दुनिया के मजदूरों एक हो। आईसीसी मजदूरों का कोई देश नहीं होता।
पूँजीवाद जंग है
बर्बरता और विनाश के खिलाफ, विश्व सर्वहारा का वर्ग संघर्ष
मध्य पूर्व खौफ में लुड़क गया है। दूसरे विश्वयुद्ध के उपरान्त के सर्वाधिक दानवाकार शास्त्रागार ने एक महाविनाश छेड़ रखा है। पूँजीवादी व्यवस्था ने अपनी असल तस्वीर उजागर कर दी है। अकथनीय बर्बरता भरी एक तस्वीर। जिसमें टेक्नोलोजी के चमत्कार मौत और तबाही की सेवा में रत्त हैं। ‘शांति के नवयुग’ संबंधी सब भ्रम चकनाचूर हो गए हैं। तथाकथित ‘समाजवादी’ गुट के तथा शीतयुद्ध के मिट जाने ने सैनिक शत्रुताओं का अन्त नहीं किया है। सच बिल्कुल उलट है। पूँजीवाद के ‘जनवादी’, ‘फासीवादी’ अथवा समाजवाद के लबादों में लिपटे ‘स्तालिनवादी’ रुप, युद्ध सबके रक्त में समाया हुआ है। इस सदी के शुरू से दो विश्व नरसंहारों ने यह सिद्ध कर दिखाया है।
सद्दाम, बुश और जोड़ीदार – वे सब कातिल और लुटेरे हैं
पश्चिम के ‘महान प्रजातंत्रो’ की सरकारें हमें बताती हैं कि यह हत्याकाण्ड उन्होंने ‘अन्तर्राष्ट्रीय कानून’ खातिर छेड़ा है। वे नीच और पाखण्ड़ी हैं। बुश ने 10000 लोगों को मारकर जब पनामा पर चढ़ाई की, या इजरायल ने जब ‘काबिज इलाके’ हड़पे, या सीरिया ने अभी कल ही जब लेबनान को दबोचा, तब यह ‘कानून’ उन्होंने अपनी जेब में डाले रखा।
ये ही बदमाश अब ‘कानून’ की मर्यादा की बात करते हैं। पर कैसा कानून ? जंगल का कानून, गिरोहबाजों का कानून, पूँजीवाद का कानून।
नीचतम स्तर के अपराधी, तसीहे देनेवाले खूनी सद्दाम हुसैन ने जब कुवैत के मोटे खजाने को लूटा तो उसने छुटभैये लुटेरे का काम किया। अराफत की मदद से आज वह ‘दबी कुचली अरब जनता’ का झण्डा बरदार बन रहा है। ‘दबी कुचलों’ का क्या बढि़या रक्षक है। अपनी सत्ता बरकरार रखने के लिए उसने आतंक का तथा बड़े पैमाने पर कत्लेआम का, जैसा ‘अपने’ कुर्दस्तान में उसने रसायनिक हथियारों से किया, सहारा लिया।
जो आज ‘मध्य पूर्व के हिटलर की, ‘बगदार के बूचढ़’, की निन्दा करते है; हिरोशिमा में, कोरिया में, वियतनाम में, अफगानिस्तान में...अति विशाल पैमानों पर नरसंहार करते वे कभी तनिक नहीं झिझके। आज के ‘मित्रों’ ने तथा रूस ने ही सद्दाम को हथियारों से लैस किया। जब तक इरान से निपटने के लिए वह उनका गुर्गा था, उन्होंने परवाह नहीं की। 1989 में, वे उसे ‘शांति का चाहक’ कह रहे थे।
पूँजीवाद बर्बरता तथा खौफनाक अन्धेरगर्दी है।
असल में, ये सब बदमाश उस व्यवस्था के ‘सुयोग्य सुपुत्र’ हैं जो आज धरती पर छाई हुई है। एक व्यवस्था जिसने तीन चौथाई मानवता को घोर गरीबी, भुखमरी तथा निरन्तर मारकट में झोंक रखा है। जो सबसे धनी देशों में भी करोड़ों इन्सानों को आज सड़कों पर ला फेंक रही है। एक व्यवस्था जिसने अकल्पनीय बर्बरता व भयंकर अन्धव्यवस्था को जन्म दिया है।
अपनी राक्षसी फौजी ताकत से निरन्तर प्रहार करते अमेरिका और उसके जोड़ीदार अन्धेरगर्दी को रोकने की बात करते हैं। पर ‘उदाहरण पेश करने’ के लिए वे कितने भी कतल कर लें, इस कतलेआम से कोई ‘नई विश्व व्यवस्था’ नहीं उभरनेवाली। ‘शांति की जीत के लिए जंग’, झूठ जितना घिनौना है उतना ही पुराना भी। शासक वरगों ने जब पहली विश्वयुद्ध का नरसंहार रचा तो इसे ‘सब जंगों के खात्मे की जंग’ कहा। बीस बरस बाद किया गया हत्याकाण्ड और भी भयंकर था। और इसके अन्त में ‘प्रजातंत्र’ तथा ‘सभ्यता’ की जीत के दावे हुए। पर तबसे जंगें निरन्तर होती रही हैं।
जंगें ‘खराब नेताओं’ की ‘गलती’ नहीं। एक हल न होने वाले आर्थिक संकट के चंगुल में फंसे पूँजीवाद का वे एकमात्र जवाब हैं; संकट, जिसने राष्ट्रों की आपसी प्रतिस्पर्द्धाओं तथा शत्रुताओं पर से सब अंकुश हटा दिए हैं। संकट जितना ही गहरा रहा है, पूँजीवाद उतना ही अधिक बर्बर जंगखोरी में लोट लगाएगा।
कोई शांति संभव नहीं है पूँजीवाद तले
केवल मजदूर वरग ही जंग के खिलाफ डट सकता है
सदा की तरह आज भी साम्राज्यवादी जंग के पहले शिकार शोषित, खासकर मजदूर हैं। खाड़ी में विभिन्न देशों के वर्दीधारी मजदूरों को ही गोला बारूद बनाया जा रहा है। हर देश में मजदूरों को ही कीमत चुकानी पड़ रही है, अपने जीवन हालातों में भयंकर गिरावट के रूप में।
पर जंग में मजदूर केवल मुख्य शिकार ही नहीं। वे ही वह एकमात्र शक्ति है जो इस महाविनाश से असल में टकरा सकती है।
रूस में 1917 में और जरमनी में 1918 में मजदूरों के इंकलाबी संघर्षों ने शासक वरग को पहला विश्वयुद्ध खतम करने को मजबूर किया।
मजदूर दूसरा विश्वयुद्ध न तो रोक पाए, न खतम कर पाए। कारण ? वे पहले ही स्तालिनवादी प्रतिक्रांति के हाथों पिट गए थे। उन्हें फासीवाद द्वारा आतंकित अथवा ‘फासीवाद विरोध’, ‘लोकप्रिय मोरचो’ के नाम पर भरती कर लिया गया था। तीसरा विश्व हत्याकाण्ड नहीं हो पाया है क्योंकि पूँजीवादी संकट की धार के खिलाफ 1968 से उन्होंने विश्व पैमाने पर लड़ाईयां लड़ी हैं। शासक वर्ग के हर धड़े की कोशिश है मजदूरों की अपनी ताकत को उनसे छुपाए रखना:
अतीत के समान आज भी, शान्तिवाद जंगखोर प्रचार का संगी है। आज हम फिर देख रहे हैं कि साम्राज्यवादी खूनखराबे को ‘शुभेच्छा वाले व्यक्तियों’ की एकता से नहीं रोका जा सकता। न ही मजदूरों, ‘जागृत’ पूँजीपतियों, पादरियों तथा फिल्म स्टारों के पवित्र गठबन्धन से। और न ही सरकारों से ‘अक्लमन्दी’ की मांग करते प्रदर्शनों द्वारा।
जो, खासकर वामपंथी, ‘अमेरिकी साम्राज्यवाद’ के खिलाफ संघर्ष के बहाने इराक की हिमायत करते हैं, वे केवल बारूद के रूप में इराकी शोषितों के उपयोग को उचित ठहराते हैं। वे ‘जनतंत्रों’ के नेताओं से कम अपराधी नहीं हैं।
इस सारे छलकपट का मकसद है मजदूरों को उस एकमात्र लड़ाई से विमुख करना जिसके जरिए ही जंग का मुकाबला किया जा सकता है – अपने वरग धरातल से विशाल तथा अटल संघर्ष, पूँजीवाद के विनाश के लिए तथा विश्व इंकलाब खातिर।
मजदूरों को शासक वरग के बेरहम खूँखार होते प्रहारों के खिलाफ अपने संघर्ष विकसित करने होंगे। हमें समझना होगा कि यह केवल शोषण के खिलाफ संघर्ष नहीं। पूँजीवाद को अपनी फौजी बर्बरता फैलाने से रोकने का भी यही एक तरीका है। कि उनके ये संघर्ष पूँजीवादी निज़ाम से आम मुठभेड़ की तैयारी हैं। जिसका मकसद है पूँजीवाद को, गरीबी को, चौतरफी मारकाट तथा जंग को मिटाना।
इंटरनेशलन कम्युनिस्ट करण्ट, जनवरी, 1991, सम्पर्क -- पोस्ट बाक्स नं: 25, एनआईटी, फरीदाबाद, हरियाणा
पूँजी के हमलों के खिलाफ, उसके दलालों के खिलाफ। मजदूर संघर्ष गठित करो।
मजदूर साथियों!
शोषितों की जिन्दगियों पर पिल्ल पड़ा है पूँजीवाद!
भारतीय पूँजीवाद को बरसों से सता रहे संकट, उसकी आंतों में बरसों से पक रहे नासूर आखिर फूट निकले हैं। उसकी दिवालिया अर्थव्यवस्था खुलेआम ढ़ह रही है। मजदूरों तथा शोषितों के जीवन हालातों पर बरसों से चलाई जा रही छुरी की जगह अब मालिक-शासक वर्ग के भयंकर चौतरफे हमलों ने ले ली है। दशकों से गरीबी तथा मोहताजी की चक्की में पिसती शोषित मजदूर आबादी के लिए जीवन की जरूरतों के लिए तरस जाने के हालात पैदा हो गए है। जीवन की मूलभूत जरुरतों को खरीद पाना उनके लिए असंभव होता जा रहा है।
झूठ तथा मक्कारियों के उस्ताद हमारे शासक मंहगाई का प्रतिशत 12 प्रतिशत बताते हैं। खुद मालिकों संघ इसका 15 प्रतिशत से पार जाने की बात मानते है। यह पहले ही इसके ऊपर है तथा और ऊपर चढ़ रही है। पर महंगाई की मार का असल पैमाना आंकडे नहीं, वह है शोषितों-मजदूरों में भविष्य को लेकर पैदा हो रहा डर तथा चिन्ता। जीवन की स्थितियां तेजी से गन्दी तथा असहनीय बनती जा रही है। ऊपर भागती कीमतें मजदूरों-मेहनतकशों की तनख्वाहें चुराने का साधन हैं।
अशंकाओं से घिरे मजदूर वर्ग के बड़े हिस्सों की रोजियां मिटाकर उन्हें अंधेरी खाई की ओर धकेला जा रहा है। मेटल बाक्स, फीनीक्स, यूनीवर्सल इलेक्ट्रीकल्स, थामसन प्रेस, केल्वीनेटर, एचसीएल, बजाज आटो, बिन्नी तथा कैलको मिल्स, सीटीसी, स्कूटर्स इण्डिया, आटो ट्रेक्टर्स, यूपी सीमेन्ट – इन कारखानों के कुल मजदूरों में से 40 हजार से अधिक की रोजी या तो छीन ली गई है या छीनी जानेवाली है। सरकारी तथा प्रायवेट क्षेत्र में लाखों और रोजियां मिटाने को 24 जुलाई को कानूनी दरजा दिया जाना था। संसद अब 10/12 दिन बाद इसे कानून बनाएगी। शासक वर्ग बदमाशी से इसे ‘बर्हिगमन’ (बाहर जाना) कहता है।
शासक वर्ग के ये हमले हमारी मुसीबतों का अन्त नहीं है। वे तो आरंभ हैं। लाईलाज संकटों में फंसे सरकारी, गैर सरकारी पूँजीवाद ने लोक भलाई का नकाब उतार फेंका है। पूरी खूंखारता से वह शोषितों की जिन्दगियों पर पिल्ल पड़ा है। उसके हमलों की क्रूरता में तेजी ही आएगी।
यूनियनों द्वारा बन्द वर्ग संघर्ष का रास्ता
मजदूरों तथा शोषितों की एकजुट जुझारु लड़ाईयां ही मालिक-शासक वर्ग के बेलगाम हमलों को नकेल डाल सकती हैं। पर चिन्ता तथा असंतोष से भरे मजदूर अपने तथा मालिकों के बीच शासक वर्ग के यूनियनी दलालों को खड़ा पाते है। वे संघर्ष के अपने रास्तों को बन्द किया पाते है और पाते हैं कि संघर्ष के उनके मादे को कमजोर तथा सन्न किया जा रहा है। यह करना ही यूनियनों तथा वामपंथियों का रोल है।
मेटल बाक्स, यूनीवर्सल इलेक्ट्रीकल्स, फीनीक्स, यूपी सीमेन्ट के मजदूरों को जब चुपचाप मालिकों-शासकों की मार तथा दमन का शिकार बनवाया जाता है, सड़कों पर धकेल दिए गए तथा गुस्से से भरे थामसन प्रेस, केल्वीनेटर के मजदूरों को जब अलग थलग हाथ पर हाथ धरे, घर पर या गेट पर बैठाया जाता है तो उनको थकान की, निराशा की, हार की तथा मालिकों का कुछ न बिगाड़ सकने की गहरी भावना से भरा जाता है। मजदूर वर्ग के व्यापक हिस्सों में फैल कर यह भावना उनकी लड़ाईयों को बरसों पीछे धकेलती है। यह करना और इस प्रकार पूँजीवाद की सुरक्षा करना, यही तो रोल है वामपंथियों तथा उनके यूनियनी दलालों का।
शासक वर्ग की मौजूदा चौतरफी चढ़ाई के खिलाफ ‘व्यापक आन्दोलन’ छेडने की वामपंथियों की, उनके यूनियनी छुटभैयों की बातें महज एक प्रपंच, मजदूर असंतोष को उनके नियंत्रण के बाहर जाने से रोकने की एक साजिश हैं। मजदूर वर्ग के खिलाफ संसद में पास किये जा रहे वे सब कानून जिनके खिलाफ आन्दोलन छेडने का वे फ्राड रच रहे हैं, उन सब कानूनों पर इन वामपंथियों के दस्तखत है। इनके कन्धे के बिना केन्द्रीय सरकार एक दिन भी न टिक पाती।
जरा इनकी बदमाशी तो देखिए। पीलीभीत में पुलिस द्वारा दस धनी सिखों के कतल पर ये बहुत गुस्सा हैं; पर दो जून को इनके दोस्त मुलायम सिंह यादव द्वारा मारे डाला सीमेन्ट फैक्ट्री के चालीस मजदूरों के कतल पर न सिर्फ इन्हें गुस्सा नहीं आया बल्कि मालिक वर्ग के बाकी गुटों के साथ मिलकर इन्होंने यकीनी बनाया कि यह बात मजदूर वर्ग के व्यापक हिस्सों में फैलने न पाए।
मजदूर संघर्ष ही शासक वर्ग और उसके दल्लों का मुंह तोड सकते हैं
मजदूरों, साथियों, मालिक वर्ग के, उसके दलालों के मंसूबों की कामयाबी हमारे जीवनों पर दु:ख दर्द, बदहाली तथा अभावों की बिजली ही गिराएगी। उनके इन मंसूबों का हमें मुँहतोड जवाब देना है। उसके लिए जरूरी है कि हम अपने आप को पूँजी के दल्लों के चंगुल से मुक्त कर लें। सोचें, समझें और यह जान लें कि पूँजी के दलालों से मुक्त, एकजुट तथा जुझारु संघर्ष ही मालिकों के हमलों का मुँह तोड़ सकता है। संघर्ष समितियां तथा एक्शन ग्रुप बनाकर, अपनी लड़ाईयों को अपने काबू में रखकर, उन्हें अपनी आम सभाओं द्वारा चलाकर ही हम मालिक वर्ग के दिल में मजदूर वर्ग की शक्ति का डर भर सकते हैं। मजदूर वर्ग की सचेत एकजुट तथा संघर्षरत शक्ति ही मालिक वर्ग के हमलों को रोक सकती है, केवल वह ही पूँजीवाद, जिसका हर रुप, हर रंग, हर ढ़ाँचा बिमार है, को मिटाकर मजदूर वर्ग की मुक्ति का द्वार खोल सकती है।
दिवालिया पूँजीवाद के लिए बलि का बकरा बनने से मना कर दो। एकजुट हो जाओ, लड़ो। पूँजीवाद का विनाश कर दो।
कम्युनिस्ट इंटरनेशनलिस्ट, अगस्त 1991, संपर्क – पोस्ट बाक्स नं: 25, एनआईटी, फरीदाबाद, हरियाणा
दुनिया के मजदूरों एक हो। मजदूरों का कोई देश नहीं होता।
मन्दिर-मस्जिद-पंजाब-कश्मीर
भारतीय पूँजीवाद की सड़ती काया
इससे पहले कि हम सबका विनाश कर दे, आओ पूँजीवाद का नाश कर दें।
मौत तथा तबाही के काफिले और रथ फिर जगह-जगह महाभारत रचने चल निकले हैं। मन्दिर और मस्जिद के, कार-सेवा और उसे रोकने के नाम पर खून-खराबे तथा मारकाट का सालाना ‘उत्सव’ अब नरसंहारों के स्थायी तांडव का रूप अख्तियार कर रहा है। पंजाब और कश्मीर में लम्बे ‘सफल परीक्षणों’ के बाद अब समूचे हिंदोस्तान को एक बूचड़खाने में तबदील करने के शासक वरग के प्रयास रंग ला रहे हैं। रही कसर पूरी करने में जी-जान से जुटे हैं शासक वरग के सभी प्रतिद्वन्द्धी गुट –हिंदूवादी, मुस्लिमवादी, खालिस्तानी, कश्मीरी, धर्मनिरपेक्ष-वामपंथी, आरक्षणवादी तथा उसके विरोधी, सब।
आज क्यों ऐसा हो रहा है? क्यों समूचा समाज तेजी से खौफनाक हिंसा तथा अराजकता के गर्त में डूबता जा रहा है? परंपरागत शासक धड़ो के, राज करने के उनके ‘धर्मनिरपेक्ष’ ‘जनवादी’ तथा ‘समतावादी’ तरीकों – जो खुद भी मजदूर वरग की, शोषितों की छाती पर मूँग दलने के, उसे रौंदने के ही तरीके हैं – के मायाजाल का टाट क्यों समेटा जा रहा है? उनकी जगह शासक-मालिक वरग के अत्याधिक उन्मादी तथा बहशी धड़े मजदूरो–शोषितों की छाती पर कैसे सवार होते जा रहे हैं? क्या बात केवल मन्दिर की और केवल मस्जिद की है? क्या जड़ में धार्मिक-जातिय-भाषायी कटरवादी विचारों का प्रसार भर है? जिससे उभरने के लिए बस थोड़ी समझदारी की, थोड़ी धर्म-निरपेक्षता की जरुरत है?
नहीं जड़ कही और, कहीं गहरी है। देखने के लिए जरुरत है मन्दिर-मस्जिद फसाद पर गड़ी नज़र को थोड़ा घुमाने की। पंजाब। कश्मीर। असम जहाँ मजहब मारकाट का बहाना नहीं। प्रतिद्वंदी शासक गिरोहों द्वारा रचे रक्तपात से लथपथ तथा भयभीत श्रीलंका में भी ‘मसला’ न सिरफ धर्म नहीं, वह अब भाषावाद भी नहीं। और मुस्लिम पाकिस्तान में, हैदराबाद-कराची, सारा सिंध शासक वरग के प्रतिद्वंदी गुटों की संगीनों के आतंक तले सांस लेता है। सामाजिक ताने-बाने की जानी-अनजानी सब सीवनों को हर जगह नोंचा-फाडा और उधेड़ा जा रहा है और इन फटनों में से अब बाहर झांक-निकल रहे हैं शासक वरग के अत्याधिक घिनौने, अभी तक अंधेरों में खड़े ये चेहरे।
शासक वरग में भड़की इस खींचातान, इस मारामारी की जड़ में है मौजूदा पूँजीवादी समाज के आर्थिक आधारों का लम्बे समय से चला आ रहा टूटन। मजदूर वरग तथा शोषित आबादी इस टूटन को अपनी आर्थिक बरबादी में महसूस कर रही है। इस बरबादी ने ही पढ़े-लिखे शहरी-देहाती कंगालों को एक खतरनाक पेट्रोल डम्प में बदल दिया है जो अभी अगस्त में ही ‘आरक्षण’ की चिंगारी से झुलस और फट उठा था। स्वयं शासक वरग – अपनी सारी पारटियों तथा सलाहकारों समेत – पिछले बरसों से, आज तो और भी, इस आर्थिक विनाश से बौखलाया हुआ है। अर्थव्यवस्था का पहले ही करजों से कचूमर निकल रखा है और शासक वरग फिर झोली फैलाए दुनिया में निकल पड़ा है क्योंकि, स्वयं उनके मुताबिक, उसकी जेब में अब एक महीने के खरीद फरोख्त के भी पैसे नहीं। धनबाद तथा मेहम के माफिया गिरोहों के सरगना, मौजूदा प्रधानमंत्री श्री चंद्रशेखर ने कुर्सी पर झपटते ही घोषणा कर दी है – कड़की (साफ है, मजदूरों-मेहनतकशों के लिए) हमारा मूलमंत्र होगा।
पर यह आर्थिक विनाश किसी एक शासक गुट की कुनीतियों का नतीजा नहीं। इनके शरीक पाकिस्तान की भी हालत इन्हीं जैसी है। लातिनी अमेरिका में आर्थिक ध्वंस ने पिछले बरस अनेकों अमेरिकी माडल देशो में खूनी दंगों तथा सामाजिक विस्फोटो को भड़काया। आर्थिक पतन ने एक महाशक्ति के रूप में रूसी मालिक वरग की कमरतोड़ दी है। इसने दशकों से रूसी गुट में स्थापित तथा मजदूरों का रक्त पीती स्तालिनवादी पूँजीवादी व्यवस्थाओं को – जिन्हें वामपंथी ‘समाजवाद’ कहते थे – ध्वस्त कर दिया है। अब दुनिया की एकमात्र महाशक्ति अमेरिका के शासक वरग के सरगना बुश ने अपने यहाँ आर्थिक ठहराव की घोषणा की है।
नहीं, चौतरफी मारकाट की जड़ में पूँजीवाद का यह चौतरफा आर्थिक विनाश किन्हीं कुनीतियों का फल नहीं। असल में, खुद पूँजीवाद ही आज एक जबरन जिंदा कुनीति बन गया है। उसके, पूँजीवाद के, सारे भारतीय-अमेरिकी-रूसी माडल सामाजिक विकास के गले में फँदा बन गए है। वह, पूँजीवाद, पतनशील तथा जानलेवा रूप से बिमार हो गया है। मार्क्स ने दरसाया था कि जानलेवा रूप से बीमार-पतनशील किसी समाज व्यवस्था को अगर वक्त रहते मिटा नहीं दिया जाता, उसे अगर बदल नहीं दिया जाता तो उस बीमार समाज की काया, उसका तानाबाना, सड़ने लगता है। शोषित वरगों का जीवन असहनीय बदहाली में, मानवीय संबंधों की टूटन-सड़न में, नैतिक सांस्कृतिक पतन में, चौतरफी मारकाट में तथा शासक वरग की सबसे अंधेरी विचारधाराओं के गर्त में धकेला जाने लगता है। पतनशील पूँजीवाद में आज यही हो रहा है – भारत में, और सारी दुनिया में। पूँजीवाद की काया का यह सड़न ही शासक वरग के प्रतिद्वंदी खूनी गुटों को, अन्धेरे के इन जीवों को जन्म दे रहा है। मारकाट के उन्मादी अभियानों द्वारा वे एक दूसरे को मात देते एक दूसरे के हिस्से पर हाथ साफ करते हैं। मन्दिर-मस्जिद के या सिख/कश्मीरी/असमी ‘आजादी’ के इन उन्मादी अभियानों द्वारा वे मजदूरों-शोषितों को बांटने का, उन्हें इस सड़ती व्यवस्था के खिलाफ जाने से रोकने और उसकी नीवों को पुख्ता करने का भी प्रयास कर रहे है। पर इन गुटों के ये अभियान, यह गुत्थम-गुत्था बर्बरता की ओर उसके धँसाव को तेज ही करेगी। ये ‘ताकतें’ जो दशकों से इस व्यवस्था की प्रबन्धक तथा पहरेदार हैं, बिखर ही इसलिए रही है क्योंकि पूँजीवादी व्यवस्था, उनके पैरों तले की यह जमीन, धसक रही है। बढ़ती हिंसा तथा मारकाट द्वारा ही अब इसे बचाए रखा जा सकता है। विकल्प है बर्बरता या मजदूर क्रान्ति।
केवल मजदूर क्रान्ति से ही सडांध मारती इस लाश को, पूँजीवाद को, दफन किया जा सकता है। केवल मजदूर क्रान्ति से ही पूँजी के इन नरभक्षी गिरोहों को बोतलबन्द करने का, समाजवाद के निर्माण का काम हाथ में लिया जा सकता है। यह काम केवल मजदूर वरग, तथा शोषित ही कर सकते है और इसे आज ही शुरु करना होगा। इस शुरुआत का पहला कदम है कि शासक वरग द्वारा बरसाये आर्थिक सख्ती के कोडों के समक्ष हम मजदूर घुटने नहीं टेकें। मन्दिर-मस्जिद वालों की कुचालों में नहीं आएं और अपने जीवन हालातों की रक्षा के लिए शासक वरग के खिलाफ अपना वर्ग संघर्ष छेड़ें। जैसे राजस्थान के 40000 ट्रान्सपोर्ट मजदूरों ने 30 अक्तूबर से पहले तब किया जब शासक गिरोह जयपुर में मजहवी नरसंहार रच रहे थे। जैसे ये ट्रांसपोर्ट मजदूर तथा संघर्षरत 4.5 लाख दूरसंचार मज़दूर आज कर रहे है। धर्म-जाति-भाषा के विभाजनों पर पार पाकर, ऐसे संघर्षों को बढ़ाकर, चारों और फैलाकर, एकीकृत करके और उनका संचालन अपनी आम सभाओं द्वारा स्वयं अपने हाथों में लेकर – इस प्रक्रिया से हम अपने आपको, मजदूर वरग को शासक वरग के खिलाफ एक जुझारु ताकत के रूप में उभार सकते है। इस प्रक्रिया से तथा मजदूर वरग की पुरानी विरासत से सबक लेकर, सचेत और संगठित होकर हम अपने आपको, मजदूर वरग को ऐसी इंकलाबी ताकत में बदल सकते हैं जो पूँजीवादी बर्बरता का, इस मारकाट का अन्त कर सके। खुशहाली तथा भाईचारे भरे समाज का निर्माण कर सके। इस काम को हाथ में लेने में दिलचस्पी रखने वाले सब मजदूरों को विचार विमर्श के लिए एक दूसरे के तथा हमारे साथ सम्पर्क साधना चाहिए।
कम्युनिस्ट इंटरनेशनलिस्ट, 25 नवंबर 1990, सम्पर्क -- पोस्ट बाक्स नं- 25, एनआईटी, फरीदाबाद, हरियाणा
मजदूरों का कोई देश नहीं होता। दुनिया के मजदूरों एक हो।
संसदीय सरकस में मत उलझो। लड़ो। कड़की के कोड़ो के खिलाफ।
अव्यवस्था तथा अन्धेरगर्दी का राज
शासक-मालिक वर्ग ने 18 महीने में दूसरी बार फिर संसदीय महा-सरकस का आयोजन किया है। कांग्रेसी, भाजपा-हिन्दू परिषद, जनतादली और वामपंथी, उसके सब मज़मेबाज फिर सड़कों पर निकल आये है। धर्म निरपेक्षी तथा मन्दिर/मस्जिदवादियों ने शोषित आबादी पर अपने वैचारिक विषवाणें के हमले तेज़ कर दिए हैा पिछले समय में रक्तपात, नरसंहारों तथा अन्धेरगर्दी द्वारा बोई अपनी फसल काटने में वे जी-जान से जुट गए है। और शासक-मालिक वर्ग के प्रतिद्वन्द्धी गिरोहों की यह खींचतान भारतीय पूंजीवादी समाज की असल तस्वीर, दुनिया के ‘सबसे बड़े’ पूंजीवादी बूचड़खाने की उसकी तस्वीर, को घोर पतन तथा अन्धेरगर्दी के इस ‘महासागर’ के फिर ऊपर खींच लाई है।
पर हिस्से-पत्ती की लड़ाई में उलझे शासक-मालिक वर्ग के ये गुट, ये पारटियाँ चिन्तित हैं। अपनी व्यवस्था, पूंजीवादी व्यवस्था, की बीमारियों का इलाज बे बरसों से मजदूरों-शोषितों पर जबरदस्त प्रहारों में देखते आए है। इन मंसूबों में जो चीज़ अड़चन डालती रही है वह है खूंखार हो गई उनकी आपसी प्रतिद्वंद्विता। उनकी राजनीतिक मशीन की अस्थिरता तथा अराजकता। इससे उभरने के लिए ही उन्होंने चुनावों का प्रपंच रचा है। पर उन्हें डर है कि चुनाव के बाद भी उनका राजनीतिक ढांचा अस्थिरता तथा अव्यवस्थता के चुंगल में फंसा रहेगा। उनका डर सही है। कोई भी पारटी, कितनी भी सीटें जीत कर सत्ता में आए – राजनीतिक अव्यवस्था, अराजकता तथा खींचतान बरसों-बरसों तक चलती रहेगी। इसकी जड़ इस या उस पारटी को मिली सीटों के कम या अधिक होने में नहीं। इसकी जड़ में है भारतीय पूंजीवाद के आर्थिक-सामाजिक ढ़ाचों का लगातार सड़ते और चिथड़े-चिथड़े होते जाना। इसी ने शासक-मालिक वर्ग के विभिन्न गुटों तथा पारटियों – एकतावादियों तथा अलगाववादियों में, मन्दिर-वादियों, धर्म-निरपेक्षी तथा जातिवादियों में – दुश्मनियों को तेज़ कर दिया है। तथा उसके राजनीतिक लबादे को तार-तार कर दिया है।
भारतीय पूंजीवाद का दिवालियापन
भारतीय पूंजीवाद के इस सड़न का जबरदस्त सबूत है उसका आर्थिक दिवालियापन्। 1,65,000 करोड़ रुपये के विदेशी कर्ज के साथ वह दुनिया का तीसरा बड़ा कर्जदार है। बेरहम शोषण, सामाजिक दौलत की बेहिसाब लूट तथा बरबादी और अन्धेरगर्दी वाले इस ढांचे को चलता रखने के लिए शासक वर्ग को लगातार नये विदेशी कर्ज चाहिए। पर दुनिया के मुद्रा बाजारों को उस पर भरोसा नहीं रहा। कोई उसे एक पैसा देने को तैयार नहीं। इसलिए चन्द्रशेखर ने अपना भिक्षापात्र ‘करबद्ध निवेदन सहित’ बुश, कैफू, कोल जान मेजर तथा दुनिया के मालिक वर्ग के अन्य चौधरियों को भेजा है। इस बीच अपना खर्च चलाने के लिए सरकार ने अपनी संपत्तियों को, सरकारी कारखानों को बेचने की घोषणा कर दी है। भारतीय पूंजी का उत्पादन ढांचा ठप्प पड़ने को है।
इस आर्थिक ध्वंस को लेकर विभिन्न पारटियों में तू-तू , मैं-मैं मची हुई है। पर यह ध्वंस इस या उस गुट के कुप्रबन्ध का नतीजा नही। यह वक्ती चीज़ भी नहीं। पूरी दुनिया को तबाह कर रहा यह संकट इस बात का गवाह है ही कि पूंजीवादी व्यवस्था अपने हर रूप में एक भयावह कुप्रबन्ध बन गई है। व्यवस्था, जो मुनाफे के लिए पैदा करती है न कि मानवीय जरूरतों के लिए। संकट है, कीमतें बेलगाम है, कारखाने बेचे/बन्द किये जा रहे हैं, लोगों की रोजियां मिटाई जा रही है, क्योंकि दुनिया में पहले ही बहुत अधिक वस्तुएं पैदा हो गई है, वे बिक नहीं पा रही। दूसरी तरफ, आबादी का विशाल बहुमत पशुवत जीवन जी रहा है, क्योंकि वह इन वस्तुओं को खरीद नहीं सकता। संकट की जड़ यहाँ है – पूंजीवाद के, उसके राजनीतिक तंत्र के, स्वयं मालिक वर्ग के अस्तित्व में। और संकट का हल है इस सबका समूल नाश। चुनावी पारटियां यह समझना नहीं चाहती। वे खुद इस व्यवस्था का हिस्सा, उसकी पहरेदार है।
संकट का पूंजीवादी हल
पर शासक-मालिक वर्ग की ये सब पारटियां अपनी व्यवस्था के हितों को खूब समझती है। उनके बचाव के लिए उन सब ने मजदूरों-शोषितों पर खुंखार प्रहारों का फैसला लिया है। इन हमलों को उन्होंने कड़की का नाम दिया है। राजीव, चन्द्रशेखर, वीपी सिँह, ज्योति बसु, हरकिशन सुरजीत, बाजपाई-अड़वानी, पूंजी के ये सब गुट सर्व-पारटी मीटिगों से और अपने-अपने मंचों से सैंकड़ों बार घोषणा कर चुके है – आर्थिक सख्ती की जरूरत है। खुद उन्होंने सामाजिक दौलत की लूट तेज कर दी है। पर वे हम मजदूरों से जबरिया कुर्बानी वसूल रहे है। इस मकसद से सरकार ने बिजली, पानी, यातायात, सरकारी राशन की कीमतें बढ़ा दी हैं। खुले बाजार में कीमतों को बेलगाम छोड़ दिया गया है। ये सब तनख्वाहों में भारी कटौती के, जीवन हालातों को खराब करने के औजार हैं। ऊपर से, बेचे/बन्द किये जा रहे कारखानों से मजदूरों को निकाला जा रहा है। केवल बजाज आटो ने 22000 मजदूरों को निकाला है।
शासक वर्ग के भरमजाल
यह तथ्य कि ये प्रहार सब पारटियों, सब अखबारों, मालिकों के सब संघों, उनके सब गुटों की सहमति से हो रहे है, यह रोटी की, न्याय की, सामाजिक समानता की उनकी बातों की कलाई खोल देने को काफी है। वे झगड़ रहे है। हमारी भलाई को लेकर नहीं। वे हिस्से-पत्ती को लेकर झगड़ रहे हैं। और इस बात को लेकर कि मजदूरों-शोषितों पर ये प्रहार कारगर तरीके से होंगे तो कैसे? और बेधड़क ये हमले करने लायक ‘मजबूत सरकार’ बनेगी तो कैसे? और किस प्रकार मज़दूरों-शोषितों को इन प्रहारों के सामने भ्रमित तथा निहत्था रखा जाए? पिछली बार उन्होंने यह काम ‘बोफोर्स’ तथा ‘मूल्यों पर टिकी राजनीति’ के नुसखों से लिया था। अब वे मन्दिर का, मण्डल का, धर्म निरपेक्षता का नुसखा ले आए हैं। इन नुसखों का प्रयोग करके वे शोषितों पर अपने प्रहारों को ‘जन सहमति’ का जामा पहनाना चाहते हैं। वे यह भ्रम मजबूत करना चाहते हैं कि सरकार ‘आपकी’ है, और ‘आपने’ चुनी है, और अगर वह सख्ती बरत रही है तो केवल इसएलए कि यह जरूरी है। इस भरमजाल का, कड़की का – मुंह तोड़ जवाब दो।
मजदूरों। शोषितों।। साथियों।।।
हमें मालिक वर्ग और उसकी पारटियों के इस भरमजाल को ठोकर मारनी होगी। हमें मन्दिर के और उसके विरोध के, मण्डल के और उसके विरोध के नाम पर बंटने से मना करना होगा। हमें यह सफेद झूठ मानने से मना करना होगा कि पददलित लोग और उनकी छाती पर पांव रखे लोग, कि कार्यरत और रोजी की तलाश में भटकते मज़दूर और उनके मालिक, कि सामाजिक दौलत की अन्धी लूट में लिप्त राजनीतिक सामाजिक गुट और उनके शिकार सब बराबर हैं। साथियों, मजदूरो-शोषितों का पीढि़यों का तजुर्बा बताता है – चुनावों से कभी कुछ नहीं बदलता। वोट से कभी कुछ हासिल नहीं होता। मजदूर ‘नागरिको’ के, व्यक्तियों के तौर पर आपने शासकों/मालिकों का मुकाबला नहीं कर सकते। यह हम एक वर्ग के रूप में ही कर सकते हैं। उनके प्रहारों को हम कभी वोट से नहीं रोक सकते। यह हम एक वर्ग संघर्ष से ही कर सकते हैं। वे, उनकी सब पारटियों, सख्ती के अपने अभियानों को तेज करने की तैयारी में है। हमें वर्ग के रूप में अपनी पहचान, अपनी एकता तथा चेतना को तेज़ करना होगा। एकीकृत, तीव्र संघर्ष द्वारा ही हम उनके इन अभियानों का मुंह मोड़ सकते है। इन संघर्षो को पूंजी के दक्षिणपंथी-वामपंथी दलों के, उनके यूनियनी तंत्र के चंगुल से मुक्त करवा कर, उसे अपनी कमेटियों, अपनी आम सभाओं द्वारा चला कर ही हम कहीं पहुंच सकते है। इन संघर्षो के चरम, मजदूर इंकलाब द्वारा ही समाज के उस घोर पतन, सड़न, बर्बरता तथा खौफनाक अन्धेरगर्दी से मुक्त किया जा सकता है जिसमें वह आज डूबा हुआ है।
कम्युनिस्ट इन्टरनेशनलिस्ट, मई 1991, पोस्ट बाक्स नंबर-25, एन आई टी, फरीदाबाद