1929 – 2008 पूँजीवाद दिवालिया है!

Printer-friendly version
1929 – 2008 पूँजीवाद दिवालिया है! एक बेहतर दुनिया - कम्युनिज्म- संभव है! राजनेताओं तथा अर्थशास्त्रियों के पास अब स्थिति की संगीनता ब्यान करने के लिए शब्द नहीं हैं: "अंधी खायी का कगार” , "आर्थिक पर्ल हार्बर”, "एक आर्थिक सुनामी”, "वित्तीय व्यवस्थाका 9/11” ....केवल टाईटैनिक के डूबने का जिक्र बाकी है. आखिर क्या हो रहा है? अनावरत होते आर्थिक तुफान के समक्ष अनेक कष्टदायक सवाल उठ रहे हैं. क्या हम 1929 जैसे एक और आर्थिक पतन में से गुज़र रहे हैं? यह सब कैसे हुआ? हम अपने बचाव के लिए क्या कर सकते हैं? और यह कैसी दुनिया है जिस में हम जी रहे हैं?

हमारी जीवन परिस्थियों के बर्बर गिरावट की राह

इस बारे में किसी शक की गुंज़ाइश नहीं. आगामी चन्द महीनों में विश्व पैमाने पर मानवजाति की जीवन परिस्थियों में भयंकर गिरावट आने वाली है. अपनी एक हालिया रिर्पोट में आई एम एफ ने घोषणा की कि अब से लेकर 2009 के आरंभ तक 50 देश भुखमरी के शिकार देशों की दुख्द लिस्ट में शामिल हो जाएंगे. इनमें अफरीका, लातिनी अमेरिका, कैरिबियन तथा एशिया भी शामिल हैं. उदाहरण के लिए सरकारी आंकडों मुताबिक इथोपिया के सवा करोड लोग भुखमरी से मरने के कग़ार पर हैं. भारत तथा चीन में, पूँजीवाद के इन नए जन्नतों में, करोडों लोग बेरहम गरीबी का शिकार होने वाले हैं. स्वंय अमेरिका तथा यूरोप में आबादी का बहुमत असहनीय अभाव का शिकार हैं. काम के सभी क्षेत्र प्राभावित हो रहे हैं. दफ्तरों में, बैंकों में, कारखानों में, अस्पतालों में, हाय टेक क्षेत्रों में, कार उद्योग में, निर्माण तथा वितरण में करोडों नौकरियों को मिटाने के मन्सूबे हैं. बेरोज़गारी में भारी इजाफा होने वाला है. 2008 के आरंभ से केवल अमेरिका में ही दस लाख से अधिक मज़दूरों को सड़कों पे फेंका जा चुका है. और यह केवल शुरूआत भर है. छंटनियों की इस लहर का अर्थ है मज़दूर परिवारों के लिए सिर छिपाना, दाल रोटी का जुगाड करना तथा अपनी सेहत का ख्याल रखना अधिकाधिक मुश्किल होने वाला है. इसका यह भी अर्थ है कि पूँजीवाद के पास आज के युवाओं को देने के लिए कोई भविष्य नहीं है.

जिन्होंने कल हमसे झूठ वोला वे आज भी झूठ वोल रहे हैं

पूँजीवादी दुनिया के नेता, राजनीतिज्ञ तथा पत्रकार, जिनका काम शासक वर्ग की सेवा करना है, अब इस विध्वंसक भविष्य को छिपाते नहीं है. इसे वे छिपा भी कैसे सकते हैं. दुनिया के कुछ सबसे बडे बैंकों का पतन हो गया है. वे सिरफ इस लिए जिन्दा बचे हैं क्योंकि केन्द्रीय बैंकों ने, यानि सरकारों ने, सैंकडों खरब डालर, पाऊंड तथा यूरो झोंक दियें हैं. अमेरिका, यूरोप तथा एशिया के शेयर बाज़ारों के लिए यह अनन्त गिरावट है. 2009 के आरंभ से अब तक वे 11500000 करोड रूपया खो चुके हैं जो अमेरिका के दो साल के उत्पादन के बराबर है. यह सारी दुनिया के शासक वर्ग पर छाये वास्तव खौफ की निशानी है. शेयर बाज़ारों का मात्र इस लिए पतन नहीं हो रहा चूँकि बैंक विनाशकारी स्थिति के रूबरू हैं. वे इस लिए गिर रहे हैं चूँकि आर्थिक गतिविधि में भारी गिरावट के चलते पूँजीपतिओं को अपने मुनाफों में सिर चकराने वाली गिरावट का, कंपनियों के पतन की एक लहर का, पिछले चालीस सालों में आई सभी मंदियों से बडी एक मंदी का अंदेशा है. दुनिया के मुख्य नेता बुश, मर्कल, ब्रऊन, सर्कोज़ी आदि शिखर वार्ताओं की श्रंखला (जी4, जी7, जी8, जी16, जी40) में मिले हैं ताकि वे नुकसान को कम कर सकें तथा बदतरीन को टाल सकें. मघ्य नवंबर में एक नई ‘शिखर वार्ता’ रखी गई है जिसे कुछ लोग ‘पूँजीवाद की पुर्नस्थापना’ के रूप में देख रहे हैं. आज राजनीतिज्ञों की विचलित स्थिति के बराबर कोई चीज़ है तो वह है टीवी, रेडियो तथा अखबारों के विशेषज्ञों का उन्माद. संकट मीडिया के लिए नंबर वन खबर है.

प्रचार का यह सब उफान क्यों

वास्तव में अब पूँजीपति वर्ग अर्थव्यवस्था के संकट को छिपा नहीं सकता. पर वह हमें यकीन दिलाने की फिराक में है कि बात सवंय पूँजीवादी व्यवस्था पर प्रश्नचिन्ह लगाने की नहीं. कि सवाल ‘दरूपयोग तथा ‘अतिशय’ का है. सारा दोष सट्टेवाज़ों का है! ये लालची मालिकों की गलती है! यह दोष टैक्स हेवन का है! यह सभ नव­उदारतावाद के चलते हुआ! यह परीकथा हमारे गले उतारने के मकसद से शासक वर्ग ने अपने सभी पेशेवर झांसेवाज़ों कों मैदान में उतार रखा है. वही ‘विशेषज्ञ’ जो कल तक हमें बता रहे थे कि अर्थव्यवस्था स्वस्थ है, कि बैंक ठोस हैं. वे अब नए झूठ उगलने के लिए टीवी सक्रीनों पर एक दूसरे पर चढ़ रहे हैं. जो लोग हमें बता रहे थे कि नव­उदारतावाद ही एकमात्र हल है, कि राज्य को अर्थव्यवस्था में हस्तक्षेप से पीछे हटना होगा, वही लोग सरकारों को अधिकाधिक हस्तक्षेप के लिए पुकार रहे हैं. बस अधिक हस्ताक्षेप एवम अधिक नैतिकता और पूँजीवाद ठीक हो जाएगा. वो चाहते हैं कि हम यह झूठ स्वीकार कर लें.

क्या पूँजीवाद अपने संकट पर पार पा सकता है

सच्चाई यह है कि आज विष्व पूँजीवाद को घ्वसत करता संकट 2007 की गर्मियों सें आरंभ नहीं हुआ जब अमेरिका में रियल इस्टेट का बुलबुला फूटा. पिछले चालीस सालों में एक के बाद एक मंदी आई है - 1967, 1974, 1981, 1991, 2001. दशकों से बेरोज़गारी एक स्थाई महामारी रही है और शोषित अपने जीवन हालातों पर वढ़ते हमलों को झेल रहे हैं. क्यों? क्योंकि पूँजीवाद एक ऐसी अर्थव्यवस्था है जो मानवीय जरूरतों के लिए नहीं बल्कि बाज़ार तथा मुनाफे के लिए पैदा करती है. भारी अपूर्त जरूरतें हैं पर वे संपन्न बाज़ार नहीं हैं. दूसरे शब्दों आबादी के बहुमत के पास पैदा मालों को खरीदने के साधन नहीं हैं. अगर पूँजीवाद संकट में है, अगर लाखों, और जल्द ही करोड़ों, इन्सान असहनीय बदहाली तथा भूख में धकेले जा रहे हैं तो इस लिए नहीं कि व्यवस्था समुचित पैदा नहीं करती ब्लकि इस लिए कि वह जितने बेच पाती है उससे अधिक माल पैदा करती है. हर बार बुज़ुआज़ी इस स्मस्या से पार पाने के लिए भारी कर्ज़ों का तथा नकली बाज़ार पैदा करने का सहारा लेता है. इस लिए संकटों के सभी उभार सदा और भी अंधेरे कल की राह खोलते हैं. चूंकि आखिर ये सारे कर्ज़ों की अदायगी तो करनी होगी, लिए हुए उधार लौटाने तो होंगे. आज बिल्कुल यही हो रहा है. पिछले बरसों का तमाम ‘चमत्कारिक विकास' पूरी तरह कर्ज़ों पर टिका हुआ था. विश्व इकोनमी करज़ों पर जी रही थी. और अब, जब बिलों की अदायगी का वक्त आया तो सारी इमारत ताश के पत्तों की तरह ढह रही है. पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में मौजूदा खलबली रजनेताओं द्वारा ‘बुरे प्रबन्ध’ का फल नहीं है. ना ही वह स्टोरियों की स्ट्टेबाजी अथवा बैंकरों के ग़ैरजिम्मेवाराना व्यवहार का फल है. इन सब लोगों ने मात्र पूँजीवाद के नियमों को लागू किया और ठीक यह नियम ही हैं जो व्यवस्था को विनाश की ओर ले जा रहे हैं. इसी लिए तमाम सरकारों तथा उनके केन्द्रीय बैंकों द्वारा बाज़ारों में झोंके जा रहे खरबों-खरब से कोई अन्तर पडने वाला नहीं. और भी बुरा! वे कर्ज़ों पर कर्ज़ लाद रहे हैं. जो आग को बुझाने के लिए घी के इस्तेमाल के सामान है. इन हताश तथा व्यर्थ उपायों से पूँजीपति वरग अपनी वेबसी ही जाहिर कर रहा है. देर सबेर बचाव की उनकी तमाम योजनाएँ फेल होने वाली हैं. पूँजीवादी अर्थव्यवस्था के लिए कोई असल उभार संभव नहीं. दक्षिण अथवा वाम की कोई भी नीति पूँजीवाद को नहीं बचा सकती क्योंकि यह व्यवस्था लाईलाज़ जानलेवा बिमारी से क्रस्त है.

बढती गरीबी के खिलाफ एकजुटता तथा वरग संघर्ष

हर जगह हम 1929 के ध्वंस तथा 1930 की महामंदी से तुलना होती देखते हैं. उस वक्त की तस्वीरें अभी भी हमारे ज़हन में हैं. बेरोज़गार मज़दूरों की अनंत कतारें, गरीबों के लिए सूप किचन, हर जगह बंद होते कारखाने, पर क्या स्थिति एकसमान है? नहीं. स्थिति आज और भी संगीन है. बावजूद इसके के पूँजीवाद ने अपने तज़ुर्बे से सीखा है और रज्य के हस्तक्षेप तथा बेहतर अन्तरर्राष्ट्रीय संयोजन से पूर्ण ध्वंस को टाल दिया है. पर एक मुख्य अन्तर और है. 1930 की भयंकर मंदी का अन्त दुसरे विष्वयुद्व में हुआ. क्या मौज़ूदा संकट तीसरा विष्वयुद्व लेकर आएगा? निशचित ही पूँजीपति वरग के पास अपने ढेरों सकटों का एकमात्र हल युद्व की ओर दौड है. इस दौड का विरोध करने में सक्षम एकमात्र ताकत है अन्तरर्राष्ट्रीय मज़दूर वरग. 1930 के दशक में मज़दूर वरग रूस में 1917 के इंकलाब के अलग थगल पडने से भयंकर हार में से गुज़रा था और उसने सवयं को एक नए साम्राज्यवादी नरसंहार में घिसटने दिया. पर 1968 से आरंभ अहम संघर्षों से आज के मज़दूर वरग ने दिखा दिया है कि वह शोषक वरग के लिए रक्त वहाने के लिए तैयार नहीं है. पिछले 40 साल में वह कई दुख्द हारों में से गुज़रा है पर वह डटा हुआ है. सारी दुनिया में, खासकर 2003 से, वह अधिकाधिक पल्ट के लड रहा है. अनावरत होते पूँजीवादी संकट का करोडों-करोड मज़दूरों के लिए अर्थ है भयंकर दुख्दर्द, न सिरफ विकासशील देशों में बल्कि विकसित देशों में भी - बेरोज़गारी, गरीबी, अकाल तक, पर यह शोषितों की ओर से प्रतिरोध के एक आंदोलन को भी प्रेरित करेगा. पूँजीपति वरग के आर्थिक हमलों को तथा शासक वरग को हमें घोर गरीबी में धकेलने से रोकने के लिए मज़दूर वरग के ये संघर्ष अति अवश्यक हैं. पर यह साफ है कि वे पूँजीवाद को संकट में गहनतर धंसने से नहीं रोक सकते. इसी लिए मज़दूर वरग के प्रतिरोधी संघर्ष एक और जरूरत, एक और भी अहम जरूरत की प्रतिपूर्ति हैं. वे शोषितों को अपनी सामुहिक ताकत, अपनी एकता, अपनी एकजुटता, मानवजाति को उपलब्ध एकमात्र विकल्प की अपनी चेतना विकसित करने का अवसर देते हैं. पूँजीवादी व्यवस्था को पल्टना और एक ऐसे समाज से उसे बदलना जो एक भिन्न आधार पर काम करता हो. एक सामाज जो अब शोषण,मुनाफे तथा बाज़ार के लिए उत्पादन पर नहीं बल्कि मानवीय जरूरतों की पूर्ति के लिए उत्पादन पर टिका हुआ हो. एक सामाज जो सवंय शोषितों द्वारा संगठित होगा ना कि एक विशेषाधिकार सम्पन्न अल्पमत द्वारा. संक्षेप में एक कम्युनिस्ट सामाज. आठ दशकों तक पूँजीपति वर्ग के तमाम धडों, दक्षिणपँथ तथा वामपंथ दोनों, ने मिल कर पूर्वी यूरोप तथा चीन में प्रभावी सरकारों को ‘कम्युनिस्ट` के रुप में पेश किया जबकि ये राज्य पूँजीवाद के एक विशेष बर्बर रूप के सिवा कुछ नहीं थे. चूँकि सवाल शोषितों को यह यकीन दिलाने का था कि एक दूसरी दुनिया का सपना देखना बेकार है, कि पूँजीवाद के सिवा कुछ भी संभव नहीं. पर अब पूँजीवाद इतने साफ तौर पर अपना ऐतिहासिक दिवालियपन ज़ाहिर कर रहा है कि मज़दूर वरग के संघर्षों के लिए जरूरी है कि वे कम्युनिस्ट समाज के परिदृष्य से चालित हों. अपनी पहुँच के अन्तिम क्षोर पर पूँजीवाद के हमलों के रुबरु, शोषण, ग़रीबी तथा पूँजीवादी युद्व की बर्बरता के अन्त के लिए, दुनिया के मज़दूर वरग के संघर्ष जिरंजीवी हों! दुनिया के मज़दूरों, एक हो! इंटरनेशनल कम्युनिस्ट करण्ट, 25 अक्तूबर 2008 पोस्ट बाक्स नंबर-25, एन आई टी, फरीदबाद, हरियाणा आईसीसी की आगामी डिस्कशन मीटिंगें 21 दिसंबर 2008, दोपहर 12 बज़े, विष्नुपुर धर्मशाला, नवाबगंज, कानपुर 18 जनवरी 2009, दोपहर 12 बज़े, अम्बेदकर भवन, झण्डेवालान, दिल्ली