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8 मार्च को फिर एक बार सभी नारीवादी समूहों ने अलग-अलग वाम धड़ों के रूप (खासतौर पर समाजवादी पार्टी) में हाज़िर परविर्तनवादी टुटपुँजिया गुटों के अशीर्वाद से अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस मनाया। एक बार फिर इस दिन को, जो महिला मजदूरों के संघर्ष को अभिव्यक्त करता है, पथभ्रष्ट करके उसे एक विशाल प्रजातांत्रिक और सुधारवादी छलकपट और धोखोधड़ी में बदल दिया जाएगा। जिस तरह बुर्जुआजी ने मजदूर दिवस (1 मई) का पूरी तरह से कायाकल्प करते हुए उसे राजकीय पूँजीवाद की संस्था की शक्ल दे डाली है।
परिवार निजी संपत्ति और राज्य की उत्पत्ति (1887) में एजेंल्स नारी के उत्पीड़न की निंदा कर चुके थे और उन्होंने दृढ़ता से इस बात की पुष्टि की कि मातृसत्तात्मक समाजों के खत्म होने और पितृसत्तात्मक समाज के उदय के साथ ही नारी सदा सदा के लिए 'पुरुष वर्ग' की 'सर्वहारा' बन गई। 1891 में अगस्त बेबेल ने नारी और समाजवाद में स्त्रियों की दशा पर किये गये एजेंल्स के कार्य के गहन ऐतिहासिक अध्ययन को जारी रखा है।
उन्नीसवीं शताब्दी के खत्म होने के बाद से ही नारी के शोषण का सवाल पूरी मानवता की मुक्ति के साथ-साथ सर्वहारा वर्ग के संघर्ष से जुड़ा सवाल रहा है। बीसवीं शताब्दी की नारकीय स्थितियाँ असहनीय होने पर सर्वहारा महिलाओं को मजबूर होकर सर्वहारा संघर्ष के मोर्चे पर कूदना पड़ा।
बीसवीं शताब्दी के सर्वहारा आंदोलन में महिलाओं के संघर्ष
मार्च 8 इसका प्रारम्भ है जब न्यूयार्क के कपड़ा मजदूरों ने 8 मार्च 1857 को प्रदर्शन किया, जिसे पुलिस द्वारा दबा दिया गया। हालाँकि प्रत्यक्ष तौर पर अमरीका के सर्वहारा आंदोलन से जुड़ा ऐसा कोइ अभिलेख मौजूद नहीं है जो इस घटना का प्रमाण दे।
सन् 1890 में क्लारा जेटकिन की प्रेरणा से मजदूर वर्ग की प्रमुख पार्टी एस.पी.डी. में जर्मनी में समाजवादी महिला आंदोलन उभरा। उन्होंने रोजा लुक्ज़मबर्ग के समर्थन से 'समानता' नाम की पत्रिका स्थापित की जिसने क्रांति के जरिये पूँजीवाद को उखाड़ उसकी जगह, विश्व कम्युनिस्ट समाज की नींव रखने की घोषणा की। दुनिया भर में, पश्चिमी यूरोप और संयुक्त राज्य दोनों में ही महिला मजदूरों ने शोषण की अमानुशिक परिस्थितियों के खिलाफ लामबंदी शुरू की। उन्होंने मुख्य रूप से काम के घण्टों में कभी करने, पुरुषों के बराबर मजदूरी देने, बाल मजदूरी का उन्मूलन तथा महिला मजदूरों के जीवन यापन की परिस्थितियों में सुधार की माँग रखी। इन आर्थिक माँगों के साथ-साथ उन्होंने राजनीतिक माँगें भी उठाईं, खासकर महिलाओं को वोट के अधिकार की मांग। (हालाँकि उनकी यह राजनीतिक माँग बाद में बुर्जुआजी के उस महिला आंदोलन में डुबो दी गई और उसमें खो गई जिसे 'नारीमताधिकारवादियों' के नाम से जाना जाता है)।
लेकिन खासकर 1907 से महिला मजदूरों और समाजवादियों ने खुद को पूँजीवादी बर्बरता, जो प्रथम विश्व युध्द की पूर्वसूचना थी, के खिलाफ संघर्ष के अगुआदस्तों मे पाया।
उसी वर्ष 17 अगस्त को क्लारा जेटकिन ने स्टुटगर्ट में पहले अंतर्राष्ट्रीय समाजवादी महिला सममेलन का एलान किया। पूरे यूरोप और संयुक्त राज्य से 58 प्रतिनिधियों ने इसमें शिरकत की और महिलाओं के वोट के अधिकार पर एक प्रस्ताव स्वीकृत किया। इस प्रस्ताव को एस.पी.डी की स्टुट्गर्ट काँग्रेस द्वारा स्वीकृत कर लिया गया। सदी के बदलाव पर, उस समय जब एक ही काम के लिए महिलाओं की मजदूरी पुरुषों की आधी थी, अनेक महिला संगठन और बहुत बड़ी तादाद में महिलाएँ सभी मजदूर संघर्षों में सक्रिय रूप से शामिल थीं।
सन् 1908 और 1909 में न्यूयार्क श्हर में कपड़ा-मिल मजदूर महिलाओं के बड़े-बड़े आंदोलन हुए। 'रोटी और गुलाब' की मार्फत भूख से सामूहिक मुक्ति और खुश्हाल जीवन की परिस्थितियाँ, बाल मजदूरी उन्मूलन और बेहतर मजदूरी की माँगे उन्होंने रखीं।
सन् 1910 में महिलाओं की सोशलिस्ट इंटरनेशंल ने शांति के लिए एक अपील जारी की। 8 मार्च 1911 को अंतर्राश्ट्रीय महिला दिवस पर यूरोप भर में एक लाख महिलाओं ने अनेक प्रदर्शन किये। कुछ दिन बाद 25 मार्च को न्यूयार्क की ट्रायंगल कपड़ा फैक्ट्री में लगी भीष्ण आग में फैक्ट्री में सुरक्षा उपायों की कमी के कारण 140 से ज्यादा महिला मजदूरों की जलकर मौत हो गयी। महिलाओं के शोषण की भीषण परिस्थितियों और उनको उनकी राजनीतिक स्वतंत्रता से वंचित करने के बुर्जुआ संसदीय प्रयासों के खिलाफ विद्रोह को इस घटना ने और अधिक धधका दिया। 1913 में दुनिया भर की महिलाएँ वोट के अपने अधिकार की माँग को उठा रहीं थीं। ब्रिटेन में बुर्जुआ 'नारीमताधिकारवादी' भी कुछ ज्यादा ही उग्र रवैया अपना रहे थे।
लेकिन जारशाही रूस में खासकर महिलाओं के संघर्ष ने समस्त मजदूर वर्ग के क्रांतिकारी आंदोलन को प्रेरणा व दिशा प्रदान की। 1912 और 1914 के दौरान रूसी महिला मजदूरों ने गुप्त सभाएँ आयोजित कीं और साम्राज्यवादी हत्याकांडों पर अपना विरोध दर्ज किया। युध्द भड़कने के बाद यूरोप भर की महिलाएँ उनसे मिल गईं।
1915 में फ्रांस की सेना ने युध्द के मोरचे पर कार्यवाही में शात्रु खेमे के 3,50,000 सैनिकों का कत्ले-आम किया। पीछे देश की अर्थव्यवस्था को निरंतर गतिमान बनाये रखने के लिए महिलाएँ बढ़ते शोषण का शिकार बनीं। उनका गुस्सा भड़क उठना स्वाभाविक था इसलिए इस दिशा में महिलाएँ सबसे पहले सक्रिय हुईं। मार्च 8, 1915 को अलेग्जेंड्रा कोलोन्ताई ने ओस्लो के पास क्रिस्ट्रियाना में युध्द के खिलाफ महिलाओं का एक प्रदर्शन आयोजित किया। क्लारा जेटकिन ने महिलाओं का एक नया अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन बुलाया। यह सम्मेलन वास्तव में उस जिमरवाल्ड सम्मेलन की पूर्व प्रस्तावना थी जिसने युध्द के विरोधियों को दोबारा एकजुट किया। 15 अप्रैल 1915 को 12 देशों की 1136 महिलाएँ ला हाये में इकट्ठा हुईं।
जर्मनी में खासतौर पर 1916 में पश्चिम के मजदूर आंदोलन की दो महानतम् महिला शख्सियतें, क्लारा जेटकिन और रोज़ा लुक्ज़मबर्ग ने जर्मन कम्युनिस्ट पार्टी, के.पी.डी., की नींव रखने में निर्णायक भूमिका अदा की। संयुक्त राज्य में ऐमा गोल्डमेन नाम की अराजकतावादी उग्रपंथी (अमरीकी कम्युनिस्ट पार्टी के संस्थापक और पत्रकार जॉन रीड की मित्र) महिला ने साम्राज्यवादी युध्द के खिलाफ एक चुनौतिपूर्ण आंदोलन चलाया। 1917 में रूस खदेड़ दिये जाने से पहले उसे जेल में डाल दिया गया था। इतना ही नहीं उसे अमरीका की सबसे खूँखार और खतरनाक महिला घोषित कर दिया गया।
रूस में महिला मजदूर ही थीं जिन्होंने सर्वहारा वर्ग के क्रांति मार्च का नेतृत्व किया। मार्च 8 (जार्जिया के कलेंडर के मुताबिक फरवरी 23) को पेट्रोग्राद की कपड़ा कारखानों की महिला मजदूरों ने हड़ताल कर डाली और सैलाब की तरह सड़कों पर उतर आईं। 'रोटी और शांति' उनकी मांग थी। महिला मजदूरों ने युध्द के मोर्चे से अपने बेटों और पतियों को वापिस बुलए जाने की मांग की। "हमारे निर्देशों का उल्लंघन करते हुए अनेक मिलों की महिला मजदूर हड़ताल पर चली गईं और इंजीनियरिंग महकमे के मजदूरों का समर्थन जुटाने एक प्रतिनिधिमण्डल उन्होने भेजा। एक भी मजदूर को यह अनुभव नहीं हुआ कि यह क्रांति का पहला दिन होगा"। (ट्राटस्की-रूसी क्रांति का इतिहास) इसलिए 'रोटी और शांति' के नारे ने रूसी क्रांति के लिए एक चिंगारी का काम किया जिसकी पहल पेट्रोगाद की महिला मजदूरों ने की। और इसका ही असर था कि पुतीलोव कारखानों के मजदूर और समूचा मजदूर वर्ग इस आंदोलन में एकजुट शामिल हुए।
नारी आंदोलन का बुर्जुआ जनवाद द्वार समावेशन
12 नवम्बर 1918 को युध्द विराम संधि हो जाने के ठीक एक दिन बाद महिलाओं को वोट का अधिकार देना जर्मन बुर्जुआजी के लिए जुए का एक दांव न था। बल्कि यह तो उनका पूर्व नियोजित एजेंडा था। क्योंकि इसमे कोई आश्चर्य नहीं कि जिस देश में अंतर्राश्ट्रीय समाजवादियों के आंदोलन में रोजा लक्ज़मबर्ग और क्लारा जेटकिन जैसी महानतम् जुझारू व लड़ाका (मिलिटेंट) महिला शख्सियतों का बोलबाला हो और जहाँ पूरी संसद मजदूर वर्ग के लिए ढोल की पोल बन गई हो, वहाँ उनकी इस क्रांतिकारी फौलादी हिम्मत को तोड़ने के लिए शासक वर्ग भला वोट के अधिकार का बतौर सौदेबाजी, इस्तेमाल करने से पीछे कैसे हट सकता था। पूँजीवाद के अपनी पतनशीलता की अवस्था में प्रवेश के साथ न तो किसी सुधारों के और न ही वोट के अधिकार के लिए बल्कि सिर्फ पूँजीवादी व्यवस्था को उखाड़ फैंकने के लिए लडना ही व्यवहारिक रह जाता है।
पहले विश्वयुध्द ने इतिहास के जिस नये काल का शिलान्यास किया वह था, ''युध्द और क्रांतियाँ'' का, जैसा कि 1919 की इंटरनेशनल ने घोषित किया।
1920 के प्रारम्भिक दोर में महिला आंदोलन ने सर्वहारा संघर्ष की दिशा को जरूर अपनाया लेकिन बहुत जल्द ही वह अधोगति का शिकार हो गया और शीघ्र ही उसे पूँजीवादी राज्य द्वारा निगल लिया गया। जिस सर्वहारा आंदोलन से वह पैदा हुआ था, उससे एकदम भिन्न और पृथक हो वह अपने ही स्त्रोत-वर्ग के विरोध में जा खड़ा हुआ। जिसने मिल व फक्ट्रियों में काम करने वाली महिलाओं के यौन उत्पीड़न व शोषण की परिस्थितियों के संबंध में स्वतंत्र रूप से यह भ्रमपूर्ण मिथ्या प्रचार किया कि शोषण पर टिकी और मुनाफे की फिराक में तिकड़म व साजिशों वाले समाज में भी नारी की मुक्ति संभव है। खासकर संयुक्त राज्य में 1920 के प्रारम्भ से ही महिला मुक्ति आंदोलनों ने अपना ध्यान मुख्य रूप से संतति निरोध और गर्भपात अधिकारों पर ही केन्द्रिकत किया।
1920 के मध्य से जर्मनी में महिला आंदोलन बड़ी तेजी से पटरी से उतरकर नाजीवादियों के खिलाफ शुरू हुए संघर्ष की बलि चढ़ गया। यूरोप के दूसरे देशों में खासकर फ्रांस और स्पेन में फासिस्ट विरोधी लड़ाई में अपना हद तक शोषण कराने के बावजूद महिलाएँ वोट के अपने अधिकार की माँग करते थक नहीं रही थीं। उन्हें जरा भी इल्म नहीं था कि बुर्जुआजी द्वारा दूसरे विश्व युध्द में लाखों की संख्या में सर्वहारा हलाल होने के लिए सेना में भर्ती कर लिए जाएँगे।
फ्रांस में महिला आंदोलन को बहुत जल्द ही पूँजीवादी राज्य में व्याप्त तरह-तरह के दलालों जेसे यू.एफ.सी.एस. और केथोलिक महिला संगठनों द्वारा हथिया लिया गया जिनका उद्देश्य था अपने बुर्जुआ हितों की रक्षा के लिए सिर्फ उपनिवेश्वाद और फासिज्म की मुखालफत करना, न कि समूची पूँजीवादी व्यवस्था का विरोध।
हालाँकि फ्रांस के संविधान में महिला मताधिकार को स्थान नहीं दिया गया था, बावजूद इसके लयोन ब्लम ने महिलाओं को सरकार में पहले पहल प्रवेश कराया। 4 जून 1936 को तीन महिलाओं को राज्य का अवर सचिव बनाया। वामपंथी पूँजीवादी पार्टियों की मिलीभगत में इस कदम को एक परिवर्तन की तरह पेश् किया ताकि बड़ी संख्या में महिलाओं को लोकप्रिय जन मोर्चे के झण्डे तले लाकर उन्हें दूसरे विश्व्युध्द की तैयारियों में लगाया जा सके।
युध्द कार्यवाही के खिलाफ बहुत बड़ी तादाद में महिलाएँ खासकर पी.सी.एफ. के स्टालिनवादियों के झण्डे तले प्रतिरोध में शामिल हुईं। डी.गॉल ने आखिरकार 23 मार्च, 1944 को मताधिकार देकर उनकी इस 'बहादुरी' और 'देशभक्ति' के लिए ईनाम प्रदान किया ताकि महिलाएँ दक्षिणपंथी या वामपंथी दोनों में से किसी एक शोषक को अपने लिए चुन सकें।
फ्रांस में महिला मताधिकार हासिल करने के तुरन्त बाद अपनी अंधदेशभक्ति के साथ पेरिस की मुक्ति में पी.सी.एफ. खूब महिमामय हो रही थी। 1945 के युध्द में जिन महिलाओं ने श्त्रु सैनिकों के साथ यौन संबंध बनाये उन्हें इस जुर्म की सजा के बतौर गंजा कर दिया गया। उन्हें देश के तिरंगे (फ्रांस का राष्ट्र ध्वज) को कलंकित करने का और दुश्मन की साजिश में 'साझीदार' होने का दोषी माना गया । ऐसी महिलाओं को जबरदस्ती सरेआम जनता में घुमाया जाता था और उनकी खूब खिल्ली उड़ाई जाती थी।
नारीवाद: एक यौनवादी और प्रतिक्रियावादी विचारधारा
1970 के प्रारम्भ में महिला आंदोलन में सर्वहारा आंदोलन की एक भी विशेषता शेष नहीं रह गयी थी। महिला मुक्ति आंदोलन की नई आवाज था नारीवाद, जिसने महिलाओं के राजनीतिक पार्टियों में शामिल होने के विचार को सिरे से नकार दिया। नारी विरोधी होने के नाते नारीवादियों की बैठकों में पुरुषों का प्रवेश वर्जित था। यह आंदोलन अपने को एकदम 'स्वायत' मानता था और इसने इस मिथ्या धारणा को मजबूत किया कि केवल महिलांयें ही उत्पीडत हैं, पूँजीवादी व्यवस्था द्वारा नहीं, बल्कि पुरुषों द्वारा। उन्होंने यौनवादी नजरिये को पुष्ट किया जिसके चलते उन्होंने न सिरफ पुरुषों के समान अधिकारों की माँग की बल्कि पुरुषों को अपना शत्रु और वास्तविक उत्पीड़क माना। बहुत से नारीवादियों ने महिलाओं के उत्पीड़न की आर्थिक बुनियादों पर बहुत ही कम बल देते हुए मात्र उनकी यौन मुक्ति की खातिर डॉन क्विक्साटिकी आंदोलन को हाथ में लिया। सर्वहारा आंदोलन के भीतर महिलाओं के संघर्ष की जो परम्परा रही है नारीवादी आंदोलन उससे पूरी तरह अलग है। और वह टुटपुँजिया की एक प्रतिक्रियावादी विचारधारा में बदल गया जिसका कि कोई ऐतिहासिक दृष्टिकोण नहीं है, और जो मई 68 की सड़कों पर फला-फूला। यह महज़ इत्ताफाक़ नहीं है कि उसी हल्के बैंगनी रंग को इन्होंने अपने प्रतीक के लिए चुना जिसे बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ में नारीमताधिकारवादियों ने अपने लिए चुना था। 1975 में इन नारीवादियों ने उन वेश्याअओं को भी सम्मिलित कर लिया जो पुलिस दमन से मुक्त खुली छूट देह व्यापार के अधिकार की माँग कर रही थीं।
पूँजी की सेवा में रचा गया प्रपंच
सन् 1977 में संयुक्त राष्ट्र संघ ने अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस को सरकारी तौर पर मान्यता प्रदान की और उसने इस आश्य का एक प्रस्ताव पारित किया कि प्रत्येक राष्ट्र इस दिन को महिला अधिकारों के लिए समर्पित करे और अंतर्राष्ट्रीय शांति दिवस के रूप में इसे मनाये। साम्राज्यवादी लुटेरों के गढ़ राष्ट्र संघ के शांति के प्रस्तावों से जो मकसद पूरा होता है। वह महान प्रजातांत्रिक ताकतों की अगुवाई में, जो राष्ट्र संघ में जमी बैठी हैं, हुए सामूहिक कत्लेआमों के बहुत से उदाहरणों से साफ है। अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस वास्तव में सर्वहारा वर्ग की महिलाओं के खिलाफ पूँजीपति वर्ग का एक साजिश है, जिसका एक मात्र मकसद है पूँजीवादी शोषण के खिलाफ संघर्षरत सर्वहारा महिलाओं की चेतना को गुमराह कर भटकाना।
फ्रांस में मितरां के राष्ट्रपति रह्ते हुए वामपंथी (खासकर समाजवादी पारटी) नारीवादी विचारधारा के मुख्य वकील बने। 1982 में मौयरे सरकार के तहत, उसके महिला अधिकारो के मंत्री के साथ, मार्च 8 बुर्ज़ुआ जनवादी राज्य का एक निकाय बना।
तभी से पूँजी के हर वामपंथी धड़े ने नारीवादी सगठनों और नारीवादी लेखकों की जो फौज खड़ी की है, उसने सर्वहारा महिलाओं की वर्गीय पहचान को उन 'साधारण' महिलाओं में गड्डमड्ड करने में अपना योगदान दिया है। जहाँ समाज के सभी स्तरों और वर्गों की महिलाएँ अपने-अपने वर्गभेद भुलाकर 'भीड़' के रूप में इस बुर्जुआ आंदोलन में शरीक होती हैं।
आज के चुनाव प्रचार (अमरीका में हिलेरी क्लिंटन का राष्ट्रपति पद के लिए उम्मीदवार होना और फ्रांस में संगोलीन रॉयल की उम्मीदवारी) हमें बहलाने-फुसलाने का तरीका हैं कि हम उनकी इस बात पर यकीन कर लें कि सरकार की बागडोर एक महिला के हाथ में आ जाने से सर्वहारा वर्ग पर बर्बर अत्याचारों का सिलसिला खत्म हो जाएगा। वे हमें इस बात पर भी यकीन करने को कह रहे हैं कि महिला शासक के शासनकाल में युध्द कम होंगे, क्योंकि महिलाएँ प्राय: कम हिंसक होती हैं, उनमें मानवता अधिक होती है और पुरुषों के मुकाबले अधिक शांतिप्रिय होती हैं। यह शोषण का मृदुलीकरण है।
यह कोरी बकवास है और शुध्द रूप् में धोखा है। पूँजीवादी प्रभुत्व यौन की नहीं बल्कि सामाजिक वर्ग की समस्या है। राज्य की बागडोर जब भी बुर्जुआ महिलाओं के हाथों में आई है, उन्होंने अपने पूर्ववर्ती पुरुष शसकों की पूँजीवादी नीतियों को अपनाया और लागू किया है। ये सभी महिला शासक उस लौह महिला मार्गरेट थेचर के नक्षेकदम पर चलेंगी जिसे सन् 1982 के फॉकलैन्ड युध्द का नेतृत्व करने के लिए याद किया जाता है। और याद किया जाता है आई.आर.ए. के उन 10 कैदियों को मरने देने के लिए जिन्होंने राजनीतिक कैदियों के दर्जे की माँग में भूख हड़ताल की थी। (भारत में पूर्व प्रधानमंत्री इन्दिरा गाँधी और दलित मुख्यमंत्री मायावती इसी के ज्वलंत उदाहरण हैं।) इन सभी का बर्ताव एक जैसा ही है जैसे कि सरकोजी की सहयोगी महिलायें मिचिल एलियट-मैरी, राचिडा डटी, वलेरी पैक्रीज या फिर फदेला अमारा। राष्ट्र की अर्थव्यवस्था के प्रबंधन में लिंग भेद बुर्जुआजी के लिए कभी रुकावट नहीं बना है। और मालिकों के संगठन की साहेब लारेंस परीसोत ने भी अपने पूर्ववर्ती दबंग 'पुरुष' सहेबों की तरह ही बुर्जुआजी की बहुत अच्छी तरह सेवा की है।
1917 में अक्टूबर क्रांति के तत्काल पहले लेनिन ने लिखा था - "उनके जीवन काल में महान क्रांतिकारियों को उत्पीड़क वर्गों ने बराबर डराया-धमकाया व सताया है और उनकी शिक्षाओं का सामना सदा भीषण कपट, प्रचण्ड नफरत तथा झूठ के और कलंकित करने के अनैतिक अभियानों से किया है। लेकिन उनकी मृत्यु के बाद रातोंरात धो-पोंछकर उन्हें निरीह बुतों मे बदलने, संतों के रूप में स्थापित करने तथा उंनके नामों को आभामंडल से घेरने के प्रयास किये जाते हैं। ताकि दबे-कुचले वर्गों को संतावना दी जा सके तथा उन्हें धोखा दिया जा सके। इसके साथ ही उनकी क्रांतिकारी शिक्षांओं को नपुंसक बना दिया जाता है, उसकी धार कुठित कर दी जाती है और उसका एक विकृत, भौंडा रूप स्थापित किया जाता है"। (राज्य और क्रांति)
जैसा क्रांतिकारियों के साथ हुआ वैसा ही 1 मई के साथ भी हुआ है। और मार्च 8 (अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस) का हश्र भी 1 मई जैसा ही हुआ है।
उन प्रतीकों को जो पहले मज़दूर वर्ग को प्राप्त थे उसी के खिलाफ मोडने की बुर्जुआज़ी की क्षमता शासक वर्ग की हैसियत से उसका एक अत्याधिक घिनौना हथियार है। यूनियनों और मजदूर पार्टियों के साथ भी उसने यही किया, और मई 1 तथा अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के साथ भी।
प्रागितिहास के अंत समय से ही जुल्म और अत्याचार हमेशा महिलाओं की जिंदगी का हिस्सा रहा है। लेकिन पूँजीवादी व्यवस्था के अधीन इस जुल्म व अत्याचार का उन्मूलन नहीं हो सकता। कम्युनिस्ट समाज के आने पर ही महिलाएँ इससे निजात व छुटकारा पायेंगी। लिहाजा सर्वहारा वर्ग के आम आंदोलन में अपनी मुस्तैद भागीदारी से ही वे खुद को स्वतंत्र कर सकती हैं और इसी में समस्त मानवता की मुक्ति भी है।
सिलवेस्टर, 12.02.2008