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शुरू से ही, सर्वहारा की अपने हितों की रक्षा की लड़ाई में पूँजीवाद को अन्तत: नष्ट करने और कम्युनिज्म की स्थापना करने का परिदृश्य निहित रहा है। लेकिन सर्वहारा अपने संघर्ष के अंतिम लक्ष्य का अनुसरण किसी दैवी प्रेरणा द्वारा निर्देशित, शुद्ध आदर्शवादवश नहीं करता। जिन भौतिक हालातों में उसकी तात्कालिक लड़ाई विकसित होती है वे मज़दूर वर्ग को अपने कम्युनिस्ट कार्यभार संभालने की ओर बढ़ने को मज़बूर करते हैं, क्योंकि संघर्ष का कोई भी दूसरा तरीका सिर्फ अनर्थ की ओर ले जाता है।
पूँजीवाद व्यवस्था के चढ़ाव के दौर में, उसके व्यापक फैलाव के चलते,जब तक पूँजीपति वर्ग मज़दूर वर्ग को वास्तविक सुधार दे सकता था, तब तक मज़दूर संघर्षों द्वारा क्रांतिकारी प्रोग्राम हासिल करने के लिए आवश्यक वस्तुगत हालातों का अभाव था।
मज़दूर आन्दोलन की अत्यंत रेडिकल धाराओं द्वारा खुद पूँजीवादी इंकलाबों के दौरान अभिव्यक्त क्रांतिकारी और कम्युनिस्ट आकांक्षाओं के बावजूद, उस ऐतिहासिक दौर में मज़दूर संघर्ष सुधारों की लड़ाई से आगे नहीं जा सकते थे।
19वीं सदी के अन्त की ओर, सर्वहारा की सरगर्मी का एक केन्द्र-बिन्दु यह सीखने की प्रक्रिया था कि ट्रेड यूनियनवाद एवं संसदवाद के जरिये आर्थिक और राजनीतिक सुधार जीतने के लिए अपने आपको कैसे संगठित किया जाए। इस तरह मज़दूर वर्ग के असली वर्ग संगठनों में भी कई सुधारवादी तत्वों (वे जिनके लिए सारे संघर्ष मात्र सुधार हासिल करने का संघर्ष थे) के साथ-साथ क्रांतिकारी (वे जिनके लिए सुधारों की लड़ाई मज़दूर वर्ग के संघर्षों को अन्तत: क्रांतिकारी लड़ाई की ओर ले जाने वाली प्रक्रिया में एक सीढ़ी, एक चरण थी) पाये जा सकते थे। इस दौर में मज़दूर वर्ग बुर्जुआजी के कुछ खास गुटों का दूसरे अधिक प्रतिक्रियावादी गुटों के खिलाफ समर्थन कर सकता था, ताकि उसके अपने और पैदावारी ताकतों के विकास के लिए फायदेमंद सामाजिक बदलावों को आगे बढ़ाया जा सके।
पतनशील पूँजीवाद के तहत थे सारे हालात बुनियादी परिवर्तनों में से गुजरे हैं। विश्व सभी मौजूदा राष्ट्रीय पूंजियों को अपने में समाने के लिए बहुत छोटा हो गया है। हर राष्ट्र में पूँजी उत्पादकता (यानी मज़दूरों के शोषण) को अति उग्र हद तक बढ़ाने को बाध्य है। इस शोषण को गठित करना अब सिर्फ मालिक और उसके श्रमिकों के बीच तय होने वाली बात नहीं रहा; वह राज्य का मामला बन गया है और मज़दूर वर्ग को नियंत्रित रखने के लिए रचे सभी हजारों तरीके उसे निदेशित करते हैं, और किसी भी प्रकार के क्रांतिकारी खतरे से दूर ले जाते हैं - वे उसे एक योजनाबद्ध और घातक दमन का शिकार बनाते है।
मुद्रास्फीति, जो पिछले विश्वयुद्ध के समय से एक स्थायी तथ्य है, मज़दूरी में प्रत्येक बढ़ोतरी को एकदम हड़प जाती है। कार्य-दिवस की लम्बाई या तो वही रही है और अगर उसे घटाया गया है तो सिरफ कार्य स्थल तक आने जाने के लिए जरूरी समय में हुई बढ़ोतरी की मात्र भरपाई के लिए तथा काम तथा जीवन की नाशकारी गति के तहत मज़दूरों के पूर्ण नरवस टूटन को टालने के लिए।
सुधारों के लिए संघर्ष एक निराशाजनक यूटोपिया बन गया है। इस युग में मज़दूर वर्ग पूँजी के खिलाफ सिर्फ जिन्दगी और मौत की ही लड़ाई कर सकता है। मज़दूर वर्ग के पास अब लाखों परास्त, दबे व्यक्तियों में विखडित होना स्वीकारने अथवा अपने संघर्षों का हर संभव व्यापीकरण कर उन्हें खुद राज्य के साथ टक्कर की ओर ले जाने के सिवा कोई विकल्प नहीं। इस तरह, उसे अपने संघर्षों को विशुद्ध आर्थिक, स्थानीय अथवा सेक्शनल स्तर तक सीमित रखने को अस्वीकार करना होगा। और खुद को अपनी सत्ता के भावी संगठनों - मज़दूरों कौंसिलों - के बीज रूप में गठित करना होगा।
इन नये ऐतिहासिक हालातों में मज़दूर वर्ग के बहुत से पुराने हथियार अब और काम में नहीं लाये जा सकते। वास्तव में जो राजनैतिक धाराऐं उनके उपयोग की वकालत जारी रखे हैं, वे ऐसा सिर्फ मज़दूर वर्ग को उसके शोषण से नत्थी करने एवं उसके संघर्ष के इरादे को कमजोर करने के लिए ही कर रही हैं।
19वीं सदी के मज़दूर आन्दोलन द्वारा न्यूनत्म प्रोग्राम तथा अधिकत्म प्रोग्राम में किया जाने वाला अन्तर अब बेमाने हो गया है। न्यूनत्म प्रोग्राम अब संभव नहीं रहा। सर्वहारा अपने संघर्षों को सिर्फ अधिकत्म प्रोग्राम -कम्युनिस्ट क्रांति - के परिदृश्य में रखकर ही आगे बढ़ा सकता है।