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कम्युनिस्ट इंकलाब का भूत दुनियाँ को आंतकित करने लौट आया है। पिछले पचास से अधिक वर्ष से शासक वर्ग विश्वास करता रहा है कि पिछली सदी में और इस सदी के आरंभ में मज़दूर वर्ग को आन्दोलित करते पिशाच सदा-सर्वदा के लिए भगा दिये गये हैं। वास्तव में, मज़दूर आन्दोलन ने पिछले पचास सालों जैसी भयंकर और चिरस्थायी हार कभी नहीं जानी। 1848 के उसके संघर्षों के बाद, 1871 में पेरिस कम्यून बनाने के उसके विकट वीरतापूर्ण प्रयास के बाद, और रूस में 1905 के संघर्षों की हार को पूरा करती अस्त-व्यस्तता के बाद जो प्रतिक्रांतियाँ मज़दूर वर्ग पर भारी पड गईं वे पिछली आधी सदी से मज़दूर संघर्षों की प्रत्येक अभिव्यक्ति पर सीसे की परत की तरह छाई प्रतिक्रांति की तुलना में कुछ भी नहीं थी। प्रतिक्रांति के विस्तार ने पहले विश्वयुद्ध के बाद आये महान क्रांतिकारी उभार के समक्ष बुर्जुआजी के आतंक को प्रतिबिम्बित किया। वह आज तक की एक मात्र क्रांतिकारी लहर थी जो वास्तव में पूँजीवादी व्यवस्था की नींवों तक हिलाने में सफल रही। इतनी ऊंचाईयों तक उठने के बाद, सर्वहारा ने इतनी घोर विपत्ती, इतनी निराशा, और इतनी बदनामी कभी नहीं जानी। और न ही बुर्जुआजी ने कभी सर्वहारा की ओर इतनी हेकड़ी दिखायी है कि उसकी महानतम हारों को उसकी जीतों और क्रांति को एक पुराना विचार, विगत युगों से आती एक मिथ के रूप में पेश करे।
परन्तु आज, सर्वहारा लौ दुनियाभर में फिर जल उठी है। बहुधा उलझे और झिझकालू तरीके से, लेकिन कई बार तो क्रांतिकारियों को भी चकित करते झटकों से सर्वहारा दैत्य ने अपना सिर उठा लिया है और पूँजीवाद के बुढ़ढे ढ़ॉंचे को कंपाने लौट आया है। पेरिस से कौरडोवा तक, तूरीन से ग्दांसक तक, लिसबन से शंघाई तक, काहिरा से बारसलोना तक, मज़दूरों के संघर्ष फिर पूँजीपतियों के लिए दु:स्वप्न बन गये हैं [1]। इसके साथ-साथ, वर्ग के आम पुन: उभार के हिस्से के रूप में, सर्वहारा के एक अत्यधिक महत्वपूर्ण औजार, उसकी वर्गीय पार्टी, को सैद्धांतिक और राजनीतिक, दोनों रूप से पुन: बनाने के विशाल कार्यभर से दबे क्रांतिकारी ग्रुप और धाराऐं पुन: प्रकट हो गई हैं।
इसलिए, अब वक्त आ गया है कि क्रांतिकारी अपने वर्ग के सामने उन संघर्षों के परिद़ृश्य की घोषणा करें जिनमें वह अभी भी संलग्न है। उन्हें अतीत के सबकों की याद दिलायें ताकि वर्ग अपना भविष्य रच सके। क्रांतिकारियों के लिए उन कार्यों को समझने का भी वक्त आ गया है जो सर्वहारा के नवीकृत संघर्षों की पैदाइशों और उसमें सक्रिय कारकों के रूप में उनकी प्रतीक्षा कर रहे हैं।
यह घोषणा पत्र इसीलिए लिखा गया है।
मज़दूर वर्ग : क्रांति का कर्त्ता
हमारे युग में सर्वहारा ही एकमात्र क्रांतिकारी वर्ग है। सिर्फ वह ही विश्व स्तर पर राजनीतिक सत्ता छीन कर और उत्पादन के हालातों तथा लक्ष्यों में आमूलचूल रूपान्तरण करके मानवता को उस बर्बरता से उभारने की क्षमता रखता है जिसमें वह धॅंसी हुई है।
यह विचार की मज़दूर वर्ग ही वह वर्ग है जो कम्युनिज्म की स्थापना कर सकता है, कि पूँजीवाद में उसकी स्थिति उसे पूँजीवाद को उलटने के समर्थ एक मात्र वर्ग बनाती है, यह एक से अधिक सदी पूर्व पहले ही ज्ञात था। यह सर्वहारा आंदोलन के प्रथम यथातथ्य प्रोग्राम – कम्युनिस्ट घोषणापत्र – में जोरदार तरीके से अभिव्यक्ति किया गया है। यह प्रथम इंटरनेशनल द्वारा प्रतिभाशाली तरीके से इस तरह अभिव्यक्ति किया गया था, ‘‘मज़दूरों की मुक्ति मज़दूरों का ही अपना कार्य होगी।’’ उस समय से सर्वहारा की अनेकों पीढियों ने पूँजी के खिलाफ अपनी उत्तरोत्तर लड़ाईयों में उसे अपनी पताका रखा हुआ है। परन्तु जिस भयंकर सन्नाटे ने वर्ग को आधी सदी तक घेरे रखा, उसने ‘‘सर्वहारा के अंतिम संयोजन’’ बाबत, ‘‘सर्वहारा पूँजी के लिए एक वर्ग’’ बाबत, ‘‘सार्विक वर्ग’’ बाबत, अथवा सीमांत समूहों के क्रांति का कर्ता होने बाबत रंग-बिरंगे सिद्धांतों तथा ‘‘नवीनताओं” के रूप में छिपे इसी तरह के अन्य घिसे-पीटे विचारों को फलने-फूलने का मौका दिया। ये विचार मज़दूरों को निरुत्साहित करते रहने तथा उन्हें बिन-विचारे पूँजी की अधीनता स्वीकार करवाने के लिए बुर्जुआजी के अन्य सभी झूठों के साथ मिलाये गये।
इसलिए, इंटरनेशनल कम्युनिस्ट करंट वर्तमान दौर में मज़दूर वर्ग, न कि किसी भी अन्य वर्ग, के क्रांतिकारी चरित्र की जोरदार तरीके से पुन: पुष्टि करता है।
लेकिन तथ्य यह है कि भूतकाल के क्रांतिकारी वर्गों से भिन्न, मज़दूर वर्ग के पास उस समाज में, जिसका वह रूपांतरण करेगा, कोई आर्थिक ताकत नहीं है। यह तथ्य मज़दूर वर्ग पर पूँजीवाद के रूपांतरण की एक पूर्वशर्त के रूप में, राजनीतिक ताकत छीनने का कार्य सोंपता है। इसलिए, बुर्जुआ इन्कलाबों से भिन्न, जो उत्तरोत्तर सफलता की ओर बढ़ते गये, सर्वहारा इन्कलाब अनिवार्यत: आंशिक किन्तु दु:खद हारों के एक पूरे क्रम का शिखर बिन्दु होगा। और जितने ही अधिक शक्तिशाली होते हैं वर्ग के संघर्ष, उतनी ही भयंकर होती है उसकी हारें।
जिस महान क्रांतिकारी लहर ने न सिर्फ पहले विश्वयुद्ध का अन्त किया बल्कि जो एक दशक तक जारी रही, वह इस बात की स्पष्ट पुष्टि है कि सर्वहारा कम्युनिस्ट क्रांति का एकमात्र कर्ता है और कि हारें निर्णायक जीत की ओर, तथा तब तक, उसके संघर्ष का एक पहलू हैं। वह विशाल क्रांतिकारी आन्दोलन जिसने रूस में पूँजीवादी राज्य को उलट दिया और यूरोप के बाकी राज्यों को कंपा दिया, उसने चीन में भी दबी-घुटी प्रतिध्वनि पाई। सर्वहारा ने घोषित किया कि वह अपनी मृत्यु पीड़ा में फंसी इस व्यवस्था पर सांघातिक प्रहार के लिए तैयार हो रहा है। सर्वहारा इतिहास द्वारा पूँजीवाद के खिलाफ सुनाये गये मृत्यु दंड के फैसले को लागू करने को तैयार था। मज़दूर वर्ग क्योंकि 1917 की अपनी पहली जीत विश्वभर में फैलाने में असमर्थ रहा, इसलिए वह अन्तत: हार गया और कुचला गया। उसके बाद, यह तथ्य कि सर्वहारा ही एक क्रांतिकारी वर्ग है, एक नकारात्मक तरीके से अनुमोदित हुआ। क्योंकि मज़दूर वर्ग अपनी क्रांति में असफल रहा और क्योंकि अन्य कोई भी सामाजिक वर्ग उसकी जगह क्रांति नहीं कर सकता, इसलिए समाज अटलता से अधिकाधिक बर्बरता में घंसता चला जा रहा है।
पूँजीवाद की पतनशीलता
पहले विश्व युद्ध से पूँजीवाद का सड़न जारी है, और सर्वहारा इंकलाब के अभाव में समाज इससे बच नहीं सकता। पूँजीवाद का पतनकाल अभी ही मानव इतिहास के सबसे बद्तर युग के रूप में सामने आ रहा है।
अतीत में, मानव-जाति ने पतनशीलता के ऐसे दौर जाने हैं जिनमें बहुत विपत्तियाँ और अकथनीय कष्ट थे। परन्तु वे उसके मुकाबले कुछ भी नहीं थे जो मानवता ने पिछले साठ सल में भोगा है। दूसरे समाजों की पतनशीलता ने अभावों और अकालों की वृद्धि देखी, परन्तु आज से पूर्णत: अलग स्थिति में, आज इतना अधिक मानवीय दु:ख-दर्द दौलत की विशाल बरबादी के साथ-साथ मौजूद है। एक ऐसे वक्त जब इन्सान ने अपने को ऐसी अदभूत तकनीकों का मालिक बना लिया है जो उसके लिए प्रकृति को वश में करना संभव बनाती, वह उसकी सनकों का गुलाम बना हुआ है। आज के हालातों में प्राकृतिक, मौसमी अथवा कृषि विषयक आपदायें अतीत से भी अधिक दु:खद हैं। और भी बुरा, पूँजीवादी समाज इतिहास में पहला समाज है, अपने पतन के दौर में जिसका अस्तित्व ही अपने ही एक निरन्तर बढ़ते हिस्से के विशाल आवर्ती विनाश पर निर्भर है। निश्चय ही, पतन के दूसरे दौरों ने भी शासक वर्ग के गुटों में मुठभेडें देखी, परन्तु पतन के जिस दौर में हम आज रह रहे हैं वह संकट-विश्वयुद्ध-संकट के अविराम शैतानीय चक्करों में उलझा हुआ है, और मानवजाति से मृत्यु तथा दु:ख भोग के रूप में भयंकर कीमत अदा करवा रहा है। आज, कल्पनातीत वैज्ञानिक परिष्कार भरी तकनीकें पूँजीवादी राज्य के हाथ में मौत और तबाही की ताकत बढ़ाने का काम करती हैं। साम्राज्यवादी युद्धों के शिकारों की गिनती करोड़ों में करनी होगी। इसके अतिरिक्त, व्यवस्थित और आयोजित नरसंहार, जैसे अतीत में फासीवाद एवं स्टालिनवाद द्वारा किये गये, हमें आशंकित किये हुए हैं। एक तरह से, ऐसा लगता है जैसे मानवजाति को अपनी भावी आज़ादी, तकनालोजी द्वारा संभव बनी एक आज़ादी, के लिए कीमत अभी अदा करनी होगी जिसे इसी प्रोद्योगिक प्रभुत्व द्वारा पैदा भयंकर अत्याचारों में मापा जाएगा।
विनाश और उथल-पुथल भरी इस दुनियाँ के मध्य में स्थिरता की गारंटी देने और समाज को बचाये रखने के लिए केन्सर जैसे तरह एक यंत्र का, राज्य का, विकास हुआ है। राज्य ने अपने आप को सारे सामाजिक तानेबाने में, खासकर समाज के आर्थिक आधार में, गूंथ लिया है। पुरातन देव मोलोच की तरह, इस राक्षसी, सर्द, और अवैयक्तिक मशीन ने नागरिक समाज के सार तत्व व इन्सान को निगल लिया है। किसी भी प्रकार की प्रगति प्रेरित करना तो दूर, राज्य पूँजीवाद चाहे कोई भी विचारधारा एवं कानून व्यवस्था अपना ले, वह शासन के सर्वाधिक बर्बरतापूर्ण औजारों का प्रयोग करता है। सारी धरती को अपने प्रभाव तले रखे हुए, राज्य पूँजीवाद पूँजीवादी समाज के सड़ेगलेपन की एक सर्वाधिक पाशविक अभिव्यक्ति है ।
प्रतिक्रांति
परन्तु पतनशील पूँजीवाद ने स्वयं का अस्तित्व सुनिश्चित बनाने के लिए जो सर्वाधिक प्रभावशाली तरीका विकसित किया है, वह है मज़दूर वर्ग को अतीत से विरासत में मिले संघर्ष और संगठन के उन सभी रूपों को योजनाबद्ध तरीक से अपने में मिला लेना, जिन्हें ऐतिहासिक दौर के बदलाव ने निरर्थक और खतरनाक बना दिया है। ट्रेड यूनियनी, संसदीय तथा गठजोड़ के सभी दावपेंच जो पिछली सदी में मज़दूर वर्ग के लिए उपयोगी भी थे और सार्थक भी, अब उसके संघर्ष को छिन्न-भिन्न करने के तरीके बन गये हैं। वे प्रतिक्रांति के मुख्य हथियार बनते हैं। उसकी सभी हारें ‘‘जीतों’’ के रूप में पेश किये जाने के फल स्वरूप, मज़दूर वर्ग उसको ज्ञात सर्वाधिक भयंकर प्रतिक्रांति में डूब गया था। नि:संदेह, सर्वहारा की लामबंदी और उत्साहभंजन, दोनों के लिए मौलिक अस्त्र धोखे भरी यह मिथ रही है कि इन्कलाब ने रूस में वास्तव में एक ‘समाजवादी राज्य’ को जन्म दिया जो अब सर्वहारा का गढ़ है, जबकि वह रूस की राष्ट्रीयकृत पूँजी के रक्षक के सिवा कुछ भी नहीं। 1917 की अक्तूबर क्रांति ने सारी दुनियाँ के सर्वहारा में बहुत बड़ी आशा को प्रदीप्त किया। बाद में, मज़दूरों को अपने संघर्ष अब तक ‘‘समाजवादी पितृभूमि’’ बन चुके राज्य की बिना शर्त रक्षा के अधीनस्थ करने को कहा गया। पूँजीवादी विचारधारा ने इस ‘‘समाजवादी पितृदेश’’ का मज़दूर विरोधी चरित्र समझने लगे लोगों में यह विचार भरने को अपना काम बनाया कि क्रांति का अंत वैसे ही हो सकता है जैसे रूस में हुआ – यानी एक नये शोषक उत्पीड़क समाज के पुन: प्रकट होने में। 1920 के दशक की अपनी हारों, पर और भी अधिक अपने विभाजनों द्वारा अस्तव्यस्त, मज़दूर वर्ग व्यवस्था के 1930 के दशक के आम संकट का फिर हमले पर जाने के लिए फायदा न उठा सका। वह दो खेमों के द्वन्द्ध में फंस गया : एक तरफ थे वे जो अक्तूबर क्रांति द्वारा चौंधियाये रहे, जो अध:पतन और गद्दारी की प्रक्रिया को उन आरंभिक घटनाओं से अलग नहीं कर सके, जिनका उन्होंने समर्थन किया था। दूसरी तरफ थे वे सब जो क्रांति में पूर्णत: आशा खो चुके थे। स्वयं अपना आक्रमण आरंभ करने में असमर्थ, मज़दूर वर्ग को हाथ-पैर बाँध कर दूसरी साम्राज्यवादी जंग में धकेल दिया गया। पहले विश्वयुद्ध के विपरीत, दूसरे विश्वयुद्ध ने मज़दूर वर्ग को क्रांतिकारी तरीके से उठ खड़ा होने के साधन उपलब्ध नहीं कराये। इसकी बजाय उसे ‘‘प्रतिरोध’’ ‘‘फासीवाद विरोध’’, उपनिवेशी तथा राष्ट्रीय ‘मुक्ति’ आन्दोलनों की महान जीतों के पीछे लामबंद कर दिया।
सर्वहारा की हारों तथा पूँजी द्वारा उसकी लामबंदी के अतिरिक्त, तीसरे इंटरनेशनल की समस्त पार्टियों के पूँजीवादी समाज में संयोजन को सूचित करते सभी मुख्य कदम मज़दूर आन्दोलन को दिये गए जख्म थे।
1920-21 : संसदीय और ट्रेड यूनियन सवालों पर कम्युनिस्ट इन्टरनेशनल का अपने ही वामपक्ष के खिलाफ संघर्ष।
1922-23 : कम्युनिस्ट इंटरनेशनल द्वारा ‘‘संयुक्त मोर्चे’’ और ‘‘मज़दूर सरकार’’ के दाव-पेंचों का अंगीकार, जिसका परिणाम था सैक्सनी तथा थुरंगिया में जर्मन सर्वहारा के सामाजिक जनवादी जल्लादों तथा कम्युनिस्टों के बीच मिलीजुल सरकारें, जबकि सर्वहारा अभी भी गलियों में लड़ रहा था।
1924-26 : ‘‘एक देश में समाजवाद के निर्माण’’ के सिद्धांत की शुरुआत। अर्न्तराष्ट्रीयतावाद को इस तिलांजलि ने कम्युनिस्ट इंटरनेशनल की मौत और उसकी पार्टियों के पूँजीवादी कैम्प में गमन को सूचित किया।
1927 : कम्युनिस्ट इंटरनेशनल द्वारा च्यांग काई शेक को राजनैतिक और सैनिक मदद, जिसने च्यांग के सिपाहियों द्वारा चीनी सर्वहारा और कम्युनिस्टों का कत्लेआम अंजाम दिलाया।
1933 : हिटलर की जीत
1934 : रूस का ‘‘लीग ऑफ नेशनस’’ में प्रवेश, जिसका अर्थ था लीग को गठित करते चोरों द्वारा अपने एक मौसेरे भाई का सम्मान। यह महान ‘‘जीत’’ वास्तव में सर्वहारा की बहुत बड़ी हार का प्रतीक थी।
1936 : ‘‘लोकप्रिय मोर्चों’’ की रचना तथा राष्ट्रीय प्रतिरक्षा की नीति जिसका फल था कम्युनिस्ट पार्टियों का, स्टालिन के समर्थन से, सैनिक कर्जों के पक्ष में वोट देना।
1936-39 : फासीवाद विरोध का धोखा – स्पेन में जनवाद तथा गणतंत्र के फायदे के लिए मज़दूरों का कत्लेआम किया गया।
1939-45 : दूसरा विश्वयुद्ध और ‘प्रतिरोध’ के लिए सर्वहारा की लामबंदी। अपने पुराने तजरुबों से शिक्षित बुर्जुआजी ने, इस युद्ध में पराजित देशों की चप्पा-चप्पा भूमि पर सैनिक जमाव बनाये रखकर सर्वहारा के सारे लड़ाकूपन को शरुआत में ही खत्म कर दिया। 1917-18 की तरह अपने संघर्षों से युद्ध का अंत करने में असमर्थ मज़दूर वर्ग युद्ध से बाहर, युद्ध में जाते वक्त से भी अधिक हारा हुआ निकला।
1945-65 : पुन:निर्माण और ‘‘राष्ट्रीय मुक्ति’’। युद्ध द्वारा नष्ट खंडरों में पड़े विश्व को पुन:निर्मित करने के लिए सर्वहारा का आह्वान किया गया। इसके बदले में मिले उसे चंद टुकड़े। उत्पादन का विकास बुर्जआजी को वे टुकड़े फेंकने की गुंजाइश देता था। पिछड़े देशों में सर्वहारा को राष्ट्रीय पूँजीपतियों द्वारा ‘‘आजादी’’ और ‘‘साम्राज्यवाद विरोध’’ के नाम पर लड़ने के लिए भर्ती किया गया।
वाम कम्युनिस्ट धड़े
वर्ग की इस घोर पराज्य तथा प्रतिक्रांति की पूर्ण जीत के मध्य वामपक्षी कम्युनिस्ट धड़ों ने, जो पतित होती कम्युनिस्ट पार्टिंयों से अलग हो गए थे, क्रांतिकारी सिद्धांतों के संरक्षण का दुष्कर कार्य संभाला। इन धड़ों को पूँजीपतियों के अलग-अलग हिस्सों की साँझी ताकत के खिलाफ लड़ना पडा, पूँजीपतियों द्वारा उनके लिए डाले गये हजारों फंदों से बचना पडा, स्वयं अपने वर्ग में हावी विचारधारा के बोझ का मुकाबला करना पडा, और अपने सदस्यों के अलगाव, शारीरिक उत्पीड़न, पस्तहिम्मती, और उनके खोने, थकने, टूटने और बिखरने का सामना करना पडा।
पुरानी कम्युनिस्ट पार्टिंयों में (जो बाद में दुश्मन कैम्प में चली गईं) जो कुछ कभी अच्छा रहा था, तथा वे पार्टियाँ जिनकी सर्वहारा अगले क्रांतिकारी उभार में रचना करेगा, के बीच पुल बनने की कोशिश करके इन वामपक्षी कम्युनिस्ट धड़ों ने अतिमानवीय प्रयास किया। एक तरफ उन्होंने उन सर्वहारा सिद्धांतों को जिंदा रखने की कोशिश की जिन्हें इंटरनेशरल और उसकी पार्टियों ने सर्वाधिक बोली लगाने वाले को बेच दिया था, और दूसरी तरफ स्वयं को उन सिद्धांतों पर आधारित करके पुरानी हारों को लेखा-जोखा लेने की कोशिश की। यह नये सबक समझने के लिए किया गया जो वर्ग को अपनी भावी लड़ाइयों के सिलसिले मे अपनाने पड़ेंगे। कई सालों तक विभिन्न धड़ों ने, खासकर, जर्मन, डच, और मुख्यत: इतालवी वाम ने, सैद्धांतिक स्पष्टीकरण करने तथा अपने आपको कम्युनिस्ट कहे जा रही पार्टियों की गद्दारी को नंगा करने, दोनों हिसाब से गतिविधि का असाधारण स्तर बनाये रखा।
परन्तु प्रतिक्रांति इतनी अधिक गहरी और चिरकालिक थी कि उसने इन धड़ों के जिंदा बचने की गुंजाइश नहीं छोड़ी। दूसरा विश्वयुद्ध तथा इस युद्ध द्वारा वर्ग संघर्ष का कोई पुन: उभार पैदा ना करने के तथ्य की मार से बुरी तरह प्रभावित, तब तक जीवित बचे आखिरी धड़े या तो धीरे-धीरे लुप्त हो गए या फिर भ्रष्टीकरण, अध:पतन और पथराने की प्रक्रिया का शिकार हो गए। इसके साथ ही, सदी से अधिक समय में पहली बार, वह जीवंत कड़ी टूट गई जो सर्वहारा के विभिन्न राजनीतिक संगठनों, जैसे कम्युनिस्ट लीग, पहला, दूसरा और तीसरा इंटरनेशनल और इससे पैदा धड़ों, को दिक्काल में जोड़ती रही थी।
पूँजीपति वर्ग ने फिलहाल के लिए वर्ग की प्रत्येक राजनीतिक अभिव्यक्ति का मुंह बन्द करने, क्रांति को धूलधुसरित पुरावशेष, बीते युगों का अवशेष, पिछड़े देशों के लिए आरक्षित एक अजूबा खासियत के रूप मे पेश करने, और मज़दूरों की निगाहों में क्रांति के असली अर्थ को पूर्णत: झुठलाने का अपना ध्येय प्राप्त कर लिया था।
पूँजीवादी संकट
पिछले दशक से यह परिद़ृश्य बुनियादी रूप से बदल गया है। पूँजीवाद का युद्धोत्तर पुन:निर्माण समाप्त होते ही इस पुन:निर्माण के साथ-साथ चलती आर्थिक ‘‘खुशहाली’’ का भी अंत हो गया। न सिर्फ पूँजीवाद के पुजारियों ने, बल्कि उसके दुश्मन होने का दम भरनेवालों ने भी ऐसी खुशहाली को शाश्वत जैसी पेश किया था। दो दशक के तेज विकास के बाद, 1960 के दशक के मध्य के आरंभ से पूँजीवादी व्यवस्था ने अपने आपको पिर उस दु:स्वप्न, संकट, के सामने पाया, जिसे अपने ख्याल से उसने ग्रोज चित्रों की युद्ध-पूर्व दुनियाँ के लिए निर्वासित कर दिया था। तब से संकट निरंतर गहराता गया है। यह मार्क्सवादी सिद्धांत की आश्चर्यजनक पुष्टि है। वही सिद्धांत जिसके पुरातन, निरर्थक, और दिवालिया होने का अनवरत दावा पूँजीपतियों से जुड़े किस्म-किस्म के झूठे करते रहे थे (‘‘नवीनता’’ के खोजी यूनिवर्सिटी टीचर, नकली क्रांतिकारी प्रोफेसर, नोबल पुरस्कार विजेता, शिक्षाविद, एक्सपर्ट, प्रकांड पंडित, इसके अतिरिक्त सब तरह के संशयवादी और विक्षुब्ध)।
सर्वहारा का पुन: उभार
आर्थिक अव्यवस्था के गहराने से, समाज एक बार फिर अपने आपको पतनशील पूँजीवाद के प्रत्येक उग्र संकट द्वारा प्रस्तुत अवश्यंभावी विकल्प, विश्वयुद्ध अथवा सर्वहारा इन्कलाब, के समक्ष पा रहा है [2]। लेकिन आज का परिदृश्य 1930 के दशक की महान आर्थिक तबाही द्वारा उत्पन्न परिदृश्य से मूलत: भिन्न है। उस वक्त पराजित सर्वहारा में व्यवस्था की नई नाकामयाबी का फायदा उठा, अपने हमले शुरू करने की शक्ति नहीं थी। इसके विपरीत, उस संकट का फल था मज़दूर वर्ग की हार को और भी बदतर बनाना। लेकिन आज सर्वहारा की स्थिति उसकी 1930 के दशक की स्थिति से भिन्न है। एक तरफ तो पूँजीवादी विचारधारा के सभी आधार स्तंभों की तरह, अतीत में सर्वहारा की चेतना को दबाते भ्रम जाल एक हद तक आंशिक रूप से धीरे-धीरे कमजोर पड़ गये हैं। पिछली आधी सदी में राष्ट्रवाद, जनवादी भ्रम, फासीवाद विरोध, सब जमकर प्रयोग किये गये लेकिन अब उनका वह पहले वाला असर नहीं रहा। दूसरी तरफ, मज़दूरों की नई पीढियों ने अपने पूर्वजो की हारों को नहीं झेला है। आज संकट का सामना कर रहे मज़दूरों को, अगर वह तजरुबा नहीं है जो पुरानी पीढियों को था, तो वे अब वैसी पस्त हिम्मती से पिसे हुए भी नहीं हैं।
1968-69 से मज़दूर वर्ग ने संकट के पहले चिह्नों के खिलाफ जो सख्त विरोध दिखाया है, उसका अर्थ है कि आज पूँजीपति वर्ग अपनी ओर से इस संकट का जो एकमात्र हल, एक नया विश्व विध्वंस, खोज सकता था वह उसे थोपने की स्थिति में नहीं है। यह करने से पहले उसे मज़दूर वर्ग को पराजित करना होगा। इसलिए, अब परिदृश्य साम्राज्यवादी जंग नहीं बल्कि आम वर्गयुद्ध है। अगर पूँजीपति वर्ग साम्राज्यवादी जंग की अपनी तैयारियाँ जारी भी रखे है, तो भी यह वर्ग युद्ध ही है जो अधिकाधिक उसकी मुख्य चिंता बनता जा रहा है। हथियारों की बिक्री, जो पूँजीवाद का एक मात्र संकट मुक्त सेक्टर है, में हैरानकुन बढ़ोतरी फिलहाल पूँजीवादी राज्य की ओर से दमन की तैयारियों में लायी गयी आम और व्यवस्थित तेजी को तथा ‘‘तोड़फोड़’’ के खिलाफ संघर्ष को छिपाती है। परन्तु, पूँजी वर्ग मुठभेड़ों के लिए तैयारी उतना इन आखिरी तरीकों से नहीं करती जितना सर्वहारा को काबू में रखने तथा उसके संघर्षों को विपथ करने के जुगाड़ों के एक पूरे सिलसिले को तैयार करके कर रही है। इस प्रकार, मज़दूरों के लड़ाकूपन के अकुंद उभार के खिलाफ पूँजीपति वर्ग सीधे-सादे और खुले दमन के उपाय अपनाने में उत्तरोत्तर कम समर्थ है। इसमें मज़दूर संघर्षों को बुझाने के बजाय उन्हें एकताबद्ध करने का खतरा रहता है।
पूंजीपति वर्ग के हथियार
मज़दूर संघर्षों के सिलसिलेवार दमन का काम अपने हाथ में लेने से पहले, अतीत की तरह, पूँजीपति वर्ग शुरूआत मज़दूर वर्ग को पस्त हिम्मत करने के प्रयास से करेगा, उसके संघर्षों को पटरी से उतार कर ताकि उन्हें अंधी गली में डाला जा सके। ऐसा करने के लिए, पूँजीपति वर्ग सर्वोपरि तीन मौलिक भ्रमजालों का उपयोग करेगा। प्रत्येक का काम है मज़दूर वर्ग को ‘‘अपनी’’ राष्ट्रीय पूँजी और ‘‘अपने राज्य’’ से नत्थी करना। वे हैं फासीवाद विरोध, सेल्फ-मेनेजमेन्ट और राष्ट्रीय आजादी।
ऐतिहासिक हालात आज तीसरे दशक से भिन्न हैं। चूंकि आज फासीवाद के हिटलर तथा मुसोलिनी जैसे कोई तात्कालिक उदाहरण विधमान नही हैं, और चूंकि फासीवाद विरोधी पूँजीपति वर्ग के सामने आज 1930 के दशक की तरह फौरन साम्राज्यवादी युद्ध का मार्ग प्रशस्त करने का काम नहीं है, इसलिए फासीवाद विरोध का अर्थ अतीत की तुलना में अधिक व्यापक होगा। पूर्व और पश्चिम में, पूँजी के “वामपंथी’’, ‘‘प्रगतिशील’’, ‘‘जनवादी’’ और लिबरल गुट सर्वहारा संघर्षों पर हमला जनवादी “उपलब्धियों” को रंग-बिरंगे ख़तरों से बचाने के नाम पर करेंगे - ‘‘प्रतिक्रियावादी”, ”सर्वाधिकारवादी”, “दमनात्मक”, “फासीवादी” अथवा “स्टालीनवादी” खतरे। हर बार, अपने हितों की रक्षा के लिए संघर्ष शुरू करने पर, मज़दूरों को अधिकाधिक यह सुनने की उलझनभरी स्थिति का सामना करना पडेगा कि वे ‘‘प्रतिक्रिया’’ और ‘‘प्रतिक्रांति’’ के बदतरीन दलाल हैं [3]।
सेल्फ-मेनेजमेन्ट की मिथ भी पूँजीवाद के वामपक्ष द्वारा मज़दूरों के खिलाफ प्रस्तुत एक चुनिंदा हथियार होगी। उसे संकट द्वारा अपने साथ लायी गयी दिवालियेपन की बाढ़ से, और पूरे समाज पर राज्य की नौकरशाही जकड़ के प्रति स्वाभाविक प्रतिक्रिया के रूप में ज़मीन हासिल होगी। मज़दूरों को उस मोहिनीगान को ठोकर मारनी होगी जिसे सभी पूँजीपति अर्थव्यवस्था के ‘‘जनवादीकरण’’, मालिकों के ‘हस्तगतकरण’ या उत्पादन के ‘कम्युनिस्ट’ अथवा अधिक ‘‘मानवीय’’ सम्बन्धों की स्थापना के नाम पर गायेंगे। वास्तव में ये मज़दूरों को अपने शोषण में भाग लेने के लिए राजी करने, उन्हें कम्पनियों, अथवा रिहाईश मुहल्लों के आधार पर बाँट उनके एकीकरण को रोकने की कोशिशें हैं।
अन्त में, पूँजीपतियों द्वारा ‘‘राष्ट्रीय प्रतिरक्षा’’ नामक कटु स्मृति के आधुनिक अनुवाद, राष्ट्रीय स्वतंत्रता, का व्यापक रूप से प्रयोग किया जायेगा, खासकर सर्वाधिक कमजोर देशों में, जहाँ इसमें कोई खास तुक भी नहीं है। इस भ्रमजाल का प्रयोग इस या उस साम्राज्यवाद के खिलाफ वर्गों की एकता के आह्वान के ध्येय से किया जायेगा, ताकि संकट और उसके साथ ही बढ़े हुए शोषण की जिम्मेदारी किसी अन्य देश की ‘‘विस्तारवादी नीतियों’’, “बहुराष्ट्रीय कंपनियों”, अथवा अन्य ‘‘राज्यविहीन’’ पूँजीवादों पर डाली जा सके।
पूँजी हर जगह मज़दूरों को इन में से एक या दूसरे भ्रम के या एक साथ सभी के नाम पर संकट का हल होने की प्रतीक्षा करने और इस दौरन अपनी मांगें छोड़ने और बलिदान देने की अपील करेगी। अतीत की तरह ही, वामपंथी तथा मज़दूर पार्टियाँ इस घृणित काम में कुख्याति पायेंगी। अपने पक्ष में वे हर किस्म के वामपंथी ग्रुपों के ‘‘आलोचनात्मक समर्थन’’ का भरोसा कर सकती हैं, जो उन्हीं झूठों और भ्रमजालों को अधिक उग्र भाषा में प्रस्तुत करते हैं और जो अधिक उग्र तरीकों की हिमायत करते हैं। सत्तावन वर्ष पूर्व, कम्युनिस्ट इंटरनेशनल के घोषणापत्र ने मज़दूर वर्ग को पहले ही इन खतरों के खिलाफ सजग किया था:
‘‘वे अवसरवादी जिन्होंने प्रथम विश्वयुद्ध से पहले मज़दूरों को समाजवाद की ओर क्रमिक संक्रमण के हित में संयित रहने की हिदायत दी और जिन्होंने युद्ध के दौरान नागरिक शांति तथा राष्ट्रीय प्रतिरक्षा के नाम पर वर्ग-ताबेदारी की माँग की, वे आज फिर सर्वहारा से बलि का बकरा बनने को कह रहे हैं। इस बार युद्ध के भयंकर परिणामों पर काबू पाने के ध्येय से। अगर ये उपदेश मज़दूर जनता में स्वीकृति पा जाते हैं, तो पूँजीवादी विकास नये, अधिक संकेंद्रित और राक्षसी रूपों में अनेकों पीढियों की अस्थियों पर पुनः स्थापित हो जायेगा – एक नये अवश्यंभावी विश्वयुद्ध के परिद़ृश्य के साथ।’’
इतिहास ने एक अभूतपूर्व ट्रेजडी में दिखा दिया है कि 1919 में क्रांतिकारियों द्वारा पूँजीवादी झूठों का पर्दाफाश कितना अक्लमंदी भरा था।
आज, जब पूँजीपति वर्ग अपने घातक राजनीतिक शास्त्रागार को फिर भाँज रहा है जिसने अतीत में उसे सर्वहारा को नियन्त्रण में रखने और उसे पराजित करने का अवसर दिया, इन्टरनेशनल कम्युनिस्ट करंट दिलोजान से कम्युनिस्ट इन्टरनेशनल के शब्दों पर दावा करता है, और एक बार फिर उन्हें अपने वर्ग को सम्बोधित करता है, ‘‘मज़दूरों, साम्राज्यवादी जंग को याद रखो!’’ कम्युनिस्ट इन्टरनेशनल ने कहा। आज के मज़दूरों, पिछली आधी सदी की बर्बरता को याद रखो और सोचो कि अगर एक बार फिर तुमने बुर्जुआजी और उसके पिछलग्गुओं के विमोहक शब्दों को जोरदार तरीके से नहीं ठुकराया तो मानवजाति का भविष्य क्या होगा।
सर्वहारा के संघर्ष और चेतना का विकास
अगर पूँजीपति वर्ग अपने हथियारों को क्रमबद्ध तरीके से तैयार कर रहा है, तो अपनी ओर से सर्वहारा भी वैसा निरीह शिकार नहीं है जैसा पूँजी अपने मुकाबले में चाहेगी। कुछ प्रतिकूल पहलुओं के बावजूद, जिन हालातों में सर्वहारा ने अपना संघर्ष पुन: आरंभ किया है वे बुनियादी रूप से उसके अनुकूल हैं। इस प्रकार इतिहास में पहली बार, मज़दूर वर्ग का क्रांतिकारी आन्दोलन युद्ध के अन्त में नहीं, बल्कि समूची व्यवस्था के आर्थिक संकट के साथ-साथ चल रहा है। निस्संदेह, युद्ध सर्वहारा को तेजी से राजनीतिक स्तर पर संघर्ष की जरूरत समझाने की खूबी रखता था और वह (पूँजीपतियों के अलावा) एक बहुत बड़े गैर-सर्वहारा तबके को सर्वहारा के पीछे ले आया। परन्तु वह सिर्फ उन्हीं देशों के मज़दूरों की चेतना के विकास में एक शक्तिशाली कारक बना जो युद्ध के मैदान में बदल दिये गये थे, खासकर पराजित देशों के मज़दूरों के लिए। आज विकसित होता संकट विश्व के किसी भी देश को नहीं बख्श रहा है। पूँजीपति वर्ग जितना ही उसकी गति को धीमा करने की कोशिश करता है, उतने ही उसके प्रभाव फैलते जाते हैं। परिणामस्वरूप, वर्ग संघर्ष के विकास का आज जैसा विस्तार कभी नहीं रहा। इसकी गति निश्चित ही धीमी तथा अनियमित है पर उसके प्रसार ने हार के उन पैगंंबरों को भौंचका कर दिया है जो विश्व स्तर के सर्वहारा क्रांतिकारी आन्दोलन के कथित ‘‘काल्पनिक’’ चरित्र पर निरन्तर भाषण देते रहते हैं।
क्योंकि सर्वहारा आज बहुत भारी कार्यभारों का सामना कर रहा है जिन्हें सिर्फ वही पूरे कर सकता है और चूंकि उसके आन्दोलन का अनियमित चरित्र उस द्वारा संघर्ष की अपनी अधिकतर परंपरायें और अपने समस्त वर्ग संगठन खो देने का परिणाम है, इसलिए सर्वहारा को संघर्ष की अपनी परम्पराओं और अपने वर्ग संगठनों को व्यवस्थिति रूप से विकसित करने के लिए अपने ऊपर बरस रहे संकट, जो वर्ग प्रतिक्रिया की ताल को प्रभावित करता है, के धीमे विकास का फायदा उठाना होगा। अपनी उत्तरोत्तर आर्थिक लड़ाइयों के जरिये सर्वहारा एक बार फिर अपने संघर्ष के राजनीतिक चरित्र के प्रति सचेत हो जायेगा। अपने आंशिक संघर्षों को बढ़ाकर वह आम मुठभेड़ के लिए औज़र घढ़ेगा। इन संघर्षों के सामने पूँजी की बद्हवासी बढ़ जायेगी और वह मज़दूरों से ‘संयम और बलिदान’ की माँग करने के लिए इस वास्तविक तथ्य का प्रयोग करेगी कि वह कुछ भी प्रदान नहीं कर सकती। परन्तु मज़दूरों को यह समझना होगा कि ये संघर्ष आर्थिक स्तर पर अगर असफल भी रहते हैं और सही अर्थ में हारें हैं, फिर भी, वे निर्णायक जीत की शर्त हैं। क्योंकि उनमें से प्रत्येक सर्वहारा द्वारा व्यवस्था के पूर्ण दिवालियापन और उसे नष्ट करने की जरूरत को समझने में एक कदम का प्रतिनिधित्व करता है। ‘‘यर्थातवाद’’ और ‘‘समझदारी’’ के समस्त उपदेशकों के खिलाफ, मज़दूर यह सीखेंगे कि किसी संघर्ष की असली जीत उसके फौरी नतीजों में नहीं, जो सकारात्मक होने पर भी गहराते संकट से खतरे में रहते हैं, बल्कि सच्ची जीत है खुद संघर्ष में और संघर्ष द्वारा विकसित संगठन, एकता और चेतना में।
उन संघर्षों के विपरीत जो दो विश्वयुद्धों के बीच के महान संकट के दौरान हुए और जिनकी अवश्यंभावी हार से सिर्फ और अधिक पस्तहिम्मती तथा गिरावट पैदा हुई, वर्तमान संघर्ष अंतिम जीत की राह पर इतने सारे प्रकाशस्तम्भ हैं। आंशिक हारों द्वारा पैदा तात्कालिक निराशा गुस्से के, संकल्प के और चेतना के अंगारों में बदल जायेंगी जो आने वाले संघर्षों को उर्वर बनायेंगे।
संकट जैसे-जैसे और गंभीर होता है वह मज़दूरों से वे तुच्छ सुविधायें भी छीन लेगा जो पुन:निर्माण के दौर ने प्रतिदिन अधिकाधिक व्यवस्थित और वैज्ञानिक होते गये शोषण के बदले में उन्हें दी थी। संकट जैसे-जैसे विकसित होता है, वह बेरोजगारी के जरिये अथवा वास्तविक मज़दूरी में भारी गिरावट के जरिये मज़दूरों की निरन्तर बढ़ती तादाद को बढ़ती कंगाली में धंसाता जाता है। अपने द्वारा पैदा दु:खदर्द के जरिये संकट उन पैदावरी सम्बन्धों के बर्बर चरित्र को स्पष्ट करता है जिनमें समाज कैद है। पूँजीपति और निम्न पूँजीपति वर्गों के विपरीत, जो संकट में सिर्फ विपति को देखते है और बदहवासी भरे रोने से उसका स्वागत करते है, मज़दूरों को उत्साह से संकट का स्वागत करना होगा तथा उसे पुर्नजीवित करते उस प्राण के रूप में देखना होगा जो उसे पुरानी दुनियाँ से बाँधते बन्धनों का सफाया कर देगा, और इस तरह उनकी मुक्ति के हालात तैयार करेगा।
क्रांतिकारी संगठन
वर्ग द्वारा चलाया जा रहा संघर्ष कितना भी प्रचंड क्यों न हो, उसकी मुक्ति तभी हो सकती है अगर सर्वहारा अपने आपको अपना वह सर्वाधिक मूल्यवान हथियार, क्रांतिकारी पार्टी, मुहैया करवाने में कामयाब होता है , एक हथियार जिसकी कमी उसे अतीत में बहुत मंहगी पड़ी थी।
व्यवस्था में उसका स्थान ही सर्वहारा को क्रांतिकारी वर्ग बनाता है। इस हिसाब से, उसकी गतिविधि के अपरिहार्य हालात, व्यवस्था की पतनशीलता और उसके विकट संकट द्वारा पैदा किये जाते हैं। समुचा ऐतिहासिक तजरुबा सिखाता है कि यह अपने आप में काफी नहीं है। अगर सर्वहारा अपने आपको चेतना के एक समुचित स्तर तक नहीं उठाता और उस औजार की, अपने कम्युनिस्ट अगुआ दस्ते की, रचना नहीं करता, जो एक साथ संघर्ष की पैदाइश भी है और उसमें एक सक्रिय कारक भी, तो वह अपने आपको पूँजीवाद से मुक्त करवाने में सफल नहीं होगा। परन्तु यह अगुआ दस्ता वर्ग संघर्ष की यांत्रिक उपज नहीं है। अगर वर्ग के वर्तमान और भावी संघर्ष उस अगुआ दस्ते के विकास के लिए अपरिहार्य आधार मुहैया भी करते हों, वह सिर्फ तभी बन सकता है और अपने कार्य पूरे कर सकता है अगर क्रांतिकारी अपनी जिम्मेदारियों के प्रति स्वयं पूर्णत: सजग हो जाते हैं और अपने आपको उन जिम्मेदारियों पर पूरे उतरने के निश्चय से लैस कर लेते हैं। खास कर आज के क्रांतिकारियों द्वारा सैद्धांतिक चिन्तन, पूँजीवादी झूठों की व्यवस्थित धज्जियाँ उड़ाने तथा अपने वर्ग के संघर्षों में हस्तक्षेप के अपरिहार्य कार्यभार तभी पूरे किये जा सकते हैं अगर वे ऐतिहासिक और भौगोलिक, दोनों रूप से उन्हें आपस में जोड़ते राजनीतिक सम्बन्धों को पुन:स्थापित करते हैं। वह उनकी सरगर्मी की बुनियादी शर्त हैं। दूसरे शब्दों में, जिस काम के लिए वर्ग ने उन्हें पैदा किया है उसे अन्जाम देने के लिए क्रांतिकारियों को वर्ग और कम्युनिस्ट धाराओं, दोनों के विगत संघर्षों के तजरुबों और उपलब्धियों को अपनाना होगा, उसी प्रकार उन्हें अपनी शक्तियों को खुद वर्ग के पैमाने – विश्व पैमाने – पर पुन: गठित करना होगा।
परन्तु इन दोनों दिशाओं में उनके प्रयास पुरानी कम्युनिस्ट धाराओं के साथ जीवंत निरंतरता के पूर्ण भंजन से अभी भी बहुत बाधाग्रस्त है। इन धाराओं से, जिन्होंने वर्ग के विगत के सारे अनुभव के मुख्य सबकों को इकटठा किया और उनकी व्याख्या की, राजनीतिक रूप से अपरिहार्य निरन्तरता की पुन:स्थापना वर्ग द्वारा फिर से पैदा कम्युनिस्ट धाराओं द्वारा पिछड़ी और रूकी हुई है। इन धाराओं को दो बातें समझने में खास परेशानी रही है, वर्ग में उनका विशिष्ट कार्य और सर्वोपरि संगठन का सवाल, जिसमें उन्हें खुद व्यवहारत: कोई तजरुबा नहीं इसके अलावा निम्न-पूँजीपति वर्ग के विघटन और फिर सर्वहाराकरण ने, जो पतनशीलता और संकट से और तेज तथा उग्र हो गया है, इन मुश्किलों को और बढ़ा दिया है। (निम्न-पूँजीपति वर्ग शुरू से ही मज़दूर आन्दोलन पर एक बेड़ी रहा है।) खास करके, बौद्धिक निम्न-पूँजीपति वर्ग के संकट की विशिष्ठ अभिव्यक्ति, छात्र आन्दोलन, जो उस समय अपने पूरे जोर पर था जब मज़दूर वर्ग फिर संघर्ष की राह पा रहा था, के कचरे ने क्रांतिकारी संगठनों की चेतना को अवरुद्ध किया है। नयेपन के, भिन्न होने के, चुटीले मुहावरे के, व्यक्ति के, डी-ऐलीनेशन के और तमाशे के पंथ, जो पेटी बुर्जुआजी की इस किस्म की विशेषता हैं, वर्ग द्वारा अपने पुन: उभार के समय से पैदा बहुतेरे ग्रुपों को अजूबे संकीर्ण मतों में रूपांतरित करने में बहुधा सफल हुए हैं जिनकी गतिविधि तुच्छ सवालों और व्यक्तिगत लालसाओं के गिर्द के केन्द्रित होती है। सकारात्मक कारकों से, तब ये ग्रुप उस प्रक्रिया में रूकावट बन गये जिसके जरिये सर्वहारा में चेतना विकसित होती है। अगर वे, मनगढ़ंत अथवा गौण मतभेदों के आधार पर, क्रांतिकारी ताकतों के पुन: गठन के काम के रास्ते में आने पर अड़े रहते हैं, तो सर्वहारा आन्दोलन उन्हें बेरहमी से खत्म कर देगा।
इन्टरनेशनल कम्युनिस्ट करंट ने अपने आपको अपने फिलहाल सीमित साधनों से, क्रांतिकारियां को एक स्पष्ट और सुसंगत प्रोग्राम के गिर्द अर्न्तराष्ट्रीय रूप से पुन:गठित करने के लम्बे और मुश्किल काम से प्रतिबद्ध कर लिया है। पंथों के एकाशमवाद पर पीठ फेर कर, वह सभी देशों के कम्युनिस्टों को अपने उत्तरदायित्वों के प्रति सजग होने तथा पुरानी दुनियां द्वारा उन पर थोपे भ्रमिक बॅंटवारों पर पार पाने का आह्वान करता है। आईसीसी उनका आह्वान करता है कि वर्ग द्वारा निर्णायक संघर्षों में लगने से पहले वे उसके हरावल का अन्तर्राष्ट्रीय और एकीकृत संगठन बनाने के इस प्रयास में शामिल हों।
वर्ग के सर्वाधिक सचेत हिस्सों के रूप में कम्युनिस्टों को ‘‘दुनियाँ के क्रांतिकारियों, एक हो!’’ को अपना नारा बना कर वर्ग को रास्ता दिखाना होगा ।
दुनियाँ के मज़दूरों, एक हो !
जिन संघर्षों में तुम अब लगे हुए हो, वे मानव इतिहास में सर्वाधिक महत्वपूर्ण हैं। उनकी गैरहाजिरी में, मानवजाति का तीसरे साम्राज्यवादी महाविध्वंश में से गुजरना बदा है – जिसके भयंकर परिणामों की हम कल्पना ही कर सकते है। मानवजाति के लिए ऐसी जंग का अर्थ है कई सदियों यहाँ तक कि कई हजार सालों का प्रतिगमन, एक ऐसी अधोगति जो समाजवाद की कोई आशा बाकी नहीं छोड़ती और जिसका मतलब शायद मानवजाति का सीधा-साफ विनाश ही निकले। कभी कोई वर्ग ऐसी जिम्मेदारियों और ऐसी आशा का वाहक नहीं रहा। तुम्हारे द्वारा पहले ही अतीत के संघर्षों में दी गई भारी कुरबानियाँ तथा शायद और भी भारी वे कुरबानियाँ जो बुरी तरह फॅंसा हुआ बुर्जुआजी तुम्हारे ऊपर लादेगा, व्यर्थ नहीं जायेंगी।
मानवजाति के लिए तुम्हारी जीत का अर्थ होगा उसे प्रकृति और अर्थव्यवस्था के अंधे नियमों से बाँधती जंजीरों से निश्चित आजादी। वह मानवजाति के प्रागितिहास के अंत और उसके असली इतिहास के आरंभ का सूचक होगी और वह आवश्यकता के राज के खंडरों पर आजादी के राज की स्थापना करेगी।
मज़दूरों! अपनी ताक में बैठी विशाल लड़ाईयों के लिए, पूँजीवादी दुनियाँ के खिलाफ आखिरी हमले की तैयारी के लिए, शोषण के खात्मे के लिए, कम्युनिज्म के लिए फिर अपने वर्ग के पुराने रणनाद :
दुनियाँ के मज़दूरों, एक हो !
को अपना रणनाद बनाओ ।
[1] यह पैरा प्रतिक्रांति की आधी सदी के बाद 1960 के दशक के अन्त में विश्व सर्वहारा के पुनरजागरण का जिक्र कर रहा है। उस वक्त के मज़दूर संघर्षों का वर्णन वर्ग संघर्ष की मौज़ूदा स्थिति से बहुत दूर की चीज़ लगता है। 1980 के दशक के अंत में तथाकथित ‘समाजवादी’ देशों का ढहन मज़दूर वर्ग के जुझारूपन तथा उसकी चेतना में गहन उतार की ओर ले गया। इस उतार का बोझ आज भी उन मुश्किलों में महसूस किया जा सकता है जो सर्वहारा को अपना वर्ग संघर्ष विकसित करने तथा क्रांतिकारी परिदृश्य की ओर का रास्ता खोजने मे दरपेश हैं, एक परिदृश्य जो ‘साम्यवाद की मौत’ के पूँजीपति वर्ग के विशाल अभियानों द्वारा मिटा दिया गया है। तो भी, विश्व सर्वहारा का यह पीछे हटना 1960 के दशक के अंत के संघर्षों की पहली लहर द्वारा खोली वर्ग मुठभेडों की ओर की ऐतिहासिक दिशा पर सवालिया निशान नहीं लगाता। आज वर्ग संघर्ष के उभार की धीमी गति के बावजूद, भविष्य अभी भी सर्वहारा के हाथ में है। चूँकि वर्ग संघर्ष पूँजीपति वर्ग के लिए एक स्थायी दुःस्वप्न है, इस लिए वह सर्वहारा दैत्य को सामाजिक मंच पर आने से रोकने के लिए अति परिष्कृत विचारधारक अभियान चलाने तथा तिकडमें रचने को मज़बूर है।
[2] यालटा संधियों से निकले दो साम्राज्यवादी गुटों के लोप के साथ तीसरे विश्वयुद्ध का खतरा फिलहाल टल गया है। इस लिए, जबकि सेन्यवाद तथा युद्ध अभी भी पतनशील पूँजीवाद के जीवन को चरितार्थ करते हैं, छोटे-बडे सभी राज़्यों की साम्राज्यवादी नीतियाँ आराजकता तथा “हर कोई अपने लिए” द्वारा प्रभावित एक विश्व परिस्थिति में अपनाई जा रही हैं। चूँकि तीसरे विश्वयुद्ध के लिए केन्द्रीय देशों के सर्वहारा की लामबन्दी अभी ऐजण्डे पर नहीं है, लिहाजा आज ऐतिहासिक विक्ल्प है: सर्वहारा इंकलाब अथवा एक समन्यीकृत बर्बरता तथा आरजकता में मानवजाति का पतन।
[3] भले ही कुछ केन्द्रीय देशों, जैसे कि फ्रांस, ऑस्ट्रिया तथा बेल्जियम में हम अति दक्षिणपंथी गुटों का उभार देखते हैं, इस परिघटना की तुलना 1920 और 1930 के दशक की उस स्थिति से नहीं की जा सकती जिसने फासीवाद तथा नजीवाद का सत्ता में आगमन संभव बनाया था। आज अति दक्षिणपंथी पर्टियों का पुनः उभार बुनियादी रूप से पूँजीवाद के सडन की, ‘“हर कोई अपने लिए” की प्रवृति की अभिव्यक्ति है जो पूँजीपति वर्ग के राजनीतिक ढांचे को खोखला कर रही है। और यह सर्वहारा की किसी ऐतिहासिक हार का फल नहीं जैसे कि 1917-1923 की क्रांतिकारी लहर के कुचले जाने के बाद हुआ। फिर, मौजूदा फासीवाद विरोधी अभियान उन अभियानों के स्तर के नहीं हैं जिनका प्रयोग करके सर्वहारा जनसमूहों को जनवाद के झंडों के पीछे लामबन्द किया गया था और जिन्होंने मज़दूर वर्ग को दूसरे विश्वयुद्ध में झोंकना संभव बनाया था।