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क्योंकि भारत का मजदूर वर्ग अंतरराष्ट्रीय मजदूर वर्ग का एक महत्वपूर्ण दस्ता है, अतएव यहां के मजदूर वर्ग के वर्ग संघर्ष की परस्थितियां और समस्याऐं मूलरूप से अंतरराष्ट्रीय मजदूर वर्ग के वर्ग संघर्ष से अलग नहीं हो सकती। अंतरराष्ट्रीय वर्ग संघर्ष के हालात, समस्याऐं परेशानियां, तथा उसके परिप्रेक्ष पर अंतरराष्ट्रीय कांग्रेस में विस्तार से चर्चा की जा चुकी प्रस्तावित इस रिपोर्ट का लक्ष्य विश्व के ढांचे में भारत में वर्ग संघर्ष के विकास का विश्लेषण करना भर है।
आई सी सी की विगत कांग्रेस में यह सही ही निरूपित किया कि भारत, चीन, ब्राजील तथा अन्य उभरते अर्थतंत्र विश्व सर्वहारा क्रांति के आगामी उभार के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकते हैं। इन देशों में मजदूर वर्ग की बडी तादात और उनका बडा संकेंद्रण है। और भी, इन देशों के संघर्ष, मजदूर वर्ग में अंतरराष्ट्रीय एकता और भाईचारे के विकास की प्रकिया को गति प्रदान करेंगे और पूँजीपति वर्ग द्वारा निरंतर चलाये जा रहे विभाजनकारी कुचक्रों को असरहीन बनायेंगे। इस प्रकार, संपूर्ण आई सी सी तथा सी आई का यह महत्वपूर्ण दायित्व है कि वह मजदूर वर्ग के संघर्ष की संभावित स्थतियों, वर्ग की कतारों में हो रही खदबदाहट, उसकी शक्ति एवं कमजोरी उसकी कठिनाइयों, समस्यसओं, संभावनाओं, उसके परिप्रेक्ष तथा वर्ग दुश्मन द्वारा उसे मार्ग से भटकाने के लिये चली जा रही चालों का गहराई से अध्ययन करें।
पूँजीवाद के केन्द्र में स्थित देशों की भांति, भारत के मजदूर वर्ग का भी दोंनों, सीघे साम्राजवादी शोषण एवं उत्पीणन तथा 1947 के पश्चात स्वतंत्र . देशी पूँजीवाद के घोर शोषण एवं उत्पीणन के खिलाफ बहादुराना संघर्ष का लम्बा इतिहास है। इन संघषों में हजारों मजदूरों की जानें गयीं, उससे अधिक घायल हुये, इसके अलावा,सालों साल जेलों में अमानवीय यातनायें झेलीं। लेकिन यह सभी मजदूर वर्ग के लडाकू जज्वे को कुचलने में नाकाम रहीं। इस गौरवमयी इतिहास की गहराई से निरख-परख करना एक नितांत ही अपरहार्य कार्य है। हम इस रिपोर्ट में इस पर विस्तार से चर्चा नहीं करेंगे। हम वर्तमान के महत्वपूर्ण संघषों पर ही अपना ध्यान केन्द्रित करेंगे। ये संघर्ष अंतरराष्ट्रीय वर्ग संघर्ष की रिपोर्ट में वर्णीत महत्वपूर्ण संघषों के समान तथा उनका चरित्र लिये हुये है।
भारतीय पूँजीपति वर्ग के इन दावों कि उसने संकट के प्रभावों पर पार पा ली है और उसकी गाडी पटरी पर आ गयी है; गुजरात के हीरे के मजदूरों, चेन्नई के हुंडई के मजदूरों का संघर्ष, कोयम्बटूर के ऑटो श्रमिक, भारत की राजधानी से सटे क्षेत्र के ऑटो तथा ऑटो पार्टस के मजदूरों के संघषों ने पोल खोल दी है। गुजरात में ठेके पर काम कर रहे असंगठित तथा गुडगांव के ऑटो कम्पनियों के मजदूरों ने नेतृत्वकारी भूमिका अदा की। गुजरात के हीरे मजदूर चाणचक हडताल पर चले गये। यह हडताल उन क्षेत्रों में भी तेजी के साथ फैल गयी जहां हीरे पर पॉलिश का काम किया जाता है। ये सभी संघर्ष जनवादी राज्य मशीनरी द्वारा कुचल दिये गये। भारत के विभिन्न भागों में मजदूर वर्ग के संघर्ष फूटे जिनमें से मुख्य निम्न हैं: सार्वजनिक क्षेत्र की मुख्य हडतालें हैं - बैक कर्मचारियों की हडताल, अखिल भारतीय पायलटों की हडताल, जनवरी 2009 में तेल कर्मियों की हडताल; तथा जनवरी 2009 में बिहार के राज्यकर्मियों की हडताल। जहां राज्य मशीनरी ने कठोर रूख अपना कर दमन का मार्ग चुना, वहां संधषों ने भी भीषण रूप धारण कर लिया। यह स्थिति 2009 में तेलमजदूरों के सामने उस समय पैदा हो गयी जब राज्य ने मजदूरों पर ऐस्मा थोप दिये जाने के साथ अन्य दमनकारी तरीकों का प्रयोग किया। यही स्थिति बिहार के राज्यकर्मियों की हो गयी जब राज्य ने कर्मचारियों को सबक सिखाने की ठान ली और जब सरकार को यह पता चला कि हडताल सार्वजनिक क्षेत्र के मजदूरों में भी फैलती जा रही है तब सरकार मे अपने कदम वापस खींच लिये।
वर्ष 2008 के 27 अगस्त को बीएसएनएल कर्मी हडताल पर चले गये, उसी वर्ष सितम्बर 24 को बैंककर्मी हडताल पर थे। 2008 के 1 अक्टूबर को सिनेमा के कर्मचारी हडताल पर थे। 2009 की 7 जनवरी को अधिक वेतनमान की मांग को लेकर आई ओ सी, बी पी सी ऐल, हैच पी सी ऐल, तथा गेल कर्मी हडताल पर थे। 30 अप्रैल 2009 को एयरपोर्ट कर्मचारियों ने काम बंद कर दिया। मई 20/21 को बैलैडिला के खान मजदूर खदानों में नहीं उतरे। 25 मई को गोवा में वेतनवृद्धि को लेकर पी डब्लू डी कर्मियों ने चक्का जाम कर दिया। 12 जून 2009 को बैक कर्मी पुनः हडताल पर चले गये। उसी समय अपने अफसरों के व्यवहार के खिलाफ तामिलनाडु में ऐम आर एफ तथा नोकिया के मजदूर 22 सितमबर 2009 को संघर्ष पथ पर थे। इसके अलावा पश्चिमी बंगाल में जूट मिलों के मजदूर तथा गोदी कर्मचारियों की हडतालें रहीं। कोलकता के उप नगरीय इलाकों में जूट मिलों के मजदूर मैनेजमेंट के खिलाफ आन्दोलन रत थे। मैनेजमेंट की ओर से की गयी भडकावे की कार्यवाही ने हालात ऐसे पैदा हुये कि कई लोग मारे गये। चाय बागानों के मजदूर भी कई बार हडताल पर थे।
दुनियां के अन्य भागों में हम देख चुके हैं कि पूँजीवादी राज्य के खिलाफ अपने भावी हितों को सुरक्षित बनाने के लिये मजदूरों की नयी पीढी या भावी मजदूर सर्वहारा के रणक्षेत्र में संघर्षरत हैं। फ्रांस तथा ग्रीस विद्यार्थियों के सघर्ष अत्यंत महत्वपूर्ण अर्थपूर्ण एवं प्रेरणादायिक हैं। आत्म संगठन के लिये प्रयास, सार्वजनिक सभायें, विस्तार ,बहसों में खुलापन, मजदूर वर्ग के विगत के संघर्षों से सबक लेना, मजदूर वर्ग में भाईचारा और एकता पूँजीवाद के अस्तित्व पर सवाल उठाना, इसके अस्तित्व के खिलाफ जबर्दस्त असंतोष का इजहार, वर्ग संघर्ष की नयी स्थिति के विकसित होने की अग्रिम सूचना है।
इस सदर्भ में ; पश्चिम बंगाल के प्राइमरी टीचर्स ट्रेनिंग इन्स्टीट्यू के क्षात्रों का संघर्ष अर्थपूर्ण है। ये क्षात्र या तो सरकारी मान्यता प्राप्त संस्थाओं से ट्रेनिग कोर्स पूरा कर चुके थे अथवा पूरा करने के अंतिम चरण में थे। किन्तु केन्द्रीय शिक्षा प्राधिकरण ने ( ऐन सी ई टी ) ने उन्हें अमान्य घोषित कर दिया। इस प्रकार; कोर्स पूरा करने के बाद जो डिग्री या प्रमाण पत्र उन्होंने प्राप्त किये वे रोजगार की दुनियां में गैर कानूनी और अर्थहीन हो गये। इस भांति, वे विद्यार्थी अकस्मात बेरोजगार हो गये। इनमें वे हजारों अध्यापक भी शामिल हैं जो पहले से ही सरकारी प्राइमरी स्कूलों में सेवा कार्यरत हैं। क्योंकि केन्द्रीय सरकार के अधीन उसी शिक्षा प्राधिकरण की एक कलम से उनके डिग्री तथा सर्टीफिकेट गैर कानूनी घोषित कर दिये गये। इन क्षात्रों का यह ट्रेनिग कोर्स पूरा करने में एक मोटी रकम खर्च हुयी। उनमें से कुछ क्षात्र तो इतने निराश हुये कि कइयों ने आत्म हत्या करली।
इस अनिश्चतता की स्थिति में विद्यार्थियों को अध्यापक की नौकरी पाने के लिये संघर्ष पर जाने को मजबूर कर दिया। लगभग 76 हजार क्षात्र आन्दोलन में शामिल थे। राज्य तथा केन्द्र के सत्ताधारी राजनीतिक दलों द्वारा नौकरी छीन लिये जाने की धमकी के राजनीतिक खेल ने उन अध्यापकों की नींद उडादी जो पहले से ही कार्यरत थे। शुरूआत में, आन्दोलनकारियों में आत्म संगठन का तत्व तथा राजनीतिक दलों और पूजी के दांये-बांये धडों की यूनियनों के प्रति अविश्वास का भाव था। उनका निश्चय था कि वे अपने आन्दोलन में किसी भी राजनीतिक शतरंज की गोटियां नहीं बिछाने देंगे। यदा कदा क्षात्रों को जेल भेज दिये जाने तथा राज्य के अन्य दमनकारी कदमों के खिलाफ पुलिस से हिंसक टकराव भी हुये। इसके वाबजूद, पी टी टी आई क्षात्रों; मजदूर वर्ग की भावी पीढी या भविष्य में मजदूरों की जमात में शामिल होने वाले विद्यार्थियों का यह संधर्ष निकट भविष्य में किसी भी क्षेत्र के मजदूरों के संधर्ष में एक दिशा सूचक सिध्द होगा।
इन संघर्षों की कुछ महत्वपूर्ण विशेषतायें निम्न प्रकार हैं.
हमलों की समकालिकता का अर्थ है संघर्षों में और अधिक अंतःशक्ति की समकालिकता। सत्ता वर्ग के हमलों के शिकार विभिन्न क्षेत्रों के मजदूर हमलों का जवाब देने के लिये अपने क्षेत्रों तथा यूनियनों की सीमाओं को लांघ कर मजदूर वर्ग की एकजुटता की बढती संभावना एक आगे का कदम होगा।
जो कुछ आज दृश्य पटल पर है वह इस बात का सूचक है कि अधिक से अधिक मजदूर अपने मालिकों के हमलों का जवाब देने की ओर आतुर हैं। हालांकि देश के विभिन्न भागों में संघर्षों की संख्या उत्तरोत्तर बढती जा रही है एक भौगोलिक क्षेत्र में संघर्षों में समकालिकता की ओर रूझान है। यह रूझान संघर्षों की कडियां जोडने तथा उनके विस्तार की संभावना को अभिव्यक्त करता है। यह गुजरात के हीरा मजदूरों के संघर्ष में देखा जा सकता है कि वे कई शहरों में सामयिक रूप से (एक साथ) चाणचक हडताल पर चले गये। यही तामिलनाडु और पुणे के ऑटो मजदूरों में देखा जा सकता है, जहां एक ही भौगोलिक क्षेत्र में एक साथ कई सारी हडतालें हुयीं। पूँजीपतियों ने इस खतरे को भांप लिया और दमन कम कर दिया। आज सभी क्षेत्रों में हो रहे हमलों का ही परिणाम संघर्षो की समसामयिकता है। सूरत के हीरा श्रमिकों की हडताल की यह विशेषता है कि उसमें आम हडताल का तत्व देखा जा सकता है। इसका सबूत यह है कि राजकोट और अमरेली के मजदूर भी उनकी मांगों के समर्थन में हडताल पर चले गये।
अहमदाबाद जिले में सैकडों हीरा मजदूरों ने पुलिस पर पथराव किया और बापू नगर इलाके को बंद कराने की कोशिश की। वेतनवृद्धि की मांग को लेकर हडताल गुजरात के उत्तरी भागों पालनपुर और महसाना तक फैल गयी । गुडगांव- मानेसर की बहुत से कारखाने के मजदूर अपने मालिकों के खिलाफ सडकों पर उतर आये। होंडा मोटर साइकिल के मजदूर बेहतर वेतनमान और मालिकों द्वारा स्थायी कर्मचारियों का अस्थाई किये जाने के विरूद्ध कई महीनों तक आंदोलन पर रहे। अन्य कारखानों के मजदूरों ने इनका सक्रियता से सहयोग किया। इसने मजदूर वर्ग के संघर्षों के विस्तार और वृहद एकता की संभावना को जन्म दिया। यही वह मार्ग है जो वर्ग को मालिकों के हमलों का मुकावला करने की क्षमता पैदा करता है। यही वह स्थिति है जिससे मालिक वर्ग भयभीत होता है और इसे टालने कोशिश करता हैं।
निस्संदेह, हाल के संघर्षों में विस्तार, आत्म नियंत्रण और वर्गीय एक जुटता के विकास की संभावनाओं की गतिशीलता है। लेकिन इस गतिशीलता को हासिल करने के लिये मजदूरों के लिये यह आवश्यक है कि वे राज्य तथा यूनियनों की उभरती चालों को समझें और संघर्षों को अपने हाथों में ले लें। स्थिति इस दिशा में बढ रही है कि क्रान्तिकारियों के सामने चनौती यह है कि वे इस गतिक को गहराई से समझें और उसमें ठीक तरह से हस्तक्षेप कर सकें ताकि संघर्षरत मजदूर यूनियनों के जाल से मुक्त होने के लिये अपने आत्मबल और ताकत दोंनो को पहचानें।
गुडगांव के संघर्ष में रिको के एक मजदूर के मारे जाने और कइयों के घायल हे जाने के पश्चात यूनियनों की एकमात्र भूमिका यह थी कि वह किस प्रकार मजदूरों में बढती एकता और संघर्ष के विस्तार के बढते रूझान को अति शीघ्र रोक दें। एक दिन की आम हडताल का नारा देकर उनमें एक साथ आने और वर्गीय भाईचारे के बढते तेबरों को बधिया बना देने का प्रयास किया । इसके वाबजूद, 20 अक्तूबर की हड़ताल में 1 लाख मजदूरों की भागीदारी वर्गीय भाईचारे की जीती जागती मिशाल थी। पूँजीवाद से मुठभेड और उससे दो-दो हाथ करने की इच्छाशक्ति के जज्वे भी इसकी अभिव्यक्ति थी।
यद्यपि, ऊपर गिनाये संघषों में मजदूरों की जोशीली भागीदारी रही किन्तु वे सभी संघर्ष यूनियनों माध्यम से के नियन्त्रण थे। कई मामलो में यूनियनें वर्ग धरातल पर, आत्मगठन तथा प्रसार द्वारा विकसित होते संघर्षों को रोकने के लिये गर्म मुद्रा अपनाने के लिये वाध्या हुई। लेकन हकीकत यह है कि यूनियनों के प्रति बढते अविश्वास के वाबजूद, मजदूर वर्ग अभी भी यूनियनों ढांचे से बाहर निकलने और आत्म संगठन होने योग्य नहीं बन पाया है। हमें अपना ध्यान वर्ग संघर्ष को आम हडताल में विकसित होने की गति शीलता तथा उसमें क्रान्तिकारियों के नेतृत्व के गतिक को गहराई से समझने पर अधिक ध्यान देने की आवश्यकता है।
विश्व के अन्य भागों के समान ही, यहां भी मजदूरों के जीवन काम करने की परस्थितियों पर हो रहे हमलों के खिलाफ तात्कालिक संघर्षों में कूद जाने में भय और हिचक बनी हुयी है। यहां नौकरी छिन जाने तथा काम की सुरक्षा का डर अधिक है क्योंकि मालिक वर्ग द्वारा बिना किसी सामाजिक सुरक्षा के स्थायी नौकरियों के स्थान पर बहुत कम पगार पर अस्थायी या ठेके पर रखे जाने पर जोर अधिक है। इसके अलावा,यूनियनों के परम्परागत तरीके के संघर्ष भी अधिक से अधिक निरर्थक सिद्ध हो रहे हैं तथा वास्तविक विकल्प फिलहाल अस्पष्ट है। किन्तु, फिर भी, इतिहास के सबकों से सीखने तथा पूँजीवाद के खिलाफ संधर्ष विकसित करने के प्रति वर्ग में खदबदाहट है।
स्वयं सेवी संगठनों की गतिविधियां तथा अति वामपंथी शक्तियां भी संघर्षों के मजदूर वर्ग के मैदान में विकसित होने में अडचनें पैदा कर रहे हैं। जनवाद का भ्रमजाल भी एक नकारात्मक पहलू है। यूनियनों क्षेत्रों, धर्मों तथा जातियों के आधर पर विभाजनकारी भावनायें भी महत्वपूर्ण रूकावटें हैं। ये सभी अस्थायी हैं, स्थायी तो पूँजीवादी सम्बन्ध तथा उसका संकट, उसके आंतरिक अंतर्विरोध, मजदूर वर्ग पर बढते हमलों और दमन का सिलसिला है जो वर्ग चेतना, आत्मसंगठन और वर्ग संघर्ष के विकास के प्रति रूझान को प्रतिविम्बित करता है। पर इस गतिशीलता में क्रांतिकारियों की शिरकत भी निर्णयक कारक है।
विश्व के पूँजीपतियों ने भी अपने अनुभवों से मजदूर वर्ग को नियंत्रित करने, उसका दमन करने, उसके सघर्षों को कुचलने तथा हराने के तरीके सीख लिये हैं। उसका एकमात्र लक्ष्य होड, विभाजन तथा भ्रमजाल को घनीभूत करना ताकि मजदूर वर्ग अपने सघर्षों को अपने वर्गीय मैदान में और अधिक लडाकू तथा जागरूक तरीके से विशाल स्तर पर संगठित करने में असफल रहे। विश्व पूँजीवाद के भाडे पर जुटे तमाम अर्थशास्त्री, विद्वान, शोधकर्ता, राजनीतिज्ञ, ट्रेड यूनियन नेतागण दिन रात एक किये हुये हैं। इस कार्य में हिन्दुस्तान का पूँजीपति भी पीछे नहीं है। पूँजीवाद के सभी भागों के लिये यह जीवन मरण का सवाल है।
पूँजीवाद की आर्थिक नीतियों ने बढती मूल्यवृद्धि को जन्म दिया। सरकारी आंकडों के अनुसार, खाद्यानों के दामों में 18 प्रतिशत की वृद्यि हुई किन्तु वास्तव में यह इससे कहीं अधिक हैं। इसके चलते, मजदूरों के बडे भाग को दो जून की रोटी जुटाना मुश्किल हो गया है। इस स्तर पर खतरे को भांपते हुये और इसको टालने के लिये पूँजीपतियों के विभिन्न गुट मंहगाई के खिलाफ संघर्षो की रस्म अदायगी कर दिखावा कर रहे हैं। आर्थिक संकट के लगातार तीव्रतर होते जाने के कारण पूँजीवाद वर्ग संघर्ष को लम्बे सयम तक नहीं टाल सकता। वर्ग की वर्तमान सापेक्ष मुश्किले भावी समय में हिंसक तूफान के रूप में प्रचंड वर्ग संधर्ष फूट पडने की सभावना लिये है।
विश्व के अन्य भागों की समान ही हिन्दुस्तान का पूँजीपति और उसके विशेषज्ञ अतिरिक्त समय लगा कर मजदूरों में यह संदेश देने में जुटे हैं कि संकट अस्थायी है और यह व्यवस्था का जरूरी अंग है, इस पर देर सबेर पार पा ली जायेगी, इसका बुरातम प्रभाव खत्म हो चुका है, जी डी पी में उत्साहवर्धक विकास हो रहा है, निर्यात कुलांचें भर कर दौडने लगा है और अच्छे दिन अब ज्यादा दूर नहीं हैं।
पूँजीवाद का एक और अन्य आजमाया हुआ भरोसेमन्द जाल राष्ट्रवाद है। पूँजीपति और उसका प्रिन्ट व इलैक्ट्रौनिक मीडिया मजदूर वर्ग के कानों में यह स्वर फूकने से नहीं चूकते कि चीन द् ड्रैगन अपनी सैन्य शक्ति का विस्तार कर भारत को घेरने के साम्राजयवादी मंसूवे बना रहा है। लगभग प्रत्येक दिन अखबारों में कोई न कोई कहानी ऐसी छपी होती है जिसमें भारतीय हितों के खिलाफ पाकिस्तानी हुक्मरानों द्वारा शत्रुता पूर्ण गतिविधि का हवाला न हो। भारत के किसी भी कोने में किसी भी आतंकवादी घटना को पाक राज्य द्वारा नियोजित अपराध कर्म घोषित किया जाता है। वे मजदूर वर्ग को साम्राजवादी जुये में जोतने की कोशिश कर रहे हैं। वे मजदूर वर्ग को अतंकवाद के खिलाफ साम्राजवादी युध में लाम्वन्द करने की हर कोशिश क्रर रहे हैं। इस प्रकार मजदूर वर्ग को हमेशा राष्ट्रवाद के गहरे उन्माद में डुबा कर रखा जाता है। मजदूर वर्ग को हमेशा बताया जाता रहता है कि भारत आर्थिक, राजनतिक तथा सामरिक तौर पर अतंर्राष्ट्रीय स्तर पर एक महान शक्ति बनने जा रहा है और इसका मान अतंर्राष्ट्रीय बिरादरी में दिन पर दिन बढता जा रहा है।
और भी, पूँजीवाद मजदूर वर्ग को यह समझाने में कोई कसर बाकी नहीं छोड रहा कि समाजवाद, साम्यवाद और सर्वहारा क्रांति कोरी कल्पना मात्र हैं। मजदूर वर्ग को हमेशा बताया जाता है कि जनवाद ही एक अति उत्तम विकल्प है और सभी समस्याओं को सुलझाने का एकमात्र मार्ग भी।
पूँजी की अति वामपंथी पार्टियां मजदूर वर्ग को इसमें उलझाये रखती हैं कि उनकी नयी जनवादी क्रांति ही जीवन और जीविका की समस्याओं को सुलझाने का एकमात्र विकल्प है।
किन्तु पूँजीपतियों ने यह अहसास किया है कि भ्रमजाल फैलाने के उसके सभी घनीभूत प्रयासों के वाबजूद पूँजीवाद के अस्तित्व पर प्रश्न खडे करने और चेतना के विकास की प्रक्रिया अटल है। चेतना के विकास की प्रक्रिया को पटरी से हटाने तथा कम्युनिस्ट विकल्प की खोज को पूँजीवाद मार्कसवाद के सारतत्व को विकृत करने के प्रयास में जुटा हैं जबकि दूसरी ओर वह यह भी घोषणा करता है कि मार्कस एक महान विचारक थे और मार्कसवाद आज भी प्रासंगिक है। शासक वर्ग हर प्रयास करेगा ताकि मजदूर वर्ग यह चेतना न हासिल कर पाए कि पूँजीवाद का विनाश तथा एक नए सामाज का निर्माण ही व्यवस्था के सडन से पैदा समस्याओं का समाधान कर सकता है।
सीआई, 3 फरवरी 2010
फरबरी 2010 के मध्य आईसीसी ने अपने एशियन सेक्शनों की एक कांफ्रेंस आयोजित की। कांफ्रेंस में फिलिपीन्स, टर्की तथा भारत में आईसीसी के सेक्शनों ने हिस्सा लिया। हमें आस्ट्रेलिया के एक इन्टरनेशनलिस्ट ग्रुप के प्रतिनिधि तथा भारतीय सेक्शन के कई हमदर्दों का स्वागत करके खुशी हुई। आईसीसी की पिछली कांग्रेस में शामिल कोरिया के दो अंतरराष्ट्रीयतावादी ग्रुपों को कांफ्रेंस में आमंत्रित किया गया था पर आखिरी मौके पे वे नहीं आ पाए। इन साथियों ने पान एशियन कांफ्रेंस को एकजुटता एवं शुभकामना संदेश भेजे। साथ ही उन्होंने कांफ्रेंस के लिये कोरिया में वर्ग संघर्ष पर एक लिखित रिपोर्ट भी भेजी।
पान एशियन कांफ्रेंस का लक्ष्य था आईसीसी की 18वीं कांग्रेस के कार्य को जारी रखना और दुनिया में उभरते अंतरराष्ट्रीयतावादी तबके के विकास में भाग लेना। आईसीसी की 18वीं कांग्रेस की मुख्य चिंता - अंतरराष्ट्रीयतावादियों में सहयोग बढाना - इस कांफ्रेंस की भी मुख्य चिंता बनी।
कांफ्रेंस एक शोकाकुल संदेश के साथ प्रारम्भ हुई। उसे दो दिन पहले हुई अमेरिकन सेक्शन के कामरेड जैरी के निधन की जानकारी मिली। कांफ्रेंस ने कामरेड जैरी को, जो अमेरिका में हमारे सेक्शन का एक स्तंभ और बरसों से आईसीसी का जुझारु था, श्रध्दांजलि अर्पित की। उसने साथी के परिवार और अमेरिकन सेक्शन के प्रति एकजुटता प्रकट की।
पान एशियन कांफ्रेंस में पेश रपटें
पान एशियन कांफ्रेंस के दौरान विभिन्न राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय मसलों पर रपटें प्रस्तुत का गयीं - अंतरराष्ट्रीय आर्थिक संकट, एशिया में साम्राज्यवादी प्रतिद्वन्दता, अंतरराष्ट्रीय वर्ग संघर्ष, आईसीसी तथा सेक्शनों की जीवनधारा जिसमें बहस की संस्कृति तथा सिद्धान्त के प्रति अभिरुचि का सवाल भी शामिल था। साथ ही भारत तथा फिलिपीन्स की राष्ट्रीय स्थिति एवं वर्ग संघर्ष और एशिया के विभिन्न सेक्शनों की गतिविधियों पर रिपोर्टें पेश की गयीं।
तीन दिनों के दरम्यान कांफ्रेंस ने इन सभी रिपोर्टों तथा उनसे पैदा हुये प्रश्नों पर भाव पूर्णता से चर्चा की। किन्तु फिर भी हम एजेंडा के सभी प्रश्नों पर समुचित गहराई एवं स्पष्टता से चर्चा नहीं कर पाये। हम यहां कांफ्रेंस में हुयी तमाम चर्चाओं पर रिपोर्ट प्रस्तुत नही करेंगे किन्तु कुछ, अधिक भावपूर्ण अथवा अधिक महत्वपूर्ण, चर्चाओं को ही लेंगे।
एशिया में साम्राज्यवादी प्रतिद्वन्दता
इस प्रश्न पर संपूर्ण रिपोर्ट हमारी वैब साइट पर देखें 1। यह रिपोर्ट और इस पर चर्चा साम्राज्यवादी तनावों पर आईसीसी की 18 वीं कांग्रेस में पेश रिपोर्ट के ढांचे में समाहित थी 2।
कांफ्रेंस के दौरान मुख्य बहसों का केन्द्र था - अमेरिका का कमजोर होना तथा चीन का एक अंतरराष्ट्रीय शक्ति के रुप में उभरना और इसका एशिया में साम्राज्यवादी गठजोडों एवं तनावों पर प्रभाव।
कांफ्रेंस को इसमें कोई संदेह नहीं था कि कमजोर होने के बावजूद अमेरिका विश्व की नम्बर एक ताकत है और इस समय चीन अमेरिका से खुल्लमखुल्ल भिडने की न तो क्षमता और न इच्छा शक्ति रखता है। चीन के उभार की गति और उस द्वारा अमेरिका को चुनौती देने या ना देने की आसन्नता पर चर्चा की गयीं।
एशिया में बढते सैन्यीकरण पर महत्वपूर्ण चर्चा की गयी। एशिया अब विश्व में हथियारों का मुख्य बाजार बन गया है। जब कि चीन इस मद में खर्च करने वालों में पहले नंबर पर है, उसके पीछे-पीछे अन्य देश हैं भारत, सऊदी अरब, जापान तथा आस्ट्रेलिया। चीन और भारत द्वारा सैन्यीकरण के पीछे है उनका बदलता आर्थिक स्वरुप तथा बढती हुयी साम्राज्यवादी महत्वाकांक्षायें। जापान, दक्षिण कोरिया तथा आस्ट्रेलिया के सैन्यीकरण के पीछे एक कारण है अमेरिका का पतन और चीन के उभार से उत्पन्न खतरे की उनकी धारणा।
बहस ने रेखांकित किया कि अमेरिका का पूरा ध्यान अब अफ-पाक युद्ध पर केन्द्रित है। जबकि वह अफगानिस्तान को स्थिर बनाना चाहता है, यह स्वयं पाकिस्तान ही है जो अब अमेरिकन साम्राज्यवाद के लिये मुख्य और बडा इनाम है। कांफ्रेंस के लिए यह सपष्ट था कि अमेरिका अफ-पाक को छोडने की जल्दी में नहीं है। गर वह भविष्य में अफगानिस्तान में अपने सैनिकों की संख्या घटाता भी है, तो भी वह वहां एक मज़बूत उपस्थिति बनाए रखेगा।
चर्चा में, दक्षिण एशिया में गठजोड एवुं पुर्न गठजोड पर ध्यान केन्द्रित किया गया। भारत पाक के बीच तीखा और घातक विरोध, जो आजकल अफगानिस्तान में दोनां के बीच प्राक्सी युद्ध के रुप में फैल रहा है, एक स्थायी सत्य है। भारत और पाक इस वक्त एक युद्ध आरम्भ करना नहीं चाहते। पर उनके सम्बन्धों की अस्थिरता के चलते हमें इस खतरे के प्रति सजग रहना होगा कि मुम्बई 2008 जैसी कोई आतंकवादी कार्रवाई एक सैनिक मुठभेड भडका सकती है।
गत कुछ वर्षों में भारत चीन के बीच बढता तनाव देखा जा सकता है। परिणाम स्वरुप, हिन्दुस्तान अमेरिका के साथ नजदीकी सम्बन्ध बनाने में लगा है। किन्तु समय के चरित्र के चलते, जिसे प्रत्येक व्यक्ति सिर्फ अपने लिये के रुप में परिभाषित किया गया है, दोनों के बीच रिश्ते ठंडे पड रहे हैं। भारत अब रुस जैसे अपने पुराने दोस्तों की ओर निहार रहा है
चर्चा में निम्न प्रश्न भी लिये गयेः
वर्ग संघर्ष
चर्चित विषयों में यह प्रमुख था जिसने कांफ्रेंस में शामिल सभी साथियों को संप्रभावित किया।
वर्ग संघर्ष पर प्रस्तुति ने एक प्रश्न उठाया - अंतरराष्ट्रीय वर्ग संघर्ष में आज हम कहां खडे हैं।
मज़दूर वर्ग के संघर्षों ने 2003 में एक मोड देखा जब वर्ग ने पूंजीपति वर्ग के हमलों का जवाब विकसित करना शुरु किया। किन्तु 2008 में संकट के विनाशकारी विकास और इसके चलते मज़दूर वर्ग द्वारा झेले भौंचक करने वाले हमलों ने वर्ग में भय, हिचक तथा लकवे की स्थिति पैदा की। प्रश्न उठाया गया कि वर्तमान में स्थिति क्या है? क्या वर्ग भय या लकवे जैसी स्थिति से उवर गया है? क्या इस डर का एशिया के मज़दूर वर्ग पर भी वही असर है जो यूरोप तथा अमेरिका के मज़दूर वर्ग पर? क्या वर्ग संघर्ष में नवीनतम विकास वर्ग द्वारा पक्षाघात पर पार पाने तथा संघर्ष पुनः विकसित करने की निशानी है? यद्यपि कोई सटीक उत्तर नहीं मिला; फिर भी चर्चा के दौरान उभरा आम दृष्टिकोण यह था कि वर्तमान संघर्ष इस भ्रांतिपूर्ण स्थिति पर पार पाए जाने की ओर इशारा करते हैं। और भी, विकसित हो रहे संघर्षों की व्यापकता अंतरराष्ट्रीय है और वे सब जगह देखे जा सकते हैं।
इसके साथ ही चर्चा में जोर इस बात पर रहा कि 1968 तथा उसके बाद के विपरीत वर्तमान में वर्ग के अन्दर वर्ग संघर्ष एवम आत्म विश्वास में विकास की गति धीमी है। परिपक्वन की यह मन्दिम प्रक्रिया 2003 से उभरे वर्ग संघर्ष का विशेष चरित्र है। आज भी स्थिति लगभग वैसी ही है। इसका कारण है आज की ऊंचीं बाज़ी - यह एक आम और सही विश्वास है कि आर्थिक स्थिति में सुधार असंभव है। इसके रूबरू वर्ग संकट के प्रभावों को पचाने तथा उनसे सबक लेन में समय ले रहा है।
चर्चा में यह रेखांकित किया गया कि हमें संकट की सघनता तथा वर्ग की ओर से तात्कालिक एवम समानुपातिक प्रतिउत्तर के बीच कोई यांत्रिक संबंध नहीं देखना चाहिये।
तो भी, हम आज भी यूरोप तथा भारत सहित विश्व के अन्य भागों में मजदूर वर्ग के संघर्षों में वर्गीय एकजुटता का विकास देख सकते हैं। कुछ संघर्षों में समकालिकता प्रदर्शित होती है जो विस्तार की संभावना पैदा करता है।
और भी, पिछले सालों से हम एक नयी पीढी का उभार देख रहे हैं जिसने पूंजीवाद पर सवाल उठाना और स्पष्टता खोजना शुरु कर दिया है।
टर्की, फिलीपीन तथा भारत में वर्ग संघर्षों पर भी चर्चा हुई, खासकर गुडगांव के आटो मज़दूरों की तथा गुजरात में डायमंड मज़दूरों की हड़तालों की। पर आम धारणा यह थी कि इस बहस को और विकसित करने की जरूरत है। विशेष रुप से, वर्ग के अन्दर चेतना के वृहद प्रस्फुटन तथा आम हडतालों के विकास के मार्ग को गहराई से समझने तथा चर्चा में लेने की जरुरत है। इस चिंता को प्रस्ताव के एक बिन्दू में ठोस रुप दिया गया और कांफ्रेंस के पश्चात इस पर बहस आगे वढाने का आदेश दिया।
भारत तथा अन्य एशियाई देशों की विशेष स्थिति पर भी प्रश्न उठाये गयेः
चर्चा के दौरान हस्तक्षेप के विषय पर महत्वपूर्ण सवाल उठा। इस सवाल को आईसीसी तथा एशिया में इसके विभिन्न सेक्शनों की गतिविघियों पर चर्चा के दौरान फिर उठाया गया।
आईसीसी की जीवनघारा
आईसीसी की जीवनधारा पर एक रिपोर्ट पेश की गई जिसमें खासकर लातिनी अमेरिका में कई ग्रुपों तथा संपर्कों की ओर हमारा कार्य शामिल था। इससे छिडी बहस में कई सवाल उठाए गए - बह्स की संस्कृति, सिद्धान्त के प्रति अभिरुचि, अनुभवों का हस्तान्तरण तथा मानवीय तजुर्बे के रुप में एक र्जुझारु की गतिविधि।
विवेचना के दौरान यह विचार विकसित हुआ कि अंतरराष्ट्रीयतावादी तबका केवल आईसीसी तथा उसके संपर्कों द्वारा गठित नहीं बल्कि अलग अलग परम्पराओं से आते अन्य अंतरराष्ट्रीयतावादी ग्रुप भी इसका हिस्सा हैं। आईसीसी इस तबके को मजबूत करने तथा उसको गठित करते अन्य ग्रुपों से मिल कर काम करने के प्रयासें में लगी है। जरुरी है कि हम इस भावी सांझे कार्य को विकसित करते रहें - हमारे लिये इस समूचे तबके का मजबूत होना हमारा मजबूत होना है।
बहस की संस्कृति, सिद्धान्त के प्रति अभिरुचि, अनुभवों का हस्तान्तरण
बहस ने याद किया कि मजदूर वर्ग एक चेतना का वर्ग है। अपनी चेतना को विकसित किये बिना, अपने अंतरराष्ट्रीय, ऐतिहासिक अनुभवों को आत्मसात किये बिना वर्ग अपने संघर्षों को पूर्णरुप से विकसित नहीं कर सकता और न ही कर सकता है पूंजीवाद के विघ्वंस के लिये कार्यं।
मौजूदा ऐतिहासिक संदर्भ में एवं खोजी तत्वों की एक नयी पीढी के उभार के संदर्भ में, आईसीसी अनुभवों के हस्तान्तरण में अपनी अपरिहार्य भूमिका देखती है। चर्चा के दौरान यह विचार विकसित हुआ कि भावी पीढी तथा खोजी तत्वों की ओर हस्तक्षेप के दौरन आईसीसी के लिए आवश्यक है कि वह सैद्धान्तिक एवं संगठनात्मक दोनों प्रकार के अनुभवों का हस्तान्तरण करे। अनुभवों के हस्तान्तरण का सवाल सभी जगह अहम है। पर यह एशियन देशों में और भी अहम है यहां कम्युनिस्ट संगठनों का कभी असितत्व नहीं रहा और यहां वामपंथी तथा राष्ट्रवादी ताकतों ने सदा कम्युनिस्ट होने का सवांग रचा है।
किन्तु यह हस्तान्तरण एकतरफा शिक्षाशास्त्रीय कार्य नहीं। इसके विपरीत, यह एक जुझारु गतिविधि है। इस कार्य को नई पीढी की चिंताओं के प्रति खुलापन अपना कर, उसके सवालों को समझने तथा उनका उत्तर देने का प्रायस करके, उठाए जा रहे नए मसलों तथा उन्हें देखने के नए तरीकों के प्रति खुला रुख अपना कर ही पूरा किया जा सकता है। और भी, ऐतिहासिक अनुभवों के हस्तान्तरण के लिये महत्वपूर्ण है कि आईसीसी अपनी पांतों में तथा अपने इर्द गिर्द के तत्वों में बहस की संस्कृति का विकास करे। इस प्रक्रिया के अंग के रुप में सिद्धान्त के प्रति अभिरुचि पैदा करना भी महत्वपूर्ण है।
अनेक हस्तक्षेपों ने क्रांतिकारी तबके तथा मजदूर वर्ग में सिद्धान्त के प्रति अभिरुचि विकसित करने की प्रासंगिकता की बात की।
हस्तक्षेपों ने 19वीं सदी के अंत तथा 20वीं सदी के आरंभ के क्रांतिकारी आन्दोलनों के ऐतिहासिक तज़ुरबे को याद किया। इस वक़्त क्रांतिकारी न सिरफ मज़दूर वर्ग के जीवन की तथा उसके संघर्ष की स्थिति का अध्धयन करते थे बल्कि सदा विज्ञान में विकास का भी ज्ञान रखते थे। क्रांतिकारी सिद्धान्त की रोशनी में उन्होंने निरंतर नई वैज्ञानिक खोजों तथा विचारों के संश्लेषण का कार्य किया। इस वक़्त गहन सैद्धान्तिक सरोकार रखना कम्युनिस्टों में मानक व्यवहार था।
आज, लम्बे प्रतिक्रांतिकारी काल के बाद यह कठिन प्रतीत होता है। तो भी, यदि मजदूर वर्ग को अपना ऐतिहासिक कार्यभार पूरा करने के स्तर तक उठना है तो उसे अपने अतीत से सबक लेना होगा।
सिद्धान्त के प्रति अभिरुचि तथा बहस की संस्कृति विकसित करने में हमें जिस बोझ को वहन करना पडता है उस पर पर महत्वपूर्ण चर्चा हुई। इस मार्ग में अनेक कठिनाइयां हैं:
माओवादियों के साथ अनुभव रखने वाले साथियों ने एक माओवादी "थीसिस" याद किया : "जितना अघिक अघ्ययन करोगे उतने ही अधिक मूर्ख बनोगे"।
चर्चा ने भावी पीढी को अनुभव हस्तान्तरित करने तथा उसका राजनीतकरण करने के एक हथियार के रुप में सिद्धान्त के प्रति अभिरुचि तथा बहस की संस्कृति को सचेत रूप से विकसित करने की जरूरत को रेखांकित किया।
जुझारु गतिविधि का गहन मानवीय चरित्र
आईसीसी की जीवनधारा के शीर्षक के अंतर्गत विकसित हुई एक और बहस थी एक मनवीय गतिविधि के रूप में जुझारु कार्य। इस बहस ने जुझारुओं के सामाजिक जीवन और हमारे राजनैतिक व्यवहार के बीच दीवार खडा करने के प्रयासों को खारिज़ किया। साथ ही इस चर्चा ने पूंजीवाद के भीतर कम्युनिज़म के द्वीपों के निर्माण की धारणाअओं को भी रद्द किया। किन्तु यह जोर देकर कहा गया कि हमारा जीवन हमारे सिद्धान्तों का घोर उल्लंधन नही हो सकता।
समाजवाद तथा स्त्रियों क प्रश्न इस बहस का केन्द्र विन्दु बना। इस चिन्ता के रुप में कि आमतौर पर औरतों के प्रति तथा खासकर उनके इर्द-गिर्द के तबके का अंग औरतों के प्रति कम्युनिस्टों का क्या रवैया होना चाहिये। हो सकता है कि कम्युनिस्टों की एक कांफ्रेंस के लिए यह एक अस्वाभाविक बहस लगे। पर इस स्तर पर सामंती सोच का बरकरार रहना भारत, टर्की तथा फिलिपीन्स जैसे देशों में विषेष रुप से धातक बोझ है। वास्तव में यह चर्चा आईसीसी की एक महिला हमदर्द के आवेगपूर्ण हस्तक्षेप से प्रेरित थी जिसने सवंय आईसीसी के भारतीय सेक्शन के इर्द-गिर्द के तबके में भी गहन पितृसत्तात्मक दृष्टिकोंण की मौजूदगी की ओर इशारा किया।
समय के अभाव के कारण कांफ्रेंस इस विषय को विकसित नहीं कर पाई। उसने सेक्शनों को इस चर्चा को विकसित करने का निर्देश दिया।
हस्तक्षेप का सवाल
कांफ्रेंस ने अपने अस्तित्व के थोडे से समय में आश्चर्यजनक काम अंजाम देने के लिये हमारे फिलिपीनी सेक्शन का स्वागत किया। सेक्शन के कार्य करने की स्थितियों के चलते यह और भी प्रभावशाली हो जाता है - अर्ध-कानूनी स्थिति, राज्य तथा पूंजीपति वर्ग के वाम एवं दक्षिण पंथ के विभिन्न धडों की निजी सेनाओं द्वारा दमन का खतरा, आर्थिक कठिनईयां।
हस्तक्षेप के सवाल पर एक लम्बी तथा अवेगपूर्ण बहस हुई। इस चर्चा में अनेक पॉइंट स्पष्ट हुए:
इस चर्चा का संदर्भ था हमारे भारतीय सेक्शन द्वारा पेश अपने कार्य-कलापों का एक लेखाजोखा। इसमें रेखांकित किया गया:
इसके साथ ही बैलेंसशीट ने अन्य क्षेत्रों में महत्वपूर्ण कमजोरियां को भी रेखांकित किया:
इस आखिरी सवाल को आईसीसी के कुछ करीबी हमदर्दों ने उठाया और यह एक अहम, भावनात्मक बहस का मुद्दा था।
यह चर्चा हमारे सेक्शन तथा हमदर्दों, दोनों के लिए प्रेरक रही। हमारे हमदर्दों ने आगे बढ कर हमारे प्रेस के लिये लिखने तथा अनुवाद करने, वितरण में सहयोग तथा वर्ग सधर्षों में भाग लेने की पेशकश की।
निष्कर्ष
आईसीसी की पान एशियन कांफ्रेंस हमारे संगठन के जीवन में एक महत्वपूर्ण अवसर तथा एशिया में कम्युनिस्ट विचारों एवं सगठनों के विस्तार में एक महन्वपूर्ण मील पत्थर बनी। यद्यपि यह कोई बहुत बडी संख्या नहीं थी, फिर भी यह एशिया में कम्युनिस्टों और अंतरराष्ट्रीयतावादियों की अब तक की संभवतया सबसे बडी सभाओं में से थी।
एशिया में आईसीसी के अनेक जुझारुओं के लिए आईसीसी की एक अंतरराष्ट्रीय मीटिंग का यह पहला अनुभव था। जैसे कुछ साथियों ने व्यक्त किया, पान एशियन कांफ्रेंस में आईसीसी की एक लधु कांग्रेस का रुप दिखाई दिया।
कांफ्रेंस में शामिल आस्ट्रेलिया के डेलीगेट तथा आईसीसी के हमदर्दों के लिये यह एक अलग ही तरह का अनुभव था। उनके लिये यह उस संगठन का जीवन्त अनुभव था जो न सिर्फ अंतरराष्ट्रीयतावादी है बल्कि वह अपने जीवन तथा कार्यशैली में भी अंतरराष्ट्रीय है। आस्ट्रेलिया के युवा साथी ने अभिव्यक्त किया: कांफ्रेंस के अनुभव ने जीवन तथा जुझारू कार्य के प्रति उसके समूचे परिपे्रक्ष को ही बदल दिया है।
कांफ्रेंस के अन्त में भारत के एक हमदर्द ने अपना अनुभव कुछ इस प्रकार समेटा: "कांफ्रेंस के दौरान यह भूल गया कि मैं अपने देश में हूं। विभिन्न देशों के क्रांतिकारियों के साथ काम एवं चर्चा करते हुये मैंने महसूस किया कि मैं एक अंतरराष्ट्रीय जीवन और संघर्ष का हिस्सा हूँ"।
वहां उपस्थित सभी साथियों के ऐसे ही विचार एवं भावनायें थी। आईसीसी की पान एशियन कान्फ्रेंन्स ने इसके प्रत्येक भागीदार को स्पष्टता और अंतरराष्ट्रीय कम्युनिस्ट आंन्दोलन खडा करने के काम के लिये उत्साहित किया।
साकी, 4 अप्रैल 2010
फुट नोट
1. आईसीसी की पान एशियन कांफ्रेंस में साम्राज्यवादी प्रतिद्वन्दता पर प्रस्तुत रिपोर्ट [1]
2. आईसीसी की 18 वीं कांग्रेस: अंतरराष्ट्रीय स्थिति पर प्रस्ताव
3. आईसीसी की पान एशियन कांफ्रेंस में प्रस्तुत भारत में वर्ग संघर्ष पर रिपोर्ट [2]
अमेरिकी साम्राज्यवाद दुनियां भर में तथाकथित दोस्तों और दुश्मनों से समान रूप से उत्तरोतर समस्याओं से धिरता चला जा रहा है। बुश प्रशासन की "अकेला चलो'' की नीति के बाद, 18 महीने पहले हुये ओवामा के चुनाव से यह अनुमान था कि अंतर्राष्ट्रीय अखाडे में वह दाँव पेच के लिये ठोस घरातल स्थापित करने के लिये समय का जुगाड कर लेगा। ओवामा की एक "शांति दूत'' की छवि और उसके प्रशासन की "सहयोग'', "सुलह समझौता'' और कूटनीति की कार्य प्रणाली सभी प्रमुख, खास तौर पर दुसरे नम्बर की, सैनिक ताकतों को अपने सैनिक प्रयास के साथ खडा करने की कोशिश थी ताकि वह अपने दुश्मनों की ओर "हाथ बढा'' स्के। जैसा कि 2009 के बसन्त के इन्टरनेशनल रिव्यू 139 में अंतराष्ट्रीय स्थिति पर प्रकाशित लेख में कहा गया है, ओवामा के चुनाव के वाबजूद अमेरिका का "लक्ष्य अभी भी सैनिक श्रेष्ठता के माध्यम से विश्व पर अमेरिका का नेतृत्व स्थापित करने का है। कूटनीति के प्रति ओवामा की बढती अभिरुचि एक अहम अवस्था तक समय हासिल करने तथा उस सम्बन्ध में अपनी सेना, जो वर्तमान में इतनी अधिक पतली फैली और इतनी थक हुई है कि वह अब इराक तथा अफगानिस्तान के साथ साथ किसी अन्य क्षेत्र में युद्ध लडने की हालत में नहीं, को भविष्य में अनिवार्य हस्तक्षेप के लिये समय तथा जगह प्रदान करना है।''
अब यह प्रतीत होता है कि ओवामा द्वारा घोषित विनियोजन, सहयोग तथा कूटनीति की नीतियों ने, यदि उनका कभी अस्तित्व भी रहा हो, अब बुश की मंडली की नीतियों को जगह दे दी है। बल्कि विश्व परिस्थिति की बढती खतरनाक मांगो के अनुरूप उन्हें विस्तृत और परिस्कृत किया जा रहा है। इस प्रकार लम्बी अवधि में वे विश्व को, जिसे वे नियंत्रित करना चाहते हैं, अस्थिर बनाये रखने में योगदान करेंगी। यदि कोई घटना इस विकास क्रम को प्रदर्शित करती है तो वह है: इस वर्ष के प्रारम्भ में आये भूचाल के पश्चात हैती पर अमेरिकी हमला, जहां अन्य सरकारों तथा अन्य एजेंन्शियों द्वारा अमेरिका के पिछवाडे में हस्तक्षेप के सभी प्रयासों को अमेरिका ने ठोंक दिया। यह अन्य ताकतों के लिये स्पष्ट एवं नृशंस सन्देश था।
अलावा इसके कि इराक से अमेरिकी सेना की वापसी पर ठहराव लगाया जा रहा है और अफगानिस्तान में 30,000 अतिरिक्त सैनिकों का एक "उभार'' अपनी शुरूआत में है, अनेक तत्व हैं जो अमेरिकी साम्राज्यवाद की बढती आग्रहता की जरुरत की ओर इशारा करते हैं। बुश के एकतरफावाद के सिद्धान्त से स्पष्ट संबंध विछेध के रूप में प्रस्तुत नयी अमेरिकी रणनीति एक 52 पन्नों की रिपार्ट में पेश की गयी थी। इसे "मन वांछित दुनिया प्राप्ति का ब्लू प्रिन्ट'' शीर्षक से व्हाइट हाउस की वैब साइट पर चस्पा किय गया था और यह ओबामई भाषा से भरी पडी है। मसलन उसमें कहा गया है कि "हमारी दीर्घकालीन सुरक्षा लोगों को डराने की हमारी योग्यता में नहीं बल्कि उनमें आशा जागृत करने की हमारी क्षमता में निहित है।'' इस नीति का झुकाव चीन, भारत और रूस को संलग्न करना है किन्तु साइबर आतन्कवाद का खतरा रिपोर्ट की सूची में सबसे ऊपर रखा गया है और इस हथियार का प्रयोग विशेष रूप से चीन करता है। अफगगनिस्तान मे अपनी साम्राज्यवादी महत्वाकांक्षा और पाकिस्तान से उसके तनाव पूर्ण रिश्तों के संबन्ध में अमेरिका ने हाल ही में भारत को ऐसा करारा झटका दिया है कि भारत के पूंजीपति वर्ग को प्रति उत्तर प्रकाशित करने के लिये मजबूर होना पडा और सांत्वना के लिये रूस की ओर दौडना पडा। अमेरिका का रूस के साथ काकेशस में तनाव चल ही रहा है। यह किर्गिस्तान में अशांति, जिसके परिणाम स्वरूप किरिगिस्तान की सरकार का पतन हुया, के दौरान और भडक उठा। किरिगिस्तान में अमेरिका तथा रूस दोनों के हवाई अड्डे हैं।
बुश शासन के साथ बुनियादी निरन्तरता प्रदशित करते हुये रिपोर्ट फिर अमेरिका के एकतरफा कार्यवाही करने के अधिकार को सुरक्षित रखती है और पूर्वक्रय और अनुकरणीय प्रतिकारमय हमलों को खारिज नहीं किया गया है। यह नीति हर जगह सैनिक श्रेष्ठता बनाये रखेगी तथा "जनतनत्र और मानवाधिकार'' को प्रोत्साहित करेगी जो कि चीन, ईरान एवं उत्तरी कोरिया के विरुद्ध निर्देशित है। यह बुश की नीतियों से सम्बन्धित "वही घिसी पुरानी" नीतियां नहीं हैं बल्कि उनका और अधिक परिष्कृण हैं ताकि उन्हें और अधिक अस्थिर परिस्थितियों में अमेरिकन सीम्राज्यवाद के लिये और अधिक कारगर बनाया जा सके। गत वर्ष के अंत में, इसे रेखांकित करते हुये अमेरिकी केन्द्रीय कमान्ड के मुखिया जनरल पेट्रयस ने सेना को गुप्त सैनिक अभियानों पर अधिक व्यापक तथा स्थायी रुप से भेजने के लिये एक आदेश पर हस्ताक्षर किये। स्पष्ट रूप से बिवरण अभी अपूर्ण है किन्तु द् गार्जियन (25/5/10) ने लिखा: अमेरिका की सैनिक टुकडियां इरान, यमन, सीरिया, सोमालिया सऊदी अरब और अन्य स्थानों पर कार्यरत हैं। इरान अमेरिका और ब्रिटेन पर लगातार यह आरोप लगा रहा है कि वे क्षेत्रीय जातीय समूहों में असंतोष फैलाने के लिये विशेष सेना को भेज रहे हैं जबकि वे अपने सैनिक अभियान छेडे हुये हैं। द् वाशिंगटन पोस्ट (5/6/10) ने जानकारी दी कि बीते वर्ष के शुरू में ओवामा के पदारूढ होने के समय 60 के मुकाबले में अमेरिका ने अब 70 स्थानों पर अपनी विशेष सेनायें तैनात कर रखी हैं। अखबार आगे लिखता है: ओवामा के अधीन विशेष सैनिक अभियानों के लिये बजट बढाया गया है और बुश शासन के मुकाबले में व्हाइट हाउस में विशेष अभियानों के कहीं अधिक कमांडर उपस्थित हैं। एक अज्ञात अफसर ने कहा कि अब ''वे बातें कम और काम अधिक कर रहे है।'' और इस दिशा में, फारस की खाडी, लाल सागर और हिन्द महासागर के भागों में विशाल रूप से सैनिक क्षमताएं बढाते हुये अमेरिका के पांचवें वेडे ने अपने क्षेत्र का विस्तार किया है।
कूटनीति के रूप में युद्ध
रम्सफील्ड मुताबिक गुप्त सैनिक अभियानों के "प्रत्यक्ष रूप से गुप्त'' में रूपान्तरण की स्वीकृति देते हुये प्रशासन ने साफ कर दिया है कि यह अमेरिका की अपने दुश्मनों पर युद्ध की और ''दोस्तों'' के लिये एक चेतावनी की घोषणा है। ओवामा प्रशासन कूटनीति का भी इसी तरीके से प्रयोग कर रहा है - युद्ध के एक पहलू, साम्राज्यवाद के एक पहलू के रूप में कूटनीति का प्रयोग। इस प्रकार, जब जापान के नये नेता, जिसने गत अगस्त में अपनी डैमौक्रैटिक पार्टी के लिय चुनाव में भारी विजय हासिल की थी, ने अमेरिका के बन्धन को ढीला करते हुये और अधिक स्वतंत्र भूमिका का प्रस्ताव रखा और जापान में अमेरिकी अड्डा बन्द करने का सुझाव दिया (शायद गंभीरता पूर्वक नहीं) तो अमेरिकी प्रशासन ने इसको, विशेषकर जापान के द्वारा चीन के साथ नजदीकी सम्बन्धों की बातचीत को, लेकर तीव्र कूटनीतिक प्रति उत्तर दिया। प्रधान मंत्री यूकियो हतोयामा को उसकी वाशिंगटन यात्रा के दौरान सार्वजनिक तौर पर अपमानित किया गया; अमेरिकी मीडिया के अनुसार ओवामा ने उसे सूचित किया कि "उसके लिए वक्त खतम हो रहा हैं।'' अमेरिका की कूटनीनिक धौंस धपाड, गाली गलौज तथा जापान एशिया-शान्तमहसागर क्षेत्र के लिए परिणामों के विषय में दी गयी चेतावनियों को बढा चढा कर दिखाने के कारण हतोयामा टूट गया और अफसोसपूर्ण मुद्रा में पटरी पर आ गया। और यह सब जनतंत्र तथा अंतर्राष्ट्रीय सहयोग के लिये!
इसी प्रकार, हाल ही में, अमेरिका ने ब्राजील और टर्की द्वारा इरान के साथ उसका यूरेनियम टर्की भेजने का समझौता करने को लेकर दोनों को करारी चपत लगायी, बाबजूद इसके कि यह समझौता संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा तैयार की गयी योजना के समान था जिसे स्वीकार करने के लिये पिछले वर्ष अमेरिका और उसके "साथियों'' ने तेहरान को कहा था। ये थे दोस्ती के लिये बढे हुये हाथ! ब्राजील और टर्की ने इरान के खिलाफ संयुक्त राष्ट्र संघ के नये दंडात्मक पैकज, जिसके लिए अमेरिका पिछले पांच महीने से काम कर रहा था, के विरुद्ध मतदान किया। इस पैकेज में शामिल है "आर्थिक नाकेबंदी, एक विस्तृत शस्त्र निषेध तथा यू ऐन के सदस्य राज्यों को इरान की गतिविधियों पर नजर रखने की चेतावनी। इरान की शिपिंग कम्पनी को निशाना बनाया गया, और यही उन निकायों के प्रति किया गया जो क्रान्तिकारी सुरक्षा गार्डों द्वारा नियंत्रित हैं और जो कि इस्लामिक राज्य की रीढ और इसके परमाणु कार्यक्रम के रखवाले हैं।" ( गार्जियन 10/6/10 ) विगत प्रशासन में बुश द्वारा नियुक्त स्टेट सैक्रेटरी गेटस ने अमेरिका को और अधिक आर्थिक एवं सैन्य सहायता उपलव्ध न कराने तथा यू ऐस को और अधिक ठोस रूप में मदद न करने के लिये यूरोपीय शक्तियों को फटकारने के लिये कूटनीतिक माध्यमों को प्रयोग किया। वैसे मदद की कम ही सेभावना है जबकि उनके हाथ एक दूसरे की गर्दन की ओर बढ रहे हों।
मुश्किल, मुश्किल, मुश्किल
अफगानिस्तान, पाकिस्तान और इराक में युद्धों के अलावा सामरिक महत्व के इस केन्द्रीय क्षेत्र में, इरान, टर्की तथा इजरायल द्वारा पेश बढती समस्याएँ हैं। रूसी गुट के 1989 में पतन के पश्चात छोटी ताकतों के बढते प्रभाव को रेखांकित करता, इजरायल के साथ झगडा संभवतया अधिक गंभीर है। नयी और बडी बस्तियों के निर्माण के सवाल पर पूर्ण अवज्ञा के पश्चात, कथित "गाजा को मदद'' जहाज, मावी मामारा पर हाल की हत्यायों पर सम्बन्ध और अधिक खराब हो गये हैं। अमेरिकी कूटनीति यह प्रदर्शित करने में असाधारण तौर पर आगे चली गयी कि उसने इजरायल को "छह जहाजी बेडे के साथ संयम बरतने'' की चेतावनी दी थी(द् आब्जरवर 7/6/10)। अमेंरिका के स्टेट डिपार्टमैंट ने कहा: "हमने जहाजी बेडे के बारे में कितनी बार सूचना दी। हमने सावधानी और संयम पर जोर दिया'''। इजरायल में अमेरिका के पूर्व राजनयिक ने 5 जून को वाशिंगटन पोस्ट में तर्क किया कि अमेरिका के लिये इजरायल एक बिल्कुल ही विपरीत दिशा में चलने वाला साथी है। उसी प्रकार, टर्की भी इस क्षेत्र में एक सामान्य तथा अधिकाधिक खतरनाक अफरा-तफरी के हालात में अमेरिका से दूर होती दिशा को सुदृढ करता दिखलाई देता है। इराक के साथ युद्ध में अमेरिकी फौजों को अपने इलाके से गुजरने की इजाजत देने से इनकार करने से लेकर, टर्की इरान और सीरिया के साथ अपने सम्बन्धों में अधिक स्वतंत्रत दिशा जाहिर कर रहा है। मावी मामारा पर हमले में बहुत से तुर्क नागरिकों के मारे जाने के पश्चात, अमेरिका द्वारा मध्यस्त टर्की इजरायली गठगन्धन अब पानी में डूबता दिखाई देता है जबकि टर्की फिलिस्तीन-परस्त दुनियां में एक उभरती हुई शक्ति की भूमिका अपनाता दिखाई देता है।
यहां हार्न आव अफ्रीका और उसके आस पास कथित "संकट का वृतांश'' भी है जो विश्व के "गर्म स्थल'' बनने की संभावना रखता है। इथोपियाई सैन्यवाद में अमेरिका और ब्रिटेन की संलग्नता का उल्टा असर हुआ है। नतीजतन, सारे क्षेत्र में अस्थिरता का माहौल है जिसने अल कायदा तथा अन्य आतंकवादी ग्रुपों के लिये उर्वरक भूमि तैयार की है। इथोपिया, इरीटीरिया, सूडान ओर सोमालिया के बीच स्थानीय दुश्मनियां अंतर संबन्धित हैं और बडी साम्राज्यवादी शक्तियों द्वारा इस्तेमाल की जा रही हैं। खाडी के पार अमेरिकन साम्राज्यवाद के लिये अधिकाधिक रिसता हुआ घाव यमन है जिसे अमेरिका तथा ब्रिटेन ने उस देश में अपनी बढती रुचि से संभवतया और खराव कर दिया है। यहां से आतंकवादियों और कट्टरपंथी ग्रुपों के लिये एक सशक्त मार्ग है। उनमें से कुछ आपस में गठजोड कर रही हैं, हॉर्न ऑफ अफ्रीका के गिर्द गुज़रते हुए, उत्तरी केन्या, खाडी तथा सऊदी अरब को अपनी लपेट में ले रही हैं; अमेरिकी शैरिफ द्वारा नियंत्रित करने के लिये यह एक समूचा कानून विहीन क्षेत्र है।
इस क्षेत्र से दूर, अमेरिका के लिये एक और समस्या मार्च में उत्तरी कोरिया के तारपीडो द्वारा दक्षिणी कोरिया के जहाज को डुबा देने में दिखाई दी। उर्पयुक्त उदाहरणों का इशारा किस ओर है? ये सभी उदाहरण यह सिद्ध करने के लिये काफी हैं कि छोटे लुटेरे अमेरिकी गॉड फादर को अपनी सीमाओं तक धकेलने की ओर प्रोलोभित होंगे और अमेरिका के "मित्र'' अपने स्वार्थों को ध्यान में रखते हुये कम भरोसेमन्द बन जायेंगे। साम्राज्यवादी प्रतिद्वन्दता के इस विवेकहीन घालमेल में घटनायें और दुर्धटनायें अमेरिका के नियंत्रण से बाहर हो सकती हैं, और यह अमेरिका पर और अधिक दवाब डालेगा। एक चीज निश्चित हैः अमेरिका, अगर ओवामा की प्रिय "मानवीय'' शब्दावली का प्रोयग करें तो, "शांति और मेलमिलाप'' की भाषा में उत्तर नहीं देगा। वह तो सैन्यवाद तथा युद्ध की खूंखार ताकत से प्रतिउत्तर देगा। इस प्रकार वह स्थिति को और अधिक खतरनाक तथा विश्व फलक पर साम्राज्यवादी टकरावों को कई गुना बढाने के और अनुकूल बना देगा।
बबून, 9 जून 2010, वर्ल्ड रेवोल्यूशन 335, जून 2010
कई दशकों से जम्मू और कश्मीर में पूंजीपति वर्ग के दो परस्पर विरोधी गिरोह एक ओर "राष्ट्रीय एकता'' के नाम पर तो दूसरी ओर, कश्मीर की "आजादी"' के नाम पर शोषित अवाम का खून बहाने में व्यस्त हैं। इसने "गुलाबों की इस घाटी" को मौत, तबाही, कंगाली और अफरातफरी की घाटी में बदल दिया है। सैकडों, हजार लोग हिंसक रूप से उखड फेंके गये तथा कश्मीर से भागने को मज़बूर किये गये, या तो कश्मीरी हिंदुओं के खिलाफ निर्देशित जातीय शुद्धीकरण की प्रक्रिया द्वारा अथवा जीविका की तलाश में कश्मीर से पलायन को मजबूर आतंकित मुस्लिम के रुप में। अलगाववादियों और भारतीय राज्य ने हमेशा ही मजदूरों के अस्तित्व और उसके संघर्षों को इस भ्रमजाल के जरिये नकारने की कोशिश की कि कश्मीर में इन खूनी गिरोहों द्वारा लडे जाने वाला संघर्ष ही एकमात्र संधर्ष है।
और फिर भी, कश्मीर में मजदूर वर्ग ने पिछले कुछ वर्षों में बडी द्रढता के साथ उभरने की कोशिश की है और कई सारी बडी हडतालें व संघर्ष किये हैं ।
मजदूरों ने अपने वर्गीय हितों के लिये लडने का प्रयास किया
कश्मीर में मजदूरों के वर्तमान संघर्षों के चक्र की जडें 2008 की उनकी मुठभेडों में खोजी जा सकती हैं। मार्च 2008 में, राज्य सरकार की संस्था जेकेऐसआरटीसी (जम्मू और कश्मीर राज्य सडक परिवहन निगम) ने घोषणा की कि मजदूरों की संख्या अधिक होने के कारण निगम घाटे में चल रहा है। सरकार ने मजदूर कम करने की अपनी मंशा जाहिर कर दी और वीआरएस (स्वैच्छिक अवकाश योजना) की घोषणा कर दी। लेकिन दमनकारी हथकंडे अपनाये जाने के वाबजूद भी गिने चुने ही वीआरएस के लिये आगे आये। सरकार ने घोषणा की कि वह संचित कोला (जीवन निर्वाह भत्ता) और अन्य पिछले वेतन का भुगतान नहीं कर सकती। अपनी रोजी रोटी पर हो रहे हमलों तथा शासकों द्वारा पिछले वेतन के भुगतान की मनाही कर दिये जाने की स्थिति में मजदूरों ने अपना संघर्ष विकसित करने का प्रयास किया। मजदूरों के गुस्से को भांपते हुये ट्रांसपोर्ट युनियनों ने संघर्ष को दो घंटे की हडताल, सरकारी दफ्तरों तक मार्च आदि रसमी संघर्षों में बदल कर मजदूरों के गुस्से को ठंडा करने की कोशिश की। उस समय मैनेजमेंट तथा यूनियनें, प्रथम द्वारा मज़दूरों की मांगों पर विचार करने का "वादा" कर के तथा दूसरे द्वार उन वादों पर "भरोसा'' करने का स्वांग रच कर, मजदूरो के गुस्से पर ढक्कन रखने में सफल हो गये।
एक वर्ष से अधिक समय के पश्चात, नौकरियां जाने का खतरा अधिक बढ गया था। इस अवधि में शासकों के वादों का कोई नतीजा नहीं निकला। उन्हें आगे भी कई महीनों की पगार का भुगतान नहीं किया गया। उनका पिछला वेतन संचित होता गया। आर्थिक स्थिति और ज्यादा खराब हो गयी तथा "खाद्यान मुद्रास्फीति" 16 प्रतिशत से अधिक पर टिकी थी। इससे ट्रांसपोर्ट मजदूरों में गुस्से और लडाकूपन की एक और लहर पैदा हुयी। वर्ष 2009 के मध्य में जेकेऐसआरटीसी के मजदूरों द्वारा कई सारी लघु हडतालें और प्रदर्शन आयोजित किये गये। किन्तु जे के ऐस आर टी सी के मजदूर अपने आन्दोलन को एकजुट करने तथा उसे और अधिक विस्तार देने में असफल रहे। वे राज्य कर्मचारियों के अन्य भागों से अलग थलग पड गये। युनियनें फिर एक बार, निरर्थक और नाटकीय कर्मकान्डों के माध्यम से मजदुरों के निश्चय को कम करने तथा उनके गुस्से को ढीला करने में सफल हो गयीं। उदाहरण के तौर पर, हडतालों में लडाकूपन पैदा करने के स्थान पर उन्होंने मजदूरों को अपने बच्चों के हाथों में "हमारे पापा को वेतन दो'' की तख्तियां दे कर प्रदर्शन में शामिल होने को कहा। यह निम्न पूंजीवादी भावना को उद्वेलित तो कर सकती है किन्तु शासकों पर इसका कोई प्रभाव पडने वाला नहीं। और न कुछ हुआ भी। यूनियनों ने मजदूरों की द्रढता को कमजोर करने तथा हडतालों के विस्तृत रूप में फैलने से रोकने के लिये इसी प्रकार के कुछ और अन्य निरर्थक आन्दोलनों का प्रयोग किया।
किन्तु जे के ऐस आर टी सी के मजदूर ही शासकों के हमलों का विरोध करने वाले एकमात्र नहीं थे। यधपि, ऐस आर टी सी के मजदूरों के आन्दोलन में हमलों के खिलाफ लडने की अधिक क्षमता प्रदर्शित हुयी किन्तु राज्य कर्मचारियों के अन्य भाग भी उन्हीं हमलों के शिकार थे। सभी राज्य कर्मचारियों का वेतन पिछले कई साल से रुका पडा था जिसका भुगतान सरकार नहीं कर रही थी। ट्रासंपोर्ट कर्मचारियों के बार बार के आन्दोलनों ने उनके लिये एक प्रेरणा का और एकजूट होने के केन्द्र का कार्य किया।
पांच लाख सरकारी कर्मचारी हडताल पर
जम्मू और कश्मीर में सरकारी कर्मचारी जनवरी 2010 से ही अपने संधर्ष को अपनी सांझी मांगों के इर्द गिर्द एकजूट करने में लगे थे - पिछले वेतन का भुगतान, बेहतर पगार और अस्थायी तथा तदर्थ राज्य कर्मियों को नियमित किया जाना। इन संधर्षों में तदर्थ तथा अस्थायी कर्मचारियों के साथ शिक्षक भी शामिल हो गये। हालांकि यूनियनें नियंत्रण बनाये रखने में सक्षम रहीं किन्तु यह कर्मचारियों की लामबन्दी और उनकी लड़ने के प्रति द्रढता की अभिव्यक्ति ही थी जिसके कारण यूनियनों को भी जनबरी 2010 में एक या दो दिन की लगातार हडतालों का आव्हान करना पडा। इन हडतालों में राज्य के साढे चार लाख कर्मचारी शामिल हुये।
यूनियनों ने यद्यपि जो कुछ भी वे कर सकती थीं किया, किन्तु वे संधर्ष के लडाकू जज्वे को रोकने में वास्तव में असफल रहीं। यह उस समय स्पष्ट हो गया जब राज्य के सरकारी कर्मचारियों ने हडताल की कार्यवाही पर जोर देना शुरू किया। साढे चार लाख कर्मचारियों की हडताल 3 अप्रैल 2010 को शुरू हुई। कर्मचारियों की मांगें वही थीं - बेहतर वेतन, पिछले रुके वेतन, जिसकी रकम अब 4300 करोड के लगभग हो गयी थी, का भुगतान और तदर्थ तथा अस्थायी कर्मचारियों को नियमित किया जाना। 3 अप्रैल से सार्वजनिक परिवहन ठप कर दिया गया, राज्य द्वारा संचालित स्कूलों में ताले जड दिये गये और सभी सरकारी दफ्तर बंद कर दिये गये। यहां तक कि जिलों के सरकारी दफ्तर बंद थे, समुचा प्रशासन पंगु हो गया।
राज्य का असली चेहरा नंगा
अपने सभी कर्मचारियों की द्रढ हडताली कार्यवाही के मुकाबले, राज्य ने अपना असली चेहरा, दमन का धिनौना चेहरा दिखाना शुरू कर दिया।
राज्य ने पहले कर्मचारियों के सबसे असुरक्षित भागों को निशाना बनाया। सरकार ने तदर्थ तथा ठेके पर रखे कर्मचारियों को चेतावनी दी कि यदि वे हडताल जारी रखते हैं तो वे नियमित किये जाने के अधिकार से वंचित कर दिये जायेंगे। दैनिक वेतन भोगी हडताल का हिस्सा बनते हैं तो उनको भी यही परिणाम भुगतना होगा। किन्तु धमकियां हडताल को तोडने में कारगर नहीं हुयीं।
दमन को और तेज़ करते हुए, जम्मू और कश्मीर सरकार ने हडताली राज्य कर्मचारियों पर आवश्यक सेवा अनुरक्षण अधिनियम ( ऐस्मा ) थोप दिया। राज्य के वित्त मंत्री ने कहा कि कर्मचारियों ने हमें ऐस्मा लागू करने को मजबूर किया है और हडतालियों को एक वर्ष की जेल भुगतनी पड सकती है। एक और मंत्री ने कर्मचारियों पर समाज को "फिरौती" का निशाना बनाने का दोषी बताया।
किन्तु हडताली कर्मचारियों पर इस क्रूर कानून को थोपने और हडताल को तोडने के लिये धमकियों तथा ब्लैकमेलिंग का प्रयोग करने वाली जम्मू और कश्मीर सरकार पहली और एकमात्र सरकार नहीं है। पिछले कुछ महीनों में केन्द्रीय तथा विभन्न राज्य सरकारों ने देश के विभिन्न भागों में मजदूर वर्ग के विभिन्न खंडों द्वारा की गयी हडताल की कार्यवाहियों के खिलाफ दमन की वही उत्सुकता दिखाई है। हडतालों का दमन करने में वे सभी एक समान क्रूर रहे हैं। यह पूंजीपतियों में मजदूर वर्ग और उसके संघर्ष के डर को दिखलाता है।
जम्मू और कश्मीर सरकार ऐस्मा लागू करके शान्त नहीं बैठी। उसने मजदूरों में फूट डालने का काम जारी रखा तथा हडताली कर्मचारियों का दमन और तेज़ कर दिया। हडताली कर्मचारियों के जलूस और प्रदर्शन पुलिस द्वारा तितर बितर किये गये। 10 अप्रैल को 13 हडताली कर्मचारी गिरफ्तार कर लिये गये। जब कर्मचारियों ने अपने साथियों की गिरफ्तारी के विरोध में श्रीनगर के सिटी सैन्टर की ओर मार्च करने की कोशिश की तो पुलिस ने लाठी चार्ज कर मार्च को तितर बितर करने का प्रयास किया। फलस्वरूप, हडताली कर्मचारियों और पुलिस के बीच टकराव हो गया। इसके वाबजूद, बहुत से कर्मचारी लाल चैक तक पहुचने में सफल हो गये जहां और अधिक कर्मचारी गिरफ्तार कर लिये गये।
श्रीनगर का लाल चैक जो अलगाववादियों एवं भारतीय राज्य के बीच अनेकों बार खूनी मुठभेडों के स्थल के रूप में प्रसिद्ध है वहां हडताली कर्मचारियों और पुलिस के बीच मुठभेड निसन्देह एक असाधाराण घटना थी। राज्य कर्मचारियों का यह प्रतिरोधी संघर्ष इस बात की घोषणा थी कि पूंजीपतियों के विभिन्न गिरोहों के बीच जारी गैंग बार के बीच मजदूर अपने वर्ग चरित्र को सुरक्षित रखने ओर अपने वर्ग हितो के लिये लडने में सक्षम है।
यूनियनों ने कर्मचारियों को बांटा और हतोत्साहित किया
कर्मचारी जब सरकारी दमन का प्रतिरोध करने के लिये अपनी हडताल को मजबूत करने की कोशिश कर रहे थे तब यूनियनें कर्मचारियों में फूट डालने में व्यस्त थीं। यह उन्होंने हडताल को सहयोग करने के नाम पर किया। राज्य कर्मचारियों के विभिन्न भागों की ढेर सारी यूनियनें हैं - सैक्रैटैरिएट स्टाफ यूनियन, जेसीसी, ऐम्प्लाईज जाँइन्ट ऐक्शन कमेटी ( ईजेएसी ), ट्रांसपोर्ट वर्कर्स यूनियन आदि। जबकि कर्मचारी पहले ही कई दिनों से हडताल पर थे, इन यूनियनों में से प्रत्येक ने अपनी अलग अलग कार्य योजना प्रस्तुत करनी शुरु कर दी। इस प्रकार उन्होंने कर्मचारियों को बांटने और संघर्ष के जज्वे को कमजोर करने का काम किया। जेसीसी ने सात दिन और आगे हडताल जारी रखने का ऐलान किया। दूसरों ने भी और अन्य कार्यक्रम रखे। इन सभी विभाजनकारी कोशिशों और राज्य के दमन के बीच कर्मचारी अपनी हडताल को 12 दिन तक जारी रखने में सफल रहे।
बारहवें दिन के अंत में, उन यूनियनों में से एक, ईजेएसी, ने मुख्यमंत्री के साथ हुई वार्ता और सरकार द्वारा किये गये वादों पर संतोष व्यक्त किया और कर्मचारियों को काम पर वापस जाने के लिये निर्देशित किया। इस प्रकार 12 दिन की हडताल के बाद भी कर्मचारी एक बार फिर सिर्फ शासकों के थोथे वादों के साथ बिना कुछ भौतिक लाभ हासिल किये खाली हाथ काम पर वापस लौटे।
जम्मू और कश्मीर के राज्य कर्मियों की हडताल का महत्व
जम्मू और कश्मीर के 4,50,000 राज्य कर्मियों की अप्रैल हडताल, राज्य में कई सालों में हुये मजदूरों के संधर्षों में एक प्रमुख संघर्ष था। मजदूरों में फैलते विश्व व्यापी जुझारूपन के बीच यह कई सालों से राज्य कर्मचारियों के विभिन्न हिस्सों में जमा होते गुस्से का प्रतिफल था। ट्रांसपोर्ट वर्करों, बैंक कर्मचारियों तथा अन्य भागों के मजदूरों द्वारा लगातार की जाने वाली हडतालों और संघर्षों ने इसका मार्ग प्रशस्त किया। भारतीय राज्य और अलगाववादियों के एकाधिकारवादी और हिंसक सिद्धान्तों के मुकाबले में यह हडताल मजदूर वर्ग के वर्गीय अस्तित्व एवं वर्गीय एकता की सशक्त अभिव्यक्ति थी। इसकी कुछ प्रमुख कमजोरियों के वाबजूद इस हडताल ने पूंजीवाद द्वारा प्रस्तुत परिप्रेक्ष्य के विपरीत एक अलग ही परिप्रेक्ष्य प्रदर्शित किया। जहां कश्मीर में पूंजीवाद के सभी धडे शैतानी हिन्सा, हिन्सक बंटवारा, रोजाना की मारकाट, आतंक और बर्बरता का परिप्रेक्ष्य प्रस्तुत कर रहे हैं; वहीं मजदूर वर्ग, न्यूनत्म में, विभिन्न धर्मों और क्षेत्रों के मजदूरों की एकजूट होने और मिल कर, कंधे से कंधा मिला कर, अपने साझो हितों के लिए संघर्ष करने की क्षमता प्रदर्शित करने में सक्षम रहा।
हडताल को लगे आघात यह सबक सिखाते हैं कि भविष्य में जम्मू और कश्मीर के राज्य कर्मचारी जब कभी हडताल पर जायें तब उन्हें इस समय की भांति, अलगाववादी और दमनकारी एकाधिकारवादी दोनों सिद्धान्तों को खारिज करना होगा। इसके अतिरिक्त उन्हें यूनियनों की तिकडमबाजियों पर नजर रखनी होगी तथा उन्हें अहसास करना होगा कि यूनियनें उनकी दोस्त नहीं हैं। कर्मचारियों को अपना संघर्ष अपने हाथों में लेना होगा और उसका स्वयं संचालन करना होगा। एक प्रभावकारी संधर्ष संचालित करने का यही एकमात्र रास्ता है।
किन्तु गरीबी के, आतंक के, हिन्सा और भय के जीवन से मुक्ति के लिये उन्हें अपने संधर्ष को पूंजीवाद और राष्ट्रीय ढांचे के विध्वंस, तथा कम्युनिज्म एवं मानवीय बिरादरी की स्थापना के संधर्ष तौर पर विकसित करना होगा।
अकबर 10 मई 2010
“एक सहमति, फिर भी विरोध”; [1] “मौसम वार्ताओं में इज्ज़त बचाने के लिए आखिरी घड़ी में अफरातफरी”; [2] “ओबामा का मौसम संबन्धी समझौता टेस्ट में फेल” [3].. मीडिया का फैसला एकमत था : ‘ऐतिहासिक’ शिखर वार्ता असफलता में खत्म हुई थी।
हफ्तों पहले से ही मीडिया और राजनीतिबाज बड़ी-बड़ी बातें कर रहे थे कि मनुष्यता और इस ग्रह का भाग्य अब शिखर सम्मेलन के हाथों में है। सम्मेलन के पहले दिन फ्रांस, रूस, चीन, भारत और ब्रिटेन सहित दुनिया के 56 देशों के अखबारों ने एक साँझा सम्पादकीय निकाला जिसकी हेडलाईन थी – ‘‘वर्तमान पीढ़ी पर इतिहास के फैसले पर मुहर लगने में बस चौदह दिन बाकी’’। सम्पादकीय कहता है ‘‘कोपेनहेगन में इकट्ठा हुए 192 देशों के प्रतिनिधियों से हमारा अनुरोध कि वे हिचकें नहीं, विवाद में नहीं पड़ें, एक दूसरे पर दोष नहीं लगाएँ बल्कि राजनीति की महान अधुनिक असफलताओं से इस अवसर को छीन लें। यह न तो अमीर और गरीब विश्व के बीच की लड़ाई है और न ही पूरब और पश्चिम का झगड़ा है।’’ इनकी ये धर्मपरायण भावनाएँ भले ही किसी काम न आई हों, लेकिन सम्पादकीय में कुछ सच मौजूद है : ‘‘विज्ञान को समझना इतना आसान नहीं लेकिन तथ्य स्पष्ट हैं। पृथ्वी का तापमान दो डिग्री सी से ज्यादा न बढ़ने पाये इसके लिए दुनिया को कदम उठाने पड़ेंगे। एक लक्ष्य जिसकी पूर्ति के लिए जरुरी है कि ग्लोबल एमिशन उच्चतम सीमा पर पहुँच कर अगले पांच से दस वर्षों में गिरने लगें। पृथ्वी के तापमान में तीन से चार डिग्री सेंटीग्रेड की बढ़ोतरी, यह अल्पतम बढ़ोतरी है जिसकी आशा हम निष्क्रियता की स्थिति में कर सकते हैं, महाद्वीपों को सुखा डालेगी, हरी-भरी कृषि भूमि रेगिस्तान बन जाएगी। पृथ्वी पर वास करने वाली आधे से ज्यादा प्रजातियाँ हमेशा-हमेशा के लिए लुप्त हो जाएँगी, लाखों की संख्या में लोग विस्थापित हो जाएँगे और बहुत सारे देश समुद्र में डूब जाएँगे।’’ [4]
पूँजीवाद पह्ले ही पृथ्वी का विनाश कर रहा है
असल में, परिस्थिति इससे ज्यादा भयानक और गंभीर है। जलवायु-परिवर्तन [5] के कारण दो करोड साठ लाख लोग पहले ही विस्थापित हो चुके हैं। पृथ्वी के तापमान में एक डिग्री सेंटीग्रेड की बढ़ोतरी, जिसके लिए जरुरी है वातावरण में से कार्बन डाईआक्साइड (सीओ2) को खत्म करना और जिसे नामुमकिन माना जाता है, का परिणाम होगा:
तलहटी में बसे बहुत से द्वीपों तथा देशों का अस्तित्व खतरे में पड जाएगा। दो डिग्री सेंटीग्रेड की वृद्धि, जो एक स्वीकृत लक्ष्य बन चुकी है, उपग्रह के लाखों वाशिन्दों के लिए विनाशकारी सिद्ध होगी : ‘‘अमेजन रेगिस्तान और घास के मैदान में बदल जाएगा; वातारण में कार्बन डाईआक्साइड (सीओ2) के स्तर में वृद्धि दुनिया के महासागरों को इतना अम्लीय बना देगी कि महासागर में बची-खुची मूँगा चट्टानों के साथ-साथ हजारों किस्म की अन्य समुद्री प्रजातियों का जीवन संकट में पड़ जाएगा। पश्चिमी अंटार्कटिक में बिछी बर्फ की मोटी परत भराभरा कर डह जाएगी, आगामी सौ साल में ग्रीनलैण्ड में बिछी बर्फ की चादर पिघल जाने से महासागर के जल स्तर में सात मीटर से भी ज्यादा की बढ़ोतरी तय है। दुनिया के एक तिहाई जीवों का नामोनिशान हमेशा-हमेशा के लिए मिट जाएगा”।[6]
महासागरों के अम्लीकरण पर किये गये शोध के नतीजों को सम्मलेन में सार्वजनिक किया गया, वो दिखाते हैं कि औद्योगिक क्रांति से अब तक महासगारों में ऐसिडिटी, जो तब होती है जब सागरों द्वारा जज़्ब कार्बन डाईआक्साड (सीओ2) बढ़ जाती है, का स्तर तीस प्रतिशत तक बढ़ चुका है। जलवायु परिवर्तन के इस पक्ष के, जिसका अभी तक बहुत कम अध्ययन हुआ है, गहन नतीजे होंगे। “महासागर का अम्लीकरण अविकसित मछली तथा शैल मछलियों से, जो बेहद नाजुक और असुरक्षित होती हैं, शुरु समुद्री खाद्य भण्डारों को प्रभावित करती प्रतिक्रियाओं की एक श्रृंखला ट्रिगर कर सकता है। अरबों-खरबों डालर के मछली उद्योग को यह प्रभावित करेगा और दुनिया की सबसे गरीब आबादी के लिए भोजन का संकट पैदा करेगा। महासागरों के अधिकतर क्षेत्र मूँगा चट्टानों के रहने लायक नहीं रहेंगे और इस प्रकार खाद्यय सुरक्षा, पर्यटन, समुद्रीतटों की सुरक्षा तथा जैविक विविध्ता खतरे में पड़ जाएगी”।[7] फिर, सागरों के अम्लीकरण के स्तर को कम करने का इसके सिवा कोई रास्ता नहीं कि प्राक्रतिक प्रक्रियाओं को अपना काम करने दिया जाए, जो दसियों हजार साल ले लेंगी।
दुनिया के लिए खतरा बने पूँजीवाद के नियम
मानवीय गतिविधि ने हमेशा ही पर्यावरण पर प्रभाव डाला है। लेकिन अपने आरंभ से ही पूँजीवाद ने प्राक्रतिक जगत के प्रति ऐसी अवमानना दिखाई है जो उसके कारखानों, खदानों और खेतों में खून-पसीना बहाने वाले मनुष्यों के प्रति उसके तिरस्कार के समान है। उन्नीसवीं सदी में ब्रिटेन के औद्योगिक शहरों और कस्बों ने देश की आबादी, खासकर मजदूर वर्ग के स्वास्थ्य को अनदेखा करते हुए पर्यावरण में भयंकर गंदगी और प्रदूषण उड़ेला। हालिया अतीत में स्तालिनवाद ने रूस के बड़े-बड़े भूभागों को बंजर बना डाला जबकि आज चीन में जलधाराओं और भूमि के संदूषण को फिर दोहराया जा रहा। लेकिन इस बार दूषणकारी तत्व अतीत की अपेक्षा ज्यादा विषैले हैं।
यह परिस्थिति शासक वर्ग के इस या उस सदस्य की दुर्भावना या अज्ञान से नहीं बल्कि पैदा हुई है पूँजीवाद के मूलभूत नियमों से जिनका सार हमने अपने ‘इंटरनेशल रिव्यू’ के हाल के एक अंक मे प्रस्तुत किया है:
मुनाफा और होड़ पूँजीवाद की चालक शक्तियाँ हैं जिसके दुष्परिणामों ने दुनिया के लिए खतरा पैदा कर दिया है। इसके विपरीत शासक वर्ग बताता है कि पूँजीवाद का आधार मनुष्य की जरूरतों को पूरा करना है। वे तर्क देते हैं कि पूँजीवाद जीवन की जरूरतों और विलासिताओं के लिए ‘उपभोक्ता माँग’ पर ध्यान देता है और वे करोडों लोगों द्वारा आय तथा जीवन स्तर में हासिल बेहतरी की ओर इशारा करते है। यह सच है कि पूँजीवाद ने उत्पादन के ऐसे साधनों को विकसित कर लिया है जिनकी अतीत में कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। बहुतों की जिंदगी में वास्तव में सुधार आया है खासकर विकसित देशों में। लेकिन यह तभी किया गया जब यह पूँजीवाद के असली मकसद - मुनाफा वसूली – के साथ मेल खाता था। पूँजीवाद एक ऐसी आर्थिक प्रणाली है जिसके लिए जरुरी है निरंतर विस्तार पाते जाना, अन्यथा यह ढह जाएगी : व्यवसायों के लिए फलना फूलना जरूरी है अन्यथा वे पिट जाएँगे और उनकी लाश उनके प्रतिद्वंद्वी नोंच डालेंगे; राष्ट्रीय राज्यों के लिए जरुरी है अपने हितों की हिफज़त करना अन्यथा वे अपने प्रतियोगीयोँ के मातहत बना दिए जाएँगे। चूँकि ऐसा शासक वर्ग को कभी बर्दाश्त नहीं होगा, अपनी अर्थव्यस्था अपने समाज और अपनी हैसियत को यथावत रखने के लिए वह किसी भी तरह की कुर्बानी दे सकता है। तभी तो खाद्यान्नों से पटे संसार में लाखों भूखे हैं, क्यों निश्स्त्रीकरण समझौतों और मानवाधिकारों की घोषणाओं के बावजूद चहुँ ओर कभी न खत्म होने वाले युद्ध जारी है; क्यों अर्थव्यवस्था को सहारा देने के लिए हाल ही में खरबों झौंक डाले हैं, जबकि लाखों लोग आज भी समुचित स्वास्थ्य और शिक्षा के अभाव में जीवन गुजार रहे हैं। तभी तो जलवायु परिवर्तन के ज़बर्दस्त साक्ष्यों के बावजूद बुर्जआजी इस ग्रह को सुरक्षित रख पाने में नाकामयाब है।
राष्ट्रीय होड़ के अखाड़े हैं अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन
पूँजीवाद के चालक नियम समाज के हर पहलू को प्रभावित करते हैं और अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन इससे अछूते नहीं है। ऐसे सम्मेलन, भले ही उनका घोषित उद्देश्य कुछ भी क्यों न हो और भले ही सामान्य हित दांव पर लगे हों, प्रतियोगी राष्ट्रों के बीच बढ़त हासिल करने के लिए धींगामुश्ती से ज्यादा कुछ नहीं होते। भव्य अनुष्ठान, मानवाध्किारों, गरीबी उन्मूलन तथा इस उपग्रह की सुरक्षा संबंधी बड़े-बड़े भाषण हमें धोखा देने के लिए लगाये गये मुखौटे भर हैं। इससे पहले रियो डि जेनेरिओ और क्योटो के समान, कोपेनहेगन सम्मेलन का लब्बोलुबाव भी यही है।
कोपेनहेगन में आर्थिक और साम्राज्यवादी दोनों हितों में टकराहट हुई और चूँकि जुडे होने के बावजूद ये एकरूप नहीं हैं, इसने परिस्थिति को और पेचीदा बना दिया जिसमे बदलते गठजोड़ तथा बदलते दृष्टिकोण देखने में आये।
सम्मेलन के दौरान और उसके बाद भी विकसित और विकासशील देशों के बीच तथाकथित टकराव की बात को बहुत तूल दिया गया। यह साफ है कि विकसित अर्थव्वस्थाओं के अपने कुछ सामान्य हित हैं, उसी तरह जैसे कॉफी या लोह अयस्क जैसी बुनियादी वस्तुओं की आपूर्ति करने पर निर्भर देशों के सामान्य हित हैं, पर इनकी एकता दीर्घजीवी नहीं हो सकती। यूरोपियन यूनियन इस सॉंझा समझौते के साथ इस सम्मेलन में आया है कि ग्रीन हाऊस गैसों के एमिशन में सन 2020 तक 20 प्रतिशत की कटौती की जाए और वार्ता अगर सही दिशा में हुई तो सुझाव था कि इसे 30 प्रतिशत तक ले जाया जाए। इस समूह में बड़े और छोटे दोनों ही औद्योगिक क्षेत्र वाली अर्थव्वस्थाऍं मौजूद हैं। बहुत सिकुड चुके औद्योगिक क्षेत्र वाला ब्रिटेन जरमनी, जिसका औद्योगिक क्षेत्र अभी अपेक्षतया व्यापक है, के मुकाबले अधिक महत्वकांक्षी लक्ष्यों को आगे बढ़ाने में अग्रणी है। वहीं भूतपूर्व पूर्वी ब्लॉक के पोलैंड सरीखे देश बीस प्रतिशत से अधिक की कटौती का विरोध करते हैं। सरकारी आँकड़ों के मुताबिक ब्रिटेन ने अपने लक्ष्य की पूर्ति भर ही नही की है बल्कि उसने महत्वपूण ढंग से सऩ 1990 के मुकाबले ग्रीन हाऊस गैसों के एमिशन को क्योटो के अपने साढ़े बारह प्रतिशत के लक्ष्य को पार किया है। सम्मेलन में गॉर्डन ब्राउन उच्च नैतिक धरातल अख्तियार करने तथा दुनिया का अगुवा नेता का रोल अदा करने मे उतावला नज़र आया। असल में ब्रिटेन का यह प्रदर्शन उसकी अर्थ्व्यवस्था में आये बदलावों का नतीजा है और इस तथ्य को प्रकट करता है कि एमिशन की गणना का आधार उपभोग की बजाय उत्पादन है : ‘‘गुजरे तीस वर्षों में ब्रिटेन की अर्थव्यस्था में आए संरचनागत बदलावों का परिणाम है महत्वपूर्ण अनौद्योगिकीकरण। परिणामतः, ब्रिटेन की अर्थव्वस्था की कार्बन तीव्रता में कमी आई है और ब्रिटेन बड़ी तादाद में उन उत्पादों का आयात करता है जिनका निर्माण अपेक्षाकृत कार्बन केंद्रित है। इसलिए ब्रिटेन का उपभोग अप्रत्यक्ष रूप से इन आयातों से जुडे एमिशन के लिए जिम्मेदार है। यदि आयातों और निर्यातों के संतुलन का हिसाब लगाए जाए, तो ब्रिटेन के घोषित एमिशन अप्रत्याशित रूप से अलग होंगे।’’[9] वास्तव में, वे 1990 के बाद से उन्नीस प्रतिशत की वृद्धि दिखाएँगे।[10] संक्षेप में ब्रिटिश पूँजीवाद ने अपने प्रदूषण का उसी तरह दूसरों को ठेका दे दिया है जैसे अपने उत्पादन का। साम्राज्यवादी स्तर पर, कर्ज़ संकट के वक्त की तरह इस सम्मेलन में भी ब्राउन की हताश गतिविधि का कारण है साम्राज्यवादी ताकत के रुप में ब्रिटेन के निरन्तर ह्रास की भरपाई की कोशिश।
अमरीका भी अनौद्योगिकीकरण हो रहा है और वह उन देशों में अपने उत्पादन का पुनर्स्थापन कर रहा है जहाँ खर्चे कम हैं। लेकिन एक विशाल औद्योगिक क्षेत्र अभी उसके पास है। इस क्षेत्र द्वारा भोगी प्रतियोगिता की गहनता का ही नतीजा है कि वह हर उस चीज़ का विरोध करने में सक्रिय है जो उसे लगता है उसे अपने प्रतिद्वंद्धियों के मुकाबले कमज़ोर कर देगी। यह एक वजह है कि क्यों अमरीका हमेशा ही व्यापारिक विवादों में उलझा रहता है और क्यों एक नया विश्व व्यापार समझौता करने के प्रयास बहुधा असफल रहे हैं तथा क्यों उसने क्योटो संधि पर हस्ताक्षर करने से इन्कार कर दिया। अपने प्रशासन के अंतिम वर्षो में बुश को मजबूरीवश स्वीकार करना पड़ा कि जलवायु परिवर्तन एक हकीकत है लेकिन अमरीका ने अपने लक्ष्य पेश किये और ज़ोर दिया कि चीन सरीखे देश भी कटौती करें। ओबामा के राज में लोकलुभावनी बातों के सिवा कुछ भी नहीं बदला है। अमरीका आज भी महत्वपूर्ण कटौतियों का तथा बाध्यकारी समझौतों का विरोध करता है, और आर्थिक व साम्राज्यवादी कारणों से वह ऐसा कुछ भी करने के सख्त खिलाफ है जिससे चीन को कोई लाभ हो।
‘विकासशील’ माने जाने वाले 132 देश सम्मेलन मे जी-77 के रुप मे एकजुट हुए। अपेक्षतया: छोटी अर्थव्यवस्थाओं और थोड़े उद्योगों वाले इन देशों का आम लक्ष्य था अधिकतम संभव वित्तीय सहायता के लिये ज़ोर लगाना। 400 बिलियन डॉलर प्रति वर्ष की वित्तीय सहायता की मांग उन्होंने सम्मेलन में रखी जबकि कुछ ने मांग रखी कि तापमान में अधिकतर वृद्धि 1.5 डिग्री सेंटीग्रेड से अधिक न हो। उन्होंने क्योटो संधि को बरकरार रखने की कोशिश की जोकि हस्ताक्षरकर्ता विकसित देशों से कार्बन एमीशन में कटौती की मांग करती है और जिसके बारे में बहुत से विकसित देशों की आशा है कि वह एक नये कोपेनहेगन समझौते में गुम हो जाएगी।
अब, जब वह दुनिया में सबसे अधिक ग्रीन हाउस गैसें पैदा करनेवाला देश बन गया, तो चीन उसके एमीशन को लेकर बहुत सारी ‘चिंताओं’ का निशाना बन गया है। उसकी अर्थव्यवस्था के तेज विकास ने भारी तादाद में धन उसकी ओर खींचा है और उसे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर एक बृहद् भूमिका अपनाने के सक्षम बनाय है। उसने बहुत से विकासशील देशों के साथ महत्वपूर्ण आर्थिक सम्पर्क कायम कर लिये हैं। वह ऐसी प्राथमिक वस्तुओं के उत्पादन का विकास करने में उनकी सहायता कर रहा है जो चीन को सप्लाई होती हैं तथा उसके उद्योग को जिंदा रखती हैं। दुनिया भर में अपने साम्राज्यवादी दबदबे के विस्तार के उसके चुपचाप परन्तु द़ृढ़ निश्चय प्रयासों की ज़ड मे उसकी यह बढती आर्थिक शक्ति ही है। अपने एमिशन पर किसी भी तरह की महत्वपूर्ण बंदिश स्वीकार करने का अर्थ है अपनी आर्थिक वृद्धि तथा राजनीतिक हैसियत को सीमित करने देना। इसलिए जहां उसने अपने उद्योगों की कार्बन तीव्रता (प्रति उत्पादन इकाई पर खर्च कार्बन की मात्रा) को कम करने का सुझाव पेश किया है, वहीं उसने किसी भी कटौती का तथा स्वतंत्र सत्यापन की अमेरिकी मांग का पुरजोर विरोध किया है। सम्मेलन में वह उसने सवयं को जी-77 से जोड़ा। इसके साथ ही वह बेसिक के रुप मे ज्ञात ब्राजील, दक्षिण अफ्रीका तथा भारत के उस ग्रुप का भी हिस्सा है जो सम्पन्न देशों नीतियों की मुखालफत करता है। इस ग्रुप के अन्दर, ब्राजील जैव ईंधन के प्रमुख उत्पादक के नाते अपना बचाव करता है बावजूद इस तथ्य के कि जैव ईंधन आवश्यक खाद्यय उत्पादन से उत्पादन को मोडता है।
सम्मेलन की छल-छदम भरी तिकडमें
सम्मेलन में प्रतिभागियों की तिकडमें, जिसमें शामिल थी भड़काऊ बयानबाजी और टकराव, उल्लेखनीय हैं। काम में लाया गया एक दांव था बडे पैमाने पर, और बहुत छिपा कर भी नहीं, दस्तावेजों का लीक हो जाना। जैसा कि एक पत्रकार ने टिप्पणी की: “खबरें लीक होना रोजमर्रा की बात थी जहां तक कि अंत मे यह एक बाढ़ बन गया (………..)। गोपनीय दस्तावेजों को जानबूझकर फोटो कापियर पर छोड़ दिया जाता था, अन्य पत्रकारों के हाथों में ठूंस दिये जाते थे अथवा बेव पर डाल दिये जाते थे। लोग उनके फोटोग्राफ लेकर उन्हें लगातार चारों ओर बांट रहे थे”।[11]
कांफ्रेंसों के तीसरे दिन पह्ला संकट तब फूटा जब तथाकथित ‘डेनिस पेपरज़’ सामने आए। शिखर सम्मेलन से पहले यह ‘सर्कल आफ कमिटमेंट’ के रुप मे ज्ञात एक गुप्त ग्रुप द्वारा लिखा गया था जिसमें अमेरिका तथा शिखर सम्मेलन का मेज़बान डेनमार्क भी शामिल थे। इस परचे ने, जिसकी कोइ औपचारिक हैसियत नहीं थी चूँकि इसका मसविदा यू एन के ढांचे के बाहर तैयार किया गया था, क्योटो संधि का तथा हस्ताक्षरकर्ताओं द्वारा एमिशन कटौती की उसकी कानूनी जरुरत का खात्मा कर दिया होता। इसने दो डिग्री सेंटीग्रेड की वृद्धि को सवीकार्य लक्ष्य के रुप में थोप दिया होता तथा फंडिंग व्यवस्थाओं को बदल दिया होता। मंशा थी इसे सम्मेलन पर उसकी आखिरी घडियों में, प्रत्याशित गतिरोध खडा होने पर, थोपना। जी77 देशों की तरफ से इसकी जबरदस्त मुखालफत हुई और उन्होंने विकसित देशों पर सम्मेलन का अपहरण करने तथा आपसी सहमतियां को उस पर थोपना का प्रयास करने का आरोप लगाया।
इसके बाद अनेक विकासशील देशों ने प्रस्ताव रखा कि वैश्विक तापमान की वृद्धि को 1.5 डिग्री सेंटीग्रेड से नीचे रखा जाए चूँकि इससे अधिक कोई भी वृद्धि टुवालु जैसे छोटे-छोटे द्वीपीय राज्यों का विनाश साबित होगी। प्रस्ताव ने कानूनन बाध्य कटौतियों पर सहमति की मांग की। इसका फौरन दूसरे देशों ने विरोध किया जिनमें चीन, सउदी अरब और भारत शामिल थे और इससे जी77 ग्रुप विभाजित हो गया। इस विवाद के कारण वार्ता का कुछ भाग कई घंटों तक स्थगित रहा।
आगामी दिनों में संयुक्त राष्ट्र संघ का एक संशोंधित टैक्सट प्रस्तुत किया गया और यह विवाद जारी रहा, पहले तो इस बात पर कि क्योटो समझौते को क्या एक अलग राह के रुप में रखा जाए या इसे नये समझौते में समाविष्ट कर लिया जाए, और दूसरा विकासशील देशों की सहायता के लिए फंडिंग के सवाल पर। फास्ट ट्रेक फंडिग और लम्बी अवधि की फंडिग के कई प्रस्तव सामने आए। ब्रिटेन सहित कई देशों ने जलवायु परिवर्तन संबंधी उपायों पर खर्च के लिए वित्तीय सौदों पर टैक्स (द टोबिन टैक्स) लगाने की पुरनी मांग दोहराई। संयुक्त राष्ट्र संघ की टैक्स्ट समझौते का एक प्रयास नज़र आती है जिसके मुताबिक विकसित देश तापमान वृद्धि को 2 डिग्री सेंटीग्रेड के नीचे रखने के लिए एमिशन में 25-45 प्रतिशत की कटौती करते हैं। विकासशील देशों के लिए भी एमिशन में 15-30 प्रतिशत की कटौती लाजिमी है, जबकि क्योटो समझौता अपनी जगह प्रभावी रहेगा। असल में विकसित देशों द्वारा प्रस्तावित कटौतियाँ निचले प्रतिशतों तक भी नही पंहुचती, जबकि समझौते की खामियाँ एमिशन को 10 प्रतिशत तक बढ़ने देंगी।
जैसे ही बातचीत दूसरे सप्ताह में पहुँची और सरकारों के अध्यक्ष अनुपलबध समझौते पर हस्ताक्षर करने पहुँचने वाले थे, टकराव उग्रतम हो गये और कुछ अफ्रीकी देशों ने तब तक उपस्थित न होने की धमकी दे डाली जब तक कि समझौते को बदल नहीं दिया जाता। क्योटो संधि के भविष्य पर उठे विवाद के चलते वार्ताओं का एक भाग तब तक फिर स्थगित रहा जब तक अन्तत: यह फैसला नहीं हो गया कि इसे जारी रखा जाएगा।
निगरानी के सवाल पर विवाद तब बढ़ गया जब अमरीका द्वारा रखी बाहरी जाँच की माँग का भारत और चीन ने विरोध किया। सप्ताह के मध्य तक अव्यवस्थाएँ किसी से छिपी नहीं थीं : सम्मेलन के सभापति ने इस्तीफा दे दिया और उसकी जगह डेनमार्क के प्रधानमंत्री को बिठाना गया, एमिशन कटौतियों, फंडिग और निरीक्षण संबंधी प्रस्ताव तथा प्रति-प्रस्ताव इधर-उधर आते जाते रहे, समझौते के यूएन के मसविदे के ढे़रों संशोंधन पेश किये जाने से व्यवहारत: गतिरोध की स्थिति पैदा हो गई। ऐसी अफवाह थी कि ‘डेनिश टैक्स्ट’ का एक संशोधित रूप पेश किया जानेवाला है जबकि जी77 ने एक जवाबी टैक्स्ट तैयार किया। जी77 में एक और फूट उस वक्त सामने आई जब इथोपिया के प्रधानमंत्री तथा सम्मेलन में अफ्रीकी राष्ट्रों के समूह के अध्यक्ष, मेलेस झेनावी ने पेशकश की कि वे ऐसा सौदा स्वीकार कर लें जिसके मुताबिक गरीब देशों को 400 बिलियन डॉलर की उनकी मूल माँग के बजाय 2020 तद 100 बिलियन डालर की वित्तीय सहायता दी जाएगी। लोगों ने यह कहते हुए उन पर आक्रमण किया कि वे अफ्रीकियों की जिंदगी और उम्मीदों का सौदा कर रहे हैं। यह ‘समझौता’ विकसित देशों के कई नुमाइंदों तथा झेनावी के बीच में गहन सौदेबाजी के बाद सामने आया। उसने इन इल्जामों को तूल दिया कि झेनावी दबाव के सामने झुक गए हैं और कि जो देश अपनी अधिकतर अर्थव्यवस्थाओं के लिए दूसरों की सहायता पर निर्भर हैं वे तिज़ोरी के धारक के साथ बहस की स्थिति में नहीं हैं। अंतत: संयुक्त राष्ट्र संघ का एक लीक हुआ दस्तावेज दिखाता है कि इन वार्ताओं में प्रस्तावित एमिशन कटौतियों का नतीजा तापमान में 3 डिग्री सेंटीग्रेड की बढ़ोतरी होगा।
सम्मेलन के आखिरी दिन से पहले, 100 बिलियन डॉलर की वित्तीय सहायता के लक्ष्य को अमेरिकी मंजूरी को एक बहुत बडी उपलब्धि के रुप में पेशा किया गया जिसने सम्मेलन में ओबामा की शिरकत की राह खोल दी थी। असल में यह मंजूरी चीन द्वारा बाहरी निरीक्षण की स्वीकृति की शर्त से जुडी थी जिसे चीन पहले ही खारिज़ कर चुका था, और पैसा मुख्यता गैर-सरकारी स्रोतों से आना था। आने के बाद ओबामा ने दोहराया के चीन निरीक्षण संबंधी अमेरिकी माँग को स्वीकार करे जिसका चीन ने क्रोधपूर्ण जवाब दिया और चीन के राष्ट्रपति हू जिनताओ ने ओबामा के साथ राष्ट्राध्यक्षों की बैठक में शामिल होने से मना कर दिया। सम्मेलन का अंत एक समझौता गांठने के हताशा प्रयासों मे हुआ - बहुत सारी टैक्स्ट घूम रही थीं, ओबामा तथा चीन के प्रधानमंत्री के बीच प्राइवेट बैठकें हुईं और वार्ताकार सुबह तक और फिर आखिरी दिन भी जुटे रहे। सम्मेलन के आखिरी घंटों में अमरीका, ब्रिटेन तथा आस्ट्रेलिया के एक समूह ने डेनमार्क के राष्ट्रपति को सम्मेलन के अध्यक्ष पद से जबरी हटा दिया तत्पश्चात सबसे अधिक शक्तिशाली देशों के एक छोटे से समूह के बीच एक समझौता गडा गया। समझौते की अंतिम टैक्स्ट आधी रात से कुछ समय पहले सामने आई और उस पर तत्काल उन लोगों ने, जो उससे बाहर रखे गए थे, हमला बोल दिया, उसे अंधेरे में किया गया एक सौदा तथा संयुक्त राष्ट्र संघ के खिलाफ एक तख्ता पलट करार दिया।
सम्मेलन का प्रारंभ हुआ समझौते के दो सौ पृष्ठों के एक मसविदे से जिसमें विस्तृत तथा विविध क्षेत्रों का समावेश था। सम्मेलन का अंत हुआ भविष्य संबंधी चन्द पृष्ठों की अस्पष्ट बयानबाजी तथा वादों से जिन्हें आखिरी रात में चन्द मुख्य खिलाडियों ने संयुक्त राष्ट्र संघ के अंतरराष्ट्रीय ढांचे, जिसकी वे दुहाई देते हैं, से बाहर गाँठा गया था। सम्मेलन का अंतिम कार्य समझौते के अस्तित्व को महज नोट भर करना था।
अंत में कोपेनहेगन सम्मेलन से एक उपलब्धि हाथ लगी : इसने दिखा दिया कि पूँजीपति वर्ग दुनिया के भविष्य को अपने हाथो मे रखने के काबिल नहीं और कि जब तक इस वर्ग को और इसकी समर्थित आर्थिक व्यवस्था पर झाडू नहीं फेर दी जाती तब तक न तो इंसानियत का और न ही पृथ्वी का कोई भविष्य है।
नार्थ 03-01-2010
संदर्भ
कोलकता और उसके आसपास दिसम्बर 2009 से लगभग 2,50,000 जूट मिल मज़दूर बेहतर वेतन, बडी संख्या में ठेका मज़दूरों को स्थायी किये जाने, सेवानिवृत्ति की सुविधायें तथा अपने जीवन एवं काम करने की परिस्थितियों से सम्बन्धित अन्य प्रश्नों को ले कर हदताल पर थे। इससे भी परे, वे हड़ताल पर गए ताकि वे अपने पिछली पगार हासिल कर सकें और मालिकों पर उनके स्वास्थ्य बीमा, प्रोविडेंट फन्ड तथा अन्य कटौतियों को जमा करने के लिए दवाब डाल सकें। दो महीने की हड़ताल के बाद, 12 फरबरी 2010 को सभी यूनियनों ने षडयंत्र रच कर मालिकों से कुछ भी हासिल किये बिना मज़दूरों को काम पर लौटने का आदेश दिया। इसके उल्ट, इस धक्के ने मज़दूरों पर और हमलों का रास्ता खोल दिया।
जूट मज़दूरों की हर वर्ष हड़ताल
पश्चिमी बंगाल में वर्तमान हड़ताल जूट मज़दूरों का कोई पहला संघर्ष नहीं था। जूट मज़दूर लगभग हर साल हड़ताल पर जाते रहे हैं। वर्ष 2002, 2004 में प्रमुख हडतालें हुयीं। 2007 की हड़ताल 63 दिन और 2008 की 18 दिन तक चली। अधिकांश अवसरों पर, मज़दूरों के कुछ सहूलतें प्राप्त करने अथवा हमलों के विरोध के प्रयासों को युनियनों के बौसों ने पानी में डुबो दिया।
जूट मज़दूरों के एक के बाद दूसरी बार बुरी तरह भिड जाने के प्रयासों की जड उनकी कार्य करने की अत्यधिक कठोर परिस्थितियां तथा स्तालिनवादी तथा अन्य यूनियनों एवं पार्टियों द्वारा उन्हें हिन्सा तथा दमन से दबाए रखने में निहित हैं। अनेक जूट मिलों की निरंतर अस्थिर स्थिति भी इसका एक कारण है।
जूट मज़दूरों की पगार बहुत कम है। स्थायी मज़दूरों तक को प्रति माह 7000 रुपये के लगभग वेतन मिलता है। प्रत्येक कारखाने में एक तिहाई से अधिक मज़दूर या तो अस्थायी हैं अथवा ठेके पर, जो स्थायी मज़दूरों से आधे से कम, लगभग 100 रुपये दिहाडी, पर काम करते हैं। इनमें से अधिकांश अस्थायी मज़दूरों ने उन्हीं मिलों में काम करते हुये समूचा जीवन गुजार दिया है लेकिन वे स्थायी नहीं हो पाये क्योंकि यह मालिकों के हितों के विपरीत था। बहुधा स्थायी और अस्थायी दोंनो को ही हर महीने पूरे मासिक वेतन और अन्य लाभों का भुगतान नहीं किया जाता। जब पिछला वेतन और अन्य लाभ जमा हो जाते हैं तो उनका भुगतान वर्षों तक नहीं किया जाता। यहां तक कि मज़दूरों की तनख़ाहों में से स्वास्थ्य बीमा (ईऐसआई) ऐवं प्रोविडेंट फन्ड के लिये कानूनी तौर पर की गयी कटौतियों को भी सम्बन्धित संस्थाओं में जमा नहीं किया जाता। और जब सामूहिक समझौते भी होते हैं तो मालिक उनका सम्मान नहीं करते। मालिकान मज़दूरों पर भारी उत्पादकता लक्ष्य थोपने के लिए तालाबन्दी और वेतन भुगतान न करने का सहारा लेते हैं। मालिकान स्तालिनवादी वाम मोर्चा सरकार एवं स्तालिनवादी तथा अन्य यूनियनों के साथ गठजोड होने के कारण बेखौफ यह व्यवहार करने में सफल हो जाते हैं। सरकार, जो अनेक समझौतों में भागीदार है, अपने स्वयं के श्रम कानूनों का पालन करने से इनकार कर देती है।
इस कारण, जूट मज़दूरों के बीच यूनियनों के विरुद्ध गहरा रोष है जिसकी अभिव्यक्ति लगातार इन सधर्षो के दौरान देखने को मिलती है। इस रोष की एक अधिक उग्र अभिव्यक्ति गत शताब्दी के नवें दशक के शुरूआत में कोलकता के विक्टोरिया और कनौरिया जूट मिलों के मज़दूरों के संघर्षों में देखने को मिली। उस समय हडतली मज़दूरों ने दक्षिण एवं वामपन्थी ट्रेड यूनियनों के दफ्तरों पर हमले कर उन्हें तोडफोड डाला और ट्रेड यूनियन नेताओं पर हमले किये। मज़दूरों ने सभी विद्यमान यूनियनों का वहिष्कार कर दिया और कई दिनों तक मिलों पर कब्जा बनाये रखा।
किन्तु पश्चिम बंगाल एक लम्बे समय से वामपंथी जंगल है जिसपर न सिर्फ गत 30 वर्षों से वामपथी लकड़बग्धों
का शासन है वल्कि यहां बहुत सारे वामपंथी दल, ग्रुप, ऐनजीओ और ''बुद्धिजीवी '' विचरण करते हैं। इन्हीं विरोधी वामपंथियों और नाना प्रकार के लोगों ने झूठे नारे दे कर विक्टोरिया और कनौरिया मिलों के मज़दूरों को हतोत्साहित किया और स्थापित यूनियनों को चुनौती देने के उनके प्रयास को पराजित कर दिया। पश्चिम बंगाल के जूट मज़दूरों की यह स्थायी त्रासदी है जो मज़दूरों के संघर्षों के बीच सर्वहारा की धारा के विकास की आवश्यकता को रेखांकित करती है।
वर्तमान हड़ताल
राज्य की वाम मोर्चा सरकार को नेतृत्व प्रदान करने वाली पश्चिम बंगाल की भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) के अधिकारियों की भागीदारी के वाबजूद त्रिपक्षीय समझौते के लिय पांच चक्रों की वार्ता असफल हो जाने के बाद जूट मज़दूरों के बढते दवाब के कारण 20 यूनियनों के संघ को 14 दिसम्बर 2009 को हड़ताल का आव्हान करना पडा। हडताली मजदर न सिर्फ बेहतर वेतन की ही मांग कर रहे थे वल्कि अपनी पुरानी पगार की अदायगी की और लम्बे समय से उनके वेतन से ईऐसआई और पीऐफ के लिये की जाने वाली कटौती की रकम को जमा किये जाने की भी मांग कर रहे थे। जानकारी मुताबिक प्रत्येक मज़दूर का पुरानी पगार का औसतन 37000 रुपये बकाया हैं जो 6 महीने के वेतन के बरावर है। पुरानी पगार को रोकना सरासर चोरी है। और भी, ईऐसआई और पीऐफ के जमा न करने के कारण मज़दूर स्वास्थ सेवाओं और सेवानिवृति के लाभों से वंचित रह जाते हैं।
चूँकि हड़ताल जारी रही, राज्य और केद्रीय सरकारों पर मालिकों ने हस्तक्षेप के लिये दबाब डाला। 'बिजिनेस स्टैन्डर्ड' के अनुसार, बिजिनेस समूहों को यह चिन्ता हुयी कि भारत की बिगडती हुयी आर्थिक व्यवस्था के परिणाम स्वरुप अन्य क्षेत्रों के पीडित मज़दूरों में भी संधर्ष की चिनगारी फूट सकती है। हड़ताल के चलते मालिक वर्ग का पैसे का नुकसान हो रहा था। 'बिजिनेस स्टैन्डर्ड' के मुताविक 16 फरबरी 2010 तक चली 61 दिन की हड़ताल के कारण 22 अरब रुपये का घाटा हुआ।
दिल्ली की सरकार और राज्य की सीपीएम सरकार तथा अन्य राजनैतिक दल एवं यूनियनें मिल कर हडताल को कमजोर बनाने में जुट गये।
राजनैतिक दलों की भूमिका
दिखावे के लिये सभी राजनैतिक पार्टियां हडताली मजदूरों के समर्थन का नाटक कर रहीं थीं । साथ ही वे अपनी नियंत्रित यूनियनों को एक ''व्यावहारिक'' दृष्टिकोंण अपनाने की भी सलाह दे रहीं थीं। पश्चिम बंगाल के मुख्य मंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य ने अपनी पार्टी सीपीएम द्वारा नियंत्रित जूट मजदूरों की सबसे बडी यूनियन, बंगाल चटकल मजदूर यूनियन (बीसीएमयू), के नेता गोविन्द गुहा को सलाह दी कि वे मजदूरों की सभी मांगों पर जोर न डालें। गुहा ने स्वयं प्रैस को बताया "जब हम उनसे मिले मुख्य मंत्री ने हमारी माँगें सुनी और कहा है कि पूरा समझौता करना मुश्किल है़...''
एक पार्टी जिसने अपनी यूनियनों को हडताली मजदूरों के खिलाफ हडताल तोडक का काम करने की सलाह दी वह थी दक्षिणपंथी त्रणमूल कांग्रेस। हालांकि लम्बे समय से यह पार्टी सीपीएम की बाजार समर्थक नीतियों के विरोध का दिखावा करती आ रही थी। टीएमसी ने धोषणा की कि वह "काम को हानि पहुचाने'' के तरीकों का समर्थन नहीं करेगी। इसकी नेता ममता बनर्जी अभी ही जूट हडताल तोडने के एवज में बडे व्यापारिक घरानों से पैसा बटोरने की कोशिश कर रही है।
मजदूरों के लडाकूपन को यूनियनों ने पटरी से उतारा
मजदूरों के व्यापक संघर्षों के दौरान यूनियनों की भूमिका तब स्पष्ट हो जाती है जब उन्हें विभिन्न कारखानों के मजदूरों में सम्बन्घ स्थापित होने से रोकते, मजदूरों की मांगों के साथ जालसाजी करते; मजदूरों को काम पर वापस लाने के लिये झूठ का सहारा लेते और उन्हें बदनाम करते देखा जा सकता है।
मजदूरों में खौलते हुये गुस्से के बावजूद वर्तमान हडताल शुरू से ही यूनियनों के नियंत्रण में थी। इसके अलावा, यूनियनों ने जूट मजदूरों को कोलकता तथा उसके आस पास के अन्य मजदूरों से अलग थलग रखने, और उन्हें यह वादा करके कि यूनियनें उनकी मांगों को पूरा कराने के लिये समझौता कर लेंगीं, निष्क्रिय रखने के लिये काम किया।
वास्तव में, मालिकों, यूनियनों और सरकार के बीच हुआ समझौता हर पहलू से एक विश्वासघात था। न सिरफ मजदूरों को तुष वेतन वृद्धि हासिल हुयी, उनके बकाया वेतन का भुगतान तक नहीं किया गया। उसका भुगतान कई महीनों में किश्तों के रूप में प्रस्तवित किया गया। यहां तक कि उनके चालू वेतन का एक भाग, उनका डीए, मासिक वेतन के साथ नहीं वल्कि तिमाही आधार पर दिया जायेगा।
इसके अतिरिक्त, युनियने अगामी तीन साल तक एक "कोई ह्डताल नहीं" का समझौता लागु करने के लिए राजी हो गईं। बीसीएमयू के नेता मिस्टर गुहा ने मीडिया को बताया : "आने वाले तीन साल तक कोई ह्डताल नहीं होगी"। इस गरंटी का अर्थ है कि मालिकों को जूट मजदूरों की नौकरियों, तनख़ाहों तथा जीवन हालातों पर और हमले करने की खुली छूट मिल जाएगी।
यूनियनों की इस दगावाजी नें हडताल की अवधि के वेतन से वंचित मजदूरों को गुस्से से खौलते छोड दिया।
मजदूरों का रोष हिन्सा में फूटा
हडताल ख्रत्म होने के कुछ दिन बाद यह गुस्सा मजदूरों द्वारा यूनियनों तथा मालिकों पर हिंसक हमलों में फूट पडा।
बृहस्पतिवार, 4 मार्च 2010 को नार्थ 24 परगना में जगद्दल जूट मिल ने मजदूरों पर एक नया हमला शुरू कर दिया। उसने स्थायी मजदूरों के काम को ठेका मजदूरों को स्थानान्तरित करने की कोशिश की। यूनियन नेताओं को नजरन्दाज करते हुये मजदूरों ने स्वतःस्फूर्त तौर पर इसका प्रतिरोध किया और इसे रोक दिया। मजदूरों को डराने और कुचलने तथा ठेकेदारी को बढाने के मकसद से मैनेजमैन्ट ने दूसरी सुबह 6 बजे, जब सुबह की पाली के मजदूर काम पर आये, तब मजदूरों पर गेट बन्द कर दिये और काम स्थगित कर दिया।
इस से जगद्दल जूट मिल के हजारों मजदूरों में सदमे और रोष की लहर दौड गयी। पहले ही उन्हें लम्बे समय तक चली और हाल ही में खत्म हुयी हडताल का वेतन नहीं मिला था। यूनियन नेताओं का इन्तजार किये बिना और उन्हें पूछे बिना मजदूरों ने मालिकों के हमले के जवाब में प्रदर्शन शुरू कर दिया। उन्होंने मांग की कि कामबन्दी तुरन्त वापिस ली जाए और मजदूरों को अन्दर जाने और काम करने दिया जाए।
इस दौरान 56 वर्षीय मजदूर बिश्वनाथ साहू की सदमे के कारण पडे दिल के दौरे से मृत्यु हो गयी। इस दुखद घटना ने मजदूरों के रोष में और पलीता लगा दिया और उन्होंने एक मैनेजर पर हमला कर दिया। लेकिन मजदूरों के गूस्से का मुख्य निशाना यूनियनें थी। मजदूरों को विश्वास था कि मिल की दोनों यूनियनें - राज्य में सत्ताधारी सीपीएम से जुडी सीटू और केन्द्र में सत्ताधारी कांग्रेस से जुडी आईएनटीयूसी - की मिलीभगत से ही मजदूरों पर वर्तमान हमला हुआ था तथा मिल को बन्द किया गया था। क्रुध मजदूरों ने सीटू और आईएनटीयूसी दोनों के दफ्तर तोडफोड डाले। मजदूरों ने कांग्रेस द्वारा नियंत्रित आईएनटीयूसी के नेता बर्मा सिंह के घर पर हमला किया। सीपीएम द्वारा नियंत्रित सीटू के नेता ओमप्रकाश राजभर की मैनेजमैन्ट का पक्ष लेने के कारण पिटायी की गयी। मजदूरों के गुस्से से यूनियनों के नेताओं और पसर्नल मैनेजर को तभी बचाया जा सका जब भारी पुलिस बल ने आ कर मजदूरों का हिंसक दमन किया और उन पर भयंकर लाठी चार्ज किया।
हालांकि हम विश्वास करते हैं कि यह हिंसा मजदूर वर्ग के संघर्षों को आगे नहीं ले जाती तो भी इसमें कोई सन्देह नहीं कि जगद्दल मिल में हुयी जन हिंसा मालिकों और यूनियनों की गद्दारी के खिलाफ मजदूरों के गुस्से का इजहार है।
आगे कैसे बढ़ें
जूट उद्योग पहले से ही संकट में है और अब यह अन्य क्षेत्रों की भांति गहराते विश्व आर्थिक संकट के प्रभाव से नहीं बच सकता। मिल मालिकान न सिर्फ मुनाफा बनाये रखने बल्कि उसे लगातार बढाये जाने पर तुले हैं और यह वे सिर्फ शोषण और मजदूरों की कार्य करने की परिस्थितियों पर हमले तेज करके ही कर सकते हैं। जूट मजदूरों के संघर्षों का लम्बा इतिहास है। उन्होंने बहुत सी लडाकू और वीरोचित लडाईयां लडी हैं। किन्तु उनकी वर्तमान और पिछली हडतालें प्रदर्शित करती हैं कि जूट मजदूर अपनी रक्षा और अपने संघर्षों का विकास केवल उन्हें अन्य क्षेत्रों के मजदूरों के संघर्षों से जोड कर ही कर सकते हैं। और भी, वे यूनियनों के प्रति अपने अविश्वास को निष्क्रिय अविश्वास अथवा अराजक हिन्सा तक ही सीमित नहीं रख सकते। उन्हें यूनियनों की विश्वासघाती भूमिका की स्पष्ट समझ विकसित करनी होगी और उन्हें अपने संघर्षों को यूनियनों के नियंत्रण से निकाल कर अपने हाथों में लेने का प्रयास करना होगा। आगे बढने का यही एकमात्र मार्ग है।
नीरो, 2 मई 2010
ग्रीस में गुस्सा उबाल पर है और सामाजिक स्थिति विस्फोटक। ठीक इस वक्त, ग्रीस सरकार मज़दूर वर्ग पर ताबडतोड हमलों की वौछार कर रही है। मज़दूर वर्ग की सभी पीढियों, सभी भागों को बुरी तरह कुचला जा रहा है। मज़दूर चाहे निजी क्षे़त्र के हों अथवा सार्वजनिक क्षेत्र के, बेरोजगार हों या पेंशनभोगी, चाहे वे अस्थायी संविदा पर काम करने वाले विद्यार्थी ही क्यों न हों, किसी को भी नहीं बख्शा जा रहा है। मज़दूर वर्ग भयंकर गरीबी के खतरे की चपेट में है।
इन हमलों के बर खिनाफ मज़दूर वर्ग ने जवाब देना शुरु कर दिया है। ग्रीस में और अन्यत्र भी, सडकों पर उतर कर, हडतालों पर जा कर लोग यह प्रदर्शित कर रहे हैं कि पूँजीवाद द्वारा अपेक्षित कुर्बानी के लिये वे तैयार नहीं हैं।
लेकिन इस क्षण, संघर्ष अभी भी वास्तव में विशाल नहीं बन पाया है। ग्रीस के मजडूर कठिन दौर से गुज़र रहे हैं। ऐसे में क्या करें जब समूचा प्रचार तंत्र और राजनैतिक मंडलियां यह प्रचार करने में जुटी हों कि देश को दिवालिया होने से बचाने के लिये बेल्ट कसने के अलावा कोई विकल्प नहीं है? राज्य के राक्षस के खिलाफ कैसे खडे हों? शोषितों के पक्ष में शक्तियों का संतुलन स्थापित करने के लिये संधर्ष के कौन से तरीके आवश्यक हैं?
ये प्रश्न सिर्फ ग्रीस के मज़दूरों के ही दरपेश नहीं बल्कि इनका सामना दुनियां भर के मज़दूरों को है। इसमें कोई भ्रम नहीं हो सकता: "ग्रीस की त्रासदी" विश्व पटल पर मज़दूर वर्ग के सामने आने वाला पूर्वानुभव है। इस प्रकार, पुर्तगाल, रोमानियां, जापान, स्पेन (जहां सरकार ने सार्वजनिक क्षेत्र के मज़दूरों के वेतन में 5% कटौती कर दी है) में "ग्रीस छाप कड़की पैकेज'' की पहले ही घोषणा की जा चुकी है। ब्रिटेन में, नई साझा सरकार ने कटौतियों के अपने मंसूबों का इजहार करना शुरु कर दिया है। साथ-साथ किये जाने वाले ये सभी हमले पुनः प्रकट करते हैं कि मज़दूरों की कोई भी राष्ट्रीयता क्यों न हो, वे एक ही वर्ग के हिस्से हैं जिसका हर जगह एक ही हित एवं वही साझा दुश्मन है। पूँजीवाद सर्वहारा को वेज लेबर की भारी जंजीरों का बोझ झेलने के लिये मजबूर करता हैं किन्तु, यही जंजीरें सभी सीमाओं को तोड कर मज़दूरों को एक कडी में पिरोने का काम भी करती हैं।
ग्रीस में, यह हमारे वर्गीय भाई बहिन ही हैं जो हमलों के शिकार हैं और जिन्होंने हमलों का जवाब देना शुरु कर दिया है। उनका संघर्ष हमारा संघर्ष है।
ग्रीस के मज़दूरों के साथ एकजुटता! एक वर्ग, एक संघर्ष !
पूँजीवाद द्वारा लादे गये सभी बंटवारों को हमें खारिज करना है। सभी सत्ताधारियों द्वारा अपनाये गये पुराने सिद्धान्त "बांटो और राज करो" के खिलाफ हमें शोषितों का सिंहनाद बुलन्द करना है: "दुनियां के मजदूरो एक हो!"यूरोप में,विभिन्न राष्ट्रीयताओं के पूँजीपति हमें विश्वास दिलाने की कोशिश कर रहे हैं कि यह सिर्फ ग्रीस की वजह से है कि हमें अपनी बेलट कसनी पड़ रही है। ग्रीस के कर्ता-धर्ता लोगों की बेईमानी जिन्होंने देश को दशकों तक कर्ज पर जिन्दा रहने की इजाजत दी और सरकारी खजाने को खाली कर डाला; वे ही यूरो में "अंतर्राष्ट्रीय विश्वास के संकट" का मुख्य कारण हैं। दूसरी ओर, सरकारें धाटा कम करने तथा वृहद स्तर पर कटौती लगू करने की आवश्यकता की व्याख्या के लिये इस झूठे बहाने का प्रयोग कर रही हैं।ग्रीस में, सभी आधिकारिक पार्टियां हमलों के लिये "विदशी शक्तियों'' को दोषी ठहराते हुये राष्ट्रीय भावनाओं को उभारने में लगी हैं और इसमे कम्यूनिस्ट पार्टी सबसे आगे है। "अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष और यूरोपीय यूनियन मुर्दाबाद!'' "जर्मनी मुर्दाबाद!'' ये नारे ग्रीस के राष्ट्रीय पूँजीवाद की रक्षा में सभी वाम और अतिवाम पंथी पारटियों के जुलूसों में लगाये जा रहे हैं।
अमेरिका में यदि शेयर बाजार गोते लगाता है तो यह यूरोपीय यूनियन में अस्थिरता के चलते है; यदि कंपनियां बन्द हो रही हैं तो यूरो की कमी के कारण है जो डालर और अमेरिकी निर्यात के लिये है बाधा है।
संक्षेप में, प्रत्येक राष्ट्रीय पूँजीपति अपने पडौसी को दोषी ठहरा रहा है और मज़दूर जिनका वह शोषण करता है उन्हें ब्लैकमेल कर रहा है: "कुर्बानियां स्वीकार करो वर्ना हमारा देश कमजोर हो जायेगा, हमारे प्रतिद्वन्दी लाभ उठा ले जायेंगे"। इस प्रकार शासक वर्ग हमारे अन्दर राष्ट्रीयतावाद इंजेक्ट करने की कोशिश कर रह है जो वर्ग संघर्ष के लिये खतरनाक जहर है।
देशों में बंटी यह दुनियाँ हमारी नहीं है। मज़दूर वर्ग को, जिस देश में वह रहता है उसकी पूँजी की जंजीर में जकडे जाने पर कुछ हासिल होने वाला नही है। "राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था की सुरक्षा'' के नाम पर आज कुर्बानियां स्वीकार करना भविष्य में और अधिक कठिन कुर्बानियों के लिये भूमि तैयार करने का मार्ग भर है।
यदि ग्रीस बर्बादी के कगार पर है; यदि स्पेन, इटली, आयरलैंन्ड और पुर्तगाल पीछे-पीछे हैं; यदि ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी, अमेरिका भी गहरे संकट में हैं, यह इस लिये है कि पूँजीवाद एक मरणासन्न व्यवस्था है। इस गर्त में गहरे और गहरे डूब जाना सभी देशों की नियति है। पिछले 40 वर्षो से विश्व की पूँजी संकट में डुबकी लगा रही है। एक के बाद दूसरा मन्दी का दौर आता रहा है। सिर्फ कर्जों का अन्तहीन सिलसिला ही पूँजीवाद को कूछ हद तक विकास करने योग्य रख पाया है। पर इस सब का नतीजा यह है कि आज परिवार, कंपनियाँ, बैंक, तथा राज्य आकंठ कर्ज में डूबे हुये हैं। ग्रीस का दिवालियापन शोषण की इस व्यवस्था के सामान्य और ऐतिहासिक दिवालियेपन का व्यंग चित्र मात्र है।
शासक वर्ग की आवश्यकता है हमें बांटना: हमारी आवश्यकता है एक जुटता !
मज़दूर वर्ग की ताकत उसकी एकता !
घोषित की जा रही कड़की की योजनायें हमारे जीवन की स्थितियों पर खुले, सामान्यीकृत हमले हैं। इसका एकमात्र संभव उत्तर है मज़दूर वर्ग की ओर से विशाल आन्दोलन। इन हमलों का उत्तर अलग-थलग रुप से तुम्हारे अपने कोने, तुम्हारे अपने कारखाने, स्कूल तथा दफ्तर में नहीं दिया जा सकता। विशाल स्तर पर मुकाबला अति आवश्यक है। अकेले कुचल दिये जाने और गरीबी में धकेल दिये जाने से बचने का यही एकमात्र विकल्प है।
किन्तु, संधर्षों की आघिकारिक "विशेषज्ञ" ट्रेड युनियनों द्वारा क्या किया जा रहा है? वे उन्हें एकजुट किये बिना अनेक कार्य स्थ्लों पर हडतालें संगठित कर रहे हैं। वे सक्रिय रुप से क्षेत्रीय अलगाव प्रोत्साहित करती हैं विशेषतया निजी तथा सार्वजनिक क्षेत्र के मज़दूरों के बीच में। वे मज़दूरों को व्यर्थ के "डे आफ एक्शन" पर मार्च कराती हैं। वे वास्तव में, मज़दूरों को बांटने में माहिर हैं। यूनियनें राष्ट्रवाद फैलाने में समान रुप से निपुण हैं। एक उदाहरण: मार्च के मध्य से, ग्रीस की ट्रेड यूनियनों का बहुत ही आम नारा है " ग्रीस खरीदो''।
यूनियनों के अनुसरण का अर्थ है विभाजन तथा पराजय के रास्ते का अनुसरण। मज़दूरों के लिये जरुरी है कि वे संधर्ष अपने हाथों में ले लें। और यह वे आम सभाओं मे संगठित हो कर तथा मांगों और लगाये जाने वाले नारों का फैसला करके, ऐसे प्रतिनिधि चुन कर जिन्हे किसी भी पल वापिस बुलाया जा सके, और मज़दूरों के अन्य ग्रुपों से चर्चा करने तथा उन्हें आन्दोलन में शामिल होने के लिये प्रेरित करने के लक्ष्य से निकट के कारखानों, दफ्तरों, स्कूलों, और अस्पतालों में बडे प्रतिनिधि मंडल भेज कर ही कर सकते हैं।
ट्रेड यूनियनों के दायरे से बाहर जाना, संधर्ष का नियन्त्रण अपने हाथों में लेने का साहस दिखाना, दूसरे क्षेत्र के मज़दूरों को मिलने जाने के कदम उठाना .... यह सब बहुत कठिन लगता है। आज संधर्ष के विकास में आने वाली अडचनों में से एक है: मज़दूर वरग में आत्म विस्वास की कमी है। उसके हाथों में कितनी बडी ताकत है, वह अभी यह पहचान नहीं पाया है। फिलहाल, पूंजीवाद द्वारा किये जा रहे हमलों की हिंसा, आर्थिक संकट की बर्वरता, मज़दूरों में आत्म विश्वास की कमी, यह सब उसे पंगु बनाने का कम करते हैं। स्वयं ग्रीस में, मज़दूरों का प्रतिउत्तर हालातों की गंभीरता की मांग के अनुरुप कहीं कम है। तब भी, भविष्य वर्ग संधर्ष में ही निहित है। हमलों के मुकाबले का एकमात्र मार्ग है विशाल आन्दोलनों का विकास।
कुछ लोग पूछते हैं: "ऐसे संघर्ष क्यों करें? वे हमें कहां ले जाकर खडा करेंगे? चूँकि पूंजीवाद दिवालिया हो गया है, और सुधारों की कोई संभावना नहीं, क्या इसका मतलब यह नहीं कि कोई रास्ता शेष नहीं रहा?'' और वास्तव में, शोषण की इस व्यवस्था के भीतर कोई मार्ग शेष नहीं। किन्तु कुत्तों की भांति व्यवहार किये जाने को अस्वीकार करना तथा पलट कर सामूहिक रुप से जवाब देने का अर्थ है अपनी मान मर्यादा के लिये खडा होना। इसका अर्थ यह अहसास है कि होड और शोषण की इस दूनियां में ऐकजुटता जीवित है और मज़दूर वर्ग वास्तव में इस अमूल्य मानवीय भावना को जीवन में उतारने में सक्षम है। और तब एक अन्य दुनियां की संभावना प्रकट होने लगती है, शोषण, राष्ट्रों तथा सीमाओं से रहित एक दुनियां, एक दुनियां जो इन्सानों के लिये बनी है न कि मुनाफे के लिये। मज़दूर वर्ग अपने पर भरोसा कर सकता है, उसे अपने पर भरोसा करना होगा। वह ही एकमात्र वह वर्ग है जो इस नये समाज का निर्माण करने की और मानवता का स्वयं से समन्जस्य स्थापित करने की क्षमता रखता है, वह छलाँग लगा कर जिसे मार्क्स ने "आवशयक्ता के क्षेत्र से स्वतंत्रता के क्षेत्र में छलाँग लगाना'' कहा।
पूँजीवाद दिवालिया है, किन्तु एक दूसरी दुनियां - कम्युनिज्म संभव है!
इन्टरनेशनल कम्युनिस्ट करन्ट, 24 मई 2010
03 अक्तूबर 2009 से रीको ऑटो फैक्ट्री गुड़गाँव के मजदूर अपनी माँगों को लेकर हड़ताल पर थे। 18 अक्तूबर 2009 रविवार की शाम मजदूरों की हड़ताल तुड़वाने फैक्ट्री के सुरक्षागार्ड व मालिकों ने भाड़े के गुण्डों को बुलाकर हड़ताली मजदूरों पर कातिलाना हमला किया जिसमें सुरक्षा में लगी पुलिस फायरिंग में गोली लगने से एक मजदूर की मौत हो गई और 40 अन्य घायल हो गये। हड़ताली मजदूरों पर फायरिंग की इस घटना से मानेसर औद्योगिक क्षेत्र में काम करने वाले लगभग 30 हजार उन मजदूरों में जबरदस्त गुस्से की लहर दौड़ गई जो पिछले कई महीनों से अपने हकों की खातिर फैक्ट्री मालिकों के खिलाफ आंदोलन छेड़े हुए हैं। रीको ऑटो के हड़ताली मजदूरों पर हुए कातिलाना हमले के विरोध में 20 अक्तूबर 2009 को गुडगाँव व मानेसर के उ़द्योग मजदूरों ने काम पूरी तरह बंद रखा। हालांकि मजदूर संगठनों द्वारा हड़ताल तो वापस ले ली गई लेकिन प्रबंधकों के खिलाफ आंदोलन चला रहे विभिन्न फैक्ट्री मजदूरों द्वारा इस घटना के विरोध में काम बंद रखने का आह्वान एक अहम और दिलचस्प घटना है। मंगलवार सुबह से ही रीको ऑटो तथा सनबीम कास्टिंग के सताये मजदूरों ने राष्ट्रीय राजमार्ग-8 पर जबरदस्त विरोध प्रदर्शन किया और उसे पूरी तरह ठप कर दिया। इस विरोध प्रदर्शन में उनके साथ सोना कोयो स्टीयरिंग सिस्टम्स, टी.आई.मैटल्स, ल्यूमैक्स इंडस्ट्रीज, बजाज व हीरो होंडा मोटर्स लिमिटेड के मजदूर समूह भी शामिल थे। स्थानीय प्रशासन की आधिकारिक जानकारी के मुताबिक गुड़गाँव मानेसर की 70 ऑटो स्पेयर पार्ट निर्माता कंपनियों के करीब एक लाख मजदूरों ने इस एक दिन की हड़ताल में हिस्सा लिया। भले ही 21 अक्तूबर 2009 को ज्यादातर कंपनियों के मजदूर अपने काम पर आ गये और उनका आंदोलन आगे नहीं बढ़ा लेकिन यह काबिलेगौर है कि इस तरह की घटनाएँ भारत के मजदूर आंदोलन में एक अहम मुकाम और मालिकों के शोषण के खिलाफ मजदूरों के प्रतिरोध की जबरदस्त दस्तक है।
यह भारत के अलग-अलग हिस्सों में फैल रही वर्ग संघर्ष की चेतना का ही नतीजा है। भला जुलाई 2005 में गुड़गाँव मानेसर के हीरो होंडा मजदूरों के जुझारू संघर्ष को कोई भुला सकता है? जिसके बाद मजदूर आंदोलनों का क्रमिक दौर तो हम देखते ही हैं साथ ही हम उन्हें इस कुव्वत से भी लैस पाते हैं कि मालिकों सेअपने मसले वे खुद निपटाने और हकों की लड़ाई खुद लड़ने में समर्थ हैं।
सन् 2007 के पहले के तमाम साल भारत की अर्थव्यवस्था के तीव्र विकास के वर्ष होने के बावजूद वर्किंग क्लास की दशा बेहतर होने की बजाय बद से बदतर ही हुई है। रोजगार छिन जाने की चिंता और डर एक कटु सच्चाई है। तीव्र आर्थिक विकास एवं अर्थव्यवस्था में बढ़ोत्तरी के बावजूद फैक्ट्री मालिकों द्वारा बड़े पैमाने पर स्थाई मजदूरों को हटाकर उनकी जगह गैर कानूनी ढंग से कम मजदूरी पर ठेका मजदूरों को काम पर रखा जा रहा है। जबकि हीरो होंडा, मारुति और हुंडई सरीखी कंपनियों का उत्पादन इस दौरान कई गुना बढ़ा है। हीरो होंडा का उत्पादन 2 लाख गाड़ियों से बढ़कर 36 लाख तक जा पहुँचा है लेकिन इसके विपरीत स्थाई रोजगार में भारी कमी हुई है और कहीं-कहीं तो 'जगह' ही खत्म कर दी गई है। उनकी जगह 'अस्थाई' मजदूरों की भर्ती मालिकों ने कर डाली है। देश की हर कंपनी की यही कहानी है। मुनाफा कमाने की गलाकाट होड़ में लगी देश की ये ऑटो मोबाइल व पुर्जा कंपनियाँ मजदूरों पर कातिलाना हमला करने से भी बाज नहीं आ रहीं। मुनाफे ने इनको अंधा बना दिया है लिहाजा मजदूरों का बुरी तरह दमन करने पर ये उतारू हैं।
इस सदी के प्रारंभिक वर्ष वर्किंग क्लास के लिए बड़े कठिनाई भरे रहे हैं और संघर्ष की राह काँटों भरी। वर्किंग क्लास के खिलाफ मालिकों के जुल्म-ज्यादती व हिंसा दुनिया का एक कड़वा सच है। सन् 2007 के आर्थिक विध्वंस ने इस कोढ़ में खाज का काम किया है, यानी हालात और बद से बदतर हुए हैं। सभी क्षेत्रों में बड़ी तादाद में रोजगार कम हुआ है। वेतन में कटौती के साथ-साथ उनकी सुविधाओं पर कुल्हाड़ी चली है। उधर रोजमर्रा खाने-पीने की चीजों के दाम सारी हदें पार कर गये हैं। आटा, दाल, चीनी व सब्जियों के दाम कई गुना बढ़ गये हैं। गत दो वर्ष से हम ऐसा ही देख रहे हैं और यह प्रभाव मौसमी नहीं है। एक तरफ तो जरूरत की चीजों के दाम आसमान छू रहे हैं दूसरी तरफ उनकी मजदूरी में निरंतर कमी होते जाने से उनका जीवन यापन दूभर हो गया है।
आज भले ही मालिक (उद्योगपति) आर्थिक मंदी के खत्म होने और भारतीय अर्थव्यवस्था के पुनः पटरी पर आने व वृद्धि की बात कर रहे हैं लेकिन मजदूरों की हालत में कोई बदलाव नहीं आया है। उल्टे स्थाई रोजगार की जगह कैज्वल लेबर (दिहाड़ी मजदूर) से काम लेने से रोजगार और मजूरी दोनों घटे हैं।
मजदूरों ने अपने आकाओं के खिलाफ जो प्रतिरोध हाल के वर्षों में खड़ा किया है उससे यह उन्हें अच्छी तरह समझ में आ गया है कि एकजुट होकर जब तक वे लड़ना नहीं सीखेंगे मालिक इसी तरह उनका दमन व उत्पीड़न करते रहेंगे। इस समझ के नतीजे पिछले कुछ वर्षों के मजदूर आंदोलनों में साफ दिखाई दिये हैं, जब मालिकों को उनके सामने झुकना पड़ा है। दुनिया में उठा वर्ग-संघर्ष का उभार वर्किंग क्लास की संगठित चेतना का ही नतीजा है। इसके असंख्य उदाहरण दुनिया के हर देश में देखने को मिल जाएँगे। जिसमें कोरिया की पाँचवें नंबर की सबसे बड़ी कार निर्माण कंपनी सेंडयोंड (Ssangyong) के प्लांट पर जुलाई 2009 में दो महीने से अधिक समय तक मजदूर वर्ग ने कब्जा कर रखा था। इसी तरह अप्रैल एवं जुलाई 2009 में ब्रिटेन की दो कार कंपनियों विस्टियोन (Visteon) और वेस्तास विंडसिस्टम्स (Vestas Windsystems) को मजदूरों ने अपने कब्जे में कर लिया। अक्तूबर 2009 की ब्रिटेªन के पोस्टल कर्मियों की हड़ताल मशहूर है। मजदूर वर्ग के ऐसे ही आंदोलन जर्मनी, तुर्की, मिश्र, चीन व बांग्लादेश में भी हुए हैं।
वर्तमान आर्थिक संकट और मालिकों के जुल्म दोनों ही मजदूर वर्ग के बुलंद इरादे व हौंसले को झुका पाने में नाकाम रहे हैं, उल्टे इन अग्नि परीक्षाओं से गुजर कर वे और अधिक मजबूत हो गये हैं तभी तो उनमें इनसे लड़ने की कुव्वत व जज्वा हिलोरे लेता दिखता है। जिसमें सरकारी क्षेत्र के कर्मचारियों की हड़ताल बहुत महत्वपूर्ण है। बैंक कर्मियों की देशव्यापी हड़ताल तो हुई ही, जनवरी 2009 में देशभर के तेल कर्मियों, एयर इंडिया के पायलटों की हड़ताल तथा एल.आई.सी. के डेढ़ लाख व प.बंगाल के ढाई लाख एवं बिहार राज्य के सरकारी कर्मचारियों की हड़तालें मजदूर वर्ग की विकसित होती वर्गीय चेतना व भविष्य के मजदूर आंदोलनों के दिशा संकेत हैं। इन हड़तालों में कुछ तो बड़ी टकराव भरी रही हैं और सरकार ने सख्ती से हड़तालियों के आंदोलन को दबाने की कोशिश की है। तेल कर्मचारियों की सन2009 की हड़ताल को तोड़ने राज्य सरकार 'एस्मा' कानून का बेजा इस्तेमाल करने से भी नहीं चूकी और कर्मचारियों का दमन किया है। बिहार राज्य के कर्मचारियों की हड़ताल के प्रति भी सरकार ने यही भूमिका अख्तियार की जबकि तेल कर्मियों की दमन कार्यवाही से सरकार इस डर से बैकफुट पर आ गई कि कहीं हड़ताल दूसरे पब्लिक सैक्टर-संस्थानों में न फैल जाए।
पब्लिक सैक्टर के अपने साथियों की भाँति दूसरे बहुत से क्षेत्रों के मजदूरों ने भी अपनी माँगों से एक इंच भी टस से मस न होकर सरकार को मुँहतोड़ जवाब दिया है। जिसमें गुजरात के हीरा मजदूरों का आंदोलन सबसे अहम और आँखें खोल देने वाली मिसाल है। हीरा मजदूरों के आंदोलन की चिंगारी ने जंगल की आग का जो रूप, सूरत अहमदाबाद, राजकोट व अमरेली आदि में अख्तियार किया, उसे काबू में लाने में सरकार के हाथ-पाँव फूल गये लिहाजा भारी पुलिस बल का सहारा उसे लेना पड़ा। देश के सब बड़े ऑटोमोबिल गढ़ तमिलनाडु, महाराष्ट्र, गुड़गाँव व मानेसर में ये घटनाएँ आम हैं जो बताता है कि मजदूर अपने रोजगार, बेहतर जीवन यापन व इंसानी हकों के लिए किसी भी हद से गुजरने के लिये तैयार है। मालिकों की नाइंसाफी के खिलाफ इंसानी हकों की जिद पर वे अडिग, अटल और दृढ़ निश्चय है।
चैन्नई में भारत की दूसरी सबसे बड़ी कार निर्माता हुंडई मोटर्स के मजदूर बेहतर मजदूरी के लिए अप्रैल, मई व जुलाई 2009 में हड़ताल कर चुके हैं। मालिकों ने मजदूरों के आंदोलन को दबाने की पुरजोर कोशिश की। भारत भर की अपनी फैक्ट्रियों को बंद करने की बंदर भभकी भी कंपनी देती रही है। कोयंबतूर की ऑटो पार्ट निर्माता कंपनी 'प्रिकोल इंडिया' के मजदूर भी पिछले दो साल से मालिकों द्वारा स्थाई मजदूरों की छुट्टी करने और उनकी जगह ठेका या अस्थाई-दिहाड़ी मजदूरों से काम लेने के खिलाफ आंदोलन कर रहे हैं। इस आंदोलन ने तब हिंसक रूप ले लिया जब सितंबर 2009 में प्रबंधकों ने 52 स्थाई मजदूरों की छुट्टी करते हुए उनकी जगह अनियत दिहाड़ी 'कैज्वल' मजदूरों की भर्ती कर डाली। मालिक व मजदूरों के बीच 22 सितंबर 2009 को हुए इस खूनी टकराव में 'प्रिकोल इंडिया' के वरिष्ठ प्रबंधक को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा। इसी समय तमिलनाडु की एम.आर.एफ.टायर्स और नोकिया कंपनियों के मजदूरों और मालिकों के बीच संघर्ष की घटनाएँ अहम हैं। बेहतर मजदूरी की माँग में महाराष्ट्र के नासिक की 'महिंद्रा एण्ड महिंद्रा' के मजदूरों को मई 2009 में हड़ताल पर जाना पड़ा। पुणे की क्यूमिन्स इण्डिया (Cummins India) तथा बॉशस (Bosch) की उत्पादन इकाइयों के मजदूरों को भी बेहतर मजदूरी और अनियतकालीन (casualisation) मजदूरों को काम पर रखने के खिलाफ 15 और 25 सितंबर 2009 को हड़ताल करनी पड़ी।
आज हम देखते हैं कि बड़ी संख्या में मजदूर अपने मालिकों के हमलों का जवाब देने सीधे दो-दो हाथ करने को तैयार हैं। देशभर में तमाम जगह मजदूर आंदोलन की घटनाओं में इजाफा साफ तौर पर मजदूर आंदोलन की आगामी संभावनाओं और उसके विस्तार पाते जाने की भविष्यवाणी है। गुजरात के हीरा मजदूरों की सामूहिक हड़ताल इसकी एक जीती जागती मिसाल है। ऐसा ही हम तमिलनाडु, पुणे व नासिक में देखते हैं जहाँ के ऑटो मजदूरों ने मालिकों की मनमानी के खिलाफ एकजुट होकर सफल हड़ताल को अंजाम दिया। इस दौरान ऐसे भी बहुतेरे मौके आये हैं जब मजदूर वर्ग से घबराकर बुर्जुआजी ने बचाव में दमन से कदम वापस खींचे हैं। घटनाओं (आंदोलन) का बार-बार होना बताया है कि सभी क्षेत्रों के मजदूर, मालिकों द्वारा सताये जा रहे हैं। घटनाओं में इज़ाफा दर इज़ाफा उनके इस दमन व उत्पीड़न की उपज है। गुजरात राज्य के हीरा मजदूरों की सामूहिक हड़ताल इसकी एक जीती जागती मिसाल है। ऐसा ही हम तमिलनाडु, पुणे और नासिक में देखते ही जहाँ की ऑटोमोबाइल कंपनी के मजदूरों ने मालिकों की मनमानी के खिलाफ एकजुट होकर सफल हड़ताल को अंजाम दिया। ऐसे भी मौके आये हैं जब मजदूर वर्ग के आंदोलन से डरकर बुर्जुआजी ने बचाव की मुद्रा में दमन से कदम वापस खींचे हैं। मजदूर असंतोष एवं आंदोलनों की घटनाओं में इजाफा दर इजाफा बताया है कि सभी क्षेत्रेों के मजदूर, मालिकों द्वारा बुरी तरह सताये जा रहे हैं।
गुड़गाँव-मानेसर के फैक्ट्री मजदूरों के अलावा अलग-अलग फैक्ट्रियों के मजदूर भी अपने मालिकों के जुल्म के खिलाफ संघर्ष छेड़े हुए हैं। होंडा मोटरसाइकिल के मजदूर कितने ही महीने से बेहतर मजदूरी के लिए आंदोलन कर रहे हैं साथ ही ठेका मजदूरों को खत्म करने की माँग पर डटे हुए हैं। प्रबंधकों के अनुसार मजदूरों के इस आंदोलन ने उत्पादन में 50 फीसदी की गिरावट ला दी है जिससे नये उत्पादन का रास्ता भी बंद हो गया। इसीलिए मजदूरों को डराने-धमकाने के लिए होंडा मोटरसाइकिल के प्रबंधकों ने 10 अक्टूबर 2009 को धमकी भरा फरमान जारी किया कि भारत में वह अपनी उत्पादन इकाइयाँ या तो बंद कर देगा या फिर देश के किसी दूसरे हिस्से में ले जाएगा। रीको ऑटो कंपनी के ढाई हजार मजदूर भी अपने 16 साथियों को नौकरी से निकाले जाने और बेहतर मजदूरी के लिए सितंबर 2009 से आंदोलन पर थे। सनबीम कास्टिंग के एक हजार मजदूर भी बेहतर मजदूरी की माँग में 03 अक्टूबर 2009 से आंदोलन पर थे। टी.आई.मैटल, माइक्रोटेक, एफ.सी.सी., रीको, सत्यम ऑटो तथा अन्य बहुत सी कंपनियों के लगभग 25 हजार मजदूर हड़ताल पर भले ही न हों लेकिन अपनी माँगों के लिए सन 2009 से वे बराबर आंदोलन कर रहे हैं।
बिजनेस लाइन (Business Line) पात्रिका की 02 अक्तूबर 2009 की एक रिपोर्ट के मुताबिक, ''गुड़गाँव-मानेसर क्षेत्र की सहायक ऑटो उत्पादन इकाइयों के कुल 25 से 30 हजार मजदूरों के सप्ताह में 6 दिन आंदोलन पर रहने के कारण उत्पादन इकाइयों को पुर्जों की आपूर्ति न होने से उत्पादन बुरी तरह प्रभावित हो रहा है।'' अपने आकाओं की चिंता में परेशान एकनॉमिक्स टाइम्स, 11 अक्तूबर 2009 को अपनी वेबसाइट में खिलता है ''गुड़गाँव-मानेसर बैल्ट में घड़ी-घड़ी उठने वाली मजदूर समस्याएँ सभी उद्योगों के लिए सचमुच चिंता का विषय हैं। मजदूरों की समस्याओं के चलते हीरो होंडा और मारुति-सुजूकी जैसी बड़ी कंपनियों की आपूर्ति बुरी तरह प्रभावित हुई है।''
सच्चाई है कि इधर अनेक कंपनियों के मजदूर हड़ताल पर हैं उधर हजारों की संख्या में मजदूर अपना आंदोलन खत्म करने के लिए तैयार नहीं हैं। ये हालात वास्तव में मजदूरों की लड़ाई को और आगे की तरफ ले जाने के साथ-साथ उनमें पैदा होती वर्गीय एकता की प्रबल संभावनाओं का आइना है। इसी वर्गीय एकता के बूते अपने मालिकों को मुँहतोड़ जवाब देने की कुव्वत व ताकत का हौंसला उनमें बुलंद है। इसी आशंका से बुर्जुआजी भयभीत हैं और मजदूर यूनियनें भी इस स्थिति से बचने की फिराक में रहती हैं यानी प्रायः मालिकों की तलवाचाटू और मजदूर वर्ग के हितों की दुश्मन वे रही हैं। गुड़गाँव के मजदूर आंदोलन में रीको कंपनी के एक मजदूर की मौत के मामले में यूनियनों की भूमिका यकीनन वर्किंग क्लास के दुश्मन की रही हैं और मजदूर वर्ग में विस्तार पाती वर्गीय एकता की राह में ये यूनियन सबसे बड़ी रुकावट हैं। मजदूर आंदोलनों की भ्रूण हत्या करने पर ये आमादा हैं। गुड़गाँव में एक दिन की कार्यवाही के बहाने यूनियनों की पुरजोर कोशिश रही कि मजदूरों में उठी वर्गीय एकता की चेतना और भाईचारे को किस तरह खत्म किया जाए। बावजूद इसके 20 अक्तूबर को हुई मजदूरों की हड़ताल उनकी वर्गीय एकता व भाईचारे का अनूठा प्रदर्शन था जिसमें लगभग एक लाख मजदूर शामिल हुए। यह अनूठा प्रदर्शन उनके फौलादी इरादों व बुलंद हौंसले को बयान करने के साथ-साथ बुर्जुआजी से दो-दोे हाथ करने की उनकी दिलेरी को भी दिखाता है।
दूसरी तरफ बेहतर मजदूरी और रोजगार छिन जाने के खिलाफ आंदोलन कर रहे गुड़गाँव की हयुंडई, प्रिकोल, एम एण्ड एम तथा अन्य कंपनियों के मजदूर आंदोलनों को यूनियनों द्वारा नाकाम करने की पुरजोर कोशिशें हुई हैं और इन आंदोलनों को उन्होंने (यूनियन) अपने अस्तित्व की रक्षा और फौरी स्वार्थ के लिये बराबर इस्तेमाल किया है। इसमें कोई दो राय नहीं कि वर्गीय संघर्ष के विकास का अपना एक गति विज्ञान (dynamic) है लेकिन इस गति (dynamic) का असलियत में रूपांतरण होने के लिए ज़रूरी है कि मजदूर यूनियनो की वर्किंक क्लास विरोधी साजिशों को भलीभाँति समझें और बिना किसी मध्यस्थ के आंदोलन की बागडोर खुद थामें। समय का तकाजा है कि परिवर्तन के इच्छुक क्राँतिकारी मजदूरों की मदद कर पाएँ ताकि वह संघर्ष करने की क्षमता और शक्ति का अंदाजा लग सके और मजदूर यूनियनों की सर्वहारा वर्ग विरोधी चालों का भंडाफोड़ कर सकें।
एएम, अक्टूबर 2009
हमें अपने स्वयं के संघर्ष को नियंत्रित करने की जरूरत है!
नीचे जो पर्चा दिया जा रहा है वह सोमवार 15 नवम्बर को वाम पक्ष के संगठनों के संरक्षण में किंग्स कालेज में हुयी सभा के दौरान बांटा गया था .आने वाले सप्ताह के 'संघर्ष दिवस' के लिए, हम सुझावों, समालोचनाओं और उससे भी बढकर इसे वितरित करने या बेहतर व अद्वतन करने का स्वागत करते हैं.
आई सी सी के टुलोज सेक्शन, जो कि प्रदर्शनों के दौरान हुयी सभाओं व समितियों में काफी सक्रिय था, का एक कॉमरेड मीटिंग में बोल पाया और फ्रांसीसी यनियनों की रणनीति की आलोचना के बावजूद उसने बडे पैमाने पर तारीफ हासिल की. हम उस सभा के कुछ और बिन्दुओं को रखने की कोशिश करेंगे.
ब्रिटेन में काफी वक्त से यह लग रहा था कि नई सरकार की निर्दयी व हमलावर नीतियों ने मजदूर तबके को आहत करके खामोश कर दिया है.
इसमें अपाहिजों को काम के लिये मज़बूर करना, बेकारों को खाली काम पर भेजना , पेंशन की उम्र में इजाफा, शिक्षा के क्षेत्र में वहशियाना कटौती, पब्लिक सेक्टर में हजारों नौकरियों का चले जाना, विश्वविद्वालयों की फीस को तिगुना करना व 16-18 साल के छात्रों के शिक्षापूर्ति भत्ते में भारी कटौती.......ये फेहरिस्त अंतहीन है. मजदूर तबके (बी ए, टयूब, अग्निसेवा आदि) के ताजा संघर्षों को सख्ती से अलग-थलग कर दिया गया.
पर हम एक अंतरराष्ट्रीय वर्ग हैं और यह संकट भी अंतरराष्ट्रीय है। इन कठोर कदमों के खिलाफ ग्रीस, स्पेन और फ्रांस में ताजातरीन व भारी संघर्ष हुए हैं. फ्रांस में पेंशन सुधारों को लेकर हुयी प्रतिक्रिया ने समाज खास कर युवाओं का थ्यान केंद्रित किया है.
लंदन में हुए भारी प्रदर्शन ने दिखा दिया है कि उसी तरह की खिलाफत ब्रिटेन में भी मौजूद है. प्रदर्शन के भारी रुप ने, उसमें छात्रों व शिक्षाकर्मिंयों की भारी भागीदारी ने, प्रदर्शन को जगह ए से जगह बी के बीच एक दमहीन प्रदर्शन तक सीमित करने के प्रस्ताव को ठुकराकर यह दिखा दिया है कि वे जीवन निर्वाह के साधनों में कमीं करने के संबंध मे राज्य के किसी तर्क को नही मानेंगे.
टोरी हेड क्वार्टर पर आरजी नियंत्रण मुटठी भर अराजकतावादियों की साजिश ना थी बल्कि छात्रों व मजदूरों की बडी तादाद के गुस्से का उत्पाद था और प्रदर्शन के समर्थक छात्रों व मज़दूरों के विशाल बहुमत ने इस कदम की एनयूएस के नेतृत्व व मीडिया द्वारा की निन्दा को मानने से इनकार कर दिया.
बहुतों ने कहाः यह प्रदर्शन मात्र शुरूआत था. इसी तरह की प्रतिक्रिया व प्रदर्शन का दिन 24 नवम्बर को होना है. वक्ती तौर पर यह प्रदर्शन ' आधिकारिक' संगठनों जैसे की एनयूएस जो पहले भी दिखा चुका था कि वे आदेश देने वाली ताकतों का हिस्सा हैं द्वारा संगठित किये जा रहे हैं। पर यह प्रदर्शन में बडी तादाद में ना शामिल होने का कोई कारण नहीं। दूसरी तरफ, बडी तादाद में साथ आना संघर्ष की सही ज़रूरत को जाहिर करने का व नये प्रकार के संगठन पैदा करने का सही आधार हैं.
ऐसे प्रदर्शनों व 'संघर्ष दिवसों' से पहले, हमें आगे कैसे बढना है? हमें स्कूल कालेजों विश्वविद्वालयों में वार्ताएं आमसभाएं आदि आयोजित करने की ज़रूरत हैं ताकि प्रदर्शन के लिए जरूरी मदद व इसके मकसदों पर गौर किया जा सके. हमें प्रदर्शनों में 'आमूल परिर्वतनवादी छात्र मजदूर ब्लाक' बनाने की कुछ कॉमरेडों की शुरूआत का सर्मथन करना चाहिए. लेकिन जहां तक मुम्किन हो उन्हे पहले ही से मिल कर तय कर लेना चाहिए कि आधिकारिक संगठनों से अपनी आजादी का इजहार कैसे करेंगें.
ग्रीस के ताजा तजरबे से सीखने की जरूरत है जंहा कब्जा करने ( जिसमें यूनियनों के हेड क्वार्टर पर कब्जा करना भी शामिल है) को जगह बनाने में इस्तेमाल किया गया ताकि वंहा आम सभाएं की जा सकें. और फ्रांस का क्या तजुर्बा था? हमने अल्पसंख्यक छात्रों व मजदूरों को छोटे कस्बों की गलियों में सभाएं करते देखा ना केवल प्रदर्शन तक बाल्कि निरन्तरता के आधार पर जब आंदोलन आगे बढ रहा था.
हमें यह भी साफ करने की जरूरत है कि आदेश देने वाली ताकतें 10 नवम्बर वाली कोमल सोच भविष्य में नहीं रखेंगीं। वे इस वास्ते तैयार हो चुके होंगे कि हमें अल्पविकसित टकरावों के लिए भडकाऐं ता कि हम उन्हें ताकत दिखाने का मौका दे देंगें. फ्रांस में यह एक आम तरकीब है. शोषक ताकतों के खिलाफ एकता दिखाने के आत्म-रक्षा संगठन के लिए जरूरी है कि वे सामूहिक विचारविमर्श व फैसले के साथ बाहर आएं.
यह संघर्ष सिर्फ शिक्षा के क्षेत्र में नही है. पूरा मजदूर तबका ही निशानें पर है. लिहाजा प्रतिरोध को पब्लिक व निजी दोनों क्षेत्रों में बारीकी से फैलाने की जरूरत है. अपने खुद के संघर्षों को नियंत्रित करना ही उन्हे बढाने का एकमात्र रास्ता है
आईसीसी 15/10/2010
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घटना 140 वर्ष पहले की है जब फ्रांस के पूंजीपति वर्ग ने करीब 20,00 मजदूरों का कत्ले आम कर सर्वहारा के प्रथम क्रांतिकारी अनुभव को मिटा दिया। पेरिस कम्यून पहला अवसर था जब मजदूर वर्ग इतनी बडी ताकत से इतिहास के मंच पर प्रकट हुआ। पहली बार, मजदूरों ने यह दिखा दिया कि वे पूंजीवाद की राज्य मशीनरी को तहस-नहस करने में सक्षम हैं और इस प्रकार उसने साबित किया कि समाज में वही एकमात्र क्रान्तिकारी वर्ग है। आज शासक वर्ग हर कीमत पर मजदूरों को यह यकीन दिलवाने की कोशिश कर रहा है कि मानवता के पास समाज के लिये पूंजीवाद के सिवा कोई परिप्रेक्ष नहीं और आधुनिक विश्व की भयानक बर्वरता तथा कष्टों के सामने मजदूर वर्ग को लाचारी तथा नपुंसकता के विचारों से संक्रमित करने की कोशिश कर रहा है। तब आज यह आवश्यक है कि मजदूर वर्ग अपने विगत का मंथन करे ताकि वह अपने में, अपनी ताकत में और अपने संधर्षों में निहित भविष्य के लिए विश्वास पुनः हासिल कर सके। पेरिस कम्यून का विकट तजुर्बा इस बात का सबूत है कि उस समय कम्युनिस्ट क्रांति के लिये परिस्थितियां परिपक्व न होते हुये भी सर्वहारा ने दिखा दिया कि वही वह एकमात्र शक्ति है जो पूंजीवादी व्यवस्था को चुनौती दे सकती है।
मजदूरों की कई पीढियों के लिए, पेरिस कम्यून मजदूर आन्दोलन के इतिहास के लिये संदर्भ विन्दु रहा है। 1905 और 1917 की रुसी क्रांतियां खासकर पेरिस कम्यून के उदाहरणों और सबकों से अभिप्रेरित रहीं, और जब तक 1917 की क्रांति ने विश्व सर्वहारा के संधर्षों के प्रमुख प्रकाश स्तम्भ का इसका सथान नहीं ले लिया।
आज, पूँजीपति वर्ग का प्रचार अभियान अक्तूबर के क्रांतिकारी अनुभव को सदा के लिये दफनाने की, और स्तालिनवाद को साम्यवाद बता कर मजदूरों को भविष्य के उनके अपने द्रष्टिकोण से दूर करने की कोशिश कर रहा है। क्योंकि पेरिस कम्यून को वह झूठ फैलाने में प्रयोग नहीं किया जा सकता, अतएव सत्तधारी वर्ग ने इस धटना को अपनी बता कर, राष्ट्रवाद अथवा गणतांत्रिक मून्यों की रक्षा के लिये एक आन्दोलन बता कर हमेशा इसके वास्तविक अर्थ को छिपाने की कोशश की है।
पूंजी के खिलाफ एक लड़ाई, न कि एक राष्ट्रवादी संघर्ष
पेरिस कम्यून की स्थापना 1870 के फ्रांस-प्रशा युद्ध में सेडान में नेपोलियन बोनापार्ट की हार के सात महीने बाद हुयी। 4 सितम्बर 1870 को पेरिस के मजदूर बोनापार्ट के सैनिक दु-साहसिक कार्यों द्वारा थोपी भीषण परिस्थितियों के खिलाफ उठ खडे हुये। जब गणतंत्र की घोषणा की गई तब बिस्मार्क की सेनायें पेरिस के मुख्य दरवाज पर पडाव डाले हुये थीं। तत्पश्चात, प्रशा की सेना के मुकाबले राजधानी की सुरक्षा का जिम्मा राट्रीय सुरक्षा गार्डों ने, जो शुरू में निम्न मध्यम वर्ग की टुकडियों से गठित थे, संभाला। भूख से पीड़ित मजदूरों के झुंड इसमें भरती होने लगे और वे जल्द ही उसकी टुकडियों का बहु भाग बन गये। शासक वर्ग इस घटना को प्रशियाई हमलावरों के खिलाफ एक "लोकप्रिय" प्रतिरोध के रंग में रंगने की कोशिश करता है, किन्तु अति शीघ्र ही पेरिस की सुरक्षा के संघर्ष ने समाज के दो प्रमुख वर्गों, सर्वहारा और पूंजीपति वरग, के बीच अमिट अंतर्विरोधों के विस्फोट को जगह दे दी। 131 दिन की घेराबन्दी के बाद फ्रान्स की सरकार ने घुटने टेक दिये और प्रशा की सेना के साथ युद्ध विराम के समझौते पर दस्तखत किये। गणातांत्रिक सरकार के नये नेता थियरे ने समझा कि युद्धस्थिति की समाप्ति के साथ यह आवश्यक है कि पेरिस के सर्वहारा को तुरन्त निहत्था कर दिया जाय। क्योंकि वह शासक वर्ग के लिये एक खतरा था। 18 मार्च 1871 को थियरे ने पहले छल-कपट का सहारा लिया : यह दलील देते हुये कि हथियार राज्य की सम्पत्ति हैं उसने 200 से अधिक तोपों से सज्जित राट्रीय सुरक्षा गार्डों के तोपखाने को, जिसे मजदूरों ने मोमार्ट तथा बैलेविली में छिपा दिया था, छीनने के लिये सेना की टुकडियां भेजीं। मजदूरो की ओर से तगडे प्रतिरोध तथा सेना और पेरिस की आबादी के बीच पैदा हुये भाइचारे के आन्दोलन के फल स्वरूप वह प्रयास विफल हो गया। पेरिस को निहत्था करने के प्रयास की पराजय ने बारूद में एक चिनगारी का काम किया और उसने पेरिस के मजदूरों और वर्साई में छिप कर बैठी पूंजीवादी सरकार के बीच गृहयुद्ध छेड़ दिया। 18 मार्च को राट्रीय सुरक्षा गार्डों की केन्द्रीय कमेटी ने, जिसने अस्थायी तौर पर सत्ता की बागडोर संभाली ली थी, घोषणा की: "शासक वर्गों में फूट परस्ती और गद्दारियों के बीच राजधानी के सर्वहारा ने समझ लिया है कि अब घडी आ गयी है कि वह सार्वजनिक मामलों को अपने हाथों में लेकर स्थिति को नियंत्रण में करे (....)। सर्वहारा ने समझ लिया है कि यह उसका उद्दात अधिकार एवं पूर्ण कर्तव्य है कि वह अपने भाग्य को अपने हाथों में ले ले, और इसकी जीत को सुनिश्चत करने के लिए सत्ता पर कब्जा कर ले"। उसी दिन कमेटी ने सार्वभौम मताधिकार के आधार पर विभिन्न जिलों से प्रतिनिधियों के तुरन्त निर्वाचन की घोषणा की। ये चुनाव 26 मार्च को सम्पन्न हुये; और दो दिन बाद कम्यून की घोषणा कर दी गयी। इसमें बहुत सारे रुझानों का प्रतिनिधित्व था : जहां ब्लांकीवादियों का बहुमत था वहीं अल्पमत के सदस्य अधिकतर इन्टरनेशनल वर्कर्स एसोशियेसन (प्रथम इन्टरनेशनल) से जुडे प्रूधोंवादी समाजवादी थे।
तुरन्त ही, वर्साई सरकार ने मजदूर वर्ग, जिन्हें थियरे ने "धुर्त कचरा" करार दिया, के कब्जे से पेरिस को वापिस हासिल करने के लिये जवाबी हमला किया। फ्रांस का पूंजीपति वर्ग प्रशा की सेना द्वारा राजधानी पर जिस बमबारी की निन्दा करता था, वह बमबारी लगातार दो महीने तक, जब तक कम्यून जीवित रहा, जारी रही।
किसी बाहरी दुश्मन से पितृ भूमि की रक्षा के लिये नहीं बल्कि अपने घर के दुश्मनों के खिलाफ, वर्साई सरकार में निरुपित "अपने" बुर्जुआज़ी के खिलाफ अपनी रक्षा की लिये पेरिस सर्वहारा ने अपने शोषकों के सामने हथियार डालने से इनकार कर दिया था और कम्यून की स्थापना की थी।
पूँजीपदी राज्य के विनाश के लिए एक लड़ाई, न कि गणतांत्रिक स्वतंत्रताओं की रक्षा के लिए
पूँजीपति वर्ग अपने बदतरीन झूठ यथार्थ के आभास में से खींचता हैं। सर्वहारा के पहले क्रांतिकारी तजुर्बे को मात्र गणतांत्रिक स्वतंत्रताओं के, राजशाही सेनाओं, जिन के पीछे फ्रांस का पूँजीपति वर्ग लामबन्द हो गया था, के विरुद्ध जनतंत्र के बचाव के स्तर तक गिराने के लिए पूँजीपति वर्ग हमेशा इस तथ्य पर निर्भर करता रहा है कि कम्यून वास्तव में 1789 के सिद्धान्तों पर आधारित था। किन्तु कम्यून की सच्ची भावना को उन पोशाकों में नहीं पाया जा सक्ता जो 1871 के युवा सर्वहारा ने पह्न रखी थीं। इसमें निहित भविष्य की संभानाओं के मद्देनजर, यह आन्दोलन सदैव ही विश्व सर्वहारा के अपनी मुक्ति के संघर्ष में एक अहम प्रथम चरण रहा है। इतिहास में यह पहला अवसर था जब पूँजीपति वर्ग की आधिकारिक सत्ता को उनकी एक राजधानी में उखाड फेंका गया था। और यह विशाल संघर्ष सर्वहारा का ही काम था न कि किसी अन्य वर्ग का। निश्चय ही यह सर्वहारा अल्प विकसित था, वह शिल्प की अपनी पुरानी स्थिति से बमुश्किल उबर पाया था और वह अभी भी, निम्न-पूँजीपति वर्ग तथा 1789 से पैदा भ्रमों के बोझ तले दबा हुआ था : इसके बावजूद कम्यून के पीछे चालक शक्ति वही था। यद्यपि क्रांति अभी ऐतिहासिक संभावना नहीं थी (क्योंकि सर्वहारा अभी भी अपरिपक्व था तथा पूँजीवादी उत्पादक शक्तियों ने विकास की अपनी सम्भावनाओं को खतम नहीं किया था) कम्यून भावी सर्वहारा संघर्षो की दिशा का संदेशवाहक बना।
और भी, जबकि कम्यून ने पूँजीवादी क्रांति के सिद्धातों को अपनाया, पर उसने निश्चय ही उसमें वही अन्तर्वस्तु नहीं डाली। पूँजीपति वर्ग के लिये "स्वतंत्रता" का अर्थ है स्वतंत्र व्यापार तथा उज़रती श्रम को शोषित करने की आजादी, "समानता" का अर्थ कुलीनतंत्रीय विशेषाधिकारों के खिलाफ संघर्ष में पूंजीपतियों के बीच में समानता से अधिक कुछ नहीं, और "भाईचारे" का अर्थ है श्रम और पूंजी के बीच सामंजस्य, दूसरे शदों में शोषितों का शोषकों के सामने समर्पण। कम्यून के मजदूरों के लिये "समानता, स्वतंत्रता और भाईचारे'' का अर्थ था श्रम दासता का, मनुष्य द्वारा मनुष्य के शोषण का और समाज के वर्गों में विभाजन का अन्त। कम्यून द्वारा उदघोषित दूसरी दुनियां का यह ख्याल मजदूरों द्वारा कम्यून के दो महीनों के अस्तित्व के दौरान सामाजिक जीवन को संगठित करने के तरीके मे प्रतिबिंबित हुआ। कम्यून का असली वर्गीय स्वभाव उसके आर्थिक एवं राजनैतिक कदमों में निहित है, न कि भूत काल से लिये गये नारों के झाम में।
अपनी अधिघोषणा के दो दिन बाद, कम्यून ने अपनी ताकत की पुष्टि करते हए राजकीय ढांचे पर सीधे हमले करते ह्ए अनेक कदम उठाए: सामाजकि उत्पीडन को समर्पित पुलिस बल, स्थायी सेना, तथा जबरिया भर्ती (एक्मात्र मान्यता प्रप्त सैन्य बल था राष्ट्रीय सुरक्षा गार्ड) का खात्मा; समूचे राज्यकीय प्रशासन का विनाश, चर्च की सम्पत्ति की जब्ती, फंसी पे लटकाए जाने का अन्त, मुफ्त लाजिमी शिक्षा आदि, अन्य प्रतीकात्मक कदमों की तो बात ही नहीं जैसे वैन्डोम कालम, शासक वर्ग के अंध राष्ट्रवाद का वह प्रतीक जिसे नेपोलियन प्रथम ने खडा किया था, का विनाश। उसी दिन कम्यून ने यह घोषणा करके कि "कम्यून का झंडा सार्वभौमिक गणतंत्र का ही झंडा है" अपने सर्वहारा चरित्र को पुष्ट कर दिया। कम्यून के लिये विदेशियों के चुनाव (जैसे सुरक्षा मामलों के लिये पोलैन्ड के दौर्नब्रोवस्की तथा श्रम के लिये जिममेवार हंगरी के फ्रंकेल) द्वारा सर्वहारा अंर्तराष्ट्रीयतावाद के सिद्धान्त की स्पष्ट पुष्टि हुई।
इन सभी राजनैतिक कदमों में से एक ने विशेष रूप से यह प्रदर्शित किया कि यह विचार कितना गलत है कि पेरिस सर्वहारा ने गणतांत्रिक जनवाद की रक्षा के लिये विद्रोह किया था : वह है कम्यून के प्रतिनिधियों की स्थायी प्रतिसंहरणीयता जो कि अब उन्हें चुनने वाली संस्था के प्रति निरंतर जवाबदेह थे। यह 1905 की रुसी क्रांति में मजदूर कोंसिलों, जिन्हें लेनिन ने "सर्वहारा की तानाशाही का अन्तत: खोज निकाला गया रुप'' कहा, के उदय से बहुत पहले की बात है। चुने हुये प्रतिनिधियों को वापस बुलाये जाने का सिद्धान्त, जिसे सर्वहारा ने सत्ता दखल करते वक्त अपनाया, ने एक बार फिर कम्यून के सर्वहारा चरित्र को अनुमोदित किया। पूँजीपति वर्ग की तानाशाही, "जनवादी" राज्य जिसका एक अत्यंत घातक रूप है, शोषकों की राज्य सत्ता को एक अल्पमत के हाथों में केन्द्रित कर देती है ताकि वे उत्पादकों के विशाल बहुमत का उत्पीडन और शोषण कर सकें। दूसरी ओर, सर्वहारा क्रांति का सिद्धान्त है कि ऐसी कोई सत्ता पैदा न हो जो सवयं को समाज के ऊपर स्थापित कर सके। केवल वही वर्ग सत्ता का इस्तेमाल इस तरह कर सकता है जिसका मकसद ही समाज के ऊपर किसी अल्पमत के हर प्रकार के प्रभुत्व का उन्मूलन करना है।
क्योंकि कम्यून के राजनीतिक कदम स्पष्टत: इसकी सर्वहारा प्रवति को अभिव्यक्त करते थे, यह लाजिमी था कि उसके आर्थिक कदम, वे चाहे कितने ही सीमित रहे हों, मजदूर वर्गीय हितों की रक्षा करें: लगान का उन्मूलन, बेकरी जैसे कुछ व्यवसायों के लिए रात्रिकालीन काम का उन्मूल्न, मजदूरों के वेतनों से जुर्मानों की कटौती का खात्मा, बन्द पडे कारखानों को मजदूरों के प्रबन्धन में चालू करना, कम्यून के प्रतिनिधियों के वेतन को मजदूरों के वेतन के बरावर सीमित करना।
स्पष्टत:, सामाजिक जीवन को इस भांति संगठित करने का पूंजीवादी राज्य के "जनवादीकरण" से कोई लेना देना नहीं था, उसका तो पूरा जोर उसे मटियामेट करने पर था। और वास्तव में, यही वह मूल सबक है जिसे कम्यून ने भविष्य के समूचे मजदूर आन्दोलन को विरासत में प्रदान किया। यही वह सबक था जिसे रुस में सर्वहारा ने, लेनिन और बोलशेविकों के आव्हान पर, अक्तूबर 1917 में और अधिक स्पष्ट रूप से व्यवहार में उतारा। मार्क्स ने पहले ही र्लुई बोनापार्ट के 18वीं ब्रूमेर में इंगित किया : "अब तक की सभी राजनीतिक क्रांतियों ने राज्य मशीनरी को नष्ट करने की बजाय उसे परिपूर्ण ही किया है"। यद्यपि पूँजीवाद को उखाड फेंकने के लिये परिस्थितियां अभी परिपक्व नहीं थीं, पेरिस कम्यून, जो 19वीं सदी का अंतिम इंकलाब था, 20वीं सदी के क्रांतिकारी आन्दोलनों का अग्रदूत बना : उसने व्वहार में यह प्रदर्शित किया कि "मजदूर वर्ग पहले से ही तैयार राज्य मशीनरी पर मात्र कब्जा करके उसे अपने वर्गीय हितों के निये प्रयोग नहीं कर सकता। चूँकि उसकी राजनैतिक गुलामी का हथियार कभी उसकी मूक्ति का यंत्र नहीं बन सकता"। (मार्क्स, फ्रांस में गृह युद्ध)
सर्वहारा चुनौती के मुकाबले पूँजीवाद का खूनी क्रोध
शासक वर्ग यह कभी स्वीकार नहीं कर सकता कि मजदूर वर्ग कभी उसकी व्यवस्था को चुनौती देने का साहस करे। यही कारण था कि जब उसने हथियारों के बल पेरिस पर पुनः कब्जा किया तब पूँजीपति वर्ग का लक्ष्य राजधानी पर अपनी सत्ता की सिर्फ पुर्नस्थापना ही नहीं था बल्कि वह था मजदूर वर्ग पर ऐसा हत्याकाण्ड बरपा करना जो उसके लिए कभी न भूलने वाला सबक हो। कम्यून के दमन में शासक वर्ग का क्रोंधोन्माद सर्वहारा द्वारा उसमें उत्प्रेरित भय के बराबर था। अप्रैल के शुरू से ही थियरे और बिस्मार्क ने, जिनकी सेनाओं का पेरिस के उत्तरी और पूर्वी किलों पर कब्जा था, कम्यून को कुचलने के लिये अपना "पवित्र गठबन्धन" गठित करना शुरू किया। तब भी, पूँजीपति वर्ग ने अपने वर्गीय दुश्मन से लडने के लिये अपने राष्ट्रीय अंतर्विरोधों को पृष्ठ भूमि में डालने के कौशल का प्रदर्शन किया। फ्रांस और प्रशा की सेनाओं के बीच इस घनिष्ठ गठजोड के कारण राजधानी को पूरी तरह से धेर लिया गया। 7 अप्रैल को वर्साई की सेनाओं ने पेरिस के पश्चिमी किले पर कब्जा कर लिया। राष्ट्रीय सुरक्षा गार्डों की ओर से तगडे प्रतिरोध के कारण थियरे ने बिस्मार्क को सेडान में बन्दी बनाए गये फ्रांस के 60,000 सैनिकों को रिहा करने के लिये राज़ी कर लिया। और मई के पश्चात से यही सैनिक वर्साई की सरकार के लिये संख्यात्मक शक्ति बने। मई के पहले पखवाडे में दक्षिणी मोर्चा धराशायी हो गया। प्रशा की सेनाओं द्वारा खोली दरार की बदौलत, 21 मई को जनरल गैलीफैट की कमान में वर्साई सेनाओं ने उत्तरी और पूर्वी पेरिस में प्रवेश किया। आठ दिनों तक मजदूर वर्गीय जिलों में भयंकर लडाई जारी रही; कम्यून के अंतिम लडाके बैलेविली और मैलिनमौन्टैन्ट की पहाडियो पर मक्खियों की भांति कट कर गिरते गये। कम्युनार्डों के खूनी दमन का अंत यहीं नहीं हुआ। शासक वर्ग अभी पिटे हुए और निहत्थे सर्वहारा पर, उस "दुष्ट कचरे" पर जिसने उसके वर्गीय प्रभुत्व को चुनौती देने की हिमाकत की थी, प्रति-हिंसा बरपा कर अपनी जीत का मज़ा चखना चाहता था। जबकि बिस्मार्क की सैनाओं को भगोडों को बन्दी बनाने का आदेश दिया गया, गैलीफेट के गिराहों ने अरक्षित स्त्री, पुरुष और बच्चों का विशाल नरसंहार अंज़ाम दिया: उन्होंने फायरिंग दस्तों और मशीन गनों से निर्दयतया पूर्वक उनकी हत्याएँ की।
"खूनी हफ्ते" का अन्त एक घिनौने कत्ले आम में हुआ: 20,000 से अधिक लोग मारे गये। इसके बाद, आम गिरफ्तारियों का, "मिसाल कायम करने के लिये'' बन्दियों के कत्ल का, ज़बरी-श्रम शिविरों के लिये देश निकाले का दौर चला, सैकडों बच्चे कथित "सुधार गृहों" में धकेल दिये गये।
शासक वर्ग ने फिर से अपनी हुकूमत इस प्राकार स्थापित की। उसने दिखा दिया कि जब उसकी वर्गीय तानाशाही को चुनौती दी जाती है तो उसकी प्रतिक्रिया क्या होती है। न ही पूँजीपति वर्ग के केवल घोर प्रतिक्रियावादी अंशों ने कम्यून को खून में नहीं डुबोया था। यद्यपि उन्होंने सबसे घिनौने कार्य राजशाही सेनाओं पर छोड दिये थे; इन नरसंहारों और दहशत की पूरी जिमेदारी "जनवादी" रिपब्लिकन धड़े पर है, जिसके पास राष्ट्रीय असेम्बली थी और उदारवादी सांसद थे। सर्वहारा पूँजीवादी जनतंत्र के इन शानदार कृत्यों को कभी नहीं भुला पायेगा। कभी नहीं!
कम्यून को कुचल कर, जिसके चलते प्रथम इन्टरनेशनल लुप्त हो गया, शासक वर्ग ने समस्त दुनियाँ के मजदूरों पर एक हार बरपा की। और यह हार फ्रांस के मजदूर वर्ग के लिये, जो कि 1830 से ही सर्वहारा सघर्षों में अग्रणी भूमिका निभाता चला आ रहा था, विशेषरूप से पीडा दायक थी। फ्रांस का सर्वहारा वर्गीय मुठभेडों की अग्रिम कतारों में मई 1968 तक नही लौट पाया, तब उसकी विशाल जन हडतालों ने, 40 साल की प्रतिक्रांति के बाद, संघर्षों का एक नया परिप्रेक्ष खोला। और यह कोई इत्तफ़ाक नहीं है : थोडे समय के लिये ही सही, वर्ग संधर्षों में अपनी प्रकाश पुंज की भूमिका जिसे वह एक सदी पहले खो चुका था दुबारा हासिल करके, फ्रांस के सर्वहारा ने पूँजीवाद को उखाड फेंकने के मजदूर वर्ग के ऐतिहासिक संघर्षों के इस नये दौर की पूरी तेजस्वता, शक्ति और गहराई की उद्घोषणा की।
पर कम्यून के विपरीत, मई 1968 से शुरू हुआ यह नया ऐतिहासिक काल तब अस्तित्व में आया है जब सर्वहारा क्रांति न सिर्फ संभव है बल्कि, अगर मानवजाति के जीवित रहने की कोई आशा है, अत्यंत आवश्यक भी है। अपने झूठों, अतीत के क्रांतिकारी तजुर्बे को झुठलाते अपने प्रचार अभियानों से पूँजीपति वर्ग जिस चीज़ को छिपाना चाहता है वह है : सर्वहारा की शक्ति और तेजस्विता तथा आज के संघर्षों के दांव क्या है।
अवरिल (सर्वप्रथम जुलाई 1991 के रिवोल्यूशन इन्टरनेशनल-202 और अगस्त 1991 के वल्र्ड रिवोल्यूशन-146 में प्रकाशित। अब जुलाई 2011 में वल्र्ड रिवोल्यूशन-346 पुन में प्रकाशित
शिक्षा, नागरिक सेवा, स्थानीय परिषदों के लगभग दस लाख कर्मचारी 30 जून को हड़तालपर जाने की तैयारी क्यों कर रहे हैं ?
उसी कारण से जिस के लिए पिछली शरद ऋतु में अनेक व्यवसायों के पाँच लाख श्रमिकों ने 26 मार्च, 2011 को लंदन की सड़कों पर मार्च किया। और उसी कारण से जिस के लिए दसियों हजार विश्वविद्यालय और स्कूली छात्रों ने प्रदर्शनों, बहिष्कार और अधिग्रहण के समूचे आंदोलनो में भाग लिया।
ये लोग अपने जीवन स्तर पर सरकार द्वारा होने वाले अंतहीन हमलों से आजिज आ चुके हैं, चाहे ये हमले स्वास्थ्य सेवा में कटौती के रूप हों, ट्यूशन फीस की बढ़ोतरी के रुप में हों, बढ़ती बेरोजगारी रुप में हों, वेतन बढोत्तरी में ठहराव के रुप में हों या पेंशन पर हमले के रुप मे हों, जो कि 30 जून की हडताल में एक प्रमुख मुद्दा है। पेंशन पर हमले का, उदाहरण के लिए, फल यह होगा कि शिक्षकों को अपनी पेंशन के लिए अधिक भुगतान करना पडेगा, वे देर से रिटायर होंगे और इस सब के अंत मे उन्हें कम पेंशन से संतोष करना होगा।
कर्मचारी, छात्र, बेरोजगार और पेंशनर सरकार (और थोडे संशोधन से विपक्ष) की इस दलील से निरन्तर कमतर सहमत हैं कि "अर्थव्यवस्था की बेहतरी के लिए हमे यह कटौती करने की जरूरत है, जो वास्तव में हर किसी के हित में है"।
एक लंबे समय से, लोगों ने इसी तरह के तर्क के जवाब में सभी प्रकार का बलिदान दिया है, लेकिन अर्थव्यवस्था अभी भी ढलान पर जा रही है और इसके साथ हमारा जीवन स्तर भी ।
और मिल कर व्यापक रूप से हडताल करने और हमलों के जवाब को जितना संभव हो उतना व्यापक बनाने का विचार हम मे से अधिकाधिक को अब तर्कसंगत लगने लगा है। बजह यह है के हम सब एक ही जैसे हमलों का सामना कर रहे हैं और अलग अलग छितरे हुए कई संघर्ष हार में ही खतम हुए हैं|
लेकिन यहाँ नियोजित "कार्रवाई दिवस" को लेकर एक और सवाल उठता है। हड़ताल के इस निर्णय के पीछे सरकारी यूंनियनो की असली मंशा क्या है? क्या वे वास्तव में सरकारी हमलों के खिलाफ प्रभावी प्रतिक्रिया का आयोजन करना चाहते हैं ?
अगर यह सही है तो उन्होने हजारो मजदूरों को 26 मार्च को लन्दन क्यों तलब किया था, क्या केवल परेड करवाने के लिए, एडमिलीबैंड जैसों के पाखंडी भाषणों को सुनने और फिर घर भेज देने के लिए?
ट्रेड यूनियने हमें क्यों भ्रमाती हैं कि कटौती की यह समस्या मात्र वर्तमान सरकार से जुडी एक विशेष बात है, और कि 'लेबर पारटी' एक विकल्प पेश करने में सक्षम होगी ?
और केवल सार्वजनिक क्षेत्र का एक हिस्सा ही क्यों बुलाया जा रहा है? सार्वजनिक क्षेत्र के बाकी मज़दूरों और निजी क्षेत्र के सभी कामगारों को क्यों नही?
क्या उन पर हमला नही हो रहा ? फिर एक दिन की हडताल क्यों ?
कहीं यह तो नहीं कि ट्रेड यूनियनें 26 मार्च की तरह हमे 'एक्शन' का, प्रतिसंघर्ष का एक दिखावा पेश करना चाहती हैं जो कुल मिलाकर हमारे विभाजनों को मजबूत करेगा और हमारी ऊर्जा को बर्बाद करेगा?
सत्ता के पास हमसे डरने के कारण है।
शासक वर्ग के पास इस डर का अच्छा कारण है कि उसके हमले कहीं बडी प्रतिक्रिया को प्रेरित करेंगे जितनी कि वह आराम से संभाल पाए। उसके सामने इसके सबूत हैं - शरद ऋतु में ब्रिटेन की घटनाएं और 26 मार्च को ब्रिटेन में बडी संख्या में लोगों का सडकों पर उतर आना। उत्तरी अफ्रीका और मध्य पूर्व में बहते विद्रोह का बढ़ता ज्वार जो अब ग्रीस तथा स्पेन मे बडे आंदोलन की शकल में यूरोप में दाखिल हो रहा है। जहाँ दसियों हज़ार लोगों ने, जिनका बहुमत अनिश्चित भविष्य के रुबरु नौजवानों का था, शाहरी चौराहों पर कब्जा जमा लिया था और प्रतिदिन आम सभाएँ कर रहे थे। ऐसी आम सभाएँ जहां जमा लोग न सिरफ सरकार के इन व उन कदमों संबंधी, बल्कि हमारे जीवनों पर प्रभावी पूरे राजनीतिक और सामाजिक ढांचे संबंधी अपनी राय पेश करने को स्वतन्त्र थे।
यह आंदोलन अभी 'क्रांति' नही है पर यह ऐसा माहौल अवश्य पैदा कर रहा है जहां 'क्रांति' के सवाल पर व्यापक रूप से और अधिक गंभीरता से विचार किया जा रहा है।
इसमें हैरानी की कोई बात नहीं है कि ब्रिटेन में सरकार प्रतिरोध को आधिकारिक विरोध की सुरक्षित दीवारों के अंदर फंसा कर रखना चाहती है। इसमे ट्रेड यूनियनी ढ़ांचे का अहम किरदार है जो हमें ट्रेड युनियनी नियमावली में आंकित कठोर दिशा-निदेशों मुताबिक चलाते हैं जो कहते हैं कि: हडताली कार्यावाही संबंधी कोई भी फैसला सामूहिक बैठक में नही होगा, एकजुटता के लिए कोई हडताल नहीं, यदि आवश्यक हो तो अन्य क्षेत्रों के श्रमिकों की हडताली लाईन को तोडो, हो सकता है अन्यथा आपको अवैध "गौण कार्रवाई" में संलग्न पाया जाए, केवल तभी हड़ताल करें अगर आप यूनियन के शुल्क देने वाले सदस्य हों आदि आदि।
संघर्षों को अपने हाथों में ले लो!
क्या इसका मतलब यह है कि 30 जून की कार्रवाई समय की बर्बादी है ?
नहीं, अगर हम इसका इस्तेमाल एकजुट होने, आपस में विचार विमर्श करने तथा प्रतिरोध के अधिक व्यापक और प्रभावी तरीकों पर फैसला लेने के लिए करते हैं। नहीं , अगर इसका उपयोग हम संघर्षों को अपने नियंत्रण में लेने के अपने डर पर पार पाने के लिए करते हैं।
ट्यूनीशिया, मिस्र, स्पेन या ग्रीस की मिसालें हमारे सामने हैं : जब लोग बडी तादाद में इकट्ठा होते हैं, जब वे सार्वजनिक स्थलों पर कब्जा कर लेते हैं तथा बोलने की और सामूहिक फैसले लेने की आज़ादी की मांग करने लगते हैं, तब वे पुलिस दमन तथा मालिकों व अधिकारियो द्वारा सज़ा के भय पर पार पाने लगते हैं। ये मिसालें अनुसरण के लिए हमे एक 'माडल' पेश करती हैं, एक माडल जो कोई नया अविष्कार नही है बल्कि यह पिछली सदी के तमाम विशाल मजदूर संघर्षो मे सामने आया है: खुली आम सभा, जो अपने तमाम प्रतिनिधियों तथा कमीशनों को हाथ उठा कर निर्वाचनीय तथा किसी भी समय बापस बुलाए जाने योग्य बना कर उन्हे नियंत्रण मे रखती है।
30जून 2011 से पहले हम कार्यस्थलों पर आम बैठकों के लिए आवाहन कर सकते हैं, जो की पेशे तथा यूनियन की परवाह किए बिना सभी कर्मचारियों के लिए खुला मंच हों, जहाँ हम तय कर सकें कि एक्शन का अधिकतम संभव फैलाब कैसे हो। स्कूलों और कालेजों में अध्यापको और गैर अध्यापन कर्मचारियों के बीच, स्टाफ और छात्रों के बीच विभाजनों पर पार पाने की जरूरत है ताकि सब को एक साथ लेकर संघर्ष करने की राह निकाली जा सके। नगर निगमों और सरकारी विभागों पर भी यही लागू होता है: सभी प्रकार के डिस्कशन ग्रुप और सामान्य बैठकें इन बँटवारों पर निजात पाने और यह यकीनी बनाने में मदद कर सकती हैं कि संघर्षो में आधिकारिक 'हडतालियों' की अपेछा कहीं अधिक तादाद में मजदूर शामिल हो सकें।
हड़ताल के दिन हमे यह निश्चित करना है कि पिकेटिंग महज टोकन साबित न हो बल्कि आंदोलन को व्यापक तथा गहरा बनाने के काम आए: अपने कार्यस्थल पर हर एक को हड़ताल में शामिल होने के लिए रजामंद करके, अन्य कार्यस्थलों के आंदोलन का समर्थन करने के लिए वहां प्रतिनिधि भेज कर, भविष्य में संघर्ष को कैसे आगे बढाया जाए, इस बाबत विचार विमर्श का फोकस बन कर।
प्रदर्शन निष्क्रिय परेड नहीं रहें और एक रसमी रैली में समाप्त नहीं होने चाहिए। प्रदर्शन, नुक्कड सभाएं करने का एक मौका देते है जहाँ मकसद यूनियनी सरगनाओं और राजनीतिज्ञों के पहले से तयशुदा भाषणों को सुनना नहीं होता। इसके विपरीत मकसद है ज्यादा से ज्यादा लोगों को अपने अनुभव साझे करने व अपने विचार रखने का मौका देना।
एक बात की बहुत चर्चा है, खासकर वामपंथियों की ओर से, वह यह कि कटौतियां व दूसरे हमले वास्तव में "आवश्यक" नहीं हैं और कि इन्हें "विचारधारा" के तहत चलाया जा रहा है|
लेकिन सच्चाई यह कि संकटग्रस्त पूँजीवाद के लिए हमारे जीवन स्तरों को गिराने का प्रयास करना जरुरी तथा अपरिहार्य है। हम शोषितों के लिए जो जरुरी है वह यह नहीं की हम शोषकों को यह समझाने की कोशिश करें कि उन्हें व्यवस्था को बेहतर तरीके से संगठित करना चाहिए। वह है उनके हमलों की आज और कल खिलाफत करना, और यह करते हुए क्रांति का तथा समाज के सम्पूर्ण रूपांतरण का सवाल पेश करने के लिए जरुरी विशवास, आत्मगठन तथा राजनीतिक जागरूकता हासिल करना।
डब्ल्यू आर, 4 जून 2011
www.internationalism.org [6], सीआई, पोस्ट बाक्स न. 25, एन आई टी, फरीदाबाद-121001, हरियाणा
8 मार्च को फिर एक बार सभी नारीवादी समूहों ने अलग-अलग वाम धड़ों के रूप (खासतौर पर समाजवादी पार्टी) में हाज़िर परविर्तनवादी टुटपुँजिया गुटों के अशीर्वाद से अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस मनाया। एक बार फिर इस दिन को, जो महिला मजदूरों के संघर्ष को अभिव्यक्त करता है, पथभ्रष्ट करके उसे एक विशाल प्रजातांत्रिक और सुधारवादी छलकपट और धोखोधड़ी में बदल दिया जाएगा। जिस तरह बुर्जुआजी ने मजदूर दिवस (1 मई) का पूरी तरह से कायाकल्प करते हुए उसे राजकीय पूँजीवाद की संस्था की शक्ल दे डाली है।
परिवार निजी संपत्ति और राज्य की उत्पत्ति (1887) में एजेंल्स नारी के उत्पीड़न की निंदा कर चुके थे और उन्होंने दृढ़ता से इस बात की पुष्टि की कि मातृसत्तात्मक समाजों के खत्म होने और पितृसत्तात्मक समाज के उदय के साथ ही नारी सदा सदा के लिए 'पुरुष वर्ग' की 'सर्वहारा' बन गई। 1891 में अगस्त बेबेल ने नारी और समाजवाद में स्त्रियों की दशा पर किये गये एजेंल्स के कार्य के गहन ऐतिहासिक अध्ययन को जारी रखा है।
उन्नीसवीं शताब्दी के खत्म होने के बाद से ही नारी के शोषण का सवाल पूरी मानवता की मुक्ति के साथ-साथ सर्वहारा वर्ग के संघर्ष से जुड़ा सवाल रहा है। बीसवीं शताब्दी की नारकीय स्थितियाँ असहनीय होने पर सर्वहारा महिलाओं को मजबूर होकर सर्वहारा संघर्ष के मोर्चे पर कूदना पड़ा।
बीसवीं शताब्दी के सर्वहारा आंदोलन में महिलाओं के संघर्ष
मार्च 8 इसका प्रारम्भ है जब न्यूयार्क के कपड़ा मजदूरों ने 8 मार्च 1857 को प्रदर्शन किया, जिसे पुलिस द्वारा दबा दिया गया। हालाँकि प्रत्यक्ष तौर पर अमरीका के सर्वहारा आंदोलन से जुड़ा ऐसा कोइ अभिलेख मौजूद नहीं है जो इस घटना का प्रमाण दे।
सन् 1890 में क्लारा जेटकिन की प्रेरणा से मजदूर वर्ग की प्रमुख पार्टी एस.पी.डी. में जर्मनी में समाजवादी महिला आंदोलन उभरा। उन्होंने रोजा लुक्ज़मबर्ग के समर्थन से 'समानता' नाम की पत्रिका स्थापित की जिसने क्रांति के जरिये पूँजीवाद को उखाड़ उसकी जगह, विश्व कम्युनिस्ट समाज की नींव रखने की घोषणा की। दुनिया भर में, पश्चिमी यूरोप और संयुक्त राज्य दोनों में ही महिला मजदूरों ने शोषण की अमानुशिक परिस्थितियों के खिलाफ लामबंदी शुरू की। उन्होंने मुख्य रूप से काम के घण्टों में कभी करने, पुरुषों के बराबर मजदूरी देने, बाल मजदूरी का उन्मूलन तथा महिला मजदूरों के जीवन यापन की परिस्थितियों में सुधार की माँग रखी। इन आर्थिक माँगों के साथ-साथ उन्होंने राजनीतिक माँगें भी उठाईं, खासकर महिलाओं को वोट के अधिकार की मांग। (हालाँकि उनकी यह राजनीतिक माँग बाद में बुर्जुआजी के उस महिला आंदोलन में डुबो दी गई और उसमें खो गई जिसे 'नारीमताधिकारवादियों' के नाम से जाना जाता है)।
लेकिन खासकर 1907 से महिला मजदूरों और समाजवादियों ने खुद को पूँजीवादी बर्बरता, जो प्रथम विश्व युध्द की पूर्वसूचना थी, के खिलाफ संघर्ष के अगुआदस्तों मे पाया।
उसी वर्ष 17 अगस्त को क्लारा जेटकिन ने स्टुटगर्ट में पहले अंतर्राष्ट्रीय समाजवादी महिला सममेलन का एलान किया। पूरे यूरोप और संयुक्त राज्य से 58 प्रतिनिधियों ने इसमें शिरकत की और महिलाओं के वोट के अधिकार पर एक प्रस्ताव स्वीकृत किया। इस प्रस्ताव को एस.पी.डी की स्टुट्गर्ट काँग्रेस द्वारा स्वीकृत कर लिया गया। सदी के बदलाव पर, उस समय जब एक ही काम के लिए महिलाओं की मजदूरी पुरुषों की आधी थी, अनेक महिला संगठन और बहुत बड़ी तादाद में महिलाएँ सभी मजदूर संघर्षों में सक्रिय रूप से शामिल थीं।
सन् 1908 और 1909 में न्यूयार्क श्हर में कपड़ा-मिल मजदूर महिलाओं के बड़े-बड़े आंदोलन हुए। 'रोटी और गुलाब' की मार्फत भूख से सामूहिक मुक्ति और खुश्हाल जीवन की परिस्थितियाँ, बाल मजदूरी उन्मूलन और बेहतर मजदूरी की माँगे उन्होंने रखीं।
सन् 1910 में महिलाओं की सोशलिस्ट इंटरनेशंल ने शांति के लिए एक अपील जारी की। 8 मार्च 1911 को अंतर्राश्ट्रीय महिला दिवस पर यूरोप भर में एक लाख महिलाओं ने अनेक प्रदर्शन किये। कुछ दिन बाद 25 मार्च को न्यूयार्क की ट्रायंगल कपड़ा फैक्ट्री में लगी भीष्ण आग में फैक्ट्री में सुरक्षा उपायों की कमी के कारण 140 से ज्यादा महिला मजदूरों की जलकर मौत हो गयी। महिलाओं के शोषण की भीषण परिस्थितियों और उनको उनकी राजनीतिक स्वतंत्रता से वंचित करने के बुर्जुआ संसदीय प्रयासों के खिलाफ विद्रोह को इस घटना ने और अधिक धधका दिया। 1913 में दुनिया भर की महिलाएँ वोट के अपने अधिकार की माँग को उठा रहीं थीं। ब्रिटेन में बुर्जुआ 'नारीमताधिकारवादी' भी कुछ ज्यादा ही उग्र रवैया अपना रहे थे।
लेकिन जारशाही रूस में खासकर महिलाओं के संघर्ष ने समस्त मजदूर वर्ग के क्रांतिकारी आंदोलन को प्रेरणा व दिशा प्रदान की। 1912 और 1914 के दौरान रूसी महिला मजदूरों ने गुप्त सभाएँ आयोजित कीं और साम्राज्यवादी हत्याकांडों पर अपना विरोध दर्ज किया। युध्द भड़कने के बाद यूरोप भर की महिलाएँ उनसे मिल गईं।
1915 में फ्रांस की सेना ने युध्द के मोरचे पर कार्यवाही में शात्रु खेमे के 3,50,000 सैनिकों का कत्ले-आम किया। पीछे देश की अर्थव्यवस्था को निरंतर गतिमान बनाये रखने के लिए महिलाएँ बढ़ते शोषण का शिकार बनीं। उनका गुस्सा भड़क उठना स्वाभाविक था इसलिए इस दिशा में महिलाएँ सबसे पहले सक्रिय हुईं। मार्च 8, 1915 को अलेग्जेंड्रा कोलोन्ताई ने ओस्लो के पास क्रिस्ट्रियाना में युध्द के खिलाफ महिलाओं का एक प्रदर्शन आयोजित किया। क्लारा जेटकिन ने महिलाओं का एक नया अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन बुलाया। यह सम्मेलन वास्तव में उस जिमरवाल्ड सम्मेलन की पूर्व प्रस्तावना थी जिसने युध्द के विरोधियों को दोबारा एकजुट किया। 15 अप्रैल 1915 को 12 देशों की 1136 महिलाएँ ला हाये में इकट्ठा हुईं।
जर्मनी में खासतौर पर 1916 में पश्चिम के मजदूर आंदोलन की दो महानतम् महिला शख्सियतें, क्लारा जेटकिन और रोज़ा लुक्ज़मबर्ग ने जर्मन कम्युनिस्ट पार्टी, के.पी.डी., की नींव रखने में निर्णायक भूमिका अदा की। संयुक्त राज्य में ऐमा गोल्डमेन नाम की अराजकतावादी उग्रपंथी (अमरीकी कम्युनिस्ट पार्टी के संस्थापक और पत्रकार जॉन रीड की मित्र) महिला ने साम्राज्यवादी युध्द के खिलाफ एक चुनौतिपूर्ण आंदोलन चलाया। 1917 में रूस खदेड़ दिये जाने से पहले उसे जेल में डाल दिया गया था। इतना ही नहीं उसे अमरीका की सबसे खूँखार और खतरनाक महिला घोषित कर दिया गया।
रूस में महिला मजदूर ही थीं जिन्होंने सर्वहारा वर्ग के क्रांति मार्च का नेतृत्व किया। मार्च 8 (जार्जिया के कलेंडर के मुताबिक फरवरी 23) को पेट्रोग्राद की कपड़ा कारखानों की महिला मजदूरों ने हड़ताल कर डाली और सैलाब की तरह सड़कों पर उतर आईं। 'रोटी और शांति' उनकी मांग थी। महिला मजदूरों ने युध्द के मोर्चे से अपने बेटों और पतियों को वापिस बुलए जाने की मांग की। "हमारे निर्देशों का उल्लंघन करते हुए अनेक मिलों की महिला मजदूर हड़ताल पर चली गईं और इंजीनियरिंग महकमे के मजदूरों का समर्थन जुटाने एक प्रतिनिधिमण्डल उन्होने भेजा। एक भी मजदूर को यह अनुभव नहीं हुआ कि यह क्रांति का पहला दिन होगा"। (ट्राटस्की-रूसी क्रांति का इतिहास) इसलिए 'रोटी और शांति' के नारे ने रूसी क्रांति के लिए एक चिंगारी का काम किया जिसकी पहल पेट्रोगाद की महिला मजदूरों ने की। और इसका ही असर था कि पुतीलोव कारखानों के मजदूर और समूचा मजदूर वर्ग इस आंदोलन में एकजुट शामिल हुए।
नारी आंदोलन का बुर्जुआ जनवाद द्वार समावेशन
12 नवम्बर 1918 को युध्द विराम संधि हो जाने के ठीक एक दिन बाद महिलाओं को वोट का अधिकार देना जर्मन बुर्जुआजी के लिए जुए का एक दांव न था। बल्कि यह तो उनका पूर्व नियोजित एजेंडा था। क्योंकि इसमे कोई आश्चर्य नहीं कि जिस देश में अंतर्राश्ट्रीय समाजवादियों के आंदोलन में रोजा लक्ज़मबर्ग और क्लारा जेटकिन जैसी महानतम् जुझारू व लड़ाका (मिलिटेंट) महिला शख्सियतों का बोलबाला हो और जहाँ पूरी संसद मजदूर वर्ग के लिए ढोल की पोल बन गई हो, वहाँ उनकी इस क्रांतिकारी फौलादी हिम्मत को तोड़ने के लिए शासक वर्ग भला वोट के अधिकार का बतौर सौदेबाजी, इस्तेमाल करने से पीछे कैसे हट सकता था। पूँजीवाद के अपनी पतनशीलता की अवस्था में प्रवेश के साथ न तो किसी सुधारों के और न ही वोट के अधिकार के लिए बल्कि सिर्फ पूँजीवादी व्यवस्था को उखाड़ फैंकने के लिए लडना ही व्यवहारिक रह जाता है।
पहले विश्वयुध्द ने इतिहास के जिस नये काल का शिलान्यास किया वह था, ''युध्द और क्रांतियाँ'' का, जैसा कि 1919 की इंटरनेशनल ने घोषित किया।
1920 के प्रारम्भिक दोर में महिला आंदोलन ने सर्वहारा संघर्ष की दिशा को जरूर अपनाया लेकिन बहुत जल्द ही वह अधोगति का शिकार हो गया और शीघ्र ही उसे पूँजीवादी राज्य द्वारा निगल लिया गया। जिस सर्वहारा आंदोलन से वह पैदा हुआ था, उससे एकदम भिन्न और पृथक हो वह अपने ही स्त्रोत-वर्ग के विरोध में जा खड़ा हुआ। जिसने मिल व फक्ट्रियों में काम करने वाली महिलाओं के यौन उत्पीड़न व शोषण की परिस्थितियों के संबंध में स्वतंत्र रूप से यह भ्रमपूर्ण मिथ्या प्रचार किया कि शोषण पर टिकी और मुनाफे की फिराक में तिकड़म व साजिशों वाले समाज में भी नारी की मुक्ति संभव है। खासकर संयुक्त राज्य में 1920 के प्रारम्भ से ही महिला मुक्ति आंदोलनों ने अपना ध्यान मुख्य रूप से संतति निरोध और गर्भपात अधिकारों पर ही केन्द्रिकत किया।
1920 के मध्य से जर्मनी में महिला आंदोलन बड़ी तेजी से पटरी से उतरकर नाजीवादियों के खिलाफ शुरू हुए संघर्ष की बलि चढ़ गया। यूरोप के दूसरे देशों में खासकर फ्रांस और स्पेन में फासिस्ट विरोधी लड़ाई में अपना हद तक शोषण कराने के बावजूद महिलाएँ वोट के अपने अधिकार की माँग करते थक नहीं रही थीं। उन्हें जरा भी इल्म नहीं था कि बुर्जुआजी द्वारा दूसरे विश्व युध्द में लाखों की संख्या में सर्वहारा हलाल होने के लिए सेना में भर्ती कर लिए जाएँगे।
फ्रांस में महिला आंदोलन को बहुत जल्द ही पूँजीवादी राज्य में व्याप्त तरह-तरह के दलालों जेसे यू.एफ.सी.एस. और केथोलिक महिला संगठनों द्वारा हथिया लिया गया जिनका उद्देश्य था अपने बुर्जुआ हितों की रक्षा के लिए सिर्फ उपनिवेश्वाद और फासिज्म की मुखालफत करना, न कि समूची पूँजीवादी व्यवस्था का विरोध।
हालाँकि फ्रांस के संविधान में महिला मताधिकार को स्थान नहीं दिया गया था, बावजूद इसके लयोन ब्लम ने महिलाओं को सरकार में पहले पहल प्रवेश कराया। 4 जून 1936 को तीन महिलाओं को राज्य का अवर सचिव बनाया। वामपंथी पूँजीवादी पार्टियों की मिलीभगत में इस कदम को एक परिवर्तन की तरह पेश् किया ताकि बड़ी संख्या में महिलाओं को लोकप्रिय जन मोर्चे के झण्डे तले लाकर उन्हें दूसरे विश्व्युध्द की तैयारियों में लगाया जा सके।
युध्द कार्यवाही के खिलाफ बहुत बड़ी तादाद में महिलाएँ खासकर पी.सी.एफ. के स्टालिनवादियों के झण्डे तले प्रतिरोध में शामिल हुईं। डी.गॉल ने आखिरकार 23 मार्च, 1944 को मताधिकार देकर उनकी इस 'बहादुरी' और 'देशभक्ति' के लिए ईनाम प्रदान किया ताकि महिलाएँ दक्षिणपंथी या वामपंथी दोनों में से किसी एक शोषक को अपने लिए चुन सकें।
फ्रांस में महिला मताधिकार हासिल करने के तुरन्त बाद अपनी अंधदेशभक्ति के साथ पेरिस की मुक्ति में पी.सी.एफ. खूब महिमामय हो रही थी। 1945 के युध्द में जिन महिलाओं ने श्त्रु सैनिकों के साथ यौन संबंध बनाये उन्हें इस जुर्म की सजा के बतौर गंजा कर दिया गया। उन्हें देश के तिरंगे (फ्रांस का राष्ट्र ध्वज) को कलंकित करने का और दुश्मन की साजिश में 'साझीदार' होने का दोषी माना गया । ऐसी महिलाओं को जबरदस्ती सरेआम जनता में घुमाया जाता था और उनकी खूब खिल्ली उड़ाई जाती थी।
नारीवाद: एक यौनवादी और प्रतिक्रियावादी विचारधारा
1970 के प्रारम्भ में महिला आंदोलन में सर्वहारा आंदोलन की एक भी विशेषता शेष नहीं रह गयी थी। महिला मुक्ति आंदोलन की नई आवाज था नारीवाद, जिसने महिलाओं के राजनीतिक पार्टियों में शामिल होने के विचार को सिरे से नकार दिया। नारी विरोधी होने के नाते नारीवादियों की बैठकों में पुरुषों का प्रवेश वर्जित था। यह आंदोलन अपने को एकदम 'स्वायत' मानता था और इसने इस मिथ्या धारणा को मजबूत किया कि केवल महिलांयें ही उत्पीडत हैं, पूँजीवादी व्यवस्था द्वारा नहीं, बल्कि पुरुषों द्वारा। उन्होंने यौनवादी नजरिये को पुष्ट किया जिसके चलते उन्होंने न सिरफ पुरुषों के समान अधिकारों की माँग की बल्कि पुरुषों को अपना शत्रु और वास्तविक उत्पीड़क माना। बहुत से नारीवादियों ने महिलाओं के उत्पीड़न की आर्थिक बुनियादों पर बहुत ही कम बल देते हुए मात्र उनकी यौन मुक्ति की खातिर डॉन क्विक्साटिकी आंदोलन को हाथ में लिया। सर्वहारा आंदोलन के भीतर महिलाओं के संघर्ष की जो परम्परा रही है नारीवादी आंदोलन उससे पूरी तरह अलग है। और वह टुटपुँजिया की एक प्रतिक्रियावादी विचारधारा में बदल गया जिसका कि कोई ऐतिहासिक दृष्टिकोण नहीं है, और जो मई 68 की सड़कों पर फला-फूला। यह महज़ इत्ताफाक़ नहीं है कि उसी हल्के बैंगनी रंग को इन्होंने अपने प्रतीक के लिए चुना जिसे बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ में नारीमताधिकारवादियों ने अपने लिए चुना था। 1975 में इन नारीवादियों ने उन वेश्याअओं को भी सम्मिलित कर लिया जो पुलिस दमन से मुक्त खुली छूट देह व्यापार के अधिकार की माँग कर रही थीं।
पूँजी की सेवा में रचा गया प्रपंच
सन् 1977 में संयुक्त राष्ट्र संघ ने अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस को सरकारी तौर पर मान्यता प्रदान की और उसने इस आश्य का एक प्रस्ताव पारित किया कि प्रत्येक राष्ट्र इस दिन को महिला अधिकारों के लिए समर्पित करे और अंतर्राष्ट्रीय शांति दिवस के रूप में इसे मनाये। साम्राज्यवादी लुटेरों के गढ़ राष्ट्र संघ के शांति के प्रस्तावों से जो मकसद पूरा होता है। वह महान प्रजातांत्रिक ताकतों की अगुवाई में, जो राष्ट्र संघ में जमी बैठी हैं, हुए सामूहिक कत्लेआमों के बहुत से उदाहरणों से साफ है। अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस वास्तव में सर्वहारा वर्ग की महिलाओं के खिलाफ पूँजीपति वर्ग का एक साजिश है, जिसका एक मात्र मकसद है पूँजीवादी शोषण के खिलाफ संघर्षरत सर्वहारा महिलाओं की चेतना को गुमराह कर भटकाना।
फ्रांस में मितरां के राष्ट्रपति रह्ते हुए वामपंथी (खासकर समाजवादी पारटी) नारीवादी विचारधारा के मुख्य वकील बने। 1982 में मौयरे सरकार के तहत, उसके महिला अधिकारो के मंत्री के साथ, मार्च 8 बुर्ज़ुआ जनवादी राज्य का एक निकाय बना।
तभी से पूँजी के हर वामपंथी धड़े ने नारीवादी सगठनों और नारीवादी लेखकों की जो फौज खड़ी की है, उसने सर्वहारा महिलाओं की वर्गीय पहचान को उन 'साधारण' महिलाओं में गड्डमड्ड करने में अपना योगदान दिया है। जहाँ समाज के सभी स्तरों और वर्गों की महिलाएँ अपने-अपने वर्गभेद भुलाकर 'भीड़' के रूप में इस बुर्जुआ आंदोलन में शरीक होती हैं।
आज के चुनाव प्रचार (अमरीका में हिलेरी क्लिंटन का राष्ट्रपति पद के लिए उम्मीदवार होना और फ्रांस में संगोलीन रॉयल की उम्मीदवारी) हमें बहलाने-फुसलाने का तरीका हैं कि हम उनकी इस बात पर यकीन कर लें कि सरकार की बागडोर एक महिला के हाथ में आ जाने से सर्वहारा वर्ग पर बर्बर अत्याचारों का सिलसिला खत्म हो जाएगा। वे हमें इस बात पर भी यकीन करने को कह रहे हैं कि महिला शासक के शासनकाल में युध्द कम होंगे, क्योंकि महिलाएँ प्राय: कम हिंसक होती हैं, उनमें मानवता अधिक होती है और पुरुषों के मुकाबले अधिक शांतिप्रिय होती हैं। यह शोषण का मृदुलीकरण है।
यह कोरी बकवास है और शुध्द रूप् में धोखा है। पूँजीवादी प्रभुत्व यौन की नहीं बल्कि सामाजिक वर्ग की समस्या है। राज्य की बागडोर जब भी बुर्जुआ महिलाओं के हाथों में आई है, उन्होंने अपने पूर्ववर्ती पुरुष शसकों की पूँजीवादी नीतियों को अपनाया और लागू किया है। ये सभी महिला शासक उस लौह महिला मार्गरेट थेचर के नक्षेकदम पर चलेंगी जिसे सन् 1982 के फॉकलैन्ड युध्द का नेतृत्व करने के लिए याद किया जाता है। और याद किया जाता है आई.आर.ए. के उन 10 कैदियों को मरने देने के लिए जिन्होंने राजनीतिक कैदियों के दर्जे की माँग में भूख हड़ताल की थी। (भारत में पूर्व प्रधानमंत्री इन्दिरा गाँधी और दलित मुख्यमंत्री मायावती इसी के ज्वलंत उदाहरण हैं।) इन सभी का बर्ताव एक जैसा ही है जैसे कि सरकोजी की सहयोगी महिलायें मिचिल एलियट-मैरी, राचिडा डटी, वलेरी पैक्रीज या फिर फदेला अमारा। राष्ट्र की अर्थव्यवस्था के प्रबंधन में लिंग भेद बुर्जुआजी के लिए कभी रुकावट नहीं बना है। और मालिकों के संगठन की साहेब लारेंस परीसोत ने भी अपने पूर्ववर्ती दबंग 'पुरुष' सहेबों की तरह ही बुर्जुआजी की बहुत अच्छी तरह सेवा की है।
1917 में अक्टूबर क्रांति के तत्काल पहले लेनिन ने लिखा था - "उनके जीवन काल में महान क्रांतिकारियों को उत्पीड़क वर्गों ने बराबर डराया-धमकाया व सताया है और उनकी शिक्षाओं का सामना सदा भीषण कपट, प्रचण्ड नफरत तथा झूठ के और कलंकित करने के अनैतिक अभियानों से किया है। लेकिन उनकी मृत्यु के बाद रातोंरात धो-पोंछकर उन्हें निरीह बुतों मे बदलने, संतों के रूप में स्थापित करने तथा उंनके नामों को आभामंडल से घेरने के प्रयास किये जाते हैं। ताकि दबे-कुचले वर्गों को संतावना दी जा सके तथा उन्हें धोखा दिया जा सके। इसके साथ ही उनकी क्रांतिकारी शिक्षांओं को नपुंसक बना दिया जाता है, उसकी धार कुठित कर दी जाती है और उसका एक विकृत, भौंडा रूप स्थापित किया जाता है"। (राज्य और क्रांति)
जैसा क्रांतिकारियों के साथ हुआ वैसा ही 1 मई के साथ भी हुआ है। और मार्च 8 (अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस) का हश्र भी 1 मई जैसा ही हुआ है।
उन प्रतीकों को जो पहले मज़दूर वर्ग को प्राप्त थे उसी के खिलाफ मोडने की बुर्जुआज़ी की क्षमता शासक वर्ग की हैसियत से उसका एक अत्याधिक घिनौना हथियार है। यूनियनों और मजदूर पार्टियों के साथ भी उसने यही किया, और मई 1 तथा अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के साथ भी।
प्रागितिहास के अंत समय से ही जुल्म और अत्याचार हमेशा महिलाओं की जिंदगी का हिस्सा रहा है। लेकिन पूँजीवादी व्यवस्था के अधीन इस जुल्म व अत्याचार का उन्मूलन नहीं हो सकता। कम्युनिस्ट समाज के आने पर ही महिलाएँ इससे निजात व छुटकारा पायेंगी। लिहाजा सर्वहारा वर्ग के आम आंदोलन में अपनी मुस्तैद भागीदारी से ही वे खुद को स्वतंत्र कर सकती हैं और इसी में समस्त मानवता की मुक्ति भी है।
सिलवेस्टर, 12.02.2008
इस वक्त ग्रीस में भारी जनाक्रोश भड़क रहा है और वहाँ के सामाजिक हालात विस्फोटक हैं। ग्रीस का शासक वर्ग वर्किंग क्लास पर खूब कहर बरपा कर रही है। हर पीढी, हर क्षेत्र व हर वर्ग पर इसकी भारी बुरी मार पड रही है। निजी क्षेत्र के मजदूर, सरकारी मजदूर, बेरोजगार, पेंशनभोगी, अस्थाई-ठेके पर काम करने वाले छात्र... किसी को भी इसने नहीं बक्शा है। पूरी वर्किंग क्लास के सामने भयावह गरीबी का संकट पैदा हो गया है।
सरकार के इन हमलों का जवाब वर्किंग क्लास ने देना शुरू कर दिया है। ग्रीस तथा दूसरी जगहों पर वे सडकों पर उतर आये हैं और हडताल पर जा रहे हैं, जो कि सीधे-सीधे दिखाता है कि वे उस 'त्याग' के लिए कतई तैयार नहीं है जिसकी माँग पूँजीवाद उनसे कर रहा है।
फिलहाल संघर्ष व्यापक नहीं हो पाया है। लेकिन ग्रीस के मजदूर एक कठिन दौर से गुजर रहे हैं। तब कोई क्या करे जब पूरा मीडिया और सभी राजनेता इस बात पर जोर दे रहे हों कि देश को दिवालिया होने से बचाने के लिए पेट पर पट्टी बाँधने के अलावा क्या कोई चारा नहीं है? सत्ता रूपी राक्षस के आगे कोई कैसे खडा हो? अब सोचना यह है कि प्रतिरोध के कौन-कौन से तरीके इस्तेमाल में लाये जाएँ जिससे शोषितों के पक्ष में एक संगठनात्मक शक्ति खडी की जा सके।
इन सारे सवालों का सामना सिर्फ ग्रीस के मजदूर ही नहीं कर रहे बल्कि दुनियाभर के मजदूर इनसे जूझ रहे हैं। इसमें कोई भ्रम नहीं है कि 'ग्रीस की त्रासदी' इस भूमंडल पर आने वाली महाविपत्ति का इशाराभर है। ग्रीक जैसे "कड़की पैकेजों" की घोषणा पुर्तगाल, रूमानिया, जापान और स्पेन की सरकारें पहले ही कर चुकी हैं। सरकारी क्षेत्र के कर्मचारियों की तनखवाह में वहाँ की सरकारें ५ प्रतिशत की कटौती कर चुकी हैं। ब्रिटेन में नई गठबंधित सरकार ने अपने द्वारा लक्षित इन कटौतियों की व्यापकता को अभी उजागर करना प्रारंभ ही किया है।
उस पर लगातार हो रहे ये चौतरफा हमले एक बार फिर यह साबित करते हैं कि मजदूर भले ही किसी भी राष्ट्रीयता के हों या फिर किसी भी भाग के, लेकिन उन सबके हित समान हैं और उनका शत्रु भी एक ही है। पूँजीवाद सर्वहारा को उज़रती श्रम की भारी ज़जीरें झेलने के लिए मज़बूर करता है, पर ये ज़ंजीरें ही दुनिया के सर्वहारा को एक सूत्र में बाँधने का काम करती हैं फिर भले ही वे किसी भी राष्ट्र या सीमांत के हों।
ग्रीस में हमारे जो सर्वहारा भाई-बहन हमले झेल रहे हैं, अब उन्होंने प्रतिवाद करना शुरू कर दिया है। उनकी लड़ाई, हमारी भी लडाई है।
ग्रीस के मजदूरों की एकता! एक वर्ग, एक संघर्ष!
बुर्जुआजी के बनाये और हम पर थोपे गये विभाजनों को हमें अस्वीकार करना होगा। 'फूट डालो और राज करो', सारे शासक वर्गों का पुराना सिद्धांत है जिसके खिलाफ हमें बुलंद करना होगा "शोषितों का रणनाद" : दुनिया के मजदूरो! एक हो!
यूरोप के अलग-अलग राष्ट्रों की बुर्जुआजी हमें यह यकीन दिलाने की कोशिश कर रही है कि अगर हमें "पेट पर पट्टी" बांध कर गुज़र करनी पड रही है तो ग्रीस के कारण। ग्रीस के शासक वर्ग की बेइमानी, जिसने दशकों तक देश को उधार के बूते चलाया है और सार्वजनिक धन की बर्बादी की, "यूरो की अंतर्राष्ट्रीय साख पर आये इस संकट" का मूल कारण वही हैं। एक के बाद दूसरी सरकारें इन झूठे बहानों को प्रोयग करके घाटे कम करने तथा और भी घातक उपाय लागू करने की जरूरत की व्याख्य कर रही हैं।
ग्रीस की सभी आधिकारिक पार्टियाँ, और कम्युनिस्ट पारटी इनकी अगुआ है, राष्ट्रवादी भावनाओं को भड़का रही हैं और संकट के लिए 'विदेशी ताकतों' का हाथ होने का प्रचार कर रही हें। ग्रीस के वामपंथी तथा अति वामपंथी, जो ग्रीस के पूँजीवाद की रक्षा का हर संभव प्रयास कर रहे हैं, प्रदर्शनों में नारे लगा रहे हैं: 'आई.एम.एफ. और यूरोपीयन यूनियन हाय... हाय।' 'जर्मनी हाय... हाय।'
अमरीका का स्टॉक मार्केट अगर नीचे जा रहा है तो इसकी वजह है यूरोपीयन यूनियन की अस्थिरता; कंपनियाँ अगर बंद हो रही हैं तो यह यूरो की कमजोरी का नतीजा है, जो कि डॉलर और अमरीकी निर्यात के लिए रूकावट है।
संक्षेप में कहें तो हर देश की बुर्जुआजी इस सबके लिए अपने पड़ोसी देश को जिम्मेवार ठहरा रही हैं और उन मजदूरों को ब्लैकमेल कर रही हैं जिनका वह खून चूसती हैं। उनको धमकाती है और कहती हैं: ''इन उपायों को कबूल करो अन्यथा देश कमजोर हो जाएगा और हमारे प्रतियोगी इस मौके का फायदा उठा ले जाएँगे।'' इस तरह से शासक वर्ग राष्ट्रवाद का 'टीका' हमें लगाने की कोशिश कर रहा है जो कि वर्ग-संघर्ष के लिए एक घातक विष का काम करता है।
प्रतिदव्न्दी रष्ट्रों में विभाजित दुनिया हमारी नहीं है। जिस राष्ट्र में वह रह रहा है, उसकी पूँजी के साथ नत्थी होने में मज़दूर वर्ग का कोई हित साधन नहीं है। ''राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था के बचाव'' के नाम पर आज बलिदान स्वीकार करना कल और अधिक तथा कठोर बलिदानों के लिए जमीन तैयार करना है।
ग्रीस की अर्थव्यवस्था अगर गहरे संकट के मुहाने पर है, स्पेन, इटली, आयरलैंड और पुर्तगाल अगर उनके पीछे पीछे हैं, गर ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी और अमरीका भी गहरे संकट में हैं, तो इसका कारण है मरणासन्न पूँजीवादी व्यवस्था। सभी राष्ट्रों को गहरे दर गहरे संकट में डूबते जाना है। गत ४० वर्षों से विश्व अर्थव्यवस्था इस संकट से जूझ रही है। आर्थिक मंदी की जैसे बाढ दर बाढ आ रही है। जिस आर्थिक विकास दर को हासिल करने का दावा पूँजीवाद करता है, वह खतरनाक ढंग से उधार की कृत्रिम माँग का परिणाम है। इसका नतीजा है कि आज रियलइस्टेट बाजार, कंपनियाँ, बैंक व स्टेट इस उधार के कारण औंधे मुँह नीचे आ गिरे हैं। ग्रीस का दिवालियापन तो ऐतिहासिक रूप से दिवालिया इस शोषणकारी व्यवस्था का सामान्य व्यंग्य चित्र मात्र है।
शासक वर्ग हमें बाँटना चाहता हैः सर्वहारा की जरूरत है अखंड एकात्मकता।
वर्किंग क्लास की विशाल संखयात्मक एकता ही उसकी शक्ति है।
बुर्जुआजी द्वारा की गई कटौतियों और उपाय हमारे जिंदा रहने की परिस्थितियों पर सीधा-सीधा आक्रमण हैं। इससे बचने का सर्वहारा के पास एक ही रास्ता है, मजदूरों का व्यापक प्रतिरोधी आंदोलन। इन आक्रमणों का जवाब एक दूसरे के अलगांव में, अपने कारखाने, अपने आफिस, अपने स्कूल में अकेले-अकेले लड़कर नहीं दिया जा सकता। व्यापक पैमाने पर प्रतिरोध की लडाई छेडना समय का तकाजा है। अन्यथा इसका तो एक ही विकल्प है कि अकेले लडते हुए खत्म हो जाओ और दरिद्रता व नृशंसता झेलो।
लेकिन उन ट्रेड यूनियनों ने क्या किया है जो स्वयं को संघर्ष की आधिकारिक 'विशेषज्ञ' घोषित करती रही हैं? ये जगह-जगह पर हडतालें आयोजित करती रही हैं... उनमें एकता स्थापित करने की कोशिश के बगैर। क्षेत्रीय-सैक्शनल विभाजनों को, खासकर प्राइवेट और पब्लिक सेक्टर के मजदूरों के बीच, बढावा देने में इन्होंने खूब मुस्तैदी दिखाई है। वे मजदूरों को निर्रथक 'डेज़ आफ एक्शनों' मे झोंके रखती हैं। ट्रेड यूनियनों की खासियत ही यह है कि वर्किंग क्लास को विभाजित कैसे रखा जाए। यूनियनें राष्ट्रीय पूँजीवाद के हित में काम करती हैं। इसका उदाहरण हैः मार्च के मध्य से ही ग्रीक ट्रेड यूनियनें 'ग्रीक माल खरीदो'' की रट लगा रही हैं।
ट्रेड यूनियनों के बताये रास्ते पर चलने का अर्थ ही है विभाजन और हार की राह। मजदूरों को अपने संघर्षों का नेतृत्व खुद संभालना होगा। जनरल असेम्बली के आयोजन द्वारा तथा अपनी माँगे तथा नारे निर्धारित करके, ऐसे प्रतिनिधियों का चयन करके जिन्हें वापिस बुलाया जा सके तथा उन्हें निकट के कारखानों, ऑफिसों और अस्पतालों में दूसरे मजदूर समुहों के साथ वार्ता करने के लिए बड़े पैमाने पर प्रतिनिधि-मंडल भेज कर। इन प्रतिनिधि-मंडलों का उद्देश्य होगा आंदोलन में सक्रिय भागीदारी के लिए उन्हें प्रोत्सोहित करना।
ट्रेड यूनियनों के खोल को फाड कर उससे बाहर आना, संघर्ष का नेतृत्व अपने हाथ में लेने का साहस करना, दूसरे सेक्टर के मजदूरों को विश्वास में लेने की ओर कदम बढना... आसान काम नहीं है। संघर्ष के विकास के अवरोधों में आज भी एक है वर्किग क्लास में आत्म विश्वास की कमी। अकूत ताकत से लैस होते हुए भी वह अपनी शक्ति से बेखबर है।
फिलहाल, पूँजीवाद द्वारा मजदूरों पर हमलों की हिसांत्मकता, आर्थिक संकट की बर्बरता, सर्वहारा में आत्म विश्वास की कमी - ये सब सर्वहारा संघर्ष को 'पैरालाइज' करने का काम करते हैं। ग्रीस में भी मजदूरों ने प्रतिरोध तो किया, लेकिन जिस तीव्र और व्यापक संगठित प्रतिरोध की दरकार थी उसकी कमी देखी गई। फिर भी भविष्य वर्गसंघर्ष का है। हमलों के खिलाफ एक मात्र राह है व्यापक मजदूर आंदोलनों का विकास।
कुछ लोग सवाल करते हैं, "इन संघर्षों से क्या हासिल होगा? ये हमें कहाँ ले जाकर छोडेंगे? पूँजीवाद कब का दिवालिया हो चुका है और अब सुधार की संभावनाएँ चुक गई हैं, क्या इसका अर्थ यह नहीं कि बचने के का कोई रास्ता नहीं है?" यकीनन, शोषण पर टिकी इस बर्बर व्यवस्था में मुक्ति का कोई रास्ता नहीं है। कुत्तों जैसी जिल्लत भरी जिन्दगी जीने से इंकार करने, मिल कर लडने का अर्थ है अपने सम्मान के लिए उठ खडे होना। इसका अर्थ है यह जानना कि प्रतिदव्न्दिता तथा शोषण भरी इस दुनिया में एकजुटता विद्यामान है और मज़दूर वर्ग इस बेशकीमती मानवीय अहसास को जीवंत करने की क्षमता रखता है। और फिर एक अन्य दुनिया, एक ऎसी दुनिया की संभावना उभरने लगेगी जो शोषण, राष्ट्रों तथा सरहदों से मुक्त होगी, एक दुनिया जो इंसानों के लिए बनी हो न कि मुनाफे के लिए। मजदूर वर्ग सवंय पर भरोसा कर सकता है, उसे यह भरोसा करना होगा। केवल वही उस नये समाज का निर्माण कर सकता है जिसे मार्क्स ने "अवशयकतांओं की दुनिया से निकल कर स्वतंत्रा की दुनिया मे छ्लांग लगाना" कहा और इस प्रकार मानवजाति का सवंय से सामजसय सथापित कर सकता है।
पूँजीवाद दिवालिया है, लेकिन एक दूसरी दुनिया संभव हैः साम्यावाद।
वर्ल्ड रेवोल्यूशन, नंबर 335, 15 जून - 15 जुलाई 2010
जेंग्चेंग का सिंतंग क्षेत्र, जो चीन के दक्षिणी गुअंग्जौ प्रान्त में है, 60 से अधिक अंतरराष्ट्रीय ब्रांडों के लिए 26 करोड़ जोड़े जींस का वार्षिक उत्पादन करता है, यह चीन के जींस उत्पादन का 60% और दुनिया के उत्पादन का एक तिहाई है। विश्व की जींस की राजधानी के रूप विख्यात यह पिछले ३० वर्षों के चीनी आर्थिक विकास का प्रतीक है। जून 2011 के माह में, एक 20 वर्षीय गर्भवती के साथ पुलिस के सलूक के खिलाफ हजारों मजदूरों द्वारा गुस्साए प्रदर्शन और पुलिस के साथ मुठभेडें हुईं, यह 'आर्थिक चमत्कार' के गढ़ में मजदूरों द्वारा भोगी सच्चाई है।
मजदूरों ने सरकारी इमारतों पर हमला किया, पुलिस के वाहनों को उलट दिया और पुलिस से मुठभेडें हुयी। चीनी सरकार ने प्रदर्शानों के खिलाफ 6000 अर्ध सैनिक पुलिस को सशस्त्र वाहनों के साथ भेजा, जिन्होंने 10,000 मजदूरों पर आँसू गैस द्वारा हमला किया।
पिछले साल होंडा में हड़ताल फैलने के बाद, कंपनी ने वेतन में अहम बढोत्तरी को स्वीकार किया। मजदूरों के, जिनमें से बहुत से देहातों से आए प्रवासी थे, हालिया प्रदर्शनों के रुबरु, सरकार ने दंगाइयों को चिन्हित करने वाले हर किसी को निवास का अधिकार देने की पेशकश की। चीनी शहरों में जिनके पास आवासीय मकान की रजिस्ट्री नहीं होती उन्हें स्वास्थ्य सुविधाओं, शिक्षा और अन्य सामाजिक लाभों से बंचित कर दिया जाता है।
जिन्चेंग में विरोध के ये दिन कोई अलग थलग घटना नहीं। एक सप्ताह पहले "सिचुआन प्रवासी पुलिस के साथ टकराए और गुअन्ग्ज़्हौ से लगभग 210 मील की दूरी पर, चोज्होऊ में, उन्होंने पुलिस वाहनों को उलट दिया। यह तब हुआ जब अपना पिछले दो माह का वेतन मांगते एक मज़दूर पर सिरेमिक्स फेक़्टरी, जहां वह काम कर चुका था, के अधिकारी ने हमला किया" (लॉस एंजिल्स टाइम्स, 13/6/11)।
जैसा कि फाइनेंशियल टाइम्स(17/6/11) ने लिखा "हालाँकि इस तरह के प्रदर्शनों का होना चीन में अपेक्षाकृत आम बात हैं, दोनों ही मामलों में पुलिस और गुस्साए नागरिकों के बीच गतिरोध जल्द ही हिंसा में बदल गया"।
बुर्जुआ प्रेस ने इस तथ्य को चिन्हांकित किया है कि इन टकरावों में प्रवासी मजदूर शामिल थे। चीन में 15 करोड़ 30 लाख प्रवासी श्रमिक अपने गृहनगर से बाहर रहते हैं। ग्रामीण क्षेत्रों को छोड़कर वे निर्माण स्थलों, कारखानों, रेस्तरां और नई परियोजनाओं पर, जब वे आती हैं, काम के लिए जाते हैं। उनमें से साठ प्रतिशत 30 साल से कम आयु के हैं और, सर्वेक्षणों में पूछताछ के दौरान, पुराने श्रमिकों की तुलना में युवा मजदूर अधिक यह कहने वाले हैं कि वे सामूहिक कार्रवाई में भाग लेंगे। अब शहरी क्षेत्रों में काम कर रहे श्रमिक ग्रामीण इलाकों की ओर लौटने का बहुधा कोई इरादा नहीं रखते, मसलन बहुत कम को खेती का कोई अनुभव है।
अपने मूल स्थान से उनके लगाव की मात्रा का सबूत यह है कि युवा मजदूर "अपने घर ग्राम को कम पैसे भेजते हैं। राष्ट्रीय सांख्यिकी ब्यूरो ने पाया कि 2009 में युवा प्रवासियों ने अपनी आय का करीब 37.2 प्रतिशत अपने गांव को भेजा, जबकि अधिक उमर वाले प्रवासियों ने 51.1 प्रतिशत भेजा। (28/6/11 रायटर)
चीनी पूंजीवाद की प्रतिक्रिया
चाहे हड़ताल हों या अन्य विरोध, उनसे निपटते वक्त "स्थानीय और राष्ट्रीय दोनों स्तर पर चीन सरकार की पहली वृति बल प्रयोग की है। दमन थोड़ी देर के लिए काम कर सकता है। लेकिन अगर अंतर्निहित कारणों को संबोधित नहीं किया जाता तो, चीन मे विस्फोट का जोखिम है" (19/6/11 एफटी)। मतलब यह नहीं है कि चीन दमन का रास्ता छोडने जा रहा है।
ब्लूमबर्ग (6/3/11) ने रिपोर्ट दी है कि "जबकि सरकार ने बढ़ती सामाजिक अशांति के नियंत्रण हेतु देश के चारों ओर सुरक्षा बलों को तैनात किया है, 2010 में चीन ने अपने सशस्त्र बलों से अधिक अपने आंतरिक पुलिस बल पर खर्च किया, और इस वर्ष भी ऐसा ही करने की योजना है।" लेख आगे लिखता है "सार्वजनिक सुरक्षा खर्च में भारी उछाल तब आया है जब तथाकथित जन घटनाएँ, हड़तालों से दंगो और प्रदर्शनों तक सब कुछ, वृद्धि पर हैं। 2010 में कम से कम 1,80,000 ऐसी घटनाएँ हुईं, जो 2006 से दोगुनी हैं" ऐसा कहना है बीजिंग स्थित तिसिंघुआ विश्वविद्यालय के समाजशास्त्र के प्रोफेसर सन लिपिंग का। चीनी शासक वर्ग की चिंता एक हद तक 'जन घटनाओं' के प्रसार से है, पर इस "धारणा में भी चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के लिए गहरा खतरा है कि स्थानीय विरोध एक व्यापक राष्ट्रीय जुडाव हासिल कर रहे है"(19/6/11 एफटी)
इसका मतलब यह नहीं है कि चीनी बुर्जुआज़ी 'अशांति के अंतर्निहित कारणों ' से निपट सकता है। बुनियादी रुप से, विरोध प्रदर्शनों और हड़तालों की जड़ में हैं वे परिस्थितियाँ जिसमें श्रमिक जीते और काम करते हैं। इन परिस्थितियों को थोपे बिना चीन का आर्थिक विकास संभव न होता।
चीनी पूँजीवाद, लाखों श्रमिकों के लिए सार्थक भौतिक सुधार उपलब्ध नहीं करा सकता और इसी लिए वह एक 'विस्फोट' का खतरा लिए है। लेकिन वह जानता है कि उसे दमन के अलावा भी किसी चीज़ की जरुरत है। जैसे ब्लूमबर्ग के लेख ने नोट किया "झोउ योंगकांग, जो कम्युनिस्ट पार्टी की सत्तारूढ़ पोलित ब्यूरो की स्थायी समिति, जो देश के सुरक्षा बलों को देखती है, के सदस्य हैं ने पार्टी के मुखपत्र पीपुल्स डेली मे 21 फ़रवरी 2011 के लेख में कहा कि सरकार को चाहिए कि वह ''सामाजिक संघर्षों और विवादों को अंकुरित होते ही शांत कर दे"।
सामान्यत चीनी बुर्जुआज़ी के पास संघर्ष को उनकी प्रारंभिक अवस्था में शांत करने के साधनों का अभाव है। सरकारी यूनियनें गैरलचीली हैं, उन्हें व्यापक रूप से संदेह की नज़र से देखा जाता है और वे ठीक ही राज्य के हिस्से के रूप में जानी जाती हैं। जो 'स्वतंत्र' यूनियनें अस्तित्व में हैं वे बहुत सीमित पैमाने पर हैं। इस लिए यह एक दिलचस्प बात है कि हान डॉग्फान, एक कार्यकर्ता जिसने 1989 में त्याननमेन चौक पर प्रादर्शनों के दौरान एक यूनियन की स्थापना की थी, अपने विचार संशोधित कर रहा है ।
गार्जियन (26/6/11) के लेख में वह कहता है कि हाल के प्रदर्शन और बेहतर मजदूरी और काम की बेहतर परिस्थितियों की मांगें दर्शाती हैं कि "उन मांगों को मुखरित कर सकने वाली किसी सच्ची ट्रेड यूनियन के बिना, मजदूरों के पास सड़कों पर उतरने के सिवाय बहुत कम विकल्प हैं"। वह सोचता है कि "सक्रियतावाद के इस नए युग ने चीन की सरकारी ट्रेड यूनियन, अखिल चीन ट्रेड यूनियन्स फेडरेशन, को मजबूर कर दिया है कि वह अपनी भूमिका का पुनर्मूल्यांकन करे और मजदूरों के हितों का प्रतिनिधित्व करने वाला एक सच्चा संगठन बनने की राह खोजे"। चीनी शासक वर्ग निश्चित रूप से चाहता है कि सरकारी यूनियनों का श्रमिक वर्ग पर अधिक प्रभाव हो, लेकिन श्रमिकों के लिए यूनियनी संगठन का कोई रूप नही है जो उनकी जरूरतों को पूरा कर सके। श्रमिक वर्ग के लिए मसला एक तरह की यूनियन की दूसरे से अदला-बदली का नही, बल्कि है अति प्रभावी सामूहिक कार्यावाही के लिए साधनो की खोज का। यह तथ्य कि हड़तालें और प्रदर्शन इतनी जल्दी पुलिस के साथ टकराव में बदल जाते हैं, उन सबूतों में से एक है जो मज़दूरों को दिखाता है कि उनके संघर्षों के लिए जरुरी है अंतत: एक ऐसी ताकत का निर्माण जो चीनी पूँजीवादी राज्य का विनाश कर सके।
कार, 1 जुलाई 2011
हमें कोरिया से अभी-अभी खबर मिली है कि कोरिया की सोस्लिस्ट वर्कर्स लीग (Sanoryun) के 8 जुझारू दक्षिण कोरिया के 'राष्ट्रीय सुरक्षा कानून'1 के तहत गिरफ्तार कर लिए गए हैं ऒर ऊन्हे 27 जनवरी को सजा सुनाई जानी है।
इसमें कोई दो राय नहीं है कि यह एक राजनीतिक मुकद्दमा है, ऒर यह, शासक वर्ग जिसे 'न्याय' कहता है, उसका एक मजाक है। इस हकीकत के तीन सबूत हैं:
इन जुझारूऒ पर जो इलजाम है वह समाजवादी होने के वैचारिक जुर्म के सिवा कुछ नहीं। दूसरे शब्दों में, वो इस बात के गुनाहगार ठहराये गये हैं कि उन्होने मज़दूरों का खुद का, अपने परिवार का ऒर रहने के अपने हालातों की हिफाज़त के लिए खुला अहवान किया है और पूँजीवाद का असली चेहरा खुलेऑम उजागर किया है। अभियोग पक्ष द्वारा संभावित सजांएँ उस दमन की एक और मिसाल हैं जो दक्षिण कोरिया का शासक वर्ग उन सब पर बरपा करता है जो उसकी राह में आने की हिम्मत करते हैं। इस निर्दयी दमन ने पहले ही 'बेबी स्ट्रोलर्स बिग्रेड' की उन जवान माताऒं को अपना निशाना बनाया है जो 2008 में अपने बच्चों के साथ मोमबत्ती प्रदर्शन में गईं और जिन्हें बाद में कानूनी व पुलिस उत्पीड़न का शिकार होना पड़ा।4 इस दमन ने सान्गयोन्ग के उन मज़दूरों को भी अपना निशाना बनाया जिन्हें दंगा पुलिस ने, जो उनके कारखाने में घुस आई थी, पीटा।5
लंबी कैद की सजाओं के रूबरू, गिरफ्तार जुझारूऒ ने अदालत में अनुकरणीय शालीनता का आचरण किया और इस अवसर का प्रयोग मुकदमे के राजनीतिक चरित्र को साफ तौर पर नंगा करने के लिए किया। हम नीचे ट्रिब्यूनल के सामने ऒ सी चियोल के आखिरी भाषण का अनुवाद दे रहे हैं।
इस क्षेत्र में सैनिक तनाव उभार पर हैं, पिछले साल नवम्बर में यौंगपोंग द्वीप में उकसावे भरी गोलीबारी और उत्तर कोरियाई शासन की गोलियों से नागरिकों का मारा जाना, तथा इसके बदले में दक्षिण कोरियाई फोज के साथ अभ्यास के लिए अमेरिकी नाभिकीय विमानपोत की उस क्षेत्र के लिए रवानगी। इस हालत में यह बयान पहले से ज्यादा सच हो जाता है कि ऑज मानवता के सामने दो ही विकल्प हैं समाजवाद या बर्बरता।
अमेरिका ऒर उसके सहयोगियों का प्रचार उत्तरी कोरिया को एक 'गैंगस्टर राज्य' के रूप में चित्रित करने की कोशिश करता है जिसका शासक गुट अपनी भूखी जनता के निष्ठुर दमन की बदौलत ऐशोऑराम से रहता है। यह निस्संदेह सच है। लेकिन दक्षिण कोरियाई सरकार द्वारा माताऒं, बच्चों, संघर्षशील मजदूरों और अब समाजवादी जुझारूओं पर बरपा दमन स्पष्ट दिखाता है कि, अंतिम विश्लेषण में, हर राष्ट्रीय बुर्जुआज़ी भय और क्रूरता के बल पर राज करता है।
इन हालात के मद्देनजर हम गिरफ्तार जुझारुऒं के साथ अपनी पूर्ण एकजुटता ज़ाहिर करते हैं, उनके साथ अपने संभवतः राजनीतिक मतभेदों के बावजूद। उनका संघर्ष हमारा संघर्ष है। हम उनके परिवारों और साथियों के साथ दिली हमदर्दी और एकता जाहिर करते हैं। हम internationalism.org पर मिले समर्थन तथा एकज़ुटता के हर संदेश को खुशी से उन साथियों तक पहुँचा देंगे।6
ऒ सी चियोल का कोर्ट में आखिरी भाषण, दिसम्बर 2010 (कोरियन से अनुवादित)
कई सिद्धांतों ने पूँजीवाद के इतिहास में घटित संकटों को समझाने की कोशिश की है। इनमें से एक आपदा सिद्धांत है, जो मानता है कि जिस घड़ी पूँजीवाद के विरोधाभास अपने उच्चतम बिंदु पर पहुंचेंगें, पूँजीवाद स्वयं ढह जाएगा और स्वर्ग की एक नई सहस्राब्दी के लिए रास्ता बनाएगा। इस सर्वनाशवादी या अति अराजकतावादी विचार ने पूँजीवादी उत्पीड़न और शोषण से सर्वहारा की पीड़ा को समझने की राह में भ्रम तथा गलतफहमियं पैदा की हैं। बहुत से लोग इस तरह के एक गैर वैज्ञानिक दृष्टिकोण से संक्रमित हुए हैं।
एक और सिद्धांत है आशावाद जिसे पूँजीपति वर्ग हमेशा फैलता है। इस सिद्धांत के अनुसार, पूँजीवाद में अपने विरोधाभासों से उबरने के साधन मौजूद हैं और असल अर्थव्यवस्था सट्टेबाज़ी को नष्ट करके ठीक काम करती है।
उपर्युक्त दो से अधिक परिष्कृत एक और सिद्धान्त है, और यह दूसरों से अधिक प्रबल है, जो मानता है कि पूँजीवादी संकट आवधिक हैं, और हमें मात्र तूफान के थमने तक शांतिपूर्वक इंतज़ार करने और फिर सफर शुरू करने की जरूरत है।
ऐसी सोच 19वीं शताब्दी में पूँजीवाद के दृश्य के लिए उचित थी: यह 20वीं और 21वीं सदी के पूँजीवादी संकटों के अनुरूप नहीं। 19वीं सदी में पूँजीवादी संकट पूँजीवाद के असीमित विस्तार के चरण के संकट थे जिन्हे मार्क्स ने कम्युनिस्ट घोषणापत्र में अतिउत्पादन की महामारी कहा। पर अतिउत्पादन के परिणामस्वरूप अकाल, गरीबी और बेरोजगारी फैलने का रूझान वस्तुओं की कमी के कारण नहीं था। बल्कि बहुत सारे उत्पादों, बहुत ज्यादा उद्योग और बहुत ज्यादा संसाधनों के कारण था। पूँजीवादी संकट का एक अन्य कारण है पूँजीवादी प्रतियोगिता की पद्धति की अराजकता। 19वीं सदी में, नए उज़रती श्रम तथा मालों के लिए नए निकास तलाशने के लिए नए क्षेत्रों को जीत कर पूँजीवादी उत्पादन संबंधों को फैलाया तथा गहराया जा सकता था। इसलिए इस दौर में संकटों को एक स्वस्थ दिल की धडकन जैसा समझा गया।
20वीं सदी में पूँजीवाद का ऐसा आरोही चरण पहले विश्व युद्घ के मोड़ के साथ समाप्त हो गया। तब, माल उत्पादन वा उज़रती श्रम के पूँजीवादी संबंधों का दुनिया भर में विस्तार हो गया था। 1919 में कम्युनिस्ट इंटरनेशनल ने तात्कालिक पूँजीवाद को 'युद्ध या क्रांति' के दौर का नाम दिया। एक ओर, अति-उत्पादन की पूँजीवादी प्रवृत्ति साम्राज्यवादी युद्ध की ओर धकेल रही थी ताकि दुनिया के बाजारों को हथियाया तथा नियंत्रित किया जा सके। दूसरी ओर, 19 वीं सदी के विपरीत, इसने विश्व-अर्थव्यवस्था को अस्थिरता और विनाश के अर्द्ध स्थायी संकट पर निर्भर बना दिया।
इस तरह के विरोधाभास का परिणाम थीं दो ऐतिहासिक घटनाएं, प्रथम विश्व युद्ध और 1929 का विश्व संकट, जिनकी कीमत थी दो करोड जानें और 20-30% की बेरोजगारी दर। और इसने एक तरफ तथाकथित "समाजवादी देशों" के लिए मार्ग प्रशस्त किया जहां अर्थव्यवस्था के राष्ट्रीयकरण के माध्यम से राज्य पूँजीवाद उभरा, तो दूसरी तरफ थे निजी पूंजीपति वर्ग तथा राज्य नौकरशाही के संयोजन के साथ उदार देश।
दूसरे विश्वयुद्ध दे बाद तथाकथित 'समाजवादी देशों' समेत समूचा विश्व पूँजीवाद एक असाधारण खुशाहाली में से गुज़रा जो कि 25 साल चले पुनर्निमाण तथा करज़ों का फल थी। इसके चलते सरकारी नौकरशाहों, ट्रेडयूनियन नेतांओं, अर्थशास्त्रियों और तथाकथित 'मार्क्सवादियों' ने जोरशोर से घोषित किया कि पूँजीवाद ने अंतिम रूप से अपने संकटों पर पार पा लिया है। पर जैसे निम्न उदाहरण दिखाते हैं, संकट निरंतर बदतर हुआ है: 1967 में पाउँड स्टर्लिंग का अवमूल्यन, 1971 का डालर संकट, 1973 में तेल कीमतों का झटका, 1974-75 की आर्थिक मंदी, 1979 का मुद्रासफिति संकट, 1982 का ऋण संकट, 1987 का वाल सट्रीट संकट, 1989 की आर्थिक मंदी, 1992-93 में यूरोपीय मुद्राओं की अस्थिरता, 1997 में एशिया में 'टईगर्स' तथा 'ड्रैगनस' का संकट, 2001 में अमेरिकी 'नई अर्थव्यवस्था' का संकट, 2007 का सब-प्राईम संकट, लेहमान ब्रद्रस आदि का वित्तीय संकट तथा 2009-2010 का वित्तीय संकट।
क्या संकटों की यह श्रांखला 'अवर्ती' तथा 'आवधिक' है? बिल्कुल नहीं। यह पूँजीवाद की असाध्य बिमारी, भुगतान के काबिल बाज़ारों की कमी, मुनाफे की गिरती हुई दर का फल है। 1929 में विश्व महामन्दी के वक्त राज्यों के विशाल हस्तक्षेप के चलते बदतर हालात पैदा नहीं हुए। पर हालिया वित्तीय संकट तथा आर्थिक मंदी के वाक्यात दिखाते हैं कि पूँजीवादी व्यवस्था को अब राज्य के बेल आउट धन तथा रजकीय करज़ों के फौरी कदमों की मदद से नहीं बचाया जा सकता।
उत्पादन शक्तियों के प्रासार की असंभवता के चलते पूँजीवाद अब एक गतिरोध में है। पर पूँजीवाद इस गतिरोध पर पार पाने के लिए एक जीवन मरण के संघर्ष में है। यानि, वह अब अंतहीन रूप से रजकीय करज़ों पर निर्भर है और नकली बाज़ार पैदा करके अपने अतिउत्पादन के लिए निकास पाता है। 40 साल से विश्व पूँजीवाद भारी करज़ों के जरिये ही तबाही से बचता आया है। पूँजीवाद के लिए करज़ों का वही अर्थ है जो एक नशेड़ी के लिए नशे का। अंत में वह करज़े एक बोझ के रूप में लौटेंगे तथा तथा दुनिया भर में मज़दूरों के खून पसीने की मांग करेंगे। उनका परिणाम दुनिया भर के मज़दूरों की गरीबी, साम्राज्यवादी जंग तथा पर्यावरण की तबाही भी होगा।
क्या पूँजीवाद पतन पर है? हां। यह आकस्मिक विनाश की ओर नहीं बल्कि व्यबस्था के एक नए पतन, पूँजीवाद के अंत होते इतिहास की आखिरी मंजिल की ओर बढ़ रहा है। हमें 100 साल पुराने नारे 'युध या क्रांति?' को गंभीरता से याद करना होगा और एक बार फिर 'बर्बरता तथा समाजवाद' के विकल्प की तथा वैज्ञानिक समाजवाद के अभ्यास की ऎतिहासिक समझ तैयार करनी होगी। इसका अर्थ है समाजवादियों को मिलकर काम करना तथा एकजुट होना होगा, उन्हें क्रांतिकारी मार्क्सवाद के आधार पर द्रढ़ता से खड़े होना होगा। हमारा मकसद है मद्रा, माल, बाज़ार, उज़रती श्रम तथा विनमय मुल्य पर आधारित पूँजीवाद पर पार पाना और स्वतंत्र व्यक्तियों के एक समुदाय में मुक्त श्रम के एक समाज का निर्माण करना।
मार्क्सवादी विश्लेशण ने पहले ही पुष्ट किया है कि पूँजीवादी उत्पादन प्रणाली का संक़ट पहले ही निर्णायक बिन्दू पर पहुँच गया है और इसकी बजह है उत्पादन तथा बेशीमूल्य की बसूली की प्रक्रिया में मुनाफे की गिरती दर तथा बाज़ारों की संतृप्ति। हम अब सवंय को पूँजीवाद यानि बर्बरता और समाजवाद, साम्यवाद यानि सभ्यता के बिकल्प के सामने पाते हैं।
एक, पूँजीवादी व्यवस्था की हालत यह है कि वह उज़रती श्रम के गुलामों को भी पोषित नहीं कर सकती। हर रोज़ दुनिया में एक लाख लोग भूख से मरते हैं, हर 5 सेकण्ड में पांच साल का एक बच्चा भूख से मर जाता है। 84 करोड लोग स्थायी कुपोषण का शिकार हैं और विश्व की 600 करोड आबादी का एक तिहाई हर रोज़ बढ़ती कीमतों के चलते जीने के लिए लड रहा है।
दो, मौज़ूदा पूँजीवादी व्यवस्था आर्थिक समृद्धि का भ्रम भी जिन्दा नहीं रख सकती। भारत और चीन के आर्थिक चमत्कार छलावा साबित हुए हैं। 2008 की पहली छमाही में चीन में 2 करोड मज़दूरों की नौकरियां छूटीं और 67000 कंपनियां दिवाला हों गईं।
तीन, पर्यावरणीय आपदा के आसार हैं। ग्लोबल वार्मिंग के सवाल पर, 1896 से धरती का तापमान 0.6% बढ़ गया है। 20वीं सदी में उत्तरी गोलार्ध में पिछले 1000 साल की तुलना में कहीं अधिक तापमान बढ़ा है। 1960 के दशक के अंत से बर्फ से ढ़का हुआ क्षेत्र 10% सिकुडा है और उत्तरी ध्रुव पर बर्फ की पर्त 40% सिकुडी है। 20वीं सदी में औसतन समुद्र तल 10-20% तक उपर उठा है। यह पिछले 3000 साल के औसतन उभार से 10 गुणा ज्यदा है। पिछले 90 साल में धरती का दोहन लापरवाह वनोन्मूलन, भू-क्षरण, प्रदूषण (वायू, जल), रासायनिक तथा आणवीय पदार्थों के प्रयोग, पशुओं तथा वनस्पति के विनाश, महामारियों के विसफोटक उदय के रूप में सामने आया है। पर्यावरणीय विनाश को एक एकीकृत तथा विश्वव्यापी रूप में देखा जा सकता है। लिहाज़ा यह कहना मुशकिल है यह समस्या भविष्य में कितनी गंभीरता से विकसित होगी।
तो पूँजीवादी दमन तथा शोषण के खिलाफ मज़दूर वर्ग के संघर्ष का इतिहास कैसे विकसित हुआ है? वर्ग संघर्ष सतत विद्यमान रहा है पर सफल नहीं रहा। पहला इंटरनेशनल उभरते पूँजीवाद की शक्ति के चलते फेल हुआ। दूसरा इंटरनेशनल उस द्वारा अपना क्रांतिकारी चरित्र त्यागने तथा राष्टीयतावाद के चलते फेल हुआ। और तीसरा इंटरनेशनल स्तालिनवादी प्रतिक्रांति के कारण फेल हुआ। विशेषकर 1930 से प्रतिक्रांतिकारी रूझानों ने राज्य पूँजीवाद को 'समाजवाद' का नाम देकर उसके चरित्र के बारे मे मज़दूर वर्ग को गुमराह किया है। अंत में, उन्होंने विश्व पूँजीवादी व्यवस्था के सहायक का रोल अदा किया, दो गुटों के टकराव को छुपा कर विश्व सर्वहारा को दबाया तथा शोषित किया।
फिर, पूँजीपति वर्ग के अभियान के अनुसार पूर्वी यूरोप का तथा स्तालिनवाद का ढहन 'उदार पूँजीवाद की सपष्ट जीत', 'वर्ग संघर्ष का अंत' और यहां तक कि सवंय मज़दूर वर्ग़ का अंत था। इस तरह के अभियान का फल था मज़दूर वर्ग की चेतना तथा उसके जुझारूपन में गंभीर उतार।
1990 के दशक में मज़दूर वर्ग ने पूरी तरह हार नहीं मानी पर अतीत के संघर्ष के औज़ारों, युनियनों की तुलना में न तो उसका बजन था न उसके पास क्षमता थी। पर फ्रांस तथा आस्ट्रिया में पेशनों पर हमले 1989 में मजदूर वर्ग के लिए अपना संघर्ष फिर शुरू करने के लिए नया मोड़ बने। मजदूर संघर्षों मे सबसे ज्यादा उछाल आया केन्द्रीय देशों में: 2005 में अमेरिका में बोईंग में संघर्ष तथा न्यूयार्क में ट्रांस्पोर्ट मजदूरों की हडताल, 2004 में डाय्मलर तथा ओपल में संघर्ष, 2006 के बसंत में डाक्टरों के संघर्ष, 2007 में जर्मनी में टेलीकाम में संघर्ष, 2005 मे ब्रिटेन में लंदन एयरपोर्ट मज़दूरों के संघर्ष तथा फ्रांस मे 2006 मे सीपीई के खिलाफ संघर्ष। पिछडे देशों में, 2006 में दुबाई में निर्माण मजदूरों के संघर्ष, 2006 के बसंत में बंगलादेश में टेक्सटाईल मजदूरों के संघर्ष और मिस्र में 2007 के बसंत में टेक्सटाईल मजदूरों के संघर्ष।
2006 से 2008 के बीच दुनिया के मजदूर बर्ग के संघर्षों का पूरी दुनिया में फैलाब हो रहा है : मिस्र, दुबाई, अलजीरिया, वेनेजुएला, पीरू, तुर्की, ग्रीस, फिनलैण्ड, बुल्गारिया, हंगरी, रूस, इटली, जर्मनी, फ्रांस, अमेरिका तथा चीन। जैसे फ्रांस के पेंशन सुधारों के खिलाफ हालिया संघर्षों ने दिखाया, मजदूर संघर्ष के अब अधिकाधिक आक्रामक बनने का अनुमान है। जैसे हमने उपर दिखाया, विश्व पूँजीवाद के पतन के अंतिम रूझान ने तथा संकट द्वारा मजदूर वर्ग पर डाले बोझ ने, पहले के तजुरबे के उल्ट पूरी दुनिया में मजदूर संघर्षों को भडकाया है।
हम अब इस बिकल्प के आमने सामने हैं : बर्बरता में, इंसानों के रूप में नहीं बल्कि पशुओं के रूप में जीना अथवा खुशी से स्वतन्त्रता में, समानता में तथा मानवीय सम्मान से जीना।
कोरियन पूँजीवाद के विरोधाभासों की ग़हराई तथा विस्तार तथाकथित विकसित देशों से कहीं गंभीर है। कोरियन मजदूरों का दर्द यूरोपीय मजदूरों की तुलना में कही अधिक लगता है चूँकि वहां अतीत में मजदूरों ने उपलब्धियां हासिल की हैं। यह मजदूरों के मनवीय जीवन का सवाल है जिसे न तो कोरियन सरकार की जी20 की शिखर मीटिंग की मेज़बानी के थोथे दिखावों से नापा जा सकता है अथवा न ही मात्रात्मक आर्थिक आंकडों से नापा जा सकता है। पूँजी चरित्र से ही अन्तर्राष्ट्रीय है। विभिन्न राष्ट्रीय पूँजियां सदा प्रतिस्पर्धा में तथा टकराव में रही हैं पर पूँजीवादी व्यवस्था को बनाये रखने के लिए, इसके संकट को छुपाने तथा इंसान के रूप मे मजदूरों पर हमलों के लिए उन्होंने सदैव तालमेल किया है। मजदूर पूँजीपतियों के खिलाफ नहीं बल्कि पूँजीवादी व्यवस्था के खिलाफ संघर्ष करते हैं जो केवल अपने मुनाफे को वढ़ाने के लिए तथा निर्बाध प्रतिस्पर्धा के लिए काम करती है।
ऐतिहासिक रूप से मार्क्सवादी हमेशा इतिहास के कर्ता मजदूर वर्ग के साथ मिलकर संघर्ष करते रहे हैं। यह वे मानवीय समाज के तथा सामाजिक व्यवस्थाओं के ऎतिहासक नियमों का चरित्र उज़ागर करके करते हैं और करते हैं असल मानवीय जीवन की दुनिया की ओर राह दिखा कर तथा अमानवीय व्यवस्था तथा कनूनों की अडचनों की निन्दा करके।
इस कारण उन्होंने पारटियों जैसे संगठनों का निर्माण किया तथा व्यवहारिक संघर्षों मे शामिल हुए। कम से कम दूसरे विश्व्युध के समय से मार्क्सवादियों की ऎसी व्यवहारिक गतिविधियों को कभी न्यायिक प्रतिबन्ध का सामना नहीं करना पडा। इसके उल्ट, उनके विचार तथा व्यवहार मानव समाज के विकास में योगदान के रूप मे अति मूल्यवान माने जाते रहे हैं। मार्क्स की पूँजी अथवा कम्युनिस्ट घोषणापत्र जैसी श्रेष्ट कृतियां बाइबल से अधिक पढ़ी जाती रही है।
एसडब्ल्यूएलके (SWLK) का यह मुकदमा ऎतिहासिक है जो विचारों के दमन को समेटे कोरियन समाज का बर्बर चरित्र समूची दुनिया को दिखाता है; यह दुनिया में समाजवादियों पर मुकदमों के इतिहास में गन्दा साबित होगा। भविष्य में अधिक खुले तथा व्यापक समाजवादी आंदोलन होंगे, दुनियाँ में तथा कोरिया में मर्क्सवादी आंदोलनों का शक्तिशाली विकास होगा। कनूनी ढ़ांचा संगठित हिंसा के मसलों से निपट सकता है पर वह समाजवादी आंदोलनों, मार्क्सवादी आंदोलनों को नहीं दबा सकता। चूँकि वे तब तक जारी रहेंगे जब तक मानवता तथा मजदूर विद्यमान रहेंगे।
समाजवादी आंदोलन और उसका व्यवहार कनूनी सज़ा का भागी नहीं हो सकता। इसके विपरीत, वह सम्मान तथा विश्वास के लिए उदाहरणा होना चाहिये। मेरे समापन के शब्द यह हैं:
फुटनोट
[1]ऒ सी चियोल, यान्ग हो सिक, यान्ग जुन सियोक, ऒर चोई यान्ग इक 7 साल की जेल में हैं जबकि नाम गुन्ग वोन, पार्क जुन सियोन, जियोन्ग, वोन हुन्ग ऒर ओ मिन इक 5 साल की सजा काट रहे है। अपने कठोरतम रूप में 'राष्ट्रीय सुरक्षा कानून' के तहत अभियुक्त को सजाए मौत तक का प्रवधान है।
2 देखें https://english.hani.co.kr/arti/english_edition/e_national/324965.html ... [10]
3https://en.internationalism.org/icconline/2006-north-korea-nuclear-bomb [11]
4 See Hankyoreh: https://english.hani.co.kr/arti/english_edition/e_editorial/318725.html [12]
5 https://www.youtube.com/watch?v=F025_4hRLlU [13]
6हम हमारे पाठकों का ध्यान भी लोरेन गोल्डनर द्वारा विरोध की पहल की तरफ कराना चाहते हैं (https://libcom.org/forums/organise/korean-militants-facing-prison-08012011 [14])। जबकि हम भी लोरेन की "लिखने में" मेल अभियान की प्रभावशीलता में शक के बारे में सहमत है , हम उसके साथ है कि "इस मामले पर सहमत है कि एक अंतरराष्ट्रीय सुर्खियों से इन अनुकरणीय जुझारूयों की अंतिम सजा पर एक प्रभाव हो सकता है। विरोध पत्र न्यायाधीश डू किम के इस पते पर भेजा जाना चाहिए: [email protected] [15], (न्यायाधीश किम को अग्रेषित करने के लिए संदेश 17 जनवरी तक प्राप्त हो जाना चाहिए).
नीचे प्रकाशित परचा मजदूर वरग के एक अल्पमत द्वारा अपने संघर्ष को अपने हाथ में लेने की कोशिश को दिखाता है। यह परचा गारे दा लेएस्ट (पेरिस का एक रेलवे स्टेशन) की अंतर व्यवसायक आम सभा के कुछ व्यक्तिगत सहभागियों द्वारा निकाला गया था। और भी अनेक उदाहरण हैं। टूर्स या रेनंस में मज़दूरों ने अंतर व्यवसायक आम सभाओं में भाग लिया है। फ्रांस में सब जगह सीएनटी-एअईटी (अनार्को सिंडिकेल) ने लोकप्रिय तथा सवायत्शासी सभाओं के लिए पहल की है।
आज फ्रांस में जब आंदोलन खतम हो रहा है, यह मीटिंगे बहुधा संघर्ष समूहों जेसी बन गई हैं जो अलग-अलग पेशे के जूझारू मजदूरों को एक जगह आने व आगे आने वाले संघर्ष के लिए तैयार होने की जगह प्रदान दरते हैं। "मजदूरों की मुक्ति खुद मजदूरों का काम होगी" (कार्ल मार्क्स)।
गारे दा लेएस्ट की आम सभा के कुछ व्यक्ति समूहों का पर्चा
सभी मज़दूरों के नाम
गारे दा लेएस्ट के रेल मजदूरों तथा कुछ अध्यापकों की 18 सितंबर की पहल पर, हम करीब 100 लोग जो (रेलवे, शिक्षा, डाक, फार्म उत्पाद ओर कंप्यूटर क्षेत्रों के) वेतनभोगी कामगार हैं, रिटायर हैं, बेरोजगार हैं, छात्र हैं, कागजों वा बिना कागजो के मजदूर हैं, यूनियन व गैर-यूनियनीकृत हैं, 28 सितंबर व 5 अक्तूबर को मिले। मुद्दा था पेंशन तथा शासक वर्ग द्वार हम पर किये जा रहे व्यापक हमलों तथा उन्हें वापिस लेने के लिए सरकार को मज़बूर करने के परिपेक्ष्य के बारे मे विचार करना।
हाल ही के कार्रवाई दिवस पर हममें से हजारों ने मुजाहिरे व हडतालें की। सरकार फिर भी पीछे नहीं हटी। एक जनआंदोलन ही उसे पीछे हटने को मज़बूर कर सकता है। यह सोच उभरी हैं अनिश्चितकालीन, आम, पुननिरीक्षित होती हडतालों तथा अर्थव्यवस्था को ठप्प करने के मुद्दे पर विचार विमर्श के बाद....
हम यह तय कर सकते हैं कि आंदोलन की शक्ल कैसी होगी। इसका निर्माण हमें अपने कार्य-स्थलों पर हडताल समितिओं द्वारा तथा अड़ोस-पड़ोस में आम सभाओ द्वारा करना होगा। हमें मजदूर तबके के बडे से बडे संभव समूह को संगठित करना ही होगा जिसे देश के स्तर पर चुने हुए व वापस बुलाए जा सकने वाले नुमाइंदे समन्वित करेंगे। हमे अपनी लड़ाई का रुप तथा अपनी मांगें तय करनी होगी... यह काम हम किसी को नहीं करने दे सकते।
यूनियन नेताओं को, चेरेक (CFDT), थाइबोल्ट (CGT) ओर साइ को, हमारे नाम पर फैसले लेने देना हमें फिर एक नई हार की तरफ ले जाएगा। चेरेक इस बात का हिमायती है की 42 साल तक अंशदान देने वाले को ही पेंशन मिले। हमे थाइबोल्ट पर भी यकीन नहीं है क्योंकि वह कानून वापसी की माँग नहीं करता। ओर हम यह कतई नहीं भूल सकते कि 2009 में जब हम में से हजारो को लेआफ दे दिया गया था और हम सवंय सघंर्ष कर रहे थे तो वह सरकोजी के साथ शैंपेन पी रहा था। हमे तथाकथित रेडिकल्स पर भी यकीन नहीं है। अपना रेडिकलपन दिखाने के लिए मैइली (FO) प्रादर्शनों में ऑबरी से हाथ मिलाता है, जबकि वह पीएस (समाजवादी पारटी) के साथ 42 साल की पैशन योजना के पक्ष मे वोट देता है। जहां तक दक्षिणी एकजुटता, सीएनटी अथवा धुरवाम (LO, NPA) का सवाल है, उनके पास यूनियनों को मजबूत बनाने के सिवाए हमारे लिए कुछ भी नहीं है। कहना यह है कि हमें उन लोगों के पीछे एकजुट करना जो हमारी हार का समझौता करते हैं।
अगर वो आज नवीकरणीय हडतालों के पक्षधर हैं तो इसीलिए कि चीज़ों को अपने नियंत्रण से निकलने से रोका जा सके। हमारे संघर्षों को नियंत्रित करना ही उन्हें समझौता मेज पर जाने का हक देता है.... क्यों? ताकि, जैसा कि सीएफटीसी में शामिल सात यूनियन संगठनों द्वारा हस्ताक्षरित तथा सालिडेरिटी को दिए गए पत्र मे कहा गया है. "यूनियन संगठनों के नज़रिये को पेश करना ताकि उन सभी सही तथा प्रभावी कदमों को परिभाषित किया जा सके जो पैंशनों पर खर्च को साझा करके, पैंशन व्यवस्था के स्थायित्व की गरंटी दे सके"। क्या कोई यकीन कर सकता है कि उन लोगों से कोई सरोकार रखा जा सकता है जिन्होंने हमारी पैंशन पर 1993 से हमला किया है, जिन्होने हमारे जीवनोपार्जन व काम के हालातों का सुनियोजित विनाशा किया है?
सरकार को व शासक वर्ग को मात्र एक ही एकजुटता पीछे हटने को मजबूर कर सकती है, वह है पब्लिक तथा प्राइवेट सेक्टर को, कार्यरत्त तथा बेरोजगारों को, रिटायर मज़दूरों तथा नौजवानों को, स्थानीय तथा प्रवासी मज़दूरों को, यूनियन तथा गैर-यूनियन मज़दूरों को साझी सभाओं मे एकीकृत करता एक आधारभूत आंदोलन जो अपने संघर्षों का नियंत्रण अपने हाथ में ले सके। हम समझते हैं कि पैंशन कानून की वापसी हमारी न्यूनतम माँग है। पर यह काफी नहीं है। हजारों बुजुर्ग मज़दूरों से पहले ही 700 यूरो महीने पर गुजर करने की अपेक्षा की जा रही है। जबकि लाखों नौजवान, रोजगार की कमी के कारण, आरएसए पर फाकाकशी कर रह हैं। हममें से लाखों के सामने पहले ही ये सवाल मुंह बाए खडे हैं : क्या हमें खाने को मिलेगा या नहीं, घर होगा या नहीं, बीमारी में दवा मिलेगी या नहीं? यह सब हम नहीं चाहते।
हाँ, पैंशनों पर हमले पर्वत की परत भर हैं। जबसे संकट शुरू हुआ है, शासक वर्ग, राज्य की मदद से, जन सेवांओं में से लाखों नौकरियों की कटोती करके लाखों मजदूरों को सडकों पर फेंक चुका है। और यह शुरुआत भर है। संकट जारी है और आने वाले समय में हम पर हमले अधिकधिक निष्ठुर होने वाले हैं।
इस हालत से निबटने के लिए हम वामपंथी पारटियों (PS, PCF, PG ...) पर यकीन नहीं कर सकते। ये सब बुर्जुआज़ी के मामलों के वफादार मैनेजर भर हैं और कभी भी प्राइवेट उधोग और वित्त संपदा पर या बडे भूस्वामित्व पर सवाल नहीं उठाते। और स्पेन में, तथा यूनान में, सत्ताधारी वाम ही है जो मजदूरों के खिलाफ पूँजी के हमले को संगठित कर रहा है। अपनी पैंशनों, स्वास्थय, शिक्षा, यातायात के साधनों के बचाव के लिए और यह सुनिश्चित करने के लिए कि हमे भूखा ना मरना पडे, मज़दूरों को अपने द्वारा पैदा दौलत को अपनी जरूरतों की पूर्ति के लिए वापिस लेना होगा।
इस संघर्ष में हमे अपने किन्ही व्यक्तिगतगत हितों के लिए नहीं लडना है बलि्क लडना है पूरी मजदूर आबादी के हितों के लिए जिसमे शामिल हैं छोटे किसान, मछुआरे, कारीगर तथा छोटे दुकानदार जिन्हें पूँजीवाद के संकट ने गरीबी मे धकेल दिया है। हमें संघर्षो मे उनका अगुआ बनकर उनको राह दिखानी है ताकि पूँजीवाद के साथ बेहतरी से संघर्ष किया जा सके।
चाहे कार्यरत्त हों या बेरोजगार, अस्थाई नौकरी वाले हों या 'बिना पेपर' वाले, और हम चाहे किसी भी देश के हों, हम सब मजदूर एक ही नाव मे हैं।
आइए अंतर व्यवसायक आम सभा में विचार करें। मेटरो रिपब्लिक भवन में 12 अक्तूबर को शाम 6 बजे व 13 अक्तूबर को शाम 5 बजे।
गारे दा लेएस्ट की अंतर व्यवसायक आम सभा के स्थाई व अस्थाई मजदूर।
8 अक्टूबर 2010
भारत भर में रोड ट्रांसपोर्ट मज़दूर बुरी तरह से शोषित हैं। चाहे ड्राईवर हों या कंडक्टर या वर्कशाप मज़दूर, सभी का हाल एक ही है। बहुत कम तनखाहें, काम के लंबे और अनाप-शनाप घंटे और कठोर स्थितियाँ, अधिकारी तबके का निरंतर दबाब और दमन। रोज़ की जिन्दगी की यही दिनचर्या है। यह हर जगह के लिए सच है। फिर चाहे राज्यों के रोड ट्रांसपोर्ट निगमों के मज़दूर हों। चाहे राजधानी के, जहां शासक वर्ग अपनी शान की नुमायश खातिर कामंनवेल्थ खेलों जैसे तमाशों पर पैसे खरच करने में कोइ कम नहीं छोडता, डीटीसी मज़दूर हों। यूपी रोड ट्रांसपोर्ट निगम के मज़दूरों की हालत बाकी मज़दूरों से अलग नहीं है।
पूँजीवादी संकट और पूँजी की कड़की की नीतियां
पूँजीवादी संकट की मार मज़दूरों की काम और जीवन की स्थितियों को और भी खराब कर रही है। इस संकट ने 2008 से समूची दुनिया को झकझोर डाला है। दुनिया के अलग अलग हिस्सों में संक़ट की मार से करोडों करोड लोगों की नौकरियां गईं हैं जिसमें दुनिया का अगुआ अमेरिका सबसे आगे है। संकट के झटकों से ग्रीस, आयरलैण्ड, पुर्तगाल और अन्य देशों की पूरी-पूरी अर्थव्यवस्थाओं का पतन हुआ है। हर जगह पूँजीपति वर्ग मज़दूर वर्ग पर कडकी तथा बदहाली थोप रहा है।
यही वह संदर्भ है जिसमें दुनिया भर में पूँजी के कडकी के कदमों के खिलाफ मज़दूरों और शोषितों की युवापीढी की लडाई विकसित हुई है और हो रही है।
सिर्फ 2010 के अंतिम महीनों मे ही ग्रीस, तुर्की, फ्रांस, ब्रिटेन तथा इटली में मज़दूरों तथा छात्रों ने पूँजी की कडकी की नीतियों के खिलाफ विशाल लडाईयां लडीं। टियूनेशिया तथा मिस्र के हालिया जनविद्रोह तथा मज़दूरों के संघर्षों को फिलहाल चाहे जनवाद के भ्रमजाल से भटकाने की भारी कोशिशें हो रही हैं, पर वे बुनियादी रूप बदतरीन जीवन हालातों के खिलाफ शोषित आबादी तथा मज़दूरों के गुस्से का विस्फोट हैं।
भारत में इस संकट की मार का फल है मज़दूर वरग के खिलाफ पूँजीपति वरग के तथा सरकार के अनेक कदमों का और तेज़ हो जाना:
- इकोनमी के सभी हिस्सों से मज़दूरों का नौक्ररियों से निकाला जाना। भर्तियों का बंद होना;
- स्थायी नौकरियों के खिलाफ सरकार का तथा निजी क्षेत्र का अभियान;
- उसके स्थान पर हर जगह, हर क्षेत्र में अस्थायी बहालियां तथा ठेकेदारी प्रथा को आगे बढाना।
- इन कदमों का मकसद और परिणाम है मज़दूरों की उज़रतों तथा उनके जीवन स्तरों को नीचे गिराना। इस ध्येय की पूर्ति के लिए पूँजीपति वरग तमाम हथकण्डों को इस्तेमाल कर रहा है जिसमें सरकारी निगमों मे निजीकरण भी शामिल है।
मज़दूर वर्ग के जीवनस्तरों के खिलाफ पूँजीपति वर्ग और सरकारी हुकमरानो के हमलों का एक और कारगर हथियार है कीमतों मे बेहिसाब बढोतरी। खुद सरकारी आंकडों मुताबिक पिछले कई सालों से खाध्य-मुद्रास्फिति की दर 18% के आस पास रही है। यह भी औसत है जो जीवन-यापन की खास चीज़ों की कीमतों में और भी बढोतरी को छिपाता है। शासक वरग के इन कदमों का कुल-मिला कर असर यह है कि देशा की अर्थव्यवस्था के तथाकथित विकास के बावज़ूद मजदरों की जीवन स्थितियां बद से बदतरीन हुई हैं।
वर्ग संघर्ष का विकास
अरसे से भारत में मज़दूर वर्ग के विभिन्न हिस्से इन हमलों के खिलाफ लडने की कोशिश कर रहे हैं। आज इसके अनेक उदाहरण हमारे सामने हैं: गुडगांव मे हीरो होण्डा, होण्डा मोटर साईकल्स तथा अन्य अनेक कारखानों में हडतालें। चेन्नाई मे हुन्डई तथा अन्य कारखानों मे संघर्ष। बैंक, एयरलांयस तथा एयरपोर्ट कर्मियों के संघर्ष। अलग अलग रज्यों, जैसे केरल, तामिलनाडू, में राज्य रोड ट्रांसपोर्ट वर्करस की हडतालें भी इसी रुझान की अभिव्यक्ति हैं। इनमें 2008 और 2010 के बीच की कशमीर के राज्य रोड परिवहन निगम के मज़दूरो की हडातालें खास अहमियत रखती है। जहां मज़दूरों ने ना सिरफ अलगाववादियों तथा सरकारी सेना की झडपों के बीच में कई बार हडतालें की। बल्कि ट्रांसपोर्ट मज़दूरो की हडतालें अप्रैल 2010 में कशमीर के पांच लाख सरकारी कर्मियों को 10 दिन की हडताल में खींचने का भी कारक बनीं।
निगम मेनेजमेंट के हमलों के खिलाफ यूपी रोड ट्रांसपोर्ट मज़दूरों के संघर्ष इस आम विकसित होते वर्ग संघर्ष का हिस्सा हैं। जुलाई 2006 में बनारस, गोरखपुर तथा कानपुर क्षेत्र में यूपी रोड ट्रांसपोर्ट निगम के स्थायी तथा अस्थायी मज़दूरों ने बेहतर तनखाहों तथा अस्थायी मजदूरों के स्थायीकरण को लेकर हडताल की। यूपी सरकार ने इसे एसमा लगा कर तथा दमन से दबाने का प्रायस किया। सैकड़ों स्थायी-अस्थायी कर्मियों को नौकरी से निकाल दिया गया। जुलाई 2009 में इलाहाबाद क्षेत्र के ट्रांसपोर्ट मज़दूरों ने हडताल की। अप्रैल 2010 में पूरे प्रदेश में निगम के 15000 अस्थायी मज़दूरों ने स्थयीकरण, बेहतर मज़दूरी तथा काम के बेहतर हालातों की मांग को लेकर हडताल की जिसे फिर प्राशासन ने दबा दिया।
यूपी रोड ट्रांसपोर्ट मज़दूरों का पिछ्ले सालों का एक जुझरू आदोलन था फरवरी 2008 का उनका संघर्ष। इसमे 25000 मज़दूर शामिल हुए। सरकार ने इस आंदोलन को हिंसा और दमन से दबा दिया। 5 फरवरी 2008 को अपनी मांगों के लिए प्रदर्शन कर रहे 8000 ट्रांसपोर्ट मज़दूरों पर पुलिस ने लाठियां बरसायी और फायरिंग की। इसमें एक मज़दूर जानलेवा रूप से घायल हो गया तथा 20 से अधिक अन्य मज़दूर घायल हुए। सैकडों मज़दूरों को हिरासत में ले लिया गया।
मज़दूर संघर्ष - युनियनी चालों द्वारा परास्त
पर ध्यान देने की बात यह है कि ट्रांसपोर्ट मज़दूरों के तमाम संघर्षों के पिटने में सिरफ सरकार का ही नहीं, युनियनों का भी उतना ही बड़ा हाथ है।
युनियनों द्वार ये तमाम कार्यवाहियां मज़दूरों के गुस्से तथा दबाब में की गईं। इनसे पहले युनियनों ने मज़दूरों में हर तरह के विभाजनों को उभारा : ड्रईवरों तथा कंडक्टरों के बीच, बस कर्मियों तथा डिप्पो कर्मियों के बीच, स्थायी तथा अस्थायी कर्मियों के बीच और जातिय तथा पूँजीवादी राजनीतिक गुटबन्दियों (बीएसपी बनाम एसपी, कांग्रेस बनाम बीजेपी आदि) के आधार पर। इस प्रकार मज़दूरों के संघर्षों के शुरू होने से पहले उनकी एकजुटता को मज़बूत करने की बजाए उसे खोखला किया गया। और युनियनों को अगर मज़दूरों के दबाब में हडतालों का आवाहन करना पडा तो उन्होंने उन्हें एक-दो दिन के रस्मी संघर्षों तक सीमित रखने का प्रयास किया। इससे पहले कि ये संघर्ष आगे बढ पाते, युनियनों ने नकली समझोतों की आड में उन्हें खतम कर दिया। इन सभी हथकन्डों से युनियनों ने न सिरफ मज़दूरों के इन संघर्षों को नुकसान पहुँचाया बल्कि संघर्ष के उनके ज़ज्बे को भी कमज़ोर करने का भरसक प्रयास किया।
पर यह चरित्र सिरफ यूपी रोड ट्रांसपोर्ट निगम में सक्रिय युनियनों का ही नहीं है। आज सभी जगह यनियनों का यही हाल है। और यह हाल सभी तरह की युनियनों का है फिर चाहे वे कांग्रेस, बीजेपी, बीएसपी के साथ जुडी युनियनें हों या सीपीआई, सीपीएम अथावा माओवादियों से जुडी युनियने हों या "स्वतंत्र" युनियनें। न सिरफ भारत में बल्कि दुनिया के तमाम देशों में युनियनों की आज यही भूमिका है : मज़दूरों को विभाजित रखना, उनके संघर्षों को विकसित होने से रोकना और न रूक पाए तो उसे रस्मी संघर्ष में बदलना और इस प्राकार पूँजीवादी शोषण के सुचारू चलन को यकीनी बनाना।
मज़दूर संघर्ष के विकास की राह - युनियनी नियंत्रण से बाहर संघर्ष
इसी लिए आज अगर हम दुनिया में मज़दूरों के संघर्षों पर नज़र डालते हैं तो कुछ चीज़ें पाते हैं। मज़दूरों के संघर्ष वहीं आगे बढ पाए हैं जहां मज़दूर युनियनों के नियंत्रण से बाहर आकर अपने संघर्षों को अपने हाथों मे लेने का प्रयास कर पाए। यह मज़दूरो ने अपनी आम सभाएँ गठित करने के प्रयास करके किया। आम सभाएँ मज़दूरों के लिए अपने संघर्ष, उसके रास्ते, उसकी मांगों पर विचार करने तथा फैसले करने का स्थान हैं। आम सभाएँ स्थापित करने के साथ ही, संघर्षों की जीत के लिए एक और जरूरी कदम है उन्हें फैलाना। ट्रांसपोर्ट मज़दूरों का तथा मज़दूर वर्ग के अन्य तमाम तबकों का एक दूसरे की ओर हाथ बढाना। दुनिया भर के हालिया मज़दूर संघर्षों के यही सबक हैं।
यूपी रोड ट्रांसपोर्ट निगम के मज़दूरों के गुस्से को बेपथ करने तथा उन्हें हतोत्साहित करने का युनियनों का अंतिम प्रपंच हाल में सामने आया। उन्होंने 7 फरवरी 2011 को हडताल की घोषणा की। अनेक बार की तरह ही इस बार भी, इससे पहले के हडताल हो पाए युनियनों ने 5 फरवरी को ही घोषणा की - सरकार ने उनकी मांगों प्रर गौर का आशवासन दिया है।
इसके साथ ही हडताल को वापिस ले लिया। इसके खिलाफ मज़दूरों में गुस्से का भडकना स्वभाविक था। कानपुर डिपो में मज़दूरों ने इकटठा होकर युनियनों के इस भीतरघात का विरोध किया। इस मीटिंगे में मज़दूरों ने डिस्कस किया कि संघर्ष को आगे बढाने के लिये यह जरूरी है कि उसे युनियनों के छिकंजे से निकाल कर अपने हाथों मे लिया जाए। इसके लिए डिपो के तथा अन्य मज़दूरों की आमसभाएँ बुलाने तथा अलग-थलग लडने की बजाए, निगम के तमाम मज़दूरों तथा शहर के अन्य मज़दूरों के साथ मिल कर लडने की बात रखी गई। यह अपने आप में एक छोटे अल्पांश का प्रायास था तथा इन बहसों में डिपो के दो सौ के करीब मज़दूर ही शामिल हुए। पर यह संभवतः मज़दूर वर्ग के भीतर विकसित होते एक रूझान की अभिव्यक्ति हैं। युनियनों पर सवालिया निशान लगाने तथा संघर्ष को अपने हाथ में लेने के रूझानों मज़बूत होना ही मज़दूर वरग के संघर्षों के विकास की राह खोल सकता है।
अलोक/आरबी, 14 फरवरी 2011
दिल्ली के राष्ट मंडल खेल स्थल पर खिलाडियों के ठहरने व अन्य सुविधाओ की खस्ता हालत को लेकर मीडिया मे बहुत बडा कांड बानाया जा रहा : बडे खिलाडी नाम वापस ले रहे हैं, बहुत सी टीमें अपना आगमन टाल रही हैं या वो होटलों मे रहकर खेलगाँव के तैयार होने का इंतजार कर रही हैं। राष्ट मंडल खेल के ब्रांडनाम का नुकसान हो रहा है!
लेकिन यह कांड खेल स्थल पर निर्माण कार्यो में लगे मजदूरों द्वारा झेले जा रहे हालातों के सामने कुछ भी नहीं।
इन निर्माण स्थलों पर 70 तथा दिल्ली मेट्रो की निर्माण साइटों पर 109 मजदूर मर चुकें है। लेकिन इसकी सही तादाद का किसी को पता नही है क्योंकि बहुत से मजदूर रजिस्टृड नही हैं। यह बामुश्किल हैरान करने वाला है:
"कामगार बहुधा बुनियादी सुरक्षा सुविधाओं जैसे कि हेल्मेट, मास्क तथा दस्तानों के बिना काम कर रहे हैं। मजदूरों को अगर जूते दिये भी जाते हैं तो उनकी कीमत उनके वेतन से काट ली जाती है। दुर्घटनायें तो लगभग हर साईट पर होती हैं लेकिन उन्हें श्रमिक मुआवज़ा कमिश्नर तक बहुत ही कम पंहुचाया जाता है और उनका कानूनी मुआवज़ा या तो रोक लिया जाता है या कम कर दिया जाता है। सिवाय एक प्राथमिक सहायता किट के, मेडिकल सुविधांएं भी साईट पर कहीं ही मौजूद है।" (Hindu, 01.08.2010)
जान जोखिम मे डालकर काम करने वाले ये मजदूर न्यूनतम निर्धारित मजदूरी भी नही पाते। "इन सभी साइटों पर मजदूरों को न्यूनतम निर्धारित मजदूरी का एक तिहाई या आधा ही मिलता है... और मजदूरों को अमानवीय हालातों मे रहने को मजबूर किया जाता है।" यह कहना है पीपुल्स युनियन फार डैमोक्रैटिक राइटस (पीयूडीआर) के शशि सक्सेना का (Hindu, 1608.2010)। खासकर वे 10 से 12 घंटे प्रतिदिन, देर रात तक, दिन प्रतिदिन बिना छुटटी के काम कर रहे हैं। "कनूनी" रुप से बनता तुछ ओवर टाइम भी उनसे छीन लिया जाता है: दस घंटे के दिन के लिए 100 स्र्पया, बारह घंटे के दिन के लिए 200 स्र्पया ।
पीयूडीआर ने निवास सूविधाअओं को प्राथमिक बताया है : शौचालयों व स्वास्थय सेवाओं की कमी, हेय सफाई व्यवस्था, टिन व पलास्टिक के शैड जो मलेरिया व डेंगू बुखार के प्रजनन स्थल हैं और दिल्ली के मौसम के प्रतिकूल हैं जो सर्दियों मे सर्द व गर्मियों मे बहुत गर्म रहता है। इससे भी बदतर, टाइम्स आफ इन्डिया करेस्ट ने विजय को एक एक गांव से भरती किया। आकर उसने पाया: "खुदा हुआ फुटपाथ जहां उसको सुन्दर गुलाबी पत्थर बिछाने थे, दिन मे उसका काम स्थल था और रात को शयनकक्ष।" ऐसे तकरीबन 150000 प्रवासी मजदूर इस काम के लिए रखे गये। बाल बच्चेदार मजदूरों के पास अपने बच्चों को इन्हीं शोचनीय हालातों में, बिना स्कूल की व्यवस्था के, जीता देखने के सिवा कोई चारा नहीं नही है।
जैसे कोलकत्ता में मार्च 2010 में हुयी 43 टैक्सटाइल मजदूरों की मौत दिखाती है (https://en.internationalism.org/ci/2010/workers-burn-india-shines [18]), ऐसे खतरनाक हालात मात्र राष्ट्रमंडल खेलों में ही नही हैं।
आखिर में, जैसे बीजिंग में औलम्पिक के दौरान और दक्षिण अफ्रीका में विश्व कप के दौरान हुआ, झुग्गी झोपडी निवासियों को इन आयोजनों की खातिर रास्ते से हटा दिया गया गोया कि वो कीडे मकोडे हों। पिछले दिसम्बर मे एक रात-आश्रय गिरा दिया गया जिससे 250 लोग बेघर हो गये; अप्रैल में 350 दलित तामिल परिवारों की रिहायश एक स्लम बुलडोज़र से गिरा दिया गया ताकि खेलों के लिए कार पार्किंग बनायी जा सके। दिल्ली की मुख्य मंत्री शीला दीक्षित ने माना है: "हमारे यहां लगभग 30 लाख लोग राष्ट्रमंडल खेलों की वजह से बेघर हो जाएंगे।" (आउटलुक, अप्रैल 2010)
भारतीय अर्थव्यवस्था : एक घातक वृद्धि
इस साल भारतीय अर्थव्यवस्था की वृद्वि दर साढे आठ फीसद रहने की आशा है जो कि इस तरह के घोर शोषण पर आधारित है़। "इसकी प्राइवेट कंपनियां बहुत मजबूत हैं, भारतीय पूंजीवाद करोडों उद्यमियों द्वारा संचालित है जो प्रचंड तरीके से अपना काम कर रहे हैं" (द इकोनमिस्ट, 2.10.10)। पूंजीवाद को इसी तरह पसंद है।
पर यह सर्वहारा के लिए बेहतर हालात में अनुदित नही हुआ है। राष्ट्रमंडल खेलों के कार्यस्थल पर मजदूरों की दुर्दशा क्रूरतापूर्ण शोषण की मात्र एक मिसाल है। स्थाई नौकरियां घटी हैं व अस्थाई नौकरियों में इजाफा हुआ है जैसा कि हीरो होंडा गुडगांव में बवजूद इसके कि उसका उत्त्पादन बढ़ कर 43 लाख मोटरसाइकल हो गया है। इसी दौरान टेक्सटाइल व हीरा उधोग में मज़दूरों की नौकरियां छूटी हैं। सरकारी तौर पर 2009 में बेरोजगारी 10.7% रही। जबकि हकीकत इससे अलग है। यह स्टेशनों या पर्यटन स्थलों पर देखा जा सकता है जहां दर्जनों व्यक्ति कुछ रूपयों के लिए रिक्शा चलाने या सोवनिर बेचने के लिए चिल्लाते हैं। ये वे लोग हैं जिन्हे पूंजीवाद अपने उत्पादन में समाहित नही कर पाया है।
अर्थव्यवस्था में जैसे जैसे अधिक धन आया है, कीमतें 'समृद्व" अर्थव्यवस्थाओं के अनुरुप ऊपर चढ़ गई हैं और मजदूर यातायात, सेहत, शिक्षा, घर जैसी जरूरी चीज़ों के लिए संघर्ष करते रह गए हैं। सरकारी तौर पर भोज्य पदार्थो की मूल्य वृद्वि दर 18 % है।
अर्थव्य्वस्था की वृद्वि दरें जबकि ऊंची हैं, पर भारतीय अर्थव्य्वस्था के पास पतनशीलत पूंजीवाद के उन हालातों से बचने का कोई रास्ता नही जिसने अन्यों के लिए मंदी का खतरा पैदा कर रखा है। यह वृद्वि दर उन विदेशी संस्थागत निवेषकों पर टिकी हुई है जो 2008 से पहले कैसीनों अर्थव्य्वस्था में लिप्त थे। इसने कर्ज व सकल घरेलू उत्पाद के अनुपात को 20 पांइट तक चढा दिया है और 2007 में सार्वजनिक ऋण जीडीपी का 83% था। कॉल सैंटर व आउटर्सोसिंग के साथ यह सेवा क्षेत्र की वजह से था। देश में उद्योग के भारी विकास के लिए जरूरी बुनियादी ढांचे की अभी भी सख्त कमी है। जिस उद्योग का विकास हुआ है वह उन छोटी सस्ती कारों के समान है, जो वैसे ही सस्ते श्रम पर टिकी हैं तथा सेवा क्षेत्र मे लगे कामगारों के घरेलू बाज़ार के लिए लक्षित हैं। विकास की मौज़ूदा ऊंची दरों के होते हुए भी, जैसे किसानों की हालत में गिरावट आई है, वे शहरों की तरफ पलायन या खुदकुशी के लिए मज़बूर हुए हैं (see 'The Indian boom: illusion and reality' [19])।
जो भी हो, राष्ट्रमंडल खेलों, ओलिंपिक तथा अन्य बडे एकाकी आयोजनों के लिए विशाल स्थलों तथा स्टेडियमों का निर्माण बहुधा महंगा सफेद हाथी साबित हुआ है और आवश्यकतः आर्थिक स्वास्थ्य की निशानी नहीं।
एकमात्र उत्तर मजदूर वर्ग का संघर्ष
हिन्दुस्तानी मजदूर वर्ग की भयावह हालत के बारे में, जिसे पीयूडीआर(PUDR) एवम क्राई (CRY) ने बाखूबी बयान किया है और जिस द्वारा संगृहीत आंकडों पर यह लेख आधारित है, मानवीय स्तर पर क्षोभित हुए बिना पढ़ना नामुमकिन है। इन अपराधो का जवाब जनवादी सुधार नही हो सकता। भारत पहले ही एक जनवादी देश है जहां पूंजीवाद ने मजदूर वर्ग हितों को पैरों तले कुचल रखा है। न ही इन अपराधो का जवाब मजदूरों की कानूनी सुरक्षा है जो सरलता से तोड दिए जाते हैं, और न ही परोपकार में है, कुछ खा़स लोगों की इससे कितनी ही मदद क्यों ना हो। अब हम यह इंतजार नही कर सकते कि भारतीय अर्थव्यवस्था उभरे और हमें बेहतर हालात दिलाए। चूंकि भारतीय अर्थव्यवस्था भी समूचे विश्व, जो कर्जों मे डूबा है, वही कर्ज़ जो भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए ईधंन का काम कर रहा है, के असर से अछूती नही रह सकती।
यह समझना भी जरूरी है कि मौजूदा हालात पूंजीवादी व्यवस्था की वजह से ही हैं और लगातार मुनाफे के लिए होने वाले संघर्ष की उपज है। ये सब हालात मौजूदा पूंजीवादी व्यवस्था के मुकम्मल खात्मे के जरिए ही खतम हो सकते हैं। तब तक इन्हें मात्र कम किया जा सकता है, वह भी मजदूर वर्ग के बडे पैमाने के प्रतिरोध द्वारा जैसा कि पिछले साल गुडगांव के कार मजदूरों ने, कोलकत्ता के जूट मजदूरों ने, एयर इंडिया के कर्मचारियों ने और कश्मीर के उन सरकारी कर्मचारियो ने किया जो, बावजूद इसके कि एक तरफ राज्य की बंदूक थी तो दूसरी ओर अलगाववादियों की, अपने हितों की रक्षा के लिए एकजुट हो पाए।
अलेक्स, 3 अक्टूबर 2010
लीबिया की हालिया घटनाओं को समझना मुश्किल है। एक बात स्पष्ट है: जनता को हफ्तों तक दमन, भय और अनिश्चितता झेलनी पडी है। शुरुआत में हजारों लोग सरकारी दमन के कारण मारे गए। लेकिन अब वे सरकार और प्रतिपक्ष की देश की सत्ता हथियाने की लडाई का शिकार हो रहे हैं। वे किसके लिए मर रहे हैं? एक तरफ गद्दाफी देश पर अपना कब्जा बनाये रखने के लिए लड रहा है। दूसरी तरफ है लीबीयन नेशनल काउन्सिल, स्वघोषित "क्रांति की आवाज़", जिसका मकसद है पूरे देश पर अपना नियंत्रण सथापित करना। सर्वहारा को अपराधियों के दो धडों मे से एक को चुनने को कहा जा रहा है। लीबीया मे उनसे कहा जा रहा है कि वे राज्य और अर्थव्यवस्था पर नियंत्रण के लिए लीबीयन पूँजीपति वर्ग के प्रतिद्वंद्वी हिस्सों में लडे जा रहे गृह युद्ध में सक्रिय भाग लें। दुनिया के बाकी हिस्सों में हमे गद्दाफी के विरोधियों के बहादुराना संघर्ष के समर्थन के लिए प्रोत्साहित किया जा रहा है। मजदूरों का किसी भी गुट के समर्थन में कोई हित नहीं।
मिस्र और ट्यूनीशिया के आंदोलनों से प्रेरित, लीबिया में घटनाएं गद्दाफी के खिलाफ एक जन विरोध के रूप में शुरु हुईं। लगता है, पहले प्रदर्शनों के क्रूर दमन ने कई शहरों में क्रोध के विस्फोट को प्रोत्साहन दिया। 26 फरवरी 2011 के 'द इकोनमिस्ट' के अनुसार, 15 फरवरी को बेनगाज़ी में लगभग 60 युवकों के प्रदर्शन ने आरंभिक चिंगारी का काम किया। इसी तरह के प्रदर्शन अन्य शहरों में भी हुए और सभी को गोलियां मिली। बीसिओं युवा लोगों की हत्या के समक्ष, हजारों युवा लोग राज्य बलों से हताश लडाईयों के लिए सड़कों पर उतर आए। इन संघर्षों ने महान साहस की कार्रवाई देखी। बेनगाज़ी की जनता ने सुना कि भाड़े के सैनिकों तथा फोजियों को हवाई अड्डे में भेजा जा रहा है। उन्होंने हवाई अड्डे तथा उसके रक्षकों पर चढाई कर दी तथा भारी नुकसान के बावजूद उसे अपने नियंत्रण में ले लिया। एक अन्य कार्रवाई में, नागरिकों ने बुलडोजरों व अन्य वाहनों पर नियंत्रण कर लिया तथा तथा उनको लेकर भारी हथियारों से लैस बैरकों में जा पहुंचे। दूसरे शहरों में भी जनता ने राज्य के दमनकारी बलों को खदेड दिया। शासन का जवाब था और अधिक दमन। जिसका नतीजा यह हुआ कि सैनिकों और अधिकारियों ने प्रदर्शनकारियों को मारने से इनकार कर दिया और इस प्रकार सशस्त्र बलों का बिखराब हो गया। एक सैनिक गार्ड ने एक कमांडिंग अधिकारी की गोली मारकर तब हत्या कर दी जब उसने गोली चलाने का आदेश जारी किया। लगता है शुरू में यह क्रूर दमन और आर्थिक कष्ट में वृद्धि के खिलाफ लोकप्रिय गुस्से का एक असली विस्फोट था, खासकर शहरी युवा लोगों की ओर से।
लेकिन लीबिया में स्थिति टयूनीशिया और मिस्र से इतनी अलग क्यों है? उन देशों में दमन के बावजूद, सामाजिक असंतोष को संभालने का मुख्य साधन था लोकतंत्र। ट्यूनीशिया में बेरोजगारी के खिलाफ श्रमिक वर्ग और आबादी के विशाल हिस्सों के बढते प्रदर्शन एक तरह से रात भर में इस अन्धी गली में डाल दिये गए कि बेन अली की जगह कौन लेगा। अमेरिकी सेना के मार्गदर्शन में टयूनीशियाई सेना ने राष्ट्रपति को चलता बनने को कहा। मिस्र में मुबारक को जाने में थोडा वक्त लगा पर उसके प्रतिरोध ने भी यह सुनिश्चित करने में मदद की कि समूचा असंतोष उससे छुटकारा पाने पर केंद्रित किया जा सके। एक चीज़, जिसने अंततः उसे धक्का दिया, थी बेहतर परिस्थितियों और वेतनों के लिए हडतालों का भडकना। यह दिखाता है कि श्रमिक जबकि सरकार के खिलाफ भारी प्रदर्शनों में भाग ले रहे थे, वे अपने स्वयं के हितों के बारे में भूले नहीं थे। और लोकतंत्र को एक मौका देने के नाम पर वे अपने हितों को ताक पर रखने को तैयार नहीं थे।
मिस्र और ट्यूनीशिया दोनों में सेना राज्य की रीढ़ है और वह राष्ट्रीय पूँजी के हितों को पूँजी के विशिष्ट गुटों के हितों के ऊपर रखने में सक्षम थी। लीबिया में सेना की वह भूमिका नहीं है। गद्दाफी शासन ने जानबूझकर दशकों से सेना को, और इसके साथ ही राज्य के हर उस भाग को जो प्रतिद्वंद्वियों के लिए शक्ति का एक आधार बन सकता था, कमजोर रखा था। "गद्दाफी ने सेना को कमजोर रखने की कोशिश की ताकि वह उसका तख्ता ना पलट सके जैसे उसने राजा इदरिस का तख्ता पलटा था" पॉल सुलिवान जो वाशिंगटन स्थित नेशनल डिफेंस यूनिवर्सिटी में एक उत्तरी अफ्रीका विशेषज्ञ हैं, ने कहा। परिणाम है "एक बुरी तरह प्रशिक्षित सेना जिसे एक बुरी तरह प्रशिक्षित नेतृत्व संचालित कर रहा, जो स्वंय पतली हालत में है और जिसमें कर्मियों की स्थिरता नहीं है और बहुतेरे अतिरिक्त हथियार अनियंत्रित फैले हुए हैं" (ब्लूमवर्ग, 2 फरवरी 2011)। मतलब यह कि शासन के पास हर सामाजिक असंतोष का एक ही जवाब है: नग्न दमन।
अपनी नज़रों के सामने अपने बच्चों का संहार होते देख, राज्य की प्रतिक्रिया की क्रूरता मजदूर वर्ग को हताश गुस्से के एक प्रकोप में बहा ले गई। लेकिन प्रदर्शनों में जो मज़दूर शामिल हुए, वे बहुधा व्यक्तिगत तौर पर ही हुए : गद्दाफी की बंदूकों के सामने तनने का अत्याधिक हौसला दिखाने के बावजूद, मजदूर अपने वर्ग हितों को सामने लाने में सक्षम नहीं हुए।
ट्यूनीशिया में, जैसे हमने कहा, आंदोलन श्रमिक वर्ग तथा गरीबों के बीच से बेरोजगारी तथा दमन के खिलाफ शुरू हुए। मिस्र का सर्वहारा हाल के वर्षों में संघर्ष की अनेक लहरों में संलग्न रहने के बाद मौजूदा आंदोलन में दाखिल हुआ। इस अनुभव ने उसे अपने स्वंय के हितों की रक्षा करने की अपनी क्षमता में विश्वास दिया। इस बात का महत्व प्रदर्शनों के अंत में सामने आया जब हडतालों की एक लहर फूट पडी। (मिस्र पर हमारा लेख देखें)
लीबिया के सर्वहारा ने एक कमजोर स्थिति में वर्तमान संघर्ष में प्रवेश किया। तेल-क्षेत्र में एक हड़ताल की रिपोर्ट हैं। लेकिन यह बताना असंभव है कि वहां मजदूर वर्ग की अन्य कोई गतिविधि भी है। संभव है ऐसी कोई गतिविधि रही हो, लेकिन हमें कहना पडेगा कि एक वर्ग के रूप में श्रमिक वर्ग कमोबेशी अनुपस्थित ही है। इसका मतलब यह है कि मज़दूर वर्ग शुरू से ही अराजकता और भ्रम की स्थिति से उत्पन्न तमाम वैचारिक विष के समक्ष असुरक्षित रहा है। पुराने राजशाही ध्वज का प्रकट होना और चन्द दिनों में ही बगावत के प्रतीक के रूप में उसकी स्वीकृति, यह दिखाता है कमजोरी कितनी गहरी है। यह झंडा "मुक्त लीबिया" के राष्ट्रवादी नारे के साथ साथ सामने आया। वहां पर जातीयतावादी सोच भी अभिव्यक्त हुई है। कई मामलों मे गद्दाफी शासन का समर्थन अथवा विरोध भी क्षेत्रीयतावादी अथवा कबीलाई हितों के आधार पर तय हुआ। और कबीलाई नेताओं ने अपने अधिकार का इस्तेमाल करके स्वंय को बगावत के शिखर पर सथापित करने की कोशिश की। वहां कई प्रदर्शनों में इस्लामवाद की एक मजबूत उपस्थिति दिखाई पडती है तथा "अल्लाहो अकबर" का नारा भी सुना जा रहा है।
विचारधाराओं की इस दलदल ने स्थिति इतनी खराब बना दी है कि यदि सैकड़ों नहीं तो दसियों हजार विदेशी मज़दूरों को देश से पलायन की जरूरत महसूस हो रही है। विदेशी मज़दूर एक राष्ट्रीय ध्वज, उसका रंग चाहे कोई भी हो, के पीछे क्यों लामबन्द हों? एक असली सर्वहारा आंदोलन शुरू से ही विदेशी मज़दूरों को अपने में शामिल करेगा क्योंकि उसकी मांगें सांझी होंगी : बेहतर वेतन, काम की बेहतर स्थितियों और सभी मज़दूरों के दमन का अंत। राष्ट्र, जाति अथवा धर्म की परवाह किए बिना बे एकजुट हो गए होते चूंकि उनकी ताकत है उनकी एकता।
गद्दाफी ने इस जहर का पूरा उपयोग करके कोशिश की है कि वह मज़दूरों तथा जनता को उसकी 'क्रांति' को विदेशियों, जातीयतावाद, इस्लामवाद तथा पश्चिम द्वारा पेश खतरे के खिलाफ अपने समर्थन मे ला सके।
इंतजार में एक नई सरकार
मज़दूर वर्ग का बहुमत शासन से नफरत करता है। लेकिन मज़दूर वर्ग के लिए असली और बडा खतरा विपक्ष के पीछे हो लेने में है। यह विपक्ष, जिसका नेतृत्व अधिकधिक नई 'नेशनल काउंसिल' संभाल रही है, पूंजीपति वर्ग के विभिन्न गुटों का एक जमावड़ा है: गद्दाफी शासन के पूर्व सदस्य, राजशाहीवादी आदि के साथ साथ कबीलाई और धार्मिक नेता। उन सभी ने लीबियाई राज्य के गद्दाफी के प्रबंधन के स्थान पर अपना प्रबंधन स्थापित करने की अपनी इच्छा को थोपने के लिए इस तथ्य का पूरा लाभ उठाया है कि इस आंदोलन की कोई स्वतंत्र सर्वहारा दिशा नहीं है।
नेशनल काउंसिल अपनी भूमिका के बारे में स्पष्ट है: "नेशनल काउंसिल का मुख्य उद्देश्य है ... क्रांति के लिए.. एक राजनीतिक चेहरा पेश करना," "हम अपनी राष्ट्रीय सेना, अपने सशस्त्र बलों, जिसके एक हिस्से ने जनता के समर्थन की घोषणा की है, के माध्यम से अन्य लीबियाई शहरों विशेषकर त्रिपोली को आजाद करने में मदद करेंगे" (रायटर्स अफरीका, 27 फरवरी 2011)। "विभाजित लीबिया जैसी कोई चीज नहीं है" (रायटर्स, 27 फरवरी 2011)।. दूसरे शब्दों में उनका उद्देश्य है एक अलग चेहरे के साथ वर्तमान पूंजीवादी तानाशाही को बनाए रखना।
विपक्ष भी एकजुट नहीं है। गद्दाफी के एक पूर्व न्याय मंत्री मुस्तफा मोहम्मद ने फरवरी के अंत में कुछ पूर्व राजनयिकों के समर्थन से एक अस्थायी सरकार के गठन की घोषणा की। यह अल बैदा में स्थित थी। इस कदम को बेनगाज़ी में स्थित राष्ट्रीय परिषद ने खारिज़ कर दिया।
यह दिखाता है कि विपक्ष के भीतर भी गहरे मतभेद हैं। ये अंतता फूट पडेंगे, अगर वे गद्दाफी से छुटकारा पा गए या गद्दाफी के सत्ता में बने रहने की स्थिति में जब इन 'नेतओं' मे अपनी खाल बचाने की अफरा-तफरी मची।
नेशनल काउंसिल की एक बेहतर सार्वजनिक छवि है। यह घोगा द्वारा चालित है, जो एक मशहूर मानव अधिकार वकील है और इस प्रकार पूर्व शासन के साथ रिश्तों के लिए दागी भी नहीं है जैसे कि अन्जेली है।
जहाँ पर गद्दाफी का कब्जा नहीं रहा, उन शहरों, नगरों तथा क्षेत्रों में उभरी समितियों के बारे में मीडिया ने बहुत बतंगड बनाया है। इनमें से बहुत सी समितियाँ स्थानीय गणमान्य व्यक्तियों द्वारा खुद नियुक्त है। लेकिन फिर भी अगर उनमें से कुछ में लोकप्रिय विद्रोह के प्रत्यक्ष भाव थे, ऐसा लगता है जैसे वे नेशनल काउंसिल के पूंजीवादी, राज्यवादी ढांचे में खींच ली गई हैं। एक राष्ट्रीय सेना की स्थापना के नेशनल काउंसिल के प्रयासों और इस सेना के गद्दाफी बलों के साथ टकराने का मज़दूर वर्ग और समूची आबादी के लिए केवल एक ही अर्थ है - मौत और विनाश। वह सामाजिक भाइचारा जिसने शुरू में शासन के दमन के प्रयासॉ को खोखला किया, विशुद्ध सैन्य मोर्चे पर जमकर लड़ाईयों से बदल दिया जाएगा। और आबादी को बलिदान देने को कहा जाएगा ताकि राष्ट्रीय सेना लड़ सके।
प्रमुख शक्तियों - अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, इटली आदि का अधिकाधिक खुला समर्थन पूँजीवादी विपक्ष के एक नए शासन में रूपांतरण को तेज़ कर रहा है। साम्राज्यवादी अपराधी अब अपने पूर्व मित्र गद्दाफी से दूरी अख्तियार कर रहे हैं ताकि वे यह सुनिश्चित कर सकें कि अगर एक नई टीम सत्ता में आती है तो उस पर इनका कुछ प्रभाव हो। यह समर्थन उनके लिए होगा जो बड़ी शक्तियों के साम्राज्यवादी हितों के साथ फिट हो सकें।
लगता है जो आंदोलन दमन के खिलाफ आबादी के हिस्सों की हताश प्रतिक्रिया के रूप में शुरू हुआ था, उसे लीबिया में तथा अंतरराष्ट्रीय स्तर पर शासक वर्ग ने तेजी से अपने हितों के लिए इस्तेमाल कर लिया है। एक आंदोलन जो युवा लोगों के नरसंहार को रोकने के प्रचण्ड प्रयास के रूप में शुरू हुआ था, युवाओं के एक अन्य नरसंहार में समाप्त हो रहा है, अब "आज़ाद लीबिया" के नाम पर।
लीबिया और दूसरी जगहों पर सर्वहारा अपने संकल्प को मजबूत करके ही जवाब दे सकता है कि वह लोकतंत्र या मुक्त देश के नाम पर शासक वर्ग के गुटों की खूनी लडाईयों मे स्वंय को घसीटे जाने की इज़ाजत नहीं देगा। आने वाले दिनों और हफ्तों में, अगर गद्दाफी सत्ता में बना रहा तो इस गृहयुद्ध में प्रतिपक्ष के समर्थन में अंतरराष्ट्रीय समुहगान और तेज होगा। अगर गद्दाफी जाता है तो वहाँ लोकतंत्र की, 'जन शक्ति' की और स्वतंत्रता की विजय का एक समान रूप से गगनभेदी अभियान होगा। हर हालत में, मज़दूरों को पूंजीवादी तानाशाही के लोकतांत्रिक चेहरे से तादात्म्य स्थापित करने के लिए कहा जाएगा।
फिल, 5 मार्च 2011
चर्चा:
यहाँ हम उन साथियों के बीच हुई वार्ता को प्रकाशित कर रहे हैं जो अमेरिका में वेरीजोन के हड़ताली मजदूरों के बीच हस्तक्षेप में लगे हुए थे, जिनमें से कुछ आईसीसी के जुझारु थे और कुछ हमदर्द। उन्होंने वितरित किये जाने वाले पर्चे में क्या लिखा जाये संबन्धी विचारों के शुरुआती आदान-प्रदान से लेकर पर्चे के वास्तविक वितरण, हड़ताली मज़दूरों के साथ अनेक विचार-विमर्शों और हस्तक्षेप के बाद के चिंतन, जिसे हम यहाँ प्रकाशित कर रहे हैं, तक निकट आपसी सहयोग से काम किया। हम सामूहिक प्रकृति के इस काम के महत्व पर समुचित जोर नहीं दे सकते। यह हमदर्दों के लिए महत्वपूर्ण है जो खुली बहसों की उपज सामुहिक ढांचे के साथ वर्ग संघर्ष में वास्तविक हस्तक्षेप का व्यावहारिक तजुर्बा हासिल कर रहे हैं। यह आईसीसी के लिए महत्वपूर्ण है कि वह राजनीतिक दिशा खोज रहे युवा, और जो अब इतने युवा भी नहीं हैं, तत्वों एवम ग्रुपों की नई पीढ़ी को सुनना और उनकी अंतर्दृष्टि से विभिन्न मुद्दों को नए व रचनात्मक तरीकों से देखना सीखना जारी रखे।
कामरेड एच: जब हम यूनियनों को ख़ारिज करते हैं, तब हमारी बात यूनियनों पर बुर्जुआ दक्षिणपंथ के हमलों जैसी लग सकती है। जिन लोगों ने वाम द्वारा यूनियनों पर हमलों को पहले नहीं सुना हो उनके लिए भेद करना मुश्किल हो सकता है। वास्तव में, बहुधा हम भी वही चीज़ें कह देते हैं जो दक्षिणपंथी कहते हैं (यूनियने बस आपके चन्दे के पैसे लेती हैं; पर आपके लिए कुछ करती नहीं; वे सिरफ अपने हित आगे बढ़ाती हैं)। तो अमेरिका में वर्ग शक्तियों के संतुलन को देखते हुए हम यूनियनों पर अपने हमलों को अपने हस्तक्षेप में वह प्रधानता नहीं दे सकते, और कम-से-कम हम इसे अपने हस्तक्षेप का केन्द्रबिन्दू नही बना सकते, इसके बजाय हम वर्ग मांगों के विकास पर अपना ध्यान केंद्रित करें। हाँ, यूनियने संघर्षों में तोड़फोड़ करेंगी, लेकिन शायद संघर्ष के दौरान ही श्रमिकों को यह जानना होगा। शायद यूनियनों की अति भारी निन्दा उनके समर्थन की प्रवृति को ही मजबूत करेगी। श्रमिक अभी यूनियनों और अपने बीच अंतर करने में विफल हैं। जब वे यूनियनों पर हमलों को सुनते है, उन्हें लगता है उन पर ही हमला हो रहा है। शायद अमेरिका में मजदूरों द्वारा अपने संघर्षों को स्वयं के नियंत्रण में लेने का एक फौरी रुझान नहीं है? इस अर्थ में, विस्कॉन्सिन शायद एक सच्चा अपवाद था और हमने देखा यूनियनों ने कैसे जल्दी ही वहाँ पर नियंत्रण पा लिया। शायद अधिक महत्वपूर्ण बात यह है कि मजदूर वास्तव में संघर्ष करने की कोशिश कर रहे हैं, शायद हमें संघर्षों के संकल्प का निर्माण करने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए, बजाय यूनियनों की निंदा के? इसका मतलब यूनियनों को खुली छूट देना नहीं है; लेकिन यह नहीं लगना चाहिए कि यूनियनों को नष्ट करना हमारा मुख्य लक्ष्य है।
कामरेड ए: मुझे व्यक्तिगत रूप यह समझने में कठिनाई हो रही है कि वास्तव में किस तरीके से हस्तक्षेप करें ताकि जहाँ एक तरफ वर्ग-चेतना को सहयोग और बढ़ावा मिले और दूसरी तरफ यूनियनों पर सीधे हमलों, जिन्हें मज़दूर अभी समझ नही पाते, से बचा जा सके। मैं यह भी नहीं जानता कि मजदूर यह जाने बिना कि यह सब यूनियनी नियंत्रण से बाहर क्यों करना करना जरूरी है, ऊपर वर्णित करने से कैसे सहमत हो सकते हैं। मैं हमेशा स्वयं को अपने कार्यस्थल पर इस पहेली के रूबरू पाता हूँ जहां कई सहकर्मी हमारे विचारों और प्रस्तावों के साथ सहमत होते हैं, लेकिन फिर अंत में हमेशा की तरह कुछ इस तरह कहते हैं: चलो चलें और यूनियन को यह सुझाऐं... अंततः, श्रमिकों को यह लगना चाहिए कि वे यह सब यूनियनों के बिना कर सकते है। मुझे लगता है कि मज़दूर वरग ने अभी शक्तिहीनता की इस भावना पर पार नहीं पाया है और वर्ग पहचान की अविकसित भावना को विकसित नहीं किया है। और यह, जैसा कि हम जानते हैं, केवल संघर्ष के माध्यम से ही होता है। मैं सोचता हूँ कि शायद परचे का असर कुछ और ही होता अगर पह्ले तीन पैराग्राफ या तो होते ही नहीं या उन्हें अंत में, मौजूदा हालात में मज़दूर क्या कर सकते हैं इसकी व्याख्या के बाद लिखा गया होता।
कामरेड एच: ये सभी चिंताएँ और भावनाऐं जायज हैं। मुझे अक्सर लगता है, हमारे हस्तक्षेप का सार निम्नांकित है : मजदूरों के लिए आवश्यक है कि वे एक साथ आएँ ताकि वह सवयं तय कर सकें कि वे क्या करें। कुछ बहुत सामान्य बातों, 'क्या नहीं करें' संबंधी बहुत सारी बातों और इतिहास के चन्द सबकों के आलावा, हम वास्तव में सिद्धांततः श्रमिकों को नहीं बता सकते वे क्या करें और कैसे लडें। यह वास्तव में समूची वाम कम्युनिस्ट उलझन है। श्रमिको को खुद रास्ता खोजना होगा। इस लिए हमारे हस्तक्षेप अक्सर काफी नकारात्मकता लग सकते हैं, मसलन, "हम नहीं जानते कि वास्तव में जवाब क्या है, लेकिन यह यकीनन यूनियनों के पास नहीं है, तुम लोग क्यों नहीं जाते और, जब यूनियन न देख रही हो, चर्चा करते कि क्या करें।" इस बीच लगता है कि यूनियनों के पास ठोस जवाब है, ये भ्रम हैं यह केवल धीरे धीरे ही पता चलता है। श्रमिकों के बीच यूनियनों का बोलबाला खत्म होने में अनुभव और समय कि जरुरत है। अभी, पूंजीपति वर्ग के तत्वों द्वारा यूनियनों को नष्ट करने के बेतुके प्रयास यूनियनों को मजबूत ही करते हैं। यूनियनें पीडित होने का खेल खेलने में सक्षम हैं। यह यूनियनों की कटु निन्दा करते हस्तक्षेप के लिए उचित समय नहीं है। यूरोप में और अन्यत्र कहानी अलग हो सकती है। मैं 'ए' की हाताशा सुनता हूँ कि मज़दूर हमारी कुछ बुनियादी अवधारणाओं के साथ सहमति रखते लगते हैं, इसके बावज़ूद वे सोचते हैं कि वे उन्हें यूनियन के माध्यम से प्राप्त कर सकते हैं। यह वैसे ही है कि जब आपके पास समाज के खिलाफ शिकायतों की एक सूची हो और कोई अधिक चतुर व्यक्ति आपको कहे कि चलो अपने संसद सदस्य को लिखो। जैसे वे आप द्वारा पेश रूपरेखा की मौलिक भिन्नता को नहीं समझ पा रहे हों। असल, में वे नहीं समझ पाते। यह केवल अनुभव है जो उन्हें सिखायेगा। हम वास्तव मे अधिक दूरदर्शी और खुले तत्वों के बीच में केवल संदेह का एक बीज्, अलग प्रतिमान का एक दाना भर रोपने की आशा कर सकते हैं ताकि आगामी संघर्षों की जमीन तैयार की जा सके। हम संघर्ष की वापिसी की अभी बहुत प्रारंभिक अवस्था में हैं, एक वापिसी जो केवल बहुत धीरे- धीरे अपना वर्ग धरातल पा रही है।
कामरेड जे: मैं हस्तक्षेप के लिए आपके सहयोग की बहुत प्रसंशा करता हूँ। मुझे लगता है मैंने बहुत कुछ सीखा है और मैं भी चर्चा के खुलेपन से आश्चर्यचकित था और अन्य मजदूरों द्वारा दिखाई एकजुटता से प्रोत्साहित। इसके साथ ही मैं कामरेड एच की बात से पूरी तरह सहमत हूँ। फिलहाल, मजदूर अभी भी "यूनियने उनके लिए संघर्षरत हैं" के संदर्भ में सोच रहे हैं। मुझे लगता है कि दस साल का झूठा प्राचार उस सब को धीरे धीरे नष्ट कर सकता है जो अधिकतर श्रमिकों ने पिछली हड़ताल से सीखा था, खासकर जब वर्ग का विशाल हिस्सा संघर्ष नहीं कर रहा हो। और देखी गई एकजुटता की सराहना के बावजूद, श्रमिक वर्ग अभी भी अपने बचाव के अपने तमाम प्रयासों को लेकर भयभीत तथा रुढिवादी है। और जब तक संघर्ष अधिक आवृति से नहीं होते, इसकी शायद संभावना नहीं कि हम बहुत लोगों को यूनियनों संबंधी अपनी पोजिशनों का कायल कर पाएँ। पर शायद मज़दूरों को हम कायल कर सकते हैं कि:
क) संकट स्थाई है और कहीं जाने वाला नहीं और निकट भविष्य में और संघर्ष होंगे,
ख) हर मजदूर इन संघर्षों में सक्रिय भूमिका निभाने के काबिल है और उसे सक्रिय भूमिका निभानी चाहिए और चर्चा करनी चाहिए कि वास्तव में मांगें क्या हैं और उनके लिए कैसे संघर्ष करें,
ग) अन्य मजदूर आपके संघर्ष में रुचि रखते हैं और आपकी मदद करना चाहते हैं इसलिए आप उनके साथ भी चर्चा करें,
घ) यूनियन जो कर रही है वह लंबे समय तक काम नहीं करेगा और इस संघर्ष के साथ हमे जो करना चाहिए वह है इस संबंधी चर्चा करना, नए तरीके से सोचना, अन्य मज़दूरों से इसकी चर्चा करना और अन्य मज़दूरों के संघर्षों पर चर्चा करना ताकि एक प्रकार की वर्ग पहचान का निर्माण हो सके,
ड) यह, यह या वह बास नहीं, बल्कि समूची पूँजीवादी व्यवस्था है जो ना केवल वेरीजोन (या अन्य) मज़दूरों बल्कि समस्त मज़दूर वर्ग पर हमले कर रही है और हमें एक वर्ग के रूप में प्रतिरोध करना और लड़ना होगा.।
कामरेड ए: यहाँ बहुत सारी बातें है जिन्हें हम श्रमिकों से कह सकते हैं और कामरेड जे ने यहाँ उनमें से कुछ की चर्चा की है। लेकिन मैं मानता हूँ कि जब हम हडताली मज़दूरों में, किसी रैली में या अन्यत्र हस्तक्षेप करें तो हमें यूनियनों को ख़ारिज करने को अपना मुख्य विषय नहीं बनाना चाहिए। मुझे नहीं लगता कि हमें अपनी पोजीशनों को छुपाना चाहिए या उन संबंधी झूठ बोलना चाहिए, लेकिन यह हमारे मुंह से निकलने वाला पहला वाक्य भी नहीं होना चाहिए। यह पर्चे की पहली लाइन नहीं होनी चाहिए। मुझे लगता है कि हमारे प्रेस की बात अलग है। वहां पाठक अलग हैं। जब हम हडताल में हस्तक्षेप करते हैं तो हम श्रमिकों के बीच जा रहे होते हैं। पर जब कोई अखबार खरीदता है या वेबपेज पर जाने के लिए समय निकालता है, तो वे हमारी पोजीशनों बाबत अधिक जानकारी प्राप्त करने के लिए शुरुआत करते हैं। सिद्धांत रूप में, हमारे प्रकाशन सदैव वर्ग के अधिक उन्नत तत्वों द्वारा पढे जाएँगे, जबकि पर्चों का वितरण बहुत व्यापक है। मैं जे. से सहमत हूँ कि इस स्तर पर यह शायद अधिक महत्वपूर्ण है कि संकट के सवाल पर हस्तक्षेप करें, मार्क्सवाद का नजरिया पेशा करें जो कहता है कि पूंजीवाद के भीतर इस संकट का कोई समाधान नहीं है; मजदूर यूनियनों के दायरे में जो कर रहे हैं, वह बुर्जुआ विकल्पों से आगे नहीं जाता, जो वास्तव में कोई विकल्प नहीं हैं। श्रमिकों को देखने की आवश्यकता है कि सुधार संभव नहीं है, पूंजीपति वर्ग के किसी भी गुट के पास जवाब नहीं है। मजदूर वर्ग की अपनी स्वतंत्र कार्रवाई के बिना भविष्य अंधकारमय है। सिद्धांत रूप में, इसका फल होना चाहिए मजदूर वर्ग के संघर्ष पर यूनियन के वर्चस्व पर सवाल उठना।
आईसीसी, 9 सितंबर 2011
पिछले कुछ महीनों से विश्व अर्थव्यव्स्था तबाही में से गुज़र रही है जिसे छिपाना शासक वर्ग के लिए कठिनतर होता गया है। जी20 से लेकर जर्मनी और फ्रांस की अन्तहीन मीटिंगों समेत, ‘दुनिया को बचाने’ के लिए की गईं विभिन्न अंतरराष्ट्रीय शिखर वार्ताओं ने साबित कर दिया है कि पूँजीपति वर्ग अपनी व्यवस्था को पुनरुज्जीवित करने में असमर्थ है। पूँजीवाद एक अन्धीगली में फंस गया है। और किसी समाधान अथवा संभावना का यह नितान्त अभाव विभिन्न राष्ट्रों में तनाव भड़काने लगा है। यह यूरोजोन की एकता को तथा स्वयं यूरोपियन यूनियन को दरपेश खतरों में देखा जा सकता है। और इसे हर देश के भीतर राष्ट्रीय राजनीतिक ढांचे को गठित करते तमाम बुर्जुआ गुटों में तनाव में देखा जा सकता है। पहले ही गंभीर राजनीतिक संकट फूट पडे हैं:
- पुर्तगाल में। 23 मार्च 2011 को पुर्तगाली प्रधानमन्त्री जोस सोक्राटिज़ को तब त्यागपत्र देना पडा जब विपक्ष ने कटौतियों की चौथी योजना के पक्ष मे मत देने से मना कर दिया जिसका मकसद था यूरोपियन युनियन तथा आईएमएफ के समक्ष आर्थिक सहायता की एक नई अरज़ी देने से बचना;
- स्पेन में। अप्रैल में प्रधानमन्त्री जोस जापाटेरो को कटौतियों की अपनी योजना को स्वीकार करवाने के लिए अग्रिम में घोषणा करनी पडी कि वह 2012 के चुनाव में खडा नहीं होगा; पर पेंशन पर भारी हमलों की उसकी योजना के फलस्वरूप उसकी पार्टी, पीएसओई को 20 नवंबर के संसदीय चुनावों में भारी हार झेलनी पडी और मारियनो राज़ोये की दक्षिण पंथी सरकार बनी;
- स्लोवाकिया में। प्रधानमन्त्री इवेटा रादीकोवा को अक्तूबर 2011 के आरंभ में अपनी सरकार भंग करनी पडी ताकि संसद से ग्रीस के बचाब की एक योजना के लिए हरी झंडी मिल सके;
- ग्रीस में। 26 अक्तूबर की यूरोपीय शिखर वार्ता के बाद एक नवंबर को जनमत-संग्रह कराने की आश्चर्यजनक घोषणा, जिसने अन्य यूरोपीय ताकतों में भारी तुफान मचा दिया था, के बाद जार्ज पापन्द्रुऔ को भारी अंतरराष्ट्रीय दवाब के तहत फौरन अपना विचार बदलना पडा। स्वंय अपनी पार्टी, पासोक, में अल्पमत में आ जाने के बाद उसने 9 नवंबर को त्यागपत्र दे दिया और बागडोर पापन्दप्युलोस को सौंप दी;
- इटली में। 13 नवंबर 2011 को विवादास्पद राष्ट्रपति सिल्वियो बर्लुस्कोनी को अपना पद छोडना पडा चूँकि उसे जरूरी समझे जाने वाले कठोर कदम उठाने के असमर्थ माना जा रहा था जबकि इससे पहले न तो अन्तहीन कांड और न ही गलियों में भारी विरोध प्रदर्शन उसे जाने के लिए मज़बूर कर पाए थे;
- अमेरिका में। अमेरिकी पूँजीपति वर्ग कर्ज़ सीमा बढ़ाने के सवाल पर दोफाड है। इन गर्मियों मे आखिरी घड़ी में एक अल्पकालिक सौदा हुआ। और चन्द हफ्तों व महीनों में यही सवाल फिर बखेडा खडा करने का अन्देशा लिये है। इसी प्रकार, असल फैसले लेने की ओबामा की असमर्थता, डेमोक्रेटिक पार्टी में फूट, रिपब्लिकन पार्टी की प्रचण्डता, रूढ़िवादी टी पार्टी का उदय ... यह सब दिखाता है कि किस प्रकार आर्थिक संकट दुनिया के सबसे ताकतवर पूँजीपति वर्ग की एकजुटता को खोखला कर रहा है।
इन विभाजनों के कारण क्या हैं?
इन मुश्किलों की तीन अन्तर सम्बन्धित जड़ें हैं:
1. आर्थिक संकट हर राष्ट्रीय पूँजीपति वर्ग की तथा हर गुट की पिपासांओं को भडका रहा है। एक रूपक का प्रयोग करें तो बांटा जाने वाला केक छोटा होता जा रहा है और उस में से टुकडा छीनने की लडाई अधिकाधिक भीषण। मसलन, फ्रांस में विभिन्न पार्टियों के बीच और कई बार एक ही पार्टी के अन्दर नैतिक तथा वित्तीय घोटालों द्वारा, भृष्टाचार के रहस्योद्घाटनों तथा सनसनीखेज़ मुकदमों द्वारा हिसाब चुकता करना; सत्ता, तथा उसके साथ जुडे फायदों, के लिए, निर्मम होड़ की स्पष्ट अभिव्यक्ति हैं। इसी प्रकार बडी-बडी शिखर वार्ताओं में जो ‘विचारों मे मतभेद’ सामने आते हैं वे संकटग्रस्त विश्व बाज़ारों के लिए घातक लडाई का फल हैं।
2. पूँजीपति वर्ग के पास विश्व अर्थव्यवस्था को दरपेश दुर्गति का कोई वास्तविक हल नहीं है। दक्षिण तथा वाम का हर धड़ा सिर्फ निरर्थक तथा अव्यावहारिक प्रस्ताव ही पेश कर सकता है। हर धड़ा अपने प्रतिद्वंदियों के सुझावों की व्यर्थता साफ देख सकता है पर अपने सुझावों की प्रभावहीनता नहीं। हर धड़ा जानता है कि दूसरों की नीतियाँ अन्धीगली मे ले जाती हैं। अमेरिका में कर्ज़ सीमा बढ़ाने को लेकर पैदा अवरोध की यही व्याख्या है: डेमोक्रेट जानते हैं कि रिपब्लिकनों की नीतियाँ देशा को विनाश की ओर ले जाएँगी ... और इसके उल्ट भी।
इसलिए, ग्रीस से लेकर इटली तक, हंगरी से अमेरिका तक, दुनिया भर में सभी पार्टियों द्वारा ज़ारी ‘राष्ट्रीय एकता’ तथा उत्तरदायित्व की भावना की अपीलें हताशा तथा भ्रांतिमूलक हैं। वास्तव में, डूबने के खतरे से घिरे एक जहाज में शासक वर्ग की मुख्य सोच है ‘जो बचा सको, बचा लो’। हर गुट दूसरे की कीमत पर अपनी चमडी बचाने की फिराक में है।
3. कटौती की इन योजनायों के खिलाफ शोषितों का गुस्सा निरन्तर बढ़ रहा है और सत्तासीन दल विश्वास खो रहे हैं। दक्षिण का हो या वाम का, प्रतिपक्ष के पास पेश करने के लिए कोई भिन्न नीति नहीं है और हर चुनाव के बाद वे बहुधा अदल-बदल कर आते हैं। और जब नियमित चुनाव अभी दूर हों तो राष्ट्रपतियों तथा प्रधानमंत्रियों के त्यागपत्रों द्वारा उन्हें कृत्रिम रूप से जल्द लाया जाता है। यूरोप में हाल में कई बार ठीक यही हुआ। ग्रीस में जनमत-संग्रह कराने का प्रस्ताव इस लिए रखा गया क्योंकि गुस्साई भीड ने पापन्द्रुऔ और उसके पिछलग्गूयों को 28 अक्तूबर की राष्ट्रीय परेड से खदेड दिया था।
ग्रीस में अथवा मारियो मोन्टी की सरकार के साथ इटली में, राजनीतिज्ञों की विश्वसनीयता इस कदर गिर गई है कि सत्तासीन नई टीमों को तकनीकतंत्रीयों (टेक्नोक्रेट) के रूप में पेश किया जा रहा है बावजूद इसके कि सत्ता के ये नए नुमाइंदे अपने पूर्ववर्तियों के बराबर ही राजनीतिज्ञ हैं (वे पहले ही पिछली सरकार मे अहम पदों पर रह चुके हैं)। यह ‘राजनीतिक जमात’ की बदनामी के स्तर को इंगित करता है। आबादी के विशाल हिस्सों की तरफ से, शोषितों की तरफ से, नई सरकारों के लिए कहीं भी कोई असल समर्थन दिखाई नहीं देता, है तो मात्र पुरानों की खारिज़ी। यह स्पेन में रिकार्डतोड संख्या में, वोटिंग आबादी के 53% तक, लोगों द्वारा मताधिकार का प्रयोग न करने से पुष्ट होता है। फ्रांस मे 47% मतदाता मई 2012 के राष्ट्रपति चुनावों की दूसरे दौर की वोटिंगे में दोनो मुख्या प्रत्याशीयों में से किसी को भी वोट देने का इरादा नहीं रखते, उनका कहना है कि वे न तो सरकोज़ी के और न ही हॉलेंड के पक्ष में है।
दक्षिणपंथ तथा वामपंथ के खिलाफ – वर्ग संघर्ष!
यह साफ है कि सरकारों को बदलना हमारे जीवन स्तर पर हो रहे हमलों पे कोई असर नहीं डालता, कि बुर्जुआजी के खेमे में तमाम विभाजन शोषितों के खिलाफ कठोर कटौती की योजनायें लागू करने के मामले में उनके मतैक्य को नहीं बदलते। इसका एक सबूत यह है कि अतीत में चुनाव तुलनात्मक सामाजिक शान्ति का काल हुआ करते थे। आज ऐसा कोई ‘युद्दविराम’ नहीं है। ग्रीस में एक दिसंबर को एक और नई आम हड़ताल तथा विशाल प्रदर्शन हुए। पुर्तगाल में 24 नवंबर को हमने 1975 के बाद की सबसे बडी राष्ट्रव्यापी लामबंदी देखी जिसमें स्कूल, पोस्ट आफिस, बैंक तथा अस्पताल सेवाओं जैसे बहुत से क्षेत्र ठप्प कर दिये गए; लिसब्न में मेट्रो सेवाएँ पंगु रहीं और मुख्या एयरपोर्टों में तथा हाईवे विभाग में काम भंग रहा। ब्रिटेन में 30 नवंबर को पब्लिक सेक़्टर कर्मियों की जनवरी 1979 (20 लाख शरीक) के बाद की सबसे व्यापक हड़ताल रही। बेल्जियम में 2 दिसंबर को युनियनों ने 24 घंटे की हड़ताल की घोषणा की जिसका भी व्यापक अनुसरण हुआ। युनियनों ने यह हड़ताल भावी डी रुपो सरकार, जो देश की ‘सरकार विहीन’ स्थिति के 540 दिन बाद बडी मुश्किल से गठित की जा रही है, द्वार घोषित कटौती की योजनायों के खिलाफ बुलाई थी। और यह राजनीतिक संकट खत्म होने बाला नही चूँकि बुर्जुआ पार्टियों में तनाव के स्रोत खत्म नहीं हुए हैं। इटली मे 5 दिसंबर को ज्यों ही कटौती की निष्ठुर योजनाओं की घोषणा हुई, नरमपंथी यूआईएल तथा सेअईएसएल युनियनें 12 दिसंबर को दो घंटे की संकेतिक हड़ताल बुलाने पर मज़बूर हुईं।
सिरफ यही रास्ता, गलियों में संघर्ष का, वर्ग के खिलाफ वर्ग का रास्ता हमारे जीवन स्तरों पर हमलों के खिलाफ कारगर प्रतिरोध की ओर ले जा सकता है। फ्रांस में, जहां मूर्ख सरकोज़ी के रूप में हम दंभी दक्षिणपंथ को सरकार की बागडोर संभाले देखते हैं, राष्ट्रीय पूँजीपति वर्ग एक हद तक वर्ग संघर्ष के खतरे के डर से पंगु है। उसकी अर्थव्यवस्था के 'एएए' स्तर को घटाए जाने के समक्ष, जिसके चलते जर्मनी के संग उसकी नेतृत्वकारी भूमिका जा सकती है, यह सरकार अन्य देशों के मुकाबले छोटे स्तर पर ही कटौती की नीतियां लागू कर पाई है। इसका एक अहम उदाहरण है बीमारी तनखाह (सिक पे) पर हमला जो सबसे कठोर है: सरकार को तिकडमें करनी पडी के वह सीधा हमला करती न नज़र आए। यह घोषणा करने के बाद कि बीमारी की बजह से गैरहाज़िर रहने पर मज़दूरों को पहले दिन की तनखाह नहीं मिलेगी, सरकोज़ी को यह दिखाना जरूरी लगा कि वह निजी क्षेत्र (जहां पहले ही बीमारी के पहले तीन दिन की कोई तनखाह नही मिलती) पर कम सख्त है और कि उसने यह कदम मात्र पब्लिक सेक़्टर कर्मियों के लिए उठाया है (जिन्हें फिलहाल पहले दिन की गैरहाज़िरी के लिए दन्डित नहीं किया जा सकता)। यह दिखाता है कि फ्रांसीसी पूँजीपति वर्ग, अन्य की बजाए, बहुत बेरहमी से चोट करने की हिम्मत नही जुटा पा रहा है चूँकि वह उस देश में, जो ऐतिहासिक रूप से 1789, 1848, 1871 तथा 1968 में यूरोप में सामाजिक विस्फोटों का डेटोनेटर रहा है, व्यापक सर्वहारा लामबन्दी से डर रहा है। और 2006 में सीपीई के खिलाफ युवकों का आंदोलन, जब फ्रांसीसी सरकार को पीछे हटना पडा, भी इसकी सख्त चेतावनी था।
यह सारी स्थिति बढती अस्थिरता के एक दौर का उदघाटन कर रही है जिसमें आबादी पर अपने हमलों के चलते सरकारें अधिकाधिक बदनाम ही हो सकती हैं। और इन राजनीतिक संकटों में, विभिन्न गुटों के बीच कच्चे तथा अल्पकालिक समझौतों के बावजूद, जो सिद्धान्त काम करता है वह है ‘हर कोई सिरफ अपने लिए’। विभिन्न गुटों तथा प्रतिस्पर्घी राष्ट्रों के बीच तनाव तथा होड़ तेज़ ही हो सकती है।
इसके विपरीत हमें, रोज़गार याफ्ता सर्वहाराओं को या बेरोज़गारों को, रिटायर हों या अभी पढ रहे हों, उन्हीं हमलों के खिलाफ उन्हीं हितों के लिए लडना पडता है। हमारे वर्ग दुश्मन के विपरीत, जो संकट के सामने दो-फाड होता जाता है, यह परस्थिति हमे अधिकधिक बडे तथा एकीकृत तरीके से जवाब देने की ओर धकेल रही है!
डब्लूपी, 8 दिसंबर 2011, बर्ल्ड रेवोल्यूशन-350, दिसंबर 2011- जनवरी 2012
28 फरवरी 2012 को देश के विभिन्न हिस्सों में फैले दस करोड मज़दूरों की नुमाइंदगी करती यूनियनों द्वारा बुलाई हड़ताल हुई। सभी पार्टियों, यहां तक कि हिन्दूवादी बीजेपी, की यूनियनें भी हड़ताल में शामिल हुईं। इसके साथ ही हज़ारों स्थानीय तथा क्षेत्रीय यूनियनें भी। बैंक कर्मी, पोस्टल तथा राज़्य ट्रांसपोर्ट मज़दूर, टीचर्स, गोदी मज़दूर तथा अन्य क्षेत्रों के मज़दूरों ने हड़ताल में हिस्सा लिया। सभी यूनियनें का इस हड़ताल पर सहमत होना इसके पीछे मज़दूर संघर्षों का एक विकास दिखाता है।
यूनियनों ने मांगों का एक घालमेल पेश किया : पब्लिक सेक्टर का बचाव, बढ़ती कीमतों पर नियंत्रण, 45 दिन में यूनियनों का लाजिमी पंजीकरण, श्रम कनूनों का सख्ती से पालन, न्यूनतम मज़दूरी को दस हज़ार रुपया करना तथा सामाजिक सुरक्षा आदि। उन्होंने यह दिखाने की कोई कोशिश नहीं की आज पूँजीवाद बेरहमी से मज़दूरों पर हमले कर रहा है क्योंकि पूँजीवादी प्रणाली संकट में है, बीमार है तथा सड़ रही है। इसके विपरीत, यूनियनों ने व्यवस्था पर भरोसा स्थापित करने की कोशिश की – पूँजीपति वर्ग जो चाहे दे सकता है, बस उसके चाहने की बात है।
यूनियनों ने हड़ताल संबंधी जो भी किया वह उनकी मंशाओं को जाहिर करता है। पहली बात तो यह कि उन्होंने अपने लाखों लाख सदस्यों को हड़ताल में औपचारिक रुप से भी शामिल होने को नहीं कहा। करीब पन्द्रह लाख रेलवे मज़दूर, इतने ही या इससे भी अधिक राज्य बिजली क्षेत्रों के मज़दूर तथा लाखों अन्य मज़दूरों को, जिनमें से अधिकतर इन्हीं यूनियनों के सदस्य हैं, को इन यूनियनों ने हड़ताल में शामिल होने के लिए भी नहीं कहा। एक ओर वे ‘आम हड़ताल’ की घोषणा कर रहीं थी, दूसरी ओर वे अपने लाखों मेम्बरों के सामन्य रुप से काम पर जाने तथा पूँजीवाद की मुख्य धमनियों में सुचारु प्रवाह में विघन न डालने से सहमत हईं।
जिन क्षेत्रों मे यूनियनों ने हड़ताल मे शामिल होने का वादा किया, वहां भी उनका रुख एक रस्मी हड़ताल की घोषणा करना भर था। अधिकतर मज़दूर जो हड़ताल में शामिल हुए, उन्होंने यह घर बैठ कर किया। निजी क्षेत्र के करोडों मज़दूरों को, जो हड़ताली राष्ट्रीय यूनियनों का हिस्सा हैं, हड़ताल में शामिल करने की कोई कोशिश नहीं की गई। उन्हें हड़ताल से बाहर छोडने की गंभीरता हमें तब नज़र आती है जब हम पाते हैं कि हाल में और काफी अरसे से निजी क्षेत्र के मज़दूरों ने कहीं अधिक जुझारुपन तथा कनून के लिए कहीं कम इज्ज़त दिखाई है। यहां तक कि गुड़गांव जैसे औद्योगिक क्षेत्र तथा चेन्नई के इर्द-गिर्द के आटो उद्योग, गुड़गांव में मारुति तथा चेन्नई के निकट हुंडई जैसे कारखाने जहां हाल में अहम हड़तालें हुईं, वे भी इस हड़ताल में शामिल नहीं हए। अधिकतर औद्योगिक क्षेत्रों मे, भारत भर में सैंकडे बडे-छोटे शहरों में, जहां पब्लिक सेक़्टर मज़दूर हड़ताल में शामिल हुए, निजी क्षेत्र के करोडों मज़दूर काम पर गए और उनकी यूनियनें हड़ताल में शामिल नहीं हुईं।
तो फिर यूनियनों ने हड़ताल क्यों बुलाई?
साफ है कि यूनियनों ने हड़ताल का प्रयोग मज़दूरों को लामबन्द करने, उन्हें सडकों पर उतारने तथा एकीकृत करने के लिए नहीं किया। उन्होंने इसका प्रयोग किया एक रस्म के रुप में, गुस्सा ठंडा करने के एक साधन के रुप में, मज़दूरों को अलग-थलग, निष्क्रिय तथा विघटित रखने के लिए। घर में बैठे टीवी देखते हड़ताली मज़दूर न तो मज़दूर एकता और न ही मज़दूर चेतना बढ़ाते हैं। यह अलग-थलग होने का, निष्क्रियता का तथा मौका चूक जाने का अहसास मजबूत करता हैं। अपनी इन मंशाओं के रहते भी यूनियनों ने फिर हड़ताल क्यों बुलाई? और क्या बज़ह थी कि वे सब, जहां तक कि बीएमएस तथा इंटक भी, इसमें शामिल हुई? यह समझने के लिए हमें यह देखना होगा कि भारत मे आज आर्थिक तथा सामाजिक स्तर पर और स्वयं मज़दूर वर्ग के भीतर क्या हो रहा है।
मज़दूर वर्ग की बदतर होती जीवन परिस्थितियां
भारतीय पूँजीपति वर्ग की आर्थिक उभार की बडी-बडी बातों के बावजूद पिछले सालों से आर्थिक हालात खराब हो रहे हैं। समूचे पूँजीवाद की तरह भारतीय अर्थव्यवस्था संकटग्रस्त है। सरकार द्वारा जारी आंकडों मुताबिक अर्थव्यवस्था का विकास रुक गया है और उसकी विकास दर नौ प्रतिशत से घट कर छह प्रतिशत हो गई है। संकट का असर बहुत उद्योगों पर पडा है। इसमें आई टी क्षेत्र तो शामिल है ही साथ ही प्राभावित हैं टेक्सटाईल, हीरा तथा पूँजीगत माल उद्योग व इन्फ्रास्ट्रक्चर क्षेत्र, निजी पावर कंपनियां ताथ एयरलायंस। इसके चलते मज़दूर वर्ग पर हमले तेज़ हो गए हैं। आम मुद्रास्फीति की दर कई सालों से दस प्रतिशत के आस पास है। खाद्य तथा रोज़ाना काम की ववस्तुओं में मुद्रास्फीति की दर कहीं ऊँची, जहां तक कि 16% तक रही है। इसने मज़दूर वर्ग का जीना मुश्किल कर दिया है।
वर्ग संघर्ष का विकास
अपने जीवन तथा काम के खराब होते हालतों के बीच, मज़दूर वर्ग संघर्ष की राह तलाशता रहा है। 2005 से हम भारत भर में वर्ग संघर्ष का धीमा उभार देख रहे हैं। हां, यह वर्ग संघर्ष के एक विश्वव्यापी उभार का हिस्सा है न कि कोई भारत की विचित्रता। 2010 और 2011 में बहुत सारे सेक़्टरों मे अनेक हड़तालें हुईं, खासकर गुड़गांव तथा चेन्नई के गिर्द आटो उद्योगों में। इनमें से कई संघर्षों में, जैसे 2010 मे होंडा मोटर साइकिल मज़दूरों तथा 2011 मे मारुति सुजुकी मज़दूरों की हड़तालो में, बहुत जुझारुपन तथा मालिकों के सुरक्षा ढ़ांचे से टकराने का ज़ज्बा सामने आया। यह चेन्नाई के निकट हुँडाई मोटर्ज़ में हुई अनेक हड़तालो में भी दिखाई दिया जहां ठेकेदारी प्रथा थोपने के मालिकों के प्रयासों के तथा दूसरे हमलों के खिलाफ मज़दूरों ने कई बार हड़ताल की। इन हड़तालों ने अन्य उद्योगों की ओर फैलने की तथा एकजुटता की शक्तिशाली प्रवृति व्यक्त की। उन्होंने अत्मगठन और आम सभाओं की स्थापना की ओर का भी रुझान दिखाया जिसे मारुति के मज़दूरों की हड़ताल में देखा जा सकता है जिन्होंने ‘अपनी’ यूनियनों की मरज़ी के खिलाफ कारखाने पर कब्जा किया।
वर्ग संघर्ष के इस धीरे-धीरे उठते उफान के अतिरिक्त, अरब देशों मे, ग्रीस में तथा ब्रिटेन में हो रहे संघर्षों ने तथा दुनिया भर के ‘ऑक्यूपाई आंदोलनों’ ने भी भरत मे मज़दूर वर्ग मे प्रतिध्वनि पाई है।
वर्ग संघर्ष के छूत के फैलने का डर
इस स्थिति के रुबरु, बुर्जुआज़ी वास्तव में वर्ग संघर्ष फैलने के खतरे को लेकर चिंतित है। कई बार शासक वर्ग डरा नज़र आया। बहुत सारी हालिया हड़तालों के सामने यह डर देखा जा सकता है।
होंडा मोटर साइकिल में हिंसक टकरावों के तथा मारुति सुजुकी में हाल में बार बार हुई हड़तालों के समक्ष यह डर साफ देखा जा सकता है। समूचा प्रचारतंत्र कहानियों से पटा नज़र आया कि ये हड़तालें फैल सकती हैं और गुडगांवां के तमाम आटो कारखानों को अपनी चपेट में ले कर पूरे क्षेत्र को पंगु कर सकती हैं। ये कहानियें महज़ अटकलबाज़ी नहीं थी। मुख्य हड़तालें बेशक कुछ कारखानों तक सीमित थीं, अन्य मज़दूर हड़ताली कारखानो के गेट पर गए। सांझे प्रदर्शन हुए और समुचे औद्योगिक शहर गुडगांवां में एक दिन की हड़ताल रही। राज्य सरकार हड़ताल के फैलाव को लेकर गंभीर रुप से चिंतित थी। प्रधानमंत्री तथा केन्द्रीय श्रममंत्री की दवाब के तहत, हड़ताल को ठण्डा करने के मकसद से हरियाणा के मुख्यमंत्री तथा श्रममंत्री ने मेनेजमेंट को तथा यूनियनी चौधरियों को एक जगह लाकर बैठाया।
बुर्जुआज़ी के अन्य हिस्सों के समान, यूनियनें भी बढ़ते जुझारुपन के चलते मज़दूरों पर अपना कंट्रोल खोने को लेकर चिंतित हैं। यह 2011 की मारुती की हड़तालों में देखा जा सकता है जहां मज़दूरों ने यूनियनों की मरज़ी तथा निर्देशों के खिलाफ अनेक गतिविधियां की।
इससे यूनियनों पर दवाब पड रहा है कि वे कुछ करती हुई नज़र आंएँ। उन्होंने कुछ रस्मी हड़तालों, जिसमे नवंबर 2011 की बैंक कर्मियों की हड़ताल भी शामिल है, की घोषणा की। मज़दूर वर्ग के भीतर उभरते गुस्से तथा जुझारुपन की निसंदेह अभिव्यक्ति होने के साथ ही हालिया हड़ताल उसे नियंत्रित तथा गुमराह करने का उनका नवीनतम प्रयास है।
संघर्षों को अपने हाथों में लेना
मज़दूरों को समझना होगा कि रस्मी हड़ताल करके घर बैठने से कुछ नहीं होता। न ही पार्क में इकट्ठे हो कर यूनियन चौधरियों तथा संसद सदस्यों के भाषण सुनने से कोई मदद मिलती है। शासक और उनकी सरकार हम पर चढ़ाई कर रहे हैं क्योंकि पूँजीवाद संकट में है उनके पास इससे उभरने का कोई रस्ता नहीं है। हमे जानना होगा कि सभी मज़दूर हमलों का शिकार हैं, सभी एक ही नाव में सवार हैं। निश्चेष्ट तथा एक दूसरे से अलग-थलग रहना मालिकों को मज़दूरों पर अपने हमले तेज़ करने से नहीं रोकता। मज़दूरों को चाहिए कि वे इन अवसरों को बाहर सडकों पर उतरने, स्वयं को लामबन्द करने, एकजुट होने तथा अन्य मज़दूरों से विचार-विमर्श करने के काम लाएँ। उन्हें अपने संघर्ष अपने हाथ में लेने होंगे। यह फौरन हमारी समस्याएँ हल नहीं करेगा पर यह अपने हितों की हिफाजत तथा उनके हमलों को पीछे धकेलने कि लिए मालिकों के खिलाफ एक सच्चा संघर्ष विकसित करना हमारे लिए संभव बनाएगा। यह हमें समूचे पूँजीवाद के खिलाफ अपना संघर्ष विकसित करने और उसके विनाश के लिए काम करने में मदद देगा। फरवरी 2012 मे ग्रीस में ऐथंस ला स्कूल पर कब्जा करने वालों ने जैसे कहा, पूँजीवाद के मौजूदा संकट से स्वयं को मुक्त करने के लिए “हमें (पूँजीवादी) अर्थव्यवस्था का विनाश करना होगा” ।
सीआई, 9 मार्च 2012
1. जर्मन कम्युनिस्ट पार्टी (स्पार्टकसबुन्द) का गठन
जब 30 दिसम्बर 1918 और 1 जनवरी 1919 के बीच जर्मन कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना की गई तो लगा जैसे सामाजिक जनवाद के प्रति क्रांतिकारी विरोध ने अभिव्यक्त पा ली हो। लेकिन जर्मन पार्टी (जो ठीक उस क्षण प्रकट हुई जब सर्वहारा गलियों में हथियारबन्द संघर्ष में लिप्त था और, अल्प-अवधि के लिए, वास्तव में कुछ औद्योगिक केन्द्रों में सत्ता पर कब्जा कर रहा था) ने तुरन्त ही अपने उदगम के बेमेल चरित्र को तथा उन कार्यभारों, जिन्हें पूरा करने के लिए उसकी रचना की गई थी, की एक सार्वभौमिक और सम्पूर्ण समझ हासिल करने की अपनी असमर्थता को प्रकट किया।
वे कौन सी ताकतें थी जो पार्टी के गठन के लिए इक्कठा हुईं थी? और वे समस्याएं क्या थी जो तुरन्त ही इन ताकतों के रास्ते में रुकावट बन कर सामने आई?
हम यहाँ इनमें से सबसे रोचक तथ्यों का परीक्षण करेंगे क्योंकि वे पार्टी की गलतियों को समझने में हमारी मदद करेंगे और क्योंकि वे आगामी विकास को काफी प्रभावित करनेवाले थे।
4 अगस्त 1914 के बाद की घटनाओं का प्रक्षेप पथ अपने में बहुत सी कठिनाईयों और भ्रमों को समेटे था। स्पार्टकस ग्रुप का इतिहास इसका स्पष्ट प्रमाण है। सैद्धांतिक स्पष्टीकरण और विकास पर एक ब्रेक की इसकी भूमिका बहुत साफ है।
स्पार्टकस लीग (स्पार्टकसबुंद) के समय के सभी महत्वपूर्ण निर्णय रोजा लुग्जमबर्ग की पोजीशनों को अभिलक्षित करते थी। (ग्रुप ने स्पार्टकस लीग नाम 1916 में अपना; 1915 में ग्रुप को इसके रिव्यू, जो पहले-पहल अप्रैल 1915 में निकला, के नाम पर इंटरनेशनेल कहा जाता था।)
जिम्मरवाल्ड (5-7 सितम्बर 1915) में जर्मनों का प्रतिनिधित्व किया इंटरनेशनेल ग्रुप ने, बर्लिन से बोरकारट ने जो रिव्यू रोशनी की किरणें से जुडे छोटे से ग्रुप का प्रतिनिधित्व करता था और काउत्सकी से जुड़े मध्यमार्गी धडे ने। केवल बोरकारट ने लेनिन की अन्तर्राष्ट्रीयवादी पोजीशनों का समर्थन किया जबकि अन्य जर्मनों ने निम्न शब्दों में अंकित प्रस्ताव का समर्थन किया:
‘‘किसी भी स्थिति में यह संकेत नहीं दिया जाना चाहिए कि यह सम्मेलन फूट को उभाड़ना और एक नये इंटरनेशनल की स्थापना करना चाहता है।’’
किन्थाल में (24-30 अप्रैल 1916) जर्मन विरोध पक्ष का प्रतिनिधित्व किया इंटरनेशनेल ग्रुप (बर्था थालीमिर और अर्नस्ट मेयर) ने, संगठन में विरोध पक्ष ने (हाफमैन के गिर्द के मध्यमार्गी) और पाल फरोलिच के जरिये ब्रीमेन लिंकसरेडिकलेन ने।
स्पार्टकसवादियों (इंटरनेशनेल) की हिचकिचाहटों पर तुरन्त ही पार नहीं पाया गया। एक बार फिर वे वाम (लेनिन-फरोलिच) की अपेक्षा मध्यमार्गीयों की पोजीशनों के अधिक निकट थे। ई मेयर ने कहा : ‘‘नये इंटरनेशनल का हम वैचारिक आधार तैयार करना चाहते है, लेकिन हम संगठनात्मक स्तर पर अपने-आप को इससे बाँधना नहीं चाहते, क्योंकि प्रत्येक चीज अभी बदलाव की स्थिति में है।’’
यह लुग्जमबर्ग की क्लासिकीय पोजीशन थी जिसके लिए पार्टी क्रांति की आरंभिक तैयारी की अवस्था की अपेक्षा इसके अन्त में ज्यादा जरूरी थी। (‘‘एक शब्द में, ऐतिहासिक तौर पर, वह क्षण जब हमें नेतृत्व संभालना होगा क्रांति के शुरू में नहीं बल्कि इसके अन्त में है।’’)
अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर सबसे महत्वपूर्ण कारक था ब्रीमेर लिंकसरेडिलेन[1] का उदय। 1910 से ही ब्रीमेन का सामाजिक जनवादी पत्र ब्रीमेर बरएर्जीट पान्नेकोएक और रादेक के साप्ताहिक लेख प्रकाशित कर रहा था और डच वाम के असर तले ही ब्रीमेन ग्रुप ने स्वयं को नीफ, पाल फरोलिच और दूसरों के गिर्द गठित किया। 1915 के अन्त में आईएसडी (जर्मनी के अन्तर्राष्ट्रीय समाजवादी) का गठन हुआ, इसका जन्म बर्लिन क्रांतिकारियों, जो रोशनी की किरणें नामक रिव्यू निकालते थे, और ब्रीमेन कम्युनिस्टों के मेल से हुआ। ब्रीमरलिंक औपचारिक तौर पर दिसम्बर 1916 में सामाजिक जनवाद से स्वतंत्र हो गया लेकिन उसी साल जून में उसने पहले ही अर्वीटरपालीटिक[2] का प्रकाशन आरंभ कर दिया था जो कि वाम का सबसे महत्वपूर्ण बैध पत्र था। पान्नेकोएक और रादेक के लेखों के अलावा इसमें जिनोवीव, बुखारिन, कामनेव, ट्राटस्की और लेनिन की रचनायें प्रकाशित होती रहती थी। अर्वीटरपालिटिक ने तुरन्त सुधारवाद से अलगाव की एक अधिक परिपक्व चेतना दिखाई। अपने पहले अंक में उन्होंने लिखा कि 4 अगस्त ‘‘उस राजनीतिक आन्दोलन का स्वाभाविक अन्त था जिसके पतन की प्रक्रिया कुछ समय से जारी थी।’’
अर्वीटरपालिटिक से ही वे प्रवृत्तियां उभरीं जो पार्टी का सवाल उठाने में नेतृत्वकारी रोल अदा करने वाली थीं। सामाजिक जनवाद के भीतर बने रहने के स्पार्टकसवादियों के हठ के कारण उनमें तथा ब्रीमेन ग्रुप में बहस मुश्किल थी।
एक जनवरी 1916 को इंटरनेशनेल ग्रुप के राष्ट्रीय सम्मेलन में नीफ ने सामाजिक जनवादी पार्टी से पूर्ण अलगाव तथा मूलतया एक नए आधार पर क्रांतिकारी पार्टी के गठन की मांग के किसी स्पष्ट परिदश्य की अनुपस्थिति की आलोचना की।
इस वक्त स्पार्टकसवादी ग्रुप इंटरनेशनेल रीशसटैग में सामाजिक जनवादी कार्य समूह (सोश्ल डेमोक्रेटिक वर्क क्लेक्टिव) का पक्षधर था तथा ऐसी घोषणाऐं कर रहा था:
‘‘पार्टी के लिए संघर्ष लेकिन पार्टी के खिलाफ नहीं......पार्टी में जनवाद के लिए, आम कार्यकर्ताओं के अधिकारों के लिए, अपने कर्तव्य भूल चुके नेताओं के खिलाफ पार्टी के साथियों के लिए संघर्ष। हमारा नारा है न तो अलगाव न एकता, न तो नई पार्टी न पुरानी, बल्कि आम सदस्यों के विद्रोह द्वारा आधार स्तर पर पार्टी पर पुनर्विजय....। पार्टी के लिए निर्णायक संघर्ष शुरू हो चुका है।“ (स्पार्टकस ब्रीफ, 30 मार्च 1916)
उसी समय अर्वीटरपालीटिक में पढृा जा सकता था :
‘‘हम समझते है कि इंटरनेशनल के वास्तविक पुन: निर्माण तथा सर्वहारा आन्दोंलन के पुन:जागरण के लिए राष्ट्रीय तथा अन्तर्राष्ट्रीय, दोनों स्तर पर फूट न केवल अवश्यंभावी है बल्कि एक अनिवार्य पूर्वशर्त है। हम मानते हैं कि मेहनतकश जनता के सम्मुख इस गंभीर विश्वास को अभिव्यक्त करने से झिझकना अस्वीकार्य तथा खतरनाक है।’’ (नं : 4)
और लेनिन ने जूनियस पैंफलेट पर (जुलाई 1916) में लिखा :
‘‘जर्मन क्रांतिकारी मार्क्सवाद की सबसे बड़ी कमजोरी है मजबूती से बुने एक अवैध संगठन का अभाव.... ऐसा संगठन अवसरवादों, जैसा काउत्सकी का है, के प्रति अपने रवैये को स्पष्टत: परिभाषित करने को बाध्य होगा। केवल जर्मनी के अन्तर्राष्ट्रीय समाजवादियों (आई एस डी) ने ही इस प्रश्न पर एक स्पष्ट सुलझी हुई पोजीशन अभिव्यक्त की है।’’
स्पार्टकसवादियों ने हास, लेडेवर, काउत्सकी, हिलफर्डिंग तथा बर्नस्टीन की पार्टी, यूएसपीडी, का भी अनुसरण करना जारी रखा (जर्मन की स्वतंत्र सामाजिक जनवादी पार्टी का गठन 6-8 अप्रैल 1917 को हुआ था; यह एक मध्यमार्गी पार्टी थी और अपने आकार के सिवाए सामाजिक जनवाद से सारतत्व में भिन्न नहीं थी लेकिन यह जनता के बढ़ते लड़ाकूपन से जुड़ी हुई थी)। इस अनुसरण ने ब्रीमेन कम्युनिस्टों और स्पार्टकसवादियों के बीच सम्बन्धों को और भी मुश्किल बना दिया। मार्च 1917 में अर्वीटरपालीटिक में अभी भी पढ़ा जा सकता था:
‘‘वाम अमूलवादी (लेफ्ट रेडिकल्स) एक महत्वपूर्ण निर्णय के सम्मुख हैं। सबसे बड़ी जिम्मेदारी इंटरनेशनेल ग्रुप की है, अपनी आलोचना के बावजूद जिसे हम भावी अमूलवादी पार्टी का केन्द्र बनने वाला सबसे सक्रिय और बड़ा ग्रुप मानते हैं। हम बिना किसी लाग-लपेट के कहेंगे कि उनके बिना हम, हम खुद तथा आई एस डी, निकट भविष्य में एक कार्य सक्षम पार्टी का निर्माण करने में असमर्थ होंगे। यह इंटरनेशनेल ग्रुप पर निर्भर करता है कि वाम अमूलवादियों का संघर्ष एक झण्डे तले व्यवस्थित ढंग से चलाया जाएगा या मजदूर आन्दोलन के भीतर के विरोधपक्ष जो अतीत में प्रकट हुए हैं और जिनकी होड़ स्पष्टीकरण में एक कारक है, वे अपना बहुत-सा समय और शक्ति बरबाद कर देंगे और उनका अंत भ्रमों में होगा।’’ (शब्दों पर जोर हमारा)
स्पार्टकस ग्रुप के यूएसपीडी से चिपके रहने की स्थिति बाबत उसी पत्र ने कहा –
“इंटरनेशनेल ग्रुप मर गया है,,,, कुछ साथियों के एक समूह ने एक नई पार्टी की रचना के लिए खुद को एक एक्शन कमेटी के रूप में गठित किया है।’’
वास्तव में, एक नई पार्टी का आधार स्थापित करने के उदेश्य को लेकर, अगस्त 1917 में ब्रीमेन, बर्लिन फेंकफुर्त, और दूसरे जर्मन नगरों से डेलीगेटों की एक मीटिंग बर्लिन में हुई। ड्रेसडेन ग्रुप के साथ आटों रुहले ने इस मीटि़ग में भाग लिया।
खुद स्पार्टकस ग्रुप में बहुत से ऐसे तत्व थे जिनकी पोजीशनें लिंकसरेडीकलेन के बहुत करीब थीं और जिन्हें रोजा लुग्जमबर्ग के गिर्द ‘‘जेनटरेल’’ का संगठनात्मक समझौता स्वीकार्य नहीं था। पहले-पहल यह सामाजिक जनवादी कार्य समूह में भाग लेने के विरोध में डुइसबर्ग, फेंकफुर्ट और ड्रेसडेन के स्पार्टकस ग्रुपों के में प्रकट हुआ। (ड़़ुइसबर्ग ग्रुप का मुख्पत्र कैम्फ, इस भागीदारी के खिलाफ एक प्रबल बहस में लिप्त था)। तदन्तर दूसरे ग्रुपों ने यूएसपीडी से जुडे रहने का विरोध किया, मसलन हैकर्ट के गिर्द महत्वपूर्ण ग्रुप चेमनित्ज। व्यवहार में ये ग्रुप अर्वीटरपालीटिक में रादेक द्वारा अभिव्यक्त पोजीशन का समर्थन करते थे:
‘‘मध्यमार्गियों के साथ पार्टी बनाने का विचार एक खतरनाक यूटोपिया है। यदि वे अपने ऐतिहासिक कार्यों को अंजाम देना चाहते हैं तो वाम अमूलवादियों को अपनी पार्टी बनानी होगी, चाहे हालतों ने उन्हें इसके लिए तैयार किया हो या नहीं।’’
खुद लीब्कनेख्त, जो वर्ग के भीतरी उभार से ज्यादा करीब से जुड़ा हुआ था, ने जेल में लिखी एक रचना (1917) में अपनी पोजीशन को अभिव्यक्त किया जिसमें, क्रांति की जीवित धड़कन को पकड़ने का प्रयास करते हुए, उसने जर्मन सामाजिक जनवाद के भीतर की तीन सामाजिक परतों में भेद किया। पहली परत वैतनिक अधिकारियों की थी जो सामाजिक जनवादी पार्टी के बहुमत की राजनीति का सामाजिक आधार थी। दूसरी परत में थे :
‘‘अच्छे खाते-पीते और शिक्षित मजदूर। उनके लिए शासक वर्ग के साथ एक गंभीर झड़प की आसन्नता स्पष्ट नहीं ह। वे प्रत्याघात करना तथा संघर्ष करना चाहते हैं। वे सामाजिक जनवादी कार्य समूहों का आधार है।’’
अन्त में, तीसरी परत में थे :
“सर्वहारा जनसमूह, अशिक्षित मजदूर। शब्द के स्टीक अर्थ में सर्वहारा। केवल इस पर्त के पास, इसकी वास्तविक स्थ्िति के कारण, खोने को कुछ नहीं है। हम इन जनसमूहों का, सर्वहारा का, समर्थन करते हैं।’’
इस सबसे दो बातों का पता लगता है :
रूसी क्रांति
इस क्रांति बाबत स्पार्टकसवादियों तथा यूएसपीडी के बहुमत के बीच उठे मतभेद अर्वीटरपालीटिक को एक बार फिर स्पार्टकसवादियों के साथ बातचीत की ओर ले गए।[3] ब्रीमेन कम्युनिस्टों ने रूसी क्रांति से एकजुटता को कभी जर्मनी में कम्युनिस्ट पार्टी के गठन की जरूरत से अलग नहीं किया। ब्रीमेन कम्युनिस्टों ने पूछा, रूस में क्रांति क्यों विजयी हुई थी ?
‘‘सिर्फ और सिर्फ इस लिए क्योंकि रूस में वाम असूलवादियों की अपनी एक स्वायत पार्टी है जिसने शुरू से ही समाजवाद की पताका को उठाया है और सामाजिक क्रांति के झण्डें तले लड़ी है।’’
‘‘यदि गोथा में शुभेच्छा से कोई इंटरनेशनेल ग्रुप के दृष्टिकोण के पक्ष में अभी भी तर्क खोज सकता था तो आज स्वतंत्रों के साथ मेल की उचितता के आभास तक खत्म हो चुके हैं।’’
‘‘आज अन्तर्राष्ट्रीय स्थिति एक अमूलवादी (रेडिकल) पार्टी की स्थापना को और भी अधिक महत्वपूर्ण जरूरत बनाती है।’’
‘‘अपनी तरफ से हम जर्मनी में एक लिकसरेडीकलेन पार्टी के लिए परिस्थितियॉं तैयार करने में अपनी पूरी ताकत लगाने को दृढ़ता से वचनबद्ध है। इसलिए पिछले नौ महीनों से स्वतंत्रो की कमजोरी को ध्यान में रखते हुए तथा गोथा समझौतों (जो जर्मनी में अमूलवादी आन्दोलन के भविष्य को केवल नुकसान ही पहुँचा सकता है)[4] के क्षयकारी प्रतिघातों को ध्यान में रखते हुए, हम इंटरनेशनेल ग्रुप के अपने साथियों को नकली-समाजवादी स्वतंत्रो से स्पष्ट तथा खुले तौर पर अलग होने तथा एक स्वायत अमूलवादी वाम पार्टी की स्थापना करने को निमन्त्रित करते हैं।’’ (अर्वीटरपालीटिक 15 दिसम्बर, 1917)
इस सब के बावजूद जर्मनी में पार्टी की स्थापना तक एक साल और गुजरने बाला था, और एक ऐसा साल जिसमें सामाजिक तनाव धीरे-धीरे बढ़ रहे थे: बर्लिन की 17 अप्रैल की हड़तालों से गर्मियों के नेवी विद्रोह और जनवरी 1918 की हड़तालों की लहर (बर्लिन, रुहर कील ब्रीमेन, हम्बर्ग ड्रेसडन), जो पूरी गर्मियों और पतझड में जारी रही।
आईये, अब हम जर्मन स्थ्िाति का अभिलक्षण कुछ दूसरे छोटे ग्रुपों की जांच-पड़ताल करें। हमने ऊपर जिक्र किया है कि आईएसडी ने बर्लिन के रोशनी की किरणें रिव्यू के गिर्द ग्रुप को भी अपने साथ जोड़ लिया था। उस ग्रुप का सबसे महत्वपूर्ण प्रतिनिधि बोरकारट था। उसने रिव्यू में जो विचार विकसित किये थे वे उग्रतापूर्वक सामाजिक जनवाद विरोधी थे, लेकिन अपनी अर्ध-अराजकतावादी प्रवृत्ति के कारण वे पहले ही ब्रीमेन कम्युनिस्टों से सम्बन्ध- विच्छेद को दिखाते थे। जैसा अर्वीटर-पालीटिक ने कहा: ‘‘पार्टी के स्थान पर, वह (बोरकार्ट) एक अराजक प्रवृत्ति के प्रचारात्मक पंथ को रखता है।’’ आगे चलकर, वाम कम्युनिस्टों ने उसे गद्दार माना और उसका नाम ‘‘भगौडा जूलियन’’ रखा।
बर्लिन में, बरनर मोलर, जो पहले ही रोशनी की किरणों में भागीदार था, अर्वीटरपालीटिक का एक उत्कट सहकर्मी और बाद में उसका प्रतिनिधि बना। (जनवरी 1919 में नोसके के आदमियों ने निर्दयतापूर्वक उसका हत्या कर दिया गया)।
बर्लिन में वामधारा बहुत प्रबल थी, दूसरों के अतिरिक्त, स्पार्टकसवादी कार्ल शरोडर और फ्रेडरिक वेन्डल (बाद में केएपीडी वाले) उसमें थे।
सामाजिक जनवाद के प्रति क्रांतिकारी विरोधपक्ष में हैम्बर्ग ग्रुप का अपना विशेष स्थान है। यह नवंबर 1918 में ही अईएसडी में शामिल हो हुआ जब उसने नीफ के प्रस्ताव पर 23 दिसंबर 1918 को अपना नाम आईकेजी (जर्मनी के अन्तरर्राष्ट्रीय कम्युनिस्ट) कर लिया। हैम्बर्ग में अगुआ हाइनरिख लाफेनबर्ग तथा फ्रित्ज़ बोल्फेम थे। ब्रीमेन कम्युनिस्टों से जो चीज उन्हें अलग करती थी, वह थी नेताओं के खिलाफ निर्देशित एक संघाधिपत्यवादी (सिंडीकेलिस्ट) तथा अराजकी ढंग की तीखी बहस। दूसरी तरफ अर्वीटरपालीटिक ने सही पोजीशन प्रतिपादित की जब उसने लिखा :
‘‘वाम अमूलवादियों का ध्येय, जर्मनी की भावी कम्युनिस्ट पार्टी का ध्येय, जिसमें देर-सबेर वे सभी शामिल होंगे जो पुराने आदर्शों के प्रति वफादार बने रहे हैं, बड़े नामों पर टिका हुआ नहीं। इसके विपरीत यदि हमें कभी समाजवाद हासिल करना है तो वास्तव में नया जो तथ्य है और जो होना चाहिए वह यह कि बेनाम जनसमूह अपना भाग्य स्वयं अपने हाथ में ले लें, प्रत्येक साथी अपने आसपास के बड़़े नामों के बारे में खुद को चिन्तित किये बगैर अपना व्यक्तिगत योगदान दे।’’ (जोर हमारा)
हैम्बर्ग ग्रुप के राजनीतिक दिशाविन्यास का खुला संघाधिपत्यवादी (सिंडीकेलिस्ट) चरित्र एक हद तक वोल्फोम की तबकि गतिविधि से उत्पन्न हुआ जब वह अमेरिका में इंटरनेशनल वर्करस आफ द वर्ल्ड से सम्बद्ध था।
लेकिन निस्संदेह, इस वक्त जर्मनी में वर्ग संघर्ष की सबसे बढिया अभिव्यक्ति ब्रीमेन कम्युनिस्टों में पाई जाती थी। यह कहना संगठन की समस्या पर्, क्रांतिकारी प्रक्रिया की अवधारणा पर तथा पार्टी की भूमिका पर स्पार्टकस ग्रुप (और उसकी बेहतरीन सिद्धांतकार रोजा लुग्जमबर्ग) के सभी तर्क और गलतियॉं उजागर कर देता है। तो भी रोजा लुग्जमबर्ग की गलतियों की ओर इशारा किसी भी प्रकार से उसके वीरोचित संघर्ष की अस्वीकृति को सूचित नहीं करता; बल्कि यह समझने की इजाजत देता है कि बर्नस्तीन तथा काउत्सकी के खिलाफ अपनी सैद्धांतिक लड़ाई में विकसित विस्तृत अन्तदृष्टि के साथ-साथ उसने ऐसी पोजीशनों का भी बचाव किया जिन्हें हम स्वीकार नहीं कर सकते।
हमारे पास पूजने के लिए कोई देवता नहीं है; इसके विपरीत हमें अतीत की भूलों को समझने की जरुरत है ताकि हम खुद उनसे बच सकें, ताकि हम यह जान सकें कि ऐतिहासिक सर्वहारा आन्दोलन से उपयोगी किन्तु अपूर्ण सबक (इस मामले में क्रांतिकारियों के कार्य तथा संगठनात्मक कार्यभारों संबंधी) कैसे निकाले जाएँ।
अपने कार्यभार पूरा करने के लिए हमें उस अटूट संबंध को समझना होगा जो प्रतिक्रांति के दौर में छोटे क्रांतिकारी ग्रुपों की गतिविधि (और बिलान तथा इंटरनेशनलिज्म का काम इसका मुंह बोलता गवाह है) के बीच तथा राजनैतिक ग्रुप की उस कार्रवाई के बीच में विद्यमान है जो वह तब करता है पूँजी के असाध्य अन्तर्विरोधों वर्ग को क्रांतिकारी संघर्ष की और धकेल रहे होते हैं। सवाल अब पोजीशनों के मात्र बचाव का नहीं रहता। बल्कि सवाल है इन पोजीशनों के सतत विशदीकरण तथा वर्ग के कार्यभारों के आधार पर वर्ग की स्वयंस्फूर्तता को मज़बूत करने के समर्थ होने का। सवाल है वर्ग की चेतना की एक अभिव्यक्ति होने का, निर्णायक आक्रमण के लिए उसकी ताकतों को एकजुट करने में सहायक होने का, दूसरे शब्दों में पार्टी के निर्माण का, जो सर्वहारा की विजय में आवश्यक चरण है।
लेकिन क्रांतियों की ही तरह पार्टियों भी तैयार-बर-तैयार आसमान से नहीं टपकती। इसकी थोड़ी व्याख्या करें। संगठनात्मक कृत्रिमतायें मात्र किसी पुराने ध्येय की सेवा नहीं करतीं, इसके विपरीत उन्होंने बहुधा प्रतिक्रांति की सेवा की है। ‘‘पार्टी’’ की घोषणा करना, प्रतिक्रांति के दौर में अपने संगठन को पार्टी के रूप में खडा करना एक विसंगति, एक बहुत गंभीर गलती है जो फौरी क्रांतिकारी परिदृश्य की गैरहाजिरी में समस्या के सारतत्व को समझने की असमर्थता दिखाती है। लेकिन इस कार्य को ताक पर रख देना अथवा वक्त गुजरने तक इसको टालते जाना भी किसी कदर कम गंभीर गलती नहीं मौजूदा अध्ययन के संदर्भ में यह दूसरी गलती अधिक महत्वपूर्ण है।
जो लोग कहते हैं कि समस्त समस्याएँ स्वयं-स्फूर्त सुलझ जाएँगी वे, अंतिम विशलेषण में, अचेत स्वतस्फूर्तता का गुणगान कर रहे हैं न कि स्वतस्फूर्तता से चेतना की ओर गमन का; वे या तो यह समझने में असमर्थ है या समझना नहीं चाहते कि वर्ग द्वारा अपने संघर्ष में चेतना की प्राप्ति उसे पूँजी के गढ़, राज्य, पर आक्रमण के लिए समुचित औज़ार की जरूरत को पहचानने की ओर ले जाएगी।
अगर वर्ग की स्वत: सक्रियता एक चरण है जिसकी हम वकालत करते है तो स्वत: स्फूर्ततावाद, यानि स्वत: सक्रियता को एक उसूल करार देना, वास्तव में स्वत: सक्रियता को खत्म कर देता है। यह स्वंय को कई एक बासी जड़सूत्रों में व्यक्त करता है : ‘‘जहाँ मजदूर हैं वहां होने’’ का उत्तेजित प्रयास, यह फैसला लेने की अयोग्यता कि उतार और आवर्तन के क्षणों में कब ‘‘धारा के खिलाफ’’ होना है ताकि बाद में निर्णायक क्षणों में ‘‘धारा के साथ’’ चला जा सके। संगठन के सवालों पर लुग्जमबर्ग के भटकावों ने स्वंय को सत्ता जीतने की उसकी अवधारणा में भी प्रकट किया – और यहां हम यह जोड़ेंगे कि इन दोनों सवालों में घनिष्ठ अन्तर सम्बन्ध होने के नाते यह अनिवार्य था :
‘‘हमारे लिए सत्ता की जीत एक झटके में अंजाम नहीं दी जाएगी। यह एक क्रमिक कार्रवाई होगी, क्योंकि हम पूँजीवादी राज्य की समस्त पोजीशनों पर उत्तरोत्तर कबजा करेंगे, जीते हुए की जी-जान से रक्षा करते हुए।’’ (‘जर्मन कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना कांग्रेस में रोज़ा लुग्जमबर्ग का भाषण’, पाथफाईंडर प्रेस)।
बदकिस्मती से, बात यहीं खत्म नहीं हुई। ब्रीमेन ग्रुप का प्रतिनिधित्व करते हुए, पॉल फ्रोलिच जब नवंबर 1918 में हैम्बर्ग में निम्न अपील जारी कर रहा था -- ‘‘यह जर्मन क्रॉंति की, विश्व क्रांति की शुरुआत है। विश्व क्रान्ति की महानतम कार्रवाई, जिन्दाबाद! जर्मन मजदूर गणराज्य जिन्दाबाद! विश्व बोल्शेविज्म जिन्दाबाद!’’ बजाए यह पूछने के कि इतना बड़ा हमला क्यों पराजित हुआ, करीब एक माह बाद रोजा लुग्जबर्ग कह रही थी ‘‘नवम्बर 9 को मजदूरों और सिपाहियों ने जर्मनी में पुराने शासन को उखाड़ फेंका.... नवम्बर 9 को सर्वहारा उठ खड़ा हुआ और उसने यह शर्मनाक जुआ उतार फेंका...। जर्मन राजशाही को कौंसिलों में संगठित मजदूरों और सिपाहियों ने मार भगाया।’’ इस प्रकार सत्ता के विलियम द्वितीय के गिरोह के हाथ से एबर्ट-शीदेमान-हास के गिरोह के हाथ में जाने की व्याख्या उसने एक क्रान्ति के रूप में की ना कि क्रांति के खिलाफ पुराने पहरेदारों की तबदीली के रूप में। [5]
सामाजिक जनवाद की ऐतिहासिक भूमिका को समझने की इस असफलता की कीमत रोजा लुग्जमबर्ग, लीब्कनेख्त तथा हजारों सर्वहारागणों को अपनी जान से चुकानी पड़ी। केऐपीडी (जर्मन कम्युनिस्ट मजदूर पार्टी), इतालवी वाम के समान, इस तजरूबे से सबक लेने के मामले में स्पष्ट थी। केऐपीडी द्वारा कम्युनिस्ट इंटरनेशनल के तथा केपीडी के विरोध का एक अत्याधिक बुनियादी कारण था यूएसपीडी से किसी भी प्रकार का सम्बन्ध रखने से उसका सख्त विरोध। इस ओर हम बाद में लौटेंगे। फिलहाल, 6 फरवरी 1921 को बोरदिगा ने एल कम्युनिस्टा में ‘‘सामाजिक जनवाद का ऐतिहासिक कार्य’’ नामक एक लेख लिखा। इसमे से हम चन्द अंश दे रहे हैं:
‘‘सामाजिक जनवाद का एक ऐतिहासिक कार्य है, इस अर्थ में कि यूरोप में संभवत: एक ऐसा दौर रहेगा जब सामाजिक जनवादी पार्टियाँ, स्वंय अथवा बुर्जुआ पार्टियों के सहयोग में सत्ता में रहेंगी। सर्वहारा के पास यद्यपि इसे रोकने की क्षमता न हो, ऐसी मध्यवर्ती मंजिल क्रान्तिकारी रूपों और संस्थाओं के विकास में एक सकारात्मक तथा आवश्यक अवस्था नहीं; उनके लिए उपयोगी तैयारी होने के विपरीत यह सर्वहारा क्रान्तिकारी आक्रमण को कम करने, उसे विपथ करने की बुर्जुआजी की हताश कोशिश होगी, ताकि बाद में मजदूरों को, अगर सामाजिक जनवाद की वैधानिक, मानवतावादी तथा सभ्य सरकार के खिलाफ बगावत करने की ताकत अभी उनमे बाकी हो, सफेद प्रतिक्रिया के झण्डों तले निर्ममता से कत्ल किया जा सके।’’
‘‘जिस प्रकार मजदूर कौंसिलों की तानाशाही के सिवा सर्वहारा सत्ता का कोई अन्य रूप नहीं हो सकता, उसी प्रकार हमारे लिए बुर्जुआजी से सर्वहारा को सत्ता हस्तांतरण के सिवा कोई सत्ता हस्तांतरण नहीं हो सकता।’’
2. जर्मन कम्युनिस्ट पार्टी (स्पार्टकस बुँद) के लड़खड़ाते कदम
हमने यह अध्ययन जर्मन कम्युनिस्ट पार्टी की 30 दिसंबर 1918 – 1 जनवरी 1919 की स्थापना कांग्रेस से शुरू किया। फिर हम इसकी जडों की ओर मुड गए। अब हम आरंभिक प्रस्थान-बिन्दू से जारी रखेंगे।
स्थापना कांग्रेस में दो बिल्कुल विरोधी दो पोज़ीशनें उभर कर सामने आईं। एक ओर था रोजा लुग्जमबर्ग, जोगिश्चे तथा पाल लेबी के गिर्द का अल्पमत जिसमें पार्टी की सर्वाधिक महत्वपूर्ण शख़्सियतें शामिल थीं और जिसने, अल्पमत में होने के बावजूद, उसका नेतृत्व संभाला। (अल्पमत का खिल्ली उडाने का रवैया तथा वाम की प्रबल पोजीशनों को अभिव्यक्ति की करीब-करीब इजाजत न देना, जेनट्रेल में सिर्फ फ्रालिच को शामिल किया गया था, कुछ माह बाद हाईडलवर्ग कांग्रेस में तमाशा बनने वाला था।) दूसरी तरफ था पार्टी का बहुमत : आईकेडी तथा स्पार्टकसवादियों के एक बड़े हिस्से द्वारा व्यक्त उत्साह तथा क्रान्तिकारी अर्न्तशक्ति। लीब्कनेख्त के नेतृत्व में वाम की पोजीशनें भारी बहुमत से विजयी हुई; चुनावों का विरोध, यूनियनों का त्याग, आम बगावत की तैयारी।
लेकिन बगावती आक्रमण की तैयारी के फौरी कार्यभारों के समक्ष बहुमत के पास एक स्पष्ट परिदृश्य की कमी थी। सैनिक समस्या भी पार्टी के केन्द्रीकृत तथा नेतृत्वकारी रोल की मांग करती थी। चारों ओर एक प्रकार का संघवाद तथा स्थानीयतावादी स्वतंत्रता हावी थी। बर्लिन में शायद ही किसी को पता था कि रूहर में, देश के मध्य में अथवा दक्षिण में क्या घट रहा है और् इसके उल्टे भी। स्वयं रोटफाहन ने 8 जनवरी 1919 में माना कि ‘‘मजदूर वर्ग को संगठित करने के कार्यभार के लिए जिम्मेदार एक केन्द्र का अनास्तित्व बना नहीं रह सकता....। यह अत्याधिक जरूरी है कि क्रांतिकारी मजदूर जनसमूहों की लड़ाकू शक्ति को दिशा देने तथा उसका क्रान्तिकरण करने में समर्थ एक संगठन-तन्त्र की स्थापना करें।’’ और यह रिपोर्ट मात्र बर्लिन की बात कर रही है।
यह विघटन और बढ़ने वाला था। रोजा लुग्जमबर्ग तथा लीब्कनेख्त की हत्या के बाद यह पागलपन के स्तर तक पहुँच गया। ऐन उस वक्त जब पार्टी भूमिगत होने को मजबूर थी और प्रतिक्रांतिकारी हिंसा का शिकार थी, उसने अपने-आप को सिर (नेतृत्व) विहीन पाया। जर्मनी में सब जगह, ब्रीमेन, म्युनिख, बावेरिया आदि में उभरने वाले सोवियत गणराज्यों को एक-एक कर पराजित कर दिया गया और सर्वहारा योद्धाओं को कत्ल किया गया। सर्वहारा उभार, वर्ग में निहित अपरिमित संभावनाओं को एक धक्का लगा। हम अप्रैल 1919 में बावेरियन सोवियत गणराज को लिखे लेनिन के पत्र को पूरा उद्धृत करने से नहीं रह सकते। कहने की जरूरत नहीं कि लेनिन द्वारा सुझाए अधिकतर ‘‘ठोस कदम’’ कभी उठाए नहीं जा सके।
बावेरियन सोवियत गण्राज्य को शुभकामनाएँ
‘‘हम शुभकामना सन्देश के लिए आप को धन्यवाद देते हैं और बावेरियन सोवियत गणराज का जी-जान से स्वागत करते हैं। हम चाहेंगे के आप शीघ्र हमें उन कदमों के बारे में अधिक ठोस रूप से तथा अधिक बार सूचना दें जो आपने बुर्जुआ जल्लादों के, शीदेमान और कम्पनी के खिलाफ संघर्षों में उठाए हैं; क्या आपने शहर के विभिन्न भागों में मजदूरों तथा नौकरों की सोवियतें बनाई हैं, क्या आपने सर्वहारा की हथियारबन्द और बुर्जुआजी को निरस्त्र किया है, क्या आपने मजदूरों और सर्वोपरि खेत मजदूरों तथा छोटे किसानों की मदद के लिए कपड़े तथा अन्य वस्तुओं के गोदामों का भरपूर उपयोग किया है, क्या आपने म्युनिख के पूंजीपतियों के कारखानों का, उनके माल का तथा पास-पड़ोस के पूंजीवादी कृषि उद्यमों का अधिग्रहण किया है, क्या आपने छोटे किसानों के रहननामों तथा लगानों का उन्मूलन किया है, क्या आपने खेत मजदूरों तथा अन्य मजदूरों की मजदूरी को तिगुना किया है, क्या आपने जनता के लिए परचे तथा अखबार छापने के मकसद से समस्त कागज तथा छापेखानों का अधिग्रहण किया है, क्या आपने राजकीय प्रशासन कला के अध्ययन को अर्पित दो घण्टों सहित छ: घण्टों का कार्य दिवस लागू किया है, क्या आपने मजदूरों को फौरन धनी मकानों में ठहराने के लिए पूंजीपतियों को एक जगह इकटठा किया है, क्या आपने समस्त बैकों का अधिग्रहण किया है, क्या आपने बुर्जुआजी में से बन्दी बनाए हैं, क्या तुमने मजदूरों को बुर्जुआजी के सदस्यों से अधिक देता खाद्यान का राशन लागू किया है, क्या आपने पड़ोसी गांवों में प्रचार तथा प्रतिरक्षा के लिए फौरन समस्त मजदूरों को लामबन्द किया है। मजदूरों तथा खेत मजदूरों की सोवियतें, तथा अलग से, छोटे किसानों की सोवियतों द्वारा लागू इन कदमों तथा ऐसे ही अन्य कदमों का विशालतम संभव उपयोग आपकी पोजीशन को अवश्य मजबूत बनाएगा। एक असाधारण टैक्स से बुर्जुआजी पर चोट करना तथा फौरन, हर कीमत पर, मजदूरों, खेत मजदूरों तथा छोटे किसानों की स्थिति में व्यवहारत: सुधार करना अति आवश्यक है। शुभकामनाएँ तथा सफलता की आशा’’- लेनिन।
सैद्धांतिक तैयारी की यह कमी, हालात की जरूरत के बराबर उठ पाने की यह असमर्थता, उतार के पहले चिन्हों के साथ फूट को जन्म देने वाली थी। दूसरी ओर वे थे जिन्होंने विजयी रूसी क्रान्ति के रणनीतिक तथा कार्यनीतिक तरीकों को जर्मनी पर लागू करने की हास्यस्पद कोशिश में अब बोलशेविज्म की ओर, विजयी रूसी क्रांति की ओर देखना और उसके प्रचार को उठाना शुरू किया। रादेक का मामला इसका ठेठ उदाहरण है। आरंभ में वह आन्दोलन के सर्वाधिक अटल खेमे, ब्रीमेन कम्युनिस्टों, का प्रवक्ता था। 1919 की गर्मियों में संघर्ष के उतार के बाद वह पाल लेवी के साथ, अक्तूबर 1919 की हाईडलबर्ग कांग्रेस का निर्माता बना जहां पार्टी की स्थापना कांग्रेस की उपलब्धियों को तिलांजलि दे दी गई और उन्हें बदल दिया गया चुनावों के कार्यनीतिक उपयोग द्वारा, अति-सुधारवादी यूनियनों में काम द्वारा और अन्त में ‘‘खुले-पत्रों’’ के तथा ‘‘संयुक्त मार्चों’’ के प्रयोग द्वारा।
इस प्रकार, इस रुझान द्वारा केन्द्रीयकरण का आहवान संदिग्ध उपयोगिता लिए हुए है, क्योंकि वे आन्दोलन के स्वत:स्फूर्त विकास की दिशा के उल्ट रास्ता अपना रहे थे। दूसरी ओर क्रांतिकारी खेमे ने यह बनावटी चुनाव करने से इन्कार कर दिया और उसके पूर्वानुमान अधिक फलदायक साबित हो रहे थे। पर जब उन्होंने स्वंय को एक संगठित रुझान में गठित कर लिया तो उन्हें बढ़ती मुश्किलों की एक ठोस दीवार का सामना करना पडा।
क्या विश्व क्रांति रूसी क्रांति की खामियों की बजह से फेल हुई अथवा रूसी क्रांति विश्व क्रांति की खामियों की बजह से फेल हुई?
इस समस्या का उत्तर सरल काम नहीं और वह इन बरसों की सामाजिक गत्यात्मकता की समझ की मांग करता है। रूसी क्रांति पश्चिमी सर्वहारा के लिए एक शानदार उदाहरण थी। मार्च 1919 [6] में स्थापित तीसरा इंटरनेशनल बोल्शेविकों के क्रांतिकारी संकल्प का उदाहरण है और यूरोपीय कम्युनिस्टों का सहयोग हासिल करने की उनकी वास्तविक कोशिश का प्रतिनिधित्व करता है। लेकिन रूसी इंकलाब की अन्दरूनी मुश्किलें जो गृहयुद्ध के अन्त में आसमान छूने लगी थी और रूसी ढांचे में जिनका कोई समाधान नहीं था और जर्मन इंकलाब के पहले चरण (जनवरी-मार्च 1919) की तथा हंगरी के सोवियत गणराज्य की असफलता, इस सब ने रूसी कम्युनिस्टों को यकीन दिला दिया कि यूरोप में क्रांति एक चिरकालिक परिदृश्य है। उनके अनुसार अब मसला था भविष्य के लिए मजदूरों के बहुमत को पुन: अपनी ओर करना तथा सामाजिक जनवादी जनसमूहों को कम्युनिस्ट पोजीशनों के सहीपन के कायल करना। एक रुझान था यूएसपीडी को पुन: अपने में मिलाने का, उसे बुर्जुआजी के एक गुट की बजाए मजदूर आन्दोलन के दक्षिण-पंथ के रूप में देखने का। और सामाजिक जनवाद के खिलाफ संघर्ष को, वर्ग के सर्वाधिक अग्रगामी स्तरों के लड़ाकूपन के आधार पर सामाजिक जनवाद को नंगा करने और उस पर हमले की जरूरत पर जोर देकर इन स्तरों से जुड़ने के प्रयासों को धीरे धीरे त्याग दिय गया।
इस प्रकार हम कह सकते हैं कि पहले दौर में (1918-1919) पश्चिमी कम्युनिस्टों की हिचकिचाहट जानलेवा थी। तो बाद में यूरूप में जब स्थिति अभी भी क्रांतिकारी थी, स्वंय कम्युनिस्ट इन्टरनेशनल एक सच्चे सर्वहारा हिरावल के, पछेता ही सही, फलने-फूलने के रास्ते में रुकावट बनने वाला था। और हम यहां मात्र 1920-21 के सालों की बात कर रहे हैं। इसके बाद हम बुर्जआजी के हमलों के खिलाफ सर्वहारा प्रतिक्रिया के दो और सालों की बात कर सकते हैं, मसलन हैम्बर्ग 1923। सिर्फ उसके बाद ही मजदूर वर्ग की अन्तिम हार और उसके कत्लेआम की बात की जा सकती थी। एक स्थिति से दूसरी में गमन यद्यपि क्रमिक रूप से हुआ, फिर भी हम इस पतन के निर्णायक चरणों को अंकित कर सकते हैं : कम्युनिस्ट इन्टरनेशनल द्वारा एम्सटर्डम ब्यूरो को भंग किया जाना और लेनिन की रचना वामपंथी कम्युनिज्म एक बचकाना रोग।
आइये, जर्मन कम्युनिस्ट पार्टी के उतार-चढ़ाव की ओर लौटें। 17 अगस्त 1919 को फ्रैंकफुर्त में एक राष्ट्रीय कांफ्रेंस का आयोजन किया गया। वाम पर लेवी का आक्रमण असफल रहा। लेकिन उसी वर्ष अक्तूबर में इसे अधिक सफलता मिली। एक गुप्त कांग्रेस में जिसमें जिला सेक्शनों का बहुत कम प्रतिनिधित्व था, और बहुतों की इच्छाओं के खिलाफ, जनवरी में अपनाई कार्यक्रम संबंधी पोजीशनें बदल कर एक व्यवहारिक विभाजन का निर्णय लिया गया। पार्टी के नये कार्यक्रम का पॉइंट 5 इस प्रकार था:
‘‘क्रान्ति, जो एक झटके से नहीं होगी बल्कि एक वर्ग, जो सदियों से दलित है और इस प्रकार अपने ध्येय और अपनी ताकत के प्रति अभी पूर्ण रूप से सचेत नहीं, का लम्बा तथा दृढ़ प्रतिज्ञा संघर्ष होगी, और यह चढ़ाव तथा उतार की प्रक्रिया से शासित है।’’
और शीघ्र बाद लेवी ने इस दृष्टिकोण का समर्थन किया कि नई क्रांतिकारी लहर ....1926 में आएगी। पर ‘‘वामपंथियों’’, ‘‘दुस्साहवादियों’’ को निष्कासित करने का निर्णय आधिकारिक रूप से नहीं लिया गया था और यह सवाल 1920 में केपीडी की तीसरी काँग्रेस तक नहीं सुलझा था। हाईडलबर्ग काँग्रेस के बाद वाम ने स्वंय को केपीडी (ओ) (ओ का अर्थ विरोधपक्ष) में गठित करने का प्रयास किया। इस प्रकार व्यवहारिक रूप से यह सुनिश्चित हो गया कि 1920 के पहले चन्द महींनों के बाद करीब-करीब दो केपीडी संगठन थे: केपीडी (स्पार्टकसबुंद) तथा केपीडी (ओ)। यह सब एक पूर्णतया अराजक स्थिति में घटित हुआ। बिरले और अपूर्ण समाचार ही जैसे-तैसे मासको तक पहुँच पाते थे। 10 अक्तूबर 1919 के इतालवी, फ्रांसीसी तथा जर्मन कम्युनिस्टों के अभिनंदन में लेनिन ने लिखा:
‘‘जर्मन कम्युनिस्टों बाबत हम सिर्फ इतना जानते है कि अनेकों कस्बों में कम्युनिस्ट प्रैस है। एक आन्दोलन जो तेजी से फैल रहा है और जो जबरदस्त दमन का शिकार है, उसमें मतभेदों का उभरना अनिवार्य हैा यह बढ़्ने का दर्द है। जहां तक मैं आंक पाया हूँ, जर्मन कम्युनिस्टों के मतभेदों को ‘कानूनी रास्तों’ का प्रयोग करने, बुर्जुआ संसदों, प्रतिक्रियावादी युनियनों, शीदेमानों तथा काउत्सकियों द्वारा दूषित कानूनी कौंसिलों को प्रयोग करने के मसले के रूप मे, इन संस्थाओं में हिस्सा लेने अथवा उनका बहिष्कार करने के मसले के रूप मे प्रस्तुत किया जा सकता।’’
लेनिन ने इन संस्थाओं में भागीदारी का पक्ष लिया और लेवी की नीतियों पर अपनी स्वीकृति की मोहर लगा दी।
लेनिन केन्द्रीय समस्या, जो चन्द माह बाद प्रकट होनेवाली थी, यह थी कि या तो गैर-कानूनी क्रान्तिकारी संघर्ष तथा सैनिक तैयारी को अपनाया जाए या फिर यूनियनों तथा संसद में कानूनी गतिविधियों को। केपीडी की ‘‘दो लाइनों’’ के बीच संघर्ष का यही आधार था। कुछ समय के लिए विरोधपक्ष का केन्द्र हैम्बर्ग में आधारित था। लेकिन लोफनबर्ग तथा वोल्फहोम की साख शीघ्र गिरने लगी। उन्होंने ही राष्ट्रीय बोल्शेविज्म का प्रतिपादन करना शुरू किया था, जिसके मुताबिक एटेण्ट के खिलाफ जर्मनी की प्रतिरक्षा, जर्मन बुर्जुआजी से गठजोड़ की कीमत पर भी, एक क्रान्तिकारी कर्तव्य थी।[7] तब से ब्रीमेन, जो पहले ही एक ‘‘सूचना केन्द्र’’ के रूप में काम कर रहा था, वामपंथी कम्युनिज्म के लिए संदर्भ बिन्दू बन गया। 1920 के आरम्भ तक ब्रीमेन सूचना केन्द्र ने दो मोरचों पर संघर्ष किया : पार्टी जैनट्रेल के खिलाफ तथा हैम्बर्ग के खिलाफ। ब्रीमेन ने विभाजन की कोशिश नहीं कि बल्कि हाईडलबर्ग कांग्रेस की नतीजों पर बहस अयोजित करने का प्रयास किया। पर लेवी द्वारा समर्थित जैनट्रेल समस्त बहस के विरुद्ध था और इस काम में उसे हैम्बर्ग के राष्ट्रीय बोल्शेविज्म के खिलाफ संघर्ष से मदद मिली। प्रयासित कैप प्रतिक्रांति ने इन मतभेदों को ‘‘व्यवहारिक’’ अन्तर्य देकर समस्त बहसों का अन्त कर दिया।
आईए प्रतिक्रांति की इस कोशिश के प्रति सर्वहारा प्रतिक्रिया का और विभिन्न संगठनों के व्यवहार का निरिक्षण करें।
‘‘रुहर में रीशवेहर ने कैप के प्रति अपनी पोजीशन फौरन स्पष्ट नहीं की। ऐ.डी.जी.बी. (जर्मन यूनियनें)[8] तथा सामाजिक जनवाद से लेकर मध्यमार्गियों तथा के.पी.डी.(एस) तक सभी ने आम हड़ताल का आहवान् किया था (के.पी.डी. का मध्यमार्ग बेशक शुरू के दिनों में डुलमुल था)। इस सभ के चलते, अगर यूनियनों तथा संसदीय पार्टियों का नेतृत्व तोड़ा जा सकता तो स्थिति में क्रान्तिकारी संभावनाएँ होतीं। वास्तव में, बर्लिन, म्युनिश, ब्रीमेन, हैम्बर्ग आदि के विपरीत रुहर तथा केन्द्रीय जर्मनी जबरदस्त सर्वहारा हारों में से नहीं गुजरे थे।
‘‘रुहर में रीशवेहर तथा मजदूरों के बीच काफी तनाव था, और कैप प्रतिक्रांति द्वारा भड़की स्थिति ऐसी थी कि इसका परिणाम था फौरन हड़ताली मजदूरों को हथियारबन्द करना। (यह तथ्य भी अहम था कि बहुत से लड़ाकू मजदूर एफएयूडी (एस) में शामिल होकर ए.डी.जी.बी. के दबदबे से बच निकले थे।) आम हड़ताल के जनवादी, संविधानवादी चरित्र के चलते, स्वतंत्र तथा अन्य अनेक सामाजिक जनवादी पहले कुछ दिनों में मजदूरों की आक्रमकता को सिर्फ कम करने की कोशिश कर सके। यद्यपि संघर्ष के पहले शिखरबिन्दुओं के दौरान उन्हें इसमें सफलता नहीं मिली। हालत इस प्रकार विकसित हुए : प्रत्येक कसबे में स्थानीय रूप से यूनियनों से स्वतंत्र ऐसी सर्वहारा इकाइयँ गठित की गई जिन्होंने रीशवेहर के सैनिकों के खिलाफ हथियार उठाए। बागी कसबों ने अपनी ताकत को एकजुट किया और अभी भी फौज के कब्जे वाले कसबों के खिलाफ चढ़ाई की ताकि स्थानीय मजदूरों की मदद की जा सके।
रुहर की ‘लाल सेना’ (इसे यही कहा जाता था) एक हिस्से ने रीशवेहर को रुहर से बाहर धकेल दिया तथा लिप के समान्तर एक मोर्चा बनाया। मज़दूरों की अन्य इकाईयों ने एक-एक करके रेमशीड, मुलहीम, डीसबर्ग, हैमबोर्न तथा डिन्सलेकन के कसबों पर कब्जा कर लिया। और 18 से 21 मार्च के अल्पकाल में ही उन्होंने रीशवेहर को राहिइन के किनारे वेसल तक पीछे धकेल दिया।
प्रतिक्रांति की असफलता के बाद, 20 मार्च को ए.डी.जी.बी. ने आम हड़ताल की समाप्ति की घोषणा कर दी। और 22 मार्च को एसडीपी तथा यूएसपीडी ने भी वही किया।
24 मार्च को सामाजिक जनवादी सरकार, एसडीपी, यूएसपीडी तथा केपीडी का एक हिस्सा बीलफेल्ड में एक समझौते पर पहुँच गए। उन्होंने युद्ध विराम की, मजदूरों के निरस्त्रीकरण की तथा उन मजदूरों की मुक्ति की घोषणा कर दी जिन्होंने “गैर-कानूनी” काम किये थे। ‘लाल सेना’ के एक बड़े हिस्से ने समझौते को स्वीकार नहीं किया और संघर्ष जारी रखा।
30 मार्च को सामाजिक जनवादी सरकार और रीशवेहर ने मजदूरों को एक अल्टीमेटम दिया : या तो फौरन समझौता स्वीकार करो या फिर रीशवेहर आक्रमण शुरू करेगा (इस बीच बावेरिया, बर्लिन, उत्तरी जर्मनी, तथा बाल्टिक से फ्रीकापर्स के आने से रीशवेहर की शक्ति चौगुणी हो गई थी)। स्वतंत्रों की गद्धारी, केपीडी (एस) तथा सिंडीकेलिस्टों की मध्यमार्गी सोच तथा लाल-सेना के तीन केन्द्रों में प्रतिद्वन्द्विता के कारण विभिन्न मजदूर इकाईयों में समन्वय अब निम्नतम स्तर पर था। रीशवेहर तथा विशाल सफेद सेनाओं ने सभी मोर्चों पर जबरदस्त आक्रमण शुरू किया : 4 अप्रैल को डीसबर्ग तथा मुलहीम, तथा उसके बाद 5 को डार्टमुंड और 6 को गेल्सनकिर्चन का पतन हो गया।
फिर एक बहशी सफेद आतंक शुरू हुआ| न सिर्फ हथियारबन्द मजदूरों को इसका शिकार बनाया गया बल्कि उनके परिवारों तथा युवा मजदूरों का, जिन्होंने जख्मी जुझारूओं की मोरचे से निकल जाने में मदद की थी, भी नरसंहार किया गया।
रुहर की ‘लाल सेना’ 80,000 से 1,20,000 तक मज़दूरों से गठित थी। यह तोपखाना और एक छोटी-सी वायु सेना गठित करने में सफल रही थी। संघर्षों के विकास के चलते इसके तीन सैनिक केन्द्रों के गठन हुआ:
हेगन : यूएसपीडी की अगुवाई में था और उसने बेझिझक बीलफेल्ड समझौते को स्वीकार किया।
ऐस्न : केपीडी तथा वामपंथी स्वतंत्रों के नेतृत्व में यह मार्च 25 की सेना के सर्वोच्च केन्द्र के रूप में स्वीकृत था। जब 30 मार्च को सामाजिक जनवादी सरकार ने मजदूरों को अल्टीमेटम दिया तो इस केंद्र ने आम हड़ताल की ओर वापसी का, जबकि मजदूर पहले ही सशस्त्र थे तथा लड़ रहे थे, का अत्याधिक संदिग्ध आवाहन किया।
मुलहीम : यह वामपंथी कम्युनिस्टों तथा क्रांतिकारी संघाधिपत्यवादियों के नेतृत्व में था और ऐस्न के सैनिक ‘केन्द्र’ का पूर्णतया अनुसरण करता था। लेकिन जब ऐस्न ने बीलफेल्ड समझौते प्रति मध्यमार्गी रूख अपनाया तो मुलहीम केन्द्र ने ‘‘अन्त तक संघर्ष’’ का नारा अपनाया। यूएसपीडी(एस), केपीडी (एस) तथा एफएयूडी (एस) के तीन नेतृत्वों ने वही नीच पोजीशन अपनाई और घोषित किया कि वे इन संघर्षों को दुस्साहसिकतावादी मानते हैं।
किसी राष्ट्रीय जैनट्रेल ने इन संघर्षों का नेतृत्व नहीं संभाला। स्थानीय सर्वहारा आन्दोलन ने स्थानीय स्तर पर अपनी शक्ति की सीमाओं में केन्द्रीयकरण की ओर अपने संकल्प को प्रकट किया। मध्य जर्मनी में भी मजदूरों ने अपने-आप को हथियारबन्द किया और कम्युनिस्ट एस होल्ज के नेतृत्व में हाले के इर्द-गिर्द के नगरों में विद्रोह संगठित किये। लेकिन आन्दोलन आगे नहीं बढ़ पाया। क्योंकि केपीडी (एस), जो चेमनित्ज में बहुत मजबूत थी तथा सबसे बड़ी पार्टी थी, ने सामाजिक जनवादियों तथा स्वतंत्रों की सहमति से मजदूरों को हथियारबन्द करने और एबर्ट की सरकार में वापिसी का इन्तजार करने... में अपने आपको सन्तुष्ट रखा
चेमनित्ज की मजदूर कौंसिल की अगुवाई ब्रैंडलर कर रहा था। उसकी नज़र में एक स्थानीय कम्युनिस्ट लीडर के रूप में उसका रोल था होल्ज के नेतृत्व में कम्युनिस्टों, जो चेमिनित्ज तथा पास के अन्य इलाकों में रीशवेहर द्वारा छोड़े गए बहुतेरे हथियारों से अपने आपको लेस करना चाहते थे, तथा सामाजिक जनवादियों, जो क्रान्तिकारियों पर आक्रमण के लिए सदैव तैयार थे और जिन्होंने उनके खिलाफ स्थानीय बुर्जुआजी के हथियारबन्द सफेद ग्रुपों (हीमवेयर) को उतारने के अनेक प्रयास किया, के बीच संघर्ष फूट पड़ने से रोकना।
केपीडी (एस) का मध्यममार्गी रूख इस तथ्य से पूर्णतया नंगा हो जाता कि जब मजदूर संघर्षरत थे, लेवी जैनट्रेल ने 26 मार्च को सामाजिक जनवादियों तथा स्वतंत्रों की मिली-जुली ‘‘मजदूर सरकार’’ बनाने की सूरत में, ‘‘निष्ठावान विपक्ष’’ के रूप मे काम करने का नारा दिया। केपीडी (एस) के मुख्पत्र डाई रोट फाहन ने लिखा (नं. 32, 1920):
‘‘निष्ठावान प्रतिपक्ष को हम इस प्रकार समझते हैं: हथियारबन्द सत्ताहरण के लिए कोई तैयारी नहीं, अपने लक्ष्यों तथा समाधानों के लिए पार्टी ऐजीटेशन को पूर्ण आजादी।’’
इस प्रकार केपीडी ने अधिकारिक रूप से अपने क्रांतिकारी लक्ष्यों को त्याग दिया। जर्मनी सर्वहारा में क्रांतिकारी कम्युनिस्ट पार्टी की आवश्यकता सदैव से अधिक जरूरी बना गई।
इस प्रकार, तीसरे इन्टरनेशनल के अधिकारिक सेक्शन की गद्धारी के समक्ष यह एक स्वाभाविक ऐतिहासिक निष्कर्ष था कि वामपंथी कम्युनिस्टों ने अगले माह (अप्रैल 1920) केएपीडी (जर्मन कम्युनिस्ट मजदूर पार्टी) का गठन किया।
जर्मन वाम तथा तीसरे इंटरनेशनल में यूनियनों का सवाल से इस उद़ृण को किसी टिप्पणी की जरुरत नहीं। (1972 में इस रचना के आधार पर बोरदिगिस्ट पीसीआई का एक अहम हिस्सा उससे अलग हो गया।)
इन महीनों के दौरान एक और महत्वपूर्ण घटना घटी। ब्रीमेन लिंक का केपीडी(ओ) को छोडना तथा केपीडी (एस) में उसकी वापसी। यहां इसने फ्रोलिच तथा कार्ल बेकर के नेतृत्व में अन्दरूनी प्रतिपक्ष का रोल अदा किया। (अगले सालों और खासकर 1921 की बसंत में बेकर की पोज़ीशनों के विकास को हम बाद में देखेंगे।) हमारे पास “वामपंथी कम्युनिज़्म” पर इस गंभीर चोट तथा लेवी नेतृत्व की भारी जीत को समझने तथा उस पर निर्ण्य लेने के लिए सारी समग्री नहीं है। जिस चीज ने निस्संदेह ब्रीमेन ग्रुप के निर्णय को प्रभावित किया वह थी कम्युनिस्ट इंटरनेशनल, जो केपीडी (एस) का समर्थन कर रहा था, के प्रति वफादारी की उसकी भावना और लाफनबर्ग तथा वोल्फहीम के हैम्बर्ग ग्रुप के प्रति उसका स्पष्ट विरोध|
अब तक हमने उन यूनियनों, कौंसिलों तथा ‘वर्करज़ एसोसिऐशनों’ की बात नहीं की है जो जर्मन आंदोलन में बहसों तथा मतभेदों के मुख्य मुद्दे थीं। इस सवाल की जटिलता ने हमे मज़बूर किया कि ‘यूनियनों के सवाल’ को स्पष्टतया से उठाने से पह्ले हमे अन्य सवालों से निपट लें। अपनी अगली रचना में हम यही करेंगे।
एस, आईआर-2, जुलाई, 1975 [हिन्दी में कम्युनिस्ट इंटरनेशनलिस्ट, बुलेटीन 3, अक्तूबर
फुटनोट:
“जहां तक वह साम्राज्यवाद के खिलाफ प्रतिरक्षात्मक लडाई लड रहा है, जर्मन पूँजीपति वर्ग इससे पैदा परिस्थिति में वस्तुगत तौर पर एक क्रांतिकारी रोल अदा कर रहा है। पर एक प्रतिक्रांतिकारी वर्ग होने के नाते वह इस समस्या के एकमात्र उपलब्ध समाधान का सहारा नहीं ले सकता।इन हालातों में सर्वहारा की जीत की पूर्वशर्त है फ्रांसीसी पूँजीपति वर्ग के खिलाफ संघर्ष और इस संघर्ष में जर्मन पूँजीपति वर्ग को सहयोग देने की उसकी क्षमता, पूँजीपति वर्ग द्वारा तोड़-फोड़ का शिकार प्रतिरक्षात्मक लडाई की अगुआई संभाल कर।“
और जून 1923 के इम्प्रेकोर में पाठक निम्न पढ सकते हैं:”1920 में ‘राष्ट्रीय बोल्शेबिज़म’ जनरलों को बचाने के लिए एक गठबंधन ही हो सकता था जिन्होंने अपनी जीत के फौरन बाद कम्युनिस्ट पार्टी को कुचल दिया होता। आज इस तथ्य का सूचक है कि हर कोई मानता है कि मसले का एकमात्र हल कम्युनिस्टों के पास है। आज हम ही एकमात्र हल हैं। जर्मनी के अन्दर राष्ट्रीय तत्व पर कड़ा ज़ोर उसी तरह एक क्रांतिकारी कार्य है जैसे उपनिवेशों में।“ (ज़ोर हमारा)
विश्व अर्थव्यवस्था रसातल के कगार पर लगती है। 1929 से भी बदतर एक भारी मंदी का खतरा सदैव बढ़ रहा है। बैंक, व्यापार, नगर पालिकाएँ, क्षेत्र और यहां तक कि राज्य दिवालियेपन के रुबरु हैं। और एक चीज़ जिसकी मीडिया अब बात नहीं करता वह है जिसे वे 'कर्ज संकट' कहते हैं।
जब ऋण की दीवार से होता है पूँजीवाद का सामना
निम्न चार्ट वैश्विक कर्ज में 1960 से अब तक हुए परिवर्तन को दर्शाता है। (यहां जिक्र है दुनिया के कुल ऋण का, अर्थात परिवारों, व्यवसायों और सभी देशों के राज्यों का ऋण)। यह ऋण दुनिया के सकल घरेलू उत्पाद के प्रतिशत के रूप में व्यक्त किया गया है।
ग्राफ़ 1
इस चार्ट के अनुसार, 1960 में कर्ज विश्व के सकल घरेलू उत्पाद के बराबर (यानी 100%) था। 2008 में यह 2.5 गुना अधिक (250%) था। दूसरे शब्दों में, आज ऋण की पूर्ण अदायगी विश्व अर्थव्यवस्था द्वारा ढाई साल में उत्पादित तमाम संपदा को निगल जाएगी।
तथाकथित "विकसित देशों" में यह परिवर्तन नाटकीय है, जैसाकि निम्न ग्राफ में, जो संयुक्त राज्य अमेरिका के सार्वजनिक ऋण का प्रतिनिधित्व करता है, में दिखाया गया है।
ग्राफ़ 2
हाल के वर्षों में, सार्वजनिक ऋण का संचय ऐसा है कि पिछले ग्राफ पर परिवर्तन को दिखाती वक्र रेखा अब एक खडी लाइन है! यही है जिसे अर्थशास्त्री "ऋण की दीवार" कहते हैं। यही वह दीवार है जिससे पूँजीवाद टकरा गया है।
ऋण, पूँजीवाद के पतन का एक उत्पाद
यह देखना आसान था कि विश्व अर्थव्यवस्था अंतत: इस दीवार से टकरा जाएगी; यह अपरिहार्य था। तो क्यों दुनिया की सरकारों ने, वे चाहे वामपंथ की रही हों या दक्षिणपंथ की, अति वामपंथ की रही हों या अति दक्षिणपंथ की, तथाकथित "उदारवादी" रही हों या "राज्यवादी", सभी ने आधी से अधिक सदी से कर्ज़ सुविधाओं को फैलाया है, बडे बजट घाटे झेले हैं, सरकारों, कम्पनियों तथा परिवारों के कर्ज़ों की बढोतरी की सक्रिय हिमायत की है? जवाब आसान है: उन के पास कोई विकल्प नहीं था। अगर वे ऐसा नहीं करतीं तो वह भयानक मंदी जिसमे हम अब प्रवेश कर रहे हैं, 1960 के दशक में ही शुरू हो जाती। सच में, पूँजीवाद दशकों से कर्ज़ पर जीवित रखा गया है। इस परिघटना के मूल को समझने के लिए हमें उस चीज़ को भेदना होगा जिसे मार्क्स ने "आधुनिक समाज का महान रहस्य : अतिरिक्त मूल्य का उत्पादन" कहा। इसके लिए हमें एक छोटा सा सैद्धांतिक घुमाव लेना होगा।
पूँजीवाद हमेशा से अपने भीतर एक जन्मजात रोग लेकर चला है: वह एक विष बहुतायत में पैदा करता है जिसको वह समाप्त नहीं कर सकता: अति-उत्पादन। वह इतनी वस्तुएँ पैदा करता है जो बाजार मे खप सकने से अधिक हैं। क्यों? चलो एक सरल उदाहरण लेते हैं: एक मजदूर एक एसेम्बली लाइन पर या एक कंप्यूटर पर काम कर रहा है और महीने के अंत में 800 रुपये पाता है। वास्तव में, उसने 800 रुपये, जो वह पाता है, के बराबर उत्पादन नहीं किया है, बल्कि उसने 1600 रुपये के मूल्य का उत्पादन किया। उसने अवैतनिक काम किया, या दूसरे शब्दों में, बेशी मूल्य का उत्पादन किया। पूँजीपति उस 800 रुपये के साथ जो उसने मजदूर से चोरी किये हैं (यह मानते हुए कि वह सभी वस्तुओं को बेचने में कामयाब रहता है) क्या करता है? वह एक हिस्सा, मान लीजिये 150 रुपया, निजी उपभोग के लिए आवंटित करता है। शेष 650 रुपया वह कंपनी की पूँजी में फिर से निवेश करता है, बहुधा और आधुनिक मशीनें आदि खरीदने में। लेकिन पूँजीपति ऐसे व्यवहार क्यों करता है? क्योंकि वह आर्थिक रूप से ऐसा करने को मजबूर है। पूँजीवाद एक प्रतिस्पर्धी प्रणाली है और उसे अपने उत्पादों को अपने प्रतिद्वंद्वी से, जो उसी प्रकार के उत्पाद बनाता है, अधिक सस्ते बेचने होंगे। परिणाम स्वरूप, नियोक्ता को न केवल अपनी उत्पादन लागत, यानि कि मजदूरी, कम करनी होगी बल्कि मजदूर के अवैतनिक काम को बढाना होगा ताकि मुख्यता अधिक कुशल मशीनरी मे निवेश करके उत्पादकता बढ़ाई जा सके। अगर वह यह नहीं करता है तो वह आधुनिकीकरण नहीं कर सकता, और देर सवेर उसका प्रतिद्वंद्वी, जो यह सब कर लेगा और अधिक सस्ता बेचेगा, बाजार जीत लेगा। पूँजीवादी व्यवस्था एक अन्तर्विरोधी परिघटना से प्रभावित है : यह श्रमिकों को वास्तव में किए गए काम के बराबर भुगतान नहीं करती, और नियोक्ताओं को निचोडे मुनाफे के अधिकतर भाग का उपभोग त्यागने को मज़बूर करके, व्यवस्था बांटने की अपनी क्षमता से अधिक मूल्य पैदा करती है। न तो मजदूर, और न ही पूँजीपति और मजदूर संयुक्त रुप से तमाम उत्पादित मालों का इस्तेमाल कर सकते हैं। इसलिए पूँजीवाद को अपने अतिरिक्त मालों को अपने उत्पादन क्षेत्र के बाहर ऐसे बाज़ारों मे बेचना होगा जिन्हें पूँजीवादी संबंधों ने अभी विजित नही किया हो - तथाकथित 'अतिरिक्त पूँजीवादी बाजार' । यदि वह इसमें सफल नहीं होता, तो अति-उत्पादन का एक संकट पैदा हो जाता है।
यह मार्क्स द्वारा 'पूँजी' और रोजा लक्ज़मबर्ग द्वारा 'पूँजी का संचय' में निकाले गये निष्कर्षों में से चन्द का कुछ लाइनों में सारांश है। निचोड के रुप में, यह रहा अति उत्पादन के सिद्धांत का एक संक्षिप्त सारांश:
* पूँजी अपने मजदूरों का शोषण करती है (यानी मजदूरों की मजदूरी उनके काम द्वारा पैदा वास्तविक मूल्य से सदा बहुत कम होती है)।
* इस प्रकार पूँजी अपने मालों को मुनाफे पर, एक ऐसी कीमत पर बेचती है जो मजदूरों की मजदूरी और बेशी मूल्य से अधिक होती है और जिसमें उत्पादन के साधनों का मूल्यह्रास भी शामिल होता है। लेकिन सवाल यह है कि किसे?
* जाहिर है, श्रमिक माल खरीदते हैं ... अपनी पूरी मजदूरी का उपयोग करके। यह अभी भी बिक्री के लिए बहुत छोड़ देता है। इसका मूल्य अवैतनिक श्रम के बराबर है। इसी में पूँजी के लिए मुनाफा उत्पन्न करने की जादूई ताकत है।
* पूँजीपति भी उपभोग करते हैं... और वे भी आम तौर पर ऐसा करने बाबत बहुत दुखी नहीं होते। लेकिन वे अकेले बेशी मूल्य को समाहित किए तमाम मालों को नहीं खरीद सकते। न ही इसका कोई मतलब होगा। पूँजी मुनाफे के लिए स्वयं अपने से ही अपने मालों को नहीं खरीद सकती; यह अपनी दांईं जेब से पैसे ले कर अपनी बाँई जेब में डालने की तरह होगा। यह करके कभी किसी का कोई भला नहीं हुआ - हर गरीब इसकी गवाही दे देगा।
* संचय और विकास के लिए, पूँजी को मजदूरों और पूँजीपतियों के अलावा खरीददारों को खोजना होगा। दूसरे शब्दों में, पूँजीपति के लिए अपनी प्रणाली के बाहर बाजारों को खोजना जरूरी है, अन्यथा ना बिकने वाले माल उसके हाथों में रह जाते हैं और पूँजीवादी बाजार को अवरुद्ध करते हैं; तो यही "अति उत्पादन का संकट" है!
यह "आंतरिक अंतर्विरोध" (अति-उत्पादन की स्वाभाविक प्रवृत्ति और बाहरी बाजारों की निरंतर तालाश की आवश्यकता) अपने अस्तित्व के प्रारंभिक दौर में व्यवस्था की अविश्वसनीय प्रेरणा शक्ति की जड़ों में से एक है। 16वीं सदी में अपने जन्म के समय से ही पूँजीवाद को अपने को घेरे सभी आर्थिक क्षेत्रों से वाणिज्यिक संबंध स्थापित करने पडे : पुराने शासक वर्गों, किसानों और दुनिया भर के कारीगरों के साथ। 18वीं और 19वीं शताब्दियों में प्रमुख पूँजीवादी शक्तियाँ दुनिया को जीतने की दौड़ में लगी हुयीं थीं। उन्होने धीरे-धीरे धरती को उपनिवेशों में बांट लिया और असली साम्राज्यों की स्थापना की। कभी कभी, उन्होने खुद को एक ही क्षेत्र के लिए ललचाते पाया। कम शक्तिशाली ताकतों को पीछे हटना और जाकर कोई अन्य क्षेत्र तलाशना पडा जहां वे लोगों को अपने मालों को खरीदने के लिए मजबूर कर सकें। इस प्रकार पुरानी अर्थव्यवस्थाएँ धीरे-धीरे रुपांतरित और पूँजीवाद मे एकीकृत कर दी गईं। उपनिवेशों की अर्थव्यवस्थाएँ न केवल यूरोप और संयुक्त राज्य अमेरिका के मालों के लिए बाजार उपलब्ध कराने के कम से कमतर सक्षम होतीं गईं हैं, इसके उल्ट वे भी वही अति-उत्पादन पैदा करती हैं।
18वीं और 19वीं शताब्दी में पूँजी की इस गतिशीलता को, अति-उत्पादन के संकटों और समृद्धि एवम विस्तार के लंबे कालों के क्रमांतरण को और अपने पतन की ओर पूँजीवाद के अनवरत प्रगमन को मार्क्स और एंगेल्स ने कम्युनिस्ट घोषणापत्र में बखूबी वर्णित किया है : "इन संकटों में, एक महामारी, अति-उत्पादन की महामारी फूट पडती है जो किसी भी अन्य युग में अनर्गल लगती। समाज अचानक अपने आप को क्षणिक बर्बरता की अवस्था मे वापस पाता है; ऐसा प्रतीत होता है जैसे एक अकाल ने, तबाही के एक सार्वभौमिक युद्ध ने निर्वाह के तमाम साधनों की आपूर्ति काट दी हो; उद्योग और वाणिज्य नष्ट हुए लगते हैं; और क्यों? क्योंकि वहाँ बहुत ज्यादा सभ्यता, निर्वाह के बहुत साधन, बहुत ज्यादा उद्योग, बहुत ज्यादा वाणिज्य है"।
उस समय, क्योंकि पूँजीवाद अभी विस्तार की अवस्था में था और अभी नए क्षेत्रों को जीत सकता था, लिहाज़ा हर संकट बाद मे समृद्धि के एक नए दौर की ओर ले जाता था। "अपने उत्पादों के लिए लगातार फैलते बाजार की जरूरत पूँजीपति वर्ग का समूची धरती पर पीछा करती है। उसे हर जगह बसना, हर जगह जमना, हर जगह संबंध स्थापित करने होंगे..। उसके मालों की सस्ती कीमतें वह भारी तोपखाना है जिससे वह तमाम चीनी दीवारों को गिरा देता है तथा विदेशियों के लिए बर्बर जातियों की गहन हठी नफरत को झुकने के लिए मज़बूर करता है। वह सभी राष्ट्रों को, उन्मूलन के खतरे तले, उत्पादन की पूँजीवादी प्राणाली अपनाने पर मजबूर करता है; यह उन्हें बाध्य करता है कि वे अपने मध्य वह स्थापित करें जिसे वह सभ्यता कहता है, यानि वे खुद पूँजीवादी बन जाएँ। एक शब्द में, वह स्वयं अपनी छवि मे एक दुनिया का निर्माण करता है..." (वही)
लेकिन उस समय ही, मार्क्स और एंगेल्स इन आवधिक संकटों को एक अंतहीन आवर्त, जो सदा खुशहाली को रास्ता देता है, से अधिक मानते थे। उन्होने इनमे पूँजीवाद को खोखला करते गहन अंतरविरोधों की अभिव्यक्ति देखी। "नए बाजारों की विजय" करके, पूँजीपति वर्ग "अधिक व्यापक और अधिक विनाशकारी संकटों की राह खोलता है, और साथ ही उन साधनों को जिनसे संकटों को रोका जा सकता है खत्म करता जाता है" (वही)। या : "जैसे जैसे उत्पादों की तादाद और फलस्वरूप विस्तारित बाजारों की जरूरत बढ़ती जाती है, विश्व बाजार अधिकाधिक सिकुडता जाता हैं; दोहन के लिए उपलब्ध नए बाजार कमतर होते जाते हैं, चूँकि प्रत्येक पूर्ववर्ती संकट अभी तक अविजित अथवा सतही तौर पर दोहन किये बाजारों को विश्व व्यापार के अधीन करता है।" (उज़रती श्रम और पूँजी)
लेकिन हमारा ग्रह एक छोटी गोल गेंद है। 20वीं सदी के आरंभ तक सभी भूमि जीत ली गई थी और पूँजीवाद के महान ऐतिहासिक राष्ट्रों ने दुनिया आपस में बांट ली थी। तब से, सवाल नई खोजें करने का नहीं है, बल्कि है प्रतिस्पर्धी देशों के प्रभुत्व वाले इलाकों पर सशस्त्र बल द्वारा अधिकार करने का। अब अफ्रीका, एशिया या अमेरिका के लिए कोई दौड नहीं है, बल्कि है अपने प्रभाव क्षेत्रों को बचाने तथा अपने साम्राज्यवादी प्रतिद्वंद्वियों के प्रभाव क्षेत्रों को सैन्य बल से हथियाने के लिए एक निर्मम युद्ध। यह पूँजीवादी देशों के अस्तित्व के लिए एक असली मुद्दा है।
तो यह संयोग नहीं था कि जर्मनी ने, जिसके पास बहुत कम उपनिवेश थे और जो ब्रिटिश साम्राज्य की भूमियों में व्यापार के लिए उसकी शुभेच्छा पर निर्भर था (एक निर्भरता जो वैश्विक महत्वाकांक्षा रखने वाले किसी भी राष्ट्रीय पूँजीपति वर्ग के लिए अस्वीकार्य है), 1914 में प्रथम विश्वयुद्ध शुरू किया। जर्मनी "निर्यात करो या मरो" की आवश्यकता के कारण सबसे आक्रामक नजर आता है, यह बाद में द्वितीय विश्व युद्ध की ओर हिटलर के गमन में स्पष्ट दिखाई देता है। इस बिंदु से, पूँजीवाद, विस्तार की चार सदियों के बाद एक पतनशील व्यवस्था बन गया। दो विश्वयुद्धों और 1930 के दशक की महामन्दी की विभीषिका इसका नाटकीय व अखंडनीय सबूत हैं।
तो भी, 1950 के दशक तक विधमान अतिरिक्त पूँजीवादी बाजारों के खत्म हो जाने के बाद भी पूँजीवाद अभी तक अति-उत्पादन के जानलेवा संकट में नहीं धंसा है। सौ से अधिक साल की धीमी मौत के बाद, यह व्यवस्था अभी भी खड़ी है, लड़खड़ाती हुई, रोगी अवस्था में, पर फिर भी खड़ी है। यह जीवित कैसे है? क्यों यह जीव अति-उत्पादन के विष से अभी तक पूरी तरह लकवाग्रस्त नहीं? यही वह जगह है जहाँ से ऋण के आश्रय की भूमिका शुरू होती है। ऋण का अधिकाधिक भारी मात्रा में उपयोग करके विश्व अर्थव्यवस्था भीषण ढहन से बच पाई है। इस प्रकार इसने एक कृत्रिम बाजार पैदा किया है। पिछले चालीस वर्षों का सार मंदियों और ऋण की खुराकों द्वारा वित्तपोषित उभारों की एक श्रृंखला के रूप में निकाला जा सकता है। और यह सिर्फ सरकारी खर्चों के माध्यम से परिवारों की खपत के समर्थन के रूप में नहीं। नहीं, राष्ट्रीय सरकारें भी कर्ज़दार हैं ताकि वे कृत्रिम तरीके से दूसरे राष्ट्रों के साथ अपनी अर्थव्यवस्थाओं की प्रतिस्पर्धात्मकता बनाए रख सकें (बुनियादी संरचनात्मक निवेशों में सीधे पैसा लगा कर, बैंकों को निम्नतम संभव दरों पर उधार देकर ताकि वे आगे व्यवसायों और परिवारों को उधार दे सकें ...)। ऋण के फाटक पूरे खोल दिये जाने पर पैसा स्वतंत्र रूप से बह निकला और धीरे-धीरे अर्थव्यवस्था के सभी क्षेत्र अति-ऋणग्रस्तता की एक क्लासिक स्थिति में आ पहुँचे : हर दिन अधिकाधिक नए ऋण जारी करना जरूरी था ... कल के ऋण चुकता करने के लिए। यह रास्ता अनिवार्यता एक अन्धीगली में ले पहुँचा। विश्व पूँजीवाद आज इसी अन्धीगली मे फंसा हुआ है : "ऋण की दीवार" के रूबरू।
पूँजीवाद के लिए 'कर्ज संकट' का अर्थ - एक मरणासन्न के लिए अफ़ीम की ओवरडोज़
सादृश्य के लिए, पूँजीवाद के लिए ऋण ऐसे ही है जैसे एक घातक बीमारी में अफ़ीम। इसका सहारा लेकर संकट अस्थायी रूप से टल जाता है, पीड़ित शांत हो जाता है। लेकिन धीरे-धीरे दैनिक खुराकों पर निर्भरता बढ़ जाती है। जो उत्पाद शुरू में उद्धारकर्ता था, हानिकारक होने लगता है .. ओवरडोज़ की सीमा तक! विश्व ऋण पूँजीवाद के ऐतिहासिक पतन का एक लक्षण है। 1960 के दशक से विश्व अर्थव्यवस्था जीवन रक्षक ऋण के सहारे जिन्दा रही है, लेकिन अब कर्ज़े पूरे शरीर पर फैल गए हैं, वे व्यवस्था के निम्नतर अंग, निम्नतर सेल को पाटे हुए हैं। अधिक से अधिक बैंक, व्यवसाय, नगर पालिकाएँ, और राज्य दिवालिया हैं और दिवालिया होते जाएँगे जो अपने कर्जों का भुगतान करने में असमर्थ हैं।
2007 की गर्मियों ने पूँजीवादी पतनशीलता, जो 1914 में प्रथम विश्व युद्ध के साथ शुरू होती है, के इतिहास में एक नया अध्याय खोला। अधिकाधिक बड़े पैमाने पर कर्ज का सहारा लेकर संकट के विकास को धीमा करने की पूँजीपति वर्ग की क्षमता समाप्त हो गई। अब, झटके एक के बाद एक, बीच में बिना किसी राहत के और बिना किसी असल उभार के, आएँगे। पूँजीपति वर्ग इस संकट का कोई वास्तविक और स्थायी हल नहीं खोज पायेगा, इसलिए नही कि वह अचानक अक्षम बन जाएगा बल्कि इसलिए कि यह एक समस्या है जिसका कोई समाधान नहीं है। पूँजीवाद के संकट को पूँजीवाद हल नहीं कर सकता।
जैसे, हमने अभी अभी दिखाने की कोशिश की है, समस्या है पूँजीवाद, समूची पूँजीवादी व्यवस्था। और आज यह व्यवस्था दिवालिया हो चुकी है।
पावेल, 26 नवंबर 2011, वर्ल्ड रेवोल्युश्न 350, दिसंबर 2011 - जनवरी 2012
सेन्ट पॉल के अधिग्रहण[1] स्थित टैन्ट सिटी यूनिवर्सिटी की दीवारों पर लिखे ''पूंजीवाद का जनवादीकरण करो'' के नारे ने ऐसी तीखी बहस छेडी कि अंततोगत्वा बैनरों को ही वहां से हटाना पडा।
यह परिणाम दिखाता है कि सेन्ट पॉल, यूबीएस तथा अन्यत्र अधिग्रहणों ने उन तमाम लोगों को, जो वर्तमान व्यवस्था से असन्तुस्ट हैं और एक विकल्प की खोज में हैं, चर्चा के लिये एक लाभदायिक स्थान मुहैया कराया है। 'पूंजीवाद का जनवादीकरण' कोई वास्तविक विकल्प नहीं है। पर यह उन तमाम लोगों के विचारों को अभिव्यक्त करता है जो अधिग्रहणों में तथा उन द्वारा जनित मीटिगों में भाग ले रहे हैं। बार-बार यह विचार पेश किया जाता है कि पूंजीवाद अधिक मानवीय बनाया जा सकता है बशर्ते धनवानों को अधिक टैक्स देने को मज़बूर किया जा सके, बशर्ते बैंकरों के बोनस खत्म कर दिये जाएँ, बशर्ते वित्तीय बाजार अधिक नियंत्रित हों अथवा अगर राज्य अर्थव्यवस्था के संचालन में अधिक सीधी दखलन्दाजी करे।
शीर्ष राजनेता तक ऐसा ही सुर अलापने लगे है। कैमरून पूंजीवाद को अधिक नैतिक बनाना चाहता है, क्लेग चाहता है कि सारी दुनिया जॉन लैविस जैसी हो और मज़दूरों के पास अधिक शेयर हों, मिलीबैन्ड ''परभक्षी'' पूंजीवाद के खिलाफ है और अधिक राजकीय नियन्त्रण का हिमायती है।
किन्तु पूंजीवाद के राजनेताओं की ओर से कही जाने वाली ये सब बातें थोथी लफ्फाजी हैं, एक धुएँ की चादर है जो हमे यह जानने से रोकने के लिए तानी गई है कि पूंजीवाद क्या है और क्या नहीं।
पूंजीवाद को व्यक्तियों द्वारा सम्पत्ति के मालिकाने के बराबर नहीं रखा जा सकता। बात सिर्फ बैंकरों की अथवा अन्य धनी कुलीनों की नहीं जो बहुत थोडी मेहनत का बहुत अधिक प्रतिफल पाते हैं।
पूंजीवाद मानव सभ्यता के इतिहास में एक सम्पूर्ण चरण है। यह अल्पमत द्वारा बहुमत के शोषण पर आधारित समाजों की श्रांखला में से अंतिम है। यह पहला मानव समाज है जिसमें संपूर्ण उत्पादन बाजार में मुनाफा बटोरने के प्रति अभिप्रेरित होता है। अतएव यह प्रथम वर्ग-विभाजित समाज है जिसमें सभी शोषितों को कार्य की अपनी क्षमता, अपनी ‘श्रम शक्ति’ शोषकों के हाथों बेचनी पडती है। इस लिये जबकि सामन्तवाद में भूदासों को ताकत के बल पर सीधे-सीधे अपना श्रम तथा अपना उत्पाद मालिकों के हाथों सोंपने के लिये मजबूर किया जाता था, पूंजीवाद में, हमारा श्रम-काल बडे गूढ तरीके से उज़रती व्यवस्था द्वारा छीना जाता है।
इस लिये, इससे कोई फर्क नहीं पडता कि शोषक निजी मालिकों के रूप में अथवा चीन एवं उत्तरी कोरिया की तरह 'कम्युनिस्ट पार्टी’ के अहलकारों के रूप में संगठित हैं। जब तक उजरती श्रम है, तब तक पूंजीवाद का अस्तित्व है। जैसा मार्क्स ने कहा : “पूंजी उजरती श्रम को मान कर चलती है, उजरती श्रम पूंजी को मान कर चलता है'' ( उजरती श्रम और पूंजी )।
अपने केन्द्र में पूंजीवाद उजरती श्रमिकों (जिसमें बेरोज़गार भी शामिल हैं चूँकि बेरोजगारी उसी वर्ग की एक स्थिति है) तथा शोषक वर्ग के बीच एक सम्बन्ध है। पूंजी, मजदूरों द्वारा पैदा की गयी और उसी से छीन ली गयी सम्पत्ति है। पूंजी मज़दूरों द्वारा निर्मित परकीयकृत संपत्ति है – एक ताकत जिसे उन्होंने निर्मित किया है पर जो एक कठोर शत्रु के रूप में उनके मुकाबले खडी है।
संकटग्रस्त पूंजीवाद
पर पूंजीपति वर्ग व्यवस्था से जबकि फायदा उठाता है, वह उसे नियंत्रित नहीं कर सकता। पूंजी एक अवैयक्तिक ताकत है जो अंततः उनके काबू से बाहर है और उन पर भी राज करती है। इसी बजह से पूंजीवाद का इतिहास आर्थिक संकटों का इतिहास है। पूंजीवाद वीसवीं सदी के आरंभ के आस पास से जब से विश्व व्यवस्था बना है, यह संकट कमोवेशी स्थायी हो गया है फिर चाहे वह विश्वयुद्ध का रूप ले चाहे विश्व मन्दियों का।
शासक वर्ग और उसका राज्य चाहे कोई भी आर्थिक नीतियां अजमाये - कीन्सवाद, स्तालिनवाद अथवा राज्य समर्थित ''नव उदारवाद'' - यह संकट गहराता तथा असाध्य बनता गया है। अपनी अर्थव्यवस्था में गतिरोध से हताशा का शिकार, सत्ताधारी वर्ग के विभिन्न धडे तथा विभिन्न राष्ट्रीय राज्य जिनमे वे संग़ठित हैं, वे सब निष्ठुर प्रतिस्पर्धा, सैनिक टकराव तथा पर्यावरणीय विनाश् की कुण्ड्ली_ में फंसे हुए हैं। मुनाफे की तथा रणनीतिक श्रेष्ठता की खोज उन्हें कम से कमतर नैतिक तथा अधिक से अधिकतर ‘परभक्षी’ बनने की ओर धकेल रही है।
पूंजीपति वर्ग एक डूबते जहाज का कप्तान है। उसे धरती के नियन्त्रण से च्युत करने की जरूरत कभी इतनी गहन नहीं रही।
किन्तु, इन्सान के अलगाव की चरम विन्दु इस व्यवस्था ने एक नये एवं सच्चे मानव समाज के निर्माण की संभावना को भी पैदा किया है। इसने विज्ञानों और तकनीकों को गतिमान किया है जिन्हें रूपान्तरित कर सभी के लाभ के लिये प्रयोग किया जा सकता है। अतएव, इसने संभव बनाया है कि उत्पादन को मुद्रा अथवा बाजार की मध्यस्थता के बिना ही सीधे-सीधे उपभोग की ओर मोडा जा सके। इसने दुनियां को एक सूत्र में पिरो दिया है अथवा कम से कम उसकी वास्तविक एकता के लियें आधार तैयार कर दिये हैं। इसलिये, इसने राष्ट्रीय राज्यों और उनके अनवरत युद्धों की संपूर्ण व्यवस्था के विनाश को संभव बनाया है। सक्षेप में, इसने एक विश्व मानव समुदाय के पुराने सपने को आवश्यक एवं संभव बना दिया है। हम इस समाज को साम्यवाद कहते हैं।
शोषित वर्ग का, उजरती श्रम के वर्ग का अपनी विरोधी व्यवस्था के भ्रमों का शिकार होने में कोई हित नहीं है। यह वर्ग वर्तमान समाज की कब्र खोदने और नये का निर्माण करने की संभावना रखता है। लेकिन इस संभावना को चरितार्थ करने के लिये उसके लिए यह सुसपष्ट होना लाजिमी है कि वह किसके खिलाफ और किसके लिये लड रहा है। पूंजीवाद को सुधारने और उसका जनवादीकरण करने संबंधी तमाम विचार इस सपष्टता के मार्ग में अनेक वाधायें हैं।
पूंजीवाद और जनतंत्र
पूंजीवाद को और अधिक मानवीय बनाने के समान ही आजकल हर कोई जनतंत्र की वकालत करता है और चाहता है कि समाज और अधिक जनवादी बने। और इसी लिये हम जनतंत्र के विचार को मात्र इसके अंकित मूल्य के आधार पर नहीं ले सकते, एक ऐसे अमूर्त विचार के रूप में नहीं ले सकते जिस पर सब सहमत हैं। पूंजीवाद के समान जनतंत्र का भी अपना एक इतिहास है। एक राजनैतिक व्यवस्था के रूप में, प्राचीन एथेंस में जनतंत्र दासता तथा स्त्रियों के बहिष्कार के साथ-साथ जीवित रह सकता था। पूंजीवाद में, संसदीय जनतंत्र एक ऐसे अल्पमत के सत्ता पर एकाधिकार के साथ अस्तित्व में रह सकता है जिसने ना सिर्फ आर्थिक सम्पदा पर बल्कि लोगों की सोच (और मताधिकार) को प्रभावित करने वाले वैचारिक यंत्रों को भी हथिया लिया है।
पूंजीवादी जनतंत्र पूंजीवादी समाज का एक आयना है जो हम सब् को बाजार में प्रतिस्पर्धा करती अलग-थलग पडी इकाइयों में परिवर्तित कर देता है। सिद्धांत में, हम सब् समान आधार पर प्रतिस्पर्धा करते हैं पर असलियत यह है कि सम्पदा कम से कमतर लोगों के हाथों में सिमटती जाती है। जब हम वैयक्तिक नागरिकों के रूप में मतदान केन्द्र में प्रवेश करते हैं तो हम उतने ही अकेले होते हैं जितने असल ताकत के प्रयोग से दूर।
ट्यूनीशिया और मिस्र से स्पेन, ग्रीस तथा अमेरिका तक विभिन्न अधिग्रहणों तथा जन सभी आन्दोलनों में चल रही बहसों मे दो धडों मे कमोबेशी निरन्तर टकराव दिखाई पडता है। एक ओर वे लोग हैं जो वर्तमान व्यवस्था को और अधिक जनवादी बनाने से आगे नहीं जाना चाहते, जो मुबारक जैसे तानाशहों से छुटकारा पाने तथा संसदीय व्यवस्था लागू करने के लक्ष्य पर रूक जाना चाहते है, अथवा स्थापित राजनैतिक दलों पर दवाब डालना चाहते हैं ताकि वे सडक पर आम जन की मांगें की ओर अधिक ध्यान दें। और दूसरी ओर हैं वे, जो अभी बेशक एक अल्पमत हैं, जिन्होंने कहना शुरू किया है : अगर हम सवंय को सीधे सामान्य सभाओं में संगठित कर सकते हैं तो हमे संसद की क्या जरूरत है? क्या संसदीय चुनाव कोई परिवर्तन ला सकते हैं? क्या हम अपने जीवन का नियन्त्रण अपने हाथ में लेने के लिए सामान्य सभाओं जैसी संस्थाओं का प्रयोग नहीं कर सकते – न सिर्फ सार्वजनिक स्थलों पर किन्तु खेतों, कारखानों तथा कार्यशालओं में भी?
ये बहसें नयी नहीं हैं। ये प्रथम विश्वयुद्ध के पशचात रूसी और जर्मन क्रान्तियों के काल में हुई बहसों को प्रतिध्वनित करती हैं। करोडों लोग उस पूंजीवादी व्यवस्था के खिलाफ लामबन्द थे जिसने युद्ध के मोरचों पर लाखों का संहार करके पहले ही यह साबित कर दिया था कि वह अब मानवजाति के लिए कोई सार्थक रोल अदा करने के लायक नहीं रही। जबकि कुछ लोग थे जिनका कहना था कि क्रान्ति को ''पूंजीवादी जनतांत्रिक” व्यवस्था की स्थापना से आगे नहीं जाना चाहिये, कुछ ऐसे भी थे, और उस वक्त उनकी संख्या काफी बडी थी, जिन्होंने कहा कि संसद सत्ताधारी वर्ग का हथियार है। हमने अपनी एसेंम्बलियों, फैक्टरी कमेटियों तथा सोवियतों (सामान्य सभाओं पर आधारित संगठन जिसमें प्रतिनिधियों को चुनने तथा वापस बुलाने का अधिकार था) का निर्माण कर लिया है। इन संगठनों को सत्ता संभाल लेनी चाहिए और फिर यह हमारे अपने हाथ में रह सकती है : समाज को ऊपर से नीचे तक पुर्नगठित करने की ओर प्रथम कदम के रूप में। और अलगाव, गृहयुद्ध तथा आंतरिक पतन द्वारा क्रान्ति के विनाश् से पहले, थोडे समय के लिये सोवियतों ने, मजदूर वर्ग के इन निकायों ने, रूस में राज्य सत्ता पर दखल किया था।
वह मानवजाति के लिये अभूतपूर्व आशा का वक्त था। यह तथ्य कि वह प्रयास पराजित रहा हमें भयभीत नही कर सकता : हमें अपनी हारों और विगत की भूलों से सबक लेना होगा। हम पूंजीवाद का जनवादीकरण नहीं कर सकते क्योंकि यह पहले से कहीं अधिक राक्षसी तथा विनाशक ताकत है जो, अगर हमने इसे घ्वस्त नहीं किया तो, समूची दुनिया का विनाश कर देगी। और सवंय पूंजीवादी संस्थाओं का प्रयोग करके हम इस दानव से छुटकारा नहीं पा सकते। हमें नये संगठनों की आवश्यकता है, ऐसे संगठन जिन्हें हम कंट्रोल कर सकें तथा उस क्रातिकारी परिवर्तन की ओर निदेशित कर सकें जो हमारी एकमात्र वास्तविक उम्मीद है।
अमोस, 25 जनवरी 2012, वर्ल्ड रेवोल्युश्न 351, फरवरी-2012
1. यहां ‘अधिग्रहण’ से आश्य उस ‘अक्युपाई वाल स्ट्रीट’ आंदोलन से है जो 2011 में अमेरिका से शुरू हो कर यूरोप के अन्य देशों में भी फैल गया था।
19 अप्रैल 2012 को भारतीय पूंजीपति वर्ग ने आईसीबीएम बैलिस्टिक मिसाइल के अपने संस्करण अग्नि-5 का प्रक्षेपण किया और एशिया में पहले से ही उग्र हथियारों की होड़ को और बढ़ावा दिया। इस परीक्षण के साथ भारत विश्व साम्राज्यवादी अपराधियों के उस चुनिंदा क्लब में शामिल हो गया जिनके पास अंतरमहाद्वीपीय बैलिस्टिक मिसाइलें हैं। कहा जा रहा है कि अग्नि-5 की मारक क्षमता 5000 किलोमीटर तक है। इसे शंघाई तथा बीजिंग तक मार करने के सक्षम माना जा रहा है।
अग्नि-5 के प्रक्षेपण के चलते भारतीय पूंजीपति वर्ग के सभी तबके खुशी के ढोल पीट रहे हैं। कई दिनों तक समूचा प्रिंट और इलेक्ट्रानिक मीडिया इस प्रक्षेपण द्वारा चिन्हित तकनीकी तथा सैन्य उपलब्धियों संबंधी दम्भी प्रचार से भरा रहा। चीन और अन्य शत्रुतापूर्ण देशों के सभी भागों पर मार करने की नई क्षमता बाबत विवेकहीन बातें सुनाई दी। भारतीय पूंजीपति वर्ग के गुट स्वयं को यकीन दिलाने में लगे थे कि अग्नि-5 के प्रक्षेपण के साथ वे अब अपने दुश्मनों का सामना करने और अपने विश्व साम्राज्यवादी सपनों को पूरा करने के लिए बेहतर तरीके से लैस हैं। मीडिया ने भी इस ढोल पिटाई तथा प्रचार का उपयोग करके देशभक्ति का बुखार भड़काने की कोशिश की।
एशिया में प्रचण्ड होती हथियारों की दौड़
भारत द्वारा आईसीबीएम अग्नि-5 का प्रक्षेपण एशिया में विकसित हो रही हथियारों की उन्मादी दौड़ की सिर्फ एक अभिव्यक्ति है। इस खेल में बहुत से खिलाड़ी लिप्त हैं और भारत उनमें एक प्रमुख है।
मध्य मार्च 2012 में भारतीय तथा विश्व मीडिया इन कथाओं से भरा था कि पिछले तीन वर्षों में भारत दुनिया में हथियारों का सबसे बड़ा खरीदार बन गया है। एनडीटीवी की 21 मार्च 2012 की एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत ने दुनिया के हथियारों के सबसे बड़े खरीदार की चीन की जगह ले ली है और दुनिया में पिछले पांच वर्षों में हथियारों की कुल खरीदारी में से दस प्रतिशत सिर्फ भारत ने की है। फ़रवरी 2012 में, भारत ने फ्रांस की कंपनी डसाल्ट को 126 रफ़ाल एमएमआरसीए (मध्यम बहुउद्देश्यीय लड़ाकू विमान) लड़ाकू जेट खरीदने का एक आर्डर दिया। 20 बिलियन अमरीकी डालर (टाइम्स ऑफ इंडिया, 1 फ़रवरी 2012) की लागत का यह आर्डर पूंजीवाद के इतिहास का सैन्य उपकरणों का सबसे बड़ा एकल आर्डर है। यह 272 सुखोई-30एमकेआई लड़ाकू विमानों के 12 बिलियन डालर के उस आर्डर के अतिरिक्त जो पहले ही रूस द्वारा पूर्ति की प्रक्रिया में है।
17 मार्च 2012 के स्टेट्समैन के मुताबिक भारत ने अपना रक्षा खर्च 17.6 प्रतिशत बढ़ा कर 47 बिलियन डालर (दो लाख 35 हजार करोड रूपये) कर दिया है।
पर यह उन्मत्त सैन्यीकरण भी भारतीय पूँजीपति वर्ग के लिए काफी नहीं है। हम अप्रैल 2012 में, अग्नि-5 के प्रेक्षेपण से कुछ दिन पहले ही, भारतीय मीडिया में चलाये गए एक अन्य अभियान में यह देख सकते हैं। अप्रैल की शुरुआत में भारतीय सेना के प्रमुख ने प्रधानमंत्री को एक लंबा पत्र लिखा। पत्र में प्रधानमंत्री को बताया गया कि भारतीय सेना युद्ध के लिए तैयार नहीं है चूँकि उसके पास पर्याप्त हथियार तथा गोलाबारूद नहीं है। पत्र प्रेस को लीक कर दिया गया और संसद द्वारा उठाया गया। सेना, वायुसेना और नौसेना के प्रमुखों के साथ विचार विमर्श के बाद, अब संसद ने घोषणा की है कि भारतीय बलों के पास युद्ध छेड़ने के लिए पर्याप्त हथियार और गोला बारूद नहीं है। इसमें एक तत्व गुटीय झगड़े का भी है, पर यह अभियान पूँजीपति वर्ग के लिए दो बुनियादी प्रयोजन पूरे करता है। एक है अपनी आबादी को प्रचार से अभिभूत करना तथा उससे यह तथ्य छिपाना कि भारत पहले ही हथियारों पर भारी खर्च करता है – हथियारों के विश्व बाजार में बह सबसे बड़ा खरीदार है। दूसरा है शोषित आबादी को यकीन दिलाना कि सैन्यीकरण पर और भी अधिक खर्च की आवश्यकता है।
हमें एक बात पर स्पष्ट होना चाहिए - केवल भारतीय पूंजीपति वर्ग ही उन्मत्त सैन्यीकरण में लगा हुआ नहीं है। एशिया में सभी देश - जापान, दक्षिण तथा उत्तर कोरिया, फिलीपींस, ताइवान, सऊदी अरब आदि एक ही दौड़ में लगे हुए हैं। सऊदी अरब और उसके संगी अमीरात सैन्यीकरण पर लगभग100 अरब अमरीकी डालर खर्च कर रहे हैं। चीन एशिया में हथियारों की दौड़ में अग्रणी है और इस साल उसने अपने सैन्य खर्च को लगभग दुगना कर150 अरब अमरीकी डालर कर दिया है। यहां तक कि दुनिया के थानेदार संयुक्त राज्य अमेरिका ने एशिया पर और विशेषकर चीन पर केंद्रित अपना सैन्य खर्च बडा दिया है।
एशिया में हथियारों की दौड़ क्यों?
पिछली सदी के आरंभ में पूंजीवाद अपने पतन के दौर में दाखिल हुआ। इसका मतलब था कि दुनिया के मौजूदा बाजार मुख्य पूंजीवादी शक्तियों में बांट लिए गए थे और ये बाजार अब सभी पूंजीवादी राष्ट्रों के उत्पादों को खपाने के लिए काफी नहीं थे। विस्तार अथवा अस्तित्व तक के लिए प्रत्येक पूंजीवादी देश अपने प्रतिद्वंद्वियों से आवश्यक बाजार छीनने के लिए मजबूर था। हर पूंजीवादी देश के सामने एक ही विकल्प था कि वह एक विश्वव्यापी सैन्य टकराव में अपने प्रतिद्वंद्वियों का सामना करे और उन्हें हराये अन्यथा अपने दुश्मनों से हार और अधीनता स्वीकार करे। यही वह कठोर विकल्प था जो 20वीं सदी के आरंभ से यूरोप और अमेरिका को विशाल सैन्यीकरण की और ले गया। यही वह कठोर विकल्प था जो प्रथम विश्वयुद्ध में और फिर द्वितीय विश्वयुद्ध में दानवीय रूप से खेला गया, इनमें से प्रत्येक में करोडों लोगों का वध और पूरे देशों और महाद्वीपों का विनाश हुआ।
दूसरे विश्वयुद्ध के अंत के बाद से सैन्य टकरावों तथा उनके लिए तैयारी का यह सिलसिला पुरानी साम्राज्यवादी शक्तियों के बीच आज तक बेरोक जारी रहा है। पतनशीलता का वह दौर जिसमें पूंजीवाद 20वीं सदी के आरंभ से जी रहा है, इसमें पूंजीवाद केवल युद्ध से जी सकता है। परिणाम स्वरूप सभी देश स्थायी रूप से युद्ध के लिए उग्र तैयारियों में लगे हुए हैं।
पिछले कुछ दशकों में चीन, भारत और एशिया के कई अन्य देशों की आर्थिक शक्ति बढ़ी है। इन देशों में भी पूंजीवाद उसी विकल्प, उन्हीं चुनावों के रूबरू है जिनका सामना उन्नत पूंजीवादी देशों को पिछली सदी के अरंभ में करना पडा। और ये नई 'उभरती ताकतें’ भी स्थिति का जवाब पुरानी साम्राज्यवादी शक्तियों की तरह ही दे रही हैं – वह है सैन्यीकरण की व्यापक प्रक्रिया और युद्ध के लिए तैयारी में जुटना। हम एशिया भर में यह देख सकते हैं।
यह इस तथ्य के बावजूद हो रहा कि इन देशों मे, खासकर भारत और चीन में, मज़दूर वर्ग घोर गरीबी, दुखदर्द और बड़े पैमाने पर बेरोजगारी की हालत में जीते हैं।
जैसा कि हमने देखा, अन्य देशों में अपने समकक्षों की तरह भारतीय पूंजीपति वर्ग भी सैन्यीकरण की एक उन्मादी प्रक्रिया में लगा हुआ है। हाल में आईसीबीएम का प्रेक्षेपण इसी विनाशकारी निरंतरता में स्थित है। यह भारतीय पूंजीपति वर्ग द्वारा अपने निकट साम्राज्यवादी प्रतिद्वंद्वी चीन के साथ विनाशक शक्ति में समानता हासिल करने का एक प्रयास है।
पूंजीपति और मज़दूर वर्ग
हथियारों की दौड़ पतनशील पूंजीवादी व्यवस्था के लिए अनिवार्य है। यह पतनशील पूंजीवादी के उन्नत चरण की वस्तुगत्त परस्थितियों का परिणाम है। आज, पूंजीवाद केवल युद्ध से जी सकता है। पूंजीपति वर्ग इससे छुटकारा नहीं पा सकता।
दूसरी तरफ मज़दूर वर्ग पूंजीवादी राष्ट्रों में समस्त होड का मुख्य शिकार है। युद्ध और युद्धों का प्रचार उसकी एकता को नष्ट करने और उसके वर्ग दुश्मन, पूँजीपति वर्ग, के सामने उसे कमज़ोर करने का रूझान रखता है। युद्ध के लिए तैयारी उसके शोषण को तेज करती है और उसकी जीने की स्थितियों को खराब करती है। और जिन युद्धों द्वारा विभिन्न देशों के पूंजीपति वर्ग अपना हिसाब बराबर करने की कोशिश करते हैं वे मज़दूर वर्ग भारी हमले के रूप में सामने आते हैं। यह मज़दूर वर्ग ही है जो अपने जीवन से पूंजीपति वर्ग के युद्धों की कीमत अदा करता है। पूंजीवाद के भीतर अपनी स्थिति के कारण केवल मजदूर वर्ग ही पूंजीवाद को नष्ट करके पूंजीपति वर्ग के युद्धों का अन्त कर सकता है।
मज़दूर वर्ग क्या करे?
पूंजीपति वर्ग मज़दूर वर्ग तथा मेहनतकश आबादी पर राष्ट्रवादी भावनाओं का असर गहराने के लिए किसी भी साधन का सहारा लेने से पीछे नहीं हटता। अतीत में पूंजीपति वर्ग द्वारा मज़दूर वर्ग के क्रांतिकारी उभारों को कुचलने के लिए राष्ट्रवाद बहुत प्रभावी ढंग से इस्तेमाल किया गया। यह दुनिया के मज़दूर वर्ग का दुश्मन नंबर एक है। मज़दूर वर्ग को राष्ट्रवाद के जहर के खिलाफ मजबूत आक्रोश विकसित करना होगा और अंतर्राष्ट्रीयतावाद के सिद्धांत का मजबूती से बचाव करना होगा।
मज़दूर वर्ग साम्राज्यवादी युद्ध और युद्ध की तैयारी में किसी का भी पक्ष नहीं ले सकता। इसे सभी युद्ध उन्माद की निंदा करनी होगी। ‘अपने’ पूंजीपति वर्ग द्वारा आईसीबीएम के प्रेक्षेपण के प्रति भारतीय मज़दूर वर्ग की प्रतिक्रिया प्रताडना तथा निन्दा के सिवा कुछ नहीं हो सकती है।
अपने जीवन तथा काम के हालातों पर तेज़ होते हमलों के खिलाफ, मज़दूर वर्ग को दुनिया में सब जगह अपना वर्ग संघर्ष तेज करने की जरुरत है। इन सघर्षों का आत्म संगठन, विस्तार, राजनीतिकरण और उनका राष्ट्रीय तथा अंतरराष्ट्रीय एकीकरण करके ही विश्व पूंजीवादी व्यवस्था, जो तमाम आर्थिक मुश्किलों, शास्त्र दौड तथा युद्ध उन्माद की जड़ है, के अन्त के लक्ष्य की ओर आगे बढ़ा जा सकता है। केवल यही मानवता को बचा सकता हैं। कोई दूसरी राह नहीं है।
एस, 25 अप्रैल 2012
अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष में मुख्य अर्थशास्त्री ओलिविए ब्लॅनचॉर्ड के अनुसार यूरोजोन और विश्व अर्थव्यवस्था बहुत ही खतरनाक हालात में हैं। अप्रैल 2012 में ब्लॅनचॉर्ड ने चेतावनी दी कि अगर ग्रीस यूरो से बाहर निकल जाता है तो "संभव है कि यूरो क्षेत्र की अन्य अर्थव्यवस्थाएं गंभीर दबाव में आ जाएँ और वित्तीय बाजारों में भारी आतंक फैल जाएगा। इन परिस्थितियों में, यूरो क्षेत्र के विघटन की संभावना से इंकार नहीं किया सकता है। यह प्रमुख राजनीतिक झटका पैदा कर सकता है जो आर्थिक तनाव को लीमैन के पतन के वक्त व्याप्त तनाव से उँचे स्तर तक भड़का सकता है।" ऐसा झटका वास्तम में “1930 के दशक की याद दिलाती एक प्रमुख मंदी पैदा कर सकता है"[1]
इसी कारण, जैसा कि अनेक ‘विशेषज्ञ' हलकों में भविष्यवाणी की गई थी, यूरोपीय संघ को एक नये आर्थिक उभार पैकेज को मंजूरी देने और संघ के अधिक केंद्रीकरण की ओर कदम आरंभ करने को बाध्य होना पडा है। "ईयू नेता यूरोजोन के नियोजित आर्थिक उभार फंड को संकटग्रस्त बैंकों के सीधे समर्थन के लिए, सरकारी ऋण में इजाफे के बिना, प्रयोग करने के लिए सहमत हो गए हैं।
13 घंटे की वार्ताओं के बाद वे यूरोजोन के लिए एक संयुक्त बैंकिंग पर्यवेक्षक के गठन पर भी सहमत हो गए। स्पेन और इटली ने जर्मनी पर दबाव डाला कि उभार फंड को बाजार से सरकारी ऋण खरीदने की अनुमति दी जाए – जो उधार लेने के खर्च पर नियंत्रण का उपाय है”। [2]
हालांकि जर्मनी को इटली और स्पेन जैसे संघर्षरत देशों को नीतिगत रियायतें देनी पडी हैं, वह यूरोपीय संघ को अधिक केंद्रीकरण की ओर लेजाने में अग्रणी है। मसलन मार्केल ने जर्मन संसद को बताया कि अगर देश चाहते हैं केन्द्रीय रूप से जारी यूरोबांड उनके ऋणों की गरंटी दें तो उन्हे अधिक केंद्रीय नियंत्रण स्वीकार करना होगा: "संयुक्त देयता केवल तभी हो सकती हैं जब पर्याप्त नियंत्रण स्थापित हो”। केन्द्रीकरण की ओर यह कदम पहले ही उस नए समझौते का हिस्सा था जिसके साथ एक संयुक्त बैंकिंग पर्यवेक्षी दल सथापित करने का निर्णय लिया गया था, लेकिन अधिक महत्वाकांक्षी योजनाएँ समीक्षाधीन है:
“यूरोपीय अधिकारियों ने एक यूरोपीय वित्त विभाग, जिसका राष्ट्रीय बजटों पर अधिकार होगा, की स्थापना जैसे प्रस्तावों का भी अनावरण किया है। दस वर्षीय योजना [2] यूरोजोन को मजबूत करने और भावी संकटों को रोकने के लिए बनाई गई है लेकिन आलोचकों का कहना है कि यह मौजूदा ऋण समस्याओं का समाधान नहीं करती”।
मार्केल ने यह भी प्रस्ताव रखा है कि भविष्य में ईयू परिषद का अध्यक्ष केंद्रीय तरीके से निर्वाचित हो। संक्षेप में, अगर जर्मनी ने पूरे यूरोजोन के लिए अंतिम ऋणदाता के रूप में काम करना है, तो यूरोजोन के देशों को जर्मन साम्राज्यवाद की बढ़ती भूमिका को स्वीकार करना होगा।
बचने की कोई राह नहीं यूरोपीय संघ या पूंजीवाद के पास
यहाँ हम पूरे यूरो और यूरोपीय संघ परियोजनाओं की कमजोरी देख सकते हैं। आर्थिक संकट के समक्ष, एक बढ़ती प्रवृत्ति है प्रत्येक देश का अपने हितों की रखवाली की कोशिश करना जो कि यूरोपीय संघ के टूटन को तेज़ करता है। तब संकट के तत्काल प्रभाव को नियंत्रित करने की कोशिश में जर्मनी सामने आता है लेकिन अधिक आधिपत्य की उसकी मांगें राष्ट्रीय प्रतिद्वंद्विताओं को तेज़ करती हैं, यह फिर संघ की स्थिरता के लिए खतरा पैदा करता है। यूरोप के पिछले सौ साल के इतिहास को देखते हुए, अन्य मुख्य यूरोपीय शक्तियें, विशेष रूप से फ्रांस और ब्रिटेन, जर्मन अधिपत्य वाले एक यूरोप को स्वीकार नहीं करेंगे।
पर आर्थिक स्तर पर भी, पूंजीपति वर्ग द्वारा अपनाये जा रहे उपाय तबाही की ओर गति को धीमा भर कर सकते हैं। जैसा कि हमने यहाँ लेख [3] में दिखाया है, अति उत्पादन के वैश्विक संकट ने शासक वर्ग को एक असमाधेय दुविधा में धकेल दिया है: विकास की ओर बढने का अर्थ है और अधिक ऋण का जमा होना, और यह मुद्रास्फीति तथा दिवालियेपन की ओर दबाव को ही तेज़ करता है। कठोरता और कड़की की नीतियां (और/या संरक्षणवाद) क्रय शक्ति को सीमित करके संकट को और भड़काती हैं और इस प्रकार बाजार को और भी संकुचित करती हैं।
पूंजीपति वर्ग स्थिति की गंभीरता को समझने लगा है। अब बह चिंतित “डबल-डिप रिसेशन” को लेकर नहीं है। अब वह 1930 के दशक जैसी मंदी की अधिकाधिक खुले तौर पर बात कर रहा है। आप पढ़ सकते हैं कैसे "इटली या स्पेन का ध्वंस यूरोप को एक अभूतपूर्व आर्थिक तबाही में धकेल सकता है", और कैसे उन्हें डर है कि हस्तक्षेप को टाला जा रहा और कि "राजनीतिक नेता आधी रात से केवल एक मिनट पहले, जब यूरोप एक भयानक आर्थिक खाई में झांक रहा होगा, कदम उठाने को मज़बूर होंगे”।[4]
वास्तव में, मंदी पहले ही आ चुकी है और स्थिति पहले ही 1930 के दशक से बदतर है। 1930 के दशक में संकट से उभार का एक रास्ता था: राज्य पूंजीवादी उपायों को अपनाना - चाहे फासीवाद, हो, स्तालिनवाद हो, या नई डील के रूप में हो – जो अर्थव्यवस्था को कुछ नियंत्रण मे ला पाया। आज संकट ठीक राज्य पूंजीवाद का संकट है : राज्य के जरिये (विशेष रूप से कर्ज का सहारा लेने की राज्य की नीति) व्यवस्था को नियंत्रित करने के शासक वर्ग के सभी प्रयास उसकी आंखों के सामने तारतार हो रहे हैं।
ख़ासकर, 1930 के दशक मे युद्ध की राह खुली थी क्योंकि 1917 के अपने क्रांतिकारी प्रयास की असफलता के बाद मजदूर वर्ग हार की स्थिति में था। युद्ध की ओर गमन ने एक युद्ध अर्थव्यवस्था निर्मित करके बेरोजगारी को सोखना संभव बनाया; और सवंय युद्ध ने विश्व अर्थव्यवस्था के पुनगठन को तथा उस आर्थिक उछाल के आरंभ को संभव बनाया जो 1970 के दशक तक जारी रहा।
यह विकल्प आज उपलब्ध नहीं है; पुरानी ब्लाक व्यवस्था के पतन के बाद, साम्राज्यवादी विश्व व्यवस्था अधिकाधिक बहुध्रुवीय बन गई है। अमेरिकी नेतृत्व कमजोर से कमजोरतर हुआ है। यूरोप के जर्मन नियंत्रण का विरोध इस बात का सबूत है कि यूरोप कभी एक सैन्य गुट में एकजुट नहीं हो पाएगा। चीन और रूस जैसी उदीयमान अथवा पुनर उबरती अन्य शक्तियां में अपने इर्दगिर्द एक स्थायी अंतरराष्ट्रीय गठबंधन खडा करने की क्षमता नहीं है। संक्षेप में एक विश्व युद्ध लड़ने के लिए जरूरी गठबंधन अस्तित्व में नहीं हैं। और अगर वे होते तो एक तीसरे विश्व युद्ध द्वारा बरपा विनाश एक और ‘युद्धोत्तर उभार' को असंभव बना देगा।
ख़ासकर, मुख्य पूंजीवादी देशों का मजदूर वर्ग 1930 के दशक की तरह हार की स्थिति में नहीं है। अपनी सभी कमजोरियों और हिचकिचाहटों के बावजूद वह समृद्ध और ताकतवर लोगों के उन तर्कों को खारिज़ करने की तत्परता दिखा रहा है जो उसे ‘सब की भलाई’ के लिए अपने जीवन स्तरों का बलिदान करने के लिए कह रहे हैं। पिछले कुछ वर्षों में हमने बांग्लादेश और मिस्र में बड़े पैमाने पर हडतालें, सम्पूर्ण मध्यपूर्व, यूरोप और संयुक्त राज्य अमेरिका में सामाजिक विद्रोह, फ्रांस और ब्रिटेन में पेंशन में प्रस्तावित कटौती का विरोध और ब्रिटेन, इटली तथा कनाडा आदि में शिक्षा की लागत में बढोतरी के खिलाफ छात्र विद्रोहों को देखा है।
लेकिन इन संघर्षों का स्तर अभी भी शोषित वर्ग के रूबरू वस्तुगत स्थिति द्वारा अपेक्षित स्तर से काफी नीचे है। ग्रीस में, हम देख सकते हैं मजदूर वर्ग के जीवन स्तरों को कैसे क्रूर तरीके से गिराया जा रहा: बड़े पैमाने पर नौकरियों का खात्मा, वेतन, पेंशन और अन्य लाभों को सीधे घटाया जाना, जिसका परिणाम यह है कि अनगिनत परिवार जो पहले एक साधारण जीवन की उम्मीद रख सकते थे अब, वे जब वास्तव मे गलियों में नहीं जी रहे, वे खेराती भोजन पर निर्भर हैं। ग्रीस में, रोटी की और दान की कतारों के साये, जो कई के लिए 1930 के दशक का सार हैं, पहले ही एक दर्दनाक वास्तविकता हैं। और ये स्पेन, पुर्तगाल, और अन्य सभी देशों की ओर फैल रहे हैं जो पूंजीवाद के ताश के पत्तों के महल के ढहन की प्रक्रिया की चपेट में आने वालों में पहले हैं।
ऐसे हमलों के रूबरू, डर से अभित्रस्त मजदूर कई बार झिझक सकते हैं। उनके ऊपर विचारधारा की एक पूरी बौछार से भी हमला किया जाता है – शायद हमें वामपंथ को वोट देने तथा बैंकों के राष्ट्रीयकरण की जरूरत है, शायद हमें दक्षिणपंथियों को वोट देना और सब चीज़ों के लिए बाहरियों को दोष देना चाहिए। और मज़दूरों के प्रतिरोध को सक्रिया रूप से पंगु बनाती यूनियनें हैं, हमने ग्रीस, स्पेन तथा पुर्तगाल में एक दिवसीय हड़तालों की एक श्रांखला में तथा ब्रिटेन में सार्वजनिक क्षेत्र में अन्तहीन 'कार्रवाई दिवसों’ मे यह देखा है।
ये सभी विचारधाराएँ यह आशा जीवित रखने की कोशिश करती हैं कि कुछ चीज़ों को वर्तमान व्यवस्था के अंदर बचाया जा सकता है। व्यवस्था का संकट जो उसके प्रबंधन के लिए स्थापित तमाम ढांचों को झकझोर रहा है बहुत प्रभावी तरीके से साबित करेगा कि यह नहीं हो सकता।
डब्लू आर-355, 1 जुलाई 2012
[1] [25]. https://www.dailymail.co.uk/news/article-2131141/Euro-currency-collapse-pressure-sovereign-debt-crisis-IMF-warns.html [26]
[2] [27]. https://www.bbc.co.uk/news/world-europe-18620965 [26]
[3] [28] https://en.internationalism.org/icconline/201206/4983/crisis-euro-zone-bourgeoisie-has-no-alternative-austerity [26]
[4] [29]. https://www.standard.co.uk/news/world/shares-rally-as-euro-leaders-unite-and-force-angela-merkel-to-act-7899409.html [26]
जलवायु परिवर्तन के विरोध में अधिक लोकप्रिय बैनर में से एक है: “जलवायु नहीं, सिस्टम बदलो”.
यह सच सवालों से परे है कि वर्तमान व्यवस्था मानव को एक पर्यावरणीय तबाही की ओर धकेल रही है. नित रोज, ठोस सबूतों का लगता अम्बार .इसका ठोस प्रमाण है; तेजी से बढती हुई खतरनाक गर्म लहरें,, अमेज़ॅन में अभूतपूर्व रूप से सुलगती आग, पिघलते ग्लेशियर, बाढ़, और अंतिम परिणाम के रूप में मानव प्रजातियों के विलुप्त होने के साथ पूरी प्रजातियों का विलुप्त होना . और भले ही ग्लोबल वार्मिंग नहीं हो रही थी, फिर भी मिट्टी, हवा, नदियाँ और समुद्र के जहर, जीवन के दिnन कम करते रहेंगे.
कोई आश्चर्य नहीं कि इतने सारे लोग, और इतने सारे युवा लोग जो एक जोखिम भरे भविष्य का सामना करते हैं, इस स्थिति के बारे में गहराई से चिंतित हैं, और इसके लिए कुछ करना चाहते हैं.
यूथ फ़ॉर क्लाइमेट, ,ऐक्सटेंसन रिबेलियन ,ग्रीन पार्टियों और वाम दलों तथा संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा आयोजित विरोध प्रदर्शनों ने इस लहर को तेजी से आगे बढ़ाने का काम किया है. बेशक, ट्रम्प, बोल्सोनारो या फराज की पसंद लगातार ग्रेटा और "इको-योद्धाओं" को पछाड़ देती है. उनका दावा है कि जलवायु परिवर्तन एक छलावा है और प्रदूषण पर अंकुश लगाने के उपाय ऑटोमोबाइल और जीवाश्म ईंधन जैसे क्षेत्रों में सबसे ऊपर हैं। वे पूंजीवादी लाभ के नायाब रक्षक हैं. लेकिन मैर्केल, मैक्रॉन, कॉर्बिन, अलेक्जेंड्रिया ओकासियो-कोर्टेज़ और अन्य लोगों के बारे में क्या कहें; जिन्होंने जलवायु विरोधके तारीफों के पुल बाधे हें : क्या वे वर्तमान व्यवस्था का कोई कम हिस्सा हैं?
लेकिन जो लोग वर्तमान में अपने नेतृत्व का अनुशरण कर रहे हैं, उन्हें खुद से पूछना चाहिए: वर्तमान व्यवस्था का प्रबंधन और बचाव करने वालों द्वारा इन विरोधों को व्यापक रूप से समर्थन क्यों दिया जा रहा है? ग्रेटा को संसदों, सरकारों, संयुक्त राष्ट्र से बात करने के लिए क्यों आमंत्रित किया जाता है?
वर्तमान प्रतिरोध में हिस्सा लेने वाले कई लोग इस बात से सहमत होंगे कि जलवायु विनाश की जड़ें वर्तमान व्यवस्था में निहित हैं और यह व्यवस्था पूंजीवाद है . लेकिन विरोध प्रदर्शनों के पीछे के संगठन, और राजनेता जो अपने पाखंडियों का समर्थन करते हैं, उन नीतियों का बचाव करते हैं जो पूंजीवाद की वास्तविक प्रकृति को छिपाते हैं.
मुख्य कार्यक्रमों में से एक पर विचार करें जो इन राजनेताओं के बीच अधिक कट्टरपंथी हैं: तथाकथित "न्यू ग्रीन डील" यह हमें मौजूदा राज्यों द्वारा उठाए जाने वाले उपायों का एक पैकेज प्रदान करता है, जिससे "गैर-प्रदूषणकारी" उद्योगों को विकसित करने के लिए बड़े पैमाने पर पूंजी निवेश की मांग की जाती है, जो कि एक अच्छा लाभ देने में सक्षम होने के लिए माना जाता है. दूसरे शब्दों में: यह पूरी तरह से पूंजीवादी व्यवस्था की सीमाओं के भीतर बना हुआ है। 1930 के दशक के न्यू डील की तरह, इसका उद्देश्य अपनी ज़रूरत के समय में पूंजीवाद को बचाना है, इसे परवर्तित करना नहीं.
पूंजीवादी व्यवस्था क्या है ?
पूंजीवाद, चाहे निजी नौकरशाहों के बजाय राज्य के नौकरशाहों द्वारा ही क्यों न nसंचालित हो, वह कितना ही हरा -भरा क्यों nन दिखे,n अपनी मौत नही मरेगा .
जलवायु परिवर्तन और पूँजीवाद के परस्पर सम्बन्धों को समझने के लिए हमें पूँजीवाद के बुनियादी नियमों के बारे में जान लेना आवश्यक है. श्रम और पूंजी के सम्बन्धों में बंधी पूंजीवादी व्यवस्था, मुनाफा निचोड़ने के लिए, बाजार में बेचने के लिए उत्पादन, उजरती श्रम के शोषण पर आधरित वर्गों के बीच पूंजी एक विश्वव्यापी संबंध है. अपने मालों की खपत के लिए बाहरी बाज़ार की खोज और विश्व मंडी पर अपने वर्चस्व के लिए राष्ट्रों के बीच गला काट प्रतिस्पर्धा तेज होती जाती है; और यह प्रतियोगिता मांग करती है कि प्रत्येक राष्ट्र विस्तार करे या मरे। एक पूंजीवाद जो अब ग्रह के आखिरी कोने में घुसने की क्षमता नहीं रखता और बिना सीमा के विकास नहीं कर सकता, वह अब जीवित नहीं रह सकता. उसी प्रकार, पूंजीवाद पारिस्थितिकी संकट में विश्व स्तर पर सहयोग करने में पूरी तरह से असमर्थ है, क्योंकि अब तक जलवायु पर आयोजित तमाम शिखर सम्मेलनऔर प्रोटोकॉल की घोर विफलता से पहले ही यह सिद्ध हो चुका है.
पूंजीवाद के विकास के पहले दिन से ही यह त्रिकाल सत्य है कि प्रकृति को उजाड़ने की जड़ में है पूंजीवाद, और लाभ के लिए शिकार, जिसका मानव की ज़रूरत से कोई लेना-देना नहीं है, लेकिन पूंजीवाद का इतिहास बताता है कि यह पिछले सौ वर्षों में प्रगति का पहिया रोक देने का कारक बन गया है और एक गहन ऐतिहासिक संकट में पड़ गया है. जैसा कि इसका आर्थिक आधार, असीमित उत्पादन के लिये मजबूर, अति उत्पादन की और धकेल देता है और स्थाई बन जाता है. जैसा कि २० वीं सदी विश्व युद्धों "शीत युद्ध" ने प्रदर्शन किया है, पतन की यह प्रक्रिया पूंजी की गति को पूर्ण से विध्वंस की प्रक्रिया को और तेज कर सकती है. प्रकृति के वैश्विक विध्वंस से पहले से ही स्पष्ट है कि , पूंजीवाद पहले से ही अपने लगातार साम्राज्यवादी टकरावों और युद्धों के माध्यम से मानवता का विनाश करने की धमकी दे रहा है , जो आज उत्तरी अफ्रीका और मध्य पूर्व से लेकर पाकिस्तान और भारत तक पूरे ग्रह पर जारी है. इस तरह के संघर्ष केवल पारिस्थितिकी संकट से तेज हो सकते हैं क्योंकि राष्ट्र राज्य घटते संसाधनों के लिए प्रतिस्पर्धा करते हैं, जबकि अधिक से अधिक घातक हथियारों का उत्पादन करने की दौड़ - और सबसे ऊपर, उनका उपयोग करने के लिए - केवल ग्रह को और अधिक प्रदूषित कर सकते हैं. पूंजीवादी तबाही का यह अपवित्र संयोजन पहले से ही ग्रह के कुछ हिस्सों को निर्जन बना रहा है और लाखों लोगों को शरणार्थी बनने के लिए मजबूर कर रहा है.
साम्यवाद की आवश्यकता और संभावना
वर्तमान पूंजीवादी व्यवस्था, आर्थिक संकट, पारिस्थितिकी संकट, या युद्ध की ओर बढ़ते कदम को नहीं रोक सकती.,
अतएव, यह मांग सरासर एक धोखा है कि दुनिया की सरकारें "एक साथ अपना काम करें" और “ग्रह को बचाने के लिए कुछ करें.” वर्तमान में सभी समूहों द्वारा आयोजित विरोध प्रदर्शनों में इस मांग को आगे रखा जाए। वर्तमान व्यवस्था के विनाश और एक नये समाज के निर्माण में ही मानवता की एकमात्र आशा निहित है। हम सब इसे साम्यवाद कहते हैं: एक ऐसा विश्व व्यापी मानव समुदाय जिसमें राष्ट्र राज्य कोई अस्तित्व नहीं, जहाँ श्रम का शोषण नहीं, बाजारों और धन विहीन सामाजिक व्यवस्था, जहां योजनाबद्ध और मानव की जरूरत को पूरा करने के एकमात्र उद्देश्य के साथ वैश्विक स्तर पर योजनाबद्ध उत्पादन. यह डंके की चोट पर कहा जा सकता है कि जो हम चीन, उत्तर कोरिया या क्यूबा, या पहले सोवियत संघ जैसे देशों में देखते हैं वहां राज्य द्वारा संचालित पूंजीवादी समाज के अलावा कुछ भी नहीं.
प्रामाणिक साम्यवाद ही मानवता और शेष प्रकृति के बीच एक नया संबंध स्थापित करने का एकमात्र आधार है. और यह कतई एक यूटोपिया नहीं है. यह इस लिए संभव है क्योंकि पूंजीवाद ने अपनी भौतिक बुनियाद, विज्ञान और प्रौद्योगिकी के विकास, जिसे इस प्रणाली के तहत उनकी विकृतियों से मुक्त किया जा सकता है, और सभी उत्पादक गतिविधि की वैश्विक निर्भरता, जिसे पूंजीवादी प्रतिस्पर्धा और राष्ट्रीय विरोधी से मुक्त किया जा सकता है ,पर रखी है.
लेकिन यह सब संभव है क्योंकि पूंजीवाद एक ऐसे वर्ग के गठन पर आधारित है जिसके पास खोने के लिए अपनी जंजीरों के अलावा और कुछ नहीं है, अंतर्राष्ट्रीय मजदूर वर्ग, सभी देशों का सर्वहारा वर्ग एक ऐसा वर्ग है जो शोषण का विरोध करने और इसे उखाड़ फेंकने में रुचि रखता है. यह एक ऐसा वर्ग है, जिसमें न केवल उन लोगों को शामिल किया जाता है, जिनका काम पर शोषण किया जाता है, बल्कि वे जो श्रम बाजार में एक स्थान पाने के लिए अध्ययन करते हैं और जिन्हें पूंजी काम से बाहर और कूड़े ढेर पर फेंक देती है।
नागरिकों का विरोध या मजदूरों का संघर्ष ?
यहाँ विशेष रूप से कहा जाना चाहिए कि कि जलवायु प्रतिरोध प्रदर्शनों के पीछे की विचारधारा हमें इस व्यवस्था के खिलाफ लड़ने के साधनों को प्राप्त करने से रोकने के लिए कार्य करती है. उदहारण के तौर पर; हमे यह भी बताया जाता है कि दुनिया में गडबडी इस लिए भी है कि "पुरानी पीढ़ी" को बहुत अधिक उपभोग करने की आदत है। लेकिन पीढ़ियों के बारे में बात करना "सामान्य रूप से" इस तथ्य को अस्पष्ट करता है कि, कल और आज, तथा समस्या समाज को दो वर्गों - एक, पूंजीवादी वर्ग या पूंजीपति वर्ग, जिसके पास सारी शक्तियाँ है, और एक बहुत बड़ा वर्ग जिसे देशों की सबसे "लोकतांत्रिक" स्थिति में भी, निर्णय की सभी शक्ति से शोषित और वंचित किया गया गया है, में बाँटने के लिए सिर्फ पूंजीवाद ही जिम्मेवार है.यह पूंजी का अवैयक्तिक तंत्र ही है जिसने हमें nव्यक्तियों के व्यक्तिगत व्यवहार या पिछली पीढ़ी के लालच के कारण, वर्तमान गन्दगी में धकेला है .
वही बात उन सभी "लोगों" या "नागरिकों" के बारे में भी सच है जिन्हें दुनिया को बचाने के लिए सक्षम बताया जाता है. ये अर्थहीन श्रेणियां हैं जो विरोधी वर्गों के हितों पर पर्दा डालती हें. एक वर्ग द्वारा दूसरे के शोषण पर टिकी व्यवस्था से मुक्ति का मार्ग सिर्फ वर्ग संघर्ष को पुनर्जीवित करना ही है .यह मार्ग मजदूरों द्वारा सभी सरकारों द्वारा पैदा कि गईं जीवित और कामकाजी परिस्थितियों पर सभी राज्यों और नौकरशाहों के हमलों तथा “आर्थिक संकट” के खिलाफ अपने सबसे बुनियादी हितों का बचाव करते हुए शुरू होता है. मालिक वर्ग मजदूरो पर किये जाने वाले हमलों को पर्यावरण की रक्षा के नाम पर अधिक से अधिक उचित बताता है . यह मज़दूर वर्ग के लिए यही एकमात्र आधार है जिसके द्वारा वह मजदूर वर्ग को एक विलुप्त प्रजाति बताये जाने वाले सभी झूठों के खिलाफ अपने अस्तित्व की भावना विकसित कर सकता है. और यही वह एकमात्र आधार है जिसके माध्यम से आर्थिक संकट, युद्ध और पारिस्थितिकी (जलवायु) आपदा के बीच कडी और इस सत्य को स्थापित करने की केवल एक विश्व व्यापी क्रांति उन्हें दूर कर सकती है और आर्थिक व राजनैतिक आयामों में वर्ग संघर्ष की ज्योति जलाई जा सकती है .
प्रथम विश्व युद्ध के दौरान, सैकड़ों हजार लोगों ने शांति प्रदर्शनों का आयोजन किया था .उन्हें "लोकतांत्रिक" शासक वर्गों द्वारा प्रोत्साहित किया गया था, जिन्होंने यह भ्रम फैलाया कि आपके पास एक शांतिपूर्ण पूंजीवाद हो सकता है. आज भी यह भ्रम दूर-दूर तक फैलाया जा रहा है कि आपके पास एक हरा-भरा पूंजीवाद हो सकता है। एक बार फिर सभी अच्छे और सच्चे लोगों द्वारा शांतिवाद की अपील के साथ, इस तथ्य को छिपाने की कोशिश की जा रही है कि केवल वर्ग संघर्ष वास्तव में युद्ध का विरोध कर सकता है. इसका गवाह है 1917-18 का दौर, जब रूसी और जर्मन क्रांतियों के विस्तार ने शासकों को विश्व युद्ध को तेजी से खत्म करने के लिए वाध्य किया. शांति की अपीलों ने कभी भी युद्धों को नहीं रोका है, और जलवायु आपदा से रक्षा के लिए झूठे समाधान हेतु वर्तमान पारिस्थितिकी अभियान, इसके वास्तविक समाधान के लिए एक बाधा के रूप में समझा जाना चाहिए.
इंटरनेशनल कम्युनिस्ट करंट
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