आईसीसी की पान एशियन कांफ्रेंस

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फरबरी 2010 के मध्य आईसीसी ने अपने एशियन सेक्शनों की एक कांफ्रेंस आयोजित की। कांफ्रेंस में फिलिपीन्स, टर्की तथा भारत में आईसीसी के सेक्शनों ने हिस्सा लिया। हमें आस्ट्रेलिया के एक इन्टरनेशनलिस्ट ग्रुप के प्रतिनिधि तथा भारतीय सेक्शन के कई हमदर्दों का स्वागत करके खुशी हुई। आईसीसी की पिछली कांग्रेस में शामिल कोरिया के दो अंतरराष्ट्रीयतावादी ग्रुपों को कांफ्रेंस में आमंत्रित किया गया था पर आखिरी मौके पे वे नहीं आ पाए। इन साथियों ने पान एशियन कांफ्रेंस को एकजुटता एवं शुभकामना संदेश भेजे। साथ ही उन्होंने कांफ्रेंस के लिये कोरिया में वर्ग संघर्ष पर एक लिखित रिपोर्ट भी भेजी।

पान एशियन कांफ्रेंस का लक्ष्य था आईसीसी की 18वीं कांग्रेस के कार्य को जारी रखना और दुनिया में उभरते अंतरराष्ट्रीयतावादी तबके के विकास में भाग लेना। आईसीसी की 18वीं कांग्रेस की मुख्य चिंता - अंतरराष्ट्रीयतावादियों में सहयोग बढाना -  इस कांफ्रेंस की भी मुख्य चिंता बनी।

कांफ्रेंस एक शोकाकुल संदेश के साथ प्रारम्भ हुई। उसे दो दिन पहले हुई अमेरिकन सेक्शन के कामरेड जैरी के निधन की जानकारी मिली। कांफ्रेंस ने कामरेड जैरी को, जो अमेरिका में हमारे सेक्शन का एक स्तंभ और बरसों से आईसीसी का जुझारु था, श्रध्दांजलि अर्पित की। उसने  साथी के परिवार और अमेरिकन सेक्शन के प्रति एकजुटता प्रकट की।

पान एशियन कांफ्रेंस में पेश रपटें   

पान एशियन कांफ्रेंस के दौरान विभिन्न राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय मसलों पर रपटें प्रस्तुत का गयीं - अंतरराष्ट्रीय आर्थिक संकट, एशिया में साम्राज्यवादी प्रतिद्वन्दता, अंतरराष्ट्रीय वर्ग संघर्ष, आईसीसी तथा सेक्शनों की जीवनधारा जिसमें बहस की संस्कृति तथा सिद्धान्त के प्रति अभिरुचि का सवाल भी शामिल था। साथ ही भारत तथा फिलिपीन्स की राष्ट्रीय स्थिति एवं वर्ग संघर्ष और एशिया के विभिन्न सेक्शनों की गतिविधियों पर रिपोर्टें पेश की गयीं।

तीन दिनों के दरम्यान कांफ्रेंस ने इन सभी रिपोर्टों तथा उनसे पैदा हुये प्रश्नों पर भाव पूर्णता से चर्चा की। किन्तु फिर भी हम एजेंडा के सभी प्रश्नों पर समुचित गहराई एवं स्पष्टता से चर्चा नहीं कर पाये। हम यहां कांफ्रेंस में हुयी तमाम चर्चाओं पर रिपोर्ट प्रस्तुत नही करेंगे किन्तु कुछ,  अधिक भावपूर्ण अथवा अधिक महत्वपूर्ण, चर्चाओं को ही लेंगे।     

एशिया में साम्राज्यवादी प्रतिद्वन्दता 

इस प्रश्न पर संपूर्ण रिपोर्ट हमारी वैब साइट पर देखें 1। यह रिपोर्ट और इस पर चर्चा साम्राज्यवादी तनावों पर आईसीसी की 18 वीं कांग्रेस में पेश रिपोर्ट के ढांचे में समाहित थी 2।

कांफ्रेंस के दौरान मुख्य बहसों का केन्द्र था - अमेरिका का कमजोर होना तथा चीन का एक अंतरराष्ट्रीय शक्ति के रुप में उभरना और इसका एशिया में साम्राज्यवादी गठजोडों एवं तनावों पर प्रभाव।

कांफ्रेंस को इसमें  कोई संदेह नहीं था कि कमजोर होने के बावजूद अमेरिका विश्व की नम्बर एक ताकत है और इस समय चीन अमेरिका से खुल्लमखुल्ल भिडने की न तो क्षमता और न इच्छा शक्ति रखता है। चीन के उभार की गति और उस द्वारा अमेरिका को चुनौती देने या ना देने की आसन्नता पर चर्चा की गयीं।

एशिया में बढते सैन्यीकरण पर महत्वपूर्ण चर्चा की गयी। एशिया अब विश्व में हथियारों का मुख्य बाजार बन गया है। जब कि चीन इस मद में खर्च करने वालों में पहले नंबर पर है, उसके पीछे-पीछे अन्य देश हैं भारत, सऊदी अरब, जापान तथा आस्ट्रेलिया। चीन और भारत द्वारा सैन्यीकरण के पीछे है उनका बदलता आर्थिक स्वरुप तथा बढती हुयी साम्राज्यवादी महत्वाकांक्षायें। जापान, दक्षिण कोरिया तथा आस्ट्रेलिया के सैन्यीकरण के पीछे एक कारण है अमेरिका का पतन और चीन के उभार से उत्पन्न खतरे की उनकी धारणा।

बहस ने रेखांकित किया कि अमेरिका का पूरा ध्यान अब अफ-पाक युद्ध पर केन्द्रित है। जबकि वह अफगानिस्तान को स्थिर बनाना चाहता है, यह स्वयं पाकिस्तान ही है जो अब अमेरिकन साम्राज्यवाद के लिये मुख्य और बडा इनाम है। कांफ्रेंस के लिए यह सपष्ट था कि अमेरिका अफ-पाक को छोडने की जल्दी में नहीं है। गर वह भविष्य में अफगानिस्तान में अपने सैनिकों की संख्या घटाता भी है, तो भी वह वहां एक मज़बूत उपस्थिति बनाए रखेगा।

चर्चा में,  दक्षिण एशिया में गठजोड एवुं पुर्न गठजोड पर ध्यान केन्द्रित किया गया। भारत पाक के बीच तीखा और घातक विरोध, जो आजकल अफगानिस्तान में दोनां के बीच प्राक्सी युद्ध के रुप में फैल रहा है, एक स्थायी सत्य है। भारत और पाक इस वक्त एक युद्ध आरम्भ करना नहीं चाहते। पर उनके सम्बन्धों की अस्थिरता के चलते हमें इस खतरे के प्रति सजग रहना होगा कि मुम्बई 2008 जैसी कोई आतंकवादी कार्रवाई एक सैनिक मुठभेड भडका सकती है।

गत कुछ वर्षों में भारत चीन के बीच बढता तनाव देखा जा सकता है। परिणाम स्वरुप, हिन्दुस्तान अमेरिका के साथ नजदीकी सम्बन्ध बनाने में लगा है। किन्तु समय के चरित्र के चलते, जिसे प्रत्येक व्यक्ति सिर्फ अपने लिये के रुप में परिभाषित किया गया है, दोनों के बीच रिश्ते ठंडे पड रहे हैं। भारत अब रुस जैसे अपने पुराने दोस्तों की ओर निहार रहा है

चर्चा में निम्न प्रश्न भी लिये गयेः

  • राष्ट्रवाद और राष्ट्रीय होडों का मजदूर वर्ग के खिलाफ प्रयोग।
  • आर्थिक संकट और साम्राज्यवादी तनावों के बीच सम्बन्ध। गुटों के टूटने और सडन के साथ अंतरराष्ट्रीय संबन्धों में अस्थिरता तथा प्रत्येक व्यक्ति सिर्फ अपने लिये की प्रव्रति बढ रही है।

वर्ग संघर्ष

चर्चित विषयों में यह प्रमुख था जिसने कांफ्रेंस में शामिल सभी साथियों को संप्रभावित किया।

वर्ग संघर्ष पर प्रस्तुति ने एक प्रश्न उठाया - अंतरराष्ट्रीय वर्ग संघर्ष में आज हम कहां खडे हैं।

मज़दूर वर्ग के संघर्षों ने 2003 में एक मोड देखा जब वर्ग ने पूंजीपति वर्ग के हमलों का जवाब विकसित करना शुरु किया। किन्तु 2008 में संकट के विनाशकारी विकास और इसके चलते मज़दूर वर्ग द्वारा झेले भौंचक करने वाले हमलों ने वर्ग में भय, हिचक तथा लकवे की स्थिति पैदा की। प्रश्न उठाया गया कि वर्तमान में स्थिति क्या है? क्या वर्ग भय या लकवे जैसी स्थिति से उवर गया है?  क्या इस डर का एशिया के मज़दूर वर्ग पर भी वही असर है जो यूरोप तथा अमेरिका के मज़दूर वर्ग पर? क्या वर्ग संघर्ष में नवीनतम विकास वर्ग द्वारा पक्षाघात पर पार पाने तथा संघर्ष पुनः विकसित करने की निशानी है? यद्यपि कोई सटीक उत्तर नहीं मिला; फिर भी चर्चा के दौरान उभरा आम दृष्टिकोण यह था कि वर्तमान संघर्ष इस भ्रांतिपूर्ण स्थिति पर पार पाए जाने की ओर इशारा करते हैं। और भी, विकसित हो रहे संघर्षों की व्यापकता अंतरराष्ट्रीय है और वे सब जगह देखे जा सकते हैं।

इसके साथ ही चर्चा में जोर इस बात पर रहा कि 1968 तथा उसके बाद के विपरीत वर्तमान में वर्ग के अन्दर वर्ग संघर्ष एवम आत्म विश्वास में विकास की गति धीमी है। परिपक्वन की यह मन्दिम प्रक्रिया 2003 से उभरे वर्ग संघर्ष का विशेष चरित्र है। आज भी स्थिति लगभग वैसी ही है। इसका कारण है आज की ऊंचीं बाज़ी - यह एक आम और सही विश्वास है कि आर्थिक स्थिति में सुधार असंभव है। इसके रूबरू वर्ग संकट के प्रभावों को पचाने तथा उनसे सबक लेन में समय ले रहा है।

चर्चा में यह रेखांकित किया गया कि हमें संकट की सघनता तथा वर्ग की ओर से तात्कालिक एवम समानुपातिक प्रतिउत्तर के बीच कोई यांत्रिक संबंध नहीं देखना चाहिये।       

तो भी, हम आज भी यूरोप तथा भारत सहित विश्व के अन्य भागों में मजदूर वर्ग के संघर्षों में वर्गीय एकजुटता का विकास देख सकते हैं। कुछ संघर्षों में समकालिकता प्रदर्शित होती है जो विस्तार की संभावना पैदा करता है।

और भी, पिछले सालों से हम एक नयी पीढी का उभार देख रहे हैं जिसने पूंजीवाद पर सवाल उठाना और स्पष्टता खोजना शुरु कर दिया है।

टर्की, फिलीपीन तथा भारत में वर्ग संघर्षों पर भी चर्चा हुई, खासकर गुडगांव के आटो मज़दूरों की तथा गुजरात में डायमंड मज़दूरों की हड़तालों की। पर आम धारणा यह थी कि इस बहस को और विकसित करने की जरूरत है। विशेष रुप से, वर्ग के अन्दर चेतना के वृहद प्रस्फुटन तथा आम हडतालों के विकास के मार्ग को गहराई से समझने तथा चर्चा में लेने की जरुरत है। इस चिंता को प्रस्ताव के एक बिन्दू में ठोस रुप दिया गया और कांफ्रेंस के पश्चात इस पर बहस आगे वढाने का आदेश दिया।

भारत तथा अन्य एशियाई देशों की विशेष स्थिति पर भी प्रश्न उठाये गयेः

  • भारत, चीन तथा अन्य एशियाई देशों में आर्थिक उभार का प्राचार;
  • राष्ट्रवाद तथा जातीय विभाजनों तथा टकरावों का भार;
  • धर्म, जातियों तथा भाषाओं की विभिन्नता का भार;
  • बडी संख्या में किसान वर्ग का अस्तित्व।

चर्चा के दौरान हस्तक्षेप के विषय पर महत्वपूर्ण सवाल उठा। इस सवाल को आईसीसी तथा एशिया में इसके विभिन्न सेक्शनों की गतिविघियों पर चर्चा के दौरान फिर उठाया गया।

आईसीसी की जीवनघारा

आईसीसी की जीवनधारा पर एक रिपोर्ट पेश की गई जिसमें खासकर लातिनी अमेरिका में कई ग्रुपों तथा संपर्कों की ओर हमारा कार्य शामिल था। इससे छिडी बहस में कई सवाल उठाए गए - बह्स की संस्कृति, सिद्धान्त के प्रति अभिरुचि, अनुभवों का हस्तान्तरण तथा मानवीय तजुर्बे के रुप में एक र्जुझारु की गतिविधि।

विवेचना के दौरान यह विचार विकसित हुआ कि अंतरराष्ट्रीयतावादी तबका केवल आईसीसी तथा उसके संपर्कों द्वारा गठित नहीं बल्कि अलग अलग परम्पराओं से आते अन्य अंतरराष्ट्रीयतावादी ग्रुप भी इसका हिस्सा हैं। आईसीसी इस तबके को मजबूत करने तथा उसको गठित करते अन्य ग्रुपों से मिल कर काम करने के प्रयासें में लगी है। जरुरी है कि हम इस भावी सांझे कार्य को विकसित करते रहें -  हमारे लिये इस समूचे तबके का मजबूत होना हमारा मजबूत होना है।

बहस की संस्कृति, सिद्धान्त के प्रति अभिरुचि, अनुभवों का हस्तान्तरण 

बहस ने याद किया कि मजदूर वर्ग एक चेतना का वर्ग है। अपनी चेतना को विकसित किये बिना, अपने अंतरराष्ट्रीय, ऐतिहासिक अनुभवों को आत्मसात किये बिना वर्ग अपने संघर्षों को पूर्णरुप से विकसित नहीं कर सकता और न ही कर सकता है पूंजीवाद के विघ्वंस के लिये कार्यं।

मौजूदा ऐतिहासिक संदर्भ में एवं खोजी तत्वों की एक नयी पीढी के उभार के संदर्भ में, आईसीसी अनुभवों के हस्तान्तरण में अपनी अपरिहार्य भूमिका देखती है। चर्चा के दौरान यह विचार विकसित हुआ कि भावी पीढी तथा खोजी तत्वों की ओर हस्तक्षेप के दौरन आईसीसी के लिए आवश्यक है कि वह सैद्धान्तिक एवं संगठनात्मक दोनों प्रकार के अनुभवों का हस्तान्तरण करे। अनुभवों के हस्तान्तरण का सवाल सभी जगह अहम है। पर यह एशियन देशों में और भी अहम है यहां कम्युनिस्ट संगठनों का कभी असितत्व नहीं रहा और यहां वामपंथी तथा राष्ट्रवादी ताकतों ने सदा कम्युनिस्ट होने का सवांग रचा है।

किन्तु यह हस्तान्तरण एकतरफा शिक्षाशास्त्रीय कार्य नहीं। इसके विपरीत, यह एक जुझारु गतिविधि है। इस कार्य को नई पीढी की चिंताओं के प्रति खुलापन अपना कर, उसके सवालों को समझने तथा उनका उत्तर देने का प्रायस करके, उठाए जा रहे नए मसलों तथा उन्हें देखने के नए तरीकों के प्रति खुला रुख अपना कर ही पूरा किया जा सकता है। और भी, ऐतिहासिक अनुभवों के हस्तान्तरण के लिये महत्वपूर्ण है कि आईसीसी अपनी पांतों में तथा अपने इर्द गिर्द के तत्वों में बहस की संस्कृति का विकास करे। इस प्रक्रिया के अंग के रुप में सिद्धान्त के प्रति अभिरुचि  पैदा करना भी महत्वपूर्ण है। 

अनेक हस्तक्षेपों ने क्रांतिकारी तबके तथा मजदूर वर्ग में सिद्धान्त के प्रति अभिरुचि विकसित करने की प्रासंगिकता की बात की।

हस्तक्षेपों ने 19वीं सदी के अंत तथा 20वीं सदी के आरंभ के क्रांतिकारी आन्दोलनों के ऐतिहासिक तज़ुरबे को याद किया। इस वक़्त क्रांतिकारी न सिरफ मज़दूर वर्ग के जीवन की तथा उसके संघर्ष की स्थिति का अध्धयन करते थे बल्कि सदा विज्ञान में विकास का भी ज्ञान रखते थे। क्रांतिकारी सिद्धान्त की रोशनी में उन्होंने निरंतर नई वैज्ञानिक खोजों तथा विचारों के संश्लेषण का कार्य किया। इस वक़्त गहन सैद्धान्तिक सरोकार रखना कम्युनिस्टों में मानक व्यवहार था।

आज, लम्बे प्रतिक्रांतिकारी काल के बाद यह कठिन प्रतीत होता है। तो भी, यदि मजदूर वर्ग को अपना ऐतिहासिक कार्यभार पूरा करने के स्तर तक उठना है तो उसे अपने अतीत से सबक लेना होगा।

सिद्धान्त के प्रति अभिरुचि तथा बहस की संस्कृति विकसित करने में हमें जिस बोझ को वहन करना पडता है उस पर पर महत्वपूर्ण चर्चा हुई। इस मार्ग में अनेक कठिनाइयां हैं:

  • पूंजीवादी विचारधारा का बोझ,
  • तात्कालवादी प्रतिक्रियायों की ओर रुझान;
  • पूंजीवादी समाज के सडन का बोझ जो सुसंगत सोच को कमज़ोर करता है;
  • भारत जैसे देश में सामन्ती एवं जातीय परम्परा का बोझ जो "बडों" और " गुरुओं" के अनुसरण को बढावा देता है तथा सवयं सोचने को हतोत्साहित करता है;
  • माओवाद का बोझ । पूंजीवादी घारा के रुप में माओवाद "नेताओं का अनुकरण करो'' को बढावा देता है तथा मजदूर वर्ग के इतिहास एवं सिद्धान्त में रुचि रखने वाले तत्वों के प्रति सन्देह पैदा करता है।

माओवादियों के साथ अनुभव रखने वाले साथियों ने एक माओवादी "थीसिस" याद किया : "जितना अघिक अघ्ययन करोगे उतने ही अधिक मूर्ख  बनोगे"।

चर्चा ने  भावी पीढी को अनुभव हस्तान्तरित करने तथा उसका राजनीतकरण करने के एक हथियार के रुप में सिद्धान्त के प्रति अभिरुचि तथा बहस की संस्कृति को सचेत रूप से विकसित करने की जरूरत को रेखांकित किया।

जुझारु गतिविधि का गहन मानवीय चरित्र

आईसीसी की जीवनधारा के शीर्षक के अंतर्गत विकसित हुई एक और बहस थी एक मनवीय गतिविधि के रूप में जुझारु कार्य। इस बहस ने जुझारुओं के सामाजिक जीवन और हमारे राजनैतिक व्यवहार के बीच दीवार खडा करने के प्रयासों को खारिज़ किया। साथ ही इस चर्चा ने पूंजीवाद के भीतर कम्युनिज़म के द्वीपों के निर्माण की धारणाअओं को भी रद्द किया। किन्तु यह जोर देकर कहा गया कि हमारा जीवन हमारे सिद्धान्तों का घोर उल्लंधन नही हो सकता।  

समाजवाद तथा स्त्रियों क प्रश्न इस बहस का केन्द्र विन्दु बना। इस चिन्ता के रुप में कि आमतौर पर औरतों के प्रति तथा खासकर उनके इर्द-गिर्द के तबके का अंग औरतों के प्रति कम्युनिस्टों का क्या रवैया होना चाहिये। हो सकता है कि कम्युनिस्टों की एक कांफ्रेंस के  लिए यह एक अस्वाभाविक बहस लगे। पर इस स्तर पर सामंती सोच का बरकरार रहना भारत, टर्की तथा फिलिपीन्स जैसे देशों में विषेष रुप से धातक बोझ है। वास्तव में यह चर्चा आईसीसी  की एक महिला हमदर्द के आवेगपूर्ण हस्तक्षेप से प्रेरित थी जिसने सवंय आईसीसी के भारतीय सेक्शन के इर्द-गिर्द के तबके में भी गहन पितृसत्तात्मक दृष्टिकोंण की मौजूदगी की ओर इशारा किया।

समय के अभाव के कारण कांफ्रेंस इस विषय को विकसित नहीं कर पाई। उसने सेक्शनों को इस चर्चा को विकसित करने का निर्देश दिया।

हस्तक्षेप का सवाल

कांफ्रेंस ने अपने अस्तित्व के थोडे से समय में आश्चर्यजनक काम अंजाम देने के लिये हमारे फिलिपीनी सेक्शन का स्वागत किया। सेक्शन के कार्य करने की स्थितियों के चलते यह और भी प्रभावशाली हो जाता है - अर्ध-कानूनी स्थिति, राज्य तथा पूंजीपति वर्ग के वाम एवं दक्षिण पंथ के विभिन्न धडों की निजी सेनाओं द्वारा दमन का खतरा, आर्थिक कठिनईयां।

हस्तक्षेप के सवाल पर एक लम्बी तथा अवेगपूर्ण बहस हुई। इस चर्चा में अनेक पॉइंट स्पष्ट हुए:

  • हस्तक्षेप के विभिन्न औज़ार तथा रूप (पैम्फलेट, प्रेस तथा प्राकाशन, परचे, डिस्कशन सर्कल, संपर्कों की मीटिंगें तथा खुली मीटिंगें आदि);
  • हस्तक्षेप के एक भाग तथा उसके एक रूप में सैदान्तिक स्पष्टीकरण तथा गहराना;
  • सिद्धान्त और व्यवहार में एकता।

इस चर्चा का संदर्भ था हमारे भारतीय सेक्शन द्वारा पेश अपने कार्य-कलापों का एक लेखाजोखा। इसमें रेखांकित किया गया:

  • गत कुछ वर्षों में सेक्शन भारत के विभिन्न भागों में संख्यात्मक वृद्धि तथा संगठन के निर्माण पर केन्द्रित रहा था;
  • सेक्शन ने भारत के विभिन्न भागों में नये उभरते तत्वों के प्रति एक अहम तथा लाभदायक हस्तक्षेप विकसित किया है - डिस्कशन सर्कलों, संपर्कों की मीटिंगों तथा खुली मीटिंगों द्वारा। इससे भारत में कम्युनिस्ट पोजीशनों के असर का प्रासार हुआ है;
  • सेक्शन ने आईसीसी के अंतरराष्ट्रीय कार्य में योगदान दिया है।

इसके साथ ही बैलेंसशीट ने अन्य क्षेत्रों में महत्वपूर्ण कमजोरियां को भी रेखांकित किया:

  • प्रकाशन कार्य विकसित करने में असमर्थता;
  • पूंजीवादी समाज में विकसित धटनाओं तथा विकासक्रमों के प्रति हस्तक्षेप की कमी;
  • भारत में हुयी मजदूरों की हडतालों में हस्तक्षेप को नजरंदाज करना।

इस आखिरी सवाल को आईसीसी के कुछ करीबी हमदर्दों ने उठाया और यह एक अहम, भावनात्मक बहस का मुद्दा था।

यह चर्चा हमारे सेक्शन तथा हमदर्दों, दोनों के लिए प्रेरक रही। हमारे हमदर्दों ने आगे बढ कर हमारे प्रेस के लिये लिखने तथा अनुवाद करने, वितरण में सहयोग तथा वर्ग सधर्षों में भाग लेने की पेशकश की।

निष्कर्ष

आईसीसी की पान एशियन कांफ्रेंस हमारे संगठन के जीवन में एक महत्वपूर्ण अवसर तथा एशिया में कम्युनिस्ट विचारों एवं सगठनों के विस्तार में एक महन्वपूर्ण मील पत्थर बनी। यद्यपि यह कोई बहुत बडी संख्या नहीं थी, फिर भी यह एशिया में कम्युनिस्टों और अंतरराष्ट्रीयतावादियों की अब तक की संभवतया सबसे बडी सभाओं में से थी।

एशिया में आईसीसी के अनेक जुझारुओं के लिए आईसीसी की एक अंतरराष्ट्रीय मीटिंग का यह पहला अनुभव था। जैसे कुछ साथियों ने व्यक्त किया, पान एशियन कांफ्रेंस में आईसीसी की एक लधु कांग्रेस का रुप दिखाई दिया।

कांफ्रेंस में शामिल आस्ट्रेलिया के डेलीगेट तथा आईसीसी के हमदर्दों के लिये यह एक अलग ही तरह का अनुभव था। उनके लिये यह उस संगठन का जीवन्त अनुभव था जो न सिर्फ अंतरराष्ट्रीयतावादी है बल्कि वह अपने जीवन तथा कार्यशैली में भी अंतरराष्ट्रीय है। आस्ट्रेलिया के युवा साथी ने अभिव्यक्त किया: कांफ्रेंस के अनुभव ने जीवन तथा जुझारू कार्य के प्रति उसके समूचे परिपे्रक्ष को ही बदल दिया है।

कांफ्रेंस के अन्त में भारत के एक हमदर्द ने अपना अनुभव कुछ इस प्रकार समेटा: "कांफ्रेंस के दौरान यह भूल गया कि मैं अपने देश में हूं। विभिन्न देशों के क्रांतिकारियों के साथ काम एवं चर्चा करते हुये मैंने महसूस किया कि मैं एक अंतरराष्ट्रीय जीवन और संघर्ष का हिस्सा हूँ"।

वहां उपस्थित सभी साथियों के ऐसे ही विचार एवं भावनायें थी। आईसीसी की पान एशियन कान्फ्रेंन्स ने इसके प्रत्येक भागीदार को स्पष्टता और अंतरराष्ट्रीय कम्युनिस्ट आंन्दोलन खडा करने के काम के लिये उत्साहित किया।

साकी, 4 अप्रैल 2010

फुट नोट

 1. आईसीसी की पान एशियन कांफ्रेंस में साम्राज्यवादी प्रतिद्वन्दता पर प्रस्तुत रिपोर्ट

 2. आईसीसी की 18 वीं कांग्रेस: अंतरराष्ट्रीय स्थिति पर प्रस्ताव

 3. आईसीसी की पान एशियन कांफ्रेंस में प्रस्तुत भारत में वर्ग संघर्ष पर रिपोर्ट