मई 1991 का आम चुनाव

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मजदूरों का कोई देश नहीं होता।                                                                  दुनिया के मजदूरों एक हो।

संसदीय सरकस में मत उलझो।                                                                                  लड़ो। कड़की के कोड़ो के खिलाफ।

अव्यवस्‍था तथा अन्‍धेरगर्दी का राज

शासक-मालिक वर्ग ने 18 महीने में दूसरी बार फिर संसदीय महा-सरकस का आयोजन किया है। कांग्रेसी, भाजपा-हिन्‍दू परिषद, जनतादली और वामपंथी, उसके सब मज़मेबाज फिर सड़कों पर निकल आये है। धर्म निरपेक्षी तथा मन्दिर/मस्जिदवादियों ने शोषित आबादी पर अपने वैचारिक विषवाणें के हमले तेज़ कर दिए हैा पिछले समय में रक्‍तपात, नरसंहारों तथा अन्‍धेरगर्दी द्वारा बोई अपनी फसल काटने में वे जी-जान से जुट गए है। और शासक-मालिक वर्ग के प्रतिद्वन्‍द्धी गिरोहों की यह खींचतान भारतीय पूंजीवादी समाज की असल तस्‍वीर, दुनिया के ‘सबसे बड़े’ पूंजीवादी बूचड़खाने की उसकी तस्‍वीर, को घोर पतन तथा अन्‍धेरगर्दी के इस ‘महासागर’ के फिर ऊपर खींच लाई है।

पर हिस्‍से-पत्‍ती की लड़ाई में उलझे शासक-मालिक वर्ग के ये गुट, ये पारटियाँ चिन्तित हैं।  अपनी व्‍यवस्‍था, पूंजीवादी व्‍यवस्‍था, की बीमारियों का इलाज बे बरसों से मजदूरों-शोषितों पर जबरदस्‍त प्रहारों में देखते आए है। इन मंसूबों में जो चीज़ अड़चन डालती रही है वह है खूंखार हो गई उनकी आपसी प्रतिद्वंद्विता। उनकी राजनीतिक मशीन की अस्थिरता तथा अराजकता। इससे उभरने के लिए ही उन्‍होंने चुनावों का प्रपंच रचा है। पर उन्‍हें डर है कि चुनाव के बाद भी उनका राजनीतिक ढांचा अस्थिरता तथा अव्‍यवस्‍थता के चुंगल में फंसा रहेगा। उनका डर सही है। कोई भी पारटी, कितनी भी सीटें जीत कर सत्‍ता में आए – राजनीतिक अव्‍यवस्‍था, अराजकता तथा खींचतान बरसों-बरसों तक चलती रहेगी। इसकी जड़ इस या उस पारटी को मिली सीटों के कम या अधिक होने में नहीं। इसकी जड़ में है भारतीय पूंजीवाद के आर्थिक-सामाजिक ढ़ाचों का लगातार सड़ते और चिथड़े-चिथड़े होते जाना। इसी ने शासक-मालिक वर्ग के विभिन्‍न गुटों तथा पारटियों – एकतावादियों तथा अलगाववादियों में, मन्दिर-वादियों, धर्म-निरपेक्षी तथा जातिवादियों में – दुश्‍मनियों को तेज़ कर दिया है। तथा उसके राजनीतिक लबादे को तार-तार कर दिया है।

भारतीय पूंजीवाद का दिवालियापन

भारतीय पूंजीवाद के इस सड़न का जबरदस्‍त सबूत है उसका आर्थिक दिवालियापन्। 1,65,000 करोड़ रुपये के विदेशी कर्ज के साथ वह दुनिया का तीसरा बड़ा कर्जदार है। बेरहम शोषण, सामाजिक दौलत की बेहिसाब लूट तथा बरबादी और अन्‍धेरगर्दी वाले इस ढांचे को चलता रखने के लिए शासक वर्ग को लगातार नये विदेशी कर्ज चाहिए। पर दुनिया के मुद्रा बाजारों को उस पर भरोसा नहीं रहा। कोई उसे एक पैसा देने को तैयार नहीं। इसलिए चन्‍द्रशेखर ने अपना भिक्षापात्र ‘करबद्ध निवेदन सहित’ बुश, कैफू, कोल जान मेजर तथा दुनिया के मालिक वर्ग के अन्‍य चौधरियों को भेजा है। इस बीच अपना खर्च चलाने के लिए सरकार ने अपनी संपत्तियों को, सरकारी कारखानों को बेचने की घोषणा कर दी है। भारतीय पूंजी का उत्‍पादन ढांचा ठप्‍प पड़ने को है।

इस आर्थिक ध्‍वंस को लेकर विभिन्‍न पारटियों में तू-तू , मैं-मैं मची हुई है। पर यह ध्‍वंस इस या उस गुट के कुप्रबन्‍ध का नतीजा नही। यह वक्‍ती चीज़ भी नहीं। पूरी दुनिया को तबाह कर रहा यह संकट इस बात का गवाह है ही कि पूंजीवादी व्‍यवस्‍था अपने हर रूप में एक भयावह कुप्रबन्‍ध बन गई है। व्‍यवस्‍था, जो मुनाफे के लिए पैदा करती है न कि मानवीय जरूरतों के लिए। संकट है, कीमतें बेलगाम है, कारखाने बेचे/बन्‍द किये जा रहे हैं, लोगों की रोजियां मिटाई जा रही है, क्‍योंकि दुनिया में पहले ही बहुत अधिक वस्‍तुएं पैदा हो गई है, वे बिक नहीं पा रही। दूसरी तरफ, आबादी का विशाल बहुमत पशुवत जीवन जी रहा है, क्‍योंकि वह इन वस्‍तुओं को खरीद नहीं सकता। संकट की जड़ यहाँ है – पूंजीवाद के, उसके राजनीतिक तंत्र के, स्‍वयं मालिक वर्ग के अस्तित्‍व में। और संकट का हल है इस सबका समूल नाश। चुनावी पारटियां यह समझना नहीं चाहती। वे खुद इस व्‍यवस्‍था का हिस्‍सा, उसकी पहरेदार है।

संकट का पूंजीवादी हल

पर शासक-मालिक वर्ग की ये सब पारटियां अपनी व्‍यवस्‍था के हितों को खूब समझती है। उनके बचाव के लिए उन सब ने मजदूरों-शोषितों पर खुंखार प्रहारों का फैसला लिया है। इन हमलों को उन्‍होंने कड़की का नाम दिया है। राजीव, चन्‍द्रशेखर, वीपी सिँह, ज्‍योति बसु, हरकिशन सुरजीत, बाजपाई-अड़वानी, पूंजी के ये सब गुट सर्व-पारटी मीटिगों से और अपने-अपने मंचों से सैंकड़ों बार घोषणा कर चुके है – आर्थिक सख्‍ती की जरूरत है। खुद उन्‍होंने सामाजिक दौलत की लूट तेज कर दी है। पर वे हम मजदूरों से जबरिया कुर्बानी वसूल रहे है। इस मकसद से सरकार ने बिजली, पानी, यातायात, सरकारी राशन की कीमतें बढ़ा दी हैं। खुले बाजार में कीमतों को बेलगाम छोड़ दिया गया है। ये सब तनख्‍वाहों में भारी कटौती के, जीवन हालातों को खराब करने के औजार हैं। ऊपर से, बेचे/बन्‍द किये जा रहे कारखानों से मजदूरों को निकाला जा रहा है। केवल बजाज आटो ने 22000 मजदूरों को निकाला है।

शास‍क वर्ग के भरमजाल

यह तथ्‍य कि ये प्रहार सब पा‍रटियों, सब अखबारों, मालिकों के सब संघों, उनके सब गुटों की सहमति से हो रहे है, यह रोटी की, न्‍याय की, सामाजिक समानता की उनकी बातों की कलाई खोल देने को काफी है। वे झगड़ रहे है। हमारी भलाई को लेकर नहीं। वे हिस्‍से-पत्‍ती को लेकर झगड़ रहे हैं। और इस बात को लेकर कि मजदूरों-शोषितों पर ये प्रहार कारगर तरीके से होंगे तो कैसे? और बेधड़क ये हमले करने लायक ‘मजबूत सरकार’ बनेगी तो कैसे? और किस प्रकार मज़दूरों-शोषितों को इन प्रहारों के सामने भ्रमित तथा निहत्‍था रखा जाए? पिछली बार उन्‍होंने यह काम ‘बोफोर्स’ तथा ‘मूल्‍यों पर टिकी राजनीति’ के नुसखों से लिया था। अब वे मन्दिर का, मण्‍डल का, धर्म निरपेक्षता का नुसखा ले आए हैं। इन नुसखों का प्रयोग करके वे शोषितों पर अपने प्रहारों को ‘जन सहमति’ का जामा पहनाना चाहते हैं। वे यह भ्रम मजबूत करना चाहते हैं कि सरकार ‘आपकी’ है, और ‘आपने’ चुनी है, और अगर वह सख्‍ती बरत रही है तो केवल इसएलए कि यह जरूरी है। इस भरमजाल का, कड़की का – मुंह तोड़ जवाब दो।

मजदूरों। शोषितों।। साथियों।।।

हमें मालिक वर्ग और उसकी पारटियों के इस भरमजाल को ठोकर मारनी होगी। हमें मन्दिर के और उसके विरोध के, मण्‍डल के और उसके विरोध के नाम पर बंटने से मना करना होगा। हमें यह सफेद झूठ मानने से मना करना होगा कि पददलित लोग और उनकी छाती पर पांव रखे लोग, कि कार्यरत और रोजी की तलाश में भटकते मज़दूर और उनके मालिक, कि सामाजिक दौलत की अन्‍धी लूट में लिप्त राजनीतिक सामाजिक गुट और उनके शिकार सब बराबर हैं। साथियों, मजदूरो-शोषितों का पीढि़यों का तजुर्बा बताता है – चुनावों से कभी कुछ नहीं बदलता। वोट से कभी कुछ हासिल नहीं होता। मजदूर ‘नागरिको’ के, व्‍यक्तियों के तौर पर आपने शासकों/मालिकों का मुकाबला नहीं कर सकते।  यह हम एक वर्ग के रूप में ही कर सकते हैं। उनके प्रहारों को हम कभी वोट से नहीं रोक सकते। यह हम एक वर्ग संघर्ष से ही कर सकते हैं। वे, उनकी सब पारटियों, सख्‍ती के अपने अभिया‍नों को तेज करने की तैयारी में है। हमें वर्ग के रूप में अपनी पहचान, अपनी एकता तथा चेतना को तेज़ करना होगा। एकीकृत, तीव्र संघर्ष द्वारा ही हम उनके इन अभियानों का मुंह मोड़ सकते है। इन संघर्षो को पूंजी के दक्षिणपंथी-वाम‍पंथी दलों के, उनके यूनियनी तंत्र के चंगुल से मुक्‍त करवा कर, उसे अपनी कमेटियों, अपनी आम सभाओं द्वारा चला कर ही  हम कहीं पहुंच सकते है। इन संघर्षो के चरम, मजदू‍र इंकलाब द्वारा ही समाज के उस घोर पतन, सड़न, बर्बरता तथा खौफनाक अन्‍धेरगर्दी से मुक्‍त किया जा सकता है जिसमें वह आज डूबा हुआ है।

कम्‍युनिस्‍ट इन्‍टरनेशनलिस्‍ट,  मई 1991, पोस्ट बाक्स नंबर-25, एन आई टी, फरीदाबाद

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