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“एक सहमति, फिर भी विरोध”; [1] “मौसम वार्ताओं में इज्ज़त बचाने के लिए आखिरी घड़ी में अफरातफरी”; [2] “ओबामा का मौसम संबन्धी समझौता टेस्ट में फेल” [3].. मीडिया का फैसला एकमत था : ‘ऐतिहासिक’ शिखर वार्ता असफलता में खत्म हुई थी।
हफ्तों पहले से ही मीडिया और राजनीतिबाज बड़ी-बड़ी बातें कर रहे थे कि मनुष्यता और इस ग्रह का भाग्य अब शिखर सम्मेलन के हाथों में है। सम्मेलन के पहले दिन फ्रांस, रूस, चीन, भारत और ब्रिटेन सहित दुनिया के 56 देशों के अखबारों ने एक साँझा सम्पादकीय निकाला जिसकी हेडलाईन थी – ‘‘वर्तमान पीढ़ी पर इतिहास के फैसले पर मुहर लगने में बस चौदह दिन बाकी’’। सम्पादकीय कहता है ‘‘कोपेनहेगन में इकट्ठा हुए 192 देशों के प्रतिनिधियों से हमारा अनुरोध कि वे हिचकें नहीं, विवाद में नहीं पड़ें, एक दूसरे पर दोष नहीं लगाएँ बल्कि राजनीति की महान अधुनिक असफलताओं से इस अवसर को छीन लें। यह न तो अमीर और गरीब विश्व के बीच की लड़ाई है और न ही पूरब और पश्चिम का झगड़ा है।’’ इनकी ये धर्मपरायण भावनाएँ भले ही किसी काम न आई हों, लेकिन सम्पादकीय में कुछ सच मौजूद है : ‘‘विज्ञान को समझना इतना आसान नहीं लेकिन तथ्य स्पष्ट हैं। पृथ्वी का तापमान दो डिग्री सी से ज्यादा न बढ़ने पाये इसके लिए दुनिया को कदम उठाने पड़ेंगे। एक लक्ष्य जिसकी पूर्ति के लिए जरुरी है कि ग्लोबल एमिशन उच्चतम सीमा पर पहुँच कर अगले पांच से दस वर्षों में गिरने लगें। पृथ्वी के तापमान में तीन से चार डिग्री सेंटीग्रेड की बढ़ोतरी, यह अल्पतम बढ़ोतरी है जिसकी आशा हम निष्क्रियता की स्थिति में कर सकते हैं, महाद्वीपों को सुखा डालेगी, हरी-भरी कृषि भूमि रेगिस्तान बन जाएगी। पृथ्वी पर वास करने वाली आधे से ज्यादा प्रजातियाँ हमेशा-हमेशा के लिए लुप्त हो जाएँगी, लाखों की संख्या में लोग विस्थापित हो जाएँगे और बहुत सारे देश समुद्र में डूब जाएँगे।’’ [4]
पूँजीवाद पह्ले ही पृथ्वी का विनाश कर रहा है
असल में, परिस्थिति इससे ज्यादा भयानक और गंभीर है। जलवायु-परिवर्तन [5] के कारण दो करोड साठ लाख लोग पहले ही विस्थापित हो चुके हैं। पृथ्वी के तापमान में एक डिग्री सेंटीग्रेड की बढ़ोतरी, जिसके लिए जरुरी है वातावरण में से कार्बन डाईआक्साइड (सीओ2) को खत्म करना और जिसे नामुमकिन माना जाता है, का परिणाम होगा:
- पचास लाख लोगों के लिए पैदा फसलों को पानी मुहैया कराते ग्लेशियरों का पिघलना;
- हर साल तीन लाख लोगों का मलेरिया और डायरिया जैसी बीमारियों का शिकार होना;
- और दुनिया के अधिकतर कोराल की मौत।
तलहटी में बसे बहुत से द्वीपों तथा देशों का अस्तित्व खतरे में पड जाएगा। दो डिग्री सेंटीग्रेड की वृद्धि, जो एक स्वीकृत लक्ष्य बन चुकी है, उपग्रह के लाखों वाशिन्दों के लिए विनाशकारी सिद्ध होगी : ‘‘अमेजन रेगिस्तान और घास के मैदान में बदल जाएगा; वातारण में कार्बन डाईआक्साइड (सीओ2) के स्तर में वृद्धि दुनिया के महासागरों को इतना अम्लीय बना देगी कि महासागर में बची-खुची मूँगा चट्टानों के साथ-साथ हजारों किस्म की अन्य समुद्री प्रजातियों का जीवन संकट में पड़ जाएगा। पश्चिमी अंटार्कटिक में बिछी बर्फ की मोटी परत भराभरा कर डह जाएगी, आगामी सौ साल में ग्रीनलैण्ड में बिछी बर्फ की चादर पिघल जाने से महासागर के जल स्तर में सात मीटर से भी ज्यादा की बढ़ोतरी तय है। दुनिया के एक तिहाई जीवों का नामोनिशान हमेशा-हमेशा के लिए मिट जाएगा”।[6]
महासागरों के अम्लीकरण पर किये गये शोध के नतीजों को सम्मलेन में सार्वजनिक किया गया, वो दिखाते हैं कि औद्योगिक क्रांति से अब तक महासगारों में ऐसिडिटी, जो तब होती है जब सागरों द्वारा जज़्ब कार्बन डाईआक्साड (सीओ2) बढ़ जाती है, का स्तर तीस प्रतिशत तक बढ़ चुका है। जलवायु परिवर्तन के इस पक्ष के, जिसका अभी तक बहुत कम अध्ययन हुआ है, गहन नतीजे होंगे। “महासागर का अम्लीकरण अविकसित मछली तथा शैल मछलियों से, जो बेहद नाजुक और असुरक्षित होती हैं, शुरु समुद्री खाद्य भण्डारों को प्रभावित करती प्रतिक्रियाओं की एक श्रृंखला ट्रिगर कर सकता है। अरबों-खरबों डालर के मछली उद्योग को यह प्रभावित करेगा और दुनिया की सबसे गरीब आबादी के लिए भोजन का संकट पैदा करेगा। महासागरों के अधिकतर क्षेत्र मूँगा चट्टानों के रहने लायक नहीं रहेंगे और इस प्रकार खाद्यय सुरक्षा, पर्यटन, समुद्रीतटों की सुरक्षा तथा जैविक विविध्ता खतरे में पड़ जाएगी”।[7] फिर, सागरों के अम्लीकरण के स्तर को कम करने का इसके सिवा कोई रास्ता नहीं कि प्राक्रतिक प्रक्रियाओं को अपना काम करने दिया जाए, जो दसियों हजार साल ले लेंगी।
दुनिया के लिए खतरा बने पूँजीवाद के नियम
मानवीय गतिविधि ने हमेशा ही पर्यावरण पर प्रभाव डाला है। लेकिन अपने आरंभ से ही पूँजीवाद ने प्राक्रतिक जगत के प्रति ऐसी अवमानना दिखाई है जो उसके कारखानों, खदानों और खेतों में खून-पसीना बहाने वाले मनुष्यों के प्रति उसके तिरस्कार के समान है। उन्नीसवीं सदी में ब्रिटेन के औद्योगिक शहरों और कस्बों ने देश की आबादी, खासकर मजदूर वर्ग के स्वास्थ्य को अनदेखा करते हुए पर्यावरण में भयंकर गंदगी और प्रदूषण उड़ेला। हालिया अतीत में स्तालिनवाद ने रूस के बड़े-बड़े भूभागों को बंजर बना डाला जबकि आज चीन में जलधाराओं और भूमि के संदूषण को फिर दोहराया जा रहा। लेकिन इस बार दूषणकारी तत्व अतीत की अपेक्षा ज्यादा विषैले हैं।
यह परिस्थिति शासक वर्ग के इस या उस सदस्य की दुर्भावना या अज्ञान से नहीं बल्कि पैदा हुई है पूँजीवाद के मूलभूत नियमों से जिनका सार हमने अपने ‘इंटरनेशल रिव्यू’ के हाल के एक अंक मे प्रस्तुत किया है:
- ‘‘श्रम विभाजन और इससे भी ज्यादा उत्पादन पर मुद्रा तथा पूँजी का शासन जिसने मानवता को होड़रत्त अंतहीन इकाइयों में बाँट डाला है;
- यह तथ्य कि उत्पादन का लक्ष्य उपयोगी मूल्य नहीं बल्कि है विनिमय मूल्य, ऐसी वस्तुएँ जिन्हें हर हालत मे बेचना जरुरी है भले ही मुनाफे की प्रप्ति के लिए इन्सानियत और उपग्रह के लिए कितने ही घातक दुष्परिणाम क्यों न हों ? ’’[8]
मुनाफा और होड़ पूँजीवाद की चालक शक्तियाँ हैं जिसके दुष्परिणामों ने दुनिया के लिए खतरा पैदा कर दिया है। इसके विपरीत शासक वर्ग बताता है कि पूँजीवाद का आधार मनुष्य की जरूरतों को पूरा करना है। वे तर्क देते हैं कि पूँजीवाद जीवन की जरूरतों और विलासिताओं के लिए ‘उपभोक्ता माँग’ पर ध्यान देता है और वे करोडों लोगों द्वारा आय तथा जीवन स्तर में हासिल बेहतरी की ओर इशारा करते है। यह सच है कि पूँजीवाद ने उत्पादन के ऐसे साधनों को विकसित कर लिया है जिनकी अतीत में कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। बहुतों की जिंदगी में वास्तव में सुधार आया है खासकर विकसित देशों में। लेकिन यह तभी किया गया जब यह पूँजीवाद के असली मकसद - मुनाफा वसूली – के साथ मेल खाता था। पूँजीवाद एक ऐसी आर्थिक प्रणाली है जिसके लिए जरुरी है निरंतर विस्तार पाते जाना, अन्यथा यह ढह जाएगी : व्यवसायों के लिए फलना फूलना जरूरी है अन्यथा वे पिट जाएँगे और उनकी लाश उनके प्रतिद्वंद्वी नोंच डालेंगे; राष्ट्रीय राज्यों के लिए जरुरी है अपने हितों की हिफज़त करना अन्यथा वे अपने प्रतियोगीयोँ के मातहत बना दिए जाएँगे। चूँकि ऐसा शासक वर्ग को कभी बर्दाश्त नहीं होगा, अपनी अर्थव्यस्था अपने समाज और अपनी हैसियत को यथावत रखने के लिए वह किसी भी तरह की कुर्बानी दे सकता है। तभी तो खाद्यान्नों से पटे संसार में लाखों भूखे हैं, क्यों निश्स्त्रीकरण समझौतों और मानवाधिकारों की घोषणाओं के बावजूद चहुँ ओर कभी न खत्म होने वाले युद्ध जारी है; क्यों अर्थव्यवस्था को सहारा देने के लिए हाल ही में खरबों झौंक डाले हैं, जबकि लाखों लोग आज भी समुचित स्वास्थ्य और शिक्षा के अभाव में जीवन गुजार रहे हैं। तभी तो जलवायु परिवर्तन के ज़बर्दस्त साक्ष्यों के बावजूद बुर्जआजी इस ग्रह को सुरक्षित रख पाने में नाकामयाब है।
राष्ट्रीय होड़ के अखाड़े हैं अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन
पूँजीवाद के चालक नियम समाज के हर पहलू को प्रभावित करते हैं और अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन इससे अछूते नहीं है। ऐसे सम्मेलन, भले ही उनका घोषित उद्देश्य कुछ भी क्यों न हो और भले ही सामान्य हित दांव पर लगे हों, प्रतियोगी राष्ट्रों के बीच बढ़त हासिल करने के लिए धींगामुश्ती से ज्यादा कुछ नहीं होते। भव्य अनुष्ठान, मानवाध्किारों, गरीबी उन्मूलन तथा इस उपग्रह की सुरक्षा संबंधी बड़े-बड़े भाषण हमें धोखा देने के लिए लगाये गये मुखौटे भर हैं। इससे पहले रियो डि जेनेरिओ और क्योटो के समान, कोपेनहेगन सम्मेलन का लब्बोलुबाव भी यही है।
कोपेनहेगन में आर्थिक और साम्राज्यवादी दोनों हितों में टकराहट हुई और चूँकि जुडे होने के बावजूद ये एकरूप नहीं हैं, इसने परिस्थिति को और पेचीदा बना दिया जिसमे बदलते गठजोड़ तथा बदलते दृष्टिकोण देखने में आये।
सम्मेलन के दौरान और उसके बाद भी विकसित और विकासशील देशों के बीच तथाकथित टकराव की बात को बहुत तूल दिया गया। यह साफ है कि विकसित अर्थव्वस्थाओं के अपने कुछ सामान्य हित हैं, उसी तरह जैसे कॉफी या लोह अयस्क जैसी बुनियादी वस्तुओं की आपूर्ति करने पर निर्भर देशों के सामान्य हित हैं, पर इनकी एकता दीर्घजीवी नहीं हो सकती। यूरोपियन यूनियन इस सॉंझा समझौते के साथ इस सम्मेलन में आया है कि ग्रीन हाऊस गैसों के एमिशन में सन 2020 तक 20 प्रतिशत की कटौती की जाए और वार्ता अगर सही दिशा में हुई तो सुझाव था कि इसे 30 प्रतिशत तक ले जाया जाए। इस समूह में बड़े और छोटे दोनों ही औद्योगिक क्षेत्र वाली अर्थव्वस्थाऍं मौजूद हैं। बहुत सिकुड चुके औद्योगिक क्षेत्र वाला ब्रिटेन जरमनी, जिसका औद्योगिक क्षेत्र अभी अपेक्षतया व्यापक है, के मुकाबले अधिक महत्वकांक्षी लक्ष्यों को आगे बढ़ाने में अग्रणी है। वहीं भूतपूर्व पूर्वी ब्लॉक के पोलैंड सरीखे देश बीस प्रतिशत से अधिक की कटौती का विरोध करते हैं। सरकारी आँकड़ों के मुताबिक ब्रिटेन ने अपने लक्ष्य की पूर्ति भर ही नही की है बल्कि उसने महत्वपूण ढंग से सऩ 1990 के मुकाबले ग्रीन हाऊस गैसों के एमिशन को क्योटो के अपने साढ़े बारह प्रतिशत के लक्ष्य को पार किया है। सम्मेलन में गॉर्डन ब्राउन उच्च नैतिक धरातल अख्तियार करने तथा दुनिया का अगुवा नेता का रोल अदा करने मे उतावला नज़र आया। असल में ब्रिटेन का यह प्रदर्शन उसकी अर्थ्व्यवस्था में आये बदलावों का नतीजा है और इस तथ्य को प्रकट करता है कि एमिशन की गणना का आधार उपभोग की बजाय उत्पादन है : ‘‘गुजरे तीस वर्षों में ब्रिटेन की अर्थव्यस्था में आए संरचनागत बदलावों का परिणाम है महत्वपूर्ण अनौद्योगिकीकरण। परिणामतः, ब्रिटेन की अर्थव्वस्था की कार्बन तीव्रता में कमी आई है और ब्रिटेन बड़ी तादाद में उन उत्पादों का आयात करता है जिनका निर्माण अपेक्षाकृत कार्बन केंद्रित है। इसलिए ब्रिटेन का उपभोग अप्रत्यक्ष रूप से इन आयातों से जुडे एमिशन के लिए जिम्मेदार है। यदि आयातों और निर्यातों के संतुलन का हिसाब लगाए जाए, तो ब्रिटेन के घोषित एमिशन अप्रत्याशित रूप से अलग होंगे।’’[9] वास्तव में, वे 1990 के बाद से उन्नीस प्रतिशत की वृद्धि दिखाएँगे।[10] संक्षेप में ब्रिटिश पूँजीवाद ने अपने प्रदूषण का उसी तरह दूसरों को ठेका दे दिया है जैसे अपने उत्पादन का। साम्राज्यवादी स्तर पर, कर्ज़ संकट के वक्त की तरह इस सम्मेलन में भी ब्राउन की हताश गतिविधि का कारण है साम्राज्यवादी ताकत के रुप में ब्रिटेन के निरन्तर ह्रास की भरपाई की कोशिश।
अमरीका भी अनौद्योगिकीकरण हो रहा है और वह उन देशों में अपने उत्पादन का पुनर्स्थापन कर रहा है जहाँ खर्चे कम हैं। लेकिन एक विशाल औद्योगिक क्षेत्र अभी उसके पास है। इस क्षेत्र द्वारा भोगी प्रतियोगिता की गहनता का ही नतीजा है कि वह हर उस चीज़ का विरोध करने में सक्रिय है जो उसे लगता है उसे अपने प्रतिद्वंद्धियों के मुकाबले कमज़ोर कर देगी। यह एक वजह है कि क्यों अमरीका हमेशा ही व्यापारिक विवादों में उलझा रहता है और क्यों एक नया विश्व व्यापार समझौता करने के प्रयास बहुधा असफल रहे हैं तथा क्यों उसने क्योटो संधि पर हस्ताक्षर करने से इन्कार कर दिया। अपने प्रशासन के अंतिम वर्षो में बुश को मजबूरीवश स्वीकार करना पड़ा कि जलवायु परिवर्तन एक हकीकत है लेकिन अमरीका ने अपने लक्ष्य पेश किये और ज़ोर दिया कि चीन सरीखे देश भी कटौती करें। ओबामा के राज में लोकलुभावनी बातों के सिवा कुछ भी नहीं बदला है। अमरीका आज भी महत्वपूर्ण कटौतियों का तथा बाध्यकारी समझौतों का विरोध करता है, और आर्थिक व साम्राज्यवादी कारणों से वह ऐसा कुछ भी करने के सख्त खिलाफ है जिससे चीन को कोई लाभ हो।
‘विकासशील’ माने जाने वाले 132 देश सम्मेलन मे जी-77 के रुप मे एकजुट हुए। अपेक्षतया: छोटी अर्थव्यवस्थाओं और थोड़े उद्योगों वाले इन देशों का आम लक्ष्य था अधिकतम संभव वित्तीय सहायता के लिये ज़ोर लगाना। 400 बिलियन डॉलर प्रति वर्ष की वित्तीय सहायता की मांग उन्होंने सम्मेलन में रखी जबकि कुछ ने मांग रखी कि तापमान में अधिकतर वृद्धि 1.5 डिग्री सेंटीग्रेड से अधिक न हो। उन्होंने क्योटो संधि को बरकरार रखने की कोशिश की जोकि हस्ताक्षरकर्ता विकसित देशों से कार्बन एमीशन में कटौती की मांग करती है और जिसके बारे में बहुत से विकसित देशों की आशा है कि वह एक नये कोपेनहेगन समझौते में गुम हो जाएगी।
अब, जब वह दुनिया में सबसे अधिक ग्रीन हाउस गैसें पैदा करनेवाला देश बन गया, तो चीन उसके एमीशन को लेकर बहुत सारी ‘चिंताओं’ का निशाना बन गया है। उसकी अर्थव्यवस्था के तेज विकास ने भारी तादाद में धन उसकी ओर खींचा है और उसे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर एक बृहद् भूमिका अपनाने के सक्षम बनाय है। उसने बहुत से विकासशील देशों के साथ महत्वपूर्ण आर्थिक सम्पर्क कायम कर लिये हैं। वह ऐसी प्राथमिक वस्तुओं के उत्पादन का विकास करने में उनकी सहायता कर रहा है जो चीन को सप्लाई होती हैं तथा उसके उद्योग को जिंदा रखती हैं। दुनिया भर में अपने साम्राज्यवादी दबदबे के विस्तार के उसके चुपचाप परन्तु द़ृढ़ निश्चय प्रयासों की ज़ड मे उसकी यह बढती आर्थिक शक्ति ही है। अपने एमिशन पर किसी भी तरह की महत्वपूर्ण बंदिश स्वीकार करने का अर्थ है अपनी आर्थिक वृद्धि तथा राजनीतिक हैसियत को सीमित करने देना। इसलिए जहां उसने अपने उद्योगों की कार्बन तीव्रता (प्रति उत्पादन इकाई पर खर्च कार्बन की मात्रा) को कम करने का सुझाव पेश किया है, वहीं उसने किसी भी कटौती का तथा स्वतंत्र सत्यापन की अमेरिकी मांग का पुरजोर विरोध किया है। सम्मेलन में वह उसने सवयं को जी-77 से जोड़ा। इसके साथ ही वह बेसिक के रुप मे ज्ञात ब्राजील, दक्षिण अफ्रीका तथा भारत के उस ग्रुप का भी हिस्सा है जो सम्पन्न देशों नीतियों की मुखालफत करता है। इस ग्रुप के अन्दर, ब्राजील जैव ईंधन के प्रमुख उत्पादक के नाते अपना बचाव करता है बावजूद इस तथ्य के कि जैव ईंधन आवश्यक खाद्यय उत्पादन से उत्पादन को मोडता है।
सम्मेलन की छल-छदम भरी तिकडमें
सम्मेलन में प्रतिभागियों की तिकडमें, जिसमें शामिल थी भड़काऊ बयानबाजी और टकराव, उल्लेखनीय हैं। काम में लाया गया एक दांव था बडे पैमाने पर, और बहुत छिपा कर भी नहीं, दस्तावेजों का लीक हो जाना। जैसा कि एक पत्रकार ने टिप्पणी की: “खबरें लीक होना रोजमर्रा की बात थी जहां तक कि अंत मे यह एक बाढ़ बन गया (………..)। गोपनीय दस्तावेजों को जानबूझकर फोटो कापियर पर छोड़ दिया जाता था, अन्य पत्रकारों के हाथों में ठूंस दिये जाते थे अथवा बेव पर डाल दिये जाते थे। लोग उनके फोटोग्राफ लेकर उन्हें लगातार चारों ओर बांट रहे थे”।[11]
कांफ्रेंसों के तीसरे दिन पह्ला संकट तब फूटा जब तथाकथित ‘डेनिस पेपरज़’ सामने आए। शिखर सम्मेलन से पहले यह ‘सर्कल आफ कमिटमेंट’ के रुप मे ज्ञात एक गुप्त ग्रुप द्वारा लिखा गया था जिसमें अमेरिका तथा शिखर सम्मेलन का मेज़बान डेनमार्क भी शामिल थे। इस परचे ने, जिसकी कोइ औपचारिक हैसियत नहीं थी चूँकि इसका मसविदा यू एन के ढांचे के बाहर तैयार किया गया था, क्योटो संधि का तथा हस्ताक्षरकर्ताओं द्वारा एमिशन कटौती की उसकी कानूनी जरुरत का खात्मा कर दिया होता। इसने दो डिग्री सेंटीग्रेड की वृद्धि को सवीकार्य लक्ष्य के रुप में थोप दिया होता तथा फंडिंग व्यवस्थाओं को बदल दिया होता। मंशा थी इसे सम्मेलन पर उसकी आखिरी घडियों में, प्रत्याशित गतिरोध खडा होने पर, थोपना। जी77 देशों की तरफ से इसकी जबरदस्त मुखालफत हुई और उन्होंने विकसित देशों पर सम्मेलन का अपहरण करने तथा आपसी सहमतियां को उस पर थोपना का प्रयास करने का आरोप लगाया।
इसके बाद अनेक विकासशील देशों ने प्रस्ताव रखा कि वैश्विक तापमान की वृद्धि को 1.5 डिग्री सेंटीग्रेड से नीचे रखा जाए चूँकि इससे अधिक कोई भी वृद्धि टुवालु जैसे छोटे-छोटे द्वीपीय राज्यों का विनाश साबित होगी। प्रस्ताव ने कानूनन बाध्य कटौतियों पर सहमति की मांग की। इसका फौरन दूसरे देशों ने विरोध किया जिनमें चीन, सउदी अरब और भारत शामिल थे और इससे जी77 ग्रुप विभाजित हो गया। इस विवाद के कारण वार्ता का कुछ भाग कई घंटों तक स्थगित रहा।
आगामी दिनों में संयुक्त राष्ट्र संघ का एक संशोंधित टैक्सट प्रस्तुत किया गया और यह विवाद जारी रहा, पहले तो इस बात पर कि क्योटो समझौते को क्या एक अलग राह के रुप में रखा जाए या इसे नये समझौते में समाविष्ट कर लिया जाए, और दूसरा विकासशील देशों की सहायता के लिए फंडिंग के सवाल पर। फास्ट ट्रेक फंडिग और लम्बी अवधि की फंडिग के कई प्रस्तव सामने आए। ब्रिटेन सहित कई देशों ने जलवायु परिवर्तन संबंधी उपायों पर खर्च के लिए वित्तीय सौदों पर टैक्स (द टोबिन टैक्स) लगाने की पुरनी मांग दोहराई। संयुक्त राष्ट्र संघ की टैक्स्ट समझौते का एक प्रयास नज़र आती है जिसके मुताबिक विकसित देश तापमान वृद्धि को 2 डिग्री सेंटीग्रेड के नीचे रखने के लिए एमिशन में 25-45 प्रतिशत की कटौती करते हैं। विकासशील देशों के लिए भी एमिशन में 15-30 प्रतिशत की कटौती लाजिमी है, जबकि क्योटो समझौता अपनी जगह प्रभावी रहेगा। असल में विकसित देशों द्वारा प्रस्तावित कटौतियाँ निचले प्रतिशतों तक भी नही पंहुचती, जबकि समझौते की खामियाँ एमिशन को 10 प्रतिशत तक बढ़ने देंगी।
जैसे ही बातचीत दूसरे सप्ताह में पहुँची और सरकारों के अध्यक्ष अनुपलबध समझौते पर हस्ताक्षर करने पहुँचने वाले थे, टकराव उग्रतम हो गये और कुछ अफ्रीकी देशों ने तब तक उपस्थित न होने की धमकी दे डाली जब तक कि समझौते को बदल नहीं दिया जाता। क्योटो संधि के भविष्य पर उठे विवाद के चलते वार्ताओं का एक भाग तब तक फिर स्थगित रहा जब तक अन्तत: यह फैसला नहीं हो गया कि इसे जारी रखा जाएगा।
निगरानी के सवाल पर विवाद तब बढ़ गया जब अमरीका द्वारा रखी बाहरी जाँच की माँग का भारत और चीन ने विरोध किया। सप्ताह के मध्य तक अव्यवस्थाएँ किसी से छिपी नहीं थीं : सम्मेलन के सभापति ने इस्तीफा दे दिया और उसकी जगह डेनमार्क के प्रधानमंत्री को बिठाना गया, एमिशन कटौतियों, फंडिग और निरीक्षण संबंधी प्रस्ताव तथा प्रति-प्रस्ताव इधर-उधर आते जाते रहे, समझौते के यूएन के मसविदे के ढे़रों संशोंधन पेश किये जाने से व्यवहारत: गतिरोध की स्थिति पैदा हो गई। ऐसी अफवाह थी कि ‘डेनिश टैक्स्ट’ का एक संशोधित रूप पेश किया जानेवाला है जबकि जी77 ने एक जवाबी टैक्स्ट तैयार किया। जी77 में एक और फूट उस वक्त सामने आई जब इथोपिया के प्रधानमंत्री तथा सम्मेलन में अफ्रीकी राष्ट्रों के समूह के अध्यक्ष, मेलेस झेनावी ने पेशकश की कि वे ऐसा सौदा स्वीकार कर लें जिसके मुताबिक गरीब देशों को 400 बिलियन डॉलर की उनकी मूल माँग के बजाय 2020 तद 100 बिलियन डालर की वित्तीय सहायता दी जाएगी। लोगों ने यह कहते हुए उन पर आक्रमण किया कि वे अफ्रीकियों की जिंदगी और उम्मीदों का सौदा कर रहे हैं। यह ‘समझौता’ विकसित देशों के कई नुमाइंदों तथा झेनावी के बीच में गहन सौदेबाजी के बाद सामने आया। उसने इन इल्जामों को तूल दिया कि झेनावी दबाव के सामने झुक गए हैं और कि जो देश अपनी अधिकतर अर्थव्यवस्थाओं के लिए दूसरों की सहायता पर निर्भर हैं वे तिज़ोरी के धारक के साथ बहस की स्थिति में नहीं हैं। अंतत: संयुक्त राष्ट्र संघ का एक लीक हुआ दस्तावेज दिखाता है कि इन वार्ताओं में प्रस्तावित एमिशन कटौतियों का नतीजा तापमान में 3 डिग्री सेंटीग्रेड की बढ़ोतरी होगा।
सम्मेलन के आखिरी दिन से पहले, 100 बिलियन डॉलर की वित्तीय सहायता के लक्ष्य को अमेरिकी मंजूरी को एक बहुत बडी उपलब्धि के रुप में पेशा किया गया जिसने सम्मेलन में ओबामा की शिरकत की राह खोल दी थी। असल में यह मंजूरी चीन द्वारा बाहरी निरीक्षण की स्वीकृति की शर्त से जुडी थी जिसे चीन पहले ही खारिज़ कर चुका था, और पैसा मुख्यता गैर-सरकारी स्रोतों से आना था। आने के बाद ओबामा ने दोहराया के चीन निरीक्षण संबंधी अमेरिकी माँग को स्वीकार करे जिसका चीन ने क्रोधपूर्ण जवाब दिया और चीन के राष्ट्रपति हू जिनताओ ने ओबामा के साथ राष्ट्राध्यक्षों की बैठक में शामिल होने से मना कर दिया। सम्मेलन का अंत एक समझौता गांठने के हताशा प्रयासों मे हुआ - बहुत सारी टैक्स्ट घूम रही थीं, ओबामा तथा चीन के प्रधानमंत्री के बीच प्राइवेट बैठकें हुईं और वार्ताकार सुबह तक और फिर आखिरी दिन भी जुटे रहे। सम्मेलन के आखिरी घंटों में अमरीका, ब्रिटेन तथा आस्ट्रेलिया के एक समूह ने डेनमार्क के राष्ट्रपति को सम्मेलन के अध्यक्ष पद से जबरी हटा दिया तत्पश्चात सबसे अधिक शक्तिशाली देशों के एक छोटे से समूह के बीच एक समझौता गडा गया। समझौते की अंतिम टैक्स्ट आधी रात से कुछ समय पहले सामने आई और उस पर तत्काल उन लोगों ने, जो उससे बाहर रखे गए थे, हमला बोल दिया, उसे अंधेरे में किया गया एक सौदा तथा संयुक्त राष्ट्र संघ के खिलाफ एक तख्ता पलट करार दिया।
सम्मेलन का प्रारंभ हुआ समझौते के दो सौ पृष्ठों के एक मसविदे से जिसमें विस्तृत तथा विविध क्षेत्रों का समावेश था। सम्मेलन का अंत हुआ भविष्य संबंधी चन्द पृष्ठों की अस्पष्ट बयानबाजी तथा वादों से जिन्हें आखिरी रात में चन्द मुख्य खिलाडियों ने संयुक्त राष्ट्र संघ के अंतरराष्ट्रीय ढांचे, जिसकी वे दुहाई देते हैं, से बाहर गाँठा गया था। सम्मेलन का अंतिम कार्य समझौते के अस्तित्व को महज नोट भर करना था।
अंत में कोपेनहेगन सम्मेलन से एक उपलब्धि हाथ लगी : इसने दिखा दिया कि पूँजीपति वर्ग दुनिया के भविष्य को अपने हाथो मे रखने के काबिल नहीं और कि जब तक इस वर्ग को और इसकी समर्थित आर्थिक व्यवस्था पर झाडू नहीं फेर दी जाती तब तक न तो इंसानियत का और न ही पृथ्वी का कोई भविष्य है।
नार्थ 03-01-2010
संदर्भ
- फिनान्सियाल टाइम्स, 22 दिसंबर 2009
- गार्जियन 7 दिसंबर 2009
- इनडिपेंडेंट, 19 दिसंबर 2009
- गार्जियन 7 दिसंबर 2009
- Suffering the Science, Oxfam Briefing paper, July 2009.
- गार्जियन 19 दिसंबर 2009
- Ocean Acidification : The Facts. Europeon Association on Ocean Acidification (EPOCA) http:/www.epoca – projected/index.php/outreach RUG
- इंटरनेशनल रिव्यू 139 “The World on the Eve of an Environmental Catastrophe-II Who is Responsible?”
- UK Green House Gas Emission : Measurement and Reporting. National Audit Office, March 2009.
- To Good to be Time ? The U.K. Climate Change Record, Helm, Smale Phillips, Dec., 2007.
- गार्जियन आनलाईन, 20 दिसंबर 2009