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दक्षिण कोरिया के शासक वर्ग ने ‘प्रजातन्त्र’ का नकाब उतारा

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  • कम्युनिस्ट इंटरनेशनलिस्ट – 2010 का दशक
  • कम्युनिस्ट इंटरनेशनलिस्ट - 2011

हमें कोरिया से अभी-अभी खबर मिली है कि कोरिया की सोस्लिस्ट वर्कर्स लीग (Sanoryun) के 8 जुझारू दक्षिण कोरिया के 'राष्ट्रीय सुरक्षा कानून'1 के तहत गिरफ्तार कर लिए गए हैं ऒर ऊन्हे 27 जनवरी को सजा सुनाई जानी है।

इसमें कोई दो राय नहीं है कि यह एक राजनीतिक मुकद्दमा है, ऒर यह, शासक वर्ग जिसे  'न्याय' कहता है, उसका एक मजाक है। इस हकीकत के तीन सबूत हैं:

  • एक, दक्षिण कोरिया की खुद की अदालत ने पुलिस द्वारा गिरफ्तारों के खिलाफ लगाए गए इल्जामों को दो बार खारिज किया है।2
  • दूसरा, इन जूझारूऒं पर 'दुश्मन (उत्तरी कोरिया) को मदद करने वाला दल तैयार करने'  का इल्जाम लगाया है। लेकिन सच यह है कि सी-चियोल व गून्ग वोन व कुछ अन्य अक्तूबर 2006 की 'युद्ध के खतरों के खिलाफ कोरिया से अंतरराष्ट्रीयतावादी घोषणा' के हस्ताक्षरकर्ता हैं। इस घोषणा ने उत्तरी कोरिया के नाभकीय परीक्षण की निन्दा की और खास करके घोषित किया कि: "पूँजीवादी उत्तरी कोरिया (...) का मज़दूर वर्ग से अथवा साम्यवाद से कोई वास्ता नहीं है, और यह पतनशील पूँजीवाद की सैनिक बर्बरता की ओर आम प्रवृत्ति के अत्यधिक विकृत रूप के सिवा कुछ नहीं है"। 3
  • तीन, ओ सी चियोल का बयान कोई शक नहीं छोडता कि वह पूँजीवाद की हर किस्म, उत्तरी कोरियाई राज्य पूँजीवाद समेत, के खिलाफ है।

इन जुझारूऒ पर जो इलजाम है वह समाजवादी होने के वैचारिक जुर्म के सिवा कुछ नहीं। दूसरे शब्दों में, वो इस बात के गुनाहगार ठहराये गये हैं कि उन्होने मज़दूरों का खुद का, अपने परिवार का ऒर रहने के अपने हालातों की हिफाज़त के लिए खुला अहवान किया है और पूँजीवाद का असली चेहरा खुलेऑम उजागर किया है। अभियोग पक्ष द्वारा संभावित सजांएँ उस दमन की एक और मिसाल हैं जो दक्षिण कोरिया का शासक वर्ग उन सब पर बरपा करता है जो उसकी राह में आने की हिम्मत करते हैं। इस निर्दयी दमन ने पहले ही 'बेबी स्ट्रोलर्स बिग्रेड' की उन जवान माताऒं को अपना निशाना बनाया है जो 2008 में अपने बच्चों के साथ मोमबत्ती प्रदर्शन में गईं और जिन्हें बाद में कानूनी व पुलिस उत्पीड़न का शिकार होना पड़ा।4 इस दमन ने सान्गयोन्ग के उन मज़दूरों को भी अपना निशाना बनाया जिन्हें दंगा पुलिस ने, जो उनके कारखाने में घुस आई थी, पीटा।5

लंबी कैद की सजाओं के रूबरू, गिरफ्तार जुझारूऒ ने अदालत में अनुकरणीय शालीनता का आचरण किया और इस अवसर का प्रयोग मुकदमे के राजनीतिक चरित्र को साफ तौर पर नंगा करने के लिए किया। हम नीचे ट्रिब्यूनल के सामने ऒ सी चियोल के आखिरी भाषण का  अनुवाद दे रहे हैं।  

इस क्षेत्र में सैनिक तनाव उभार पर हैं, पिछले साल नवम्बर में यौंगपोंग द्वीप में उकसावे भरी गोलीबारी और उत्तर कोरियाई शासन की गोलियों से नागरिकों का मारा जाना, तथा इसके बदले में दक्षिण कोरियाई फोज के साथ अभ्यास के लिए अमेरिकी नाभिकीय विमानपोत की उस क्षेत्र के लिए रवानगी। इस हालत में यह बयान पहले से ज्यादा सच हो जाता है कि ऑज मानवता के सामने दो ही विकल्प हैं समाजवाद या बर्बरता।

अमेरिका ऒर उसके सहयोगियों का प्रचार उत्तरी कोरिया को एक 'गैंगस्टर राज्य' के रूप में चित्रित करने की कोशिश करता है जिसका शासक गुट अपनी भूखी जनता के निष्ठुर दमन की बदौलत ऐशोऑराम से रहता है। यह निस्संदेह सच है। लेकिन दक्षिण कोरियाई सरकार द्वारा माताऒं, बच्चों, संघर्षशील मजदूरों और अब समाजवादी जुझारूओं पर बरपा दमन स्पष्ट दिखाता है कि, अंतिम विश्लेषण में, हर राष्ट्रीय बुर्जुआज़ी भय और क्रूरता के बल पर राज करता है।

इन हालात के मद्देनजर हम गिरफ्तार जुझारुऒं के साथ अपनी पूर्ण एकजुटता ज़ाहिर करते हैं,  उनके साथ अपने संभवतः राजनीतिक मतभेदों के बावजूद। उनका संघर्ष हमारा संघर्ष है। हम उनके परिवारों और साथियों के साथ दिली हमदर्दी और एकता जाहिर करते हैं। हम internationalism.org  पर मिले समर्थन तथा एकज़ुटता के हर संदेश को खुशी से उन साथियों तक पहुँचा देंगे।6

ऒ सी चियोल का कोर्ट में आखिरी भाषण, दिसम्बर 2010  (कोरियन से अनुवादित)

कई सिद्धांतों ने पूँजीवाद के इतिहास में घटित संकटों को समझाने की कोशिश की है। इनमें से एक आपदा सिद्धांत है, जो मानता है कि जिस घड़ी पूँजीवाद के विरोधाभास अपने उच्चतम बिंदु पर पहुंचेंगें, पूँजीवाद स्वयं ढह जाएगा और स्वर्ग की एक नई सहस्राब्दी के लिए रास्ता बनाएगा। इस सर्वनाशवादी या अति अराजकतावादी विचार ने पूँजीवादी उत्पीड़न और शोषण से सर्वहारा की पीड़ा को समझने की राह में भ्रम तथा गलतफहमियं पैदा की हैं। बहुत से लोग इस तरह के एक गैर वैज्ञानिक दृष्टिकोण से संक्रमित हुए हैं।

एक और सिद्धांत है आशावाद जिसे पूँजीपति वर्ग हमेशा फैलता है। इस सिद्धांत के अनुसार, पूँजीवाद में  अपने विरोधाभासों से उबरने के साधन मौजूद हैं और असल अर्थव्यवस्था सट्टेबाज़ी को नष्ट करके ठीक काम करती है।

उपर्युक्त दो से अधिक परिष्कृत एक और सिद्धान्त है, और यह दूसरों से अधिक प्रबल है, जो मानता है कि पूँजीवादी संकट आवधिक हैं, और हमें मात्र तूफान के थमने तक शांतिपूर्वक इंतज़ार करने और फिर सफर शुरू करने की जरूरत है।

ऐसी सोच 19वीं शताब्दी में पूँजीवाद के दृश्य के लिए उचित थी: यह 20वीं और 21वीं सदी के पूँजीवादी संकटों के अनुरूप नहीं। 19वीं सदी में पूँजीवादी संकट पूँजीवाद के असीमित विस्तार के चरण के संकट थे जिन्हे मार्क्स ने कम्युनिस्ट घोषणापत्र में अतिउत्पादन की महामारी कहा। पर अतिउत्पादन के परिणामस्वरूप अकाल, गरीबी और बेरोजगारी फैलने का रूझान वस्तुओं की कमी के कारण नहीं था। बल्कि बहुत सारे उत्पादों, बहुत ज्यादा उद्योग और बहुत ज्यादा संसाधनों के कारण था। पूँजीवादी संकट का एक अन्य कारण है पूँजीवादी प्रतियोगिता की पद्धति की अराजकता। 19वीं सदी में, नए उज़रती श्रम तथा मालों के लिए नए निकास तलाशने के लिए नए क्षेत्रों को जीत कर पूँजीवादी उत्पादन संबंधों को फैलाया तथा गहराया जा सकता था। इसलिए इस दौर में संकटों को एक स्वस्थ दिल की धडकन जैसा समझा गया।

20वीं सदी में पूँजीवाद का ऐसा आरोही चरण पहले विश्व युद्घ के मोड़ के साथ समाप्त हो गया। तब, माल उत्पादन वा उज़रती श्रम के पूँजीवादी संबंधों का दुनिया भर में विस्तार हो गया था। 1919 में कम्युनिस्ट इंटरनेशनल ने तात्कालिक पूँजीवाद को 'युद्ध या क्रांति' के दौर का नाम दिया। एक ओर, अति-उत्पादन की पूँजीवादी प्रवृत्ति साम्राज्यवादी युद्ध की ओर धकेल रही थी ताकि दुनिया के बाजारों को हथियाया तथा नियंत्रित किया जा सके। दूसरी ओर, 19 वीं सदी के विपरीत, इसने विश्व-अर्थव्यवस्था को अस्थिरता और विनाश के अर्द्ध स्थायी संकट पर निर्भर बना दिया।

इस तरह के विरोधाभास का परिणाम थीं दो ऐतिहासिक घटनाएं, प्रथम विश्व युद्ध और 1929 का विश्व संकट, जिनकी कीमत थी दो करोड जानें और 20-30% की बेरोजगारी दर। और इसने एक तरफ तथाकथित "समाजवादी देशों" के लिए मार्ग प्रशस्त किया जहां अर्थव्यवस्था के राष्ट्रीयकरण के माध्यम से राज्य पूँजीवाद उभरा, तो दूसरी तरफ थे निजी पूंजीपति वर्ग तथा राज्य नौकरशाही के संयोजन के साथ उदार देश।

दूसरे विश्वयुद्ध दे बाद तथाकथित 'समाजवादी देशों' समेत समूचा विश्व पूँजीवाद एक असाधारण खुशाहाली में से गुज़रा जो कि 25 साल चले पुनर्निमाण तथा करज़ों का फल थी। इसके चलते सरकारी नौकरशाहों, ट्रेडयूनियन नेतांओं, अर्थशास्त्रियों और तथाकथित 'मार्क्सवादियों' ने जोरशोर से घोषित किया कि पूँजीवाद ने अंतिम रूप से अपने संकटों पर पार पा लिया है। पर जैसे निम्न उदाहरण दिखाते हैं, संकट निरंतर बदतर हुआ है: 1967 में पाउँड स्टर्लिंग का अवमूल्यन, 1971 का डालर संकट, 1973 में तेल कीमतों का झटका, 1974-75 की आर्थिक मंदी,  1979 का मुद्रासफिति संकट, 1982 का ऋण संकट, 1987 का वाल सट्रीट संकट, 1989 की आर्थिक मंदी, 1992-93 में यूरोपीय मुद्राओं की अस्थिरता, 1997 में एशिया में 'टईगर्स' तथा 'ड्रैगनस' का संकट, 2001 में अमेरिकी 'नई अर्थव्यवस्था' का संकट, 2007 का सब-प्राईम संकट, लेहमान ब्रद्रस आदि का वित्तीय संकट तथा 2009-2010 का वित्तीय संकट।

क्या संकटों की यह श्रांखला 'अवर्ती' तथा 'आवधिक' है? बिल्कुल नहीं। यह पूँजीवाद की असाध्य बिमारी, भुगतान के काबिल बाज़ारों की कमी, मुनाफे की गिरती हुई दर का फल है। 1929 में विश्व महामन्दी के वक्त राज्यों के विशाल हस्तक्षेप के चलते बदतर हालात पैदा नहीं हुए। पर हालिया वित्तीय संकट तथा आर्थिक मंदी के वाक्यात दिखाते हैं कि पूँजीवादी व्यवस्था को अब राज्य के बेल आउट धन तथा रजकीय करज़ों के फौरी कदमों की मदद से नहीं बचाया जा सकता।

उत्पादन शक्तियों के प्रासार की असंभवता के चलते पूँजीवाद अब एक गतिरोध में है। पर पूँजीवाद इस गतिरोध पर पार पाने के लिए एक जीवन मरण के संघर्ष में है। यानि, वह अब अंतहीन रूप से रजकीय करज़ों पर निर्भर है और नकली बाज़ार पैदा करके अपने अतिउत्पादन के लिए निकास पाता है। 40 साल से विश्व पूँजीवाद भारी करज़ों के जरिये ही तबाही से बचता आया है। पूँजीवाद के लिए करज़ों का वही अर्थ है जो एक नशेड़ी के लिए नशे का। अंत में वह करज़े एक बोझ के रूप में लौटेंगे तथा तथा दुनिया भर में मज़दूरों के खून पसीने की मांग करेंगे। उनका परिणाम दुनिया भर के मज़दूरों की गरीबी, साम्राज्यवादी जंग तथा पर्यावरण की तबाही भी होगा।

क्या पूँजीवाद पतन पर है? हां। यह आकस्मिक विनाश की ओर नहीं बल्कि व्यबस्था के एक नए पतन, पूँजीवाद के अंत होते इतिहास की आखिरी मंजिल की ओर बढ़ रहा है। हमें 100 साल पुराने नारे 'युध या क्रांति?' को गंभीरता से याद करना होगा और एक बार फिर 'बर्बरता तथा समाजवाद' के विकल्प की तथा वैज्ञानिक समाजवाद के अभ्यास की ऎतिहासिक समझ तैयार करनी होगी। इसका अर्थ है समाजवादियों को मिलकर काम करना तथा एकजुट होना होगा, उन्हें क्रांतिकारी मार्क्सवाद के आधार पर द्रढ़ता से खड़े होना होगा। हमारा मकसद है मद्रा, माल, बाज़ार, उज़रती श्रम तथा विनमय मुल्य पर आधारित पूँजीवाद पर पार पाना और स्वतंत्र  व्यक्तियों के एक समुदाय में मुक्त श्रम के एक समाज का निर्माण करना।

मार्क्सवादी विश्लेशण ने पहले ही पुष्ट किया है कि पूँजीवादी उत्पादन प्रणाली का संक़ट पहले ही निर्णायक बिन्दू पर पहुँच गया है और इसकी बजह है उत्पादन तथा बेशीमूल्य की बसूली की प्रक्रिया में मुनाफे की गिरती दर तथा बाज़ारों की संतृप्ति। हम अब सवंय को पूँजीवाद यानि बर्बरता और समाजवाद, साम्यवाद यानि सभ्यता के बिकल्प के सामने पाते हैं।

एक, पूँजीवादी व्यवस्था की हालत यह है कि वह उज़रती श्रम के गुलामों को भी पोषित नहीं कर सकती। हर रोज़ दुनिया में एक लाख लोग भूख से मरते हैं, हर 5 सेकण्ड में पांच साल का एक बच्चा भूख से मर जाता है। 84 करोड लोग स्थायी कुपोषण का शिकार हैं और विश्व की 600 करोड आबादी का एक तिहाई हर रोज़ बढ़ती कीमतों के चलते जीने के लिए लड रहा है।

दो, मौज़ूदा पूँजीवादी व्यवस्था आर्थिक समृद्धि का भ्रम भी जिन्दा नहीं रख सकती। भारत और चीन के आर्थिक चमत्कार छलावा साबित हुए हैं। 2008 की पहली छमाही में चीन में 2 करोड मज़दूरों की नौकरियां छूटीं और 67000 कंपनियां दिवाला हों गईं।

तीन, पर्यावरणीय आपदा के आसार हैं। ग्लोबल वार्मिंग के सवाल पर, 1896 से धरती का तापमान 0.6% बढ़ गया है। 20वीं सदी में उत्तरी गोलार्ध में पिछले 1000 साल की तुलना में कहीं अधिक तापमान बढ़ा है। 1960 के दशक के अंत से बर्फ से ढ़का हुआ क्षेत्र 10% सिकुडा है और उत्तरी ध्रुव पर बर्फ की पर्त 40% सिकुडी है। 20वीं सदी में औसतन समुद्र तल 10-20% तक उपर उठा है। यह पिछले 3000 साल के औसतन उभार से 10 गुणा ज्यदा है। पिछले 90 साल में धरती का दोहन लापरवाह वनोन्मूलन, भू-क्षरण, प्रदूषण (वायू, जल), रासायनिक तथा आणवीय पदार्थों के प्रयोग, पशुओं तथा वनस्पति के विनाश, महामारियों के विसफोटक उदय के रूप में सामने आया है। पर्यावरणीय विनाश को एक एकीकृत तथा विश्वव्यापी रूप में देखा जा सकता है। लिहाज़ा यह कहना मुशकिल है यह समस्या भविष्य में कितनी गंभीरता से विकसित होगी।

तो पूँजीवादी दमन तथा शोषण के खिलाफ मज़दूर वर्ग के संघर्ष का इतिहास कैसे विकसित हुआ है? वर्ग संघर्ष सतत विद्यमान रहा है पर सफल नहीं रहा। पहला इंटरनेशनल उभरते पूँजीवाद की शक्ति के चलते फेल हुआ। दूसरा इंटरनेशनल उस द्वारा अपना क्रांतिकारी चरित्र त्यागने तथा राष्टीयतावाद के चलते फेल हुआ। और तीसरा इंटरनेशनल स्तालिनवादी प्रतिक्रांति के कारण फेल हुआ। विशेषकर 1930 से प्रतिक्रांतिकारी रूझानों ने राज्य पूँजीवाद को 'समाजवाद' का नाम देकर उसके चरित्र के बारे मे मज़दूर वर्ग को गुमराह किया है। अंत में, उन्होंने विश्व पूँजीवादी व्यवस्था के सहायक का रोल अदा किया, दो गुटों के टकराव को छुपा कर विश्व सर्वहारा को दबाया तथा शोषित किया।

फिर, पूँजीपति वर्ग के अभियान के अनुसार पूर्वी यूरोप का तथा स्तालिनवाद का ढहन 'उदार पूँजीवाद की सपष्ट जीत', 'वर्ग संघर्ष का अंत' और यहां तक कि सवंय मज़दूर वर्ग़ का अंत था। इस तरह के अभियान का फल था मज़दूर वर्ग की चेतना तथा उसके जुझारूपन में गंभीर उतार।

1990 के दशक में मज़दूर वर्ग ने पूरी तरह हार नहीं मानी पर अतीत के संघर्ष के औज़ारों, युनियनों की तुलना में न तो उसका बजन था न उसके पास क्षमता थी। पर फ्रांस तथा आस्ट्रिया में पेशनों पर हमले 1989 में मजदूर वर्ग के लिए अपना संघर्ष फिर शुरू करने के लिए नया मोड़ बने। मजदूर संघर्षों मे सबसे ज्यादा उछाल आया केन्द्रीय देशों में: 2005 में अमेरिका में बोईंग में संघर्ष तथा न्यूयार्क में ट्रांस्पोर्ट मजदूरों की हडताल, 2004 में डाय्मलर तथा ओपल में संघर्ष, 2006 के बसंत में डाक्टरों के संघर्ष, 2007 में जर्मनी में टेलीकाम में संघर्ष, 2005 मे ब्रिटेन में लंदन एयरपोर्ट मज़दूरों के संघर्ष तथा फ्रांस मे 2006 मे सीपीई के खिलाफ संघर्ष।  पिछडे देशों में, 2006 में दुबाई में निर्माण मजदूरों के संघर्ष, 2006 के बसंत में बंगलादेश में टेक्सटाईल मजदूरों के संघर्ष और मिस्र में 2007 के बसंत में टेक्सटाईल मजदूरों के संघर्ष।

2006 से 2008 के बीच दुनिया के मजदूर बर्ग के संघर्षों का पूरी दुनिया में फैलाब हो रहा है : मिस्र, दुबाई, अलजीरिया, वेनेजुएला, पीरू, तुर्की, ग्रीस, फिनलैण्ड, बुल्गारिया, हंगरी, रूस, इटली, जर्मनी, फ्रांस, अमेरिका तथा चीन। जैसे फ्रांस के पेंशन सुधारों के खिलाफ हालिया संघर्षों ने दिखाया, मजदूर संघर्ष के अब अधिकाधिक आक्रामक बनने का अनुमान है। जैसे हमने उपर दिखाया, विश्व पूँजीवाद के पतन के अंतिम रूझान ने तथा संकट द्वारा मजदूर वर्ग पर डाले बोझ ने, पहले के तजुरबे के उल्ट  पूरी दुनिया में मजदूर संघर्षों को भडकाया है।

हम अब इस बिकल्प के आमने सामने हैं : बर्बरता में, इंसानों के रूप में नहीं बल्कि पशुओं के रूप में जीना अथवा खुशी से स्वतन्त्रता में, समानता में तथा मानवीय सम्मान से जीना।

कोरियन पूँजीवाद के विरोधाभासों की ग़हराई तथा विस्तार तथाकथित विकसित देशों से कहीं गंभीर है। कोरियन मजदूरों का दर्द यूरोपीय मजदूरों की तुलना में कही अधिक लगता है चूँकि वहां अतीत में मजदूरों ने उपलब्धियां हासिल की हैं। यह मजदूरों के मनवीय जीवन का सवाल है जिसे न तो कोरियन सरकार की जी20 की शिखर मीटिंग की मेज़बानी के थोथे दिखावों से नापा जा सकता है अथवा न ही मात्रात्मक आर्थिक आंकडों से नापा जा सकता है। पूँजी चरित्र से ही अन्तर्राष्ट्रीय है। विभिन्न राष्ट्रीय पूँजियां सदा प्रतिस्पर्धा में तथा टकराव में रही हैं पर पूँजीवादी व्यवस्था को बनाये रखने के लिए, इसके संकट को छुपाने तथा इंसान के रूप मे मजदूरों पर हमलों के लिए उन्होंने सदैव तालमेल किया है। मजदूर पूँजीपतियों के खिलाफ नहीं बल्कि पूँजीवादी व्यवस्था के खिलाफ संघर्ष करते हैं जो केवल अपने मुनाफे को वढ़ाने के लिए तथा निर्बाध प्रतिस्पर्धा के लिए काम करती है।

ऐतिहासिक रूप से मार्क्सवादी हमेशा इतिहास के कर्ता मजदूर वर्ग के साथ मिलकर संघर्ष करते रहे हैं। यह वे मानवीय समाज के तथा सामाजिक व्यवस्थाओं के ऎतिहासक नियमों का चरित्र उज़ागर करके करते हैं और करते हैं असल मानवीय जीवन की दुनिया की ओर राह दिखा कर तथा अमानवीय व्यवस्था तथा कनूनों की अडचनों की निन्दा करके।

इस कारण उन्होंने पारटियों जैसे संगठनों का निर्माण किया तथा व्यवहारिक संघर्षों मे शामिल हुए। कम से कम दूसरे विश्व्युध के समय से मार्क्सवादियों की ऎसी व्यवहारिक गतिविधियों को कभी न्यायिक प्रतिबन्ध का सामना नहीं करना पडा। इसके उल्ट, उनके विचार तथा व्यवहार मानव समाज के विकास में योगदान के रूप मे अति मूल्यवान माने जाते रहे हैं। मार्क्स की पूँजी अथवा कम्युनिस्ट घोषणापत्र जैसी श्रेष्ट कृतियां बाइबल से अधिक पढ़ी जाती रही है।

एसडब्ल्यूएलके (SWLK) का यह मुकदमा ऎतिहासिक है जो विचारों के दमन को समेटे कोरियन समाज का बर्बर चरित्र समूची दुनिया को दिखाता है; यह दुनिया में समाजवादियों पर मुकदमों के इतिहास में गन्दा साबित होगा। भविष्य में अधिक खुले तथा व्यापक समाजवादी आंदोलन होंगे, दुनियाँ में तथा कोरिया में मर्क्सवादी आंदोलनों का शक्तिशाली विकास होगा। कनूनी ढ़ांचा संगठित हिंसा के  मसलों से निपट सकता है पर वह समाजवादी आंदोलनों, मार्क्सवादी आंदोलनों को नहीं दबा सकता। चूँकि वे तब तक जारी रहेंगे जब तक मानवता तथा मजदूर विद्यमान रहेंगे।

समाजवादी आंदोलन और उसका व्यवहार कनूनी सज़ा का भागी नहीं हो सकता। इसके विपरीत, वह सम्मान तथा विश्वास के लिए उदाहरणा होना चाहिये। मेरे समापन के शब्द यह हैं:

  • - राष्ट्रीय सुरक्षा कनून को भंग करो जो विचारों की, विज्ञान की तथा अभिव्यक्ति की आज़ादी का दमन करता है!
  • - मजदूर संघर्षों के खिलाफ, उन्हें इतिहास का, उत्पादन का तथा ताकत का कर्त्ता बनने के खिलाफ पूँजी और ताकत का उतपीडन बन्द करो!
  • - दुनिया के मजदूरो, पूँजीवाद को मिटाने तथा मुक्त व्यक्तियों के समुदाय के निर्माण के लिए एकजुट हो!
  • -

फुटनोट

[1]ऒ सी चियोल, यान्ग हो सिक, यान्ग जुन सियोक, ऒर चोई यान्ग इक 7 साल की जेल में हैं जबकि नाम गुन्ग वोन, पार्क जुन सियोन, जियोन्ग, वोन हुन्ग ऒर ओ मिन इक 5 साल की सजा काट रहे है। अपने कठोरतम रूप में 'राष्ट्रीय सुरक्षा कानून' के तहत अभियुक्त को सजाए मौत तक का प्रवधान है।

2 देखें https://english.hani.co.kr/arti/english_edition/e_national/324965.html          

3https://en.internationalism.org/icconline/2006-north-korea-nuclear-bomb

4 See Hankyoreh: https://english.hani.co.kr/arti/english_edition/e_editorial/318725.html

5 https://www.youtube.com/watch?v=F025_4hRLlU

6हम हमारे पाठकों का ध्यान  भी लोरेन गोल्डनर द्वारा विरोध  की पहल की तरफ कराना चाहते हैं (https://libcom.org/forums/organise/korean-militants-facing-prison-08012011)। जबकि हम भी लोरेन की "लिखने में" मेल अभियान की प्रभावशीलता में शक के बारे में सहमत है , हम उसके साथ है कि "इस मामले पर सहमत है कि एक अंतरराष्ट्रीय सुर्खियों से इन अनुकरणीय जुझारूयों की अंतिम सजा पर एक प्रभाव हो सकता है। विरोध पत्र न्यायाधीश डू किम के इस पते पर भेजा जाना चाहिए: [email protected], (न्यायाधीश किम को अग्रेषित करने के लिए संदेश 17 जनवरी तक प्राप्त हो जाना चाहिए). 

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