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आईसीसी का प्‍लेटफार्म

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अभी तक ज्ञात सर्वाधिक लम्‍बे और गहरे प्रतिक्रांति काल के बाद सर्वहारा एक बार ‍िफर वर्ग संघर्ष की राह पा रहा है। यह संघर्ष पहले ही वर्ग द्वारा आज तक लड़े गये संघर्षो में सर्वा‍‍घिक व्‍यापक है। यह छठे दशक के मध्‍य से विकसित हो रहे व्‍यवस्‍था के तीव्र संकट और पुरानी हारों से अपने पूर्वजों की बजाय कम दबी मज़दूरों की नई पीढियों के उदय का नतीजा है। फ्रांस की 1968 की घटनाओं के समय से दुनियॉं भर (इटली, अर्जेन्टीना, ब्रिटेन, पोलैंड, स्‍वीडन, मिश्र, चीन, पुर्तगाल, अमेरिका, भारत और जपान से लेकर स्‍पेन तक के) के मज़दूर  संघर्ष पूँजीपति वर्ग के लिए दु:स्‍वप्‍न बन गये हैं।

मज़दूर  वर्ग के इतिहास मंच पर पुन: प्रकटन ने प्रतिक्रांति द्वारा उत्‍पन्‍न अथवा संभव बनी उन सब विचारधाराओं का नि‍‍‍‍‍‍श्‍चत रूप से खण्‍डन कर दिया है जिन्‍होंने सर्वहारा के क्रांतिकारी चरित्र को नकारने की कोशिश की। वर्ग संघर्ष के वर्तमान पुन: उभार ने ठोस रूप से यह सिद्ध कर दिया है कि सर्वहारा ही हमारे युग का एकमात्र क्रांतिकारी वर्ग है।

क्रांतिकारी वर्ग वह वर्ग है, समाज पर जिसका दबदबा पैदावारी शक्तियों के विकास तथा पुराने सामाजिक सम्‍बन्‍धों के सड़न से जरूरी बने नये पैदावारी सम्‍बन्‍धों की रचना और फैलाव से मेल खाता है। अपनी पूर्ववर्ती पैदावारी प्रणालियों की तरह, पूँजीवाद भी समाज के विकास की एक खास मं‍जिल के अनुरूप है। एक समय यह सामाजिक विकास का प्रगतिशील रूप था, लेकिन विश्‍वव्‍यापी बनने के बाद इसने अपने ही विलोपन के हालात पैदा कर लिए हैं। उत्‍पादन प्रक्रिया में अपने खास स्‍थान के चलते, पूँजीवाद के सामूहिक उत्‍पादनकर्ता की  अपनी प्रकृति के चलते तथा अपने द्वारा गतिमान पैदावारी साधनों के मालिकानें से वंचित - जिस बजह से इसका कोई हित इसे पूँजीवाद समाज की सुरक्षा से नहीं बांधता - मज़दूर  वर्ग ही वह एकमात्र वर्ग है जो वस्‍तुगत और मनोगत रूप से उस समाज की - कम्‍युनिज्‍म की - स्‍थापना कर सकता है जो कि पूँजीवाद के बाद अवश्‍य आयेगा। मज़दूर  वर्गीय संघर्ष का वर्तमान उभार बताता है कि एक बार फिर‍‍‍‍‍ कम्‍यु‍निज्‍म का परिदृश्‍य सिर्फ ऐतिहासिक जरूरत ही नहीं बलिक एक वास्‍तविक संभावना है।‍‍

‍‍‍‍‍िफर भी, सर्वहारा को पूँजीवाद को उलटने के साधन जुटाने के लिए अभी भारी प्रयास करना है। इस प्रयास की पैदाइश और उसमें सक्रिय कारकों, वर्ग के इस पुन: जागरण के आरंभ काल से प्रकट हुए करंटों और तत्‍वों, पर इन संघर्षों के विकास और परिणाम की बहुत बड़ी जिम्‍मेदारी है। इस जिम्‍मेदारी के वहन के लिए, उन्‍हें खुद को सर्वहारा के ऐतिहासिक तजरूबे द्वारा सुदृढ़रूप से तय वर्ग-पोजीशनों के आधार पर संगठित करना होगा और उन्‍हीं से वर्ग में अपनी सरगर्मी और हस्‍तक्षेप का निर्देशन करना होगा।

अपने व्‍यवहारिक-सैद्धांतिक अनुभव से ही सर्वहारा पूँजीवाद को उल्‍टने तथा कम्‍युनिज्‍म की स्‍थापना के अपने ऐतिहासिक संघर्ष के साधनों और उददेश्यों का बोध हासिल करता है। पूँजीवाद के आरंभ से मज़दूर  वर्ग की सारी सरगर्मी वर्ग के रूप में अपने हितों के प्रति सचेत होने और अपने आपको शासक वर्ग के विचारो की जकड़ से,  पूँजीवादी भ्रमजालों से, मुक्‍त करने का सतत प्रयास रही है। यह प्रयास उस राजनीतिक निरंतरता में प्रकट होता है जो पहली गुप्‍त सोसायटियों से लेकर तीसरे इन्‍टरनेशनल से अलग हुए वामपक्षी धड़ों तक सभी मज़दूर  वर्गीय आन्‍दोलनों में फैली है। उनकी पोजीशनों और सरगर्मियों में मिलते सभी भटकावों और पूँजीवादी विचारों के असर के बावजूद, वर्ग के विभिन्‍न संगठन उसके संघर्षों की ऐतिहासिक निरन्‍तरता की चेन में अद्वितीय कडियां हैं। यह तथ्‍य कि वे हारों अथवा अन्‍दरूनी पतन का शिकार हो गए उनके मौलिक योगदान को कम नहीं करता। इस तरह, क्रांतिकारियों का आज बन रहा संगठन, प्रतिक्रांति की आधी सदी और विगत मज़दूर  आन्‍दोलन से सम्‍बन्‍ध-विच्‍छेद के बाद, वर्ग संघर्ष के आम पुन: जागरण को दर्शाता है। उसे पुराने मज़दूर  आन्‍दोलनों से अपनी निरन्‍तरता नवीन करनी होगी ताकि वर्ग के वर्तमन और भावी संघर्ष अपने आपको पुराने तजरूबे से लैस कर लें, ताकि वर्ग के रास्‍ते में बिखरी तमाम अधूरी हारें बेअर्थ जाने की बजाये उसकी अं‍तिम जीत के लिए दिश दर्श्क बन जायें।

आई.सी.सी कम्‍युनिस्‍ट लीग, पहले, दूसरे और तीसरे इन्‍टरनेशनल और उससे अलग हुए वामपंथी धड़ो, खासकर जर्मन, डच तथा इतालवी वाम के योगदान से अपनी निरन्‍तरता मानता है। यही मौलिक योगदान हमें समस्‍त वर्ग पोजीशनों को इस प्‍लेटफार्म में प्रतिपादित सुसंगत आम नजरिये में जोड़ने की इजाजत देता है।

 

1. कम्‍युनिस्‍ट क्रांति का सिद्धांत

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मार्क्‍सवाद सर्वहारा संघर्ष की मूलभूत सैद्धांतिक प्राप्ति है। सिर्फ मार्क्‍सवाद के आधार पर ही सर्वहारा संघर्ष के सभी सबक एक सुसंगत इकाई में जोड़े जा सकते हैं।

वर्ग संघर्ष, यानि पैदावारी ताकतों के विकास से तय ढ़ॉंचे में आर्थिक हितों पर आधारित संघर्ष, के विकास द्वारा इतिहास के विकास की व्‍याख्‍या करता तथा मज़दूर  वर्ग को पूँजीवाद का नाश करती क्रांति का कर्ता मानता, मार्क्‍सवाद ही वह एक मात्र विश्‍वदृ‍ष्‍टिकोण है जो मज़दूर  वर्ग के नज़रिये को प्रकट करता है। इस तरह विश्‍व के बारे में निराकार अटकलबाजी होने के बजाय, वह सर्वप्रथम मज़दूर  वर्ग के लिए संघर्ष का ‍हथियार है। क्‍योंकि मज़दूर  वर्ग ही वह पहला और एक मात्र वर्ग है जिसकी मुक्ति सारी मानवता की मुक्ति है, तथा समाज पर जिसका दबदबा शोषण के एक नये रूप को जन्‍म देने की बजाय समस्‍त शोषण को खत्‍म करेगा, इसलिए सिर्फ मार्क्‍सवाद ही सामाजिक वास्‍तविकता को सभी प्रकार के पूर्वाग्रहों और रहस्‍यों-भ्रमों से बेलाग होकर वस्‍तुगत और वैज्ञानिक रूप से समझने के काबिल है।

नतीजन, यद्यपि वह एक स्थिर सिद्धांत नहीं ब‍‍‍ल्‍कि वर्ग संघर्ष के साथ सीधे और जीवन्‍त सम्‍बन्‍ध में लगातार विकसित और स्‍पष्‍ट होता है, तथा यद्यपि इसने मज़दूर  संघर्ष की अपने से पहले की सैद्धांतिक प्राप्तियों से लाभ उठाया, अपने शुरू काल से मार्क्‍सवाद ही वह एक मात्र ढ़ॉंचा है जिससे और जिसके अन्‍दर ही क्रांतिकारी सिद्धांत विकसित हो सकता है।

 

2. सर्वहारा क्रांति की प्रकृति

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प्रत्‍येक सामाजिक क्रांति वह कार्यवाही है जिसके जरिये नये पैदावारी सम्‍बन्‍धों का वाहक वर्ग समाज पर अपना राजनैतिक प्रभुत्‍व कायम करता है। मज़दूर क्रांति भी इस परिभाषा से नहीं बचती, लेकिन उसके हालात और उसकी अन्‍तरवस्‍तु पुरानी क्रांतियों से मौलिक रूप से भिन्‍न  हैं।

क्‍यों‍कि पहले के सारे इन्‍कलाब अभाव पर आधारित दो पैदावारी प्रणालियों के बीच में टिके थे, उन्‍होंने सिर्फ एक शोषक वर्ग के प्रभुत्‍व को दूसरे शोषक वर्ग के प्रभुत्‍व से बदला। यह सच्‍चाई एक तरह की निज़ी सम्‍पति को दूसरे तरह की निज़ी सम्‍पति से, एक तरह के विशेषाधिकारों को दूसरी तरह के विशेषाधिकारों से बदलने से प्रकट होती थी। इसके उल्‍ट, मज़दूर क्रांति का लक्ष्‍य अभाव पर आधारित पैदावारी सम्‍बन्‍धों को बहुतायत पर आधारित सम्‍बन्‍धों से बदलना है। इसीलिए इसका अर्थ सभी तरह की व्‍यकितगत सम्‍पति, सभी विशेषाधिकारों और शोषण का अन्‍त है। ये अन्‍तर मज़दूर  क्रांति को निम्‍न खासियतें प्रदान करते हैं, और मज़दूर  वर्ग को अपने इन्‍कलाब की सफलता के लिए इन्‍हें समझना होगा।

(क)   यह विश्‍वव्‍यापी चरित्र का पहला इन्‍कलाब है, सभी देशो में फैले बिना वह अपने लक्ष्‍य हासिल नहीं कर सकता। क्योंकि व्‍यक्तिगत सम्‍पति को मिटाने के लिए, सर्वहारा को उसकी समस्‍त भागीय, क्षेत्रीय और राष्‍ट्रीय अभिव्‍यक्तियों को मिटाना होगा। पूँजीवादी प्रभुत्‍व के विश्‍वव्‍यापी फैलाव ने इसे एक साथ आवश्‍यक और संभव बना दिया है।

(ख)   इतिहास में पहली बार क्रांतिकारी वर्ग पुरानी व्‍यवस्‍था का शोषित वर्ग भी है, इसलिए वह राजनीतिक ताकत जीतने की प्रक्रिया में किसी आर्थिक ताकत का सहारा नहीं ले सकता। मामला बिल्‍कुल उल्‍ट है: पुराने वाक्‍यात के विपरीत, सर्वहारा द्वारा राजनीतिक ताकत का अधिग्रहण अव्श्यक्तः उस संक्रमण काल से पहले आता है जिसमें पुराने पैदावारी रिश्‍तों का दबदबा खत्‍म कर दिया जाता है और वह नये सामाजिक सम्‍बन्‍धों को स्‍थान देता है।

(ग)   इस सच्‍चाई का, कि समाज में पहली बार एक वर्ग इन्‍कलाबी भी है और शोषित भी, अर्थ यह भी है कि शोषित वर्ग के रूप में, उसका संघर्ष किसी भी बिन्‍दु पर क्रांतिकारी वर्ग के रूप में उसके संघर्ष से अलग या उसके खिलाफ नहीं रखा जा सकता। जैसे मार्क्‍सवाद ने आरम्‍भ से ही प्रदोंवाद और अन्‍य निम्‍न पूँजीवादी सिद्धांतों के खिलाफ दावे से कहा है, सर्वहारा के क्रांतिकारी संघर्ष का विकास शोषित वर्ग के रूप में उसके संघर्ष के गहराने और व्‍यापीकरण से ही तय होता है।

 

3. पूँजीवाद की पतनशीलता

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सर्वहारा क्रांति के महज एक आशा, एक ऐतिहासिक संभावना अथवा परिप्रेक्ष्‍य होने से आगे जा कर एक ठोस सम्‍भावना बनने के लिये उसका मानव जाति के विकास की वस्‍तुगत जरूरत बनना अनिवार्य है। वास्तव में पहले विश्‍वयुद्ध से ऐतिहासिक परस्थिति यही है : यह युद्ध पूँजीवादी पैदावारी पद्धति के चढ़ाव काल के अन्‍त का सूचक है, एक काल जो सोलहवीं सदी से शुरू हुआ और उन्‍नीसवी सदी के अन्‍त में अपने शिखर पर पहुँचा। इसके बाद जो नया दौर शुरू हुआ वह पूँजीवाद की पतनशीलता का दौर था।

पहले के सभी समाजों की तरह, पूँजीवाद का पहला चरण भी उसके पैदावारी रिश्‍तों के एतिहासिक रूप से जरूरी चरित्र को, यानी समाज की पैदावारी ताकतों के प्रसार में उसके अनिवार्य रोल को दर्शाता है। दूसरी और उसका दूसरा चरण इन पैदावारी रिश्‍तों के पैदावारी ताकतों के विकास पर निरन्‍तर कसते बन्‍धनों में बदलते जाने का परिचायक है। पूँजी

पूँजीवाद की पतनशीलता पूँजीवाद के पैदावारी रिश्‍तों में निहित अन्दरूनी अंतर्विरोधों के विकास का फल है जो संक्षेप में इस प्रकार हैं। वैसे तो करीब-करीब सभी समाजों में मालों का अस्तित्‍व रहा है, पर पूँजीवाद वह पहली अर्थव्यवस्था है जो मौलिक रूप से मालों की पैदावार पर टिकी है। इस प्रकार एक निरंतर फैलती मण्‍डी पूँजीवाद के विकास के आवश्‍यक हालातों में से एक है। खासकर, मज़दूर वर्ग के शोषण से आते अतिरिक्‍त मूल्‍य की वसूली पूँजी संचय, जो व्यवस्था की आव्श्यक चालक शक्ति है, के लिये ज़रूरी है। पूँजी के पुजारियों के दावों के उल्‍ट, पूँजीवादी उत्पादन अपने विकास के लिए जरूरी मण्‍डी को ऑटोमेटिक रूप से और अपनी इच्‍छा से पैदा नहीं करता। पूँजीवाद एक गैर-पूँजीवादी संसार में विकसित हुआ और उसने इसी संसार में अपने विकास के लिए रास्‍ते खोजे। लेकिन अपने पैदावारी रिश्‍तों को सारी धरती पर फैलाकर और विश्‍व मण्‍डी को एकजुट करके, वह एक ऐसे बिन्‍दु पर पहुंच गया जहाँ वे सारे बाजार सराबोर हो गये जिन्‍होंने 19वीं सदी में उसके इतने शक्तितशाली बढ़ाव को संभव बनाया था। फिर, पूँजी को अतिरिक्‍त मूल्‍य की वसूली के लिए मण्‍डी खोजने में पेश आ रही बढती परेशानी मुनाफे की दर में आ रही गिरावट, जो पैदावारी ताकतों के तथा उसके चालक श्रम के मूल्‍य में बढ़ते अनुपात से पैदा होती है, को और तीव्र बना देती है। मुनाफे में गिरावट एक झुकाव भर से बढ़कर अधिका‍धिक ठोस हो गई है; वह पूँजी संचय और इस तहर पूरी व्‍यवस्‍था के चलने पर एक और बन्‍धन बन गयी है।

पूँजीवाद ने मालों के विनिमय को एकजुट और विश्‍वव्‍यापी करके, और इस प्रकार मानव जाति के लिए एक विशाल लम्‍बी छलांग संभव बना कर, पूँजीवाद ने यूँ विनिमय पर टिके पैदावारी रिश्‍तों के खात्‍मे को ऐजेन्डे पर रख दिया है। पर जब तक सर्वहारा उनके लोप का बीड़ा नहीं उठाता, उत्पादन के ये सम्बध अपना असितत्‍व बनाये रखते हैं और मानवजाति को अन्‍तर-विरोधों की अधिकाधिक भयंकर श्रंखला में कसते जाते हैं।

अति उत्पादन का संकट पूँजीवादी पैदावारी प्रणाली के अन्‍तर विरोधों की खास अभिव्‍य‍क्ति है।  पहले जब पूँजीवाद अभी स्‍वस्‍थ था, वह मण्‍डी के फैलाव के लिए एक जरूरी प्रेरक श‍‍‍क्ति था, लेकिन आज वह स्‍थायी संकट बन गया है।  पूँजी के पैदावारी ढाँचे का अधूरा उपयोग स्‍थायी बन चुका है और पूँजी अपने समाजी दबदबे को बढ़ती आबादी के हिसाब से फैलाने में भी असक्षम हो गई है। आज पूँजी दुनियॉं भर में सिर्फ एक ही चीज फैला सकती है और वह है पूर्ण मानवीय बदहाली जो पहले ही बहुत से पिछड़े देशों का भाग्‍य है।

इन हालातों में पूँजीवादी राष्‍ट्रों में प्रतिद्वन्‍दता अधिकाधिक कठोर हो गई है। 1914 से साम्राज्‍यवाद ने, जो हर छोटे-बड़े राष्‍ट्र के जीवित रहने का साधन बन चुका है, मानवता को संकट-युद्ध-पुन: निर्माण-नये संकट के नारकीय चक्‍कर में झोंक रखा है। यह चक्‍कर जंगी सामान की विशाल पैदावार द्वारा लक्षित है, जो अधिकाधिक वह अकेला दायरा बन गया है जहाँ पूँजीवाद वैज्ञानिक तरीकों को लागू करता है और पैदावारी ताकतों का अधिक पूर्ण इस्‍तेमाल करता है। पूँजीवाद की पतनशीलता के दौर में मानवता अपनी ही काट-फ़ान्ट और तबाही के स्‍थायी चक्र में जीने को दंडित है।

पिछड़े देशों को पीसे दे रही भौतिक गरीबी विकसित देशों में सामाजिक सम्‍बन्‍धों के अपूर्व अमानवीयकरण में प्रतिध्‍वनित होती है, जो इस तथ्‍य का नतीजा है कि पूँजीवाद मानवता को अधिकाधिक कातिलाना युद्धों और अधिकाधिक नियोजित, सुसंगत और वैज्ञानिक शोषण भरे भविष्‍य के सिवा कुछ भी देने के काबिल नहीं। सभी पतनशील समाजों की तरह, यह पूँजीवाद की सामाजिक संस्‍थाओं, प्रग‍तिशील विचारों, नैतिक मूल्‍यों, कलाओं और दूसरी सांस्‍कृतिक अभिव्‍यक्तियों को बढ़ते सड़न की ओर ले गया है। फासीवाद और स्तालिनवाद जैसी विचारधाराओं का विकास क्रांतिकारी विकल्‍प की अनुप‍स्थिति में बर्बरता की जीत को प्रकट करता है।

 

4. राज्‍य पूँजीवाद

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सभी पतनशील दौरों में, व्‍यवस्‍था के गहराते अन्‍तर विरोधों का सामना होने पर, राज्‍य को सामाजिक संरचना की सम्‍बद्धता और प्रभावी पैदावारी रिश्‍तों को बरकरार रखने की जिम्‍मेदारी लेनी पड़ी है। इस प्रकार वह अपने को मजबूत बनाने, समूचे सामा‍जिक जीवन को अपने ढाँचे में समा लेने की ओर अग्रसर होता है। शाही प्रशासन और निरंकुश राजशाही का अफराता बढ़ाव क्रमश: रोमन दास समाज और सामन्‍तवाद की पतनशीलता के दौरान इसी तथ्‍य की अभिव्‍यक्ति थे।

पूँजीवाद की पतनशीलता के दौरान राज्‍य पूँजीवाद की ओर आम झुकाव सामाजिक जीवन का एक प्रभावी लक्षण है। आज हर राष्‍ट्रीय पूँजी, चूँकि वह निर्बाद्य रूप से नहीं फैल तथा उग्र साम्राज्‍यवादी होड़ के रूबरू है, अपने आपको अधिकतम संभव दक्षता से संगठित करने को बाध्‍य हो जाती है ताकि वह अपने बाहरी प्रतिद्वंदियों से आर्थिक तथा सैनिक होड़ ले सके और आन्‍तरिक रूप से सामाजिक अन्‍तरविरोधों की बढ़ती तीव्रता से निपट सके। समाज में राज्‍य ही वह एकमात्र शक्ति है जो यह काम करने में सक्षम है। सिर्फ राज्‍य ही -

  • केन्‍द्रीयकृत रूप से राष्‍ट्रीय अर्थव्‍यवस्‍था का चार्ज ले सकता है और अर्थव्‍यवस्‍था को कमज़ोर करती अन्‍दरूनी होड़ को कम कर सकता है ताकि विश्‍व मण्डी में होड़ के खिलाफ   संयुक्‍त मुहाज़ बनाए रखने की इसकी क्षमता को मज़बूत कर सके,  
  • बढ़ते अन्‍तर्राष्‍ट्रीय संघर्षों के सम्‍मुख उसके हितों की रक्षा के लिए आवश्‍यक फौजी ताकत का‍ विकास कर सकता है।
  • उत्रोतर भारी दमनात्‍मक और नौकरशाही ढाँचे के चलते समाज की अन्‍दरूनी सम्‍बद्धता बनाये रख सकता है जोकि उसकी आर्थिक नीवों के बढ़ते सड़न के चलते ढहन    के खतरे से ग्रस्‍त है। सिर्फ राज्‍य ही एक सर्वव्‍यापी हिंसा के जरिये एक ऐसे सामाजिक ढाँचे को बनाये रख सकता है जो मानवीय रिश्‍तों के स्‍वत:स्‍फुर्त नियमन के अधिकाधिक असक्षम है और जितना ही अधिक वह खुद समाज के अस्तित्‍व कि लिए बेमानी होता जाता है उतना ही अधिक उस पर प्रश्‍न चिन्‍ह लगाया जाता है।

आर्थिक स्‍तर पर राज्‍य पूँजीवाद की ओर यह झुकाव, जो कभी पूर्णतया चरितार्थ नहीं होता,  राज्‍य द्वारा पैदावारी ढ़ॉंचे के मुख्‍य बिन्‍दुओं पर कब्‍जे में प्रकट होता है। लेकिन इसका अर्थ मूल्‍य के सिद्धांत, होड़ तथा उत्‍पादन की अराजकता का लोप नहीं है जो कि पूँजीवादी अर्थव्‍यवस्‍था के बुनियादी लक्षण हैं। ये विशेषताएं विश्‍व स्‍तर पर लागू होती रहती हैं जहाँ अभी भी मार्केट के नियमों का बोलबाला होता है और जो अभी भी हर राष्‍ट्रीय अर्थव्‍यवस्‍था के अन्‍दर, चाहे वह कितनी भी राज्यीकृत क्‍यों न हो, पैदावारी हालतों का निर्धारण करते हैं। अगर मूल्‍य और होड़ के नियमों का ''उल्‍लंघन'' होता लगता है तो सिर्फ इस‍लिए कि विश्‍व स्‍तर पर वे और भी शक्तिशाली रूप से असर रखें। अगर राजकीय योजनाओं के सामने उत्पादन की अराजकता घटती दिखायी देती है तो वह विश्‍व स्‍तर पर और भी क्रूरता से पुन: प्रकट हो जाती है, खासकर व्‍यवस्‍था के गंभीर संकटों के दौरान जिन्‍हें रोकने में राज्‍य पूँजीवाद असमर्थ है। पूँजीवाद के वैज्ञानिक पुन:गठन का द्योतक होना तो दूर, राज्‍य पूँजीवाद उसकी सड़न की अभिव्‍यक्ति के सिवा और कुछ भी नहीं।

पूँजी का सरकारीकरण या तो प्राइवेट और सरकारी पूँजी के क्रमिक विलयन द्वारा होता है, जैसे आमतौर पर‍ ज्‍यादातर विकसित देशों की स्थिति ‍है, या ‍‍‍‍‍िफर ‍िवशाल और पूर्ण   राष्‍ट्रीयकरणों के रूप में आकस्मिक छलांगों के ‍जरिये, आमतौर पर ऐसी जगहों पर जहाँ प्राइवेट पूँजी कमजोर हो ।

राज्‍य पूँजीवाद की ओर झुकाव विश्‍व के यद्यपि सभी देशों में प्रकट होता है, व्‍यवहार में वह वहाँ, तब ज्‍यादा तेज और ज्‍यादा स्‍पष्‍ट होता है जहाँ पतनशीलता के प्रभाव अधिकतम क्रूरता से अपना असर डालते हैं, ऐतिहासिक रूप से खुले संकटों और युद्धों के दौर में, भौगोलिक‍ रूप से क्षीणतम अर्थव्‍यवस्‍थाओं में। परन्‍तु राज्‍य पूँजीवाद पिछड़े देशों का कोई विशिष्‍ट घटनाक्रम नहीं। इसके विपरीत, पिछडी  पूँजियों में औपचारिक सरकारीकरण का दर्जा बेशक ऊंचा हो, आर्थिक जीवन पर राज्‍य का नियन्‍त्रण अधिक विकसित राष्‍ट्रों में, पूँजी के केन्‍द्रीकरण का स्‍तर ऊंचा होने की वजह से, ज्‍यादा असरदार होता है।

राजनीतिक और सामाजिक स्‍तर पर राज्‍य पूँजीवाद की ओर ‍झुकाव की अभिव्‍यक्ति समस्‍त सामाजिक जीवन पर राज्‍य-यंत्र, खासकर कार्यकारिणी के बढ़ते शक्तिशाली, सर्वव्‍यापी और योजनाबद्ध नियंत्रण में होती है जिसका रूप चाहे फासीवाद अथवा स्‍टालिनवाद जैसे अतिउग्र एकाधिकारवाद का हो अथवा कोई जनवाद में छिपा रूप। सड़े-गले पूँजीवाद के तहत राज्‍य, पतनशील रोम अथवा सामंतवाद से कहीं बड़े पैमाने पर, एक राक्षसी, सर्द और बेगाना   मशीन बन गया है जिसने सिविल समाज के सारतत्‍व को निगल लिया है।

 

5. तथाकथित ‘‘समाजवादी देश’’

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राज्‍य के हाथ में पूँजी का केन्‍द्रीकरण करके, राज्‍य पूँजीवाद ने भ्रम पैदा कर दिया है कि पैदावारी साधनों का निजी स्‍वामित्‍व लुप्‍त हो गया है और पूँजीपति वर्ग को मिटा दिया गया है। ''एक देश में समाजवाद'' के स्तालिनवादी सिद्धांत की, ''समाजवादी'' अथवा ''कम्‍युनिस्‍ट'' देशों अथवा समाजवाद के ''रास्‍ते पर'' देशों के समस्‍त झूठों की जड़ इसी छलावे में हैं।

राज्‍य पूँजीवाद की ओर झुकाव द्वारा आये परिवर्तन बुनियादी पैदावारी संबंधो के स्‍तर पर नहीं, बल्कि सम्पत्ति के सिर्फ कानूनी रूप के स्‍तर पर मिलते हैं। वे पैदावारी साधनों के प्राइवेट मालिकाने को नहीं, बल्कि व्‍यक्ति के मालिकाने के कानूनी पहलू को मिटाते हैं। जहाँ तक मज़दूरों का ताल्‍लुक है, पैदावारी साधन प्राइवेट ही रहते हैं, मज़दूरों को उन पर नियंत्रण से वंचित रखा जाता है। सिर्फ अफसरशाही के लिए पैदावारी साधनों का 'सामूहीकरण' होता है, वह सामूहिक रूप से उनका स्‍वामित्‍व रखती एवं प्रबन्‍ध करती है।

राज्यकीय अफसरशाही, जो मज़दूर  वर्ग से अतिरिक्‍त श्रम निचोड़ने और राष्‍ट्रीय पूँजी के संचय का खास आर्थिक कार्य अपने ऊपर लेती है, एक वर्ग है। लेकिन वह एक नया वर्ग नहीं। उस द्वारा अदा रोल दिखाता है कि वह उसी पुराने पूँजीपति वर्ग के राज्‍यीकृत रूप के सिवा कुछ नहीं। वर्ग के रूप में राज्यकीय अफसरशाही के विशेषाधिकारों सम्‍बन्‍धी विशेष बात मूलत: यह तथ्‍य है कि वह अपने विशेषाधिकार पूँजी के व्‍यक्तिगत मालिकाने से आती आय में से नहीं पाती, बल्कि उसके सदस्‍यों को उनके कार्यभार के हिसाब से अदा खरचों, बोनस, तथा अदायगी के नियत रूपों द्वारा प्राप्‍त होते है - मेहनताने का एक ऐसा रूप जो सीधे ''मज़दूरी'' जैसा लगता है लेकिन जो मज़दूर  वर्ग की मज़दूरी से बहुधा दसियों और सैंकड़ों गुणा अधिक होता है।

राज्‍य और उसकी अफसरशाही द्वारा पूँजीवादी पैदावार का केन्‍द्रीयकरण और नियोजन शोषण को मिटाने की ओर एक कदम होना तो दूर, वह सिर्फ शोषण को बढ़ाने, उसे और कुशल बनाने का ही एक तरीका है।

आर्थिक स्‍तर पर रूस कभी भी पूँजीवाद को मिटाने में कामयाब नहीं हुआ, उस अल्‍पकाल में भी नहीं जब वहाँ राजनैतिक ताकत मज़दूर  वर्ग के हाथ में थी। वहाँ राज्‍य पूँजीवाद इतनी जल्‍दी अत्‍यधिक विकसित रूप में इसलिए प्रकट हुआ, क्‍योंकि पहले विश्‍वयुद्ध में हार से उत्‍पन्‍न रूस की आर्थिक छिन्‍न-भिन्‍नता, और ‍‍‍‍‍‍फिर गृहयुद्ध की अव्‍यवस्‍था ने, एक पतनशील विश्‍व व्‍यवस्‍था में राष्‍ट्रीय पूँजी के रूप में उसका जीना और भी मुहाल बना दिया था। रूस में प्रतिक्रांति की जीत ने अपने आपको अर्थव्‍यवस्‍था के ऐसे पुर्नगठन के रूप में व्‍यक्‍त किया ‍जिसने राज्‍य पूँजीवाद के अत्‍यधिक विकसित रूपों का प्रयोग किया और द्वेषपूर्ण तरीके से उन्‍हें ''अक्‍तूबर की निरंतरता'' तथा ''समाजवाद के निर्माण'' के रूप में पेश किया। इस उदाहरण का दूसरी जगह - चीन, पूर्वी यूरोप, क्‍यूबा, उत्‍तर कोरिया, हिन्‍द-चीन आदि में अनुसरण हुआ। परन्‍तु, इन देशों में कुछ भी मज़दूर  पक्षीय और कम्‍युनिस्‍ट नहीं। वे ऐसे देश हैं जहाँ, इतिहास के एक महाझूठ की आड़ में, पूँजी की तानाशाही अपने सर्वाधिक पतनशील रूप में राज करती है। इन देशों का कोई भी डिफेंस चाहे कितना भी ''आलोचनात्‍मक'' अथवा ''शर्तिया'' क्‍यों न हो, एक सरासर प्रति-क्रांतिकारी कार्यकलाप है।

 

6. पतनशील पूँजीवाद के तहत सर्वहारा संघर्ष

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शुरू से ही, सर्वहारा की अपने हितों की रक्षा की लड़ाई में पूँजीवाद को अन्‍तत: नष्‍ट करने और कम्‍युनिज्‍म की स्‍थापना करने का परिदृश्‍य निहित रहा है। लेकिन सर्वहारा अपने संघर्ष के अंतिम लक्ष्‍य का अनुसरण किसी दैवी प्रेरणा द्वारा निर्देशित, शुद्ध आदर्शवादवश नहीं करता। जिन भौतिक हालातों में उसकी तात्‍कालिक लड़ाई विकसित होती है वे मज़दूर  वर्ग को अपने कम्‍युनिस्‍ट कार्यभार संभालने की ओर बढ़ने को मज़बूर करते हैं, क्‍योंकि संघर्ष का कोई भी दूसरा तरीका सिर्फ अनर्थ की ओर ले जाता है।

पूँजीवाद व्‍यवस्‍था के चढ़ाव के दौर में, उसके व्‍यापक फैलाव के चलते,जब तक पूँजीपति वर्ग मज़दूर  वर्ग को वास्‍तविक सुधार दे सकता था, तब तक मज़दूर  संघर्षों द्वारा क्रांतिकारी प्रोग्राम हासिल करने के लिए आवश्‍यक वस्‍तुगत हालातों का अभाव था।

मज़दूर आन्‍दोलन की अत्‍यंत रेडिकल धाराओं द्वारा खुद पूँजीवादी इंकलाबों के दौरान अभिव्‍यक्‍त क्रांतिकारी और कम्‍युनिस्‍ट आकांक्षाओं के बावजूद, उस ऐतिहासिक दौर में मज़दूर  संघर्ष सुधारों की लड़ाई से आगे नहीं जा सकते थे।

19वीं सदी के अन्‍त की ओर, सर्वहारा की सरगर्मी का एक केन्‍द्र-बिन्‍दु यह सीखने की प्रक्रिया था कि ट्रेड यूनियनवाद एवं संसदवाद के जरिये आर्थिक और राजनीतिक सुधार जीतने के लिए अपने आपको कैसे संगठित किया जाए। इस तरह मज़दूर  वर्ग के असली वर्ग संगठनों में भी कई सुधारवादी तत्‍वों (वे जिनके लिए सारे संघर्ष मात्र सुधार हासिल करने का संघर्ष थे) के साथ-साथ क्रांतिकारी (वे जिनके लिए सुधारों की लड़ाई मज़दूर  वर्ग के संघर्षों को अन्‍तत: क्रांतिकारी लड़ाई की ओर ले जाने वाली प्रक्रिया में एक सीढ़ी, एक चरण थी) पाये जा सकते थे। इस दौर में मज़दूर वर्ग बुर्जुआजी के कुछ खास गुटों का दूसरे अधिक प्रतिक्रियावादी गुटों के खिलाफ समर्थन कर सकता था, ताकि उसके अपने और पैदावारी ताकतों के विकास के लिए फायदेमंद सामाजिक बदलावों को आगे बढ़ाया जा सके।

पतनशील पूँजीवाद के तहत थे सारे हालात बुनियादी परिवर्तनों में से गुजरे हैं। विश्‍व सभी मौजूदा राष्‍ट्रीय पूंजियों को अपने में समाने के लिए बहुत छोटा हो गया है। हर राष्‍ट्र में पूँजी उत्‍पादकता (यानी मज़दूरों के शोषण) को अति उग्र हद तक बढ़ाने को बाध्‍य है। इस शोषण को गठित करना अब सिर्फ मालिक और उसके श्रमिकों के बीच तय होने वाली बात नहीं रहा; वह राज्‍य का मामला बन गया है और मज़दूर  वर्ग को नियंत्रित रखने के लिए रचे सभी हजारों तरीके उसे निदेशित करते हैं, और किसी भी प्रकार के क्रांतिकारी खतरे से दूर ले जाते हैं - वे उसे एक योजनाबद्ध और घातक दमन का शिकार बनाते है।

मुद्रास्‍फी‍ति, जो पिछले विश्‍वयुद्ध के समय से एक स्‍थायी तथ्‍य है, मज़दूरी में प्रत्‍येक बढ़ोतरी को एकदम हड़प जाती है। कार्य-दिवस की लम्‍बाई या तो वही रही है और अगर उसे घटाया गया है तो सिरफ कार्य स्‍थल तक आने जाने के लिए जरूरी समय में हुई बढ़ोतरी की मात्र भरपाई के लिए तथा काम तथा जीवन की नाशकारी गति के तहत मज़दूरों के पूर्ण नरवस टूटन को टालने के लिए।

सुधारों के लिए संघर्ष एक निराशाजनक यूटोपिया बन गया है। इस युग में मज़दूर  वर्ग पूँजी के खिलाफ सिर्फ जिन्‍दगी और मौत की ही लड़ाई कर सकता है। मज़दूर  वर्ग के पास अब लाखों परास्‍त, दबे व्‍यक्तियों में विखडित होना स्‍वीकारने अथवा अपने संघर्षों का हर संभव व्‍यापीकरण कर उन्‍हें खुद राज्‍य के साथ टक्‍कर की ओर ले जाने के सिवा कोई विकल्‍प नहीं। इस तरह, उसे अपने संघर्षों को विशुद्ध आर्थिक, स्‍थानीय अथवा सेक्‍शनल स्‍तर तक सीमित रखने को अस्‍वीकार करना होगा। और खुद को अपनी सत्‍ता के भावी संगठनों - मज़दूरों कौंसिलों - के बीज रूप में गठित करना होगा।

इन नये ऐतिहासिक हालातों में मज़दूर  वर्ग के बहुत से पुराने हथियार अब और काम में नहीं लाये जा सकते। वास्‍तव में जो राजनैतिक धाराऐं उनके उपयोग की वकालत जारी रखे हैं, वे ऐसा सिर्फ मज़दूर  वर्ग को उसके शोषण से नत्‍थी करने एवं उसके संघर्ष के इरादे को कमजोर करने के लिए ही कर रही हैं।

19वीं सदी के मज़दूर आन्‍दोलन द्वारा न्यूनत्म प्रोग्राम तथा अधिकत्म प्रोग्राम में किया जाने वाला अन्तर अब बेमाने हो गया है। न्यूनत्म प्रोग्राम अब संभव नहीं रहा। सर्वहारा अपने संघर्षों को सिर्फ अधिकत्म प्रोग्राम -कम्‍युनिस्‍ट क्रांति - के परिदृश्‍य में रखकर ही आगे बढ़ा सकता है।

 

7. ट्रेड युनियनें : कल तक सर्वहारा के संगठन, आज पूँजी के औजार

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19वी सदी में पूँजीवाद के अधिकतम खुशहाली के दौर में मज़दूर वर्ग ने बहुधा कटु और खूनी संघर्षों के जरिये अपने आर्थिक हितों की रक्षा के लिए स्‍थायी ट्रेड संगठनो - ट्रेड यूनियनों - का निर्माण किया। इन संगठनों ने सुधारों के तथा मज़दूरों के जीवन हालातों की बेहतरी,  जिसके लिए व्‍यवस्‍था तब समर्थ थी, के संघर्ष में मूलभूत रोल अदा किया। ये संगठन वर्ग के पुनर्गठन, उसकी एकजुटता और चेतना के विकास के लिए केन्‍द्र बिन्‍दु भी बने, इसलिए क्रांतिकारी उनमें हस्‍तक्षेप कर सके ताकि ''कम्‍युनिज्‍म के स्‍कूलों'' की तरह काम करने में उनकी मदद कर सकें। इन संगठनों का अस्तित्‍व यद्यपि उजरती श्रम के अस्तित्‍व से अटूट रूप से जुड़ा हुआ था, और बेशक इस दौर में भी वे कई बार काफी नौकरशाहीकृत हो चुकी  थीं, तो भी, जहाँ तक मज़दूरी प्रथा का खात्‍मा अभी इतिहास के ऐजेंडे पर नहीं था,  यूनियनें  अभी मज़दूर  वर्ग के सच्‍चे संगठन थीं।

जैसे ही पूँजीवाद अपनी पतनशीलता के दौर में दाखिल हुआ, वह मज़दूर  वर्ग को और सुधार तथा राहतें देने के समर्थ नहीं रहा। मज़दूर  वर्ग के हितों की रक्षा का अपना आरंभिक काम पूरा करने की सारी संभावना खोकर, तथा एक ऐतिहासिक स्थिति, जिसमें उजरती श्रम का खात्‍मा और उसके साथ ट्रेड यूनियनों का लोप ऐजेंडे पर था, का सामना होने पर ट्रेड यूनियनें पूँजीवाद की सच्‍ची रक्षक तथा मज़दूर  वर्ग के अन्‍दर बुर्जुआ राज्‍य की ऐजेंसी बन गईं। इस नये दौर में यही एक तरीका है जिससे वे जिन्‍दा रह सकती हैं। पतनशीलता से पहले यूनियनों के नौकरशाहीकरण ने और पतनशीलता में सामाजिक जीवन के सब ढाचों को निगल लेने की ओर राज्‍य के निरन्‍तर झुकाव ने इस विकास को मदद पहुँचाई।

यूनियनों का मज़दूर विरोधी रोल पहली बार निर्णायक रूप से तब स्‍पष्‍ट हुआ जब पहले विश्‍वयुद्ध के दौरान उन्‍होंने सामाजिक जनवादी पार्टियों के साथ-साथ मज़दूरों को  सम्राज्यावादी कत्‍लेआम के लिए लामबन्‍द करने में मदद की। यूनियनों ने युद्ध के बाद की क्रांतिकारी लहर में, पूँजीवाद को नेस्‍तनाबूद करने की सर्वहारा की तमाम कोशिशों को दबाने के लिए हर संभव प्रयास किये। तब से वे मज़दूर  वर्ग द्वारा नहीं ब‍‍‍ल्‍कि राज्‍य द्वारा जिंदा रखी गईं हैं, उसके लिए वे अनेक महत्‍वपूर्ण कार्य करती हैं:

  • अर्थव्‍यवस्‍था को यु‍क्ति सम्‍मत बनाने, श्रमश‍क्ति की बिक्री को नियमित करने और शोषण को तेज करने की पूँजीवादी राज्‍य की कोशिशों में स‍क्रिय हिस्‍सा लेना।
  • हड़तालों तथा विद्रोहों को या तो सेक्‍शनल अंधीगली के कुराहे डाल कर, या ‍िफर स्‍वतंत्र आं‍दोलनों का खुले दमन से सामना करके मज़दूर संघर्ष में अन्‍दर से तोड़फोड़ करना।

क्‍योंकि यूनियनें अपना सर्वहारा चरित्र खो चुकी हैं, वे मज़दूर वर्ग द्वारा फिर से नही जीती जा सकती, और न ही वे क्रांतिकारी अल्‍पांशों का कार्य क्षेत्र बन सकती है। पिछली आधी सदी से मज़दूरों ने पूँजीवादी राज्‍य का अभिन्‍न अंग बन चुके इन संगठनों के कार्यकलापों में हिस्‍सा लेने की ओर निरन्‍तर घटती रुचि दिखायी है। जीवन की निरन्‍तर बदतर होती हालतों के खिलाफ मज़दूर  संघर्षों का झुकाव यूनियनों के बाहर और उनके खिलाफ चाणचक हड़तालों का रूप लेने की ओर रहा है। हड़तालियों की आम सभाओं द्वारा निर्देशित और ह्ड़तालों के आम होने की स्थिति में इन सभाओं द्वारा चुने तथा वापिस बुलाऐ जा सकने वाले नुमायन्दों की कमेटियों द्वारा सम‍‍‍न्‍वित, इन हड़तालों ने अपने को फौरन राजनैतिक जमीन पर स्‍थापित कर लिया क्‍योंकि वे फैक्‍ट्री में, उसके नुमाइन्‍दे ट्रेड यूनियनों के रूप में, राज्‍य का सामना करने को बाध्‍य थी। इन संघर्षों का आम फैलाव और उनका  जुझरुकर्ण ही वर्ग को रक्षात्‍मक धरातल से पूँजीवादी राज्‍य पर खुले तथा सीधे प्रहार की ओर जाने के योग्‍य बना सकता है; और पूँजीवादी राज्‍यसत्‍ता के विनाश में ड्रेड यूनियनों का विनाश भी ‍अनिवार्यता शामिल है।

पुरानी यूनियनों का मज़दूर  विरोधी चरित्र मात्र इस तथ्‍य का फल नहीं कि वे एक खास तरीके से (व्यवसाय के, उधोग के हिसाब से) संगठित हैं, या कि उनके नेता बुरे थे। वह इस तथ्‍य का परिणाम है कि वर्तमान दौर में मज़दूर  वर्ग अपने आर्थिक हितों की रक्षा के लिए स्‍थायी संगठन बरकरार नहीं रख सकता। नतीजन, इन संगठनों की पूँजीवादी वृति उन सब ''नये'' संगठनों पर भी लागू होती है जो वैसा ही रोल अदा करते है, ‍िफर इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि वे कैसे गठित है और उनकी शुरूआती मंशाएं क्‍या थी। यही स्थिति ''क्रांतिकारी यूनियनों'', ''शापस्‍टीवर्ड'' तथा मज़दूर समितियों और मज़दूर कमीशनों जैसे उन निकायों की भी है जो संघर्ष के बाद - यूनियनों के विरोध तक में - अस्तित्‍व में रहते हैं  तथा अपने को मज़दूरों के फौरी हितों की रक्षा के ''असली'' केन्द्र के रूप में स्‍था‍पित करने की कोशिश करते हैं। इस आधार पर ये संगठन बुर्जआ राज्‍ययंत्र में मिलाये जाने से नहीं बच सकते फिर यह चाहे अनौपचारिक तथा गैरकानूनी तरीके तक से क्यों न हो।

ट्रेड यूनियन टाइप संगठनों को ''प्रयोग् करने'', ''पुनर्जीवित करने'' अथवा "फिर जीतने" की ओर लक्षित सभी राजनीतिक रणनीतियॉं सिर्फ पूँजीवाद के हितों की ही सेवा करती हैं, क्‍योंकि वे ऐसी पूँजीवादी संस्‍थाओं को जिलाने की कोशिश करती हैं जिन्‍हें मज़दूर  बहुधा पहले ही छोड़ चुके होते हैं। इन संगठनों के मज़दूर  विरोधी चरित्र के पचास से भी अधिक सालों के तजरूबे के बाद, इन रणनीतियों की वकालत करती प्रत्‍येक पोजीशन मौलिक रूप से गैर-सर्वहारा है।

 

8. संसद और चुनावों का छलावा

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पूँजीवाद के चढ़ाव के दौर में, संसद बुर्जआजी के राजनैतिक जीवन को संगठित करने का सर्वाधिक उपयुक्‍त रूप थी। विशेष रूप से एक पूँजीवादी संस्‍था होने के नाते, यह कभी भी मज़दूर वर्ग की गतिविधि के लिए प्रमुख क्षेत्र नहीं रही। संसदीय गतिविधि और चुनावी अभियानों में सर्वहारा की हिस्‍सेदारी में कई वास्‍तविक खतरे निहित थे, और पिछली सदी के क्रांतिकारियों ने वर्ग को उनके प्रति सदैव सजग किया। फिर भी, एक ऐसे दौर में, जब क्रांति अभी ऐजेंडे पर नहीं थी और जब सर्वहारा व्‍यवस्‍था के अन्‍दर से ही सुधार छीन सकता था, संसद में हिस्‍सेदारी वर्ग को इस चीज़ की इजाजत देती थी कि वह उसे सुधारों के लिए दबाव डालने के लिए, तथा चुनावी अभियानों का सर्वहारा प्रोग्राम के प्रचार और आन्‍दोलन के साधन के रूप में, और संसद को बुर्जआ राजनीति की नीचता की निंदा करने के मंच की तरह प्रयोग करे। इसलिए, पूरी 19वीं सदी में बहुत से देशों में सार्विक मताधिकार की लड़ाई एक अहम मुददा थी जिसके लिए मज़दूर संगठित होते थे।

जब पूँजीवाद अपनी पतनशीलता के दौर में दाखिल हुआ, तो संसद सुधारों का औजार नहीं रही। जैसे कि दूसरी इन्‍टरनेशनल की दूसरी कांग्रेस ने कहा, ''राजनीतिक जीवन का गुरुत्‍व केन्‍द्र अब सदा सर्वदा के लिए संसद के दायरे से पूर्णत: बाहर चला गया है।'' तबसे संसद सिर्फ एक ही रोल अदा कर सकती थी, सिर्फ एक ही काम उसे जिंदा रखे था, और वह था छलावे के औजार के रूप में उसका रोल। इस प्रकार सर्वहारा द्वारा संसद को किसी तरह प्रयोग करने की सभी संभावनाएं खत्‍म हो गईं। वर्ग समस्‍त राजनीतिक उपयोग खो चुके एक संगठन से असंभव सुधार हासिल नहीं कर सकता। एक ऐसे वक्‍त जब वर्ग का बुनियादी कार्यभार बुर्जुआ राज्‍य के सभी संस्‍थानों और इसलिए संसद का ध्‍वंस करना है; जब उसे सार्विक-मताधिकार के खंडरों और बुर्जुआ समाज के अन्‍य अवशेषों पर खुद अपनी तानाशाही स्‍थापित करनी होगी, संसदीय और चुनावी संस्‍थानों में कोई भी हिस्‍सेदारी इन मरणासन्‍न संस्‍थाओं को, ऐसी गतिविध के वकीलों की मंशा चाहे जो हो, जीवनदान का अभास देने की ओर ही ले जा सकती है।

अब चुनावों और संसद में भागीदारी से ऐसा कोई भी फायदा नहीं जो पिछली सदी में उससे था। इसके विपरीत, यह खतरों से भरा है। खासकर तथाकथित मज़दूर पार्टियों के संसदीय बहुमत जीतने पर समाजवाद की ओर ''शांतिपूर्ण'' और ''क्रमिक'' संक्रमण की संभावनाओं के भ्रमों को जिंदा रखने का खतरा।   

''क्रांतिकारी'' प्रतिनिधियों का प्रयोग करके ''संसद को अंदर से ध्वस्त'' करने की रणनीति ने निश्‍चित रूप से यह साबित कर दिया है कि इस रणनीति का उसमें लगे राजनीतिक संगठनों के भ्रष्‍टीकरण और उनके पूँजीवाद में समा लिये जाने के सिवा कोई फल नहीं हो सकता।

अन्‍त में, इस प्रकार की गतिविधि मूलत: विशेषज्ञों का काम है, आम जनता की स्‍वत: गतिविधि के बजाय पार्टियों की तिकड़मों का अखाड़ा है; इस लिए चुनावों और् संसदों का आन्‍दोलन तथा प्रचार के लिये प्रयोग पूँजीवादी समाज की राजनीतिक मान्‍यतओं को जिन्दा  रखने तथा मज़दूर वर्ग में निष्क्रियता को बढ़ावा देने की ओर ले जाता है। ऐसा घाटा अगर तब स्‍वीकार्य था जब क्रां‍ति की कोई फौरी संभावना नहीं थी, ऐसे दौर में वह एक निर्णायक रुकावट बन गया है जब सर्वहारा के लिए ऐतिहासिक ऐजेंडे पर ठीक पुराने समाज को उलटने और कम्‍युनिस्‍ट समाज की रचना का एक मात्र कार्यभार है, जो कि सारे वर्ग की सक्रिय और सचेत भागीदारी की मॉंग करता है।

शुरू में ''क्रांतिकारी संसदवाद'' की कार्यनीति अगर वर्ग और उसके संगठनों पर विगत के असर की अभिव्‍यक्ति थी, तो ऐसी कार्यनीति के भयंकर परिणाम दिखाते हैं कि वह गंभीर रूप से पूँजीवादी है।

 

9. मोर्चों की नीति : सर्वहारा को पटरी से उतारने की रणनीति

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पतनशील पूँजीवाद के तहत, जब सिर्फ सर्वहारा इंकलाब ही ऐतिहासिक रूप से प्रगतिशील है, क्रांतिकारी वर्ग और शासक वर्ग के किसी भी गुट, वह चाहे कितना भी ''प्रगतिशील', ''जनवादी'' अथवा "लोकप्रिय" होने का दावा करे, के बीच क्षणिक रूप से भी कोई कार्यभार सॉंझे नहीं हो सकते। पूँजीवाद के चढ़ाव के दौर के विपरीत, व्‍यवस्‍था की पतनशीलता किसी भी पूँजीवादी गुट के लिए प्रगतिशील रोल अदा करना असंभव बना देती है। विशेषत: पूँजीवादी जनतंत्र, जो 19वीं सदी में सामंतवाद के अवशेषों की तुलना में प्रगतिशली राजनीतिक रूप था, पूँजीवाद की पतनशीलता के दौर में समस्‍त वास्‍तविक राजनीतिक सार खो चुका है। पूँजीवादी जनतंत्र राज्‍य की मजबूत होती सर्वाधिकारवादी ताकत को छिपाते भ्रामक पर्दे का काम करता है, और उसकी वकालत करते पूँजीवादी गुट भी अपने बाकी वर्ग जितने ही प्रतिक्रियावादी हैं।

पहले विश्‍वयुद्ध से ''प्रजातन्त्र'' सर्वहारा के लिए घातक अफीम साबित हुआ है। बहुत से यूरोपीय देशों में युद्ध उपरांत शुरू हुए इन्‍कलाबों को ''प्रजातन्त्र'' के नाम पर ही कुचला गया; ''फासीवाद विरोध'' और ''प्रजातन्त्र'' के नाम पर ही करोड़ों मज़दूरों को दूसरे साम्राज्यावादी युद्द के लिए लामबंद किया गया; और आज ‍िफर पूँजी ''प्रजातन्त्र'' के नाम पर ही सर्वहारा संघर्षों को ''फासीवाद विरुध'',  ''प्रतिक्रिया विरुध'', ''सर्वाधिकारवाद'' के विरुध गठबन्धनों से गुमराह करने की कोशिश कर रही है।

क्‍योंकि फासीवाद एक ऐसे दौर की उत्पति था जब सर्वहारा पहले ही कुचला जा चुका था, आज वह कतई ऐजेडें पर नहीं है, और "फासीवादी खतरे" विषयक सब प्रचार महज़ छलावा हैं। फिर दमन पर फासीवाद का कोई एकाधिकार नहीं है और जनवादी तथा वामपक्षी राजनीतिक धाराएं अगर फासीवाद को दमन के साथ मिलाती हैं तो इसलिए क्‍योंकि वे छिपाना चाहती हैं कि वे खुद दमन की सबसे द़ृढ व्यवसायी हैं और कि वर्ग के क्रांतिकारी आन्‍दोलनों को कुचलने का मुख्‍य भार सदा उन्‍हीं ने वहन किया है।

''लोकप्रिय मोर्चों'' और ''फासीवाद विरोधी मोर्चों'' की तहर ''संयुक्‍त मोर्चें'' की कार्यनीति भी सर्वहारा संघर्ष को विपथ करने का एक मुख्‍य हथियार साबित हुई है। जो कार्यनीति यह वकालत करती है कि क्रांतिकारी संगठन इन तथाकथित मज़दूर पार्टियों के साथ गठजोड़ का अवाहन करें ताकि उन्हें एक कोने में धकेल कर नंगा किया जा सके, वह इन पूँजीवादी पार्टियों के "सर्वहारा" चरित्र विषयक भ्रमों को बनाये रखने और उनसे मज़दूरों के अलगाव को टालने में ही कामयाब हो सकती है।

समाज के अन्‍य सभी वर्गों के समक्ष सर्वहारा की स्‍वायतत्ता उसके संघर्षों को क्रांति की ओर बढ़ाने की पहली पूर्व शर्त है। दूसरे वर्गों अथवा तबकों, और खासकर बुर्जुआजी के गुटों के साथ सभी गठजोड़ मज़दूर  वर्ग को अपने दुश्‍मन के सामने निहत्‍था करने की ओर ही ले जा सकते हैं, क्‍योंकि ये गठजोड़ उससे वह एकमात्र धरातल - उसका अपना वर्ग धरातल - छुड़वाते हैं जिस पर वह अपनी श‍‍क्‍ति बढ़ा सकता है। वर्ग से वह धरातल छुड़वाने की कोशिश करती कोई राजनीतिक धारा सीधे बुर्जुआजी के हितों की सेवा कर रही है।

 

10 राष्‍ट्रमु‍क्ति का प्रतिक्रांतिकारी मिथक

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राष्‍ट्रमु‍क्ति और नये राष्‍ट्रों का गठन कभी भी सर्वहारा का अपना विशिष्‍ट कार्यभार नहीं रहा। अगर 19वीं सदी में क्रांतिकारियों ने अनेक राष्‍ट्रीय मु‍क्ति आन्‍दोलनों का समर्थन किया तो उन्‍हें उनके बुर्जुआ आन्‍दोलनों के सिवा कुछ होने का भ्रम नहीं था; न ही उन्‍होंने अपना समर्थन ''राष्‍ट्रों के आत्‍मनिर्णय के हक'' के नाम पर दिया। उन्‍होंने ऐसे आंदोलनों का समर्थन किया, क्‍योंकि पूँजीवाद के चढ़ाव की अवस्‍था में राष्‍ट्र पूँजीवाद के विकास के लिए सबसे उपयुक्‍त ढ़ॉंचे का प्रतिनिधित्‍व करता था और पूर्व पूँजीवादी सामा‍जिक संबंधों के बंधनकारी अवशेषों को मिटा कर नये राष्‍ट्रीय राज्‍यों की स्‍थापना, विश्‍व स्‍तर पर पैदावारी ताकतों के विकास और इस‍लिए समाजवाद के लिए जरूरी हालातों के परिपक्‍वन की ओर एक कदम थी।

पूँजीवाद जब पतन के युग में दाखिल हुआ, तो समस्‍त उत्‍पादन संबंधों के साथ-साथ राष्‍ट्र भी उत्‍पादन शक्तियों के विकास के लिए बहुत तंग हो गये। आज, ऐसे हालात में जब सबसे पुराने और ताकतवर राष्‍ट्र भी विकास के असक्षम हैं, नये राष्‍ट्रों का कानूनी गठन किसी वास्‍तविक प्रगति की ओर नहीं ले जाता। सम्राज्यावादी गुटों के बीच बंटी दुनिया में हर "राष्‍ट्रीय मु‍क्ति" संघर्ष, किसी प्रगतिशील चीज का सूचक होने के बजाय, प्रतिद्वंद्धी सम्राज्यावादी गुटों के निरंतर संघर्ष में सिर्फ एक चरण ही हो सकता है, जिसमें मज़दूर  और किसान, स्‍वेच्‍छा या जबर्दस्‍ती भर्ती, गोले-बारूद की तरह ही हिस्‍सा लेते हैं।

इस तरह के संघर्ष किसी भी तरह ''सम्राज्यवाद को कमजोर'' नहीं करते क्‍योंकि वे उसको उसकी जड़ों - पूँजीवादी पैदावारी रिश्‍तों - पर चुनौती नहीं देते। अगर वे एक सम्राज्यावादी गुट को कमजोर करते हैं तो सिर्फ दूसरे को मजबूत बनाने के लिए; तथा इन संघर्षों में स्‍थापित नये राष्‍ट्रों को खुद भी सम्राज्यावादी बनना होगा क्‍योंकि पतनशीलता के युग में कोई भी छोटा-बड़ा  देश सम्राज्यावादी नीतियों में लगने से बच नहीं सकता।

वर्तमान युग में ''राष्‍ट्रीय मु‍क्ति'' के सफल संघर्ष का अर्थ संबंधित देश के सम्राज्यावादी आकाओं में परिवर्तन ही हो सकता है; मज़दूरों के लिए, खासकर नये ''समाजवादी'' देशों में, इसका अर्थ राज्‍यीकृत पूँजी द्वारा शोषण को तेज, योजनाबद्ध ओर फौजीकृत बनाना है, और राज्‍यीकृत पूँजी क्‍योंकि व्‍यवस्‍था की बर्बरता की अभिव्‍य‍क्ति है वह ''मुक्‍त'' हुए राष्‍ट्र का यातना शिविर में रूपान्‍तरण करने की ओर बढ़ती है। कतिपय लोगों के दावों के विपरीत, ये संघर्ष तीसरी दुनियॉं के सर्वहारा को वर्गसघर्ष के लिए उछालपट मुहैया नहीं करते। मज़दूरों को देशभ‍क्ति के छलावों के नाम पर राष्‍ट्रीय पूँजी के पीछे लामबंद करके ये संघर्ष सदा सर्वहारा संघर्ष, जो ऐसे देशों में बहुधा अत्‍यधिक कटु होते हैं, के रास्‍ते में रुकावट का काम करते हैं। कम्‍युनिस्‍ट इन्‍टरनेशनल के कथनों के विपरीत, पिछले पचास से अधिक वर्ष के इतिहास ने, यह बहुतेरा दिखा दिया है कि ''राष्‍ट्रीयमु‍क्ति'' के ये संघर्ष, न तो विकसित और न ही पिछड़े देशों के मज़दूरों के संघर्ष की प्रेरक शक्ति का काम नहीं करते हैं। इन संघर्षों में से किसी को भी कुछ मिलने का नहीं, कोई कैम्‍प चुनने का नहीं। तथाकथित ''राष्‍ट्रीय मुक्ति'' के रूप में सजे-धजे ''राष्‍ट्रीय प्रतिरक्षा'' के इस आधुनिक संस्करण के खिलाफ संघर्ष में एक मात्र क्रांतिकारी  नारा वही हो सकता है जो क्रांतिकारियों ने प्रथम विश्‍वयुद्ध के दौरान लगाया था - क्रांतिकारी पराजयवाद, ''सम्राज्यावादी जंग को गृहयुद्ध में बदल दो''। इन संघर्षों के ''बिलाशर्त'' अथवा 'आलोचनात्‍मक' समर्थन की कोई भी पोजीशन चाहे-अनचाहे पहले विश्‍वयुद्ध के सामाजिक अंधराष्‍ट्रवादियों जैसी है। इस तरह यह सुसंगत कम्‍युनिस्‍ट गतिविधि के पूर्णत: बेमेल है।

 

11. सेल्‍फ मेनेजमेंट: मज़दूरों का स्‍वशोषण

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अगर खुद राष्‍ट्रीय राज्‍य पैदावारी शक्तियों के लिए बहुत ही संकीर्ण ढॉंचा बन गया है, तो एक उद्यम के लिए यह और भी सच है, जिसे पूँजीवाद के आम नियमों से कभी भी वास्‍तविक स्‍वायत्तता नहीं थी; पतनशील पूँजीवाद के तहत एक उद्यम उन नियमों और राज्‍य पर और भी अधिक निर्भर करते हैं। इसलिए सेल्‍फ मेनेजमेंट (एक समाज के पूँजीवादी रहते मज़दूरों द्वारा उधमों का प्रबन्ध) की बात, जो ‍पिछली सदी में, जब प्रूंदोंवादी धाराएँ उसकी वकालत कर रहीं थी, एक निम्‍न पूँजीवादी यूटोपिया थी, आज वह पूँजीवादी छलावे के सिवा कुछ नहीं।

वह पूँजी का एक आर्थिक ‍हथियार है क्‍योंकि वह खुद मज़दूरों द्वारा उनका शोषण संगठित करवा कर उन्‍हें संकटग्रस्‍त उद्यमों की जिम्‍मेदारी लेने को राजी करने की कोशिश करता है।

वह प्रतिक्रांति का एक राजनीतिक हथियार है क्‍योंकि यह:

  • मज़दूरों को कारखानों, इलाकों और सेक्‍टरों में सीमाबद्ध और अलग-थलग करके उन्‍हें बॉंटता है ।
  • मज़दूरों पर पूँजीवादी अर्थव्‍यवस्‍था की चिंताऐं लादता है जबकि उनका एकमात्र कार्यभार उसका ध्‍वंस करना है।
  • सर्वहारा को उस बुनियादी कार्यभार से हटाता है जो उसकी मुक्ति की संभावना निर्धारित करता है - पूँजी के राजनीतिक यंत्र का विनाश और विश्‍व पैमाने पर अपनी वर्गीय तानाशाही की स्‍थापना।

सिर्फ विश्‍वव्‍यापी स्‍तर पर ही सर्वहारा वास्तव में उत्‍पादन का प्रबन्ध संभाल सकता है, लेकिन वह ऐसा पूँजीवादी नियमों के ढाँचे में नहीं उनका विनाश करके करेगा।

जो भी राजनीतिक पोजीशन सेल्‍फ मेनेजमेंट का पक्ष लेती है (चाहे वह ''मज़दूर वर्गीय अनुभव'' अथवा मज़दूरों के बीच ''नये रिश्‍ते'' स्‍थापित करने के नाम पर यह करे), वास्‍तव में, वह वस्‍तुगतरूप से पूँजीवादी पैदावारी रिश्‍तों को बनाये रखने में हिस्‍सा लेती है।

 

12. आंशिक संघर्ष: एक प्रतिक्रियावादी अन्‍धीगली

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पूँजीवाद की पतनशीलता ने पूँजीवाद के सभी नैतिक मूल्‍यों के सड़न को प्रबल बना दिया है और वह सभी मानवीय रिश्‍तों को गहरी अधोगति की ओर ले गया है ।

बेशक यह सच है कि सर्वहारा क्रांति जीवन के हर क्षेत्र में नये रिश्‍तों को जन्‍म देगी, लेकिन यह सोचना गलत है कि जातिवाद, औरतों की स्थिति, प्रदूषण, लैंगिकता और दैनिक जीवन के अन्‍य पहलुओं जैसी आंशिक समस्‍याओं के गिर्द संघर्ष संगठित करके क्रांति में योगदान देना संभव है।

पूँजीवाद के आर्थिक आधारों के खिलाफ संघर्ष पूँजीवादी समाज के ऊपरी ढाँचे सम्‍बन्‍धी सभी पहलुओं के खिलाफ संघर्ष को अपने में समेटे है, लेकिन इसके विपरीत सच नहीं। अपनी अन्‍तरवस्‍तु के चलते आंशिक लड़ाईयॉं सर्वहारा की अत्‍यावश्‍यक स्‍वायत्तता को सुदृढ़ बनाना तो दूर्, इसके विपरीत वे सर्वहारा को ऐसी उलझी हुई श्रेणियों (जाति, सेक्‍स, युवजन आदि) के पुंज में क्षीण करने की ओर ले जाती हैं जो इतिहास के समक्ष पूर्णत: नि:सहाय ही हो सकता है। इसलिए बुर्जुआ सरकारों और राजनीतिक पार्टियों ने उन्‍हें अपने में मिलाना और व्‍यवस्‍था को बनाये रखने के लिए लाभदायक ढंग से प्रयोग करना सीख लिया है।

 

13 “मज़दूर” पार्टियों का प्रतिक्रांतिकारी चरित्र

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वे सभी पार्टियॉं और संगठन पूँजी के ऐजेन्‍ट हैं, जो आलोचनात्‍मक अथवा सशर्त रूप से ही सही, कुछ खास बुर्जुआ राज्‍यों और गुटों का कुछ अन्‍यों के खिलाफ बचाव करते हैं (बेशक 'समाजवाद', 'जनवाद', 'फासीवाद विरोध', 'राष्‍ट्रीय आजादी', 'छोटी बुराई', अथवा 'संयुक्‍त मोर्चे' के नाम पर); तथा जो बुर्जुआ चुनावी तिकड़मों, यूनियनों की मज़दूर विरोधी गतिविधियों और सेल्‍फ मेनेजमेन्‍ट के छलावों में किसी प्रकार का हिस्‍सा लेते हैं। ''समाजवादी'' अथवा ''कम्‍युनिस्‍ट पार्टियों'' की खासकर यही स्थिति है। पहलों ने, पहले विश्‍वयुद्ध के दौरान राष्‍ट्रीय प्रतिरक्षा  में हिस्‍सा लेकर समस्‍त सर्वहारा चरित्र पूर्ण रूप से खो दिया, युद्ध के बाद उन्‍होंने अपने आपको क्रांतिकारी मज़दूरों के पक्‍के जल्‍लादों के रूप में प्रकट किया। अन्‍तरराष्‍ट्रीयतावाद, जो समाजावादियों से उनके अलग होने का आधार रहा था, को त्‍यागने के बाद दूसरे (कम्‍युनिस्‍ट) भी पूँजी के कैम्‍प में चले गये। ''एक देश में समाजवाद''  के‍ सिद्धांत को स्‍वीकार करके, जो बुर्जुआ कैम्‍प में उनके निर्णयक गमन का सूचक था, और ‍िफर दूसरे विश्‍वयुद्ध के दौरान अपने राष्‍ट्रीय पूँजीपतियों की पुन: सशस्‍त्र होने की कोशिशों, ''पापुलर मोर्चों'', ''प्रतिरोध'' और युद्ध के बाद ''राष्‍ट्रीय पुन:निर्माण'' में हिस्‍सा लेकर, कम्‍युनिस्‍ट पार्टियों ने अपने आपको राष्‍ट्रीय पूँजी के वफादार नौकरों और प्रतिक्रांति के शुद्धतम अवतारों के रूप में प्रकट किया।

तमम माओवादी, ट्राटस्‍कीवादी, अथवा आधिकारिक अराजकतावादी धाराएँ जो या तो सीधे इन पार्टियों से आती हैं या उनकी अनेक पोजीशनों (तथाकथित "समाजवादी" देशों, ''फासीवाद विरोधी'' गठजोड़ो का पक्ष) का बचाव करती हैं, वे भी उसी कैम्‍प से सम्‍बन्‍ध रखती है जिससे ये पार्टियाँ : यानी पूँजी का कैम्‍प। उनके असर का कम होना या उन द्वारा गरमा-गरम भाषा के प्रयोग के ‍तथ्‍य उनके प्रोग्राम के पूँजीवादी चरित्र को नहीं बदलते, लेकिन वे उन्‍हें वाम की बड़ी पार्टियों के दलालों और स्थन्नापंनों के रूप में काम करने की इजाजत जरूर देते है।

 

14. विश्‍व सर्वहारा की पहली महान क्रांतिकारी लहर

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पहले विश्‍व युद्ध ने पूँजीवाद के पतनशीलता की अवस्‍था में प्रवेश को सूचित करने के साथ ही यह भी दिखा दिया कि सर्वहारा इंकलाब के लिए वस्‍तुगत हालात परिपक्‍व हो चुके हैं। युद्ध की प्रतिक्रिया में उभरी जो क्रांतिकारी लहर सारे रूस और यूरोपभर में गरजती रही, जिसने दोनों अमेरिका में अपनी छाप छोड़ी और चीन में प्रतिध्‍वनि पाई, वह इस प्रकार विश्‍व सर्वहारा द्वारा पूँजीवाद के विनाश का अपना ऐतिहासिक कार्यभार पूरा करने का पहला प्रयास बनी। 1917 और 1923 के बीच अपने संघर्ष के शिखर पर, सर्वहारा ने रूस में सत्ता हासिल की, जर्मनी में जनविद्रोह किये और इटली, हंगरी तथा आस्‍ट्रीया को उनकी नीवों तक हिला दिया। क्रांतिकारी लहर ने अपने आपको, बेशक थोड़ी कम मजबूती से, स्‍पेन, इंगलैंड, उत्तरी और दक्षिणी अमेरिका में भी कटु संघर्षों में व्‍यक्‍त किया। अर्न्‍तराष्‍ट्रीय स्‍तर पर मज़दूर  वर्ग की हारों के एक लम्‍बे सिलसिले के बाद, 1927 में चीन में शंघाई तथा कैंटन के मज़दूर  विद्रोह के कुचले जाने ने, अंत में क्रांतिकारी लहर की दुखद असफलता को सूचित किया। इसलिए रूस के अक्‍तूबर 1917 के इंकलाब को वर्ग के इस विशाल आंदोलन की एक अति महत्‍वपूर्ण अभिव्‍य‍‍‍क्ति के रूप में ही समझा जा सकता है, न कि ऐसे ''बुर्जुआ'', ''राज्‍य पूँजीवादी'', ''दोहरे'' अथवा ''स्थायी इंकलाब'' के रूप में जो सर्वहारा को किसी तरह से उन  ''बुर्जुआ जनवादी'' कार्यभारों को पूरा करने को बाध्‍य करता है जिन्‍हें पूरा करने में खुद पूँजीपति वरग असक्षम था।

1919 में तीसरे इंटरनेशनल (कम्‍युनिस्‍ट इंटरनेशनल) की रचना, जिसने दूसरे इंटरनेशनल की उन पार्टियों से अपने को अलग कर लिया साम्राज्यवादी जंग में जिनकी भागीदारी ने उनके बुर्जुआ कैम्‍प में गमन को सूचित किया था, भी समान रूप से इस क्रांतिकारी लहर का हिस्‍सा थी। दूसरे इंटरनेशनल से टूटे क्रांतिकारी वाम का अभिन्‍न अंग, बोलशेविक पार्टी ने ''साम्राज्यवादी जंग को गृहयुद्ध में बदल दो'',  ''पूँजीवादी राज्य का नाश करो'', "सारी सत्ता सोवियतों को दो" के नारों में व्‍यक्‍त स्‍पष्‍ट राजनीतिक पोजीशनें लेकर, और तीसरे इंटरनेशनल की रचना में निर्णायक भाग लेकर क्रांतिकारी प्रक्रिया में बुनियादी योगदान दिया, और वह उस वक्‍त विश्‍व सर्वहारा का वास्‍तविक अगुवा दस्‍ता थी।

यद्यपि रूस में इंकलाब का और तीसरे इंटरनेशनल, दोनों का अध:पतन मौलिक रूप से दूसरे देशों में क्रांतिकारी प्रयास के कुचले जाने तथा क्रांतिकारी लहर के आम समापन का परिणाम था, ‍िफ‍र भी अध:पतन की इस प्रक्रिया तथा सर्वहारा की अर्न्‍तराष्‍ट्रीय हारों में बोलशेविक पार्टी द्वारा अदा रोल को समझना भी उतना ही जरूरी है, क्‍योंकि बाकी पार्टियों की कमजोरी के कारण वह तीसरे इन्‍टरनेशनल का मार्गदर्शक आलोक थी। उदाहरण के लिए, क्रोंसडेट विद्रोह को कुचलने ‍‍तथा तीसरे इन्‍टरनेशनल के वाम के विरोध के बावजूद ''यूनियनों को जीतने'', ''क्रांतिकारी संसदवाद'' और ''संयुक्‍त मोर्चें'' की नीतियों की अपनी वकालत के कारण, क्रांतिकारी लहर को खत्‍म करने में बोलशेविकों का प्रभाव और जिम्‍मेदारी भी उस लहर के शुरुआती विकास में उनके योगदान से कम नहीं।

स्‍वयं रूस में प्रतिक्रांति न सिर्फ 'बाहर' से ब‍‍‍ल्‍कि 'अन्‍दर' से और खासकर उन राजनैतिक ढ़ॉंचों के जरिये आई जिन्‍हें बोलशेविक पार्टी ने स्‍थापित किया था और जिनके साथ वह घनिष्‍ठ रूप से जुड़ गयी थी। अक्‍तूबर 1917 में रूस में सर्वहारा की, तथा एक नए ऐतिहासिक दौर के समक्ष समान्‍यत: मज़दूर आंदोलन की अपरिपक्‍वता के मद्देनज़र जो स्‍वभाविक गलतियॉं थी वे तब से प्रतिक्रांति के लिए एक आड़, एक वैचारिक राजनीतिक सफाई बन गई, और उन्‍होंने उसमें एक महत्‍वपूर्ण कारक का काम किया। फिर भी रूस में युद्धोत्तर क्रांतिकारी लहर तथा क्रांति के पतन, तीसरे इंटरनेशनल तथा बोलशेविक पार्टी के अध:पतन और एक समय बाद उस द्वारा अदा प्रतिक्रांतिकारी रोल, इन सब को तभी समझा जा सकता है अगर इस लहर को तथा तीसरे इन्‍टरनेशनल को, रूस में उनकी अभि‍व्‍य‍‍क्ति समेत, सर्वहारा आन्‍दोलन की सच्‍ची अभिव्‍य‍‍‍क्तियाँ माना जाए। दूसरी हर व्‍याख्‍या सिर्फ उलझन की ओर ही ले जा सकती है और इन उलझावों की रक्षा करती धाराओं को वास्‍तव में अपने क्रांतिकारी कार्यभार पूरे करने से रोकेगी।

वर्ग के इन तजरूबों का अगर कोई 'भौतिक' लाभ नहीं भी बचा, उनके चरित्र की सिर्फ इस समझदारी से शुरू करके ही उनसे वास्‍तविक और महत्‍वपूर्ण सैद्धांतिक फायदे उठाये जा सकते हैं। खासकर, मज़दूर वर्ग द्वारा (1871 के पेरिस कम्‍यून में प्रतिबिम्बित क्षणिक और निर्भीक प्रयास और बाबेरिया तथा हंगरी के 1919 के निष्फल अनुभवों के सिवा) राजनैतिक ताकत छीनने के एकमात्र ऐतिहासिक उदाहरण के रूप में, अक्‍तूबर 1917 की क्रांति ने क्रांतिकारी संघर्ष की दो अति महत्‍वपूर्ण समस्‍याओं - क्रांति की विषयवस्‍तु और क्रांतिकारियों के संगठन की प्रकृति - को समझने के लिए कई सारे बेशकीमती सबक छोड़े हैं।

 

15. सर्वहारा की तानाशाही

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मज़दूर वर्ग द्वारा विश्‍व स्‍तर पर राजनैतिक ताकत छीनने, पूँजीवादी समाज के क्रांतिकारी रूपान्‍तरण की पहली स्‍टेज और प्राथमिक शर्त, का सर्व प्रथम अर्थ है ''बुर्जआ राज्‍य ढाँचे का पूर्ण विध्‍वंस।''

पूँजीपति वर्ग चूंकि अपने राज्‍य के जरिये ही समाज पर अपने प्रभुत्‍व, अपने विशेषाधिकारों, दूसरे वर्गों और खासकर मज़दूर वर्ग के शोषण को बनाये रखता है, यह तंत्र आवश्‍यक रूप से इस कार्य के अनुकूल बन रखा है, और मज़दूर वर्ग, जिसके पास बचाव के लिए कोई विशेषाधिकार या शोषण नहीं, उसका उपयोग नहीं कर सकता। दूसरे शब्‍दों में, ''समाजवाद की ओर कोई शांतिपूर्ण रास्‍ता नहीं": शोषकों के अल्‍पमत द्वारा खुले अथवा पाखंडी तरीके से लेकिन हर हालत में बुर्जुआजी द्वारा ‍अधिकाधिक योजनाबद्ध तरीके से काम में लायी गयी हिंसा के खिलाफ मज़दूर वर्ग सिर्फ अपनी क्रांतिकारी वर्ग हिंसा को ही आगे रख सकता है।

समाज के आर्थिक रूपांतरण के लीवर के रूप में, सर्वहारा की तानाशाही (यानी मज़दूर  वर्ग द्वारा राजनीतिक ताकत का एकांतिक प्रयोग) का बुनियादी कार्य होगा पैदावारी साधनों का समाजीकरण करके शोषकों का सम्‍पतिहरण करना तथा इस समाजीकृत सेक्‍टर को सभी पैदावारी गतिविधियों तक उत्तरोत्तर बढ़ाना। अपनी राजनीतिक ताकत के आधार पर सर्वहारा को उजरती श्रम और माल उत्‍पादन के खात्‍मे तथा मानव जाति की जरूरतों की पूर्ति की ओर ले जाती आर्थिक नीतियाँ लागू करके पूँजी‍पतियों के राजनीतिक अर्थशास्‍त्र पर चोट करनी होगी।

पूँजीवाद से कम्‍युनिज्‍म में संक्रमण के इस युग में मज़दूर वर्ग के अलावा दूसरे गैर-शोषित वर्ग, जिनका अस्तित्‍व अर्थव्‍यवस्‍था के गैर समाजीकृत सेक्‍टर पर निर्भर है, अभी अस्तित्‍व में रहेंगे। इसलिए समाज में विरोधी आर्थिक हितों की अभिव्‍य‍क्ति के रूप में वर्ग संघर्ष भी अभी अस्तित्‍व में रहगा। यह ऐसे राज्‍य को पैदा करेगा जिसका कार्य होगा इन संघर्षों द्वारा स्‍वयं समाज को विघटन की ओर ले जाने से रोकना। परन्‍तु उनके सदस्‍यों के समाजीकृत सेक्‍टर में संयोजन के जरिये इन सामाजिक वर्गों के उत्तरोत्तर लोप तथा वर्गों के अंतिम उन्‍मूलन से, खुद राज्‍य को लुप्‍त होना होगा।

सर्वहारा की तानाशाही का ऐतिहासिक रूप से खोज निकाला गया रूप है मज़दूर कौंसिलें - चुने और प्रतिसंहार्य प्रतिनिधियों पर आधारित एकीकृत, केन्‍द्रीकृत एवं वर्ग व्‍यापी सभाऍं जो पूरे वर्ग को सच्‍चे सामूहिक रूप से सत्ता प्रयोग करने योग्‍य बनाती है। मज़दूर  वर्ग की एकांतिक राजनीतिक ताकत की गारंटी के रूप में ‍हथियारों के कन्‍ट्रोल पर इन कौंसिलों का एकाधिकार होगा।

समूचे समाज के कम्‍युनिस्‍ट रूपांतरण को हाथ में लेने के उद्देश्‍य से मज़दूर वर्ग समूचे तौर पर ही केवल सत्ता संभाल सकता है। इसलिए पहले के क्रांतिकारी वर्गों के विप‍रीत सर्वहारा किसी संस्‍था अथवा अल्‍पांश को, क्रांतिकारी अल्‍पांश सहित, सत्ता नहीं सौंप सकता। क्रांतिकारी अल्‍पांश कौंसिलों के भीतर काम करेगा, लेकिन उसका संगठन मज़दूर वर्ग के ऐतिहासिक ध्‍येय की प्राप्ति के लिए उसके एकीकृत वर्ग संगठन का स्‍थान नहीं ले सकता।

इसी तरह, रूसी इन्‍कलाब के अनुभव ने संक्रमण काल में वर्ग और राज्‍य के सम्‍बन्‍ध की समस्‍या की पेचीदगी तथा गंभीरता को प्रकट किया। आनेवाले समय में सर्वहारा और क्रांतिकारी इस समस्‍या को नहीं टाल सकते, बल्कि उन्‍हें इसे हल करने का हर प्रयास करना होगा।

सर्वहारा की तानाशाही का अर्थ है इस धारणा का पूर्ण त्याग कि मज़दूर वर्ग को अपने आपको किसी बाहरी ताकत के अधीनस्‍थ कर लेना चाहिए और इसका अर्थ है वर्ग के भीतर हिंसा के सभी सम्‍बन्‍धों को खारिज़ करना। संक्रमण काल के दौरान सिर्फ सर्वहारा ही समाज में क्रांतिकारी वर्ग है: उसकी चेतना और सम्‍बद्धता ही इस बात की मूलभूत गारंटियाँ है कि उसकी तानाशाही का फल कम्‍युनिज्‍म होगा।

 

16. क्रांतिकारियों का संगठन

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क.   वर्ग चेतना और संगठन 

वक्‍ती सामा‍जिक व्‍यवस्‍था के खिलाफ लड़ रहा कोई वर्ग यह तभी कर सकता है अगर वह अपने संघर्ष को एक संग‍ठित और सचेत रूप देता है। उनके संगठन के रूपों और उनकी चेतना की प्रत्‍येक त्रुटि अथवा असंगतता के बावजूद, दासों तथा किसानों जैसे वर्गों की, जो एक नई सामाजिक व्‍यवस्‍था को अपने भीतर लिए हुए भी नहीं थे, पहले ही यह स्थिति थी। परन्‍तु यह आवश्‍यकता उन ऐतिहासिक वर्गों पर और भी अधिक लागू होती है जो सामाजिक विकास द्वारा आवश्‍यक बनाये नये पैदावारी सम्‍बन्‍ध अपने भीतर लिये चलते है। इन वर्गों में सिर्फ सर्वहारा ही वह वर्ग है जो पुराने समाज में कोई आर्थिक ताकत नहीं रखता। इसलिए उसके संघर्ष में संगठन तथा चेतना और भी अधिक निर्णायक कारक है।

अपने क्रांतिकारी संघर्ष तथा राजनीतिक सत्ता संभालने के लिए वर्ग संगठन के जिस रूप की रचना करता है वह है मज़दूर कौंसिले। परन्‍तु अगर समग्र वर्ग क्रांति का कर्त्ता है और उस वक्‍त इन संगठनों में संगठित होता है, तो इसका यह मतलब नहीं कि वर्ग के सचेत होने की प्रक्रिया किसी प्रकार समकालिक अथवा समरूप है। वर्ग चेतना वर्ग के संघर्षों, उसकी जीतों और हारों के जरिये एक टेड़े-मेड़े रास्‍ते से विकसित होती है। उसे उन सेक्‍शल और राष्‍ट्रीय विभाजनों का सामना करना पड़ता है जो पूँजीवादी समाज का ''स्‍वाभाविक''  ढ़ॉंचा हैं और जिन्‍हें वर्ग में कायम रखना हर तरह से पूँजी के हित में है।

ख.   क्रांतिकारियों का रोल

क्रां‍तिकारी वर्ग में वे तत्व हैं जो इस विषम प्रक्रिया के जरिये ''सर्वहारा के आगे बढ़ने के रास्‍ते, उसके हालात और सामान्‍य अं‍तिम नतीजों'' (घोषणा पत्र) की सुस्‍पष्‍ट समझ सर्वप्रथम प्राप्‍त करते हैं, और क्‍योंकि पूँजीवादी समाज में ''प्रभावशाली विचार शासक वर्ग के विचार होते हैं,'' इसलिए क्रांतिकारी आवश्‍यक रूप से मज़दूर  वर्ग का अल्‍पांश ही होते हैं।

वर्ग की पैदाइश के रूप में, उसके सचेत होने की प्रक्रिया की अभिव्‍य‍क्ति के रुप में, क्रांतिकारी इस प्रक्रिया में सक्रिय कारक बनकर ही इस हैसियत से जीवित रह सकते है। इस काम को अटूट रूप से अंजाम देने के लिए, क्रांतिकारी संगठन:

  • वर्ग की तमाम लड़ाइयों में हिस्‍सा लेता है, इसके सदस्‍य उसमें अत्‍यधिक द़ृढ़ निश्‍चयी और लड़ाकू योद्धाओं के रूप में प्रतिष्‍ठा पाते हैं।
  • इन संघर्षों में सदैव वर्ग के आम हितों और आन्‍दोलन के सामान्‍य अंतिम लक्ष्‍यों पर जोर देता हुआ हस्‍तक्षेप करता है।
  • इस हस्‍तक्षेप के एक अनिवार्य भाग के रूप में, अपने आपको स्‍थायी रूप से सैद्धांतिक स्‍पष्‍टीकरण और चिन्‍तन के काम को समर्पित करता है, सिर्फ यही मज़दूर वर्ग को अपनी सामान्‍य गतिविधि अपने समूचे पुराने अनुभव पर और ऐसे सैद्धांतिक काम द्वारा  क्रिस्टलीकृत भविष्‍य के परिदृश्‍यों पर आधारित करने की इजाजत देता है।

ग.   वर्ग और क्रांतिकारियों के संगठन में संबंध

वर्ग का सामान्‍य संगठन और क्रांतिकारियों का संगठन यदि एक ही आन्‍दोलन का हिस्‍सा हैं, तो भी वे अलग-अलग चीजें हैं।

प्रथम, कौंसिलें, सारे वर्ग को पुन:गठित करती हैं। उनके सदस्‍य होने की एकमात्र कसौटी है मज़दूर  होना। दूसरी तरफ, दूसरा वर्ग के सिर्फ क्रांतिकारी तत्‍वों को ही पुन:गठित करता है। सदस्‍यता की कसौटी अब समाजशास्‍त्रीय नहीं ब‍‍‍ल्‍कि राजनीतिक है : प्रोग्राम पर सहमति और उसको डिफेंड करने की वचनबद्धता। इस कारण वर्ग का अग्रदस्‍ता ऐसे व्यक्तियों को भी सम्मिलित कर सकता है जो सामाजिक रूप से तो मज़दूर वर्ग का हिस्‍सा नहीं हैं परन्‍तु जो, अपने जन्म के वर्ग से टूटकर, सर्वहारा के ऐतिहासिक वर्ग हितों से अपना तादतम्‍य स्‍थापित कर लेते हैं ।

वर्ग तथा उसके हरावल का संगठन यद्यपि दो भिन्‍न-भिन्‍न चीजें हैं, तो भी जैसा एक तरफ ''लेनिनवादी'' धाराओं द्वारा और दूसरी ‍तरफ कौंसिलवादी धाराओं द्वारा दावा किया जाता है, वे एक-दूसरे के लिए अलग-थलग, बाहरी अथवा विरोधी नहीं हैं। ये दोनों अवधारणाएं जिस तथ्‍य से इन्‍कार करती हैं, वह यह है कि ये दो तत्‍व - वर्ग और क्रांतिकारी - एक दूसरे से टकराने के बजाय, वास्‍तव में समग्र रूप से, एक समग्रता के एक हिस्‍से के रूप में एक दूसरे के पूरक है। इन दोनों के बीच कभी भी कोई जोर-जबरदस्‍ती का रिश्‍ता नहीं हो सकता क्‍योंकि कम्‍युनिस्‍टों के ''समूचे सर्वहारा के हितों के अलावा और पृथक रूप से अपने कोई हित नहीं हैं।'' (घोषणापत्र)

पूँजीवाद के भीतर वर्ग के संघर्षों में अथवा उससे भी कम पूँजीवाद को उलटने तथा राजनीतिक ताकत संभालने में, क्रांतिकारी अपने आपको, वर्ग के एक हिस्‍से के रूप में, वर्ग के स्‍थान पर कदापि नहीं रख सकते। अन्‍य ऐति‍हासिक वर्गों के विपरीत, अल्‍पांश, चाहे वह कितनी भी प्रबुद्ध हो, की चेतना सर्वहारा के कार्यों को पूरा करने के लिए पर्याप्‍त नहीं है। ये ऐसे कार्यभार हैं जो हमेशा सारे वर्ग की एकनिष्‍ठ हिस्‍सेदारी एवं रचनात्‍मक गतिविधि की मांग करते हैं ।

सार्विकृत चेतना ही सर्वहारा इन्‍कलाब की जीत की एकमात्र गारंटी है और, क्‍योंकि यह मूलत: व्‍यवहारिक तजुर्बें का फल होती है, इसलिए समग्र वर्ग की गतिविधि गैर-प्रतिस्‍थापनीय है, अद्वितीय है। खासकर, वर्ग द्वारा हिंसा का आवश्‍यक प्रयोग वर्ग के सामान्‍य आंन्‍दोलन से अलग नहीं किया जा सकता। इसलिए, व्‍यक्तियों अथवा अलग-थलग ग्रुपों द्वारा आंतकवाद का प्रयोग वर्ग की कार्य-पद्धति के सर्वथा विजातीय है, और अगर वह पूँजीवादी गुटों के आपसी झगड़े का द्वेषपूर्ण तरीका भर नहीं होता तो, बेहतरीन स्थिति में, वह वर्ग में निम्‍न पूँजीवादी निराशा की अभिव्‍य‍क्ति को निरुपित करता है। जब यह सर्वहारा संघर्ष के भीतर प्रकट होता है, तो वह संघर्ष पर बाहरीय प्रभावों का सूचक होता है, और चेतना के विकास के असली आधार को सिर्फ कमजोर ही कर सकता है।

मज़दूर संघर्षों का स्‍वसंगठन और स्‍वयं वर्ग द्वारा सत्ता का प्रयोग कम्‍युनिज्‍म की ओर मार्गों  में से मात्र एक नहीं कि जिसे अन्य मार्गों के मुकाबले तोला जा सकता हो - वह एकमात्र रास्‍ता है।

घ.   मज़दूर  वर्ग की स्‍वायत्तता

कोंसिलवादी और अराजकतावादी धाराओं द्वारा प्रयुक्‍त "वर्ग स्‍वायत्तता" की धारणा, जिसे वे प्रतिस्‍थापनावादी धारणाओं के मुकाबले रखते हैं, का अर्थ पूर्णत: प्रतिक्रियावादी और पेटी बुर्जआ है। इस तथ्‍य के अलावा कि इस स्‍वायत्तता का अर्थ छोटे-छोटे पंथों के रुप में उनकी अपनी ही "स्‍वायत्तता" निकलता है, वे बहुधा प्रतिस्‍थापनावादी धाराओं, जिनकी वे इतनी उग्र आलोचना करते हैं, की तरह ही मज़दूर वर्ग का प्रतिनिधित्‍व करने का दावा करते हैं, उनकी धारणाओं के दो मुख्‍य पहलू हैं: 

  • मज़दूरों द्वारा सभी राजनीतिक पार्टियों एवं संगठनों को, वे जो भी हों, अस्‍वीकार करना।
  • मज़दूर वर्ग के हर हिस्‍से (कारखानों, मुहल्‍लों, क्षेत्रों, राष्‍ट्रों आदि) की एक दूसरे के प्रति स्‍वायत्तता, यानी संघवाद।

आज इस तरह के विचार, बेह्तरीन स्थिति में, स्‍टालिनवादी अफसरशाही और राज्‍य सर्वाधिकारवाद के विकास के खिलाफ प्राथमिक प्रतिक्रिया हैं, और अपने बदतरीन रूप में निम्न मध्यमवर्ग को चरितार्थ करते एकाकीपन तथा विभाजन की अभिव्‍य‍क्ति हैं। लेकिन दोनों सर्वहारा के क्रांतिकारी संघर्ष के तीन बुनियादी पहलुओं की पूर्ण नासमझी दिखाते हैं:

  • वर्ग के राजनीतिक कार्यभारों का महत्‍व और प्राथमिकता (पूँजीवादी राज्‍य का ध्‍वंस, सर्वहारा की विश्‍व तानाशाही)।
  • वर्ग के भीतर क्रांतिकारियों के संगठनों का महत्‍व एवम अपरिहार्य चरित्र।
  • वर्ग के क्रांतिकारी संघर्ष का एकीकृत, केन्‍द्रीकृत और विश्‍वव्‍यापी चरित्र।

मार्क्‍सवादियों के रूप में, हमारे लिए वर्ग की स्‍वायत्तता का अर्थ है समाज में अन्‍य समस्‍त वर्गों से उसकी आजादी। यह स्‍वायत्तता वर्ग की गतिविधि के लिए अपरिहार्य पूर्व शर्त बनती है, क्‍योंकि आज सर्वहारा ही एकमात्र क्रांतिकारी वर्ग है। यह स्‍वायत्तता अपने को संगठनात्‍मक स्‍तर (कौंसिलों का गठन) और राजनीतिक स्‍तर पर, और इसलिए 'मज़दूरवादी' धाराओं के दावों के विपरीत, सर्वहारा के कम्‍युनिस्‍ट हरावल के साथ घनिष्‍ठ संबंध में व्यक्त होती है।

ड.    वर्ग संघर्ष के विभिन्‍न कालों में क्रांतिकारियों का संगठन

अगर वर्ग के सामान्‍य संगठन और क्रांतिकारियों का संगठन, जहाँ तक उनके कार्य का संबंध है, दो अलग-अलग चीजें हैं, तो उनके उदित होने के हालात भी भिन्‍न है। कौंसिलें सिर्फ क्रांतिका‍री मुठभेड़ के दौर में प्रकट होती हैं जब वर्ग के सभी संघर्ष सत्ता छीनने की ओर प्रवृत्त होते हैं। ‍तथापि, वर्ग का अपनी चेतना विकसित करने का प्रयास उसके उदभव से हमेशा विद्यमान रहा है और कम्‍युनिस्‍ट समाज में उसके विलयन तक विद्यमान रहेगा। इसलिए, इस अनवरत प्रयास की अभिव्‍य‍‍‍क्ति के रूप में हर दौर में कम्‍युनिस्‍ट अल्‍पांशों का अस्तित्व रहा है। परंतु अल्‍पांशों के इन संगठनों की पहुंच, प्रभाव, गतिविधि के रूप और संगठन के तरीके वर्ग संघर्ष के हालतों से घनिष्‍ठ रूप से जुडे हुए हैं।

वर्ग की प्रचंड हलचल के दौर में इन अल्‍पांशों का राजनीतिक घटनाओं की दिशा पर सीधा असर रहता है। तब कम्‍युनिस्‍ट हरावल का वर्णन करने के लिए पार्टी का उल्‍लेख किया जा सकता है। दूसरी ओर, वर्ग संघर्षों की हार अथवा उतार के दोरो में, क्रांतिकारियों का तात्‍कालिक इतिहास की दिशा पर कोई सीध असर नहीं होता। ऐसे कालों में जो विद्यमान रह सकते हैं वे हैं काफी छोटे आकार के संगठन जिनका कार्य अब तात्‍कालिक आन्‍दोलन को प्रभावित करना नहीं ब‍‍‍ल्कि उसका प्रतिरोध करना, अर्थात़ तब प्रवाह के खिलाफ संघर्ष करना जब वर्ग को बुर्जुआजी द्वारा (वर्ग सहयोग, "पवित्र गठबंधन", "प्रतिरोध", फासीवाद विरोध आदि के जरिये) निरस्‍त्र और लामबंद्ध किया जा रहा होता है। उनका मूलभूत कार्य तब पहले तजुर्बों से सबक लेना और यूँ भावी सर्वहारा पार्टी के लिए, जिसे वर्ग के अगले उभार में आवश्‍यक रूप से ‍िफर उभरना होगा, सैद्धांतिक और प्रोग्राम विषयक ढॉंचा तैयार करना होता है। वर्ग संघर्ष के उतार के वक्‍त पतित होती पार्टियों से अपने को अलग कर लेने वाले अथवा उनकी मौत से बच निकलने वाले इन ग्रुपों और फ्रेक्‍शनों का कार्यभार होता है पार्टी के पुन: उभार तक एक राजनीतिक और संगठनात्‍मक पुल का काम करना।

च.  क्रांतिकारियों के संगठन की संरचना

सर्वहारा इंकलाब का अनिवार्यत: विश्‍वव्‍यापी और केन्‍द्रीकृत चरित्र मज़दूर वर्ग की पार्टी को भी वही विश्‍वव्‍यापी और केन्‍द्रीकृत चरित्र देता है, और पार्टी का मूलआधार रखने वाले फ्रेक्‍शन तथा ग्रुप आवश्‍यक रूप से विश्‍वव्‍यापी केन्‍द्रीकरण की ओर अभिमुख होते हैं। यह संगठन की कांग्रेसों के दरम्‍यान और उनके प्रति जवाबदेह, राजनीतिक जिम्‍मेदारियॉं प्रदत्त, केन्‍द्रीय निकायों के अस्तित्व में ठोस शक्‍ल अख्‍ति‍यार करता है।

क्रांतिकारियों के संगठन के ढाँचे को दो बुनियादी जरूरतों को ध्‍यान में रखना होगा:

  • उसे अपने भीतर क्रांतिकारी चेतना के पूर्ण विकास की इजाजत देनी होगी और इस तरह एक गैर-मोनोलिथिक संगठन में उठते प्रश्‍नों और असहमतियों की व्‍यापकतम और अत्‍यधिक खोजपूर्ण बहस की इजाजत देनी होगी।
  • साथ ही उसे संगठन की संबद्धता और कार्य की एकता को सुनिश्चत करना होगा, इसका अर्थ खासकर यह है कि संगठन के सभी हिस्‍सों को बहुमत के निर्णयों को लागू करना होगा।

इसी प्रकार संगठन के विभिन्‍न हिस्‍सों के आपसी सम्‍बन्‍धों और जुझारूओं के आपसी सम्‍बन्‍धों पर अनिवार्यत: पूँजीवादी समाज के धब्‍बे होते हैं, और इसलिए वे पूँजीवाद में कम्‍युनिस्‍ट सम्‍बन्‍धों के द्वीप नहीं बन सकते। फिर भी, वे क्रांतिकारियों द्वारा अनुसरित उद्देश्‍यों के घोर विरोध में नहीं हो सकते, और उन्‍हें आवश्‍यक रूप से उस एकजुटता और आपसी विश्‍वास पर आधारित होना होगा जो कम्‍युनिज्‍म के वाहक वर्ग के संगठन के सदस्‍य होने के प्रमाण चिन्‍ह हैं।

 


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