जनवरी 1991 का इराक युद्ध

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दुनिया के मजदूरों एक हो।                आईसीसी            मजदूरों का कोई देश नहीं होता।

पूँजीवाद जंग है

बर्बरता और विनाश के खिलाफ, विश्‍व सर्वहारा का वर्ग संघर्ष

मध्‍य पूर्व खौफ में लुड़क गया है। दूसरे विश्‍वयुद्ध के उपरान्‍त के सर्वाधिक दानवाकार शास्‍त्रागार ने एक महाविनाश छेड़ रखा है। पूँजीवादी व्‍यवस्‍था ने अपनी असल तस्‍वीर उजागर कर दी है। अकथनीय बर्बरता भरी एक तस्‍वीर। जिसमें टेक्‍नोलोजी के चमत्‍कार मौत और तबाही की सेवा में रत्त हैं। ‘शांति के नवयुग’ संबंधी सब भ्रम चकनाचूर हो गए हैं। तथा‍कथित ‘समाजवादी’ गुट के तथा शीतयुद्ध के मिट जाने ने सैनिक शत्रुताओं का अन्‍त नहीं किया है। सच बिल्‍कुल उलट है। पूँजीवाद के ‘जनवादी’, ‘फासीवादी’ अथवा समाजवाद के लबादों में लिपटे ‘स्‍तालिनवादी’ रुप, युद्ध सबके रक्‍त में समाया हुआ है। इस सदी के शुरू से दो विश्‍व नरसंहारों ने यह सिद्ध कर दिखाया है।

सद्दाम, बुश और जोड़ीदार वे सब कातिल और लुटेरे हैं

पश्चिम के ‘महान प्रजातंत्रो’ की सरकारें हमें बताती हैं कि यह हत्‍याकाण्‍ड उन्‍होंने ‘अन्‍तर्राष्‍ट्रीय कानून’ खातिर छेड़ा है। वे नीच और पाखण्‍ड़ी हैं। बुश ने 10000 लोगों को मारकर जब पनामा पर चढ़ाई की, या इजरायल ने जब ‘काबिज इलाके’ हड़पे, या सीरिया ने अभी कल ही जब लेबनान को दबोचा, तब यह ‘कानून’ उन्‍होंने अपनी जेब में डाले रखा।

ये ही बदमाश अब ‘कानून’ की मर्यादा की बात करते हैं। पर कैसा कानून ?  जंगल का कानून, गिरोहबाजों का कानून, पूँजीवाद का कानून।

नीचतम स्‍तर के अपराधी, तसीहे देनेवाले खूनी सद्दाम हुसैन ने जब कुवैत के मोटे खजाने को लूटा तो उसने छुटभैये लुटेरे का काम किया। अराफत की मदद से आज वह ‘दबी कुचली अरब जनता’ का झण्‍डा बरदार बन रहा है। ‘दबी कुचलों’ का क्‍या बढि़या रक्षक है। अपनी सत्ता बरकरार रखने के लिए उसने आतंक का तथा बड़े पैमाने पर कत्‍लेआम का, जैसा ‘अपने’ कुर्दस्‍तान में उसने रसायनिक हथियारों से किया, सहारा लिया।

जो आज ‘मध्‍य पूर्व के हिटलर की, ‘बगदार के बूचढ़’, की निन्‍दा करते है; हिरोशिमा में, कोरिया में, वियतनाम में, अफगानिस्‍तान में...अति विशाल पैमानों पर नरसंहार करते वे कभी तनिक नहीं झिझके। आज के ‘मित्रों’ ने तथा रूस ने ही सद्दाम को हथियारों से लैस किया। जब तक इरान से निपटने के लिए वह उनका गुर्गा था, उन्‍होंने परवाह नहीं की। 1989 में, वे उसे ‘शांति का चाहक’ कह रहे थे।

पूँजीवाद बर्बरता तथा खौफनाक अन्‍धेरगर्दी है।

असल में, ये सब बदमाश उस व्‍यवस्‍था के ‘सुयोग्‍य सुपुत्र’ हैं जो आज धरती पर छाई हुई है। एक व्‍यवस्‍था जिसने तीन चौथाई मानवता को घोर गरीबी, भुखमरी तथा निरन्‍तर मारकट में  झोंक रखा है। जो सबसे धनी देशों में भी करोड़ों इन्‍सानों को आज सड़कों पर ला फेंक रही है। एक व्‍यवस्‍था जिसने अकल्‍पनीय बर्बरता व भयंकर अन्‍धव्‍यवस्‍था को जन्‍म दिया है।

अपनी राक्षसी फौजी ताकत से निरन्‍तर प्रहार करते अमेरिका और उसके जोड़ीदार अन्‍धेरगर्दी को रोकने की बात करते हैं। पर ‘उदाहरण पेश करने’ के लिए वे कितने भी कतल कर लें, इस कतलेआम से कोई ‘नई विश्‍व व्‍यवस्‍था’ नहीं उभरनेवाली। ‘शांति की जीत के लिए जंग’, झूठ जितना घिनौना है उतना ही पुराना भी। शासक वरगों ने जब पहली विश्वयुद्ध का नरसंहार रचा तो इसे ‘सब जंगों के खात्‍मे की जंग’ कहा। बीस बरस बाद किया गया हत्‍याकाण्‍ड और भी भयंकर था। और इसके अन्‍त में ‘प्रजातंत्र’ तथा ‘सभ्‍यता’ की जीत के दावे हुए। पर तबसे जंगें निरन्‍तर होती रही हैं।

जंगें ‘खराब नेताओं’ की ‘गलती’ नहीं। एक हल न होने वाले आर्थिक संकट के चंगुल में फंसे पूँजीवाद का वे एकमात्र जवाब हैं; संकट, जिसने राष्‍ट्रों की आपसी प्रतिस्‍पर्द्धाओं तथा शत्रुताओं पर से सब अंकुश हटा दिए हैं। संकट जितना ही गहरा रहा है, पूँजीवाद उतना ही अधिक बर्बर जंगखोरी में लोट लगाएगा।

कोई शांति संभव नहीं है पूँजीवाद तले

केवल मजदूर वरग ही जंग के खिलाफ डट सकता है

सदा की तरह आज भी साम्राज्‍यवादी जंग के पहले शिकार शोषित, खासकर मजदूर हैं। खाड़ी में विभिन्‍न देशों के वर्दीधारी मजदूरों को ही गोला बारूद बनाया जा रहा है। हर देश में मजदूरों को ही कीमत चुकानी पड़ रही है, अपने जीवन हालातों में भयंकर गिरावट के रूप में।

पर जंग में मजदूर केवल मुख्‍य शिकार ही नहीं। वे ही वह एकमात्र शक्ति है जो इस महाविनाश से असल में टकरा सकती है।

रूस में 1917 में और जरमनी में 1918 में मजदूरों के इंकलाबी संघर्षों ने शासक वरग को पहला विश्वयुद्ध खतम करने को मजबूर किया।

मजदूर दूसरा विश्‍वयुद्ध न तो रोक पाए, न खतम कर पाए। कारण ? वे पहले ही स्‍तालिनवादी प्रतिक्रांति के हाथों पिट गए थे। उन्हें फासीवाद द्वारा आतंकित अथवा ‘फासीवाद विरोध’, ‘लोकप्रिय मोरचो’ के नाम पर भरती कर लिया गया था। तीसरा विश्‍व हत्‍याकाण्‍ड नहीं हो पाया है क्‍योंकि पूँजीवादी संकट की धार के खिलाफ 1968 से उन्‍होंने विश्‍व पैमाने पर लड़ाईयां लड़ी हैं। शासक वर्ग के हर धड़े की कोशिश है मजदूरों की अपनी ताकत को उनसे छुपाए रखना:

  • यह पाखण्‍ड करके कि जंग और शांति तो दुनियां के नेताओं की ‘अक्‍लमन्‍दी‘ तथा ‘शुभइच्‍छाओं’ पर निर्भर है।
  • मजदूरों के गुस्‍से तथा चिन्‍ता को ‘शान्तिपूर्ण’ पूँजीवाद संबंधी भ्रमों की दलदल की ओर मोड़ना।

अतीत के समान आज भी, शान्तिवाद जंगखोर प्रचार का संगी है। आज हम फिर देख रहे हैं कि साम्राज्‍यवादी खूनखराबे को ‘शुभेच्‍छा वाले व्‍यक्तियों’ की एकता से नहीं रोका जा सकता। न ही मजदूरों, ‘जागृत’ पूँजीपतियों, पादरियों तथा फिल्‍म स्‍टारों के पवित्र गठबन्‍धन से। और न ही सरकारों से ‘अक्‍लमन्‍दी’ की मांग करते प्रदर्शनों द्वारा।

जो, खासकर वामपंथी, ‘अमेरिकी साम्राज्‍यवाद’ के खिलाफ संघर्ष के बहाने इराक की हिमायत करते हैं, वे केवल बारूद के रूप में इराकी शोषितों के उपयोग को उचित ठहराते हैं। वे ‘जनतंत्रों’ के नेताओं से कम अपराधी नहीं हैं।

इस सारे छलकपट का मकसद है मजदूरों को उस एकमात्र लड़ाई से विमुख करना जिसके जरिए ही जंग का मुकाबला किया जा सकता है – अपने वरग धरातल से विशाल तथा अटल संघर्ष, पूँजीवाद के विनाश के लिए तथा विश्‍व इंकलाब खातिर।

मजदूरों को शासक वरग के बेरहम खूँखार होते प्रहारों के खिलाफ अपने संघर्ष विकसित करने होंगे। हमें समझना होगा कि यह केवल शोषण के खिलाफ संघर्ष नहीं। पूँजीवाद को अपनी फौजी बर्बरता फैलाने से रोकने का भी यही एक तरीका है। कि उनके ये संघर्ष पूँजीवादी निज़ाम से आम मुठभेड़ की तैयारी हैं।  जिसका मकसद है पूँजीवाद को, गरीबी को, चौतरफी मारकाट तथा जंग को मिटाना।

  1. सब मजदूरों की अन्‍तर्राष्‍ट्रीय एकजुटता।
  2. शोषितों और शोषकों के, शिकारों और उनके जल्‍लादों के पवित्र गठबन्‍धन का नाश करो।
  3. राष्‍ट्रीय झन्‍डों तले एक दूसरे का गला काटने से मना कर दो।
  4. इससे पहले कि वह मानवजाति को मिटा दे, पूँजीवाद के विनाश के लिए अपनी शक्ति समेटो।

इंटरनेशलन कम्‍युनिस्‍ट करण्‍ट, जनवरी, 1991, सम्‍पर्क -- पोस्‍ट बाक्‍स नं: 25, एनआईटी, फरीदाबाद, हरियाणा

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