विश्व मजदूर एकता जिन्दाबाद। मजदूर क्रांति जिन्दाबाद।
पूँजीवादी शोषण का नाश करो।
मजदूर साथियों,
मई 1886 की घटनाएँ जहाँ पूँजी के बहशी और खूनी रूप का, पूँजी तथा मजदूर वर्ग में असाध्य शत्रुता का प्रतीक हैं, वहां वे पूँजीवादी लूट के खिलाफ, पूँजीवादी राज्य को तहस-नहस करने के वर्ग के जुझारू ऐतिहासिक संघर्ष का भी प्रतीक हैं।
पूँजी का वामपक्ष –सीपीआई-एटक, सीपीएम-सीटू, उनके स्तालिनवादी लगुए भगुए तथा पूँजी के अन्य यूनियनी सिपहसालार– उन घटनाओं के वास्तविक अर्थ को छिपाने की साजिश करते हैं। उन्हें होली-दिवाली जैसे एक ‘त्यौहार’ में, एक निरापद तमाशे में बदल देते हैं। इन सालाना तमाशों में उन द्वारा उगली शैतानियत भरी लफ्फाजी का एक मात्र मकसद होता है मजदूरों के संघर्ष के मादे को कमजोर करना, उन्हें पूँजी के सामने निहत्था करना। मजदूर वर्ग को पूँजीवादी वाम की इन कुचालों को नाकाम करना होगा।
वर्ग के अन्य विगत संघर्षो की तरह ही, मई 1886 के प्रचण्ड संघर्ष भी वर्तमान से अछूते, किसी खत्म हो चुकी कहानी का अंग नहीं है। वे पूँजी तथा मजदूर वर्ग में निरन्तर जारी विश्वव्यापी वर्गयुद्ध, एक युद्ध जो किसी राष्ट्र की ‘अखण्डता’, उसकी ‘मुक्ति’ अथवा ‘आत्मनिर्णय’ के लिए नहीं बल्कि दानवी पूँजीवादी राज्य से, समस्त राष्ट्रवाद से मज़दूर वर्ग की मुक्ति के लिए है, का हिस्सा हैं। अतीत को याद करने में मज़दूर वर्ग का मुख्य मकसद होता है पुरानी विरासत से सबक लेकर अपनी मौजूदा मुठभेड़ो को सार्थक बनाना, उन्हें विश्व मजदूर क्रांति की ओर अग्रसर करना। लेकिन इसके लिए वर्ग-संघर्ष के वर्तमान हालातो को समझना भी जरूरी है।
संकटों तथा विश्व नरसंहारों (दो विश्वयुद्धों) का कहर बरसाता आया विश्व पूँजीवाद, भारतीय पूँजीवाद समेत, आज फिर तेजी से गहराते संकट में डूबता जा रहा है। पूँजी की समस्त अर्थव्यवस्थायें, अमेरिका, यूरोप की अपेक्षाकृत बलशाली पूँजियों से लेकर, भारत-पाक-लंका जैसी नपुसंक, बिमार पूँजियों तक – संकट की मार से चरमरा रही हैं। पूँजीवादी लूट के, विश्व पूँजी के अस्तित्व के हालात अधिकाधिक कठिन हो रहे हैं।
गहराते पूँजीवादी संकट के इस माहौल में राक्षसी पूँजीवादी राज्य के मजदूर वर्ग के जीवन स्तर पर हमले बहशी होते गए हैं। सभी जगह वर्ग को जीवन की बर्बरतापूर्ण अवस्थाओं में धकेला जा रहा है। हिन्दुस्तान जैसे देशों में मजदूर वर्ग तथा शोषित जनता को बढती गरीबी, बेरोजगारी, भूखमरी तथा उग्र होती पाश्विक हिंसा में डुबोया जा रहा है। वहां विकसित देशों के मजदूर वर्ग को भी तनख्वाहों में कटैती, बढ़ती बेरोजगारी आदि द्वारा पाश्वीकरण का शिकार बनाया जा रहा है।
दूसरी ओर विश्व पूँजी के सरदारों, रूस तथा अमेरिका, में और उनकी सरदारी में भारत-पाक-श्रीलंका आदि में प्रतिद्वन्द्धिता अधिकाधिक उग्र तथा खूनी हो गई है। रूस तथा अमेरिका की सरदारी में सभी देश एक दूसरे के खिलाफ युद्ध की तैयारी में, फौजीकरण में तथा एक दूसरे के प्रभावी क्षेत्रों में घूसपैठ में लगे हैं। अमेरिका अपने मातहत पाकिस्तान के जरिए भारत पर दबाव डालने के लिए खालिस्तानी मोहरे का प्रयोग कर रहा है। रूस अपने मातहत भारत के जरिए अमरीकी कठपुतली श्रीलंका को हथियाने के लिए तामिल देश के मोहरे का प्रयोग कर रहा है।
लेकिन मजदूर वर्ग पूँजीवादी राज्यों/सरकारों के इन हमलों के सामने एक निरीह शिकार भर नहीं। सातवें दशक से विश्व पूँजी के संकट तथा मजदूर वर्ग पर पूँजी के हमलों के तेज होने के साथ-साथ वर्ग का विश्व-व्यापी प्रतिरोध भी तीव्रतर होता गया है। फ्रांस के 1968 के, उसके बाद अन्य अनेक देशों के, 1970-
1971 में पोलिश मजदूर वर्ग के, इस दौरान भारतीय मजदूरों के विभिन्न हिस्सों के तथा 1974 के रेलवे मजदूरों के महान संघर्ष, वर्ग प्रतिरोध की इस लहर का हिस्सा थे। भारतीय मजदूर वर्ग के दूसरे व्यापक संघर्ष –स्वदेशी काटन, बैलाडीला, फरीदाबाद, पुलिस बगावतें भी वर्ग संघर्ष की एक विश्वव्यापी लहर का हिस्सा थे। इस प्रकार 1980-1981 की पोलिश मजदूरों की बगावत, 1982 की बाम्बे सूती मिलों की हिंसक हड़ताल, हाल ही की फ्राँस, स्पेन, जर्मनी और विशेषकर ब्रिटिश खनिकों की साल भर लम्बी हिंसक हड़ताल पूँजी के हमलों के खिलाफ वर्ग प्रतिरोध की निरन्तर उँची उठती तथा गहन होती लहर का हिस्सा हैं।
आज सभी जगह पूँजी मजदूरों पर हमले तेज कर रही है। वर्ग संघर्ष की विश्वव्यापी लहरें सभी जगह इन हमलों का जवाब दे रही हैं। वर्ग के ये संघर्ष न सिर्फ विश्वयुद्ध का रास्ता रोके हुए हैं, बल्कि वे समूची मानवता को पूँजीवादी बर्बरता से मुक्ति का एकमात्र रास्ता, विश्व मजदूर इंकलाब का रास्ता, दिखा रहे है।
वर्ग के उभरते संघर्षों में निहित खतरे को समझते हुए पूँजीवादी राज्य अपने समस्त हथियारों को वर्ग के खिलाफ प्रयोग कर रहा है। ‘राष्ट्रीय अख्ण्डता’, ‘राष्ट्रवाद’ तथा साफ सुथरी सरकार के समस्त प्रपंच भारतीय पूँजीवादी राज्य के प्रति वर्ग की नफरत को कम करने, उनके संघर्षों को कुन्द करने का अस्त्र हैं। खालिस्तानियों जैसे पूँजी के अन्य गुट भी मजदूर वर्ग में फूट डालकर, उसे पूँजी के पीछे लामबन्द करके वर्ग के संघर्षों को कुचलने की समूची भारतीय पूँजी की कोशिशों को मदद पहुंचाते हैं।
इन प्रपंचों के बावजूद वर्ग संघर्ष फूट पड़ने पर उनसे निपटने के लिए पूँजीवादी राज्य ने अपने वामपक्ष, सीपीआई, सीपीएम, उसके स्तालिनवादी छुटभय्यों, ट्रेडयूनियन सरगनाओं को तैनात कर रखा है। एक वक्त के वर्ग के सच्चे संगठन, ट्रेड यूनियनें पतनशील पूँजीवाद के तहत आज अपना सर्वहारा चरित्र खो बैठी हैं। पूँजी का वामपक्ष, उसका ट्रेड यूनियनी ढांचा मजदूर वर्ग को पूँजीवादी विचारधारा के भ्रमजाल में उलझा कर, मजदूर आन्दोलनों को फूटने से रोकने की भरसक कोशिश करता है। फिर भी उनके फूट पड़ने पर उसका कार्य है सेफ्टी वाल्व का काम करना। वर्ग के संघर्षों को विपथ करना। अपने बनकर उन्हें भीतर से तोड़ना तथा वर्ग को पस्त-हिम्मत करके पूँजी की सुरक्षा करना। यूनियनों की (पूँजीवादी वाम की) यह भूमिका चन्द लीडरों की बदमाशी का नहीं बल्कि उनके सदा के लिए पूँजीवादी राज्य का औजार बन जाने का नतीजा है।
मजदूर वर्ग को अपने इस समस्त शत्रुओं, राष्ट्रीय-अखण्डता, राष्ट्रवाद, खालिस्तान, स्थानीयतावाद, पूँजीवादी वाम तथा ट्रेड यूनियनवाद, के वास्तविक रूप को पहचानना होगा।
पूँजी के हमलों के खिलाफ अपने जूझारू संघर्ष विकसित करने के लिए मजदूर वर्ग को युनियनी खोल को तोड़ते हुए अपने आपको वर्ग के स्वायत संगठनों, आम सभाओं, हड़ताल कमेटियों में गठित करना होगा। लेकिन वर्ग को अपने हाल के संघर्षों से भी सबक लेने होंगे जो (बाम्बे सूती मजदूर, ब्रिटिश खनिक) बताते हैं कि एक फेक्टरी तो क्या एक उद्योग तक के संघर्ष से पूँजीवाद को राहत देने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता। इसलिए हमें अपने संघर्षों को छिड़ते ही अधिकतर संभव कारखानों/उद्योगों/क्षेृत्रों तक फैलाने की ओर बढ़ना होगा। इस धरातल पर भी वर्ग के संघर्षों के सामने विकास का आज एकमात्र परिदृश्य है : उन्हें पूँजीवादी राज्य के खिलाफ, उसे तहस-नहस करने की ओर तथा विश्व मजदूर इंकलाब की ओर बढ़ाना। सिर्फ इसी रास्ते से मजदूर वर्ग को, समस्त शोषित जनता को, तथा समूची मानवता को पूँजीवादी बर्बरता से तथा विश्वयुद्ध के खतरे से मुक्त किया जा सकता है।
मजदूरों का कोई देश नहीं होता। दुनिया के मजदूरों एक हो।
राष्ट्रवाद, स्थानीयतावाद – दफन करो। मजदूर इंकलाब – गठित करो।
कम्युनिस्ट इंटरनेशनलिस्ट, 1 मई 1985
मजदूरों का कोई देश नहीं होता। दुनिया के मजदूरों एक हो।
चीनी पूँजी द्वारा बर्बर कत्लेआम
मजदूर साथियों,
चीनी पूँजीपति वर्ग के सत्ताधारी धड़े द्वारा राज्य पूँजीवादी के शोषण-उत्पीड़न के खिलाफ संघर्षरत छात्रों-मजदूरों के बहशियाना कत्लेआम ने समूची दुनिया के शोषितों को झकझोर कर रख दिया है। इस घटना ने चीनी शासक वर्ग का नकाब नोच फेंका है तथा नीचे छीपे घिनौने शोषणकारी चेहरे को उजागर कर दिया है। इसने उस बात को अन्तिम रूप से सिद्ध कर दिया है जो हम कम्युनिस्ट पिछले 50 से भी अधिक सालों से दोहराते आए है : कि अर्थव्यवस्था पर सरकार का कंट्रोल या राष्ट्रीयकरण समाजवाद नहीं होता, यह पूँजीवादी लूट का ही एक रूप, राज्य पूँजीवादी रूप है, कि इन उपायों की प्रेरक स्तालिनवादी, त्रात्सकीवादी, माओवादी-तेंगवादी तथा अन्य धाराएँ पूँजीपति वर्ग के ही धड़े हैं, कि उनका मजदूर वर्ग तथा उसकी मुक्ति की लड़ाई से वास्ता बस पूँजी के पहरेदारी के रूप में है।
मजदूर वर्ग, दूसरे शोषित तबको के अनियन्त्रित विस्फोट तथा उनका बहशी दमन सिर्फ चीन तक सीमित नहीं। पूँजी द्वारा अपने शोषण तथा दमन को एक नई तेजी, एक बढ्ती उग्रता देने के खिलाफ आज भड़क रहे आन्दोंलनों से शासक वर्ग पूरी दुनिया में इसी बर्बरता से पेश आ रहा है। ब्राजील, वेनजुएला, दक्षिणी कोरिया, जोरड़न, अरजन्टीना आदि में पूँजी द्वारा मजदूरों-महेनतकशों पर आम-फहम हमले, सभी वस्तुओं की कीमतों में कई-कई गुणों बढ़ोतरी की घोषणा के खिलाफ फूटे आन्दोलन तथा उनका बर्बर दमन इसके अन्य हालिया उदाहरण हैं।
पूँजीवादी अर्थव्यवस्थाओं का सड़न
विश्व पूँजीवादी व्यवस्था अपने तीखे होते अंतर्विरोधों के कारण पिछले 20 सालों से एक बार फिर लगातार संकट की दलदल में धँसती गई है। विश्व पूँजी को संकट से उभारने के लिए शासकवर्ग रंग-बिरंगी नीतियों का सहारा लेता रहा है। एक अरसे तक विश्व पूँजी ने राज्य पूँजीवादी उपायों, राष्ट्रीयकरण आदि, जिसे समाजवाद के नाम से प्रचारित किया गया, को सहारा बनाया। लेकिन इन उपायों के बावजूद संकट और उग्र तथा बेकाबू होता गया, आसमान छूते सरकारी कर्ज, बढ़ती बेरोजगारी, आर्थिक ठहराव। तब पूँजी ने पासा बदला। खुलेपन, अर्थव्यवस्था का पुनरगठन तथा निजीकरण को नए रामबाणों के रूप में पेश किया गया। चीन में तेग ने, वही जल्लाद जो अब चीनी जनता के कत्लेआम का संचालक है, सारी दुनिया के शासकों की प्रशंसा पाते हुए उन्हें लागू किया। लेकिन नीतियों की इन सारी उल्टफेर के बावजूद विश्व पूँजीवादी अर्थव्वस्था, अमेरिका, ब्रिटेन, रूस, ब्राजील, मैक्सीको, चीन, भारत आदि समेत, ध्वंस के कगार पर पहुंच गई है। पूँजी की सभी नीतियाँ दिवालिया हो गई हैं।
अपने आर्थिक-सामाजिक ढांचे की सड़न से छटपटाती पूँजी के सामने एक ही लकीर, एक ही रास्ता, जो अन्य नीतियों का भी महत्वपूर्ण हिस्सा था, उभरा है – मजदूर वर्ग तथा अन्य शोषित तबकों की जीवन अवस्थाओं पर अटल रूप से उग्र होते हमले।
पूँजी के हमले तथा सामाजिक विस्फोट
कीमतों में आमफहम, सुनियोजित बढ़ोतरी, बढ़ती बेरोजगारी, सामाजिक सुविधओं में कटोती मजदूर वर्ग तथा अन्य शोषित तबकों को पूँजी के खिलाफ निरन्तर बढ़ते संघर्षों की राह डाल रहे हैं। सामाजिक आर्थिक सड़न से उत्पन्न भविष्य की अनिश्चितता अन्य मेहनतकश तबकों को गहरी बेचैनी तथा गुस्से से भर रही है। विभिन्न तत्वों का मेल एक विस्फोटक सामाजिक हालात को जन्म दे रहा है। वेनेजुएला, बराजील, अरजन्टीना, जोरड़न आदि में सामाजिक विस्फोट, जिनका नाभिक था मजदूर वर्ग, तथा पौलेण्ड, दक्षिणी कोरिया, फ्रांस, ब्रिटेन, भारत आदि में मजदूर संघर्ष इसी विश्वव्यापी-स्थिति का परिणाम हैं। इसी का परिणाम है चीनी विस्फोटन।
किसी स्पष्ट परिदृश्य की कमी के कारण ये उभार् ना सिर्फ पूँजी की गुटीय लड़ाई में मोहरे बन जाते हैं बल्कि इनमें उभरे जुझारुओं को, उनकी दिशाहीनता के कारण, जज्ब करके पूँजी सामाजिक कंट्रोल के नए औजार गढ़ने का प्रत्यन करती है -पैलेण्ड में सालिडैरटी, रुस, चीन, लातिनी अमेरिका में जनवादी मिथकों का नवीनीकरण। लेकिन पूँजी का कोई भी गुट ‘जनवादी’ अथवा ‘तानाशाही’, भ्रष्ट अथवा ‘पाक-साफ’, मजदूर वर्ग के शोषण-दमन में अपने विरोधी गुट के पीछे नहीं। फ्रांस सरकार द्वारा हड़ताली रेलवे मजदूर के खिलाफ सेना का प्रयोग, भारतीय पूँजी द्वारा हड़ताली डीटीसी मजदूरों का बर्बर दमन इसके गवाह हैं।
चीन की घटनाओं ने एक बार फिर यह बात साफ कर दी है कि वे सब आन्दोलन जिनमें, अपनी भारी सक्रियता के बावजूद, मजदूर वर्ग अपने वर्ग परिप्रेक्ष्य को नहीं उभार पाता, अन्धीगली में फँसकर पराजय तथा हताशा का शिकार बन जाते हैं।
मजदूर वर्ग ही राह दरसा सकता है
पूँजीवादी उत्पादन प्रणाली में अपनी स्थिति के कारण न केवल मजदूर वर्ग ही पूँजी के मर्म पर चोट कर सकता है बल्कि वही पूँजी के खिलाफ एक स्पष्ट रास्ता रखता है। समाज के अन्य शोषित उत्पीडि़त तबकों का असंतोष तथा उनका संघर्ष मजदूर वर्ग के रास्ते, उसके वर्ग परिदृश्य के गिर्द एकजुट होकर ही कोई सार्थक भूमिका अदा कर सकता है।
देश, धर्म, जाति के बन्धन तोड़, यूनियनी-वामपंथी मिथकों-प्रपंचों को भेद, अपने वर्ग-धरातल से, अपनी वर्गीय माँगों के लिए लड़ता हुआ मजदूर वर्ग ही पूँजी के हमलों को पीछे धकेल सकता है तथा अपने वर्ग परिदृश्य को समाज के बीच स्थापित कर सकता है। अपने इस वर्ग परिदृश्य के आधार पर ही वह पूँजी को एक जबरदस्त चुनौती पेश कर सकता है तथा अन्त में पूँजीवादी सम्बन्धों के विश्वव्यापी विनाश के जरिए मानवजाति को शोषण, राजनीतिक उत्पीडन, बर्बरता से निजात दिला सकता है। तथा खुशहाली और आजादी की उसकी आकांक्षाओं को पूरा कर सकता है।
1. पूँजीवाद चीनी माडल हो या रूसी; भारतीय माडल हो या अमेरिकी, मजदूरों का शोषक है।
2. ‘जनवादी’ हों या ‘तानाशाही’ – पूँजी के सभी गुट मजदूरों के दुश्मन हैं।
3. पूँजी के खिलाफ संघर्ष में मजदूरों का हथियार है उनकी एकता।
4. इस हथियार का प्रयोग ही पूँजी के दमनकारी पंजे को छिन्न-भिन्न कर सकता है।
कम्युनिस्ट इंटरनेशनलिस्ट 13 जून 1989, सम्पर्क -- पोस्ट बाक्स नं 25, एनआईटी, फरीदाबाद, हरियाणा
मजदूरों का कोई देश नहीं होता। दुनिया के मजदूरों एक हो।
संसदीय सरकस में मत उलझो। लड़ो।
मजदूर साथियों,
चुनावी पार्टियों ने महीनों, असल में बरसों से चलाए जा रहे अपने अभियानों को अब और तेज़ कर दिया है। एक दूसरे के कालिख पुते चेहरों की ओर इशारा करते, पूँजी के सभी राजनीतिक धड़े यह ‘’साबित” करने में लगे हैं कि यह सारी मंदहाली, सारा सड़न, सारा पतन बस ‘’राजीव मंडली’’ की, अथवा ‘‘राष्ट्र-विरोधी तत्वों’’ की या फिर प्रतिक्रियावादी ताकतों की देन है। बस सही मंडली चुनने की बात है। हमें चुनो सब ठीक कर देंगे। यह घोर कुफर है। हमें इस कुफर को समझना होगा।
जब चोर झगड़ पड़ते हैं
विपक्ष तथा शासक पार्टियाँ दोनों एक-दूसरे के घोर भ्रष्टाचार की, अपराधीकरण की, बेहयाई तथा नीचता में लिप्त होने की बात कहते हैं। वे सच कहते हैं। पर न सिर्फ पूँजी की राजसी मशीन, बल्कि उसका सारा आर्थिक-सामाजिक-प्रशासनिक तंत्र, सिर से पैर तक, रोम-रोम तक गबन, फ्राड, नीचता तथा हिंसा से सराबोर है। पर पूँजीवादी राजनीतिक गुटों में झगडा इस उफनते गंदे नाले को साफ करने को लेकर नहीं। यह मजदूर वर्ग की ‘भलाई’ को लेकर तो कतई नहीं। एक हद तक यह हिस्से-पत्ती को लेकर है। पर ‘पाक-साफ शासन’, ‘‘धर्म-निरपेक्षता’’, ‘‘राष्ट्रीय एकता’’ के ये सारे अभियान मुख़्यता मजदूरों-मेहनतकशों को संघर्ष से विमुख रखने के लिए हैं।
भ्रष्टचार मजदूरों के जीवन को भी अभिशप्त करता है। पर मजदूरों को अगर घिसे पूर्जों के समान ‘छॉंट’ फेंका जा रहा है, अपनी गर्दन को अगर वे ले-आफों, तालाबंदियों, बेरोजगारी, बढ़ती मँहगाई की कडिकी में फँसा पा रहे हैं तो इसलिए कि वे मेहनतकश हैं, मजदूर हैं पूँजी के गुलाम हैं। हमारे जीवन के वीरानों की जड़ है पूँजीवादी निजाम। इस निजाम की पहरेदार हैं ये सब वामपंथी-दक्षिणपंथी पार्टिंयाँ।
पूँजीवादी संकट
और विश्व पूँजीवाद आज बीमार है। संकट में है। रूस, चीन, पौलैंड का राक्षसी सरकारी पूँजीवाद हो या अमेरिका, ब्रिटेन, मैक्सीको, भारत का पूँजीवाद, सब गहराते संकट में है। सरकारी नुमाइंदे तक कहते हैं – ‘देश पर 70000-93000 करोड रुपये तक विदेशी कर्ज है”। भारत दुनियां का चौथा या पाँचवां बड़ा कर्जदार देश है। सभी कर्जदार देशों की तरह जहां भी कीमतों में बढ़ोतरी तथा आर्थिक बदहाली बेकाबू होती जा रही है। इस संकट को मजदूर सभी औद्योगिक ऐरियों में बेरहम छँटनियों, ले-आफों, काम-बाढ़, तालाबंदियों, जीवन, काम तथा संघर्ष के मुश्किल होते हालातों के रूप में अपनी पीठ पर झेलते हैं। यह सब हमें बताता है कि पूँजी की आर्थिक मशीन को जंग लग रखा है।
इकोनमी का यही सड़न शासक वर्ग को मुनाफे के आसान तरीकों – महाफ्राड, रिश्वतखोरी, विशाल पैमाने पर चोरी-तस्करी, नशीली चीजों का व्यापार, अंत दर्जे की हर गंदगी तथा सड़न की ओर ले जाता है। पूँजी के हर धडे़ का – भारतीय राज्य, खालीस्तानी-कश्मीरी, हिंदू-मुस्लिम, असमी, श्रीलंका तमिल, सिंहली – हर दूसरे धडे से रिश्ता बर्बरता का, खूनी हिंसा का, आतंकवाद का रिश्ता बन गया है।
कांग्रेस, राष्ट्रीय मोर्चा, भाजपा अथवा वामपंथी मोर्चा, सभी एक-न-एक जगह राजकाज सँभाले हैं। हालात सभी के शासन में और खराब होते जा रहे हैं, होते जाऍंगे। भारत के ही समान संकटग्रस्त तथा करजाई अन्य देशों में – राक्षसी सरकारी पूँजीवाद के वकील नकली कम्युनिस्टों (स्तालिनवादियों-माओवादियों) के अधीन पौलैंड-रूसा-चीन आदि में अथवा अमेरिकी सरगनाओं के तहत ब्राजील, मैक्सीको, जार्डन आदि में – पूँजी के सभी धडे अपने हाथ में दमन का मुगदर उठा कर मजदूर वर्ग को एक ही पाठ पढ़ा रहे हैं। उन्हें ‘देश’ की इकोनमी के लिए और बलिदान देने होगें, कड़की, महँगाई, बेरोजगारी झेलनी होगी तथा शान्ति और सब्र करना होगा। समूचे पूँजीपति वर्ग के पास हालात का कोर्इ हल नहीं। असल में अपनी सभी वामपंथी-दक्षिणपंथी पार्टियों के साथ-साथ वह खुद इस सड़न का, संकट का हिस्सा है, इसकी जड़ है।
मजदूर वर्ग की तरफ से हालात का जवाब है उसका वर्ग संघर्ष। डीटीसी मजदूरों के, कानपुर में सूती मिल मजदूरों के, कई राज्यों में बिजली तथा अन्य सरकारी कामगरों के संघर्ष तथा जगह-जगह बिखरे अनेकों अज्ञात संघर्ष इस जबाव का हिस्सा हैं। वे जन-समूहों के उमड़ते असंतोष के लिए पलीते की संभावना भी लिए हैं।
संसद -- पूँजी का एक कवच
सामाजिक बायलर के भीतर दबाव उमड़ता पाकर शासक वर्ग ने सभी सेफटी वाल्वों को खोल रखा है – ‘धार्मिक भाषाई दंगे”, दंगों का ‘विरोध’, ‘आंतकवाद - आंतकवाद विरोध’, ‘अलगाववाद-राष्ट्रीय एकता’ ‘भ्रष्टाचार विरोध।’ सामाजिक मैदान को अपनी हिस्से-पत्ती की लड़ाईयों से घेरकर तथा उन लड़ाईयों से उड़ाई वैचारिक गर्द से मजदूर वर्ग का दिमाग ढकने का प्रयास करके, पूँजी की वामपंथी-दक्षिणपंथी पार्टियां मजदूरों मेहनतकशों को हालात की समझ हासिल करने से रोकना चाहती हैं।
चुनाव इन प्रयासों का चरमबिंदू है। इसकी मार्फत मालिक वर्ग अपने राजसी ढॉंचे को पुख्ता करेगा। शोषण दमन, तांडवी हिंसा, भ्रष्टाचार के एक और राऊंड पर वह फिर ‘जन सहमति’ से उतरेगा। इसी की मार्फत शासक वर्ग प्रयास करता है कि मजदूर-मेहनतकश अपने आपको पूँजी के खिलाफ एक वर्ग के रूप में देखना बंद कर दें और अपने आपको वे मालिकों, मैनेजरों, नेताओं, दलालों, बनियों के साथ-साथ जिम्मेवार ‘नागरिक’ के रूप में देखें। अगर शासक वर्ग अपनी इस चाल में सफल हो जाता है तो हम अपना एकमात्र हथियार – वर्ग कार्यवाही, वर्गीय एकजुटता गँवा देंगे।
मजदूर साथियों,
हममें करोड़ों मजदूर पहले ही अपने दिल में यह महसूस करते हैं कि सब पार्टियाँ खराब हैं, पैसेवालों की हैं, कि चुनावी उठापटक से मजदूरों को कुछ मिलने वाला नहीं, कि संसद एक तमाशा है और असल ताकत पैसे वालों के पास है, कि वोट से कुछ नहीं बदलता। फिर भी वे वोट डालते है क्योंकि कोई विकल्प नहीं दिखता।
साथियों, विकल्प है। विकल्प है वर्ग संघर्ष।
एकजुट, सामूहिक कार्यवाही के जरिये ही हम कहीं पहुँच सकते हैं। अपने एकजुट, सामुहिक संघर्ष से न केवल हम अपना बचाव करेंगे बल्कि पूँजीवादी समाज के संकट-सड़न-पतन से बाहर ले जाती एकमात्र राह खोलेंगे। यह काम हम दूसरों पर नहीं छोड़ सकते। पूँजीवादी पार्टियों व युनियनों के चंगुल से मुक्त होकर, हमें अपने संघर्ष अपने हाथ में लेने होंगे। हड़ताल कमेटियों, आम सभाओं के जरिये तथा संघर्ष के बाहर जुझारू मजदूरों की कमेटियों के जरिये। मजबूती से इस राह पर पॉंव रखकर, देश-धर्म-जाति का मायाजाल भेद कर ही हम मज़दूर जनवाद के औजार, क्रांतिकारी मज़दूर कौंसिल की राह खोलेंगे, तथा संकट-सड़न-पतन के मज़दूर वर्गीय विकल्प, पूँजीवादी राजनेताओं के थोथे वादों के खिलाफ वर्ग संघर्ष के सच्चे वादे की घोषणा करेंगे – पूँजीवाद का विश्व-व्यापी विनाश। विश्व मजदूर इंकलाब।
(1) राष्ट्रीय-भाषायी-मजहबी जहर के खिलाफ मजदूर वर्ग की राह – वर्ग एकता, वर्ग चेतना, वर्ग संघर्ष।
(2) पूँजी के थोथे नकली जनवाद के खिलाफ मजदूर सभाओं/हड़ताल कमेटियों का असल जुझारू जनवाद।
(3) संकट-सड़न-लूट-भ्रष्टाचार भरे गंदे नाले के चुनावी मंथन की जगह उसका इंकलाबी विनाश।
कम्युनिस्ट इंटरनेशनलिस्ट, नवंबर 1989, पोस्ट बाक्स 25, एन आर्इ टी, फरीदाबाद – 121 001