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क्योंकि भारत का मजदूर वर्ग अंतरराष्ट्रीय मजदूर वर्ग का एक महत्वपूर्ण दस्ता है, अतएव यहां के मजदूर वर्ग के वर्ग संघर्ष की परस्थितियां और समस्याऐं मूलरूप से अंतरराष्ट्रीय मजदूर वर्ग के वर्ग संघर्ष से अलग नहीं हो सकती। अंतरराष्ट्रीय वर्ग संघर्ष के हालात, समस्याऐं परेशानियां, तथा उसके परिप्रेक्ष पर अंतरराष्ट्रीय कांग्रेस में विस्तार से चर्चा की जा चुकी प्रस्तावित इस रिपोर्ट का लक्ष्य विश्व के ढांचे में भारत में वर्ग संघर्ष के विकास का विश्लेषण करना भर है।
आई सी सी की विगत कांग्रेस में यह सही ही निरूपित किया कि भारत, चीन, ब्राजील तथा अन्य उभरते अर्थतंत्र विश्व सर्वहारा क्रांति के आगामी उभार के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकते हैं। इन देशों में मजदूर वर्ग की बडी तादात और उनका बडा संकेंद्रण है। और भी, इन देशों के संघर्ष, मजदूर वर्ग में अंतरराष्ट्रीय एकता और भाईचारे के विकास की प्रकिया को गति प्रदान करेंगे और पूँजीपति वर्ग द्वारा निरंतर चलाये जा रहे विभाजनकारी कुचक्रों को असरहीन बनायेंगे। इस प्रकार, संपूर्ण आई सी सी तथा सी आई का यह महत्वपूर्ण दायित्व है कि वह मजदूर वर्ग के संघर्ष की संभावित स्थतियों, वर्ग की कतारों में हो रही खदबदाहट, उसकी शक्ति एवं कमजोरी उसकी कठिनाइयों, समस्यसओं, संभावनाओं, उसके परिप्रेक्ष तथा वर्ग दुश्मन द्वारा उसे मार्ग से भटकाने के लिये चली जा रही चालों का गहराई से अध्ययन करें।
पूँजीवाद के केन्द्र में स्थित देशों की भांति, भारत के मजदूर वर्ग का भी दोंनों, सीघे साम्राजवादी शोषण एवं उत्पीणन तथा 1947 के पश्चात स्वतंत्र . देशी पूँजीवाद के घोर शोषण एवं उत्पीणन के खिलाफ बहादुराना संघर्ष का लम्बा इतिहास है। इन संघषों में हजारों मजदूरों की जानें गयीं, उससे अधिक घायल हुये, इसके अलावा,सालों साल जेलों में अमानवीय यातनायें झेलीं। लेकिन यह सभी मजदूर वर्ग के लडाकू जज्वे को कुचलने में नाकाम रहीं। इस गौरवमयी इतिहास की गहराई से निरख-परख करना एक नितांत ही अपरहार्य कार्य है। हम इस रिपोर्ट में इस पर विस्तार से चर्चा नहीं करेंगे। हम वर्तमान के महत्वपूर्ण संघषों पर ही अपना ध्यान केन्द्रित करेंगे। ये संघर्ष अंतरराष्ट्रीय वर्ग संघर्ष की रिपोर्ट में वर्णीत महत्वपूर्ण संघषों के समान तथा उनका चरित्र लिये हुये है।
भारतीय पूँजीपति वर्ग के इन दावों कि उसने संकट के प्रभावों पर पार पा ली है और उसकी गाडी पटरी पर आ गयी है; गुजरात के हीरे के मजदूरों, चेन्नई के हुंडई के मजदूरों का संघर्ष, कोयम्बटूर के ऑटो श्रमिक, भारत की राजधानी से सटे क्षेत्र के ऑटो तथा ऑटो पार्टस के मजदूरों के संघषों ने पोल खोल दी है। गुजरात में ठेके पर काम कर रहे असंगठित तथा गुडगांव के ऑटो कम्पनियों के मजदूरों ने नेतृत्वकारी भूमिका अदा की। गुजरात के हीरे मजदूर चाणचक हडताल पर चले गये। यह हडताल उन क्षेत्रों में भी तेजी के साथ फैल गयी जहां हीरे पर पॉलिश का काम किया जाता है। ये सभी संघर्ष जनवादी राज्य मशीनरी द्वारा कुचल दिये गये। भारत के विभिन्न भागों में मजदूर वर्ग के संघर्ष फूटे जिनमें से मुख्य निम्न हैं: सार्वजनिक क्षेत्र की मुख्य हडतालें हैं - बैक कर्मचारियों की हडताल, अखिल भारतीय पायलटों की हडताल, जनवरी 2009 में तेल कर्मियों की हडताल; तथा जनवरी 2009 में बिहार के राज्यकर्मियों की हडताल। जहां राज्य मशीनरी ने कठोर रूख अपना कर दमन का मार्ग चुना, वहां संधषों ने भी भीषण रूप धारण कर लिया। यह स्थिति 2009 में तेलमजदूरों के सामने उस समय पैदा हो गयी जब राज्य ने मजदूरों पर ऐस्मा थोप दिये जाने के साथ अन्य दमनकारी तरीकों का प्रयोग किया। यही स्थिति बिहार के राज्यकर्मियों की हो गयी जब राज्य ने कर्मचारियों को सबक सिखाने की ठान ली और जब सरकार को यह पता चला कि हडताल सार्वजनिक क्षेत्र के मजदूरों में भी फैलती जा रही है तब सरकार मे अपने कदम वापस खींच लिये।
वर्ष 2008 के 27 अगस्त को बीएसएनएल कर्मी हडताल पर चले गये, उसी वर्ष सितम्बर 24 को बैंककर्मी हडताल पर थे। 2008 के 1 अक्टूबर को सिनेमा के कर्मचारी हडताल पर थे। 2009 की 7 जनवरी को अधिक वेतनमान की मांग को लेकर आई ओ सी, बी पी सी ऐल, हैच पी सी ऐल, तथा गेल कर्मी हडताल पर थे। 30 अप्रैल 2009 को एयरपोर्ट कर्मचारियों ने काम बंद कर दिया। मई 20/21 को बैलैडिला के खान मजदूर खदानों में नहीं उतरे। 25 मई को गोवा में वेतनवृद्धि को लेकर पी डब्लू डी कर्मियों ने चक्का जाम कर दिया। 12 जून 2009 को बैक कर्मी पुनः हडताल पर चले गये। उसी समय अपने अफसरों के व्यवहार के खिलाफ तामिलनाडु में ऐम आर एफ तथा नोकिया के मजदूर 22 सितमबर 2009 को संघर्ष पथ पर थे। इसके अलावा पश्चिमी बंगाल में जूट मिलों के मजदूर तथा गोदी कर्मचारियों की हडतालें रहीं। कोलकता के उप नगरीय इलाकों में जूट मिलों के मजदूर मैनेजमेंट के खिलाफ आन्दोलन रत थे। मैनेजमेंट की ओर से की गयी भडकावे की कार्यवाही ने हालात ऐसे पैदा हुये कि कई लोग मारे गये। चाय बागानों के मजदूर भी कई बार हडताल पर थे।
नयी पीढी के संघर्ष ( पी टी टी आई )
दुनियां के अन्य भागों में हम देख चुके हैं कि पूँजीवादी राज्य के खिलाफ अपने भावी हितों को सुरक्षित बनाने के लिये मजदूरों की नयी पीढी या भावी मजदूर सर्वहारा के रणक्षेत्र में संघर्षरत हैं। फ्रांस तथा ग्रीस विद्यार्थियों के सघर्ष अत्यंत महत्वपूर्ण अर्थपूर्ण एवं प्रेरणादायिक हैं। आत्म संगठन के लिये प्रयास, सार्वजनिक सभायें, विस्तार ,बहसों में खुलापन, मजदूर वर्ग के विगत के संघर्षों से सबक लेना, मजदूर वर्ग में भाईचारा और एकता पूँजीवाद के अस्तित्व पर सवाल उठाना, इसके अस्तित्व के खिलाफ जबर्दस्त असंतोष का इजहार, वर्ग संघर्ष की नयी स्थिति के विकसित होने की अग्रिम सूचना है।
इस सदर्भ में ; पश्चिम बंगाल के प्राइमरी टीचर्स ट्रेनिंग इन्स्टीट्यू के क्षात्रों का संघर्ष अर्थपूर्ण है। ये क्षात्र या तो सरकारी मान्यता प्राप्त संस्थाओं से ट्रेनिग कोर्स पूरा कर चुके थे अथवा पूरा करने के अंतिम चरण में थे। किन्तु केन्द्रीय शिक्षा प्राधिकरण ने ( ऐन सी ई टी ) ने उन्हें अमान्य घोषित कर दिया। इस प्रकार; कोर्स पूरा करने के बाद जो डिग्री या प्रमाण पत्र उन्होंने प्राप्त किये वे रोजगार की दुनियां में गैर कानूनी और अर्थहीन हो गये। इस भांति, वे विद्यार्थी अकस्मात बेरोजगार हो गये। इनमें वे हजारों अध्यापक भी शामिल हैं जो पहले से ही सरकारी प्राइमरी स्कूलों में सेवा कार्यरत हैं। क्योंकि केन्द्रीय सरकार के अधीन उसी शिक्षा प्राधिकरण की एक कलम से उनके डिग्री तथा सर्टीफिकेट गैर कानूनी घोषित कर दिये गये। इन क्षात्रों का यह ट्रेनिग कोर्स पूरा करने में एक मोटी रकम खर्च हुयी। उनमें से कुछ क्षात्र तो इतने निराश हुये कि कइयों ने आत्म हत्या करली।
इस अनिश्चतता की स्थिति में विद्यार्थियों को अध्यापक की नौकरी पाने के लिये संघर्ष पर जाने को मजबूर कर दिया। लगभग 76 हजार क्षात्र आन्दोलन में शामिल थे। राज्य तथा केन्द्र के सत्ताधारी राजनीतिक दलों द्वारा नौकरी छीन लिये जाने की धमकी के राजनीतिक खेल ने उन अध्यापकों की नींद उडादी जो पहले से ही कार्यरत थे। शुरूआत में, आन्दोलनकारियों में आत्म संगठन का तत्व तथा राजनीतिक दलों और पूजी के दांये-बांये धडों की यूनियनों के प्रति अविश्वास का भाव था। उनका निश्चय था कि वे अपने आन्दोलन में किसी भी राजनीतिक शतरंज की गोटियां नहीं बिछाने देंगे। यदा कदा क्षात्रों को जेल भेज दिये जाने तथा राज्य के अन्य दमनकारी कदमों के खिलाफ पुलिस से हिंसक टकराव भी हुये। इसके वाबजूद, पी टी टी आई क्षात्रों; मजदूर वर्ग की भावी पीढी या भविष्य में मजदूरों की जमात में शामिल होने वाले विद्यार्थियों का यह संधर्ष निकट भविष्य में किसी भी क्षेत्र के मजदूरों के संधर्ष में एक दिशा सूचक सिध्द होगा।
इन संघर्षों की कुछ महत्वपूर्ण विशेषतायें निम्न प्रकार हैं.
संघर्षों की समकालिकता
हमलों की समकालिकता का अर्थ है संघर्षों में और अधिक अंतःशक्ति की समकालिकता। सत्ता वर्ग के हमलों के शिकार विभिन्न क्षेत्रों के मजदूर हमलों का जवाब देने के लिये अपने क्षेत्रों तथा यूनियनों की सीमाओं को लांघ कर मजदूर वर्ग की एकजुटता की बढती संभावना एक आगे का कदम होगा।
जो कुछ आज दृश्य पटल पर है वह इस बात का सूचक है कि अधिक से अधिक मजदूर अपने मालिकों के हमलों का जवाब देने की ओर आतुर हैं। हालांकि देश के विभिन्न भागों में संघर्षों की संख्या उत्तरोत्तर बढती जा रही है एक भौगोलिक क्षेत्र में संघर्षों में समकालिकता की ओर रूझान है। यह रूझान संघर्षों की कडियां जोडने तथा उनके विस्तार की संभावना को अभिव्यक्त करता है। यह गुजरात के हीरा मजदूरों के संघर्ष में देखा जा सकता है कि वे कई शहरों में सामयिक रूप से (एक साथ) चाणचक हडताल पर चले गये। यही तामिलनाडु और पुणे के ऑटो मजदूरों में देखा जा सकता है, जहां एक ही भौगोलिक क्षेत्र में एक साथ कई सारी हडतालें हुयीं। पूँजीपतियों ने इस खतरे को भांप लिया और दमन कम कर दिया। आज सभी क्षेत्रों में हो रहे हमलों का ही परिणाम संघर्षो की समसामयिकता है। सूरत के हीरा श्रमिकों की हडताल की यह विशेषता है कि उसमें आम हडताल का तत्व देखा जा सकता है। इसका सबूत यह है कि राजकोट और अमरेली के मजदूर भी उनकी मांगों के समर्थन में हडताल पर चले गये।
अहमदाबाद जिले में सैकडों हीरा मजदूरों ने पुलिस पर पथराव किया और बापू नगर इलाके को बंद कराने की कोशिश की। वेतनवृद्धि की मांग को लेकर हडताल गुजरात के उत्तरी भागों पालनपुर और महसाना तक फैल गयी । गुडगांव- मानेसर की बहुत से कारखाने के मजदूर अपने मालिकों के खिलाफ सडकों पर उतर आये। होंडा मोटर साइकिल के मजदूर बेहतर वेतनमान और मालिकों द्वारा स्थायी कर्मचारियों का अस्थाई किये जाने के विरूद्ध कई महीनों तक आंदोलन पर रहे। अन्य कारखानों के मजदूरों ने इनका सक्रियता से सहयोग किया। इसने मजदूर वर्ग के संघर्षों के विस्तार और वृहद एकता की संभावना को जन्म दिया। यही वह मार्ग है जो वर्ग को मालिकों के हमलों का मुकावला करने की क्षमता पैदा करता है। यही वह स्थिति है जिससे मालिक वर्ग भयभीत होता है और इसे टालने कोशिश करता हैं।
वर्गीय एकता और विस्तार
निस्संदेह, हाल के संघर्षों में विस्तार, आत्म नियंत्रण और वर्गीय एक जुटता के विकास की संभावनाओं की गतिशीलता है। लेकिन इस गतिशीलता को हासिल करने के लिये मजदूरों के लिये यह आवश्यक है कि वे राज्य तथा यूनियनों की उभरती चालों को समझें और संघर्षों को अपने हाथों में ले लें। स्थिति इस दिशा में बढ रही है कि क्रान्तिकारियों के सामने चनौती यह है कि वे इस गतिक को गहराई से समझें और उसमें ठीक तरह से हस्तक्षेप कर सकें ताकि संघर्षरत मजदूर यूनियनों के जाल से मुक्त होने के लिये अपने आत्मबल और ताकत दोंनो को पहचानें।
गुडगांव के संघर्ष में रिको के एक मजदूर के मारे जाने और कइयों के घायल हे जाने के पश्चात यूनियनों की एकमात्र भूमिका यह थी कि वह किस प्रकार मजदूरों में बढती एकता और संघर्ष के विस्तार के बढते रूझान को अति शीघ्र रोक दें। एक दिन की आम हडताल का नारा देकर उनमें एक साथ आने और वर्गीय भाईचारे के बढते तेबरों को बधिया बना देने का प्रयास किया । इसके वाबजूद, 20 अक्तूबर की हड़ताल में 1 लाख मजदूरों की भागीदारी वर्गीय भाईचारे की जीती जागती मिशाल थी। पूँजीवाद से मुठभेड और उससे दो-दो हाथ करने की इच्छाशक्ति के जज्वे भी इसकी अभिव्यक्ति थी।
वर्ग संघर्ष के विकास में कठिनाइयां
यद्यपि, ऊपर गिनाये संघषों में मजदूरों की जोशीली भागीदारी रही किन्तु वे सभी संघर्ष यूनियनों माध्यम से के नियन्त्रण थे। कई मामलो में यूनियनें वर्ग धरातल पर, आत्मगठन तथा प्रसार द्वारा विकसित होते संघर्षों को रोकने के लिये गर्म मुद्रा अपनाने के लिये वाध्या हुई। लेकन हकीकत यह है कि यूनियनों के प्रति बढते अविश्वास के वाबजूद, मजदूर वर्ग अभी भी यूनियनों ढांचे से बाहर निकलने और आत्म संगठन होने योग्य नहीं बन पाया है। हमें अपना ध्यान वर्ग संघर्ष को आम हडताल में विकसित होने की गति शीलता तथा उसमें क्रान्तिकारियों के नेतृत्व के गतिक को गहराई से समझने पर अधिक ध्यान देने की आवश्यकता है।
विश्व के अन्य भागों के समान ही, यहां भी मजदूरों के जीवन काम करने की परस्थितियों पर हो रहे हमलों के खिलाफ तात्कालिक संघर्षों में कूद जाने में भय और हिचक बनी हुयी है। यहां नौकरी छिन जाने तथा काम की सुरक्षा का डर अधिक है क्योंकि मालिक वर्ग द्वारा बिना किसी सामाजिक सुरक्षा के स्थायी नौकरियों के स्थान पर बहुत कम पगार पर अस्थायी या ठेके पर रखे जाने पर जोर अधिक है। इसके अलावा,यूनियनों के परम्परागत तरीके के संघर्ष भी अधिक से अधिक निरर्थक सिद्ध हो रहे हैं तथा वास्तविक विकल्प फिलहाल अस्पष्ट है। किन्तु, फिर भी, इतिहास के सबकों से सीखने तथा पूँजीवाद के खिलाफ संधर्ष विकसित करने के प्रति वर्ग में खदबदाहट है।
स्वयं सेवी संगठनों की गतिविधियां तथा अति वामपंथी शक्तियां भी संघर्षों के मजदूर वर्ग के मैदान में विकसित होने में अडचनें पैदा कर रहे हैं। जनवाद का भ्रमजाल भी एक नकारात्मक पहलू है। यूनियनों क्षेत्रों, धर्मों तथा जातियों के आधर पर विभाजनकारी भावनायें भी महत्वपूर्ण रूकावटें हैं। ये सभी अस्थायी हैं, स्थायी तो पूँजीवादी सम्बन्ध तथा उसका संकट, उसके आंतरिक अंतर्विरोध, मजदूर वर्ग पर बढते हमलों और दमन का सिलसिला है जो वर्ग चेतना, आत्मसंगठन और वर्ग संघर्ष के विकास के प्रति रूझान को प्रतिविम्बित करता है। पर इस गतिशीलता में क्रांतिकारियों की शिरकत भी निर्णयक कारक है।
पूँजीवाद भ्रमजाल
विश्व के पूँजीपतियों ने भी अपने अनुभवों से मजदूर वर्ग को नियंत्रित करने, उसका दमन करने, उसके सघर्षों को कुचलने तथा हराने के तरीके सीख लिये हैं। उसका एकमात्र लक्ष्य होड, विभाजन तथा भ्रमजाल को घनीभूत करना ताकि मजदूर वर्ग अपने सघर्षों को अपने वर्गीय मैदान में और अधिक लडाकू तथा जागरूक तरीके से विशाल स्तर पर संगठित करने में असफल रहे। विश्व पूँजीवाद के भाडे पर जुटे तमाम अर्थशास्त्री, विद्वान, शोधकर्ता, राजनीतिज्ञ, ट्रेड यूनियन नेतागण दिन रात एक किये हुये हैं। इस कार्य में हिन्दुस्तान का पूँजीपति भी पीछे नहीं है। पूँजीवाद के सभी भागों के लिये यह जीवन मरण का सवाल है।
पूँजीवाद की आर्थिक नीतियों ने बढती मूल्यवृद्धि को जन्म दिया। सरकारी आंकडों के अनुसार, खाद्यानों के दामों में 18 प्रतिशत की वृद्यि हुई किन्तु वास्तव में यह इससे कहीं अधिक हैं। इसके चलते, मजदूरों के बडे भाग को दो जून की रोटी जुटाना मुश्किल हो गया है। इस स्तर पर खतरे को भांपते हुये और इसको टालने के लिये पूँजीपतियों के विभिन्न गुट मंहगाई के खिलाफ संघर्षो की रस्म अदायगी कर दिखावा कर रहे हैं। आर्थिक संकट के लगातार तीव्रतर होते जाने के कारण पूँजीवाद वर्ग संघर्ष को लम्बे सयम तक नहीं टाल सकता। वर्ग की वर्तमान सापेक्ष मुश्किले भावी समय में हिंसक तूफान के रूप में प्रचंड वर्ग संधर्ष फूट पडने की सभावना लिये है।
विश्व के अन्य भागों की समान ही हिन्दुस्तान का पूँजीपति और उसके विशेषज्ञ अतिरिक्त समय लगा कर मजदूरों में यह संदेश देने में जुटे हैं कि संकट अस्थायी है और यह व्यवस्था का जरूरी अंग है, इस पर देर सबेर पार पा ली जायेगी, इसका बुरातम प्रभाव खत्म हो चुका है, जी डी पी में उत्साहवर्धक विकास हो रहा है, निर्यात कुलांचें भर कर दौडने लगा है और अच्छे दिन अब ज्यादा दूर नहीं हैं।
पूँजीवाद का एक और अन्य आजमाया हुआ भरोसेमन्द जाल राष्ट्रवाद है। पूँजीपति और उसका प्रिन्ट व इलैक्ट्रौनिक मीडिया मजदूर वर्ग के कानों में यह स्वर फूकने से नहीं चूकते कि चीन द् ड्रैगन अपनी सैन्य शक्ति का विस्तार कर भारत को घेरने के साम्राजयवादी मंसूवे बना रहा है। लगभग प्रत्येक दिन अखबारों में कोई न कोई कहानी ऐसी छपी होती है जिसमें भारतीय हितों के खिलाफ पाकिस्तानी हुक्मरानों द्वारा शत्रुता पूर्ण गतिविधि का हवाला न हो। भारत के किसी भी कोने में किसी भी आतंकवादी घटना को पाक राज्य द्वारा नियोजित अपराध कर्म घोषित किया जाता है। वे मजदूर वर्ग को साम्राजवादी जुये में जोतने की कोशिश कर रहे हैं। वे मजदूर वर्ग को अतंकवाद के खिलाफ साम्राजवादी युध में लाम्वन्द करने की हर कोशिश क्रर रहे हैं। इस प्रकार मजदूर वर्ग को हमेशा राष्ट्रवाद के गहरे उन्माद में डुबा कर रखा जाता है। मजदूर वर्ग को हमेशा बताया जाता रहता है कि भारत आर्थिक, राजनतिक तथा सामरिक तौर पर अतंर्राष्ट्रीय स्तर पर एक महान शक्ति बनने जा रहा है और इसका मान अतंर्राष्ट्रीय बिरादरी में दिन पर दिन बढता जा रहा है।
और भी, पूँजीवाद मजदूर वर्ग को यह समझाने में कोई कसर बाकी नहीं छोड रहा कि समाजवाद, साम्यवाद और सर्वहारा क्रांति कोरी कल्पना मात्र हैं। मजदूर वर्ग को हमेशा बताया जाता है कि जनवाद ही एक अति उत्तम विकल्प है और सभी समस्याओं को सुलझाने का एकमात्र मार्ग भी।
पूँजी की अति वामपंथी पार्टियां मजदूर वर्ग को इसमें उलझाये रखती हैं कि उनकी नयी जनवादी क्रांति ही जीवन और जीविका की समस्याओं को सुलझाने का एकमात्र विकल्प है।
किन्तु पूँजीपतियों ने यह अहसास किया है कि भ्रमजाल फैलाने के उसके सभी घनीभूत प्रयासों के वाबजूद पूँजीवाद के अस्तित्व पर प्रश्न खडे करने और चेतना के विकास की प्रक्रिया अटल है। चेतना के विकास की प्रक्रिया को पटरी से हटाने तथा कम्युनिस्ट विकल्प की खोज को पूँजीवाद मार्कसवाद के सारतत्व को विकृत करने के प्रयास में जुटा हैं जबकि दूसरी ओर वह यह भी घोषणा करता है कि मार्कस एक महान विचारक थे और मार्कसवाद आज भी प्रासंगिक है। शासक वर्ग हर प्रयास करेगा ताकि मजदूर वर्ग यह चेतना न हासिल कर पाए कि पूँजीवाद का विनाश तथा एक नए सामाज का निर्माण ही व्यवस्था के सडन से पैदा समस्याओं का समाधान कर सकता है।
सीआई, 3 फरवरी 2010