्चे के झण्डे तले लाकर उन्हें दूसरे विश्व्युध्द की तैयारियों में लगाया जा सके।
युध्द कार्यवाही के खिलाफ बहुत बड़ी तादाद में महिलाएँ खासकर पी.सी.एफ. के स्टालिनवादियों के झण्डे तले प्रतिरोध में शामिल हुईं। डी.गॉल ने आखिरकार 23 मार्च, 1944 को मताधिकार देकर उनकी इस 'बहादुरी' और 'देशभक्ति' के लिए ईनाम प्रदान किया ताकि महिलाएँ दक्षिणपंथी या वामपंथी दोनों में से किसी एक शोषक को अपने लिए चुन सकें।
फ्रांस में महिला मताधिकार हासिल करने के तुरन्त बाद अपनी अंधदेशभक्ति के साथ पेरिस की मुक्ति में पी.सी.एफ. खूब महिमामय हो रही थी। 1945 के युध्द में जिन महिलाओं ने श्त्रु सैनिकों के साथ यौन संबंध बनाये उन्हें इस जुर्म की सजा के बतौर गंजा कर दिया गया। उन्हें देश के तिरंगे (फ्रांस का राष्ट्र ध्वज) को कलंकित करने का और दुश्मन की साजिश में 'साझीदार' होने का दोषी माना गया । ऐसी महिलाओं को जबरदस्ती सरेआम जनता में घुमाया जाता था और उनकी खूब खिल्ली उड़ाई जाती थी।
नारीवाद: एक यौनवादी और प्रतिक्रियावादी विचारधारा
1970 के प्रारम्भ में महिला आंदोलन में सर्वहारा आंदोलन की एक भी विशेषता शेष नहीं रह गयी थी। महिला मुक्ति आंदोलन की नई आवाज था नारीवाद, जिसने महिलाओं के राजनीतिक पार्टियों में शामिल होने के विचार को सिरे से नकार दिया। नारी विरोधी होने के नाते नारीवादियों की बैठकों में पुरुषों का प्रवेश वर्जित था। यह आंदोलन अपने को एकदम 'स्वायत' मानता था और इसने इस मिथ्या धारणा को मजबूत किया कि केवल महिलांयें ही उत्पीडत हैं, पूँजीवादी व्यवस्था द्वारा नहीं, बल्कि पुरुषों द्वारा। उन्होंने यौनवादी नजरिये को पुष्ट किया जिसके चलते उन्होंने न सिरफ पुरुषों के समान अधिकारों की माँग की बल्कि पुरुषों को अपना शत्रु और वास्तविक उत्पीड़क माना। बहुत से नारीवादियों ने महिलाओं के उत्पीड़न की आर्थिक बुनियादों पर बहुत ही कम बल देते हुए मात्र उनकी यौन मुक्ति की खातिर डॉन क्विक्साटिकी आंदोलन को हाथ में लिया। सर्वहारा आंदोलन के भीतर महिलाओं के संघर्ष की जो परम्परा रही है नारीवादी आंदोलन उससे पूरी तरह अलग है। और वह टुटपुँजिया की एक प्रतिक्रियावादी विचारधारा में बदल गया जिसका कि कोई ऐतिहासिक दृष्टिकोण नहीं है, और जो मई 68 की सड़कों पर फला-फूला। यह महज़ इत्ताफाक़ नहीं है कि उसी हल्के बैंगनी रंग को इन्होंने अपने प्रतीक के लिए चुना जिसे बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ में नारीमताधिकारवादियों ने अपने लिए चुना था। 1975 में इन नारीवादियों ने उन वेश्याअओं को भी सम्मिलित कर लिया जो पुलिस दमन से मुक्त खुली छूट देह व्यापार के अधिकार की माँग कर रही थीं।
पूँजी की सेवा में रचा गया प्रपंच
सन् 1977 में संयुक्त राष्ट्र संघ ने अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस को सरकारी तौर पर मान्यता प्रदान की और उसने इस आश्य का एक प्रस्ताव पारित किया कि प्रत्येक राष्ट्र इस दिन को महिला अधिकारों के लिए समर्पित करे और अंतर्राष्ट्रीय शांति दिवस के रूप में इसे मनाये। साम्राज्यवादी लुटेरों के गढ़ राष्ट्र संघ के शांति के प्रस्तावों से जो मकसद पूरा होता है। वह महान प्रजातांत्रिक ताकतों की अगुवाई में, जो राष्ट्र संघ में जमी बैठी हैं, हुए सामूहिक कत्लेआमों के बहुत से उदाहरणों से साफ है। अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस वास्तव में सर्वहारा वर्ग की महिलाओं के खिलाफ पूँजीपति वर्ग का एक साजिश है, जिसका एक मात्र मकसद है पूँजीवादी शोषण के खिलाफ संघर्षरत सर्वहारा महिलाओं की चेतना को गुमराह कर भटकाना।
फ्रांस में मितरां के राष्ट्रपति रह्ते हुए वामपंथी (खासकर समाजवादी पारटी) नारीवादी विचारधारा के मुख्य वकील बने। 1982 में मौयरे सरकार के तहत, उसके महिला अधिकारो के मंत्री के साथ, मार्च 8 बुर्ज़ुआ जनवादी राज्य का एक निकाय बना।
तभी से पूँजी के हर वामपंथी धड़े ने नारीवादी सगठनों और नारीवादी लेखकों की जो फौज खड़ी की है, उसने सर्वहारा महिलाओं की वर्गीय पहचान को उन 'साधारण' महिलाओं में गड्डमड्ड करने में अपना योगदान दिया है। जहाँ समाज के सभी स्तरों और वर्गों की महिलाएँ अपने-अपने वर्गभेद भुलाकर 'भीड़' के रूप में इस बुर्जुआ आंदोलन में शरीक होती हैं।
आज के चुनाव प्रचार (अमरीका में हिलेरी क्लिंटन का राष्ट्रपति पद के लिए उम्मीदवार होना और फ्रांस में संगोलीन रॉयल की उम्मीदवारी) हमें बहलाने-फुसलाने का तरीका हैं कि हम उनकी इस बात पर यकीन कर लें कि सरकार की बागडोर एक महिला के हाथ में आ जाने से सर्वहारा वर्ग पर बर्बर अत्याचारों का सिलसिला खत्म हो जाएगा। वे हमें इस बात पर भी यकीन करने को कह रहे हैं कि महिला शासक के शासनकाल में युध्द कम होंगे, क्योंकि महिलाएँ प्राय: कम हिंसक होती हैं, उनमें मानवता अधिक होती है और पुरुषों के मुकाबले अधिक शांतिप्रिय होती हैं। यह शोषण का मृदुलीकरण है।
यह कोरी बकवास है और शुध्द रूप् में धोखा है। पूँजीवादी प्रभुत्व यौन की नहीं बल्कि सामाजिक वर्ग की समस्या है। राज्य की बागडोर जब भी बुर्जुआ महिलाओं के हाथों में आई है, उन्होंने अपने पूर्ववर्ती पुरुष शसकों की पूँजीवादी नीतियों को अपनाया और लागू किया है। ये सभी महिला शासक उस लौह महिला मार्गरेट थेचर के नक्षेकदम पर चलेंगी जिसे सन् 1982 के फॉकलैन्ड युध्द का नेतृत्व करने के लिए याद किया जाता है। और याद किया जाता है आई.आर.ए. के उन 10 कैदियों को मरने देने के लिए जिन्होंने राजनीतिक कैदियों के दर्जे की माँग में भूख हड़ताल की थी। (भारत में पूर्व प्रधानमंत्री इन्दिरा गाँधी और दलित मुख्यमंत्री मायावती इसी के ज्वलंत उदाहरण हैं।) इन सभी का बर्ताव एक जैसा ही है जैसे कि सरकोजी की सहयोगी महिलायें मिचिल एलियट-मैरी, राचिडा डटी, वलेरी पैक्रीज या फिर फदेला अमारा। राष्ट्र की अर्थव्यवस्था के प्रबंधन में लिंग भेद बुर्जुआजी के लिए कभी रुकावट नहीं बना है। और मालिकों के संगठन की साहेब लारेंस परीसोत ने भी अपने पूर्ववर्ती दबंग 'पुरुष' सहेबों की तरह ही बुर्जुआजी की बहुत अच्छी तरह सेवा की है।
1917 में अक्टूबर क्रांति के तत्काल पहले लेनिन ने लिखा था - "उनके जीवन काल में महान क्रांतिकारियों को उत्पीड़क वर्गों ने बराबर डराया-धमकाया व सताया है और उनकी शिक्षाओं का सामना सदा भीषण कपट, प्रचण्ड नफरत तथा झूठ के और कलंकित करने के अनैतिक अभियानों से किया है। लेकिन उनकी मृत्यु के बाद रातोंरात धो-पोंछकर उन्हें निरीह बुतों मे बदलने, संतों के रूप में स्थापित करने तथा उंनके नामों को आभामंडल से घेरने के प्रयास किये जाते हैं। ताकि दबे-कुचले वर्गों को संतावना दी जा सके तथा उन्हें धोखा दिया जा सके। इसके साथ ही उनकी क्रांतिकारी शिक्षांओं को नपुंसक बना दिया जाता है, उसकी धार कुठित कर दी जाती है और उसका एक विकृत, भौंडा रूप स्थापित किया जाता है"। (राज्य और क्रांति)
जैसा क्रांतिकारियों के साथ हुआ वैसा ही 1 मई के साथ भी हुआ है। और मार्च 8 (अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस) का हश्र भी 1 मई जैसा ही हुआ है।
उन प्रतीकों को जो पहले मज़दूर वर्ग को प्राप्त थे उसी के खिलाफ मोडने की बुर्जुआज़ी की क्षमता शासक वर्ग की हैसियत से उसका एक अत्याधिक घिनौना हथियार है। यूनियनों और मजदूर पार्टियों के साथ भी उसने यही किया, और मई 1 तथा अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के साथ भी।
प्रागितिहास के अंत समय से ही जुल्म और अत्याचार हमेशा महिलाओं की जिंदगी का हिस्सा रहा है। लेकिन पूँजीवादी व्यवस्था के अधीन इस जुल्म व अत्याचार का उन्मूलन नहीं हो सकता। कम्युनिस्ट समाज के आने पर ही महिलाएँ इससे निजात व छुटकारा पायेंगी। लिहाजा सर्वहारा वर्ग के आम आंदोलन में अपनी मुस्तैद भागीदारी से ही वे खुद को स्वतंत्र कर सकती हैं और इसी में समस्त मानवता की मुक्ति भी है।
सिलवेस्टर, 12.02.2008
इस वक्त ग्रीस में भारी जनाक्रोश भड़क रहा है और वहाँ के सामाजिक हालात विस्फोटक हैं। ग्रीस का शासक वर्ग वर्किंग क्लास पर खूब कहर बरपा कर रही है। हर पीढी, हर क्षेत्र व हर वर्ग पर इसकी भारी बुरी मार पड रही है। निजी क्षेत्र के मजदूर, सरकारी मजदूर, बेरोजगार, पेंशनभोगी, अस्थाई-ठेके पर काम करने वाले छात्र... किसी को भी इसने नहीं बक्शा है। पूरी वर्किंग क्लास के सामने भयावह गरीबी का संकट पैदा हो गया है।
सरकार के इन हमलों का जवाब वर्किंग क्लास ने देना शुरू कर दिया है। ग्रीस तथा दूसरी जगहों पर वे सडकों पर उतर आये हैं और हडताल पर जा रहे हैं, जो कि सीधे-सीधे दिखाता है कि वे उस 'त्याग' के लिए कतई तैयार नहीं है जिसकी माँग पूँजीवाद उनसे कर रहा है।
फिलहाल संघर्ष व्यापक नहीं हो पाया है। लेकिन ग्रीस के मजदूर एक कठिन दौर से गुजर रहे हैं। तब कोई क्या करे जब पूरा मीडिया और सभी राजनेता इस बात पर जोर दे रहे हों कि देश को दिवालिया होने से बचाने के लिए पेट पर पट्टी बाँधने के अलावा क्या कोई चारा नहीं है? सत्ता रूपी राक्षस के आगे कोई कैसे खडा हो? अब सोचना यह है कि प्रतिरोध के कौन-कौन से तरीके इस्तेमाल में लाये जाएँ जिससे शोषितों के पक्ष में एक संगठनात्मक शक्ति खडी की जा सके।
इन सारे सवालों का सामना सिर्फ ग्रीस के मजदूर ही नहीं कर रहे बल्कि दुनियाभर के मजदूर इनसे जूझ रहे हैं। इसमें कोई भ्रम नहीं है कि 'ग्रीस की त्रासदी' इस भूमंडल पर आने वाली महाविपत्ति का इशाराभर है। ग्रीक जैसे "कड़की पैकेजों" की घोषणा पुर्तगाल, रूमानिया, जापान और स्पेन की सरकारें पहले ही कर चुकी हैं। सरकारी क्षेत्र के कर्मचारियों की तनखवाह में वहाँ की सरकारें ५ प्रतिशत की कटौती कर चुकी हैं। ब्रिटेन में नई गठबंधित सरकार ने अपने द्वारा लक्षित इन कटौतियों की व्यापकता को अभी उजागर करना प्रारंभ ही किया है।
उस पर लगातार हो रहे ये चौतरफा हमले एक बार फिर यह साबित करते हैं कि मजदूर भले ही किसी भी राष्ट्रीयता के हों या फिर किसी भी भाग के, लेकिन उन सबके हित समान हैं और उनका शत्रु भी एक ही है। पूँजीवाद सर्वहारा को उज़रती श्रम की भारी ज़जीरें झेलने के लिए मज़बूर करता है, पर ये ज़ंजीरें ही दुनिया के सर्वहारा को एक सूत्र में बाँधने का काम करती हैं फिर भले ही वे किसी भी राष्ट्र या सीमांत के हों।
ग्रीस में हमारे जो सर्वहारा भाई-बहन हमले झेल रहे हैं, अब उन्होंने प्रतिवाद करना शुरू कर दिया है। उनकी लड़ाई, हमारी भी लडाई है।
ग्रीस के मजदूरों की एकता! एक वर्ग, एक संघर्ष!
बुर्जुआजी के बनाये और हम पर थोपे गये विभाजनों को हमें अस्वीकार करना होगा। 'फूट डालो और राज करो', सारे शासक वर्गों का पुराना सिद्धांत है जिसके खिलाफ हमें बुलंद करना होगा "शोषितों का रणनाद" : दुनिया के मजदूरो! एक हो!
यूरोप के अलग-अलग राष्ट्रों की बुर्जुआजी हमें यह यकीन दिलाने की कोशिश कर रही है कि अगर हमें "पेट पर पट्टी" बांध कर गुज़र करनी पड रही है तो ग्रीस के कारण। ग्रीस के शासक वर्ग की बेइमानी, जिसने दशकों तक देश को उधार के बूते चलाया है और सार्वजनिक धन की बर्बादी की, "यूरो की अंतर्राष्ट्रीय साख पर आये इस संकट" का मूल कारण वही हैं। एक के बाद दूसरी सरकारें इन झूठे बहानों को प्रोयग करके घाटे कम करने तथा और भी घातक उपाय लागू करने की जरूरत की व्याख्य कर रही हैं।
ग्रीस की सभी आधिकारिक पार्टियाँ, और कम्युनिस्ट पारटी इनकी अगुआ है, राष्ट्रवादी भावनाओं को भड़का रही हैं और संकट के लिए 'विदेशी ताकतों' का हाथ होने का प्रचार कर रही हें। ग्रीस के वामपंथी तथा अति वामपंथी, जो ग्रीस के पूँजीवाद की रक्षा का हर संभव प्रयास कर रहे हैं, प्रदर्शनों में नारे लगा रहे हैं: 'आई.एम.एफ. और यूरोपीयन यूनियन हाय... हाय।' 'जर्मनी हाय... हाय।'
अमरीका का स्टॉक मार्केट अगर नीचे जा रहा है तो इसकी वजह है यूरोपीयन यूनियन की अस्थिरता; कंपनियाँ अगर बंद हो रही हैं तो यह यूरो की कमजोरी का नतीजा है, जो कि डॉलर और अमरीकी निर्यात के लिए रूकावट है।
संक्षेप में कहें तो हर देश की बुर्जुआजी इस सबके लिए अपने पड़ोसी देश को जिम्मेवार ठहरा रही हैं और उन मजदूरों को ब्लैकमेल कर रही हैं जिनका वह खून चूसती हैं। उनको धमकाती है और कहती हैं: ''इन उपायों को कबूल करो अन्यथा देश कमजोर हो जाएगा और हमारे प्रतियोगी इस मौके का फायदा उठा ले जाएँगे।'' इस तरह से शासक वर्ग राष्ट्रवाद का 'टीका' हमें लगाने की कोशिश कर रहा है जो कि वर्ग-संघर्ष के लिए एक घातक विष का काम करता है।
प्रतिदव्न्दी रष्ट्रों में विभाजित दुनिया हमारी नहीं है। जिस राष्ट्र में वह रह रहा है, उसकी पूँजी के साथ नत्थी होने में मज़दूर वर्ग का कोई हित साधन नहीं है। ''राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था के बचाव'' के नाम पर आज बलिदान स्वीकार करना कल और अधिक तथा कठोर बलिदानों के लिए जमीन तैयार करना है।
ग्रीस की अर्थव्यवस्था अगर गहरे संकट के मुहाने पर है, स्पेन, इटली, आयरलैंड और पुर्तगाल अगर उनके पीछे पीछे हैं, गर ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी और अमरीका भी गहरे संकट में हैं, तो इसका कारण है मरणासन्न पूँजीवादी व्यवस्था। सभी राष्ट्रों को गहरे दर गहरे संकट में डूबते जाना है। गत ४० वर्षों से विश्व अर्थव्यवस्था इस संकट से जूझ रही है। आर्थिक मंदी की जैसे बाढ दर बाढ आ रही है। जिस आर्थिक विकास दर को हासिल करने का दावा पूँजीवाद करता है, वह खतरनाक ढंग से उधार की कृत्रिम माँग का परिणाम है। इसका नतीजा है कि आज रियलइस्टेट बाजार, कंपनियाँ, बैंक व स्टेट इस उधार के कारण औंधे मुँह नीचे आ गिरे हैं। ग्रीस का दिवालियापन तो ऐतिहासिक रूप से दिवालिया इस शोषणकारी व्यवस्था का सामान्य व्यंग्य चित्र मात्र है।
शासक वर्ग हमें बाँटना चाहता हैः सर्वहारा की जरूरत है अखंड एकात्मकता।
वर्किंग क्लास की विशाल संखयात्मक एकता ही उसकी शक्ति है।
बुर्जुआजी द्वारा की गई कटौतियों और उपाय हमारे जिंदा रहने की परिस्थितियों पर सीधा-सीधा आक्रमण हैं। इससे बचने का सर्वहारा के पास एक ही रास्ता है, मजदूरों का व्यापक प्रतिरोधी आंदोलन। इन आक्रमणों का जवाब एक दूसरे के अलगांव में, अपने कारखाने, अपने आफिस, अपने स्कूल में अकेले-अकेले लड़कर नहीं दिया जा सकता। व्यापक पैमाने पर प्रतिरोध की लडाई छेडना समय का तकाजा है। अन्यथा इसका तो एक ही विकल्प है कि अकेले लडते हुए खत्म हो जाओ और दरिद्रता व नृशंसता झेलो।
लेकिन उन ट्रेड यूनियनों ने क्या किया है जो स्वयं को संघर्ष की आधिकारिक 'विशेषज्ञ' घोषित करती रही हैं? ये जगह-जगह पर हडतालें आयोजित करती रही हैं... उनमें एकता स्थापित करने की कोशिश के बगैर। क्षेत्रीय-सैक्शनल विभाजनों को, खासकर प्राइवेट और पब्लिक सेक्टर के मजदूरों के बीच, बढावा देने में इन्होंने खूब मुस्तैदी दिखाई है। वे मजदूरों को निर्रथक 'डेज़ आफ एक्शनों' मे झोंके रखती हैं। ट्रेड यूनियनों की खासियत ही यह है कि वर्किंग क्लास को विभाजित कैसे रखा जाए। यूनियनें राष्ट्रीय पूँजीवाद के हित में काम करती हैं। इसका उदाहरण हैः मार्च के मध्य से ही ग्रीक ट्रेड यूनियनें 'ग्रीक माल खरीदो'' की रट लगा रही हैं।
ट्रेड यूनियनों के बताये रास्ते पर चलने का अर्थ ही है विभाजन और हार की राह। मजदूरों को अपने संघर्षों का नेतृत्व खुद संभालना होगा। जनरल असेम्बली के आयोजन द्वारा तथा अपनी माँगे तथा नारे निर्धारित करके, ऐसे प्रतिनिधियों का चयन करके जिन्हें वापिस बुलाया जा सके तथा उन्हें निकट के कारखानों, ऑफिसों और अस्पतालों में दूसरे मजदूर समुहों के साथ वार्ता करने के लिए बड़े पैमाने पर प्रतिनिधि-मंडल भेज कर। इन प्रतिनिधि-मंडलों का उद्देश्य होगा आंदोलन में सक्रिय भागीदारी के लिए उन्हें प्रोत्सोहित करना।
ट्रेड यूनियनों के खोल को फाड कर उससे बाहर आना, संघर्ष का नेतृत्व अपने हाथ में लेने का साहस करना, दूसरे सेक्टर के मजदूरों को विश्वास में लेने की ओर कदम बढना... आसान काम नहीं है। संघर्ष के विकास के अवरोधों में आज भी एक है वर्किग क्लास में आत्म विश्वास की कमी। अकूत ताकत से लैस होते हुए भी वह अपनी शक्ति से बेखबर है।
फिलहाल, पूँजीवाद द्वारा मजदूरों पर हमलों की हिसांत्मकता, आर्थिक संकट की बर्बरता, सर्वहारा में आत्म विश्वास की कमी - ये सब सर्वहारा संघर्ष को 'पैरालाइज' करने का काम करते हैं। ग्रीस में भी मजदूरों ने प्रतिरोध तो किया, लेकिन जिस तीव्र और व्यापक संगठित प्रतिरोध की दरकार थी उसकी कमी देखी गई। फिर भी भविष्य वर्गसंघर्ष का है। हमलों के खिलाफ एक मात्र राह है व्यापक मजदूर आंदोलनों का विकास।
कुछ लोग सवाल करते हैं, "इन संघर्षों से क्या हासिल होगा? ये हमें कहाँ ले जाकर छोडेंगे? पूँजीवाद कब का दिवालिया हो चुका है और अब सुधार की संभावनाएँ चुक गई हैं, क्या इसका अर्थ यह नहीं कि बचने के का कोई रास्ता नहीं है?" यकीनन, शोषण पर टिकी इस बर्बर व्यवस्था में मुक्ति का कोई रास्ता नहीं है। कुत्तों जैसी जिल्लत भरी जिन्दगी जीने से इंकार करने, मिल कर लडने का अर्थ है अपने सम्मान के लिए उठ खडे होना। इसका अर्थ है यह जानना कि प्रतिदव्न्दिता तथा शोषण भरी इस दुनिया में एकजुटता विद्यामान है और मज़दूर वर्ग इस बेशकीमती मानवीय अहसास को जीवंत करने की क्षमता रखता है। और फिर एक अन्य दुनिया, एक ऎसी दुनिया की संभावना उभरने लगेगी जो शोषण, राष्ट्रों तथा सरहदों से मुक्त होगी, एक दुनिया जो इंसानों के लिए बनी हो न कि मुनाफे के लिए। मजदूर वर्ग सवंय पर भरोसा कर सकता है, उसे यह भरोसा करना होगा। केवल वही उस नये समाज का निर्माण कर सकता है जिसे मार्क्स ने "अवशयकतांओं की दुनिया से निकल कर स्वतंत्रा की दुनिया मे छ्लांग लगाना" कहा और इस प्रकार मानवजाति का सवंय से सामजसय सथापित कर सकता है।
पूँजीवाद दिवालिया है, लेकिन एक दूसरी दुनिया संभव हैः साम्यावाद।
वर्ल्ड रेवोल्यूशन, नंबर 335, 15 जून - 15 जुलाई 2010
जेंग्चेंग का सिंतंग क्षेत्र, जो चीन के दक्षिणी गुअंग्जौ प्रान्त में है, 60 से अधिक अंतरराष्ट्रीय ब्रांडों के लिए 26 करोड़ जोड़े जींस का वार्षिक उत्पादन करता है, यह चीन के जींस उत्पादन का 60% और दुनिया के उत्पादन का एक तिहाई है। विश्व की जींस की राजधानी के रूप विख्यात यह पिछले ३० वर्षों के चीनी आर्थिक विकास का प्रतीक है। जून 2011 के माह में, एक 20 वर्षीय गर्भवती के साथ पुलिस के सलूक के खिलाफ हजारों मजदूरों द्वारा गुस्साए प्रदर्शन और पुलिस के साथ मुठभेडें हुईं, यह 'आर्थिक चमत्कार' के गढ़ में मजदूरों द्वारा भोगी सच्चाई है।
मजदूरों ने सरकारी इमारतों पर हमला किया, पुलिस के वाहनों को उलट दिया और पुलिस से मुठभेडें हुयी। चीनी सरकार ने प्रदर्शानों के खिलाफ 6000 अर्ध सैनिक पुलिस को सशस्त्र वाहनों के साथ भेजा, जिन्होंने 10,000 मजदूरों पर आँसू गैस द्वारा हमला किया।
पिछले साल होंडा में हड़ताल फैलने के बाद, कंपनी ने वेतन में अहम बढोत्तरी को स्वीकार किया। मजदूरों के, जिनमें से बहुत से देहातों से आए प्रवासी थे, हालिया प्रदर्शनों के रुबरु, सरकार ने दंगाइयों को चिन्हित करने वाले हर किसी को निवास का अधिकार देने की पेशकश की। चीनी शहरों में जिनके पास आवासीय मकान की रजिस्ट्री नहीं होती उन्हें स्वास्थ्य सुविधाओं, शिक्षा और अन्य सामाजिक लाभों से बंचित कर दिया जाता है।
जिन्चेंग में विरोध के ये दिन कोई अलग थलग घटना नहीं। एक सप्ताह पहले "सिचुआन प्रवासी पुलिस के साथ टकराए और गुअन्ग्ज़्हौ से लगभग 210 मील की दूरी पर, चोज्होऊ में, उन्होंने पुलिस वाहनों को उलट दिया। यह तब हुआ जब अपना पिछले दो माह का वेतन मांगते एक मज़दूर पर सिरेमिक्स फेक़्टरी, जहां वह काम कर चुका था, के अधिकारी ने हमला किया" (लॉस एंजिल्स टाइम्स, 13/6/11)।
जैसा कि फाइनेंशियल टाइम्स(17/6/11) ने लिखा "हालाँकि इस तरह के प्रदर्शनों का होना चीन में अपेक्षाकृत आम बात हैं, दोनों ही मामलों में पुलिस और गुस्साए नागरिकों के बीच गतिरोध जल्द ही हिंसा में बदल गया"।
बुर्जुआ प्रेस ने इस तथ्य को चिन्हांकित किया है कि इन टकरावों में प्रवासी मजदूर शामिल थे। चीन में 15 करोड़ 30 लाख प्रवासी श्रमिक अपने गृहनगर से बाहर रहते हैं। ग्रामीण क्षेत्रों को छोड़कर वे निर्माण स्थलों, कारखानों, रेस्तरां और नई परियोजनाओं पर, जब वे आती हैं, काम के लिए जाते हैं। उनमें से साठ प्रतिशत 30 साल से कम आयु के हैं और, सर्वेक्षणों में पूछताछ के दौरान, पुराने श्रमिकों की तुलना में युवा मजदूर अधिक यह कहने वाले हैं कि वे सामूहिक कार्रवाई में भाग लेंगे। अब शहरी क्षेत्रों में काम कर रहे श्रमिक ग्रामीण इलाकों की ओर लौटने का बहुधा कोई इरादा नहीं रखते, मसलन बहुत कम को खेती का कोई अनुभव है।
अपने मूल स्थान से उनके लगाव की मात्रा का सबूत यह है कि युवा मजदूर "अपने घर ग्राम को कम पैसे भेजते हैं। राष्ट्रीय सांख्यिकी ब्यूरो ने पाया कि 2009 में युवा प्रवासियों ने अपनी आय का करीब 37.2 प्रतिशत अपने गांव को भेजा, जबकि अधिक उमर वाले प्रवासियों ने 51.1 प्रतिशत भेजा। (28/6/11 रायटर)
चीनी पूंजीवाद की प्रतिक्रिया
चाहे हड़ताल हों या अन्य विरोध, उनसे निपटते वक्त "स्थानीय और राष्ट्रीय दोनों स्तर पर चीन सरकार की पहली वृति बल प्रयोग की है। दमन थोड़ी देर के लिए काम कर सकता है। लेकिन अगर अंतर्निहित कारणों को संबोधित नहीं किया जाता तो, चीन मे विस्फोट का जोखिम है" (19/6/11 एफटी)। मतलब यह नहीं है कि चीन दमन का रास्ता छोडने जा रहा है।
ब्लूमबर्ग (6/3/11) ने रिपोर्ट दी है कि "जबकि सरकार ने बढ़ती सामाजिक अशांति के नियंत्रण हेतु देश के चारों ओर सुरक्षा बलों को तैनात किया है, 2010 में चीन ने अपने सशस्त्र बलों से अधिक अपने आंतरिक पुलिस बल पर खर्च किया, और इस वर्ष भी ऐसा ही करने की योजना है।" लेख आगे लिखता है "सार्वजनिक सुरक्षा खर्च में भारी उछाल तब आया है जब तथाकथित जन घटनाएँ, हड़तालों से दंगो और प्रदर्शनों तक सब कुछ, वृद्धि पर हैं। 2010 में कम से कम 1,80,000 ऐसी घटनाएँ हुईं, जो 2006 से दोगुनी हैं" ऐसा कहना है बीजिंग स्थित तिसिंघुआ विश्वविद्यालय के समाजशास्त्र के प्रोफेसर सन लिपिंग का। चीनी शासक वर्ग की चिंता एक हद तक 'जन घटनाओं' के प्रसार से है, पर इस "धारणा में भी चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के लिए गहरा खतरा है कि स्थानीय विरोध एक व्यापक राष्ट्रीय जुडाव हासिल कर रहे है"(19/6/11 एफटी)
इसका मतलब यह नहीं है कि चीनी बुर्जुआज़ी 'अशांति के अंतर्निहित कारणों ' से निपट सकता है। बुनियादी रुप से, विरोध प्रदर्शनों और हड़तालों की जड़ में हैं वे परिस्थितियाँ जिसमें श्रमिक जीते और काम करते हैं। इन परिस्थितियों को थोपे बिना चीन का आर्थिक विकास संभव न होता।
चीनी पूँजीवाद, लाखों श्रमिकों के लिए सार्थक भौतिक सुधार उपलब्ध नहीं करा सकता और इसी लिए वह एक 'विस्फोट' का खतरा लिए है। लेकिन वह जानता है कि उसे दमन के अलावा भी किसी चीज़ की जरुरत है। जैसे ब्लूमबर्ग के लेख ने नोट किया "झोउ योंगकांग, जो कम्युनिस्ट पार्टी की सत्तारूढ़ पोलित ब्यूरो की स्थायी समिति, जो देश के सुरक्षा बलों को देखती है, के सदस्य हैं ने पार्टी के मुखपत्र पीपुल्स डेली मे 21 फ़रवरी 2011 के लेख में कहा कि सरकार को चाहिए कि वह ''सामाजिक संघर्षों और विवादों को अंकुरित होते ही शांत कर दे"।
सामान्यत चीनी बुर्जुआज़ी के पास संघर्ष को उनकी प्रारंभिक अवस्था में शांत करने के साधनों का अभाव है। सरकारी यूनियनें गैरलचीली हैं, उन्हें व्यापक रूप से संदेह की नज़र से देखा जाता है और वे ठीक ही राज्य के हिस्से के रूप में जानी जाती हैं। जो 'स्वतंत्र' यूनियनें अस्तित्व में हैं वे बहुत सीमित पैमाने पर हैं। इस लिए यह एक दिलचस्प बात है कि हान डॉग्फान, एक कार्यकर्ता जिसने 1989 में त्याननमेन चौक पर प्रादर्शनों के दौरान एक यूनियन की स्थापना की थी, अपने विचार संशोधित कर रहा है ।
गार्जियन (26/6/11) के लेख में वह कहता है कि हाल के प्रदर्शन और बेहतर मजदूरी और काम की बेहतर परिस्थितियों की मांगें दर्शाती हैं कि "उन मांगों को मुखरित कर सकने वाली किसी सच्ची ट्रेड यूनियन के बिना, मजदूरों के पास सड़कों पर उतरने के सिवाय बहुत कम विकल्प हैं"। वह सोचता है कि "सक्रियतावाद के इस नए युग ने चीन की सरकारी ट्रेड यूनियन, अखिल चीन ट्रेड यूनियन्स फेडरेशन, को मजबूर कर दिया है कि वह अपनी भूमिका का पुनर्मूल्यांकन करे और मजदूरों के हितों का प्रतिनिधित्व करने वाला एक सच्चा संगठन बनने की राह खोजे"। चीनी शासक वर्ग निश्चित रूप से चाहता है कि सरकारी यूनियनों का श्रमिक वर्ग पर अधिक प्रभाव हो, लेकिन श्रमिकों के लिए यूनियनी संगठन का कोई रूप नही है जो उनकी जरूरतों को पूरा कर सके। श्रमिक वर्ग के लिए मसला एक तरह की यूनियन की दूसरे से अदला-बदली का नही, बल्कि है अति प्रभावी सामूहिक कार्यावाही के लिए साधनो की खोज का। यह तथ्य कि हड़तालें और प्रदर्शन इतनी जल्दी पुलिस के साथ टकराव में बदल जाते हैं, उन सबूतों में से एक है जो मज़दूरों को दिखाता है कि उनके संघर्षों के लिए जरुरी है अंतत: एक ऐसी ताकत का निर्माण जो चीनी पूँजीवादी राज्य का विनाश कर सके।
कार, 1 जुलाई 2011
हमें कोरिया से अभी-अभी खबर मिली है कि कोरिया की सोस्लिस्ट वर्कर्स लीग (Sanoryun) के 8 जुझारू दक्षिण कोरिया के 'राष्ट्रीय सुरक्षा कानून'1 के तहत गिरफ्तार कर लिए गए हैं ऒर ऊन्हे 27 जनवरी को सजा सुनाई जानी है।
इसमें कोई दो राय नहीं है कि यह एक राजनीतिक मुकद्दमा है, ऒर यह, शासक वर्ग जिसे 'न्याय' कहता है, उसका एक मजाक है। इस हकीकत के तीन सबूत हैं:
इन जुझारूऒ पर जो इलजाम है वह समाजवादी होने के वैचारिक जुर्म के सिवा कुछ नहीं। दूसरे शब्दों में, वो इस बात के गुनाहगार ठहराये गये हैं कि उन्होने मज़दूरों का खुद का, अपने परिवार का ऒर रहने के अपने हालातों की हिफाज़त के लिए खुला अहवान किया है और पूँजीवाद का असली चेहरा खुलेऑम उजागर किया है। अभियोग पक्ष द्वारा संभावित सजांएँ उस दमन की एक और मिसाल हैं जो दक्षिण कोरिया का शासक वर्ग उन सब पर बरपा करता है जो उसकी राह में आने की हिम्मत करते हैं। इस निर्दयी दमन ने पहले ही 'बेबी स्ट्रोलर्स बिग्रेड' की उन जवान माताऒं को अपना निशाना बनाया है जो 2008 में अपने बच्चों के साथ मोमबत्ती प्रदर्शन में गईं और जिन्हें बाद में कानूनी व पुलिस उत्पीड़न का शिकार होना पड़ा।4 इस दमन ने सान्गयोन्ग के उन मज़दूरों को भी अपना निशाना बनाया जिन्हें दंगा पुलिस ने, जो उनके कारखाने में घुस आई थी, पीटा।5
लंबी कैद की सजाओं के रूबरू, गिरफ्तार जुझारूऒ ने अदालत में अनुकरणीय शालीनता का आचरण किया और इस अवसर का प्रयोग मुकदमे के राजनीतिक चरित्र को साफ तौर पर नंगा करने के लिए किया। हम नीचे ट्रिब्यूनल के सामने ऒ सी चियोल के आखिरी भाषण का अनुवाद दे रहे हैं।
इस क्षेत्र में सैनिक तनाव उभार पर हैं, पिछले साल नवम्बर में यौंगपोंग द्वीप में उकसावे भरी गोलीबारी और उत्तर कोरियाई शासन की गोलियों से नागरिकों का मारा जाना, तथा इसके बदले में दक्षिण कोरियाई फोज के साथ अभ्यास के लिए अमेरिकी नाभिकीय विमानपोत की उस क्षेत्र के लिए रवानगी। इस हालत में यह बयान पहले से ज्यादा सच हो जाता है कि ऑज मानवता के सामने दो ही विकल्प हैं समाजवाद या बर्बरता।
अमेरिका ऒर उसके सहयोगियों का प्रचार उत्तरी कोरिया को एक 'गैंगस्टर राज्य' के रूप में चित्रित करने की कोशिश करता है जिसका शासक गुट अपनी भूखी जनता के निष्ठुर दमन की बदौलत ऐशोऑराम से रहता है। यह निस्संदेह सच है। लेकिन दक्षिण कोरियाई सरकार द्वारा माताऒं, बच्चों, संघर्षशील मजदूरों और अब समाजवादी जुझारूओं पर बरपा दमन स्पष्ट दिखाता है कि, अंतिम विश्लेषण में, हर राष्ट्रीय बुर्जुआज़ी भय और क्रूरता के बल पर राज करता है।
इन हालात के मद्देनजर हम गिरफ्तार जुझारुऒं के साथ अपनी पूर्ण एकजुटता ज़ाहिर करते हैं, उनके साथ अपने संभवतः राजनीतिक मतभेदों के बावजूद। उनका संघर्ष हमारा संघर्ष है। हम उनके परिवारों और साथियों के साथ दिली हमदर्दी और एकता जाहिर करते हैं। हम internationalism.org पर मिले समर्थन तथा एकज़ुटता के हर संदेश को खुशी से उन साथियों तक पहुँचा देंगे।6
ऒ सी चियोल का कोर्ट में आखिरी भाषण, दिसम्बर 2010 (कोरियन से अनुवादित)
कई सिद्धांतों ने पूँजीवाद के इतिहास में घटित संकटों को समझाने की कोशिश की है। इनमें से एक आपदा सिद्धांत है, जो मानता है कि जिस घड़ी पूँजीवाद के विरोधाभास अपने उच्चतम बिंदु पर पहुंचेंगें, पूँजीवाद स्वयं ढह जाएगा और स्वर्ग की एक नई सहस्राब्दी के लिए रास्ता बनाएगा। इस सर्वनाशवादी या अति अराजकतावादी विचार ने पूँजीवादी उत्पीड़न और शोषण से सर्वहारा की पीड़ा को समझने की राह में भ्रम तथा गलतफहमियं पैदा की हैं। बहुत से लोग इस तरह के एक गैर वैज्ञानिक दृष्टिकोण से संक्रमित हुए हैं।
एक और सिद्धांत है आशावाद जिसे पूँजीपति वर्ग हमेशा फैलता है। इस सिद्धांत के अनुसार, पूँजीवाद में अपने विरोधाभासों से उबरने के साधन मौजूद हैं और असल अर्थव्यवस्था सट्टेबाज़ी को नष्ट करके ठीक काम करती है।
उपर्युक्त दो से अधिक परिष्कृत एक और सिद्धान्त है, और यह दूसरों से अधिक प्रबल है, जो मानता है कि पूँजीवादी संकट आवधिक हैं, और हमें मात्र तूफान के थमने तक शांतिपूर्वक इंतज़ार करने और फिर सफर शुरू करने की जरूरत है।
ऐसी सोच 19वीं शताब्दी में पूँजीवाद के दृश्य के लिए उचित थी: यह 20वीं और 21वीं सदी के पूँजीवादी संकटों के अनुरूप नहीं। 19वीं सदी में पूँजीवादी संकट पूँजीवाद के असीमित विस्तार के चरण के संकट थे जिन्हे मार्क्स ने कम्युनिस्ट घोषणापत्र में अतिउत्पादन की महामारी कहा। पर अतिउत्पादन के परिणामस्वरूप अकाल, गरीबी और बेरोजगारी फैलने का रूझान वस्तुओं की कमी के कारण नहीं था। बल्कि बहुत सारे उत्पादों, बहुत ज्यादा उद्योग और बहुत ज्यादा संसाधनों के कारण था। पूँजीवादी संकट का एक अन्य कारण है पूँजीवादी प्रतियोगिता की पद्धति की अराजकता। 19वीं सदी में, नए उज़रती श्रम तथा मालों के लिए नए निकास तलाशने के लिए नए क्षेत्रों को जीत कर पूँजीवादी उत्पादन संबंधों को फैलाया तथा गहराया जा सकता था। इसलिए इस दौर में संकटों को एक स्वस्थ दिल की धडकन जैसा समझा गया।
20वीं सदी में पूँजीवाद का ऐसा आरोही चरण पहले विश्व युद्घ के मोड़ के साथ समाप्त हो गया। तब, माल उत्पादन वा उज़रती श्रम के पूँजीवादी संबंधों का दुनिया भर में विस्तार हो गया था। 1919 में कम्युनिस्ट इंटरनेशनल ने तात्कालिक पूँजीवाद को 'युद्ध या क्रांति' के दौर का नाम दिया। एक ओर, अति-उत्पादन की पूँजीवादी प्रवृत्ति साम्राज्यवादी युद्ध की ओर धकेल रही थी ताकि दुनिया के बाजारों को हथियाया तथा नियंत्रित किया जा सके। दूसरी ओर, 19 वीं सदी के विपरीत, इसने विश्व-अर्थव्यवस्था को अस्थिरता और विनाश के अर्द्ध स्थायी संकट पर निर्भर बना दिया।
इस तरह के विरोधाभास का परिणाम थीं दो ऐतिहासिक घटनाएं, प्रथम विश्व युद्ध और 1929 का विश्व संकट, जिनकी कीमत थी दो करोड जानें और 20-30% की बेरोजगारी दर। और इसने एक तरफ तथाकथित "समाजवादी देशों" के लिए मार्ग प्रशस्त किया जहां अर्थव्यवस्था के राष्ट्रीयकरण के माध्यम से राज्य पूँजीवाद उभरा, तो दूसरी तरफ थे निजी पूंजीपति वर्ग तथा राज्य नौकरशाही के संयोजन के साथ उदार देश।
दूसरे विश्वयुद्ध दे बाद तथाकथित 'समाजवादी देशों' समेत समूचा विश्व पूँजीवाद एक असाधारण खुशाहाली में से गुज़रा जो कि 25 साल चले पुनर्निमाण तथा करज़ों का फल थी। इसके चलते सरकारी नौकरशाहों, ट्रेडयूनियन नेतांओं, अर्थशास्त्रियों और तथाकथित 'मार्क्सवादियों' ने जोरशोर से घोषित किया कि पूँजीवाद ने अंतिम रूप से अपने संकटों पर पार पा लिया है। पर जैसे निम्न उदाहरण दिखाते हैं, संकट निरंतर बदतर हुआ है: 1967 में पाउँड स्टर्लिंग का अवमूल्यन, 1971 का डालर संकट, 1973 में तेल कीमतों का झटका, 1974-75 की आर्थिक मंदी, 1979 का मुद्रासफिति संकट, 1982 का ऋण संकट, 1987 का वाल सट्रीट संकट, 1989 की आर्थिक मंदी, 1992-93 में यूरोपीय मुद्राओं की अस्थिरता, 1997 में एशिया में 'टईगर्स' तथा 'ड्रैगनस' का संकट, 2001 में अमेरिकी 'नई अर्थव्यवस्था' का संकट, 2007 का सब-प्राईम संकट, लेहमान ब्रद्रस आदि का वित्तीय संकट तथा 2009-2010 का वित्तीय संकट।
क्या संकटों की यह श्रांखला 'अवर्ती' तथा 'आवधिक' है? बिल्कुल नहीं। यह पूँजीवाद की असाध्य बिमारी, भुगतान के काबिल बाज़ारों की कमी, मुनाफे की गिरती हुई दर का फल है। 1929 में विश्व महामन्दी के वक्त राज्यों के विशाल हस्तक्षेप के चलते बदतर हालात पैदा नहीं हुए। पर हालिया वित्तीय संकट तथा आर्थिक मंदी के वाक्यात दिखाते हैं कि पूँजीवादी व्यवस्था को अब राज्य के बेल आउट धन तथा रजकीय करज़ों के फौरी कदमों की मदद से नहीं बचाया जा सकता।
उत्पादन शक्तियों के प्रासार की असंभवता के चलते पूँजीवाद अब एक गतिरोध में है। पर पूँजीवाद इस गतिरोध पर पार पाने के लिए एक जीवन मरण के संघर्ष में है। यानि, वह अब अंतहीन रूप से रजकीय करज़ों पर निर्भर है और नकली बाज़ार पैदा करके अपने अतिउत्पादन के लिए निकास पाता है। 40 साल से विश्व पूँजीवाद भारी करज़ों के जरिये ही तबाही से बचता आया है। पूँजीवाद के लिए करज़ों का वही अर्थ है जो एक नशेड़ी के लिए नशे का। अंत में वह करज़े एक बोझ के रूप में लौटेंगे तथा तथा दुनिया भर में मज़दूरों के खून पसीने की मांग करेंगे। उनका परिणाम दुनिया भर के मज़दूरों की गरीबी, साम्राज्यवादी जंग तथा पर्यावरण की तबाही भी होगा।
क्या पूँजीवाद पतन पर है? हां। यह आकस्मिक विनाश की ओर नहीं बल्कि व्यबस्था के एक नए पतन, पूँजीवाद के अंत होते इतिहास की आखिरी मंजिल की ओर बढ़ रहा है। हमें 100 साल पुराने नारे 'युध या क्रांति?' को गंभीरता से याद करना होगा और एक बार फिर 'बर्बरता तथा समाजवाद' के विकल्प की तथा वैज्ञानिक समाजवाद के अभ्यास की ऎतिहासिक समझ तैयार करनी होगी। इसका अर्थ है समाजवादियों को मिलकर काम करना तथा एकजुट होना होगा, उन्हें क्रांतिकारी मार्क्सवाद के आधार पर द्रढ़ता से खड़े होना होगा। हमारा मकसद है मद्रा, माल, बाज़ार, उज़रती श्रम तथा विनमय मुल्य पर आधारित पूँजीवाद पर पार पाना और स्वतंत्र व्यक्तियों के एक समुदाय में मुक्त श्रम के एक समाज का निर्माण करना।
मार्क्सवादी विश्लेशण ने पहले ही पुष्ट किया है कि पूँजीवादी उत्पादन प्रणाली का संक़ट पहले ही निर्णायक बिन्दू पर पहुँच गया है और इसकी बजह है उत्पादन तथा बेशीमूल्य की बसूली की प्रक्रिया में मुनाफे की गिरती दर तथा बाज़ारों की संतृप्ति। हम अब सवंय को पूँजीवाद यानि बर्बरता और समाजवाद, साम्यवाद यानि सभ्यता के बिकल्प के सामने पाते हैं।
एक, पूँजीवादी व्यवस्था की हालत यह है कि वह उज़रती श्रम के गुलामों को भी पोषित नहीं कर सकती। हर रोज़ दुनिया में एक लाख लोग भूख से मरते हैं, हर 5 सेकण्ड में पांच साल का एक बच्चा भूख से मर जाता है। 84 करोड लोग स्थायी कुपोषण का शिकार हैं और विश्व की 600 करोड आबादी का एक तिहाई हर रोज़ बढ़ती कीमतों के चलते जीने के लिए लड रहा है।
दो, मौज़ूदा पूँजीवादी व्यवस्था आर्थिक समृद्धि का भ्रम भी जिन्दा नहीं रख सकती। भारत और चीन के आर्थिक चमत्कार छलावा साबित हुए हैं। 2008 की पहली छमाही में चीन में 2 करोड मज़दूरों की नौकरियां छूटीं और 67000 कंपनियां दिवाला हों गईं।
तीन, पर्यावरणीय आपदा के आसार हैं। ग्लोबल वार्मिंग के सवाल पर, 1896 से धरती का तापमान 0.6% बढ़ गया है। 20वीं सदी में उत्तरी गोलार्ध में पिछले 1000 साल की तुलना में कहीं अधिक तापमान बढ़ा है। 1960 के दशक के अंत से बर्फ से ढ़का हुआ क्षेत्र 10% सिकुडा है और उत्तरी ध्रुव पर बर्फ की पर्त 40% सिकुडी है। 20वीं सदी में औसतन समुद्र तल 10-20% तक उपर उठा है। यह पिछले 3000 साल के औसतन उभार से 10 गुणा ज्यदा है। पिछले 90 साल में धरती का दोहन लापरवाह वनोन्मूलन, भू-क्षरण, प्रदूषण (वायू, जल), रासायनिक तथा आणवीय पदार्थों के प्रयोग, पशुओं तथा वनस्पति के विनाश, महामारियों के विसफोटक उदय के रूप में सामने आया है। पर्यावरणीय विनाश को एक एकीकृत तथा विश्वव्यापी रूप में देखा जा सकता है। लिहाज़ा यह कहना मुशकिल है यह समस्या भविष्य में कितनी गंभीरता से विकसित होगी।
तो पूँजीवादी दमन तथा शोषण के खिलाफ मज़दूर वर्ग के संघर्ष का इतिहास कैसे विकसित हुआ है? वर्ग संघर्ष सतत विद्यमान रहा है पर सफल नहीं रहा। पहला इंटरनेशनल उभरते पूँजीवाद की शक्ति के चलते फेल हुआ। दूसरा इंटरनेशनल उस द्वारा अपना क्रांतिकारी चरित्र त्यागने तथा राष्टीयतावाद के चलते फेल हुआ। और तीसरा इंटरनेशनल स्तालिनवादी प्रतिक्रांति के कारण फेल हुआ। विशेषकर 1930 से प्रतिक्रांतिकारी रूझानों ने राज्य पूँजीवाद को 'समाजवाद' का नाम देकर उसके चरित्र के बारे मे मज़दूर वर्ग को गुमराह किया है। अंत में, उन्होंने विश्व पूँजीवादी व्यवस्था के सहायक का रोल अदा किया, दो गुटों के टकराव को छुपा कर विश्व सर्वहारा को दबाया तथा शोषित किया।
फिर, पूँजीपति वर्ग के अभियान के अनुसार पूर्वी यूरोप का तथा स्तालिनवाद का ढहन 'उदार पूँजीवाद की सपष्ट जीत', 'वर्ग संघर्ष का अंत' और यहां तक कि सवंय मज़दूर वर्ग़ का अंत था। इस तरह के अभियान का फल था मज़दूर वर्ग की चेतना तथा उसके जुझारूपन में गंभीर उतार।
1990 के दशक में मज़दूर वर्ग ने पूरी तरह हार नहीं मानी पर अतीत के संघर्ष के औज़ारों, युनियनों की तुलना में न तो उसका बजन था न उसके पास क्षमता थी। पर फ्रांस तथा आस्ट्रिया में पेशनों पर हमले 1989 में मजदूर वर्ग के लिए अपना संघर्ष फिर शुरू करने के लिए नया मोड़ बने। मजदूर संघर्षों मे सबसे ज्यादा उछाल आया केन्द्रीय देशों में: 2005 में अमेरिका में बोईंग में संघर्ष तथा न्यूयार्क में ट्रांस्पोर्ट मजदूरों की हडताल, 2004 में डाय्मलर तथा ओपल में संघर्ष, 2006 के बसंत में डाक्टरों के संघर्ष, 2007 में जर्मनी में टेलीकाम में संघर्ष, 2005 मे ब्रिटेन में लंदन एयरपोर्ट मज़दूरों के संघर्ष तथा फ्रांस मे 2006 मे सीपीई के खिलाफ संघर्ष। पिछडे देशों में, 2006 में दुबाई में निर्माण मजदूरों के संघर्ष, 2006 के बसंत में बंगलादेश में टेक्सटाईल मजदूरों के संघर्ष और मिस्र में 2007 के बसंत में टेक्सटाईल मजदूरों के संघर्ष।
2006 से 2008 के बीच दुनिया के मजदूर बर्ग के संघर्षों का पूरी दुनिया में फैलाब हो रहा है : मिस्र, दुबाई, अलजीरिया, वेनेजुएला, पीरू, तुर्की, ग्रीस, फिनलैण्ड, बुल्गारिया, हंगरी, रूस, इटली, जर्मनी, फ्रांस, अमेरिका तथा चीन। जैसे फ्रांस के पेंशन सुधारों के खिलाफ हालिया संघर्षों ने दिखाया, मजदूर संघर्ष के अब अधिकाधिक आक्रामक बनने का अनुमान है। जैसे हमने उपर दिखाया, विश्व पूँजीवाद के पतन के अंतिम रूझान ने तथा संकट द्वारा मजदूर वर्ग पर डाले बोझ ने, पहले के तजुरबे के उल्ट पूरी दुनिया में मजदूर संघर्षों को भडकाया है।
हम अब इस बिकल्प के आमने सामने हैं : बर्बरता में, इंसानों के रूप में नहीं बल्कि पशुओं के रूप में जीना अथवा खुशी से स्वतन्त्रता में, समानता में तथा मानवीय सम्मान से जीना।
कोरियन पूँजीवाद के विरोधाभासों की ग़हराई तथा विस्तार तथाकथित विकसित देशों से कहीं गंभीर है। कोरियन मजदूरों का दर्द यूरोपीय मजदूरों की तुलना में कही अधिक लगता है चूँकि वहां अतीत में मजदूरों ने उपलब्धियां हासिल की हैं। यह मजदूरों के मनवीय जीवन का सवाल है जिसे न तो कोरियन सरकार की जी20 की शिखर मीटिंग की मेज़बानी के थोथे दिखावों से नापा जा सकता है अथवा न ही मात्रात्मक आर्थिक आंकडों से नापा जा सकता है। पूँजी चरित्र से ही अन्तर्राष्ट्रीय है। विभिन्न राष्ट्रीय पूँजियां सदा प्रतिस्पर्धा में तथा टकराव में रही हैं पर पूँजीवादी व्यवस्था को बनाये रखने के लिए, इसके संकट को छुपाने तथा इंसान के रूप मे मजदूरों पर हमलों के लिए उन्होंने सदैव तालमेल किया है। मजदूर पूँजीपतियों के खिलाफ नहीं बल्कि पूँजीवादी व्यवस्था के खिलाफ संघर्ष करते हैं जो केवल अपने मुनाफे को वढ़ाने के लिए तथा निर्बाध प्रतिस्पर्धा के लिए काम करती है।
ऐतिहासिक रूप से मार्क्सवादी हमेशा इतिहास के कर्ता मजदूर वर्ग के साथ मिलकर संघर्ष करते रहे हैं। यह वे मानवीय समाज के तथा सामाजिक व्यवस्थाओं के ऎतिहासक नियमों का चरित्र उज़ागर करके करते हैं और करते हैं असल मानवीय जीवन की दुनिया की ओर राह दिखा कर तथा अमानवीय व्यवस्था तथा कनूनों की अडचनों की निन्दा करके।
इस कारण उन्होंने पारटियों जैसे संगठनों का निर्माण किया तथा व्यवहारिक संघर्षों मे शामिल हुए। कम से कम दूसरे विश्व्युध के समय से मार्क्सवादियों की ऎसी व्यवहारिक गतिविधियों को कभी न्यायिक प्रतिबन्ध का सामना नहीं करना पडा। इसके उल्ट, उनके विचार तथा व्यवहार मानव समाज के विकास में योगदान के रूप मे अति मूल्यवान माने जाते रहे हैं। मार्क्स की पूँजी अथवा कम्युनिस्ट घोषणापत्र जैसी श्रेष्ट कृतियां बाइबल से अधिक पढ़ी जाती रही है।
एसडब्ल्यूएलके (SWLK) का यह मुकदमा ऎतिहासिक है जो विचारों के दमन को समेटे कोरियन समाज का बर्बर चरित्र समूची दुनिया को दिखाता है; यह दुनिया में समाजवादियों पर मुकदमों के इतिहास में गन्दा साबित होगा। भविष्य में अधिक खुले तथा व्यापक समाजवादी आंदोलन होंगे, दुनियाँ में तथा कोरिया में मर्क्सवादी आंदोलनों का शक्तिशाली विकास होगा। कनूनी ढ़ांचा संगठित हिंसा के मसलों से निपट सकता है पर वह समाजवादी आंदोलनों, मार्क्सवादी आंदोलनों को नहीं दबा सकता। चूँकि वे तब तक जारी रहेंगे जब तक मानवता तथा मजदूर विद्यमान रहेंगे।
समाजवादी आंदोलन और उसका व्यवहार कनूनी सज़ा का भागी नहीं हो सकता। इसके विपरीत, वह सम्मान तथा विश्वास के लिए उदाहरणा होना चाहिये। मेरे समापन के शब्द यह हैं:
फुटनोट
[1]ऒ सी चियोल, यान्ग हो सिक, यान्ग जुन सियोक, ऒर चोई यान्ग इक 7 साल की जेल में हैं जबकि नाम गुन्ग वोन, पार्क जुन सियोन, जियोन्ग, वोन हुन्ग ऒर ओ मिन इक 5 साल की सजा काट रहे है। अपने कठोरतम रूप में 'राष्ट्रीय सुरक्षा कानून' के तहत अभियुक्त को सजाए मौत तक का प्रवधान है।
2 देखें https://english.hani.co.kr/arti/english_edition/e_national/324965.html ... [6]
3https://en.internationalism.org/icconline/2006-north-korea-nuclear-bomb [7]
4 See Hankyoreh: https://english.hani.co.kr/arti/english_edition/e_editorial/318725.html [8]
5 https://www.youtube.com/watch?v=F025_4hRLlU [9]
6हम हमारे पाठकों का ध्यान भी लोरेन गोल्डनर द्वारा विरोध की पहल की तरफ कराना चाहते हैं (https://libcom.org/forums/organise/korean-militants-facing-prison-08012011 [10])। जबकि हम भी लोरेन की "लिखने में" मेल अभियान की प्रभावशीलता में शक के बारे में सहमत है , हम उसके साथ है कि "इस मामले पर सहमत है कि एक अंतरराष्ट्रीय सुर्खियों से इन अनुकरणीय जुझारूयों की अंतिम सजा पर एक प्रभाव हो सकता है। विरोध पत्र न्यायाधीश डू किम के इस पते पर भेजा जाना चाहिए: [email protected] [11], (न्यायाधीश किम को अग्रेषित करने के लिए संदेश 17 जनवरी तक प्राप्त हो जाना चाहिए).
नीचे प्रकाशित परचा मजदूर वरग के एक अल्पमत द्वारा अपने संघर्ष को अपने हाथ में लेने की कोशिश को दिखाता है। यह परचा गारे दा लेएस्ट (पेरिस का एक रेलवे स्टेशन) की अंतर व्यवसायक आम सभा के कुछ व्यक्तिगत सहभागियों द्वारा निकाला गया था। और भी अनेक उदाहरण हैं। टूर्स या रेनंस में मज़दूरों ने अंतर व्यवसायक आम सभाओं में भाग लिया है। फ्रांस में सब जगह सीएनटी-एअईटी (अनार्को सिंडिकेल) ने लोकप्रिय तथा सवायत्शासी सभाओं के लिए पहल की है।
आज फ्रांस में जब आंदोलन खतम हो रहा है, यह मीटिंगे बहुधा संघर्ष समूहों जेसी बन गई हैं जो अलग-अलग पेशे के जूझारू मजदूरों को एक जगह आने व आगे आने वाले संघर्ष के लिए तैयार होने की जगह प्रदान दरते हैं। "मजदूरों की मुक्ति खुद मजदूरों का काम होगी" (कार्ल मार्क्स)।
गारे दा लेएस्ट की आम सभा के कुछ व्यक्ति समूहों का पर्चा
सभी मज़दूरों के नाम
गारे दा लेएस्ट के रेल मजदूरों तथा कुछ अध्यापकों की 18 सितंबर की पहल पर, हम करीब 100 लोग जो (रेलवे, शिक्षा, डाक, फार्म उत्पाद ओर कंप्यूटर क्षेत्रों के) वेतनभोगी कामगार हैं, रिटायर हैं, बेरोजगार हैं, छात्र हैं, कागजों वा बिना कागजो के मजदूर हैं, यूनियन व गैर-यूनियनीकृत हैं, 28 सितंबर व 5 अक्तूबर को मिले। मुद्दा था पेंशन तथा शासक वर्ग द्वार हम पर किये जा रहे व्यापक हमलों तथा उन्हें वापिस लेने के लिए सरकार को मज़बूर करने के परिपेक्ष्य के बारे मे विचार करना।
हाल ही के कार्रवाई दिवस पर हममें से हजारों ने मुजाहिरे व हडतालें की। सरकार फिर भी पीछे नहीं हटी। एक जनआंदोलन ही उसे पीछे हटने को मज़बूर कर सकता है। यह सोच उभरी हैं अनिश्चितकालीन, आम, पुननिरीक्षित होती हडतालों तथा अर्थव्यवस्था को ठप्प करने के मुद्दे पर विचार विमर्श के बाद....
हम यह तय कर सकते हैं कि आंदोलन की शक्ल कैसी होगी। इसका निर्माण हमें अपने कार्य-स्थलों पर हडताल समितिओं द्वारा तथा अड़ोस-पड़ोस में आम सभाओ द्वारा करना होगा। हमें मजदूर तबके के बडे से बडे संभव समूह को संगठित करना ही होगा जिसे देश के स्तर पर चुने हुए व वापस बुलाए जा सकने वाले नुमाइंदे समन्वित करेंगे। हमे अपनी लड़ाई का रुप तथा अपनी मांगें तय करनी होगी... यह काम हम किसी को नहीं करने दे सकते।
यूनियन नेताओं को, चेरेक (CFDT), थाइबोल्ट (CGT) ओर साइ को, हमारे नाम पर फैसले लेने देना हमें फिर एक नई हार की तरफ ले जाएगा। चेरेक इस बात का हिमायती है की 42 साल तक अंशदान देने वाले को ही पेंशन मिले। हमे थाइबोल्ट पर भी यकीन नहीं है क्योंकि वह कानून वापसी की माँग नहीं करता। ओर हम यह कतई नहीं भूल सकते कि 2009 में जब हम में से हजारो को लेआफ दे दिया गया था और हम सवंय सघंर्ष कर रहे थे तो वह सरकोजी के साथ शैंपेन पी रहा था। हमे तथाकथित रेडिकल्स पर भी यकीन नहीं है। अपना रेडिकलपन दिखाने के लिए मैइली (FO) प्रादर्शनों में ऑबरी से हाथ मिलाता है, जबकि वह पीएस (समाजवादी पारटी) के साथ 42 साल की पैशन योजना के पक्ष मे वोट देता है। जहां तक दक्षिणी एकजुटता, सीएनटी अथवा धुरवाम (LO, NPA) का सवाल है, उनके पास यूनियनों को मजबूत बनाने के सिवाए हमारे लिए कुछ भी नहीं है। कहना यह है कि हमें उन लोगों के पीछे एकजुट करना जो हमारी हार का समझौता करते हैं।
अगर वो आज नवीकरणीय हडतालों के पक्षधर हैं तो इसीलिए कि चीज़ों को अपने नियंत्रण से निकलने से रोका जा सके। हमारे संघर्षों को नियंत्रित करना ही उन्हें समझौता मेज पर जाने का हक देता है.... क्यों? ताकि, जैसा कि सीएफटीसी में शामिल सात यूनियन संगठनों द्वारा हस्ताक्षरित तथा सालिडेरिटी को दिए गए पत्र मे कहा गया है. "यूनियन संगठनों के नज़रिये को पेश करना ताकि उन सभी सही तथा प्रभावी कदमों को परिभाषित किया जा सके जो पैंशनों पर खर्च को साझा करके, पैंशन व्यवस्था के स्थायित्व की गरंटी दे सके"। क्या कोई यकीन कर सकता है कि उन लोगों से कोई सरोकार रखा जा सकता है जिन्होंने हमारी पैंशन पर 1993 से हमला किया है, जिन्होने हमारे जीवनोपार्जन व काम के हालातों का सुनियोजित विनाशा किया है?
सरकार को व शासक वर्ग को मात्र एक ही एकजुटता पीछे हटने को मजबूर कर सकती है, वह है पब्लिक तथा प्राइवेट सेक्टर को, कार्यरत्त तथा बेरोजगारों को, रिटायर मज़दूरों तथा नौजवानों को, स्थानीय तथा प्रवासी मज़दूरों को, यूनियन तथा गैर-यूनियन मज़दूरों को साझी सभाओं मे एकीकृत करता एक आधारभूत आंदोलन जो अपने संघर्षों का नियंत्रण अपने हाथ में ले सके। हम समझते हैं कि पैंशन कानून की वापसी हमारी न्यूनतम माँग है। पर यह काफी नहीं है। हजारों बुजुर्ग मज़दूरों से पहले ही 700 यूरो महीने पर गुजर करने की अपेक्षा की जा रही है। जबकि लाखों नौजवान, रोजगार की कमी के कारण, आरएसए पर फाकाकशी कर रह हैं। हममें से लाखों के सामने पहले ही ये सवाल मुंह बाए खडे हैं : क्या हमें खाने को मिलेगा या नहीं, घर होगा या नहीं, बीमारी में दवा मिलेगी या नहीं? यह सब हम नहीं चाहते।
हाँ, पैंशनों पर हमले पर्वत की परत भर हैं। जबसे संकट शुरू हुआ है, शासक वर्ग, राज्य की मदद से, जन सेवांओं में से लाखों नौकरियों की कटोती करके लाखों मजदूरों को सडकों पर फेंक चुका है। और यह शुरुआत भर है। संकट जारी है और आने वाले समय में हम पर हमले अधिकधिक निष्ठुर होने वाले हैं।
इस हालत से निबटने के लिए हम वामपंथी पारटियों (PS, PCF, PG ...) पर यकीन नहीं कर सकते। ये सब बुर्जुआज़ी के मामलों के वफादार मैनेजर भर हैं और कभी भी प्राइवेट उधोग और वित्त संपदा पर या बडे भूस्वामित्व पर सवाल नहीं उठाते। और स्पेन में, तथा यूनान में, सत्ताधारी वाम ही है जो मजदूरों के खिलाफ पूँजी के हमले को संगठित कर रहा है। अपनी पैंशनों, स्वास्थय, शिक्षा, यातायात के साधनों के बचाव के लिए और यह सुनिश्चित करने के लिए कि हमे भूखा ना मरना पडे, मज़दूरों को अपने द्वारा पैदा दौलत को अपनी जरूरतों की पूर्ति के लिए वापिस लेना होगा।
इस संघर्ष में हमे अपने किन्ही व्यक्तिगतगत हितों के लिए नहीं लडना है बलि्क लडना है पूरी मजदूर आबादी के हितों के लिए जिसमे शामिल हैं छोटे किसान, मछुआरे, कारीगर तथा छोटे दुकानदार जिन्हें पूँजीवाद के संकट ने गरीबी मे धकेल दिया है। हमें संघर्षो मे उनका अगुआ बनकर उनको राह दिखानी है ताकि पूँजीवाद के साथ बेहतरी से संघर्ष किया जा सके।
चाहे कार्यरत्त हों या बेरोजगार, अस्थाई नौकरी वाले हों या 'बिना पेपर' वाले, और हम चाहे किसी भी देश के हों, हम सब मजदूर एक ही नाव मे हैं।
आइए अंतर व्यवसायक आम सभा में विचार करें। मेटरो रिपब्लिक भवन में 12 अक्तूबर को शाम 6 बजे व 13 अक्तूबर को शाम 5 बजे।
गारे दा लेएस्ट की अंतर व्यवसायक आम सभा के स्थाई व अस्थाई मजदूर।
8 अक्टूबर 2010
भारत भर में रोड ट्रांसपोर्ट मज़दूर बुरी तरह से शोषित हैं। चाहे ड्राईवर हों या कंडक्टर या वर्कशाप मज़दूर, सभी का हाल एक ही है। बहुत कम तनखाहें, काम के लंबे और अनाप-शनाप घंटे और कठोर स्थितियाँ, अधिकारी तबके का निरंतर दबाब और दमन। रोज़ की जिन्दगी की यही दिनचर्या है। यह हर जगह के लिए सच है। फिर चाहे राज्यों के रोड ट्रांसपोर्ट निगमों के मज़दूर हों। चाहे राजधानी के, जहां शासक वर्ग अपनी शान की नुमायश खातिर कामंनवेल्थ खेलों जैसे तमाशों पर पैसे खरच करने में कोइ कम नहीं छोडता, डीटीसी मज़दूर हों। यूपी रोड ट्रांसपोर्ट निगम के मज़दूरों की हालत बाकी मज़दूरों से अलग नहीं है।
पूँजीवादी संकट और पूँजी की कड़की की नीतियां
पूँजीवादी संकट की मार मज़दूरों की काम और जीवन की स्थितियों को और भी खराब कर रही है। इस संकट ने 2008 से समूची दुनिया को झकझोर डाला है। दुनिया के अलग अलग हिस्सों में संक़ट की मार से करोडों करोड लोगों की नौकरियां गईं हैं जिसमें दुनिया का अगुआ अमेरिका सबसे आगे है। संकट के झटकों से ग्रीस, आयरलैण्ड, पुर्तगाल और अन्य देशों की पूरी-पूरी अर्थव्यवस्थाओं का पतन हुआ है। हर जगह पूँजीपति वर्ग मज़दूर वर्ग पर कडकी तथा बदहाली थोप रहा है।
यही वह संदर्भ है जिसमें दुनिया भर में पूँजी के कडकी के कदमों के खिलाफ मज़दूरों और शोषितों की युवापीढी की लडाई विकसित हुई है और हो रही है।
सिर्फ 2010 के अंतिम महीनों मे ही ग्रीस, तुर्की, फ्रांस, ब्रिटेन तथा इटली में मज़दूरों तथा छात्रों ने पूँजी की कडकी की नीतियों के खिलाफ विशाल लडाईयां लडीं। टियूनेशिया तथा मिस्र के हालिया जनविद्रोह तथा मज़दूरों के संघर्षों को फिलहाल चाहे जनवाद के भ्रमजाल से भटकाने की भारी कोशिशें हो रही हैं, पर वे बुनियादी रूप बदतरीन जीवन हालातों के खिलाफ शोषित आबादी तथा मज़दूरों के गुस्से का विस्फोट हैं।
भारत में इस संकट की मार का फल है मज़दूर वरग के खिलाफ पूँजीपति वरग के तथा सरकार के अनेक कदमों का और तेज़ हो जाना:
- इकोनमी के सभी हिस्सों से मज़दूरों का नौक्ररियों से निकाला जाना। भर्तियों का बंद होना;
- स्थायी नौकरियों के खिलाफ सरकार का तथा निजी क्षेत्र का अभियान;
- उसके स्थान पर हर जगह, हर क्षेत्र में अस्थायी बहालियां तथा ठेकेदारी प्रथा को आगे बढाना।
- इन कदमों का मकसद और परिणाम है मज़दूरों की उज़रतों तथा उनके जीवन स्तरों को नीचे गिराना। इस ध्येय की पूर्ति के लिए पूँजीपति वरग तमाम हथकण्डों को इस्तेमाल कर रहा है जिसमें सरकारी निगमों मे निजीकरण भी शामिल है।
मज़दूर वर्ग के जीवनस्तरों के खिलाफ पूँजीपति वर्ग और सरकारी हुकमरानो के हमलों का एक और कारगर हथियार है कीमतों मे बेहिसाब बढोतरी। खुद सरकारी आंकडों मुताबिक पिछले कई सालों से खाध्य-मुद्रास्फिति की दर 18% के आस पास रही है। यह भी औसत है जो जीवन-यापन की खास चीज़ों की कीमतों में और भी बढोतरी को छिपाता है। शासक वरग के इन कदमों का कुल-मिला कर असर यह है कि देशा की अर्थव्यवस्था के तथाकथित विकास के बावज़ूद मजदरों की जीवन स्थितियां बद से बदतरीन हुई हैं।
वर्ग संघर्ष का विकास
अरसे से भारत में मज़दूर वर्ग के विभिन्न हिस्से इन हमलों के खिलाफ लडने की कोशिश कर रहे हैं। आज इसके अनेक उदाहरण हमारे सामने हैं: गुडगांव मे हीरो होण्डा, होण्डा मोटर साईकल्स तथा अन्य अनेक कारखानों में हडतालें। चेन्नाई मे हुन्डई तथा अन्य कारखानों मे संघर्ष। बैंक, एयरलांयस तथा एयरपोर्ट कर्मियों के संघर्ष। अलग अलग रज्यों, जैसे केरल, तामिलनाडू, में राज्य रोड ट्रांसपोर्ट वर्करस की हडतालें भी इसी रुझान की अभिव्यक्ति हैं। इनमें 2008 और 2010 के बीच की कशमीर के राज्य रोड परिवहन निगम के मज़दूरो की हडातालें खास अहमियत रखती है। जहां मज़दूरों ने ना सिरफ अलगाववादियों तथा सरकारी सेना की झडपों के बीच में कई बार हडतालें की। बल्कि ट्रांसपोर्ट मज़दूरो की हडतालें अप्रैल 2010 में कशमीर के पांच लाख सरकारी कर्मियों को 10 दिन की हडताल में खींचने का भी कारक बनीं।
निगम मेनेजमेंट के हमलों के खिलाफ यूपी रोड ट्रांसपोर्ट मज़दूरों के संघर्ष इस आम विकसित होते वर्ग संघर्ष का हिस्सा हैं। जुलाई 2006 में बनारस, गोरखपुर तथा कानपुर क्षेत्र में यूपी रोड ट्रांसपोर्ट निगम के स्थायी तथा अस्थायी मज़दूरों ने बेहतर तनखाहों तथा अस्थायी मजदूरों के स्थायीकरण को लेकर हडताल की। यूपी सरकार ने इसे एसमा लगा कर तथा दमन से दबाने का प्रायस किया। सैकड़ों स्थायी-अस्थायी कर्मियों को नौकरी से निकाल दिया गया। जुलाई 2009 में इलाहाबाद क्षेत्र के ट्रांसपोर्ट मज़दूरों ने हडताल की। अप्रैल 2010 में पूरे प्रदेश में निगम के 15000 अस्थायी मज़दूरों ने स्थयीकरण, बेहतर मज़दूरी तथा काम के बेहतर हालातों की मांग को लेकर हडताल की जिसे फिर प्राशासन ने दबा दिया।
यूपी रोड ट्रांसपोर्ट मज़दूरों का पिछ्ले सालों का एक जुझरू आदोलन था फरवरी 2008 का उनका संघर्ष। इसमे 25000 मज़दूर शामिल हुए। सरकार ने इस आंदोलन को हिंसा और दमन से दबा दिया। 5 फरवरी 2008 को अपनी मांगों के लिए प्रदर्शन कर रहे 8000 ट्रांसपोर्ट मज़दूरों पर पुलिस ने लाठियां बरसायी और फायरिंग की। इसमें एक मज़दूर जानलेवा रूप से घायल हो गया तथा 20 से अधिक अन्य मज़दूर घायल हुए। सैकडों मज़दूरों को हिरासत में ले लिया गया।
मज़दूर संघर्ष - युनियनी चालों द्वारा परास्त
पर ध्यान देने की बात यह है कि ट्रांसपोर्ट मज़दूरों के तमाम संघर्षों के पिटने में सिरफ सरकार का ही नहीं, युनियनों का भी उतना ही बड़ा हाथ है।
युनियनों द्वार ये तमाम कार्यवाहियां मज़दूरों के गुस्से तथा दबाब में की गईं। इनसे पहले युनियनों ने मज़दूरों में हर तरह के विभाजनों को उभारा : ड्रईवरों तथा कंडक्टरों के बीच, बस कर्मियों तथा डिप्पो कर्मियों के बीच, स्थायी तथा अस्थायी कर्मियों के बीच और जातिय तथा पूँजीवादी राजनीतिक गुटबन्दियों (बीएसपी बनाम एसपी, कांग्रेस बनाम बीजेपी आदि) के आधार पर। इस प्रकार मज़दूरों के संघर्षों के शुरू होने से पहले उनकी एकजुटता को मज़बूत करने की बजाए उसे खोखला किया गया। और युनियनों को अगर मज़दूरों के दबाब में हडतालों का आवाहन करना पडा तो उन्होंने उन्हें एक-दो दिन के रस्मी संघर्षों तक सीमित रखने का प्रयास किया। इससे पहले कि ये संघर्ष आगे बढ पाते, युनियनों ने नकली समझोतों की आड में उन्हें खतम कर दिया। इन सभी हथकन्डों से युनियनों ने न सिरफ मज़दूरों के इन संघर्षों को नुकसान पहुँचाया बल्कि संघर्ष के उनके ज़ज्बे को भी कमज़ोर करने का भरसक प्रयास किया।
पर यह चरित्र सिरफ यूपी रोड ट्रांसपोर्ट निगम में सक्रिय युनियनों का ही नहीं है। आज सभी जगह यनियनों का यही हाल है। और यह हाल सभी तरह की युनियनों का है फिर चाहे वे कांग्रेस, बीजेपी, बीएसपी के साथ जुडी युनियनें हों या सीपीआई, सीपीएम अथावा माओवादियों से जुडी युनियने हों या "स्वतंत्र" युनियनें। न सिरफ भारत में बल्कि दुनिया के तमाम देशों में युनियनों की आज यही भूमिका है : मज़दूरों को विभाजित रखना, उनके संघर्षों को विकसित होने से रोकना और न रूक पाए तो उसे रस्मी संघर्ष में बदलना और इस प्राकार पूँजीवादी शोषण के सुचारू चलन को यकीनी बनाना।
मज़दूर संघर्ष के विकास की राह - युनियनी नियंत्रण से बाहर संघर्ष
इसी लिए आज अगर हम दुनिया में मज़दूरों के संघर्षों पर नज़र डालते हैं तो कुछ चीज़ें पाते हैं। मज़दूरों के संघर्ष वहीं आगे बढ पाए हैं जहां मज़दूर युनियनों के नियंत्रण से बाहर आकर अपने संघर्षों को अपने हाथों मे लेने का प्रयास कर पाए। यह मज़दूरो ने अपनी आम सभाएँ गठित करने के प्रयास करके किया। आम सभाएँ मज़दूरों के लिए अपने संघर्ष, उसके रास्ते, उसकी मांगों पर विचार करने तथा फैसले करने का स्थान हैं। आम सभाएँ स्थापित करने के साथ ही, संघर्षों की जीत के लिए एक और जरूरी कदम है उन्हें फैलाना। ट्रांसपोर्ट मज़दूरों का तथा मज़दूर वर्ग के अन्य तमाम तबकों का एक दूसरे की ओर हाथ बढाना। दुनिया भर के हालिया मज़दूर संघर्षों के यही सबक हैं।
यूपी रोड ट्रांसपोर्ट निगम के मज़दूरों के गुस्से को बेपथ करने तथा उन्हें हतोत्साहित करने का युनियनों का अंतिम प्रपंच हाल में सामने आया। उन्होंने 7 फरवरी 2011 को हडताल की घोषणा की। अनेक बार की तरह ही इस बार भी, इससे पहले के हडताल हो पाए युनियनों ने 5 फरवरी को ही घोषणा की - सरकार ने उनकी मांगों प्रर गौर का आशवासन दिया है।
इसके साथ ही हडताल को वापिस ले लिया। इसके खिलाफ मज़दूरों में गुस्से का भडकना स्वभाविक था। कानपुर डिपो में मज़दूरों ने इकटठा होकर युनियनों के इस भीतरघात का विरोध किया। इस मीटिंगे में मज़दूरों ने डिस्कस किया कि संघर्ष को आगे बढाने के लिये यह जरूरी है कि उसे युनियनों के छिकंजे से निकाल कर अपने हाथों मे लिया जाए। इसके लिए डिपो के तथा अन्य मज़दूरों की आमसभाएँ बुलाने तथा अलग-थलग लडने की बजाए, निगम के तमाम मज़दूरों तथा शहर के अन्य मज़दूरों के साथ मिल कर लडने की बात रखी गई। यह अपने आप में एक छोटे अल्पांश का प्रायास था तथा इन बहसों में डिपो के दो सौ के करीब मज़दूर ही शामिल हुए। पर यह संभवतः मज़दूर वर्ग के भीतर विकसित होते एक रूझान की अभिव्यक्ति हैं। युनियनों पर सवालिया निशान लगाने तथा संघर्ष को अपने हाथ में लेने के रूझानों मज़बूत होना ही मज़दूर वरग के संघर्षों के विकास की राह खोल सकता है।
अलोक/आरबी, 14 फरवरी 2011
दिल्ली के राष्ट मंडल खेल स्थल पर खिलाडियों के ठहरने व अन्य सुविधाओ की खस्ता हालत को लेकर मीडिया मे बहुत बडा कांड बानाया जा रहा : बडे खिलाडी नाम वापस ले रहे हैं, बहुत सी टीमें अपना आगमन टाल रही हैं या वो होटलों मे रहकर खेलगाँव के तैयार होने का इंतजार कर रही हैं। राष्ट मंडल खेल के ब्रांडनाम का नुकसान हो रहा है!
लेकिन यह कांड खेल स्थल पर निर्माण कार्यो में लगे मजदूरों द्वारा झेले जा रहे हालातों के सामने कुछ भी नहीं।
इन निर्माण स्थलों पर 70 तथा दिल्ली मेट्रो की निर्माण साइटों पर 109 मजदूर मर चुकें है। लेकिन इसकी सही तादाद का किसी को पता नही है क्योंकि बहुत से मजदूर रजिस्टृड नही हैं। यह बामुश्किल हैरान करने वाला है:
"कामगार बहुधा बुनियादी सुरक्षा सुविधाओं जैसे कि हेल्मेट, मास्क तथा दस्तानों के बिना काम कर रहे हैं। मजदूरों को अगर जूते दिये भी जाते हैं तो उनकी कीमत उनके वेतन से काट ली जाती है। दुर्घटनायें तो लगभग हर साईट पर होती हैं लेकिन उन्हें श्रमिक मुआवज़ा कमिश्नर तक बहुत ही कम पंहुचाया जाता है और उनका कानूनी मुआवज़ा या तो रोक लिया जाता है या कम कर दिया जाता है। सिवाय एक प्राथमिक सहायता किट के, मेडिकल सुविधांएं भी साईट पर कहीं ही मौजूद है।" (Hindu, 01.08.2010)
जान जोखिम मे डालकर काम करने वाले ये मजदूर न्यूनतम निर्धारित मजदूरी भी नही पाते। "इन सभी साइटों पर मजदूरों को न्यूनतम निर्धारित मजदूरी का एक तिहाई या आधा ही मिलता है... और मजदूरों को अमानवीय हालातों मे रहने को मजबूर किया जाता है।" यह कहना है पीपुल्स युनियन फार डैमोक्रैटिक राइटस (पीयूडीआर) के शशि सक्सेना का (Hindu, 1608.2010)। खासकर वे 10 से 12 घंटे प्रतिदिन, देर रात तक, दिन प्रतिदिन बिना छुटटी के काम कर रहे हैं। "कनूनी" रुप से बनता तुछ ओवर टाइम भी उनसे छीन लिया जाता है: दस घंटे के दिन के लिए 100 स्र्पया, बारह घंटे के दिन के लिए 200 स्र्पया ।
पीयूडीआर ने निवास सूविधाअओं को प्राथमिक बताया है : शौचालयों व स्वास्थय सेवाओं की कमी, हेय सफाई व्यवस्था, टिन व पलास्टिक के शैड जो मलेरिया व डेंगू बुखार के प्रजनन स्थल हैं और दिल्ली के मौसम के प्रतिकूल हैं जो सर्दियों मे सर्द व गर्मियों मे बहुत गर्म रहता है। इससे भी बदतर, टाइम्स आफ इन्डिया करेस्ट ने विजय को एक एक गांव से भरती किया। आकर उसने पाया: "खुदा हुआ फुटपाथ जहां उसको सुन्दर गुलाबी पत्थर बिछाने थे, दिन मे उसका काम स्थल था और रात को शयनकक्ष।" ऐसे तकरीबन 150000 प्रवासी मजदूर इस काम के लिए रखे गये। बाल बच्चेदार मजदूरों के पास अपने बच्चों को इन्हीं शोचनीय हालातों में, बिना स्कूल की व्यवस्था के, जीता देखने के सिवा कोई चारा नहीं नही है।
जैसे कोलकत्ता में मार्च 2010 में हुयी 43 टैक्सटाइल मजदूरों की मौत दिखाती है (https://en.internationalism.org/ci/2010/workers-burn-india-shines [14]), ऐसे खतरनाक हालात मात्र राष्ट्रमंडल खेलों में ही नही हैं।
आखिर में, जैसे बीजिंग में औलम्पिक के दौरान और दक्षिण अफ्रीका में विश्व कप के दौरान हुआ, झुग्गी झोपडी निवासियों को इन आयोजनों की खातिर रास्ते से हटा दिया गया गोया कि वो कीडे मकोडे हों। पिछले दिसम्बर मे एक रात-आश्रय गिरा दिया गया जिससे 250 लोग बेघर हो गये; अप्रैल में 350 दलित तामिल परिवारों की रिहायश एक स्लम बुलडोज़र से गिरा दिया गया ताकि खेलों के लिए कार पार्किंग बनायी जा सके। दिल्ली की मुख्य मंत्री शीला दीक्षित ने माना है: "हमारे यहां लगभग 30 लाख लोग राष्ट्रमंडल खेलों की वजह से बेघर हो जाएंगे।" (आउटलुक, अप्रैल 2010)
भारतीय अर्थव्यवस्था : एक घातक वृद्धि
इस साल भारतीय अर्थव्यवस्था की वृद्वि दर साढे आठ फीसद रहने की आशा है जो कि इस तरह के घोर शोषण पर आधारित है़। "इसकी प्राइवेट कंपनियां बहुत मजबूत हैं, भारतीय पूंजीवाद करोडों उद्यमियों द्वारा संचालित है जो प्रचंड तरीके से अपना काम कर रहे हैं" (द इकोनमिस्ट, 2.10.10)। पूंजीवाद को इसी तरह पसंद है।
पर यह सर्वहारा के लिए बेहतर हालात में अनुदित नही हुआ है। राष्ट्रमंडल खेलों के कार्यस्थल पर मजदूरों की दुर्दशा क्रूरतापूर्ण शोषण की मात्र एक मिसाल है। स्थाई नौकरियां घटी हैं व अस्थाई नौकरियों में इजाफा हुआ है जैसा कि हीरो होंडा गुडगांव में बवजूद इसके कि उसका उत्त्पादन बढ़ कर 43 लाख मोटरसाइकल हो गया है। इसी दौरान टेक्सटाइल व हीरा उधोग में मज़दूरों की नौकरियां छूटी हैं। सरकारी तौर पर 2009 में बेरोजगारी 10.7% रही। जबकि हकीकत इससे अलग है। यह स्टेशनों या पर्यटन स्थलों पर देखा जा सकता है जहां दर्जनों व्यक्ति कुछ रूपयों के लिए रिक्शा चलाने या सोवनिर बेचने के लिए चिल्लाते हैं। ये वे लोग हैं जिन्हे पूंजीवाद अपने उत्पादन में समाहित नही कर पाया है।
अर्थव्यवस्था में जैसे जैसे अधिक धन आया है, कीमतें 'समृद्व" अर्थव्यवस्थाओं के अनुरुप ऊपर चढ़ गई हैं और मजदूर यातायात, सेहत, शिक्षा, घर जैसी जरूरी चीज़ों के लिए संघर्ष करते रह गए हैं। सरकारी तौर पर भोज्य पदार्थो की मूल्य वृद्वि दर 18 % है।
अर्थव्य्वस्था की वृद्वि दरें जबकि ऊंची हैं, पर भारतीय अर्थव्य्वस्था के पास पतनशीलत पूंजीवाद के उन हालातों से बचने का कोई रास्ता नही जिसने अन्यों के लिए मंदी का खतरा पैदा कर रखा है। यह वृद्वि दर उन विदेशी संस्थागत निवेषकों पर टिकी हुई है जो 2008 से पहले कैसीनों अर्थव्य्वस्था में लिप्त थे। इसने कर्ज व सकल घरेलू उत्पाद के अनुपात को 20 पांइट तक चढा दिया है और 2007 में सार्वजनिक ऋण जीडीपी का 83% था। कॉल सैंटर व आउटर्सोसिंग के साथ यह सेवा क्षेत्र की वजह से था। देश में उद्योग के भारी विकास के लिए जरूरी बुनियादी ढांचे की अभी भी सख्त कमी है। जिस उद्योग का विकास हुआ है वह उन छोटी सस्ती कारों के समान है, जो वैसे ही सस्ते श्रम पर टिकी हैं तथा सेवा क्षेत्र मे लगे कामगारों के घरेलू बाज़ार के लिए लक्षित हैं। विकास की मौज़ूदा ऊंची दरों के होते हुए भी, जैसे किसानों की हालत में गिरावट आई है, वे शहरों की तरफ पलायन या खुदकुशी के लिए मज़बूर हुए हैं (see 'The Indian boom: illusion and reality' [15])।
जो भी हो, राष्ट्रमंडल खेलों, ओलिंपिक तथा अन्य बडे एकाकी आयोजनों के लिए विशाल स्थलों तथा स्टेडियमों का निर्माण बहुधा महंगा सफेद हाथी साबित हुआ है और आवश्यकतः आर्थिक स्वास्थ्य की निशानी नहीं।
एकमात्र उत्तर मजदूर वर्ग का संघर्ष
हिन्दुस्तानी मजदूर वर्ग की भयावह हालत के बारे में, जिसे पीयूडीआर(PUDR) एवम क्राई (CRY) ने बाखूबी बयान किया है और जिस द्वारा संगृहीत आंकडों पर यह लेख आधारित है, मानवीय स्तर पर क्षोभित हुए बिना पढ़ना नामुमकिन है। इन अपराधो का जवाब जनवादी सुधार नही हो सकता। भारत पहले ही एक जनवादी देश है जहां पूंजीवाद ने मजदूर वर्ग हितों को पैरों तले कुचल रखा है। न ही इन अपराधो का जवाब मजदूरों की कानूनी सुरक्षा है जो सरलता से तोड दिए जाते हैं, और न ही परोपकार में है, कुछ खा़स लोगों की इससे कितनी ही मदद क्यों ना हो। अब हम यह इंतजार नही कर सकते कि भारतीय अर्थव्यवस्था उभरे और हमें बेहतर हालात दिलाए। चूंकि भारतीय अर्थव्यवस्था भी समूचे विश्व, जो कर्जों मे डूबा है, वही कर्ज़ जो भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए ईधंन का काम कर रहा है, के असर से अछूती नही रह सकती।
यह समझना भी जरूरी है कि मौजूदा हालात पूंजीवादी व्यवस्था की वजह से ही हैं और लगातार मुनाफे के लिए होने वाले संघर्ष की उपज है। ये सब हालात मौजूदा पूंजीवादी व्यवस्था के मुकम्मल खात्मे के जरिए ही खतम हो सकते हैं। तब तक इन्हें मात्र कम किया जा सकता है, वह भी मजदूर वर्ग के बडे पैमाने के प्रतिरोध द्वारा जैसा कि पिछले साल गुडगांव के कार मजदूरों ने, कोलकत्ता के जूट मजदूरों ने, एयर इंडिया के कर्मचारियों ने और कश्मीर के उन सरकारी कर्मचारियो ने किया जो, बावजूद इसके कि एक तरफ राज्य की बंदूक थी तो दूसरी ओर अलगाववादियों की, अपने हितों की रक्षा के लिए एकजुट हो पाए।
अलेक्स, 3 अक्टूबर 2010
लीबिया की हालिया घटनाओं को समझना मुश्किल है। एक बात स्पष्ट है: जनता को हफ्तों तक दमन, भय और अनिश्चितता झेलनी पडी है। शुरुआत में हजारों लोग सरकारी दमन के कारण मारे गए। लेकिन अब वे सरकार और प्रतिपक्ष की देश की सत्ता हथियाने की लडाई का शिकार हो रहे हैं। वे किसके लिए मर रहे हैं? एक तरफ गद्दाफी देश पर अपना कब्जा बनाये रखने के लिए लड रहा है। दूसरी तरफ है लीबीयन नेशनल काउन्सिल, स्वघोषित "क्रांति की आवाज़", जिसका मकसद है पूरे देश पर अपना नियंत्रण सथापित करना। सर्वहारा को अपराधियों के दो धडों मे से एक को चुनने को कहा जा रहा है। लीबीया मे उनसे कहा जा रहा है कि वे राज्य और अर्थव्यवस्था पर नियंत्रण के लिए लीबीयन पूँजीपति वर्ग के प्रतिद्वंद्वी हिस्सों में लडे जा रहे गृह युद्ध में सक्रिय भाग लें। दुनिया के बाकी हिस्सों में हमे गद्दाफी के विरोधियों के बहादुराना संघर्ष के समर्थन के लिए प्रोत्साहित किया जा रहा है। मजदूरों का किसी भी गुट के समर्थन में कोई हित नहीं।
मिस्र और ट्यूनीशिया के आंदोलनों से प्रेरित, लीबिया में घटनाएं गद्दाफी के खिलाफ एक जन विरोध के रूप में शुरु हुईं। लगता है, पहले प्रदर्शनों के क्रूर दमन ने कई शहरों में क्रोध के विस्फोट को प्रोत्साहन दिया। 26 फरवरी 2011 के 'द इकोनमिस्ट' के अनुसार, 15 फरवरी को बेनगाज़ी में लगभग 60 युवकों के प्रदर्शन ने आरंभिक चिंगारी का काम किया। इसी तरह के प्रदर्शन अन्य शहरों में भी हुए और सभी को गोलियां मिली। बीसिओं युवा लोगों की हत्या के समक्ष, हजारों युवा लोग राज्य बलों से हताश लडाईयों के लिए सड़कों पर उतर आए। इन संघर्षों ने महान साहस की कार्रवाई देखी। बेनगाज़ी की जनता ने सुना कि भाड़े के सैनिकों तथा फोजियों को हवाई अड्डे में भेजा जा रहा है। उन्होंने हवाई अड्डे तथा उसके रक्षकों पर चढाई कर दी तथा भारी नुकसान के बावजूद उसे अपने नियंत्रण में ले लिया। एक अन्य कार्रवाई में, नागरिकों ने बुलडोजरों व अन्य वाहनों पर नियंत्रण कर लिया तथा तथा उनको लेकर भारी हथियारों से लैस बैरकों में जा पहुंचे। दूसरे शहरों में भी जनता ने राज्य के दमनकारी बलों को खदेड दिया। शासन का जवाब था और अधिक दमन। जिसका नतीजा यह हुआ कि सैनिकों और अधिकारियों ने प्रदर्शनकारियों को मारने से इनकार कर दिया और इस प्रकार सशस्त्र बलों का बिखराब हो गया। एक सैनिक गार्ड ने एक कमांडिंग अधिकारी की गोली मारकर तब हत्या कर दी जब उसने गोली चलाने का आदेश जारी किया। लगता है शुरू में यह क्रूर दमन और आर्थिक कष्ट में वृद्धि के खिलाफ लोकप्रिय गुस्से का एक असली विस्फोट था, खासकर शहरी युवा लोगों की ओर से।
लेकिन लीबिया में स्थिति टयूनीशिया और मिस्र से इतनी अलग क्यों है? उन देशों में दमन के बावजूद, सामाजिक असंतोष को संभालने का मुख्य साधन था लोकतंत्र। ट्यूनीशिया में बेरोजगारी के खिलाफ श्रमिक वर्ग और आबादी के विशाल हिस्सों के बढते प्रदर्शन एक तरह से रात भर में इस अन्धी गली में डाल दिये गए कि बेन अली की जगह कौन लेगा। अमेरिकी सेना के मार्गदर्शन में टयूनीशियाई सेना ने राष्ट्रपति को चलता बनने को कहा। मिस्र में मुबारक को जाने में थोडा वक्त लगा पर उसके प्रतिरोध ने भी यह सुनिश्चित करने में मदद की कि समूचा असंतोष उससे छुटकारा पाने पर केंद्रित किया जा सके। एक चीज़, जिसने अंततः उसे धक्का दिया, थी बेहतर परिस्थितियों और वेतनों के लिए हडतालों का भडकना। यह दिखाता है कि श्रमिक जबकि सरकार के खिलाफ भारी प्रदर्शनों में भाग ले रहे थे, वे अपने स्वयं के हितों के बारे में भूले नहीं थे। और लोकतंत्र को एक मौका देने के नाम पर वे अपने हितों को ताक पर रखने को तैयार नहीं थे।
मिस्र और ट्यूनीशिया दोनों में सेना राज्य की रीढ़ है और वह राष्ट्रीय पूँजी के हितों को पूँजी के विशिष्ट गुटों के हितों के ऊपर रखने में सक्षम थी। लीबिया में सेना की वह भूमिका नहीं है। गद्दाफी शासन ने जानबूझकर दशकों से सेना को, और इसके साथ ही राज्य के हर उस भाग को जो प्रतिद्वंद्वियों के लिए शक्ति का एक आधार बन सकता था, कमजोर रखा था। "गद्दाफी ने सेना को कमजोर रखने की कोशिश की ताकि वह उसका तख्ता ना पलट सके जैसे उसने राजा इदरिस का तख्ता पलटा था" पॉल सुलिवान जो वाशिंगटन स्थित नेशनल डिफेंस यूनिवर्सिटी में एक उत्तरी अफ्रीका विशेषज्ञ हैं, ने कहा। परिणाम है "एक बुरी तरह प्रशिक्षित सेना जिसे एक बुरी तरह प्रशिक्षित नेतृत्व संचालित कर रहा, जो स्वंय पतली हालत में है और जिसमें कर्मियों की स्थिरता नहीं है और बहुतेरे अतिरिक्त हथियार अनियंत्रित फैले हुए हैं" (ब्लूमवर्ग, 2 फरवरी 2011)। मतलब यह कि शासन के पास हर सामाजिक असंतोष का एक ही जवाब है: नग्न दमन।
अपनी नज़रों के सामने अपने बच्चों का संहार होते देख, राज्य की प्रतिक्रिया की क्रूरता मजदूर वर्ग को हताश गुस्से के एक प्रकोप में बहा ले गई। लेकिन प्रदर्शनों में जो मज़दूर शामिल हुए, वे बहुधा व्यक्तिगत तौर पर ही हुए : गद्दाफी की बंदूकों के सामने तनने का अत्याधिक हौसला दिखाने के बावजूद, मजदूर अपने वर्ग हितों को सामने लाने में सक्षम नहीं हुए।
ट्यूनीशिया में, जैसे हमने कहा, आंदोलन श्रमिक वर्ग तथा गरीबों के बीच से बेरोजगारी तथा दमन के खिलाफ शुरू हुए। मिस्र का सर्वहारा हाल के वर्षों में संघर्ष की अनेक लहरों में संलग्न रहने के बाद मौजूदा आंदोलन में दाखिल हुआ। इस अनुभव ने उसे अपने स्वंय के हितों की रक्षा करने की अपनी क्षमता में विश्वास दिया। इस बात का महत्व प्रदर्शनों के अंत में सामने आया जब हडतालों की एक लहर फूट पडी। (मिस्र पर हमारा लेख देखें)
लीबिया के सर्वहारा ने एक कमजोर स्थिति में वर्तमान संघर्ष में प्रवेश किया। तेल-क्षेत्र में एक हड़ताल की रिपोर्ट हैं। लेकिन यह बताना असंभव है कि वहां मजदूर वर्ग की अन्य कोई गतिविधि भी है। संभव है ऐसी कोई गतिविधि रही हो, लेकिन हमें कहना पडेगा कि एक वर्ग के रूप में श्रमिक वर्ग कमोबेशी अनुपस्थित ही है। इसका मतलब यह है कि मज़दूर वर्ग शुरू से ही अराजकता और भ्रम की स्थिति से उत्पन्न तमाम वैचारिक विष के समक्ष असुरक्षित रहा है। पुराने राजशाही ध्वज का प्रकट होना और चन्द दिनों में ही बगावत के प्रतीक के रूप में उसकी स्वीकृति, यह दिखाता है कमजोरी कितनी गहरी है। यह झंडा "मुक्त लीबिया" के राष्ट्रवादी नारे के साथ साथ सामने आया। वहां पर जातीयतावादी सोच भी अभिव्यक्त हुई है। कई मामलों मे गद्दाफी शासन का समर्थन अथवा विरोध भी क्षेत्रीयतावादी अथवा कबीलाई हितों के आधार पर तय हुआ। और कबीलाई नेताओं ने अपने अधिकार का इस्तेमाल करके स्वंय को बगावत के शिखर पर सथापित करने की कोशिश की। वहां कई प्रदर्शनों में इस्लामवाद की एक मजबूत उपस्थिति दिखाई पडती है तथा "अल्लाहो अकबर" का नारा भी सुना जा रहा है।
विचारधाराओं की इस दलदल ने स्थिति इतनी खराब बना दी है कि यदि सैकड़ों नहीं तो दसियों हजार विदेशी मज़दूरों को देश से पलायन की जरूरत महसूस हो रही है। विदेशी मज़दूर एक राष्ट्रीय ध्वज, उसका रंग चाहे कोई भी हो, के पीछे क्यों लामबन्द हों? एक असली सर्वहारा आंदोलन शुरू से ही विदेशी मज़दूरों को अपने में शामिल करेगा क्योंकि उसकी मांगें सांझी होंगी : बेहतर वेतन, काम की बेहतर स्थितियों और सभी मज़दूरों के दमन का अंत। राष्ट्र, जाति अथवा धर्म की परवाह किए बिना बे एकजुट हो गए होते चूंकि उनकी ताकत है उनकी एकता।
गद्दाफी ने इस जहर का पूरा उपयोग करके कोशिश की है कि वह मज़दूरों तथा जनता को उसकी 'क्रांति' को विदेशियों, जातीयतावाद, इस्लामवाद तथा पश्चिम द्वारा पेश खतरे के खिलाफ अपने समर्थन मे ला सके।
इंतजार में एक नई सरकार
मज़दूर वर्ग का बहुमत शासन से नफरत करता है। लेकिन मज़दूर वर्ग के लिए असली और बडा खतरा विपक्ष के पीछे हो लेने में है। यह विपक्ष, जिसका नेतृत्व अधिकधिक नई 'नेशनल काउंसिल' संभाल रही है, पूंजीपति वर्ग के विभिन्न गुटों का एक जमावड़ा है: गद्दाफी शासन के पूर्व सदस्य, राजशाहीवादी आदि के साथ साथ कबीलाई और धार्मिक नेता। उन सभी ने लीबियाई राज्य के गद्दाफी के प्रबंधन के स्थान पर अपना प्रबंधन स्थापित करने की अपनी इच्छा को थोपने के लिए इस तथ्य का पूरा लाभ उठाया है कि इस आंदोलन की कोई स्वतंत्र सर्वहारा दिशा नहीं है।
नेशनल काउंसिल अपनी भूमिका के बारे में स्पष्ट है: "नेशनल काउंसिल का मुख्य उद्देश्य है ... क्रांति के लिए.. एक राजनीतिक चेहरा पेश करना," "हम अपनी राष्ट्रीय सेना, अपने सशस्त्र बलों, जिसके एक हिस्से ने जनता के समर्थन की घोषणा की है, के माध्यम से अन्य लीबियाई शहरों विशेषकर त्रिपोली को आजाद करने में मदद करेंगे" (रायटर्स अफरीका, 27 फरवरी 2011)। "विभाजित लीबिया जैसी कोई चीज नहीं है" (रायटर्स, 27 फरवरी 2011)।. दूसरे शब्दों में उनका उद्देश्य है एक अलग चेहरे के साथ वर्तमान पूंजीवादी तानाशाही को बनाए रखना।
विपक्ष भी एकजुट नहीं है। गद्दाफी के एक पूर्व न्याय मंत्री मुस्तफा मोहम्मद ने फरवरी के अंत में कुछ पूर्व राजनयिकों के समर्थन से एक अस्थायी सरकार के गठन की घोषणा की। यह अल बैदा में स्थित थी। इस कदम को बेनगाज़ी में स्थित राष्ट्रीय परिषद ने खारिज़ कर दिया।
यह दिखाता है कि विपक्ष के भीतर भी गहरे मतभेद हैं। ये अंतता फूट पडेंगे, अगर वे गद्दाफी से छुटकारा पा गए या गद्दाफी के सत्ता में बने रहने की स्थिति में जब इन 'नेतओं' मे अपनी खाल बचाने की अफरा-तफरी मची।
नेशनल काउंसिल की एक बेहतर सार्वजनिक छवि है। यह घोगा द्वारा चालित है, जो एक मशहूर मानव अधिकार वकील है और इस प्रकार पूर्व शासन के साथ रिश्तों के लिए दागी भी नहीं है जैसे कि अन्जेली है।
जहाँ पर गद्दाफी का कब्जा नहीं रहा, उन शहरों, नगरों तथा क्षेत्रों में उभरी समितियों के बारे में मीडिया ने बहुत बतंगड बनाया है। इनमें से बहुत सी समितियाँ स्थानीय गणमान्य व्यक्तियों द्वारा खुद नियुक्त है। लेकिन फिर भी अगर उनमें से कुछ में लोकप्रिय विद्रोह के प्रत्यक्ष भाव थे, ऐसा लगता है जैसे वे नेशनल काउंसिल के पूंजीवादी, राज्यवादी ढांचे में खींच ली गई हैं। एक राष्ट्रीय सेना की स्थापना के नेशनल काउंसिल के प्रयासों और इस सेना के गद्दाफी बलों के साथ टकराने का मज़दूर वर्ग और समूची आबादी के लिए केवल एक ही अर्थ है - मौत और विनाश। वह सामाजिक भाइचारा जिसने शुरू में शासन के दमन के प्रयासॉ को खोखला किया, विशुद्ध सैन्य मोर्चे पर जमकर लड़ाईयों से बदल दिया जाएगा। और आबादी को बलिदान देने को कहा जाएगा ताकि राष्ट्रीय सेना लड़ सके।
प्रमुख शक्तियों - अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, इटली आदि का अधिकाधिक खुला समर्थन पूँजीवादी विपक्ष के एक नए शासन में रूपांतरण को तेज़ कर रहा है। साम्राज्यवादी अपराधी अब अपने पूर्व मित्र गद्दाफी से दूरी अख्तियार कर रहे हैं ताकि वे यह सुनिश्चित कर सकें कि अगर एक नई टीम सत्ता में आती है तो उस पर इनका कुछ प्रभाव हो। यह समर्थन उनके लिए होगा जो बड़ी शक्तियों के साम्राज्यवादी हितों के साथ फिट हो सकें।
लगता है जो आंदोलन दमन के खिलाफ आबादी के हिस्सों की हताश प्रतिक्रिया के रूप में शुरू हुआ था, उसे लीबिया में तथा अंतरराष्ट्रीय स्तर पर शासक वर्ग ने तेजी से अपने हितों के लिए इस्तेमाल कर लिया है। एक आंदोलन जो युवा लोगों के नरसंहार को रोकने के प्रचण्ड प्रयास के रूप में शुरू हुआ था, युवाओं के एक अन्य नरसंहार में समाप्त हो रहा है, अब "आज़ाद लीबिया" के नाम पर।
लीबिया और दूसरी जगहों पर सर्वहारा अपने संकल्प को मजबूत करके ही जवाब दे सकता है कि वह लोकतंत्र या मुक्त देश के नाम पर शासक वर्ग के गुटों की खूनी लडाईयों मे स्वंय को घसीटे जाने की इज़ाजत नहीं देगा। आने वाले दिनों और हफ्तों में, अगर गद्दाफी सत्ता में बना रहा तो इस गृहयुद्ध में प्रतिपक्ष के समर्थन में अंतरराष्ट्रीय समुहगान और तेज होगा। अगर गद्दाफी जाता है तो वहाँ लोकतंत्र की, 'जन शक्ति' की और स्वतंत्रता की विजय का एक समान रूप से गगनभेदी अभियान होगा। हर हालत में, मज़दूरों को पूंजीवादी तानाशाही के लोकतांत्रिक चेहरे से तादात्म्य स्थापित करने के लिए कहा जाएगा।
फिल, 5 मार्च 2011
चर्चा:
यहाँ हम उन साथियों के बीच हुई वार्ता को प्रकाशित कर रहे हैं जो अमेरिका में वेरीजोन के हड़ताली मजदूरों के बीच हस्तक्षेप में लगे हुए थे, जिनमें से कुछ आईसीसी के जुझारु थे और कुछ हमदर्द। उन्होंने वितरित किये जाने वाले पर्चे में क्या लिखा जाये संबन्धी विचारों के शुरुआती आदान-प्रदान से लेकर पर्चे के वास्तविक वितरण, हड़ताली मज़दूरों के साथ अनेक विचार-विमर्शों और हस्तक्षेप के बाद के चिंतन, जिसे हम यहाँ प्रकाशित कर रहे हैं, तक निकट आपसी सहयोग से काम किया। हम सामूहिक प्रकृति के इस काम के महत्व पर समुचित जोर नहीं दे सकते। यह हमदर्दों के लिए महत्वपूर्ण है जो खुली बहसों की उपज सामुहिक ढांचे के साथ वर्ग संघर्ष में वास्तविक हस्तक्षेप का व्यावहारिक तजुर्बा हासिल कर रहे हैं। यह आईसीसी के लिए महत्वपूर्ण है कि वह राजनीतिक दिशा खोज रहे युवा, और जो अब इतने युवा भी नहीं हैं, तत्वों एवम ग्रुपों की नई पीढ़ी को सुनना और उनकी अंतर्दृष्टि से विभिन्न मुद्दों को नए व रचनात्मक तरीकों से देखना सीखना जारी रखे।
कामरेड एच: जब हम यूनियनों को ख़ारिज करते हैं, तब हमारी बात यूनियनों पर बुर्जुआ दक्षिणपंथ के हमलों जैसी लग सकती है। जिन लोगों ने वाम द्वारा यूनियनों पर हमलों को पहले नहीं सुना हो उनके लिए भेद करना मुश्किल हो सकता है। वास्तव में, बहुधा हम भी वही चीज़ें कह देते हैं जो दक्षिणपंथी कहते हैं (यूनियने बस आपके चन्दे के पैसे लेती हैं; पर आपके लिए कुछ करती नहीं; वे सिरफ अपने हित आगे बढ़ाती हैं)। तो अमेरिका में वर्ग शक्तियों के संतुलन को देखते हुए हम यूनियनों पर अपने हमलों को अपने हस्तक्षेप में वह प्रधानता नहीं दे सकते, और कम-से-कम हम इसे अपने हस्तक्षेप का केन्द्रबिन्दू नही बना सकते, इसके बजाय हम वर्ग मांगों के विकास पर अपना ध्यान केंद्रित करें। हाँ, यूनियने संघर्षों में तोड़फोड़ करेंगी, लेकिन शायद संघर्ष के दौरान ही श्रमिकों को यह जानना होगा। शायद यूनियनों की अति भारी निन्दा उनके समर्थन की प्रवृति को ही मजबूत करेगी। श्रमिक अभी यूनियनों और अपने बीच अंतर करने में विफल हैं। जब वे यूनियनों पर हमलों को सुनते है, उन्हें लगता है उन पर ही हमला हो रहा है। शायद अमेरिका में मजदूरों द्वारा अपने संघर्षों को स्वयं के नियंत्रण में लेने का एक फौरी रुझान नहीं है? इस अर्थ में, विस्कॉन्सिन शायद एक सच्चा अपवाद था और हमने देखा यूनियनों ने कैसे जल्दी ही वहाँ पर नियंत्रण पा लिया। शायद अधिक महत्वपूर्ण बात यह है कि मजदूर वास्तव में संघर्ष करने की कोशिश कर रहे हैं, शायद हमें संघर्षों के संकल्प का निर्माण करने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए, बजाय यूनियनों की निंदा के? इसका मतलब यूनियनों को खुली छूट देना नहीं है; लेकिन यह नहीं लगना चाहिए कि यूनियनों को नष्ट करना हमारा मुख्य लक्ष्य है।
कामरेड ए: मुझे व्यक्तिगत रूप यह समझने में कठिनाई हो रही है कि वास्तव में किस तरीके से हस्तक्षेप करें ताकि जहाँ एक तरफ वर्ग-चेतना को सहयोग और बढ़ावा मिले और दूसरी तरफ यूनियनों पर सीधे हमलों, जिन्हें मज़दूर अभी समझ नही पाते, से बचा जा सके। मैं यह भी नहीं जानता कि मजदूर यह जाने बिना कि यह सब यूनियनी नियंत्रण से बाहर क्यों करना करना जरूरी है, ऊपर वर्णित करने से कैसे सहमत हो सकते हैं। मैं हमेशा स्वयं को अपने कार्यस्थल पर इस पहेली के रूबरू पाता हूँ जहां कई सहकर्मी हमारे विचारों और प्रस्तावों के साथ सहमत होते हैं, लेकिन फिर अंत में हमेशा की तरह कुछ इस तरह कहते हैं: चलो चलें और यूनियन को यह सुझाऐं... अंततः, श्रमिकों को यह लगना चाहिए कि वे यह सब यूनियनों के बिना कर सकते है। मुझे लगता है कि मज़दूर वरग ने अभी शक्तिहीनता की इस भावना पर पार नहीं पाया है और वर्ग पहचान की अविकसित भावना को विकसित नहीं किया है। और यह, जैसा कि हम जानते हैं, केवल संघर्ष के माध्यम से ही होता है। मैं सोचता हूँ कि शायद परचे का असर कुछ और ही होता अगर पह्ले तीन पैराग्राफ या तो होते ही नहीं या उन्हें अंत में, मौजूदा हालात में मज़दूर क्या कर सकते हैं इसकी व्याख्या के बाद लिखा गया होता।
कामरेड एच: ये सभी चिंताएँ और भावनाऐं जायज हैं। मुझे अक्सर लगता है, हमारे हस्तक्षेप का सार निम्नांकित है : मजदूरों के लिए आवश्यक है कि वे एक साथ आएँ ताकि वह सवयं तय कर सकें कि वे क्या करें। कुछ बहुत सामान्य बातों, 'क्या नहीं करें' संबंधी बहुत सारी बातों और इतिहास के चन्द सबकों के आलावा, हम वास्तव में सिद्धांततः श्रमिकों को नहीं बता सकते वे क्या करें और कैसे लडें। यह वास्तव में समूची वाम कम्युनिस्ट उलझन है। श्रमिको को खुद रास्ता खोजना होगा। इस लिए हमारे हस्तक्षेप अक्सर काफी नकारात्मकता लग सकते हैं, मसलन, "हम नहीं जानते कि वास्तव में जवाब क्या है, लेकिन यह यकीनन यूनियनों के पास नहीं है, तुम लोग क्यों नहीं जाते और, जब यूनियन न देख रही हो, चर्चा करते कि क्या करें।" इस बीच लगता है कि यूनियनों के पास ठोस जवाब है, ये भ्रम हैं यह केवल धीरे धीरे ही पता चलता है। श्रमिकों के बीच यूनियनों का बोलबाला खत्म होने में अनुभव और समय कि जरुरत है। अभी, पूंजीपति वर्ग के तत्वों द्वारा यूनियनों को नष्ट करने के बेतुके प्रयास यूनियनों को मजबूत ही करते हैं। यूनियनें पीडित होने का खेल खेलने में सक्षम हैं। यह यूनियनों की कटु निन्दा करते हस्तक्षेप के लिए उचित समय नहीं है। यूरोप में और अन्यत्र कहानी अलग हो सकती है। मैं 'ए' की हाताशा सुनता हूँ कि मज़दूर हमारी कुछ बुनियादी अवधारणाओं के साथ सहमति रखते लगते हैं, इसके बावज़ूद वे सोचते हैं कि वे उन्हें यूनियन के माध्यम से प्राप्त कर सकते हैं। यह वैसे ही है कि जब आपके पास समाज के खिलाफ शिकायतों की एक सूची हो और कोई अधिक चतुर व्यक्ति आपको कहे कि चलो अपने संसद सदस्य को लिखो। जैसे वे आप द्वारा पेश रूपरेखा की मौलिक भिन्नता को नहीं समझ पा रहे हों। असल, में वे नहीं समझ पाते। यह केवल अनुभव है जो उन्हें सिखायेगा। हम वास्तव मे अधिक दूरदर्शी और खुले तत्वों के बीच में केवल संदेह का एक बीज्, अलग प्रतिमान का एक दाना भर रोपने की आशा कर सकते हैं ताकि आगामी संघर्षों की जमीन तैयार की जा सके। हम संघर्ष की वापिसी की अभी बहुत प्रारंभिक अवस्था में हैं, एक वापिसी जो केवल बहुत धीरे- धीरे अपना वर्ग धरातल पा रही है।
कामरेड जे: मैं हस्तक्षेप के लिए आपके सहयोग की बहुत प्रसंशा करता हूँ। मुझे लगता है मैंने बहुत कुछ सीखा है और मैं भी चर्चा के खुलेपन से आश्चर्यचकित था और अन्य मजदूरों द्वारा दिखाई एकजुटता से प्रोत्साहित। इसके साथ ही मैं कामरेड एच की बात से पूरी तरह सहमत हूँ। फिलहाल, मजदूर अभी भी "यूनियने उनके लिए संघर्षरत हैं" के संदर्भ में सोच रहे हैं। मुझे लगता है कि दस साल का झूठा प्राचार उस सब को धीरे धीरे नष्ट कर सकता है जो अधिकतर श्रमिकों ने पिछली हड़ताल से सीखा था, खासकर जब वर्ग का विशाल हिस्सा संघर्ष नहीं कर रहा हो। और देखी गई एकजुटता की सराहना के बावजूद, श्रमिक वर्ग अभी भी अपने बचाव के अपने तमाम प्रयासों को लेकर भयभीत तथा रुढिवादी है। और जब तक संघर्ष अधिक आवृति से नहीं होते, इसकी शायद संभावना नहीं कि हम बहुत लोगों को यूनियनों संबंधी अपनी पोजिशनों का कायल कर पाएँ। पर शायद मज़दूरों को हम कायल कर सकते हैं कि:
क) संकट स्थाई है और कहीं जाने वाला नहीं और निकट भविष्य में और संघर्ष होंगे,
ख) हर मजदूर इन संघर्षों में सक्रिय भूमिका निभाने के काबिल है और उसे सक्रिय भूमिका निभानी चाहिए और चर्चा करनी चाहिए कि वास्तव में मांगें क्या हैं और उनके लिए कैसे संघर्ष करें,
ग) अन्य मजदूर आपके संघर्ष में रुचि रखते हैं और आपकी मदद करना चाहते हैं इसलिए आप उनके साथ भी चर्चा करें,
घ) यूनियन जो कर रही है वह लंबे समय तक काम नहीं करेगा और इस संघर्ष के साथ हमे जो करना चाहिए वह है इस संबंधी चर्चा करना, नए तरीके से सोचना, अन्य मज़दूरों से इसकी चर्चा करना और अन्य मज़दूरों के संघर्षों पर चर्चा करना ताकि एक प्रकार की वर्ग पहचान का निर्माण हो सके,
ड) यह, यह या वह बास नहीं, बल्कि समूची पूँजीवादी व्यवस्था है जो ना केवल वेरीजोन (या अन्य) मज़दूरों बल्कि समस्त मज़दूर वर्ग पर हमले कर रही है और हमें एक वर्ग के रूप में प्रतिरोध करना और लड़ना होगा.।
कामरेड ए: यहाँ बहुत सारी बातें है जिन्हें हम श्रमिकों से कह सकते हैं और कामरेड जे ने यहाँ उनमें से कुछ की चर्चा की है। लेकिन मैं मानता हूँ कि जब हम हडताली मज़दूरों में, किसी रैली में या अन्यत्र हस्तक्षेप करें तो हमें यूनियनों को ख़ारिज करने को अपना मुख्य विषय नहीं बनाना चाहिए। मुझे नहीं लगता कि हमें अपनी पोजीशनों को छुपाना चाहिए या उन संबंधी झूठ बोलना चाहिए, लेकिन यह हमारे मुंह से निकलने वाला पहला वाक्य भी नहीं होना चाहिए। यह पर्चे की पहली लाइन नहीं होनी चाहिए। मुझे लगता है कि हमारे प्रेस की बात अलग है। वहां पाठक अलग हैं। जब हम हडताल में हस्तक्षेप करते हैं तो हम श्रमिकों के बीच जा रहे होते हैं। पर जब कोई अखबार खरीदता है या वेबपेज पर जाने के लिए समय निकालता है, तो वे हमारी पोजीशनों बाबत अधिक जानकारी प्राप्त करने के लिए शुरुआत करते हैं। सिद्धांत रूप में, हमारे प्रकाशन सदैव वर्ग के अधिक उन्नत तत्वों द्वारा पढे जाएँगे, जबकि पर्चों का वितरण बहुत व्यापक है। मैं जे. से सहमत हूँ कि इस स्तर पर यह शायद अधिक महत्वपूर्ण है कि संकट के सवाल पर हस्तक्षेप करें, मार्क्सवाद का नजरिया पेशा करें जो कहता है कि पूंजीवाद के भीतर इस संकट का कोई समाधान नहीं है; मजदूर यूनियनों के दायरे में जो कर रहे हैं, वह बुर्जुआ विकल्पों से आगे नहीं जाता, जो वास्तव में कोई विकल्प नहीं हैं। श्रमिकों को देखने की आवश्यकता है कि सुधार संभव नहीं है, पूंजीपति वर्ग के किसी भी गुट के पास जवाब नहीं है। मजदूर वर्ग की अपनी स्वतंत्र कार्रवाई के बिना भविष्य अंधकारमय है। सिद्धांत रूप में, इसका फल होना चाहिए मजदूर वर्ग के संघर्ष पर यूनियन के वर्चस्व पर सवाल उठना।
आईसीसी, 9 सितंबर 2011
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[6] https://english.hani.co.kr/arti/english_edition/e_national/324965.html
[7] https://en.internationalism.org/icconline/2006-north-korea-nuclear-bomb
[8] https://english.hani.co.kr/arti/english_edition/e_editorial/318725.html
[9] https://www.youtube.com/watch?v=F025_4hRLlU
[10] https://libcom.org/forums/organise/korean-militants-facing-prison-08012011
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