पिछले कुछ महीनों से विश्व अर्थव्यव्स्था तबाही में से गुज़र रही है जिसे छिपाना शासक वर्ग के लिए कठिनतर होता गया है। जी20 से लेकर जर्मनी और फ्रांस की अन्तहीन मीटिंगों समेत, ‘दुनिया को बचाने’ के लिए की गईं विभिन्न अंतरराष्ट्रीय शिखर वार्ताओं ने साबित कर दिया है कि पूँजीपति वर्ग अपनी व्यवस्था को पुनरुज्जीवित करने में असमर्थ है। पूँजीवाद एक अन्धीगली में फंस गया है। और किसी समाधान अथवा संभावना का यह नितान्त अभाव विभिन्न राष्ट्रों में तनाव भड़काने लगा है। यह यूरोजोन की एकता को तथा स्वयं यूरोपियन यूनियन को दरपेश खतरों में देखा जा सकता है। और इसे हर देश के भीतर राष्ट्रीय राजनीतिक ढांचे को गठित करते तमाम बुर्जुआ गुटों में तनाव में देखा जा सकता है। पहले ही गंभीर राजनीतिक संकट फूट पडे हैं:
- पुर्तगाल में। 23 मार्च 2011 को पुर्तगाली प्रधानमन्त्री जोस सोक्राटिज़ को तब त्यागपत्र देना पडा जब विपक्ष ने कटौतियों की चौथी योजना के पक्ष मे मत देने से मना कर दिया जिसका मकसद था यूरोपियन युनियन तथा आईएमएफ के समक्ष आर्थिक सहायता की एक नई अरज़ी देने से बचना;
- स्पेन में। अप्रैल में प्रधानमन्त्री जोस जापाटेरो को कटौतियों की अपनी योजना को स्वीकार करवाने के लिए अग्रिम में घोषणा करनी पडी कि वह 2012 के चुनाव में खडा नहीं होगा; पर पेंशन पर भारी हमलों की उसकी योजना के फलस्वरूप उसकी पार्टी, पीएसओई को 20 नवंबर के संसदीय चुनावों में भारी हार झेलनी पडी और मारियनो राज़ोये की दक्षिण पंथी सरकार बनी;
- स्लोवाकिया में। प्रधानमन्त्री इवेटा रादीकोवा को अक्तूबर 2011 के आरंभ में अपनी सरकार भंग करनी पडी ताकि संसद से ग्रीस के बचाब की एक योजना के लिए हरी झंडी मिल सके;
- ग्रीस में। 26 अक्तूबर की यूरोपीय शिखर वार्ता के बाद एक नवंबर को जनमत-संग्रह कराने की आश्चर्यजनक घोषणा, जिसने अन्य यूरोपीय ताकतों में भारी तुफान मचा दिया था, के बाद जार्ज पापन्द्रुऔ को भारी अंतरराष्ट्रीय दवाब के तहत फौरन अपना विचार बदलना पडा। स्वंय अपनी पार्टी, पासोक, में अल्पमत में आ जाने के बाद उसने 9 नवंबर को त्यागपत्र दे दिया और बागडोर पापन्दप्युलोस को सौंप दी;
- इटली में। 13 नवंबर 2011 को विवादास्पद राष्ट्रपति सिल्वियो बर्लुस्कोनी को अपना पद छोडना पडा चूँकि उसे जरूरी समझे जाने वाले कठोर कदम उठाने के असमर्थ माना जा रहा था जबकि इससे पहले न तो अन्तहीन कांड और न ही गलियों में भारी विरोध प्रदर्शन उसे जाने के लिए मज़बूर कर पाए थे;
- अमेरिका में। अमेरिकी पूँजीपति वर्ग कर्ज़ सीमा बढ़ाने के सवाल पर दोफाड है। इन गर्मियों मे आखिरी घड़ी में एक अल्पकालिक सौदा हुआ। और चन्द हफ्तों व महीनों में यही सवाल फिर बखेडा खडा करने का अन्देशा लिये है। इसी प्रकार, असल फैसले लेने की ओबामा की असमर्थता, डेमोक्रेटिक पार्टी में फूट, रिपब्लिकन पार्टी की प्रचण्डता, रूढ़िवादी टी पार्टी का उदय ... यह सब दिखाता है कि किस प्रकार आर्थिक संकट दुनिया के सबसे ताकतवर पूँजीपति वर्ग की एकजुटता को खोखला कर रहा है।
इन विभाजनों के कारण क्या हैं?
इन मुश्किलों की तीन अन्तर सम्बन्धित जड़ें हैं:
1. आर्थिक संकट हर राष्ट्रीय पूँजीपति वर्ग की तथा हर गुट की पिपासांओं को भडका रहा है। एक रूपक का प्रयोग करें तो बांटा जाने वाला केक छोटा होता जा रहा है और उस में से टुकडा छीनने की लडाई अधिकाधिक भीषण। मसलन, फ्रांस में विभिन्न पार्टियों के बीच और कई बार एक ही पार्टी के अन्दर नैतिक तथा वित्तीय घोटालों द्वारा, भृष्टाचार के रहस्योद्घाटनों तथा सनसनीखेज़ मुकदमों द्वारा हिसाब चुकता करना; सत्ता, तथा उसके साथ जुडे फायदों, के लिए, निर्मम होड़ की स्पष्ट अभिव्यक्ति हैं। इसी प्रकार बडी-बडी शिखर वार्ताओं में जो ‘विचारों मे मतभेद’ सामने आते हैं वे संकटग्रस्त विश्व बाज़ारों के लिए घातक लडाई का फल हैं।
2. पूँजीपति वर्ग के पास विश्व अर्थव्यवस्था को दरपेश दुर्गति का कोई वास्तविक हल नहीं है। दक्षिण तथा वाम का हर धड़ा सिर्फ निरर्थक तथा अव्यावहारिक प्रस्ताव ही पेश कर सकता है। हर धड़ा अपने प्रतिद्वंदियों के सुझावों की व्यर्थता साफ देख सकता है पर अपने सुझावों की प्रभावहीनता नहीं। हर धड़ा जानता है कि दूसरों की नीतियाँ अन्धीगली मे ले जाती हैं। अमेरिका में कर्ज़ सीमा बढ़ाने को लेकर पैदा अवरोध की यही व्याख्या है: डेमोक्रेट जानते हैं कि रिपब्लिकनों की नीतियाँ देशा को विनाश की ओर ले जाएँगी ... और इसके उल्ट भी।
इसलिए, ग्रीस से लेकर इटली तक, हंगरी से अमेरिका तक, दुनिया भर में सभी पार्टियों द्वारा ज़ारी ‘राष्ट्रीय एकता’ तथा उत्तरदायित्व की भावना की अपीलें हताशा तथा भ्रांतिमूलक हैं। वास्तव में, डूबने के खतरे से घिरे एक जहाज में शासक वर्ग की मुख्य सोच है ‘जो बचा सको, बचा लो’। हर गुट दूसरे की कीमत पर अपनी चमडी बचाने की फिराक में है।
3. कटौती की इन योजनायों के खिलाफ शोषितों का गुस्सा निरन्तर बढ़ रहा है और सत्तासीन दल विश्वास खो रहे हैं। दक्षिण का हो या वाम का, प्रतिपक्ष के पास पेश करने के लिए कोई भिन्न नीति नहीं है और हर चुनाव के बाद वे बहुधा अदल-बदल कर आते हैं। और जब नियमित चुनाव अभी दूर हों तो राष्ट्रपतियों तथा प्रधानमंत्रियों के त्यागपत्रों द्वारा उन्हें कृत्रिम रूप से जल्द लाया जाता है। यूरोप में हाल में कई बार ठीक यही हुआ। ग्रीस में जनमत-संग्रह कराने का प्रस्ताव इस लिए रखा गया क्योंकि गुस्साई भीड ने पापन्द्रुऔ और उसके पिछलग्गूयों को 28 अक्तूबर की राष्ट्रीय परेड से खदेड दिया था।
ग्रीस में अथवा मारियो मोन्टी की सरकार के साथ इटली में, राजनीतिज्ञों की विश्वसनीयता इस कदर गिर गई है कि सत्तासीन नई टीमों को तकनीकतंत्रीयों (टेक्नोक्रेट) के रूप में पेश किया जा रहा है बावजूद इसके कि सत्ता के ये नए नुमाइंदे अपने पूर्ववर्तियों के बराबर ही राजनीतिज्ञ हैं (वे पहले ही पिछली सरकार मे अहम पदों पर रह चुके हैं)। यह ‘राजनीतिक जमात’ की बदनामी के स्तर को इंगित करता है। आबादी के विशाल हिस्सों की तरफ से, शोषितों की तरफ से, नई सरकारों के लिए कहीं भी कोई असल समर्थन दिखाई नहीं देता, है तो मात्र पुरानों की खारिज़ी। यह स्पेन में रिकार्डतोड संख्या में, वोटिंग आबादी के 53% तक, लोगों द्वारा मताधिकार का प्रयोग न करने से पुष्ट होता है। फ्रांस मे 47% मतदाता मई 2012 के राष्ट्रपति चुनावों की दूसरे दौर की वोटिंगे में दोनो मुख्या प्रत्याशीयों में से किसी को भी वोट देने का इरादा नहीं रखते, उनका कहना है कि वे न तो सरकोज़ी के और न ही हॉलेंड के पक्ष में है।
दक्षिणपंथ तथा वामपंथ के खिलाफ – वर्ग संघर्ष!
यह साफ है कि सरकारों को बदलना हमारे जीवन स्तर पर हो रहे हमलों पे कोई असर नहीं डालता, कि बुर्जुआजी के खेमे में तमाम विभाजन शोषितों के खिलाफ कठोर कटौती की योजनायें लागू करने के मामले में उनके मतैक्य को नहीं बदलते। इसका एक सबूत यह है कि अतीत में चुनाव तुलनात्मक सामाजिक शान्ति का काल हुआ करते थे। आज ऐसा कोई ‘युद्दविराम’ नहीं है। ग्रीस में एक दिसंबर को एक और नई आम हड़ताल तथा विशाल प्रदर्शन हुए। पुर्तगाल में 24 नवंबर को हमने 1975 के बाद की सबसे बडी राष्ट्रव्यापी लामबंदी देखी जिसमें स्कूल, पोस्ट आफिस, बैंक तथा अस्पताल सेवाओं जैसे बहुत से क्षेत्र ठप्प कर दिये गए; लिसब्न में मेट्रो सेवाएँ पंगु रहीं और मुख्या एयरपोर्टों में तथा हाईवे विभाग में काम भंग रहा। ब्रिटेन में 30 नवंबर को पब्लिक सेक़्टर कर्मियों की जनवरी 1979 (20 लाख शरीक) के बाद की सबसे व्यापक हड़ताल रही। बेल्जियम में 2 दिसंबर को युनियनों ने 24 घंटे की हड़ताल की घोषणा की जिसका भी व्यापक अनुसरण हुआ। युनियनों ने यह हड़ताल भावी डी रुपो सरकार, जो देश की ‘सरकार विहीन’ स्थिति के 540 दिन बाद बडी मुश्किल से गठित की जा रही है, द्वार घोषित कटौती की योजनायों के खिलाफ बुलाई थी। और यह राजनीतिक संकट खत्म होने बाला नही चूँकि बुर्जुआ पार्टियों में तनाव के स्रोत खत्म नहीं हुए हैं। इटली मे 5 दिसंबर को ज्यों ही कटौती की निष्ठुर योजनाओं की घोषणा हुई, नरमपंथी यूआईएल तथा सेअईएसएल युनियनें 12 दिसंबर को दो घंटे की संकेतिक हड़ताल बुलाने पर मज़बूर हुईं।
सिरफ यही रास्ता, गलियों में संघर्ष का, वर्ग के खिलाफ वर्ग का रास्ता हमारे जीवन स्तरों पर हमलों के खिलाफ कारगर प्रतिरोध की ओर ले जा सकता है। फ्रांस में, जहां मूर्ख सरकोज़ी के रूप में हम दंभी दक्षिणपंथ को सरकार की बागडोर संभाले देखते हैं, राष्ट्रीय पूँजीपति वर्ग एक हद तक वर्ग संघर्ष के खतरे के डर से पंगु है। उसकी अर्थव्यवस्था के 'एएए' स्तर को घटाए जाने के समक्ष, जिसके चलते जर्मनी के संग उसकी नेतृत्वकारी भूमिका जा सकती है, यह सरकार अन्य देशों के मुकाबले छोटे स्तर पर ही कटौती की नीतियां लागू कर पाई है। इसका एक अहम उदाहरण है बीमारी तनखाह (सिक पे) पर हमला जो सबसे कठोर है: सरकार को तिकडमें करनी पडी के वह सीधा हमला करती न नज़र आए। यह घोषणा करने के बाद कि बीमारी की बजह से गैरहाज़िर रहने पर मज़दूरों को पहले दिन की तनखाह नहीं मिलेगी, सरकोज़ी को यह दिखाना जरूरी लगा कि वह निजी क्षेत्र (जहां पहले ही बीमारी के पहले तीन दिन की कोई तनखाह नही मिलती) पर कम सख्त है और कि उसने यह कदम मात्र पब्लिक सेक़्टर कर्मियों के लिए उठाया है (जिन्हें फिलहाल पहले दिन की गैरहाज़िरी के लिए दन्डित नहीं किया जा सकता)। यह दिखाता है कि फ्रांसीसी पूँजीपति वर्ग, अन्य की बजाए, बहुत बेरहमी से चोट करने की हिम्मत नही जुटा पा रहा है चूँकि वह उस देश में, जो ऐतिहासिक रूप से 1789, 1848, 1871 तथा 1968 में यूरोप में सामाजिक विस्फोटों का डेटोनेटर रहा है, व्यापक सर्वहारा लामबन्दी से डर रहा है। और 2006 में सीपीई के खिलाफ युवकों का आंदोलन, जब फ्रांसीसी सरकार को पीछे हटना पडा, भी इसकी सख्त चेतावनी था।
यह सारी स्थिति बढती अस्थिरता के एक दौर का उदघाटन कर रही है जिसमें आबादी पर अपने हमलों के चलते सरकारें अधिकाधिक बदनाम ही हो सकती हैं। और इन राजनीतिक संकटों में, विभिन्न गुटों के बीच कच्चे तथा अल्पकालिक समझौतों के बावजूद, जो सिद्धान्त काम करता है वह है ‘हर कोई सिरफ अपने लिए’। विभिन्न गुटों तथा प्रतिस्पर्घी राष्ट्रों के बीच तनाव तथा होड़ तेज़ ही हो सकती है।
इसके विपरीत हमें, रोज़गार याफ्ता सर्वहाराओं को या बेरोज़गारों को, रिटायर हों या अभी पढ रहे हों, उन्हीं हमलों के खिलाफ उन्हीं हितों के लिए लडना पडता है। हमारे वर्ग दुश्मन के विपरीत, जो संकट के सामने दो-फाड होता जाता है, यह परस्थिति हमे अधिकधिक बडे तथा एकीकृत तरीके से जवाब देने की ओर धकेल रही है!
डब्लूपी, 8 दिसंबर 2011, बर्ल्ड रेवोल्यूशन-350, दिसंबर 2011- जनवरी 2012
28 फरवरी 2012 को देश के विभिन्न हिस्सों में फैले दस करोड मज़दूरों की नुमाइंदगी करती यूनियनों द्वारा बुलाई हड़ताल हुई। सभी पार्टियों, यहां तक कि हिन्दूवादी बीजेपी, की यूनियनें भी हड़ताल में शामिल हुईं। इसके साथ ही हज़ारों स्थानीय तथा क्षेत्रीय यूनियनें भी। बैंक कर्मी, पोस्टल तथा राज़्य ट्रांसपोर्ट मज़दूर, टीचर्स, गोदी मज़दूर तथा अन्य क्षेत्रों के मज़दूरों ने हड़ताल में हिस्सा लिया। सभी यूनियनें का इस हड़ताल पर सहमत होना इसके पीछे मज़दूर संघर्षों का एक विकास दिखाता है।
यूनियनों ने मांगों का एक घालमेल पेश किया : पब्लिक सेक्टर का बचाव, बढ़ती कीमतों पर नियंत्रण, 45 दिन में यूनियनों का लाजिमी पंजीकरण, श्रम कनूनों का सख्ती से पालन, न्यूनतम मज़दूरी को दस हज़ार रुपया करना तथा सामाजिक सुरक्षा आदि। उन्होंने यह दिखाने की कोई कोशिश नहीं की आज पूँजीवाद बेरहमी से मज़दूरों पर हमले कर रहा है क्योंकि पूँजीवादी प्रणाली संकट में है, बीमार है तथा सड़ रही है। इसके विपरीत, यूनियनों ने व्यवस्था पर भरोसा स्थापित करने की कोशिश की – पूँजीपति वर्ग जो चाहे दे सकता है, बस उसके चाहने की बात है।
यूनियनों ने हड़ताल संबंधी जो भी किया वह उनकी मंशाओं को जाहिर करता है। पहली बात तो यह कि उन्होंने अपने लाखों लाख सदस्यों को हड़ताल में औपचारिक रुप से भी शामिल होने को नहीं कहा। करीब पन्द्रह लाख रेलवे मज़दूर, इतने ही या इससे भी अधिक राज्य बिजली क्षेत्रों के मज़दूर तथा लाखों अन्य मज़दूरों को, जिनमें से अधिकतर इन्हीं यूनियनों के सदस्य हैं, को इन यूनियनों ने हड़ताल में शामिल होने के लिए भी नहीं कहा। एक ओर वे ‘आम हड़ताल’ की घोषणा कर रहीं थी, दूसरी ओर वे अपने लाखों मेम्बरों के सामन्य रुप से काम पर जाने तथा पूँजीवाद की मुख्य धमनियों में सुचारु प्रवाह में विघन न डालने से सहमत हईं।
जिन क्षेत्रों मे यूनियनों ने हड़ताल मे शामिल होने का वादा किया, वहां भी उनका रुख एक रस्मी हड़ताल की घोषणा करना भर था। अधिकतर मज़दूर जो हड़ताल में शामिल हुए, उन्होंने यह घर बैठ कर किया। निजी क्षेत्र के करोडों मज़दूरों को, जो हड़ताली राष्ट्रीय यूनियनों का हिस्सा हैं, हड़ताल में शामिल करने की कोई कोशिश नहीं की गई। उन्हें हड़ताल से बाहर छोडने की गंभीरता हमें तब नज़र आती है जब हम पाते हैं कि हाल में और काफी अरसे से निजी क्षेत्र के मज़दूरों ने कहीं अधिक जुझारुपन तथा कनून के लिए कहीं कम इज्ज़त दिखाई है। यहां तक कि गुड़गांव जैसे औद्योगिक क्षेत्र तथा चेन्नई के इर्द-गिर्द के आटो उद्योग, गुड़गांव में मारुति तथा चेन्नई के निकट हुंडई जैसे कारखाने जहां हाल में अहम हड़तालें हुईं, वे भी इस हड़ताल में शामिल नहीं हए। अधिकतर औद्योगिक क्षेत्रों मे, भारत भर में सैंकडे बडे-छोटे शहरों में, जहां पब्लिक सेक़्टर मज़दूर हड़ताल में शामिल हुए, निजी क्षेत्र के करोडों मज़दूर काम पर गए और उनकी यूनियनें हड़ताल में शामिल नहीं हुईं।
तो फिर यूनियनों ने हड़ताल क्यों बुलाई?
साफ है कि यूनियनों ने हड़ताल का प्रयोग मज़दूरों को लामबन्द करने, उन्हें सडकों पर उतारने तथा एकीकृत करने के लिए नहीं किया। उन्होंने इसका प्रयोग किया एक रस्म के रुप में, गुस्सा ठंडा करने के एक साधन के रुप में, मज़दूरों को अलग-थलग, निष्क्रिय तथा विघटित रखने के लिए। घर में बैठे टीवी देखते हड़ताली मज़दूर न तो मज़दूर एकता और न ही मज़दूर चेतना बढ़ाते हैं। यह अलग-थलग होने का, निष्क्रियता का तथा मौका चूक जाने का अहसास मजबूत करता हैं। अपनी इन मंशाओं के रहते भी यूनियनों ने फिर हड़ताल क्यों बुलाई? और क्या बज़ह थी कि वे सब, जहां तक कि बीएमएस तथा इंटक भी, इसमें शामिल हुई? यह समझने के लिए हमें यह देखना होगा कि भारत मे आज आर्थिक तथा सामाजिक स्तर पर और स्वयं मज़दूर वर्ग के भीतर क्या हो रहा है।
मज़दूर वर्ग की बदतर होती जीवन परिस्थितियां
भारतीय पूँजीपति वर्ग की आर्थिक उभार की बडी-बडी बातों के बावजूद पिछले सालों से आर्थिक हालात खराब हो रहे हैं। समूचे पूँजीवाद की तरह भारतीय अर्थव्यवस्था संकटग्रस्त है। सरकार द्वारा जारी आंकडों मुताबिक अर्थव्यवस्था का विकास रुक गया है और उसकी विकास दर नौ प्रतिशत से घट कर छह प्रतिशत हो गई है। संकट का असर बहुत उद्योगों पर पडा है। इसमें आई टी क्षेत्र तो शामिल है ही साथ ही प्राभावित हैं टेक्सटाईल, हीरा तथा पूँजीगत माल उद्योग व इन्फ्रास्ट्रक्चर क्षेत्र, निजी पावर कंपनियां ताथ एयरलायंस। इसके चलते मज़दूर वर्ग पर हमले तेज़ हो गए हैं। आम मुद्रास्फीति की दर कई सालों से दस प्रतिशत के आस पास है। खाद्य तथा रोज़ाना काम की ववस्तुओं में मुद्रास्फीति की दर कहीं ऊँची, जहां तक कि 16% तक रही है। इसने मज़दूर वर्ग का जीना मुश्किल कर दिया है।
वर्ग संघर्ष का विकास
अपने जीवन तथा काम के खराब होते हालतों के बीच, मज़दूर वर्ग संघर्ष की राह तलाशता रहा है। 2005 से हम भारत भर में वर्ग संघर्ष का धीमा उभार देख रहे हैं। हां, यह वर्ग संघर्ष के एक विश्वव्यापी उभार का हिस्सा है न कि कोई भारत की विचित्रता। 2010 और 2011 में बहुत सारे सेक़्टरों मे अनेक हड़तालें हुईं, खासकर गुड़गांव तथा चेन्नई के गिर्द आटो उद्योगों में। इनमें से कई संघर्षों में, जैसे 2010 मे होंडा मोटर साइकिल मज़दूरों तथा 2011 मे मारुति सुजुकी मज़दूरों की हड़तालो में, बहुत जुझारुपन तथा मालिकों के सुरक्षा ढ़ांचे से टकराने का ज़ज्बा सामने आया। यह चेन्नाई के निकट हुँडाई मोटर्ज़ में हुई अनेक हड़तालो में भी दिखाई दिया जहां ठेकेदारी प्रथा थोपने के मालिकों के प्रयासों के तथा दूसरे हमलों के खिलाफ मज़दूरों ने कई बार हड़ताल की। इन हड़तालों ने अन्य उद्योगों की ओर फैलने की तथा एकजुटता की शक्तिशाली प्रवृति व्यक्त की। उन्होंने अत्मगठन और आम सभाओं की स्थापना की ओर का भी रुझान दिखाया जिसे मारुति के मज़दूरों की हड़ताल में देखा जा सकता है जिन्होंने ‘अपनी’ यूनियनों की मरज़ी के खिलाफ कारखाने पर कब्जा किया।
वर्ग संघर्ष के इस धीरे-धीरे उठते उफान के अतिरिक्त, अरब देशों मे, ग्रीस में तथा ब्रिटेन में हो रहे संघर्षों ने तथा दुनिया भर के ‘ऑक्यूपाई आंदोलनों’ ने भी भरत मे मज़दूर वर्ग मे प्रतिध्वनि पाई है।
वर्ग संघर्ष के छूत के फैलने का डर
इस स्थिति के रुबरु, बुर्जुआज़ी वास्तव में वर्ग संघर्ष फैलने के खतरे को लेकर चिंतित है। कई बार शासक वर्ग डरा नज़र आया। बहुत सारी हालिया हड़तालों के सामने यह डर देखा जा सकता है।
होंडा मोटर साइकिल में हिंसक टकरावों के तथा मारुति सुजुकी में हाल में बार बार हुई हड़तालों के समक्ष यह डर साफ देखा जा सकता है। समूचा प्रचारतंत्र कहानियों से पटा नज़र आया कि ये हड़तालें फैल सकती हैं और गुडगांवां के तमाम आटो कारखानों को अपनी चपेट में ले कर पूरे क्षेत्र को पंगु कर सकती हैं। ये कहानियें महज़ अटकलबाज़ी नहीं थी। मुख्य हड़तालें बेशक कुछ कारखानों तक सीमित थीं, अन्य मज़दूर हड़ताली कारखानो के गेट पर गए। सांझे प्रदर्शन हुए और समुचे औद्योगिक शहर गुडगांवां में एक दिन की हड़ताल रही। राज्य सरकार हड़ताल के फैलाव को लेकर गंभीर रुप से चिंतित थी। प्रधानमंत्री तथा केन्द्रीय श्रममंत्री की दवाब के तहत, हड़ताल को ठण्डा करने के मकसद से हरियाणा के मुख्यमंत्री तथा श्रममंत्री ने मेनेजमेंट को तथा यूनियनी चौधरियों को एक जगह लाकर बैठाया।
बुर्जुआज़ी के अन्य हिस्सों के समान, यूनियनें भी बढ़ते जुझारुपन के चलते मज़दूरों पर अपना कंट्रोल खोने को लेकर चिंतित हैं। यह 2011 की मारुती की हड़तालों में देखा जा सकता है जहां मज़दूरों ने यूनियनों की मरज़ी तथा निर्देशों के खिलाफ अनेक गतिविधियां की।
इससे यूनियनों पर दवाब पड रहा है कि वे कुछ करती हुई नज़र आंएँ। उन्होंने कुछ रस्मी हड़तालों, जिसमे नवंबर 2011 की बैंक कर्मियों की हड़ताल भी शामिल है, की घोषणा की। मज़दूर वर्ग के भीतर उभरते गुस्से तथा जुझारुपन की निसंदेह अभिव्यक्ति होने के साथ ही हालिया हड़ताल उसे नियंत्रित तथा गुमराह करने का उनका नवीनतम प्रयास है।
संघर्षों को अपने हाथों में लेना
मज़दूरों को समझना होगा कि रस्मी हड़ताल करके घर बैठने से कुछ नहीं होता। न ही पार्क में इकट्ठे हो कर यूनियन चौधरियों तथा संसद सदस्यों के भाषण सुनने से कोई मदद मिलती है। शासक और उनकी सरकार हम पर चढ़ाई कर रहे हैं क्योंकि पूँजीवाद संकट में है उनके पास इससे उभरने का कोई रस्ता नहीं है। हमे जानना होगा कि सभी मज़दूर हमलों का शिकार हैं, सभी एक ही नाव में सवार हैं। निश्चेष्ट तथा एक दूसरे से अलग-थलग रहना मालिकों को मज़दूरों पर अपने हमले तेज़ करने से नहीं रोकता। मज़दूरों को चाहिए कि वे इन अवसरों को बाहर सडकों पर उतरने, स्वयं को लामबन्द करने, एकजुट होने तथा अन्य मज़दूरों से विचार-विमर्श करने के काम लाएँ। उन्हें अपने संघर्ष अपने हाथ में लेने होंगे। यह फौरन हमारी समस्याएँ हल नहीं करेगा पर यह अपने हितों की हिफाजत तथा उनके हमलों को पीछे धकेलने कि लिए मालिकों के खिलाफ एक सच्चा संघर्ष विकसित करना हमारे लिए संभव बनाएगा। यह हमें समूचे पूँजीवाद के खिलाफ अपना संघर्ष विकसित करने और उसके विनाश के लिए काम करने में मदद देगा। फरवरी 2012 मे ग्रीस में ऐथंस ला स्कूल पर कब्जा करने वालों ने जैसे कहा, पूँजीवाद के मौजूदा संकट से स्वयं को मुक्त करने के लिए “हमें (पूँजीवादी) अर्थव्यवस्था का विनाश करना होगा” ।
सीआई, 9 मार्च 2012
1. जर्मन कम्युनिस्ट पार्टी (स्पार्टकसबुन्द) का गठन
जब 30 दिसम्बर 1918 और 1 जनवरी 1919 के बीच जर्मन कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना की गई तो लगा जैसे सामाजिक जनवाद के प्रति क्रांतिकारी विरोध ने अभिव्यक्त पा ली हो। लेकिन जर्मन पार्टी (जो ठीक उस क्षण प्रकट हुई जब सर्वहारा गलियों में हथियारबन्द संघर्ष में लिप्त था और, अल्प-अवधि के लिए, वास्तव में कुछ औद्योगिक केन्द्रों में सत्ता पर कब्जा कर रहा था) ने तुरन्त ही अपने उदगम के बेमेल चरित्र को तथा उन कार्यभारों, जिन्हें पूरा करने के लिए उसकी रचना की गई थी, की एक सार्वभौमिक और सम्पूर्ण समझ हासिल करने की अपनी असमर्थता को प्रकट किया।
वे कौन सी ताकतें थी जो पार्टी के गठन के लिए इक्कठा हुईं थी? और वे समस्याएं क्या थी जो तुरन्त ही इन ताकतों के रास्ते में रुकावट बन कर सामने आई?
हम यहाँ इनमें से सबसे रोचक तथ्यों का परीक्षण करेंगे क्योंकि वे पार्टी की गलतियों को समझने में हमारी मदद करेंगे और क्योंकि वे आगामी विकास को काफी प्रभावित करनेवाले थे।
4 अगस्त 1914 के बाद की घटनाओं का प्रक्षेप पथ अपने में बहुत सी कठिनाईयों और भ्रमों को समेटे था। स्पार्टकस ग्रुप का इतिहास इसका स्पष्ट प्रमाण है। सैद्धांतिक स्पष्टीकरण और विकास पर एक ब्रेक की इसकी भूमिका बहुत साफ है।
स्पार्टकस लीग (स्पार्टकसबुंद) के समय के सभी महत्वपूर्ण निर्णय रोजा लुग्जमबर्ग की पोजीशनों को अभिलक्षित करते थी। (ग्रुप ने स्पार्टकस लीग नाम 1916 में अपना; 1915 में ग्रुप को इसके रिव्यू, जो पहले-पहल अप्रैल 1915 में निकला, के नाम पर इंटरनेशनेल कहा जाता था।)
जिम्मरवाल्ड (5-7 सितम्बर 1915) में जर्मनों का प्रतिनिधित्व किया इंटरनेशनेल ग्रुप ने, बर्लिन से बोरकारट ने जो रिव्यू रोशनी की किरणें से जुडे छोटे से ग्रुप का प्रतिनिधित्व करता था और काउत्सकी से जुड़े मध्यमार्गी धडे ने। केवल बोरकारट ने लेनिन की अन्तर्राष्ट्रीयवादी पोजीशनों का समर्थन किया जबकि अन्य जर्मनों ने निम्न शब्दों में अंकित प्रस्ताव का समर्थन किया:
‘‘किसी भी स्थिति में यह संकेत नहीं दिया जाना चाहिए कि यह सम्मेलन फूट को उभाड़ना और एक नये इंटरनेशनल की स्थापना करना चाहता है।’’
किन्थाल में (24-30 अप्रैल 1916) जर्मन विरोध पक्ष का प्रतिनिधित्व किया इंटरनेशनेल ग्रुप (बर्था थालीमिर और अर्नस्ट मेयर) ने, संगठन में विरोध पक्ष ने (हाफमैन के गिर्द के मध्यमार्गी) और पाल फरोलिच के जरिये ब्रीमेन लिंकसरेडिकलेन ने।
स्पार्टकसवादियों (इंटरनेशनेल) की हिचकिचाहटों पर तुरन्त ही पार नहीं पाया गया। एक बार फिर वे वाम (लेनिन-फरोलिच) की अपेक्षा मध्यमार्गीयों की पोजीशनों के अधिक निकट थे। ई मेयर ने कहा : ‘‘नये इंटरनेशनल का हम वैचारिक आधार तैयार करना चाहते है, लेकिन हम संगठनात्मक स्तर पर अपने-आप को इससे बाँधना नहीं चाहते, क्योंकि प्रत्येक चीज अभी बदलाव की स्थिति में है।’’
यह लुग्जमबर्ग की क्लासिकीय पोजीशन थी जिसके लिए पार्टी क्रांति की आरंभिक तैयारी की अवस्था की अपेक्षा इसके अन्त में ज्यादा जरूरी थी। (‘‘एक शब्द में, ऐतिहासिक तौर पर, वह क्षण जब हमें नेतृत्व संभालना होगा क्रांति के शुरू में नहीं बल्कि इसके अन्त में है।’’)
अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर सबसे महत्वपूर्ण कारक था ब्रीमेर लिंकसरेडिलेन[1] का उदय। 1910 से ही ब्रीमेन का सामाजिक जनवादी पत्र ब्रीमेर बरएर्जीट पान्नेकोएक और रादेक के साप्ताहिक लेख प्रकाशित कर रहा था और डच वाम के असर तले ही ब्रीमेन ग्रुप ने स्वयं को नीफ, पाल फरोलिच और दूसरों के गिर्द गठित किया। 1915 के अन्त में आईएसडी (जर्मनी के अन्तर्राष्ट्रीय समाजवादी) का गठन हुआ, इसका जन्म बर्लिन क्रांतिकारियों, जो रोशनी की किरणें नामक रिव्यू निकालते थे, और ब्रीमेन कम्युनिस्टों के मेल से हुआ। ब्रीमरलिंक औपचारिक तौर पर दिसम्बर 1916 में सामाजिक जनवाद से स्वतंत्र हो गया लेकिन उसी साल जून में उसने पहले ही अर्वीटरपालीटिक[2] का प्रकाशन आरंभ कर दिया था जो कि वाम का सबसे महत्वपूर्ण बैध पत्र था। पान्नेकोएक और रादेक के लेखों के अलावा इसमें जिनोवीव, बुखारिन, कामनेव, ट्राटस्की और लेनिन की रचनायें प्रकाशित होती रहती थी। अर्वीटरपालिटिक ने तुरन्त सुधारवाद से अलगाव की एक अधिक परिपक्व चेतना दिखाई। अपने पहले अंक में उन्होंने लिखा कि 4 अगस्त ‘‘उस राजनीतिक आन्दोलन का स्वाभाविक अन्त था जिसके पतन की प्रक्रिया कुछ समय से जारी थी।’’
अर्वीटरपालिटिक से ही वे प्रवृत्तियां उभरीं जो पार्टी का सवाल उठाने में नेतृत्वकारी रोल अदा करने वाली थीं। सामाजिक जनवाद के भीतर बने रहने के स्पार्टकसवादियों के हठ के कारण उनमें तथा ब्रीमेन ग्रुप में बहस मुश्किल थी।
एक जनवरी 1916 को इंटरनेशनेल ग्रुप के राष्ट्रीय सम्मेलन में नीफ ने सामाजिक जनवादी पार्टी से पूर्ण अलगाव तथा मूलतया एक नए आधार पर क्रांतिकारी पार्टी के गठन की मांग के किसी स्पष्ट परिदश्य की अनुपस्थिति की आलोचना की।
इस वक्त स्पार्टकसवादी ग्रुप इंटरनेशनेल रीशसटैग में सामाजिक जनवादी कार्य समूह (सोश्ल डेमोक्रेटिक वर्क क्लेक्टिव) का पक्षधर था तथा ऐसी घोषणाऐं कर रहा था:
‘‘पार्टी के लिए संघर्ष लेकिन पार्टी के खिलाफ नहीं......पार्टी में जनवाद के लिए, आम कार्यकर्ताओं के अधिकारों के लिए, अपने कर्तव्य भूल चुके नेताओं के खिलाफ पार्टी के साथियों के लिए संघर्ष। हमारा नारा है न तो अलगाव न एकता, न तो नई पार्टी न पुरानी, बल्कि आम सदस्यों के विद्रोह द्वारा आधार स्तर पर पार्टी पर पुनर्विजय....। पार्टी के लिए निर्णायक संघर्ष शुरू हो चुका है।“ (स्पार्टकस ब्रीफ, 30 मार्च 1916)
उसी समय अर्वीटरपालीटिक में पढृा जा सकता था :
‘‘हम समझते है कि इंटरनेशनल के वास्तविक पुन: निर्माण तथा सर्वहारा आन्दोंलन के पुन:जागरण के लिए राष्ट्रीय तथा अन्तर्राष्ट्रीय, दोनों स्तर पर फूट न केवल अवश्यंभावी है बल्कि एक अनिवार्य पूर्वशर्त है। हम मानते हैं कि मेहनतकश जनता के सम्मुख इस गंभीर विश्वास को अभिव्यक्त करने से झिझकना अस्वीकार्य तथा खतरनाक है।’’ (नं : 4)
और लेनिन ने जूनियस पैंफलेट पर (जुलाई 1916) में लिखा :
‘‘जर्मन क्रांतिकारी मार्क्सवाद की सबसे बड़ी कमजोरी है मजबूती से बुने एक अवैध संगठन का अभाव.... ऐसा संगठन अवसरवादों, जैसा काउत्सकी का है, के प्रति अपने रवैये को स्पष्टत: परिभाषित करने को बाध्य होगा। केवल जर्मनी के अन्तर्राष्ट्रीय समाजवादियों (आई एस डी) ने ही इस प्रश्न पर एक स्पष्ट सुलझी हुई पोजीशन अभिव्यक्त की है।’’
स्पार्टकसवादियों ने हास, लेडेवर, काउत्सकी, हिलफर्डिंग तथा बर्नस्टीन की पार्टी, यूएसपीडी, का भी अनुसरण करना जारी रखा (जर्मन की स्वतंत्र सामाजिक जनवादी पार्टी का गठन 6-8 अप्रैल 1917 को हुआ था; यह एक मध्यमार्गी पार्टी थी और अपने आकार के सिवाए सामाजिक जनवाद से सारतत्व में भिन्न नहीं थी लेकिन यह जनता के बढ़ते लड़ाकूपन से जुड़ी हुई थी)। इस अनुसरण ने ब्रीमेन कम्युनिस्टों और स्पार्टकसवादियों के बीच सम्बन्धों को और भी मुश्किल बना दिया। मार्च 1917 में अर्वीटरपालीटिक में अभी भी पढ़ा जा सकता था:
‘‘वाम अमूलवादी (लेफ्ट रेडिकल्स) एक महत्वपूर्ण निर्णय के सम्मुख हैं। सबसे बड़ी जिम्मेदारी इंटरनेशनेल ग्रुप की है, अपनी आलोचना के बावजूद जिसे हम भावी अमूलवादी पार्टी का केन्द्र बनने वाला सबसे सक्रिय और बड़ा ग्रुप मानते हैं। हम बिना किसी लाग-लपेट के कहेंगे कि उनके बिना हम, हम खुद तथा आई एस डी, निकट भविष्य में एक कार्य सक्षम पार्टी का निर्माण करने में असमर्थ होंगे। यह इंटरनेशनेल ग्रुप पर निर्भर करता है कि वाम अमूलवादियों का संघर्ष एक झण्डे तले व्यवस्थित ढंग से चलाया जाएगा या मजदूर आन्दोलन के भीतर के विरोधपक्ष जो अतीत में प्रकट हुए हैं और जिनकी होड़ स्पष्टीकरण में एक कारक है, वे अपना बहुत-सा समय और शक्ति बरबाद कर देंगे और उनका अंत भ्रमों में होगा।’’ (शब्दों पर जोर हमारा)
स्पार्टकस ग्रुप के यूएसपीडी से चिपके रहने की स्थिति बाबत उसी पत्र ने कहा –
“इंटरनेशनेल ग्रुप मर गया है,,,, कुछ साथियों के एक समूह ने एक नई पार्टी की रचना के लिए खुद को एक एक्शन कमेटी के रूप में गठित किया है।’’
वास्तव में, एक नई पार्टी का आधार स्थापित करने के उदेश्य को लेकर, अगस्त 1917 में ब्रीमेन, बर्लिन फेंकफुर्त, और दूसरे जर्मन नगरों से डेलीगेटों की एक मीटिंग बर्लिन में हुई। ड्रेसडेन ग्रुप के साथ आटों रुहले ने इस मीटि़ग में भाग लिया।
खुद स्पार्टकस ग्रुप में बहुत से ऐसे तत्व थे जिनकी पोजीशनें लिंकसरेडीकलेन के बहुत करीब थीं और जिन्हें रोजा लुग्जमबर्ग के गिर्द ‘‘जेनटरेल’’ का संगठनात्मक समझौता स्वीकार्य नहीं था। पहले-पहल यह सामाजिक जनवादी कार्य समूह में भाग लेने के विरोध में डुइसबर्ग, फेंकफुर्ट और ड्रेसडेन के स्पार्टकस ग्रुपों के में प्रकट हुआ। (ड़़ुइसबर्ग ग्रुप का मुख्पत्र कैम्फ, इस भागीदारी के खिलाफ एक प्रबल बहस में लिप्त था)। तदन्तर दूसरे ग्रुपों ने यूएसपीडी से जुडे रहने का विरोध किया, मसलन हैकर्ट के गिर्द महत्वपूर्ण ग्रुप चेमनित्ज। व्यवहार में ये ग्रुप अर्वीटरपालीटिक में रादेक द्वारा अभिव्यक्त पोजीशन का समर्थन करते थे:
‘‘मध्यमार्गियों के साथ पार्टी बनाने का विचार एक खतरनाक यूटोपिया है। यदि वे अपने ऐतिहासिक कार्यों को अंजाम देना चाहते हैं तो वाम अमूलवादियों को अपनी पार्टी बनानी होगी, चाहे हालतों ने उन्हें इसके लिए तैयार किया हो या नहीं।’’
खुद लीब्कनेख्त, जो वर्ग के भीतरी उभार से ज्यादा करीब से जुड़ा हुआ था, ने जेल में लिखी एक रचना (1917) में अपनी पोजीशन को अभिव्यक्त किया जिसमें, क्रांति की जीवित धड़कन को पकड़ने का प्रयास करते हुए, उसने जर्मन सामाजिक जनवाद के भीतर की तीन सामाजिक परतों में भेद किया। पहली परत वैतनिक अधिकारियों की थी जो सामाजिक जनवादी पार्टी के बहुमत की राजनीति का सामाजिक आधार थी। दूसरी परत में थे :
‘‘अच्छे खाते-पीते और शिक्षित मजदूर। उनके लिए शासक वर्ग के साथ एक गंभीर झड़प की आसन्नता स्पष्ट नहीं ह। वे प्रत्याघात करना तथा संघर्ष करना चाहते हैं। वे सामाजिक जनवादी कार्य समूहों का आधार है।’’
अन्त में, तीसरी परत में थे :
“सर्वहारा जनसमूह, अशिक्षित मजदूर। शब्द के स्टीक अर्थ में सर्वहारा। केवल इस पर्त के पास, इसकी वास्तविक स्थ्िति के कारण, खोने को कुछ नहीं है। हम इन जनसमूहों का, सर्वहारा का, समर्थन करते हैं।’’
इस सबसे दो बातों का पता लगता है :
रूसी क्रांति
इस क्रांति बाबत स्पार्टकसवादियों तथा यूएसपीडी के बहुमत के बीच उठे मतभेद अर्वीटरपालीटिक को एक बार फिर स्पार्टकसवादियों के साथ बातचीत की ओर ले गए।[3] ब्रीमेन कम्युनिस्टों ने रूसी क्रांति से एकजुटता को कभी जर्मनी में कम्युनिस्ट पार्टी के गठन की जरूरत से अलग नहीं किया। ब्रीमेन कम्युनिस्टों ने पूछा, रूस में क्रांति क्यों विजयी हुई थी ?
‘‘सिर्फ और सिर्फ इस लिए क्योंकि रूस में वाम असूलवादियों की अपनी एक स्वायत पार्टी है जिसने शुरू से ही समाजवाद की पताका को उठाया है और सामाजिक क्रांति के झण्डें तले लड़ी है।’’
‘‘यदि गोथा में शुभेच्छा से कोई इंटरनेशनेल ग्रुप के दृष्टिकोण के पक्ष में अभी भी तर्क खोज सकता था तो आज स्वतंत्रों के साथ मेल की उचितता के आभास तक खत्म हो चुके हैं।’’
‘‘आज अन्तर्राष्ट्रीय स्थिति एक अमूलवादी (रेडिकल) पार्टी की स्थापना को और भी अधिक महत्वपूर्ण जरूरत बनाती है।’’
‘‘अपनी तरफ से हम जर्मनी में एक लिकसरेडीकलेन पार्टी के लिए परिस्थितियॉं तैयार करने में अपनी पूरी ताकत लगाने को दृढ़ता से वचनबद्ध है। इसलिए पिछले नौ महीनों से स्वतंत्रो की कमजोरी को ध्यान में रखते हुए तथा गोथा समझौतों (जो जर्मनी में अमूलवादी आन्दोलन के भविष्य को केवल नुकसान ही पहुँचा सकता है)[4] के क्षयकारी प्रतिघातों को ध्यान में रखते हुए, हम इंटरनेशनेल ग्रुप के अपने साथियों को नकली-समाजवादी स्वतंत्रो से स्पष्ट तथा खुले तौर पर अलग होने तथा एक स्वायत अमूलवादी वाम पार्टी की स्थापना करने को निमन्त्रित करते हैं।’’ (अर्वीटरपालीटिक 15 दिसम्बर, 1917)
इस सब के बावजूद जर्मनी में पार्टी की स्थापना तक एक साल और गुजरने बाला था, और एक ऐसा साल जिसमें सामाजिक तनाव धीरे-धीरे बढ़ रहे थे: बर्लिन की 17 अप्रैल की हड़तालों से गर्मियों के नेवी विद्रोह और जनवरी 1918 की हड़तालों की लहर (बर्लिन, रुहर कील ब्रीमेन, हम्बर्ग ड्रेसडन), जो पूरी गर्मियों और पतझड में जारी रही।
आईये, अब हम जर्मन स्थ्िाति का अभिलक्षण कुछ दूसरे छोटे ग्रुपों की जांच-पड़ताल करें। हमने ऊपर जिक्र किया है कि आईएसडी ने बर्लिन के रोशनी की किरणें रिव्यू के गिर्द ग्रुप को भी अपने साथ जोड़ लिया था। उस ग्रुप का सबसे महत्वपूर्ण प्रतिनिधि बोरकारट था। उसने रिव्यू में जो विचार विकसित किये थे वे उग्रतापूर्वक सामाजिक जनवाद विरोधी थे, लेकिन अपनी अर्ध-अराजकतावादी प्रवृत्ति के कारण वे पहले ही ब्रीमेन कम्युनिस्टों से सम्बन्ध- विच्छेद को दिखाते थे। जैसा अर्वीटर-पालीटिक ने कहा: ‘‘पार्टी के स्थान पर, वह (बोरकार्ट) एक अराजक प्रवृत्ति के प्रचारात्मक पंथ को रखता है।’’ आगे चलकर, वाम कम्युनिस्टों ने उसे गद्दार माना और उसका नाम ‘‘भगौडा जूलियन’’ रखा।
बर्लिन में, बरनर मोलर, जो पहले ही रोशनी की किरणों में भागीदार था, अर्वीटरपालीटिक का एक उत्कट सहकर्मी और बाद में उसका प्रतिनिधि बना। (जनवरी 1919 में नोसके के आदमियों ने निर्दयतापूर्वक उसका हत्या कर दिया गया)।
बर्लिन में वामधारा बहुत प्रबल थी, दूसरों के अतिरिक्त, स्पार्टकसवादी कार्ल शरोडर और फ्रेडरिक वेन्डल (बाद में केएपीडी वाले) उसमें थे।
सामाजिक जनवाद के प्रति क्रांतिकारी विरोधपक्ष में हैम्बर्ग ग्रुप का अपना विशेष स्थान है। यह नवंबर 1918 में ही अईएसडी में शामिल हो हुआ जब उसने नीफ के प्रस्ताव पर 23 दिसंबर 1918 को अपना नाम आईकेजी (जर्मनी के अन्तरर्राष्ट्रीय कम्युनिस्ट) कर लिया। हैम्बर्ग में अगुआ हाइनरिख लाफेनबर्ग तथा फ्रित्ज़ बोल्फेम थे। ब्रीमेन कम्युनिस्टों से जो चीज उन्हें अलग करती थी, वह थी नेताओं के खिलाफ निर्देशित एक संघाधिपत्यवादी (सिंडीकेलिस्ट) तथा अराजकी ढंग की तीखी बहस। दूसरी तरफ अर्वीटरपालीटिक ने सही पोजीशन प्रतिपादित की जब उसने लिखा :
‘‘वाम अमूलवादियों का ध्येय, जर्मनी की भावी कम्युनिस्ट पार्टी का ध्येय, जिसमें देर-सबेर वे सभी शामिल होंगे जो पुराने आदर्शों के प्रति वफादार बने रहे हैं, बड़े नामों पर टिका हुआ नहीं। इसके विपरीत यदि हमें कभी समाजवाद हासिल करना है तो वास्तव में नया जो तथ्य है और जो होना चाहिए वह यह कि बेनाम जनसमूह अपना भाग्य स्वयं अपने हाथ में ले लें, प्रत्येक साथी अपने आसपास के बड़़े नामों के बारे में खुद को चिन्तित किये बगैर अपना व्यक्तिगत योगदान दे।’’ (जोर हमारा)
हैम्बर्ग ग्रुप के राजनीतिक दिशाविन्यास का खुला संघाधिपत्यवादी (सिंडीकेलिस्ट) चरित्र एक हद तक वोल्फोम की तबकि गतिविधि से उत्पन्न हुआ जब वह अमेरिका में इंटरनेशनल वर्करस आफ द वर्ल्ड से सम्बद्ध था।
लेकिन निस्संदेह, इस वक्त जर्मनी में वर्ग संघर्ष की सबसे बढिया अभिव्यक्ति ब्रीमेन कम्युनिस्टों में पाई जाती थी। यह कहना संगठन की समस्या पर्, क्रांतिकारी प्रक्रिया की अवधारणा पर तथा पार्टी की भूमिका पर स्पार्टकस ग्रुप (और उसकी बेहतरीन सिद्धांतकार रोजा लुग्जमबर्ग) के सभी तर्क और गलतियॉं उजागर कर देता है। तो भी रोजा लुग्जमबर्ग की गलतियों की ओर इशारा किसी भी प्रकार से उसके वीरोचित संघर्ष की अस्वीकृति को सूचित नहीं करता; बल्कि यह समझने की इजाजत देता है कि बर्नस्तीन तथा काउत्सकी के खिलाफ अपनी सैद्धांतिक लड़ाई में विकसित विस्तृत अन्तदृष्टि के साथ-साथ उसने ऐसी पोजीशनों का भी बचाव किया जिन्हें हम स्वीकार नहीं कर सकते।
हमारे पास पूजने के लिए कोई देवता नहीं है; इसके विपरीत हमें अतीत की भूलों को समझने की जरुरत है ताकि हम खुद उनसे बच सकें, ताकि हम यह जान सकें कि ऐतिहासिक सर्वहारा आन्दोलन से उपयोगी किन्तु अपूर्ण सबक (इस मामले में क्रांतिकारियों के कार्य तथा संगठनात्मक कार्यभारों संबंधी) कैसे निकाले जाएँ।
अपने कार्यभार पूरा करने के लिए हमें उस अटूट संबंध को समझना होगा जो प्रतिक्रांति के दौर में छोटे क्रांतिकारी ग्रुपों की गतिविधि (और बिलान तथा इंटरनेशनलिज्म का काम इसका मुंह बोलता गवाह है) के बीच तथा राजनैतिक ग्रुप की उस कार्रवाई के बीच में विद्यमान है जो वह तब करता है पूँजी के असाध्य अन्तर्विरोधों वर्ग को क्रांतिकारी संघर्ष की और धकेल रहे होते हैं। सवाल अब पोजीशनों के मात्र बचाव का नहीं रहता। बल्कि सवाल है इन पोजीशनों के सतत विशदीकरण तथा वर्ग के कार्यभारों के आधार पर वर्ग की स्वयंस्फूर्तता को मज़बूत करने के समर्थ होने का। सवाल है वर्ग की चेतना की एक अभिव्यक्ति होने का, निर्णायक आक्रमण के लिए उसकी ताकतों को एकजुट करने में सहायक होने का, दूसरे शब्दों में पार्टी के निर्माण का, जो सर्वहारा की विजय में आवश्यक चरण है।
लेकिन क्रांतियों की ही तरह पार्टियों भी तैयार-बर-तैयार आसमान से नहीं टपकती। इसकी थोड़ी व्याख्या करें। संगठनात्मक कृत्रिमतायें मात्र किसी पुराने ध्येय की सेवा नहीं करतीं, इसके विपरीत उन्होंने बहुधा प्रतिक्रांति की सेवा की है। ‘‘पार्टी’’ की घोषणा करना, प्रतिक्रांति के दौर में अपने संगठन को पार्टी के रूप में खडा करना एक विसंगति, एक बहुत गंभीर गलती है जो फौरी क्रांतिकारी परिदृश्य की गैरहाजिरी में समस्या के सारतत्व को समझने की असमर्थता दिखाती है। लेकिन इस कार्य को ताक पर रख देना अथवा वक्त गुजरने तक इसको टालते जाना भी किसी कदर कम गंभीर गलती नहीं मौजूदा अध्ययन के संदर्भ में यह दूसरी गलती अधिक महत्वपूर्ण है।
जो लोग कहते हैं कि समस्त समस्याएँ स्वयं-स्फूर्त सुलझ जाएँगी वे, अंतिम विशलेषण में, अचेत स्वतस्फूर्तता का गुणगान कर रहे हैं न कि स्वतस्फूर्तता से चेतना की ओर गमन का; वे या तो यह समझने में असमर्थ है या समझना नहीं चाहते कि वर्ग द्वारा अपने संघर्ष में चेतना की प्राप्ति उसे पूँजी के गढ़, राज्य, पर आक्रमण के लिए समुचित औज़ार की जरूरत को पहचानने की ओर ले जाएगी।
अगर वर्ग की स्वत: सक्रियता एक चरण है जिसकी हम वकालत करते है तो स्वत: स्फूर्ततावाद, यानि स्वत: सक्रियता को एक उसूल करार देना, वास्तव में स्वत: सक्रियता को खत्म कर देता है। यह स्वंय को कई एक बासी जड़सूत्रों में व्यक्त करता है : ‘‘जहाँ मजदूर हैं वहां होने’’ का उत्तेजित प्रयास, यह फैसला लेने की अयोग्यता कि उतार और आवर्तन के क्षणों में कब ‘‘धारा के खिलाफ’’ होना है ताकि बाद में निर्णायक क्षणों में ‘‘धारा के साथ’’ चला जा सके। संगठन के सवालों पर लुग्जमबर्ग के भटकावों ने स्वंय को सत्ता जीतने की उसकी अवधारणा में भी प्रकट किया – और यहां हम यह जोड़ेंगे कि इन दोनों सवालों में घनिष्ठ अन्तर सम्बन्ध होने के नाते यह अनिवार्य था :
‘‘हमारे लिए सत्ता की जीत एक झटके में अंजाम नहीं दी जाएगी। यह एक क्रमिक कार्रवाई होगी, क्योंकि हम पूँजीवादी राज्य की समस्त पोजीशनों पर उत्तरोत्तर कबजा करेंगे, जीते हुए की जी-जान से रक्षा करते हुए।’’ (‘जर्मन कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना कांग्रेस में रोज़ा लुग्जमबर्ग का भाषण’, पाथफाईंडर प्रेस)।
बदकिस्मती से, बात यहीं खत्म नहीं हुई। ब्रीमेन ग्रुप का प्रतिनिधित्व करते हुए, पॉल फ्रोलिच जब नवंबर 1918 में हैम्बर्ग में निम्न अपील जारी कर रहा था -- ‘‘यह जर्मन क्रॉंति की, विश्व क्रांति की शुरुआत है। विश्व क्रान्ति की महानतम कार्रवाई, जिन्दाबाद! जर्मन मजदूर गणराज्य जिन्दाबाद! विश्व बोल्शेविज्म जिन्दाबाद!’’ बजाए यह पूछने के कि इतना बड़ा हमला क्यों पराजित हुआ, करीब एक माह बाद रोजा लुग्जबर्ग कह रही थी ‘‘नवम्बर 9 को मजदूरों और सिपाहियों ने जर्मनी में पुराने शासन को उखाड़ फेंका.... नवम्बर 9 को सर्वहारा उठ खड़ा हुआ और उसने यह शर्मनाक जुआ उतार फेंका...। जर्मन राजशाही को कौंसिलों में संगठित मजदूरों और सिपाहियों ने मार भगाया।’’ इस प्रकार सत्ता के विलियम द्वितीय के गिरोह के हाथ से एबर्ट-शीदेमान-हास के गिरोह के हाथ में जाने की व्याख्या उसने एक क्रान्ति के रूप में की ना कि क्रांति के खिलाफ पुराने पहरेदारों की तबदीली के रूप में। [5]
सामाजिक जनवाद की ऐतिहासिक भूमिका को समझने की इस असफलता की कीमत रोजा लुग्जमबर्ग, लीब्कनेख्त तथा हजारों सर्वहारागणों को अपनी जान से चुकानी पड़ी। केऐपीडी (जर्मन कम्युनिस्ट मजदूर पार्टी), इतालवी वाम के समान, इस तजरूबे से सबक लेने के मामले में स्पष्ट थी। केऐपीडी द्वारा कम्युनिस्ट इंटरनेशनल के तथा केपीडी के विरोध का एक अत्याधिक बुनियादी कारण था यूएसपीडी से किसी भी प्रकार का सम्बन्ध रखने से उसका सख्त विरोध। इस ओर हम बाद में लौटेंगे। फिलहाल, 6 फरवरी 1921 को बोरदिगा ने एल कम्युनिस्टा में ‘‘सामाजिक जनवाद का ऐतिहासिक कार्य’’ नामक एक लेख लिखा। इसमे से हम चन्द अंश दे रहे हैं:
‘‘सामाजिक जनवाद का एक ऐतिहासिक कार्य है, इस अर्थ में कि यूरोप में संभवत: एक ऐसा दौर रहेगा जब सामाजिक जनवादी पार्टियाँ, स्वंय अथवा बुर्जुआ पार्टियों के सहयोग में सत्ता में रहेंगी। सर्वहारा के पास यद्यपि इसे रोकने की क्षमता न हो, ऐसी मध्यवर्ती मंजिल क्रान्तिकारी रूपों और संस्थाओं के विकास में एक सकारात्मक तथा आवश्यक अवस्था नहीं; उनके लिए उपयोगी तैयारी होने के विपरीत यह सर्वहारा क्रान्तिकारी आक्रमण को कम करने, उसे विपथ करने की बुर्जुआजी की हताश कोशिश होगी, ताकि बाद में मजदूरों को, अगर सामाजिक जनवाद की वैधानिक, मानवतावादी तथा सभ्य सरकार के खिलाफ बगावत करने की ताकत अभी उनमे बाकी हो, सफेद प्रतिक्रिया के झण्डों तले निर्ममता से कत्ल किया जा सके।’’
‘‘जिस प्रकार मजदूर कौंसिलों की तानाशाही के सिवा सर्वहारा सत्ता का कोई अन्य रूप नहीं हो सकता, उसी प्रकार हमारे लिए बुर्जुआजी से सर्वहारा को सत्ता हस्तांतरण के सिवा कोई सत्ता हस्तांतरण नहीं हो सकता।’’
2. जर्मन कम्युनिस्ट पार्टी (स्पार्टकस बुँद) के लड़खड़ाते कदम
हमने यह अध्ययन जर्मन कम्युनिस्ट पार्टी की 30 दिसंबर 1918 – 1 जनवरी 1919 की स्थापना कांग्रेस से शुरू किया। फिर हम इसकी जडों की ओर मुड गए। अब हम आरंभिक प्रस्थान-बिन्दू से जारी रखेंगे।
स्थापना कांग्रेस में दो बिल्कुल विरोधी दो पोज़ीशनें उभर कर सामने आईं। एक ओर था रोजा लुग्जमबर्ग, जोगिश्चे तथा पाल लेबी के गिर्द का अल्पमत जिसमें पार्टी की सर्वाधिक महत्वपूर्ण शख़्सियतें शामिल थीं और जिसने, अल्पमत में होने के बावजूद, उसका नेतृत्व संभाला। (अल्पमत का खिल्ली उडाने का रवैया तथा वाम की प्रबल पोजीशनों को अभिव्यक्ति की करीब-करीब इजाजत न देना, जेनट्रेल में सिर्फ फ्रालिच को शामिल किया गया था, कुछ माह बाद हाईडलवर्ग कांग्रेस में तमाशा बनने वाला था।) दूसरी तरफ था पार्टी का बहुमत : आईकेडी तथा स्पार्टकसवादियों के एक बड़े हिस्से द्वारा व्यक्त उत्साह तथा क्रान्तिकारी अर्न्तशक्ति। लीब्कनेख्त के नेतृत्व में वाम की पोजीशनें भारी बहुमत से विजयी हुई; चुनावों का विरोध, यूनियनों का त्याग, आम बगावत की तैयारी।
लेकिन बगावती आक्रमण की तैयारी के फौरी कार्यभारों के समक्ष बहुमत के पास एक स्पष्ट परिदृश्य की कमी थी। सैनिक समस्या भी पार्टी के केन्द्रीकृत तथा नेतृत्वकारी रोल की मांग करती थी। चारों ओर एक प्रकार का संघवाद तथा स्थानीयतावादी स्वतंत्रता हावी थी। बर्लिन में शायद ही किसी को पता था कि रूहर में, देश के मध्य में अथवा दक्षिण में क्या घट रहा है और् इसके उल्टे भी। स्वयं रोटफाहन ने 8 जनवरी 1919 में माना कि ‘‘मजदूर वर्ग को संगठित करने के कार्यभार के लिए जिम्मेदार एक केन्द्र का अनास्तित्व बना नहीं रह सकता....। यह अत्याधिक जरूरी है कि क्रांतिकारी मजदूर जनसमूहों की लड़ाकू शक्ति को दिशा देने तथा उसका क्रान्तिकरण करने में समर्थ एक संगठन-तन्त्र की स्थापना करें।’’ और यह रिपोर्ट मात्र बर्लिन की बात कर रही है।
यह विघटन और बढ़ने वाला था। रोजा लुग्जमबर्ग तथा लीब्कनेख्त की हत्या के बाद यह पागलपन के स्तर तक पहुँच गया। ऐन उस वक्त जब पार्टी भूमिगत होने को मजबूर थी और प्रतिक्रांतिकारी हिंसा का शिकार थी, उसने अपने-आप को सिर (नेतृत्व) विहीन पाया। जर्मनी में सब जगह, ब्रीमेन, म्युनिख, बावेरिया आदि में उभरने वाले सोवियत गणराज्यों को एक-एक कर पराजित कर दिया गया और सर्वहारा योद्धाओं को कत्ल किया गया। सर्वहारा उभार, वर्ग में निहित अपरिमित संभावनाओं को एक धक्का लगा। हम अप्रैल 1919 में बावेरियन सोवियत गणराज को लिखे लेनिन के पत्र को पूरा उद्धृत करने से नहीं रह सकते। कहने की जरूरत नहीं कि लेनिन द्वारा सुझाए अधिकतर ‘‘ठोस कदम’’ कभी उठाए नहीं जा सके।
बावेरियन सोवियत गण्राज्य को शुभकामनाएँ
‘‘हम शुभकामना सन्देश के लिए आप को धन्यवाद देते हैं और बावेरियन सोवियत गणराज का जी-जान से स्वागत करते हैं। हम चाहेंगे के आप शीघ्र हमें उन कदमों के बारे में अधिक ठोस रूप से तथा अधिक बार सूचना दें जो आपने बुर्जुआ जल्लादों के, शीदेमान और कम्पनी के खिलाफ संघर्षों में उठाए हैं; क्या आपने शहर के विभिन्न भागों में मजदूरों तथा नौकरों की सोवियतें बनाई हैं, क्या आपने सर्वहारा की हथियारबन्द और बुर्जुआजी को निरस्त्र किया है, क्या आपने मजदूरों और सर्वोपरि खेत मजदूरों तथा छोटे किसानों की मदद के लिए कपड़े तथा अन्य वस्तुओं के गोदामों का भरपूर उपयोग किया है, क्या आपने म्युनिख के पूंजीपतियों के कारखानों का, उनके माल का तथा पास-पड़ोस के पूंजीवादी कृषि उद्यमों का अधिग्रहण किया है, क्या आपने छोटे किसानों के रहननामों तथा लगानों का उन्मूलन किया है, क्या आपने खेत मजदूरों तथा अन्य मजदूरों की मजदूरी को तिगुना किया है, क्या आपने जनता के लिए परचे तथा अखबार छापने के मकसद से समस्त कागज तथा छापेखानों का अधिग्रहण किया है, क्या आपने राजकीय प्रशासन कला के अध्ययन को अर्पित दो घण्टों सहित छ: घण्टों का कार्य दिवस लागू किया है, क्या आपने मजदूरों को फौरन धनी मकानों में ठहराने के लिए पूंजीपतियों को एक जगह इकटठा किया है, क्या आपने समस्त बैकों का अधिग्रहण किया है, क्या आपने बुर्जुआजी में से बन्दी बनाए हैं, क्या तुमने मजदूरों को बुर्जुआजी के सदस्यों से अधिक देता खाद्यान का राशन लागू किया है, क्या आपने पड़ोसी गांवों में प्रचार तथा प्रतिरक्षा के लिए फौरन समस्त मजदूरों को लामबन्द किया है। मजदूरों तथा खेत मजदूरों की सोवियतें, तथा अलग से, छोटे किसानों की सोवियतों द्वारा लागू इन कदमों तथा ऐसे ही अन्य कदमों का विशालतम संभव उपयोग आपकी पोजीशन को अवश्य मजबूत बनाएगा। एक असाधारण टैक्स से बुर्जुआजी पर चोट करना तथा फौरन, हर कीमत पर, मजदूरों, खेत मजदूरों तथा छोटे किसानों की स्थिति में व्यवहारत: सुधार करना अति आवश्यक है। शुभकामनाएँ तथा सफलता की आशा’’- लेनिन।
सैद्धांतिक तैयारी की यह कमी, हालात की जरूरत के बराबर उठ पाने की यह असमर्थता, उतार के पहले चिन्हों के साथ फूट को जन्म देने वाली थी। दूसरी ओर वे थे जिन्होंने विजयी रूसी क्रान्ति के रणनीतिक तथा कार्यनीतिक तरीकों को जर्मनी पर लागू करने की हास्यस्पद कोशिश में अब बोलशेविज्म की ओर, विजयी रूसी क्रांति की ओर देखना और उसके प्रचार को उठाना शुरू किया। रादेक का मामला इसका ठेठ उदाहरण है। आरंभ में वह आन्दोलन के सर्वाधिक अटल [2] खेमे, ब्रीमेन कम्युनिस्टों, का प्रवक्ता था। 1919 की गर्मियों में संघर्ष के उतार के बाद वह पाल लेवी के साथ, अक्तूबर 1919 की हाईडलबर्ग कांग्रेस का निर्माता बना जहां पार्टी की स्थापना कांग्रेस की उपलब्धियों को तिलांजलि दे दी गई और उन्हें बदल दिया गया चुनावों के कार्यनीतिक उपयोग द्वारा, अति-सुधारवादी यूनियनों में काम द्वारा और अन्त में ‘‘खुले-पत्रों’’ के तथा ‘‘संयुक्त मार्चों’’ के प्रयोग द्वारा।
इस प्रकार, इस रुझान द्वारा केन्द्रीयकरण का आहवान संदिग्ध उपयोगिता लिए हुए है, क्योंकि वे आन्दोलन के स्वत:स्फूर्त विकास की दिशा के उल्ट रास्ता अपना रहे थे। दूसरी ओर क्रांतिकारी खेमे ने यह बनावटी चुनाव करने से इन्कार कर दिया और उसके पूर्वानुमान अधिक फलदायक साबित हो रहे थे। पर जब उन्होंने स्वंय को एक संगठित रुझान में गठित कर लिया तो उन्हें बढ़ती मुश्किलों की एक ठोस दीवार का सामना करना पडा।
क्या विश्व क्रांति रूसी क्रांति की खामियों की बजह से फेल हुई अथवा रूसी क्रांति विश्व क्रांति की खामियों की बजह से फेल हुई?
इस समस्या का उत्तर सरल काम नहीं और वह इन बरसों की सामाजिक गत्यात्मकता की समझ की मांग करता है। रूसी क्रांति पश्चिमी सर्वहारा के लिए एक शानदार उदाहरण थी। मार्च 1919 [6] में स्थापित तीसरा इंटरनेशनल बोल्शेविकों के क्रांतिकारी संकल्प का उदाहरण है और यूरोपीय कम्युनिस्टों का सहयोग हासिल करने की उनकी वास्तविक कोशिश का प्रतिनिधित्व करता है। लेकिन रूसी इंकलाब की अन्दरूनी मुश्किलें जो गृहयुद्ध के अन्त में आसमान छूने लगी थी और रूसी ढांचे में जिनका कोई समाधान नहीं था और जर्मन इंकलाब के पहले चरण (जनवरी-मार्च 1919) की तथा हंगरी के सोवियत गणराज्य की असफलता, इस सब ने रूसी कम्युनिस्टों को यकीन दिला दिया कि यूरोप में क्रांति एक चिरकालिक परिदृश्य है। उनके अनुसार अब मसला था भविष्य के लिए मजदूरों के बहुमत को पुन: अपनी ओर करना तथा सामाजिक जनवादी जनसमूहों को कम्युनिस्ट पोजीशनों के सहीपन के कायल करना। एक रुझान था यूएसपीडी को पुन: अपने में मिलाने का, उसे बुर्जुआजी के एक गुट की बजाए मजदूर आन्दोलन के दक्षिण-पंथ के रूप में देखने का। और सामाजिक जनवाद के खिलाफ संघर्ष को, वर्ग के सर्वाधिक अग्रगामी स्तरों के लड़ाकूपन के आधार पर सामाजिक जनवाद को नंगा करने और उस पर हमले की जरूरत पर जोर देकर इन स्तरों से जुड़ने के प्रयासों को धीरे धीरे त्याग दिय गया।
इस प्रकार हम कह सकते हैं कि पहले दौर में (1918-1919) पश्चिमी कम्युनिस्टों की हिचकिचाहट जानलेवा थी। तो बाद में यूरूप में जब स्थिति अभी भी क्रांतिकारी थी, स्वंय कम्युनिस्ट इन्टरनेशनल एक सच्चे सर्वहारा हिरावल के, पछेता ही सही, फलने-फूलने के रास्ते में रुकावट बनने वाला था। और हम यहां मात्र 1920-21 के सालों की बात कर रहे हैं। इसके बाद हम बुर्जआजी के हमलों के खिलाफ सर्वहारा प्रतिक्रिया के दो और सालों की बात कर सकते हैं, मसलन हैम्बर्ग 1923। सिर्फ उसके बाद ही मजदूर वर्ग की अन्तिम हार और उसके कत्लेआम की बात की जा सकती थी। एक स्थिति से दूसरी में गमन यद्यपि क्रमिक रूप से हुआ, फिर भी हम इस पतन के निर्णायक चरणों को अंकित कर सकते हैं : कम्युनिस्ट इन्टरनेशनल द्वारा एम्सटर्डम ब्यूरो को भंग किया जाना और लेनिन की रचना वामपंथी कम्युनिज्म एक बचकाना रोग।
आइये, जर्मन कम्युनिस्ट पार्टी के उतार-चढ़ाव की ओर लौटें। 17 अगस्त 1919 को फ्रैंकफुर्त में एक राष्ट्रीय कांफ्रेंस का आयोजन किया गया। वाम पर लेवी का आक्रमण असफल रहा। लेकिन उसी वर्ष अक्तूबर में इसे अधिक सफलता मिली। एक गुप्त कांग्रेस में जिसमें जिला सेक्शनों का बहुत कम प्रतिनिधित्व था, और बहुतों की इच्छाओं के खिलाफ, जनवरी में अपनाई कार्यक्रम संबंधी पोजीशनें बदल कर एक व्यवहारिक विभाजन का निर्णय लिया गया। पार्टी के नये कार्यक्रम का पॉइंट 5 इस प्रकार था:
‘‘क्रान्ति, जो एक झटके से नहीं होगी बल्कि एक वर्ग, जो सदियों से दलित है और इस प्रकार अपने ध्येय और अपनी ताकत के प्रति अभी पूर्ण रूप से सचेत नहीं, का लम्बा तथा दृढ़ प्रतिज्ञा संघर्ष होगी, और यह चढ़ाव तथा उतार की प्रक्रिया से शासित है।’’
और शीघ्र बाद लेवी ने इस दृष्टिकोण का समर्थन किया कि नई क्रांतिकारी लहर ....1926 में आएगी। पर ‘‘वामपंथियों’’, ‘‘दुस्साहवादियों’’ को निष्कासित करने का निर्णय आधिकारिक रूप से नहीं लिया गया था और यह सवाल 1920 में केपीडी की तीसरी काँग्रेस तक नहीं सुलझा था। हाईडलबर्ग काँग्रेस के बाद वाम ने स्वंय को केपीडी (ओ) (ओ का अर्थ विरोधपक्ष) में गठित करने का प्रयास किया। इस प्रकार व्यवहारिक रूप से यह सुनिश्चित हो गया कि 1920 के पहले चन्द महींनों के बाद करीब-करीब दो केपीडी संगठन थे: केपीडी (स्पार्टकसबुंद) तथा केपीडी (ओ)। यह सब एक पूर्णतया अराजक स्थिति में घटित हुआ। बिरले और अपूर्ण समाचार ही जैसे-तैसे मासको तक पहुँच पाते थे। 10 अक्तूबर 1919 के इतालवी, फ्रांसीसी तथा जर्मन कम्युनिस्टों के अभिनंदन में लेनिन ने लिखा:
‘‘जर्मन कम्युनिस्टों बाबत हम सिर्फ इतना जानते है कि अनेकों कस्बों में कम्युनिस्ट प्रैस है। एक आन्दोलन जो तेजी से फैल रहा है और जो जबरदस्त दमन का शिकार है, उसमें मतभेदों का उभरना अनिवार्य हैा यह बढ़्ने का दर्द है। जहां तक मैं आंक पाया हूँ, जर्मन कम्युनिस्टों के मतभेदों को ‘कानूनी रास्तों’ का प्रयोग करने, बुर्जुआ संसदों, प्रतिक्रियावादी युनियनों, शीदेमानों तथा काउत्सकियों द्वारा दूषित कानूनी कौंसिलों को प्रयोग करने के मसले के रूप मे, इन संस्थाओं में हिस्सा लेने अथवा उनका बहिष्कार करने के मसले के रूप मे प्रस्तुत किया जा सकता।’’
लेनिन ने इन संस्थाओं में भागीदारी का पक्ष लिया और लेवी की नीतियों पर अपनी स्वीकृति की मोहर लगा दी।
लेनिन केन्द्रीय समस्या, जो चन्द माह बाद प्रकट होनेवाली थी, यह थी कि या तो गैर-कानूनी क्रान्तिकारी संघर्ष तथा सैनिक तैयारी को अपनाया जाए या फिर यूनियनों तथा संसद में कानूनी गतिविधियों को। केपीडी की ‘‘दो लाइनों’’ के बीच संघर्ष का यही आधार था। कुछ समय के लिए विरोधपक्ष का केन्द्र हैम्बर्ग में आधारित था। लेकिन लोफनबर्ग तथा वोल्फहोम की साख शीघ्र गिरने लगी। उन्होंने ही राष्ट्रीय बोल्शेविज्म का प्रतिपादन करना शुरू किया था, जिसके मुताबिक एटेण्ट के खिलाफ जर्मनी की प्रतिरक्षा, जर्मन बुर्जुआजी से गठजोड़ की कीमत पर भी, एक क्रान्तिकारी कर्तव्य थी।[7] तब से ब्रीमेन, जो पहले ही एक ‘‘सूचना केन्द्र’’ के रूप में काम कर रहा था, वामपंथी कम्युनिज्म के लिए संदर्भ बिन्दू बन गया। 1920 के आरम्भ तक ब्रीमेन सूचना केन्द्र ने दो मोरचों पर संघर्ष किया : पार्टी जैनट्रेल के खिलाफ तथा हैम्बर्ग के खिलाफ। ब्रीमेन ने विभाजन की कोशिश नहीं कि बल्कि हाईडलबर्ग कांग्रेस की नतीजों पर बहस अयोजित करने का प्रयास किया। पर लेवी द्वारा समर्थित जैनट्रेल समस्त बहस के विरुद्ध था और इस काम में उसे हैम्बर्ग के राष्ट्रीय बोल्शेविज्म के खिलाफ संघर्ष से मदद मिली। प्रयासित कैप प्रतिक्रांति ने इन मतभेदों को ‘‘व्यवहारिक’’ अन्तर्य देकर समस्त बहसों का अन्त कर दिया।
आईए प्रतिक्रांति की इस कोशिश के प्रति सर्वहारा प्रतिक्रिया का और विभिन्न संगठनों के व्यवहार का निरिक्षण करें।
‘‘रुहर में रीशवेहर ने कैप के प्रति अपनी पोजीशन फौरन स्पष्ट नहीं की। ऐ.डी.जी.बी. (जर्मन यूनियनें)[8] तथा सामाजिक जनवाद से लेकर मध्यमार्गियों तथा के.पी.डी.(एस) तक सभी ने आम हड़ताल का आहवान् किया था (के.पी.डी. का मध्यमार्ग बेशक शुरू के दिनों में डुलमुल था)। इस सभ के चलते, अगर यूनियनों तथा संसदीय पार्टियों का नेतृत्व तोड़ा जा सकता तो स्थिति में क्रान्तिकारी संभावनाएँ होतीं। वास्तव में, बर्लिन, म्युनिश, ब्रीमेन, हैम्बर्ग आदि के विपरीत रुहर तथा केन्द्रीय जर्मनी जबरदस्त सर्वहारा हारों में से नहीं गुजरे थे।
‘‘रुहर में रीशवेहर तथा मजदूरों के बीच काफी तनाव था, और कैप प्रतिक्रांति द्वारा भड़की स्थिति ऐसी थी कि इसका परिणाम था फौरन हड़ताली मजदूरों को हथियारबन्द करना। (यह तथ्य भी अहम था कि बहुत से लड़ाकू मजदूर एफएयूडी (एस) में शामिल होकर ए.डी.जी.बी. के दबदबे से बच निकले थे।) आम हड़ताल के जनवादी, संविधानवादी चरित्र के चलते, स्वतंत्र तथा अन्य अनेक सामाजिक जनवादी पहले कुछ दिनों में मजदूरों की आक्रमकता को सिर्फ कम करने की कोशिश कर सके। यद्यपि संघर्ष के पहले शिखरबिन्दुओं के दौरान उन्हें इसमें सफलता नहीं मिली। हालत इस प्रकार विकसित हुए : प्रत्येक कसबे में स्थानीय रूप से यूनियनों से स्वतंत्र ऐसी सर्वहारा इकाइयँ गठित की गई जिन्होंने रीशवेहर के सैनिकों के खिलाफ हथियार उठाए। बागी कसबों ने अपनी ताकत को एकजुट किया और अभी भी फौज के कब्जे वाले कसबों के खिलाफ चढ़ाई की ताकि स्थानीय मजदूरों की मदद की जा सके।
रुहर की ‘लाल सेना’ (इसे यही कहा जाता था) एक हिस्से ने रीशवेहर को रुहर से बाहर धकेल दिया तथा लिप के समान्तर एक मोर्चा बनाया। मज़दूरों की अन्य इकाईयों ने एक-एक करके रेमशीड, मुलहीम, डीसबर्ग, हैमबोर्न तथा डिन्सलेकन के कसबों पर कब्जा कर लिया। और 18 से 21 मार्च के अल्पकाल में ही उन्होंने रीशवेहर को राहिइन के किनारे वेसल तक पीछे धकेल दिया।
प्रतिक्रांति की असफलता के बाद, 20 मार्च को ए.डी.जी.बी. ने आम हड़ताल की समाप्ति की घोषणा कर दी। और 22 मार्च को एसडीपी तथा यूएसपीडी ने भी वही किया।
24 मार्च को सामाजिक जनवादी सरकार, एसडीपी, यूएसपीडी तथा केपीडी का एक हिस्सा बीलफेल्ड में एक समझौते पर पहुँच गए। उन्होंने युद्ध विराम की, मजदूरों के निरस्त्रीकरण की तथा उन मजदूरों की मुक्ति की घोषणा कर दी जिन्होंने “गैर-कानूनी” काम किये थे। ‘लाल सेना’ के एक बड़े हिस्से ने समझौते को स्वीकार नहीं किया और संघर्ष जारी रखा।
30 मार्च को सामाजिक जनवादी सरकार और रीशवेहर ने मजदूरों को एक अल्टीमेटम दिया : या तो फौरन समझौता स्वीकार करो या फिर रीशवेहर आक्रमण शुरू करेगा (इस बीच बावेरिया, बर्लिन, उत्तरी जर्मनी, तथा बाल्टिक से फ्रीकापर्स के आने से रीशवेहर की शक्ति चौगुणी हो गई थी)। स्वतंत्रों की गद्धारी, केपीडी (एस) तथा सिंडीकेलिस्टों की मध्यमार्गी सोच तथा लाल-सेना के तीन केन्द्रों में प्रतिद्वन्द्विता के कारण विभिन्न मजदूर इकाईयों में समन्वय अब निम्नतम स्तर पर था। रीशवेहर तथा विशाल सफेद सेनाओं ने सभी मोर्चों पर जबरदस्त आक्रमण शुरू किया : 4 अप्रैल को डीसबर्ग तथा मुलहीम, तथा उसके बाद 5 को डार्टमुंड और 6 को गेल्सनकिर्चन का पतन हो गया।
फिर एक बहशी सफेद आतंक शुरू हुआ| न सिर्फ हथियारबन्द मजदूरों को इसका शिकार बनाया गया बल्कि उनके परिवारों तथा युवा मजदूरों का, जिन्होंने जख्मी जुझारूओं की मोरचे से निकल जाने में मदद की थी, भी नरसंहार किया गया।
रुहर की ‘लाल सेना’ 80,000 से 1,20,000 तक मज़दूरों से गठित थी। यह तोपखाना और एक छोटी-सी वायु सेना गठित करने में सफल रही थी। संघर्षों के विकास के चलते इसके तीन सैनिक केन्द्रों के गठन हुआ:
हेगन : यूएसपीडी की अगुवाई में था और उसने बेझिझक बीलफेल्ड समझौते को स्वीकार किया।
ऐस्न : केपीडी तथा वामपंथी स्वतंत्रों के नेतृत्व में यह मार्च 25 की सेना के सर्वोच्च केन्द्र के रूप में स्वीकृत था। जब 30 मार्च को सामाजिक जनवादी सरकार ने मजदूरों को अल्टीमेटम दिया तो इस केंद्र ने आम हड़ताल की ओर वापसी का, जबकि मजदूर पहले ही सशस्त्र थे तथा लड़ रहे थे, का अत्याधिक संदिग्ध आवाहन किया।
मुलहीम : यह वामपंथी कम्युनिस्टों तथा क्रांतिकारी संघाधिपत्यवादियों के नेतृत्व में था और ऐस्न के सैनिक ‘केन्द्र’ का पूर्णतया अनुसरण करता था। लेकिन जब ऐस्न ने बीलफेल्ड समझौते प्रति मध्यमार्गी रूख अपनाया तो मुलहीम केन्द्र ने ‘‘अन्त तक संघर्ष’’ का नारा अपनाया। यूएसपीडी(एस), केपीडी (एस) तथा एफएयूडी (एस) के तीन नेतृत्वों ने वही नीच पोजीशन अपनाई और घोषित किया कि वे इन संघर्षों को दुस्साहसिकतावादी मानते हैं।
किसी राष्ट्रीय जैनट्रेल ने इन संघर्षों का नेतृत्व नहीं संभाला। स्थानीय सर्वहारा आन्दोलन ने स्थानीय स्तर पर अपनी शक्ति की सीमाओं में केन्द्रीयकरण की ओर अपने संकल्प को प्रकट किया। मध्य जर्मनी में भी मजदूरों ने अपने-आप को हथियारबन्द किया और कम्युनिस्ट एस होल्ज के नेतृत्व में हाले के इर्द-गिर्द के नगरों में विद्रोह संगठित किये। लेकिन आन्दोलन आगे नहीं बढ़ पाया। क्योंकि केपीडी (एस), जो चेमनित्ज में बहुत मजबूत थी तथा सबसे बड़ी पार्टी थी, ने सामाजिक जनवादियों तथा स्वतंत्रों की सहमति से मजदूरों को हथियारबन्द करने और एबर्ट की सरकार में वापिसी का इन्तजार करने... में अपने आपको सन्तुष्ट रखा
चेमनित्ज की मजदूर कौंसिल की अगुवाई ब्रैंडलर कर रहा था। उसकी नज़र में एक स्थानीय कम्युनिस्ट लीडर के रूप में उसका रोल था होल्ज के नेतृत्व में कम्युनिस्टों, जो चेमिनित्ज तथा पास के अन्य इलाकों में रीशवेहर द्वारा छोड़े गए बहुतेरे हथियारों से अपने आपको लेस करना चाहते थे, तथा सामाजिक जनवादियों, जो क्रान्तिकारियों पर आक्रमण के लिए सदैव तैयार थे और जिन्होंने उनके खिलाफ स्थानीय बुर्जुआजी के हथियारबन्द सफेद ग्रुपों (हीमवेयर) को उतारने के अनेक प्रयास किया, के बीच संघर्ष फूट पड़ने से रोकना।
केपीडी (एस) का मध्यममार्गी रूख इस तथ्य से पूर्णतया नंगा हो जाता कि जब मजदूर संघर्षरत थे, लेवी जैनट्रेल ने 26 मार्च को सामाजिक जनवादियों तथा स्वतंत्रों की मिली-जुली ‘‘मजदूर सरकार’’ बनाने की सूरत में, ‘‘निष्ठावान विपक्ष’’ के रूप मे काम करने का नारा दिया। केपीडी (एस) के मुख्पत्र डाई रोट फाहन ने लिखा (नं. 32, 1920):
‘‘निष्ठावान प्रतिपक्ष को हम इस प्रकार समझते हैं: हथियारबन्द सत्ताहरण के लिए कोई तैयारी नहीं, अपने लक्ष्यों तथा समाधानों के लिए पार्टी ऐजीटेशन को पूर्ण आजादी।’’
इस प्रकार केपीडी ने अधिकारिक रूप से अपने क्रांतिकारी लक्ष्यों को त्याग दिया। जर्मनी सर्वहारा में क्रांतिकारी कम्युनिस्ट पार्टी की आवश्यकता सदैव से अधिक जरूरी बना गई।
इस प्रकार, तीसरे इन्टरनेशनल के अधिकारिक सेक्शन की गद्धारी के समक्ष यह एक स्वाभाविक ऐतिहासिक निष्कर्ष था कि वामपंथी कम्युनिस्टों ने अगले माह (अप्रैल 1920) केएपीडी (जर्मन कम्युनिस्ट मजदूर पार्टी) का गठन किया।
जर्मन वाम तथा तीसरे इंटरनेशनल में यूनियनों का सवाल से इस उद़ृण को किसी टिप्पणी की जरुरत नहीं। (1972 में इस रचना के आधार पर बोरदिगिस्ट पीसीआई का एक अहम हिस्सा उससे अलग हो गया।)
इन महीनों के दौरान एक और महत्वपूर्ण घटना घटी। ब्रीमेन लिंक का केपीडी(ओ) को छोडना तथा केपीडी (एस) में उसकी वापसी। यहां इसने फ्रोलिच तथा कार्ल बेकर के नेतृत्व में अन्दरूनी प्रतिपक्ष का रोल अदा किया। (अगले सालों और खासकर 1921 की बसंत में बेकर की पोज़ीशनों के विकास को हम बाद में देखेंगे।) हमारे पास “वामपंथी कम्युनिज़्म” पर इस गंभीर चोट तथा लेवी नेतृत्व की भारी जीत को समझने तथा उस पर निर्ण्य लेने के लिए सारी समग्री नहीं है। जिस चीज ने निस्संदेह ब्रीमेन ग्रुप के निर्णय को प्रभावित किया वह थी कम्युनिस्ट इंटरनेशनल, जो केपीडी (एस) का समर्थन कर रहा था, के प्रति वफादारी की उसकी भावना और लाफनबर्ग तथा वोल्फहीम के हैम्बर्ग ग्रुप के प्रति उसका स्पष्ट विरोध|
अब तक हमने उन यूनियनों, कौंसिलों तथा ‘वर्करज़ एसोसिऐशनों’ की बात नहीं की है जो जर्मन आंदोलन में बहसों तथा मतभेदों के मुख्य मुद्दे थीं। इस सवाल की जटिलता ने हमे मज़बूर किया कि ‘यूनियनों के सवाल’ को स्पष्टतया से उठाने से पह्ले हमे अन्य सवालों से निपट लें। अपनी अगली रचना में हम यही करेंगे।
एस, आईआर-2, जुलाई, 1975 [हिन्दी में कम्युनिस्ट इंटरनेशनलिस्ट, बुलेटीन 3, अक्तूबर
फुटनोट:
“जहां तक वह साम्राज्यवाद के खिलाफ प्रतिरक्षात्मक लडाई लड रहा है, जर्मन पूँजीपति वर्ग इससे पैदा परिस्थिति में वस्तुगत तौर पर एक क्रांतिकारी रोल अदा कर रहा है। पर एक प्रतिक्रांतिकारी वर्ग होने के नाते वह इस समस्या के एकमात्र उपलब्ध समाधान का सहारा नहीं ले सकता।इन हालातों में सर्वहारा की जीत की पूर्वशर्त है फ्रांसीसी पूँजीपति वर्ग के खिलाफ संघर्ष और इस संघर्ष में जर्मन पूँजीपति वर्ग को सहयोग देने की उसकी क्षमता, पूँजीपति वर्ग द्वारा तोड़-फोड़ का शिकार प्रतिरक्षात्मक लडाई की अगुआई संभाल कर।“
और जून 1923 के इम्प्रेकोर में पाठक निम्न पढ सकते हैं:”1920 में ‘राष्ट्रीय बोल्शेबिज़म’ जनरलों को बचाने के लिए एक गठबंधन ही हो सकता था जिन्होंने अपनी जीत के फौरन बाद कम्युनिस्ट पार्टी को कुचल दिया होता। आज इस तथ्य का सूचक है कि हर कोई मानता है कि मसले का एकमात्र हल कम्युनिस्टों के पास है। आज हम ही एकमात्र हल हैं। जर्मनी के अन्दर राष्ट्रीय तत्व पर कड़ा ज़ोर उसी तरह एक क्रांतिकारी कार्य है जैसे उपनिवेशों में।“ (ज़ोर हमारा)
विश्व अर्थव्यवस्था रसातल के कगार पर लगती है। 1929 से भी बदतर एक भारी मंदी का खतरा सदैव बढ़ रहा है। बैंक, व्यापार, नगर पालिकाएँ, क्षेत्र और यहां तक कि राज्य दिवालियेपन के रुबरु हैं। और एक चीज़ जिसकी मीडिया अब बात नहीं करता वह है जिसे वे 'कर्ज संकट' कहते हैं।
जब ऋण की दीवार से होता है पूँजीवाद का सामना
निम्न चार्ट वैश्विक कर्ज में 1960 से अब तक हुए परिवर्तन को दर्शाता है। (यहां जिक्र है दुनिया के कुल ऋण का, अर्थात परिवारों, व्यवसायों और सभी देशों के राज्यों का ऋण)। यह ऋण दुनिया के सकल घरेलू उत्पाद के प्रतिशत के रूप में व्यक्त किया गया है।
ग्राफ़ 1
इस चार्ट के अनुसार, 1960 में कर्ज विश्व के सकल घरेलू उत्पाद के बराबर (यानी 100%) था। 2008 में यह 2.5 गुना अधिक (250%) था। दूसरे शब्दों में, आज ऋण की पूर्ण अदायगी विश्व अर्थव्यवस्था द्वारा ढाई साल में उत्पादित तमाम संपदा को निगल जाएगी।
तथाकथित "विकसित देशों" में यह परिवर्तन नाटकीय है, जैसाकि निम्न ग्राफ में, जो संयुक्त राज्य अमेरिका के सार्वजनिक ऋण का प्रतिनिधित्व करता है, में दिखाया गया है।
ग्राफ़ 2
हाल के वर्षों में, सार्वजनिक ऋण का संचय ऐसा है कि पिछले ग्राफ पर परिवर्तन को दिखाती वक्र रेखा अब एक खडी लाइन है! यही है जिसे अर्थशास्त्री "ऋण की दीवार" कहते हैं। यही वह दीवार है जिससे पूँजीवाद टकरा गया है।
ऋण, पूँजीवाद के पतन का एक उत्पाद
यह देखना आसान था कि विश्व अर्थव्यवस्था अंतत: इस दीवार से टकरा जाएगी; यह अपरिहार्य था। तो क्यों दुनिया की सरकारों ने, वे चाहे वामपंथ की रही हों या दक्षिणपंथ की, अति वामपंथ की रही हों या अति दक्षिणपंथ की, तथाकथित "उदारवादी" रही हों या "राज्यवादी", सभी ने आधी से अधिक सदी से कर्ज़ सुविधाओं को फैलाया है, बडे बजट घाटे झेले हैं, सरकारों, कम्पनियों तथा परिवारों के कर्ज़ों की बढोतरी की सक्रिय हिमायत की है? जवाब आसान है: उन के पास कोई विकल्प नहीं था। अगर वे ऐसा नहीं करतीं तो वह भयानक मंदी जिसमे हम अब प्रवेश कर रहे हैं, 1960 के दशक में ही शुरू हो जाती। सच में, पूँजीवाद दशकों से कर्ज़ पर जीवित रखा गया है। इस परिघटना के मूल को समझने के लिए हमें उस चीज़ को भेदना होगा जिसे मार्क्स ने "आधुनिक समाज का महान रहस्य : अतिरिक्त मूल्य का उत्पादन" कहा। इसके लिए हमें एक छोटा सा सैद्धांतिक घुमाव लेना होगा।
पूँजीवाद हमेशा से अपने भीतर एक जन्मजात रोग लेकर चला है: वह एक विष बहुतायत में पैदा करता है जिसको वह समाप्त नहीं कर सकता: अति-उत्पादन। वह इतनी वस्तुएँ पैदा करता है जो बाजार मे खप सकने से अधिक हैं। क्यों? चलो एक सरल उदाहरण लेते हैं: एक मजदूर एक एसेम्बली लाइन पर या एक कंप्यूटर पर काम कर रहा है और महीने के अंत में 800 रुपये पाता है। वास्तव में, उसने 800 रुपये, जो वह पाता है, के बराबर उत्पादन नहीं किया है, बल्कि उसने 1600 रुपये के मूल्य का उत्पादन किया। उसने अवैतनिक काम किया, या दूसरे शब्दों में, बेशी मूल्य का उत्पादन किया। पूँजीपति उस 800 रुपये के साथ जो उसने मजदूर से चोरी किये हैं (यह मानते हुए कि वह सभी वस्तुओं को बेचने में कामयाब रहता है) क्या करता है? वह एक हिस्सा, मान लीजिये 150 रुपया, निजी उपभोग के लिए आवंटित करता है। शेष 650 रुपया वह कंपनी की पूँजी में फिर से निवेश करता है, बहुधा और आधुनिक मशीनें आदि खरीदने में। लेकिन पूँजीपति ऐसे व्यवहार क्यों करता है? क्योंकि वह आर्थिक रूप से ऐसा करने को मजबूर है। पूँजीवाद एक प्रतिस्पर्धी प्रणाली है और उसे अपने उत्पादों को अपने प्रतिद्वंद्वी से, जो उसी प्रकार के उत्पाद बनाता है, अधिक सस्ते बेचने होंगे। परिणाम स्वरूप, नियोक्ता को न केवल अपनी उत्पादन लागत, यानि कि मजदूरी, कम करनी होगी बल्कि मजदूर के अवैतनिक काम को बढाना होगा ताकि मुख्यता अधिक कुशल मशीनरी मे निवेश करके उत्पादकता बढ़ाई जा सके। अगर वह यह नहीं करता है तो वह आधुनिकीकरण नहीं कर सकता, और देर सवेर उसका प्रतिद्वंद्वी, जो यह सब कर लेगा और अधिक सस्ता बेचेगा, बाजार जीत लेगा। पूँजीवादी व्यवस्था एक अन्तर्विरोधी परिघटना से प्रभावित है : यह श्रमिकों को वास्तव में किए गए काम के बराबर भुगतान नहीं करती, और नियोक्ताओं को निचोडे मुनाफे के अधिकतर भाग का उपभोग त्यागने को मज़बूर करके, व्यवस्था बांटने की अपनी क्षमता से अधिक मूल्य पैदा करती है। न तो मजदूर, और न ही पूँजीपति और मजदूर संयुक्त रुप से तमाम उत्पादित मालों का इस्तेमाल कर सकते हैं। इसलिए पूँजीवाद को अपने अतिरिक्त मालों को अपने उत्पादन क्षेत्र के बाहर ऐसे बाज़ारों मे बेचना होगा जिन्हें पूँजीवादी संबंधों ने अभी विजित नही किया हो - तथाकथित 'अतिरिक्त पूँजीवादी बाजार' । यदि वह इसमें सफल नहीं होता, तो अति-उत्पादन का एक संकट पैदा हो जाता है।
यह मार्क्स द्वारा 'पूँजी' और रोजा लक्ज़मबर्ग द्वारा 'पूँजी का संचय' में निकाले गये निष्कर्षों में से चन्द का कुछ लाइनों में सारांश है। निचोड के रुप में, यह रहा अति उत्पादन के सिद्धांत का एक संक्षिप्त सारांश:
* पूँजी अपने मजदूरों का शोषण करती है (यानी मजदूरों की मजदूरी उनके काम द्वारा पैदा वास्तविक मूल्य से सदा बहुत कम होती है)।
* इस प्रकार पूँजी अपने मालों को मुनाफे पर, एक ऐसी कीमत पर बेचती है जो मजदूरों की मजदूरी और बेशी मूल्य से अधिक होती है और जिसमें उत्पादन के साधनों का मूल्यह्रास भी शामिल होता है। लेकिन सवाल यह है कि किसे?
* जाहिर है, श्रमिक माल खरीदते हैं ... अपनी पूरी मजदूरी का उपयोग करके। यह अभी भी बिक्री के लिए बहुत छोड़ देता है। इसका मूल्य अवैतनिक श्रम के बराबर है। इसी में पूँजी के लिए मुनाफा उत्पन्न करने की जादूई ताकत है।
* पूँजीपति भी उपभोग करते हैं... और वे भी आम तौर पर ऐसा करने बाबत बहुत दुखी नहीं होते। लेकिन वे अकेले बेशी मूल्य को समाहित किए तमाम मालों को नहीं खरीद सकते। न ही इसका कोई मतलब होगा। पूँजी मुनाफे के लिए स्वयं अपने से ही अपने मालों को नहीं खरीद सकती; यह अपनी दांईं जेब से पैसे ले कर अपनी बाँई जेब में डालने की तरह होगा। यह करके कभी किसी का कोई भला नहीं हुआ - हर गरीब इसकी गवाही दे देगा।
* संचय और विकास के लिए, पूँजी को मजदूरों और पूँजीपतियों के अलावा खरीददारों को खोजना होगा। दूसरे शब्दों में, पूँजीपति के लिए अपनी प्रणाली के बाहर बाजारों को खोजना जरूरी है, अन्यथा ना बिकने वाले माल उसके हाथों में रह जाते हैं और पूँजीवादी बाजार को अवरुद्ध करते हैं; तो यही "अति उत्पादन का संकट" है!
यह "आंतरिक अंतर्विरोध" (अति-उत्पादन की स्वाभाविक प्रवृत्ति और बाहरी बाजारों की निरंतर तालाश की आवश्यकता) अपने अस्तित्व के प्रारंभिक दौर में व्यवस्था की अविश्वसनीय प्रेरणा शक्ति की जड़ों में से एक है। 16वीं सदी में अपने जन्म के समय से ही पूँजीवाद को अपने को घेरे सभी आर्थिक क्षेत्रों से वाणिज्यिक संबंध स्थापित करने पडे : पुराने शासक वर्गों, किसानों और दुनिया भर के कारीगरों के साथ। 18वीं और 19वीं शताब्दियों में प्रमुख पूँजीवादी शक्तियाँ दुनिया को जीतने की दौड़ में लगी हुयीं थीं। उन्होने धीरे-धीरे धरती को उपनिवेशों में बांट लिया और असली साम्राज्यों की स्थापना की। कभी कभी, उन्होने खुद को एक ही क्षेत्र के लिए ललचाते पाया। कम शक्तिशाली ताकतों को पीछे हटना और जाकर कोई अन्य क्षेत्र तलाशना पडा जहां वे लोगों को अपने मालों को खरीदने के लिए मजबूर कर सकें। इस प्रकार पुरानी अर्थव्यवस्थाएँ धीरे-धीरे रुपांतरित और पूँजीवाद मे एकीकृत कर दी गईं। उपनिवेशों की अर्थव्यवस्थाएँ न केवल यूरोप और संयुक्त राज्य अमेरिका के मालों के लिए बाजार उपलब्ध कराने के कम से कमतर सक्षम होतीं गईं हैं, इसके उल्ट वे भी वही अति-उत्पादन पैदा करती हैं।
18वीं और 19वीं शताब्दी में पूँजी की इस गतिशीलता को, अति-उत्पादन के संकटों और समृद्धि एवम विस्तार के लंबे कालों के क्रमांतरण को और अपने पतन की ओर पूँजीवाद के अनवरत प्रगमन को मार्क्स और एंगेल्स ने कम्युनिस्ट घोषणापत्र में बखूबी वर्णित किया है : "इन संकटों में, एक महामारी, अति-उत्पादन की महामारी फूट पडती है जो किसी भी अन्य युग में अनर्गल लगती। समाज अचानक अपने आप को क्षणिक बर्बरता की अवस्था मे वापस पाता है; ऐसा प्रतीत होता है जैसे एक अकाल ने, तबाही के एक सार्वभौमिक युद्ध ने निर्वाह के तमाम साधनों की आपूर्ति काट दी हो; उद्योग और वाणिज्य नष्ट हुए लगते हैं; और क्यों? क्योंकि वहाँ बहुत ज्यादा सभ्यता, निर्वाह के बहुत साधन, बहुत ज्यादा उद्योग, बहुत ज्यादा वाणिज्य है"।
उस समय, क्योंकि पूँजीवाद अभी विस्तार की अवस्था में था और अभी नए क्षेत्रों को जीत सकता था, लिहाज़ा हर संकट बाद मे समृद्धि के एक नए दौर की ओर ले जाता था। "अपने उत्पादों के लिए लगातार फैलते बाजार की जरूरत पूँजीपति वर्ग का समूची धरती पर पीछा करती है। उसे हर जगह बसना, हर जगह जमना, हर जगह संबंध स्थापित करने होंगे..। उसके मालों की सस्ती कीमतें वह भारी तोपखाना है जिससे वह तमाम चीनी दीवारों को गिरा देता है तथा विदेशियों के लिए बर्बर जातियों की गहन हठी नफरत को झुकने के लिए मज़बूर करता है। वह सभी राष्ट्रों को, उन्मूलन के खतरे तले, उत्पादन की पूँजीवादी प्राणाली अपनाने पर मजबूर करता है; यह उन्हें बाध्य करता है कि वे अपने मध्य वह स्थापित करें जिसे वह सभ्यता कहता है, यानि वे खुद पूँजीवादी बन जाएँ। एक शब्द में, वह स्वयं अपनी छवि मे एक दुनिया का निर्माण करता है..." (वही)
लेकिन उस समय ही, मार्क्स और एंगेल्स इन आवधिक संकटों को एक अंतहीन आवर्त, जो सदा खुशहाली को रास्ता देता है, से अधिक मानते थे। उन्होने इनमे पूँजीवाद को खोखला करते गहन अंतरविरोधों की अभिव्यक्ति देखी। "नए बाजारों की विजय" करके, पूँजीपति वर्ग "अधिक व्यापक और अधिक विनाशकारी संकटों की राह खोलता है, और साथ ही उन साधनों को जिनसे संकटों को रोका जा सकता है खत्म करता जाता है" (वही)। या : "जैसे जैसे उत्पादों की तादाद और फलस्वरूप विस्तारित बाजारों की जरूरत बढ़ती जाती है, विश्व बाजार अधिकाधिक सिकुडता जाता हैं; दोहन के लिए उपलब्ध नए बाजार कमतर होते जाते हैं, चूँकि प्रत्येक पूर्ववर्ती संकट अभी तक अविजित अथवा सतही तौर पर दोहन किये बाजारों को विश्व व्यापार के अधीन करता है।" (उज़रती श्रम और पूँजी)
लेकिन हमारा ग्रह एक छोटी गोल गेंद है। 20वीं सदी के आरंभ तक सभी भूमि जीत ली गई थी और पूँजीवाद के महान ऐतिहासिक राष्ट्रों ने दुनिया आपस में बांट ली थी। तब से, सवाल नई खोजें करने का नहीं है, बल्कि है प्रतिस्पर्धी देशों के प्रभुत्व वाले इलाकों पर सशस्त्र बल द्वारा अधिकार करने का। अब अफ्रीका, एशिया या अमेरिका के लिए कोई दौड नहीं है, बल्कि है अपने प्रभाव क्षेत्रों को बचाने तथा अपने साम्राज्यवादी प्रतिद्वंद्वियों के प्रभाव क्षेत्रों को सैन्य बल से हथियाने के लिए एक निर्मम युद्ध। यह पूँजीवादी देशों के अस्तित्व के लिए एक असली मुद्दा है।
तो यह संयोग नहीं था कि जर्मनी ने, जिसके पास बहुत कम उपनिवेश थे और जो ब्रिटिश साम्राज्य की भूमियों में व्यापार के लिए उसकी शुभेच्छा पर निर्भर था (एक निर्भरता जो वैश्विक महत्वाकांक्षा रखने वाले किसी भी राष्ट्रीय पूँजीपति वर्ग के लिए अस्वीकार्य है), 1914 में प्रथम विश्वयुद्ध शुरू किया। जर्मनी "निर्यात करो या मरो" की आवश्यकता के कारण सबसे आक्रामक नजर आता है, यह बाद में द्वितीय विश्व युद्ध की ओर हिटलर के गमन में स्पष्ट दिखाई देता है। इस बिंदु से, पूँजीवाद, विस्तार की चार सदियों के बाद एक पतनशील व्यवस्था बन गया। दो विश्वयुद्धों और 1930 के दशक की महामन्दी की विभीषिका इसका नाटकीय व अखंडनीय सबूत हैं।
तो भी, 1950 के दशक तक विधमान अतिरिक्त पूँजीवादी बाजारों के खत्म हो जाने के बाद भी पूँजीवाद अभी तक अति-उत्पादन के जानलेवा संकट में नहीं धंसा है। सौ से अधिक साल की धीमी मौत के बाद, यह व्यवस्था अभी भी खड़ी है, लड़खड़ाती हुई, रोगी अवस्था में, पर फिर भी खड़ी है। यह जीवित कैसे है? क्यों यह जीव अति-उत्पादन के विष से अभी तक पूरी तरह लकवाग्रस्त नहीं? यही वह जगह है जहाँ से ऋण के आश्रय की भूमिका शुरू होती है। ऋण का अधिकाधिक भारी मात्रा में उपयोग करके विश्व अर्थव्यवस्था भीषण ढहन से बच पाई है। इस प्रकार इसने एक कृत्रिम बाजार पैदा किया है। पिछले चालीस वर्षों का सार मंदियों और ऋण की खुराकों द्वारा वित्तपोषित उभारों की एक श्रृंखला के रूप में निकाला जा सकता है। और यह सिर्फ सरकारी खर्चों के माध्यम से परिवारों की खपत के समर्थन के रूप में नहीं। नहीं, राष्ट्रीय सरकारें भी कर्ज़दार हैं ताकि वे कृत्रिम तरीके से दूसरे राष्ट्रों के साथ अपनी अर्थव्यवस्थाओं की प्रतिस्पर्धात्मकता बनाए रख सकें (बुनियादी संरचनात्मक निवेशों में सीधे पैसा लगा कर, बैंकों को निम्नतम संभव दरों पर उधार देकर ताकि वे आगे व्यवसायों और परिवारों को उधार दे सकें ...)। ऋण के फाटक पूरे खोल दिये जाने पर पैसा स्वतंत्र रूप से बह निकला और धीरे-धीरे अर्थव्यवस्था के सभी क्षेत्र अति-ऋणग्रस्तता की एक क्लासिक स्थिति में आ पहुँचे : हर दिन अधिकाधिक नए ऋण जारी करना जरूरी था ... कल के ऋण चुकता करने के लिए। यह रास्ता अनिवार्यता एक अन्धीगली में ले पहुँचा। विश्व पूँजीवाद आज इसी अन्धीगली मे फंसा हुआ है : "ऋण की दीवार" के रूबरू।
पूँजीवाद के लिए 'कर्ज संकट' का अर्थ - एक मरणासन्न के लिए अफ़ीम की ओवरडोज़
सादृश्य के लिए, पूँजीवाद के लिए ऋण ऐसे ही है जैसे एक घातक बीमारी में अफ़ीम। इसका सहारा लेकर संकट अस्थायी रूप से टल जाता है, पीड़ित शांत हो जाता है। लेकिन धीरे-धीरे दैनिक खुराकों पर निर्भरता बढ़ जाती है। जो उत्पाद शुरू में उद्धारकर्ता था, हानिकारक होने लगता है .. ओवरडोज़ की सीमा तक! विश्व ऋण पूँजीवाद के ऐतिहासिक पतन का एक लक्षण है। 1960 के दशक से विश्व अर्थव्यवस्था जीवन रक्षक ऋण के सहारे जिन्दा रही है, लेकिन अब कर्ज़े पूरे शरीर पर फैल गए हैं, वे व्यवस्था के निम्नतर अंग, निम्नतर सेल को पाटे हुए हैं। अधिक से अधिक बैंक, व्यवसाय, नगर पालिकाएँ, और राज्य दिवालिया हैं और दिवालिया होते जाएँगे जो अपने कर्जों का भुगतान करने में असमर्थ हैं।
2007 की गर्मियों ने पूँजीवादी पतनशीलता, जो 1914 में प्रथम विश्व युद्ध के साथ शुरू होती है, के इतिहास में एक नया अध्याय खोला। अधिकाधिक बड़े पैमाने पर कर्ज का सहारा लेकर संकट के विकास को धीमा करने की पूँजीपति वर्ग की क्षमता समाप्त हो गई। अब, झटके एक के बाद एक, बीच में बिना किसी राहत के और बिना किसी असल उभार के, आएँगे। पूँजीपति वर्ग इस संकट का कोई वास्तविक और स्थायी हल नहीं खोज पायेगा, इसलिए नही कि वह अचानक अक्षम बन जाएगा बल्कि इसलिए कि यह एक समस्या है जिसका कोई समाधान नहीं है। पूँजीवाद के संकट को पूँजीवाद हल नहीं कर सकता।
जैसे, हमने अभी अभी दिखाने की कोशिश की है, समस्या है पूँजीवाद, समूची पूँजीवादी व्यवस्था। और आज यह व्यवस्था दिवालिया हो चुकी है।
पावेल, 26 नवंबर 2011, वर्ल्ड रेवोल्युश्न 350, दिसंबर 2011 - जनवरी 2012
सेन्ट पॉल के अधिग्रहण[1] स्थित टैन्ट सिटी यूनिवर्सिटी की दीवारों पर लिखे ''पूंजीवाद का जनवादीकरण करो'' के नारे ने ऐसी तीखी बहस छेडी कि अंततोगत्वा बैनरों को ही वहां से हटाना पडा।
यह परिणाम दिखाता है कि सेन्ट पॉल, यूबीएस तथा अन्यत्र अधिग्रहणों ने उन तमाम लोगों को, जो वर्तमान व्यवस्था से असन्तुस्ट हैं और एक विकल्प की खोज में हैं, चर्चा के लिये एक लाभदायिक स्थान मुहैया कराया है। 'पूंजीवाद का जनवादीकरण' कोई वास्तविक विकल्प नहीं है। पर यह उन तमाम लोगों के विचारों को अभिव्यक्त करता है जो अधिग्रहणों में तथा उन द्वारा जनित मीटिगों में भाग ले रहे हैं। बार-बार यह विचार पेश किया जाता है कि पूंजीवाद अधिक मानवीय बनाया जा सकता है बशर्ते धनवानों को अधिक टैक्स देने को मज़बूर किया जा सके, बशर्ते बैंकरों के बोनस खत्म कर दिये जाएँ, बशर्ते वित्तीय बाजार अधिक नियंत्रित हों अथवा अगर राज्य अर्थव्यवस्था के संचालन में अधिक सीधी दखलन्दाजी करे।
शीर्ष राजनेता तक ऐसा ही सुर अलापने लगे है। कैमरून पूंजीवाद को अधिक नैतिक बनाना चाहता है, क्लेग चाहता है कि सारी दुनिया जॉन लैविस जैसी हो और मज़दूरों के पास अधिक शेयर हों, मिलीबैन्ड ''परभक्षी'' पूंजीवाद के खिलाफ है और अधिक राजकीय नियन्त्रण का हिमायती है।
किन्तु पूंजीवाद के राजनेताओं की ओर से कही जाने वाली ये सब बातें थोथी लफ्फाजी हैं, एक धुएँ की चादर है जो हमे यह जानने से रोकने के लिए तानी गई है कि पूंजीवाद क्या है और क्या नहीं।
पूंजीवाद को व्यक्तियों द्वारा सम्पत्ति के मालिकाने के बराबर नहीं रखा जा सकता। बात सिर्फ बैंकरों की अथवा अन्य धनी कुलीनों की नहीं जो बहुत थोडी मेहनत का बहुत अधिक प्रतिफल पाते हैं।
पूंजीवाद मानव सभ्यता के इतिहास में एक सम्पूर्ण चरण है। यह अल्पमत द्वारा बहुमत के शोषण पर आधारित समाजों की श्रांखला में से अंतिम है। यह पहला मानव समाज है जिसमें संपूर्ण उत्पादन बाजार में मुनाफा बटोरने के प्रति अभिप्रेरित होता है। अतएव यह प्रथम वर्ग-विभाजित समाज है जिसमें सभी शोषितों को कार्य की अपनी क्षमता, अपनी ‘श्रम शक्ति’ शोषकों के हाथों बेचनी पडती है। इस लिये जबकि सामन्तवाद में भूदासों को ताकत के बल पर सीधे-सीधे अपना श्रम तथा अपना उत्पाद मालिकों के हाथों सोंपने के लिये मजबूर किया जाता था, पूंजीवाद में, हमारा श्रम-काल बडे गूढ तरीके से उज़रती व्यवस्था द्वारा छीना जाता है।
इस लिये, इससे कोई फर्क नहीं पडता कि शोषक निजी मालिकों के रूप में अथवा चीन एवं उत्तरी कोरिया की तरह 'कम्युनिस्ट पार्टी’ के अहलकारों के रूप में संगठित हैं। जब तक उजरती श्रम है, तब तक पूंजीवाद का अस्तित्व है। जैसा मार्क्स ने कहा : “पूंजी उजरती श्रम को मान कर चलती है, उजरती श्रम पूंजी को मान कर चलता है'' ( उजरती श्रम और पूंजी )।
अपने केन्द्र में पूंजीवाद उजरती श्रमिकों (जिसमें बेरोज़गार भी शामिल हैं चूँकि बेरोजगारी उसी वर्ग की एक स्थिति है) तथा शोषक वर्ग के बीच एक सम्बन्ध है। पूंजी, मजदूरों द्वारा पैदा की गयी और उसी से छीन ली गयी सम्पत्ति है। पूंजी मज़दूरों द्वारा निर्मित परकीयकृत संपत्ति है – एक ताकत जिसे उन्होंने निर्मित किया है पर जो एक कठोर शत्रु के रूप में उनके मुकाबले खडी है।
संकटग्रस्त पूंजीवाद
पर पूंजीपति वर्ग व्यवस्था से जबकि फायदा उठाता है, वह उसे नियंत्रित नहीं कर सकता। पूंजी एक अवैयक्तिक ताकत है जो अंततः उनके काबू से बाहर है और उन पर भी राज करती है। इसी बजह से पूंजीवाद का इतिहास आर्थिक संकटों का इतिहास है। पूंजीवाद वीसवीं सदी के आरंभ के आस पास से जब से विश्व व्यवस्था बना है, यह संकट कमोवेशी स्थायी हो गया है फिर चाहे वह विश्वयुद्ध का रूप ले चाहे विश्व मन्दियों का।
शासक वर्ग और उसका राज्य चाहे कोई भी आर्थिक नीतियां अजमाये - कीन्सवाद, स्तालिनवाद अथवा राज्य समर्थित ''नव उदारवाद'' - यह संकट गहराता तथा असाध्य बनता गया है। अपनी अर्थव्यवस्था में गतिरोध से हताशा का शिकार, सत्ताधारी वर्ग के विभिन्न धडे तथा विभिन्न राष्ट्रीय राज्य जिनमे वे संग़ठित हैं, वे सब निष्ठुर प्रतिस्पर्धा, सैनिक टकराव तथा पर्यावरणीय विनाश् की कुण्ड्ली_ में फंसे हुए हैं। मुनाफे की तथा रणनीतिक श्रेष्ठता की खोज उन्हें कम से कमतर नैतिक तथा अधिक से अधिकतर ‘परभक्षी’ बनने की ओर धकेल रही है।
पूंजीपति वर्ग एक डूबते जहाज का कप्तान है। उसे धरती के नियन्त्रण से च्युत करने की जरूरत कभी इतनी गहन नहीं रही।
किन्तु, इन्सान के अलगाव की चरम विन्दु इस व्यवस्था ने एक नये एवं सच्चे मानव समाज के निर्माण की संभावना को भी पैदा किया है। इसने विज्ञानों और तकनीकों को गतिमान किया है जिन्हें रूपान्तरित कर सभी के लाभ के लिये प्रयोग किया जा सकता है। अतएव, इसने संभव बनाया है कि उत्पादन को मुद्रा अथवा बाजार की मध्यस्थता के बिना ही सीधे-सीधे उपभोग की ओर मोडा जा सके। इसने दुनियां को एक सूत्र में पिरो दिया है अथवा कम से कम उसकी वास्तविक एकता के लियें आधार तैयार कर दिये हैं। इसलिये, इसने राष्ट्रीय राज्यों और उनके अनवरत युद्धों की संपूर्ण व्यवस्था के विनाश को संभव बनाया है। सक्षेप में, इसने एक विश्व मानव समुदाय के पुराने सपने को आवश्यक एवं संभव बना दिया है। हम इस समाज को साम्यवाद कहते हैं।
शोषित वर्ग का, उजरती श्रम के वर्ग का अपनी विरोधी व्यवस्था के भ्रमों का शिकार होने में कोई हित नहीं है। यह वर्ग वर्तमान समाज की कब्र खोदने और नये का निर्माण करने की संभावना रखता है। लेकिन इस संभावना को चरितार्थ करने के लिये उसके लिए यह सुसपष्ट होना लाजिमी है कि वह किसके खिलाफ और किसके लिये लड रहा है। पूंजीवाद को सुधारने और उसका जनवादीकरण करने संबंधी तमाम विचार इस सपष्टता के मार्ग में अनेक वाधायें हैं।
पूंजीवाद और जनतंत्र
पूंजीवाद को और अधिक मानवीय बनाने के समान ही आजकल हर कोई जनतंत्र की वकालत करता है और चाहता है कि समाज और अधिक जनवादी बने। और इसी लिये हम जनतंत्र के विचार को मात्र इसके अंकित मूल्य के आधार पर नहीं ले सकते, एक ऐसे अमूर्त विचार के रूप में नहीं ले सकते जिस पर सब सहमत हैं। पूंजीवाद के समान जनतंत्र का भी अपना एक इतिहास है। एक राजनैतिक व्यवस्था के रूप में, प्राचीन एथेंस में जनतंत्र दासता तथा स्त्रियों के बहिष्कार के साथ-साथ जीवित रह सकता था। पूंजीवाद में, संसदीय जनतंत्र एक ऐसे अल्पमत के सत्ता पर एकाधिकार के साथ अस्तित्व में रह सकता है जिसने ना सिर्फ आर्थिक सम्पदा पर बल्कि लोगों की सोच (और मताधिकार) को प्रभावित करने वाले वैचारिक यंत्रों को भी हथिया लिया है।
पूंजीवादी जनतंत्र पूंजीवादी समाज का एक आयना है जो हम सब् को बाजार में प्रतिस्पर्धा करती अलग-थलग पडी इकाइयों में परिवर्तित कर देता है। सिद्धांत में, हम सब् समान आधार पर प्रतिस्पर्धा करते हैं पर असलियत यह है कि सम्पदा कम से कमतर लोगों के हाथों में सिमटती जाती है। जब हम वैयक्तिक नागरिकों के रूप में मतदान केन्द्र में प्रवेश करते हैं तो हम उतने ही अकेले होते हैं जितने असल ताकत के प्रयोग से दूर।
ट्यूनीशिया और मिस्र से स्पेन, ग्रीस तथा अमेरिका तक विभिन्न अधिग्रहणों तथा जन सभी आन्दोलनों में चल रही बहसों मे दो धडों मे कमोबेशी निरन्तर टकराव दिखाई पडता है। एक ओर वे लोग हैं जो वर्तमान व्यवस्था को और अधिक जनवादी बनाने से आगे नहीं जाना चाहते, जो मुबारक जैसे तानाशहों से छुटकारा पाने तथा संसदीय व्यवस्था लागू करने के लक्ष्य पर रूक जाना चाहते है, अथवा स्थापित राजनैतिक दलों पर दवाब डालना चाहते हैं ताकि वे सडक पर आम जन की मांगें की ओर अधिक ध्यान दें। और दूसरी ओर हैं वे, जो अभी बेशक एक अल्पमत हैं, जिन्होंने कहना शुरू किया है : अगर हम सवंय को सीधे सामान्य सभाओं में संगठित कर सकते हैं तो हमे संसद की क्या जरूरत है? क्या संसदीय चुनाव कोई परिवर्तन ला सकते हैं? क्या हम अपने जीवन का नियन्त्रण अपने हाथ में लेने के लिए सामान्य सभाओं जैसी संस्थाओं का प्रयोग नहीं कर सकते – न सिर्फ सार्वजनिक स्थलों पर किन्तु खेतों, कारखानों तथा कार्यशालओं में भी?
ये बहसें नयी नहीं हैं। ये प्रथम विश्वयुद्ध के पशचात रूसी और जर्मन क्रान्तियों के काल में हुई बहसों को प्रतिध्वनित करती हैं। करोडों लोग उस पूंजीवादी व्यवस्था के खिलाफ लामबन्द थे जिसने युद्ध के मोरचों पर लाखों का संहार करके पहले ही यह साबित कर दिया था कि वह अब मानवजाति के लिए कोई सार्थक रोल अदा करने के लायक नहीं रही। जबकि कुछ लोग थे जिनका कहना था कि क्रान्ति को ''पूंजीवादी जनतांत्रिक” व्यवस्था की स्थापना से आगे नहीं जाना चाहिये, कुछ ऐसे भी थे, और उस वक्त उनकी संख्या काफी बडी थी, जिन्होंने कहा कि संसद सत्ताधारी वर्ग का हथियार है। हमने अपनी एसेंम्बलियों, फैक्टरी कमेटियों तथा सोवियतों (सामान्य सभाओं पर आधारित संगठन जिसमें प्रतिनिधियों को चुनने तथा वापस बुलाने का अधिकार था) का निर्माण कर लिया है। इन संगठनों को सत्ता संभाल लेनी चाहिए और फिर यह हमारे अपने हाथ में रह सकती है : समाज को ऊपर से नीचे तक पुर्नगठित करने की ओर प्रथम कदम के रूप में। और अलगाव, गृहयुद्ध तथा आंतरिक पतन द्वारा क्रान्ति के विनाश् से पहले, थोडे समय के लिये सोवियतों ने, मजदूर वर्ग के इन निकायों ने, रूस में राज्य सत्ता पर दखल किया था।
वह मानवजाति के लिये अभूतपूर्व आशा का वक्त था। यह तथ्य कि वह प्रयास पराजित रहा हमें भयभीत नही कर सकता : हमें अपनी हारों और विगत की भूलों से सबक लेना होगा। हम पूंजीवाद का जनवादीकरण नहीं कर सकते क्योंकि यह पहले से कहीं अधिक राक्षसी तथा विनाशक ताकत है जो, अगर हमने इसे घ्वस्त नहीं किया तो, समूची दुनिया का विनाश कर देगी। और सवंय पूंजीवादी संस्थाओं का प्रयोग करके हम इस दानव से छुटकारा नहीं पा सकते। हमें नये संगठनों की आवश्यकता है, ऐसे संगठन जिन्हें हम कंट्रोल कर सकें तथा उस क्रातिकारी परिवर्तन की ओर निदेशित कर सकें जो हमारी एकमात्र वास्तविक उम्मीद है।
अमोस, 25 जनवरी 2012, वर्ल्ड रेवोल्युश्न 351, फरवरी-2012
1. यहां ‘अधिग्रहण’ से आश्य उस ‘अक्युपाई वाल स्ट्रीट’ आंदोलन से है जो 2011 में अमेरिका से शुरू हो कर यूरोप के अन्य देशों में भी फैल गया था।
19 अप्रैल 2012 को भारतीय पूंजीपति वर्ग ने आईसीबीएम बैलिस्टिक मिसाइल के अपने संस्करण अग्नि-5 का प्रक्षेपण किया और एशिया में पहले से ही उग्र हथियारों की होड़ को और बढ़ावा दिया। इस परीक्षण के साथ भारत विश्व साम्राज्यवादी अपराधियों के उस चुनिंदा क्लब में शामिल हो गया जिनके पास अंतरमहाद्वीपीय बैलिस्टिक मिसाइलें हैं। कहा जा रहा है कि अग्नि-5 की मारक क्षमता 5000 किलोमीटर तक है। इसे शंघाई तथा बीजिंग तक मार करने के सक्षम माना जा रहा है।
अग्नि-5 के प्रक्षेपण के चलते भारतीय पूंजीपति वर्ग के सभी तबके खुशी के ढोल पीट रहे हैं। कई दिनों तक समूचा प्रिंट और इलेक्ट्रानिक मीडिया इस प्रक्षेपण द्वारा चिन्हित तकनीकी तथा सैन्य उपलब्धियों संबंधी दम्भी प्रचार से भरा रहा। चीन और अन्य शत्रुतापूर्ण देशों के सभी भागों पर मार करने की नई क्षमता बाबत विवेकहीन बातें सुनाई दी। भारतीय पूंजीपति वर्ग के गुट स्वयं को यकीन दिलाने में लगे थे कि अग्नि-5 के प्रक्षेपण के साथ वे अब अपने दुश्मनों का सामना करने और अपने विश्व साम्राज्यवादी सपनों को पूरा करने के लिए बेहतर तरीके से लैस हैं। मीडिया ने भी इस ढोल पिटाई तथा प्रचार का उपयोग करके देशभक्ति का बुखार भड़काने की कोशिश की।
एशिया में प्रचण्ड होती हथियारों की दौड़
भारत द्वारा आईसीबीएम अग्नि-5 का प्रक्षेपण एशिया में विकसित हो रही हथियारों की उन्मादी दौड़ की सिर्फ एक अभिव्यक्ति है। इस खेल में बहुत से खिलाड़ी लिप्त हैं और भारत उनमें एक प्रमुख है।
मध्य मार्च 2012 में भारतीय तथा विश्व मीडिया इन कथाओं से भरा था कि पिछले तीन वर्षों में भारत दुनिया में हथियारों का सबसे बड़ा खरीदार बन गया है। एनडीटीवी की 21 मार्च 2012 की एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत ने दुनिया के हथियारों के सबसे बड़े खरीदार की चीन की जगह ले ली है और दुनिया में पिछले पांच वर्षों में हथियारों की कुल खरीदारी में से दस प्रतिशत सिर्फ भारत ने की है। फ़रवरी 2012 में, भारत ने फ्रांस की कंपनी डसाल्ट को 126 रफ़ाल एमएमआरसीए (मध्यम बहुउद्देश्यीय लड़ाकू विमान) लड़ाकू जेट खरीदने का एक आर्डर दिया। 20 बिलियन अमरीकी डालर (टाइम्स ऑफ इंडिया, 1 फ़रवरी 2012) की लागत का यह आर्डर पूंजीवाद के इतिहास का सैन्य उपकरणों का सबसे बड़ा एकल आर्डर है। यह 272 सुखोई-30एमकेआई लड़ाकू विमानों के 12 बिलियन डालर के उस आर्डर के अतिरिक्त जो पहले ही रूस द्वारा पूर्ति की प्रक्रिया में है।
17 मार्च 2012 के स्टेट्समैन के मुताबिक भारत ने अपना रक्षा खर्च 17.6 प्रतिशत बढ़ा कर 47 बिलियन डालर (दो लाख 35 हजार करोड रूपये) कर दिया है।
पर यह उन्मत्त सैन्यीकरण भी भारतीय पूँजीपति वर्ग के लिए काफी नहीं है। हम अप्रैल 2012 में, अग्नि-5 के प्रेक्षेपण से कुछ दिन पहले ही, भारतीय मीडिया में चलाये गए एक अन्य अभियान में यह देख सकते हैं। अप्रैल की शुरुआत में भारतीय सेना के प्रमुख ने प्रधानमंत्री को एक लंबा पत्र लिखा। पत्र में प्रधानमंत्री को बताया गया कि भारतीय सेना युद्ध के लिए तैयार नहीं है चूँकि उसके पास पर्याप्त हथियार तथा गोलाबारूद नहीं है। पत्र प्रेस को लीक कर दिया गया और संसद द्वारा उठाया गया। सेना, वायुसेना और नौसेना के प्रमुखों के साथ विचार विमर्श के बाद, अब संसद ने घोषणा की है कि भारतीय बलों के पास युद्ध छेड़ने के लिए पर्याप्त हथियार और गोला बारूद नहीं है। इसमें एक तत्व गुटीय झगड़े का भी है, पर यह अभियान पूँजीपति वर्ग के लिए दो बुनियादी प्रयोजन पूरे करता है। एक है अपनी आबादी को प्रचार से अभिभूत करना तथा उससे यह तथ्य छिपाना कि भारत पहले ही हथियारों पर भारी खर्च करता है – हथियारों के विश्व बाजार में बह सबसे बड़ा खरीदार है। दूसरा है शोषित आबादी को यकीन दिलाना कि सैन्यीकरण पर और भी अधिक खर्च की आवश्यकता है।
हमें एक बात पर स्पष्ट होना चाहिए - केवल भारतीय पूंजीपति वर्ग ही उन्मत्त सैन्यीकरण में लगा हुआ नहीं है। एशिया में सभी देश - जापान, दक्षिण तथा उत्तर कोरिया, फिलीपींस, ताइवान, सऊदी अरब आदि एक ही दौड़ में लगे हुए हैं। सऊदी अरब और उसके संगी अमीरात सैन्यीकरण पर लगभग100 अरब अमरीकी डालर खर्च कर रहे हैं। चीन एशिया में हथियारों की दौड़ में अग्रणी है और इस साल उसने अपने सैन्य खर्च को लगभग दुगना कर150 अरब अमरीकी डालर कर दिया है। यहां तक कि दुनिया के थानेदार संयुक्त राज्य अमेरिका ने एशिया पर और विशेषकर चीन पर केंद्रित अपना सैन्य खर्च बडा दिया है।
एशिया में हथियारों की दौड़ क्यों?
पिछली सदी के आरंभ में पूंजीवाद अपने पतन के दौर में दाखिल हुआ। इसका मतलब था कि दुनिया के मौजूदा बाजार मुख्य पूंजीवादी शक्तियों में बांट लिए गए थे और ये बाजार अब सभी पूंजीवादी राष्ट्रों के उत्पादों को खपाने के लिए काफी नहीं थे। विस्तार अथवा अस्तित्व तक के लिए प्रत्येक पूंजीवादी देश अपने प्रतिद्वंद्वियों से आवश्यक बाजार छीनने के लिए मजबूर था। हर पूंजीवादी देश के सामने एक ही विकल्प था कि वह एक विश्वव्यापी सैन्य टकराव में अपने प्रतिद्वंद्वियों का सामना करे और उन्हें हराये अन्यथा अपने दुश्मनों से हार और अधीनता स्वीकार करे। यही वह कठोर विकल्प था जो 20वीं सदी के आरंभ से यूरोप और अमेरिका को विशाल सैन्यीकरण की और ले गया। यही वह कठोर विकल्प था जो प्रथम विश्वयुद्ध में और फिर द्वितीय विश्वयुद्ध में दानवीय रूप से खेला गया, इनमें से प्रत्येक में करोडों लोगों का वध और पूरे देशों और महाद्वीपों का विनाश हुआ।
दूसरे विश्वयुद्ध के अंत के बाद से सैन्य टकरावों तथा उनके लिए तैयारी का यह सिलसिला पुरानी साम्राज्यवादी शक्तियों के बीच आज तक बेरोक जारी रहा है। पतनशीलता का वह दौर जिसमें पूंजीवाद 20वीं सदी के आरंभ से जी रहा है, इसमें पूंजीवाद केवल युद्ध से जी सकता है। परिणाम स्वरूप सभी देश स्थायी रूप से युद्ध के लिए उग्र तैयारियों में लगे हुए हैं।
पिछले कुछ दशकों में चीन, भारत और एशिया के कई अन्य देशों की आर्थिक शक्ति बढ़ी है। इन देशों में भी पूंजीवाद उसी विकल्प, उन्हीं चुनावों के रूबरू है जिनका सामना उन्नत पूंजीवादी देशों को पिछली सदी के अरंभ में करना पडा। और ये नई 'उभरती ताकतें’ भी स्थिति का जवाब पुरानी साम्राज्यवादी शक्तियों की तरह ही दे रही हैं – वह है सैन्यीकरण की व्यापक प्रक्रिया और युद्ध के लिए तैयारी में जुटना। हम एशिया भर में यह देख सकते हैं।
यह इस तथ्य के बावजूद हो रहा कि इन देशों मे, खासकर भारत और चीन में, मज़दूर वर्ग घोर गरीबी, दुखदर्द और बड़े पैमाने पर बेरोजगारी की हालत में जीते हैं।
जैसा कि हमने देखा, अन्य देशों में अपने समकक्षों की तरह भारतीय पूंजीपति वर्ग भी सैन्यीकरण की एक उन्मादी प्रक्रिया में लगा हुआ है। हाल में आईसीबीएम का प्रेक्षेपण इसी विनाशकारी निरंतरता में स्थित है। यह भारतीय पूंजीपति वर्ग द्वारा अपने निकट साम्राज्यवादी प्रतिद्वंद्वी चीन के साथ विनाशक शक्ति में समानता हासिल करने का एक प्रयास है।
पूंजीपति और मज़दूर वर्ग
हथियारों की दौड़ पतनशील पूंजीवादी व्यवस्था के लिए अनिवार्य है। यह पतनशील पूंजीवादी के उन्नत चरण की वस्तुगत्त परस्थितियों का परिणाम है। आज, पूंजीवाद केवल युद्ध से जी सकता है। पूंजीपति वर्ग इससे छुटकारा नहीं पा सकता।
दूसरी तरफ मज़दूर वर्ग पूंजीवादी राष्ट्रों में समस्त होड का मुख्य शिकार है। युद्ध और युद्धों का प्रचार उसकी एकता को नष्ट करने और उसके वर्ग दुश्मन, पूँजीपति वर्ग, के सामने उसे कमज़ोर करने का रूझान रखता है। युद्ध के लिए तैयारी उसके शोषण को तेज करती है और उसकी जीने की स्थितियों को खराब करती है। और जिन युद्धों द्वारा विभिन्न देशों के पूंजीपति वर्ग अपना हिसाब बराबर करने की कोशिश करते हैं वे मज़दूर वर्ग भारी हमले के रूप में सामने आते हैं। यह मज़दूर वर्ग ही है जो अपने जीवन से पूंजीपति वर्ग के युद्धों की कीमत अदा करता है। पूंजीवाद के भीतर अपनी स्थिति के कारण केवल मजदूर वर्ग ही पूंजीवाद को नष्ट करके पूंजीपति वर्ग के युद्धों का अन्त कर सकता है।
मज़दूर वर्ग क्या करे?
पूंजीपति वर्ग मज़दूर वर्ग तथा मेहनतकश आबादी पर राष्ट्रवादी भावनाओं का असर गहराने के लिए किसी भी साधन का सहारा लेने से पीछे नहीं हटता। अतीत में पूंजीपति वर्ग द्वारा मज़दूर वर्ग के क्रांतिकारी उभारों को कुचलने के लिए राष्ट्रवाद बहुत प्रभावी ढंग से इस्तेमाल किया गया। यह दुनिया के मज़दूर वर्ग का दुश्मन नंबर एक है। मज़दूर वर्ग को राष्ट्रवाद के जहर के खिलाफ मजबूत आक्रोश विकसित करना होगा और अंतर्राष्ट्रीयतावाद के सिद्धांत का मजबूती से बचाव करना होगा।
मज़दूर वर्ग साम्राज्यवादी युद्ध और युद्ध की तैयारी में किसी का भी पक्ष नहीं ले सकता। इसे सभी युद्ध उन्माद की निंदा करनी होगी। ‘अपने’ पूंजीपति वर्ग द्वारा आईसीबीएम के प्रेक्षेपण के प्रति भारतीय मज़दूर वर्ग की प्रतिक्रिया प्रताडना तथा निन्दा के सिवा कुछ नहीं हो सकती है।
अपने जीवन तथा काम के हालातों पर तेज़ होते हमलों के खिलाफ, मज़दूर वर्ग को दुनिया में सब जगह अपना वर्ग संघर्ष तेज करने की जरुरत है। इन सघर्षों का आत्म संगठन, विस्तार, राजनीतिकरण और उनका राष्ट्रीय तथा अंतरराष्ट्रीय एकीकरण करके ही विश्व पूंजीवादी व्यवस्था, जो तमाम आर्थिक मुश्किलों, शास्त्र दौड तथा युद्ध उन्माद की जड़ है, के अन्त के लक्ष्य की ओर आगे बढ़ा जा सकता है। केवल यही मानवता को बचा सकता हैं। कोई दूसरी राह नहीं है।
एस, 25 अप्रैल 2012
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[1] https://hi.internationalism.org/tag/classification/vrg-snghrss
[2] https://lexicon.arvindlexicon.com/Pages/ArvindLexiconHTML.aspx?&language=Hindi&word=%E0%A4%85%E0%A4%9F%E0%A4%B2
[3] https://hi.internationalism.org/tag/classification/itihaas
[4] https://hi.internationalism.org/files/hi/thumb_india-missile-test.jpg
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