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दिल्ली के राष्ट मंडल खेल स्थल पर खिलाडियों के ठहरने व अन्य सुविधाओ की खस्ता हालत को लेकर मीडिया मे बहुत बडा कांड बानाया जा रहा : बडे खिलाडी नाम वापस ले रहे हैं, बहुत सी टीमें अपना आगमन टाल रही हैं या वो होटलों मे रहकर खेलगाँव के तैयार होने का इंतजार कर रही हैं। राष्ट मंडल खेल के ब्रांडनाम का नुकसान हो रहा है!
लेकिन यह कांड खेल स्थल पर निर्माण कार्यो में लगे मजदूरों द्वारा झेले जा रहे हालातों के सामने कुछ भी नहीं।
इन निर्माण स्थलों पर 70 तथा दिल्ली मेट्रो की निर्माण साइटों पर 109 मजदूर मर चुकें है। लेकिन इसकी सही तादाद का किसी को पता नही है क्योंकि बहुत से मजदूर रजिस्टृड नही हैं। यह बामुश्किल हैरान करने वाला है:
"कामगार बहुधा बुनियादी सुरक्षा सुविधाओं जैसे कि हेल्मेट, मास्क तथा दस्तानों के बिना काम कर रहे हैं। मजदूरों को अगर जूते दिये भी जाते हैं तो उनकी कीमत उनके वेतन से काट ली जाती है। दुर्घटनायें तो लगभग हर साईट पर होती हैं लेकिन उन्हें श्रमिक मुआवज़ा कमिश्नर तक बहुत ही कम पंहुचाया जाता है और उनका कानूनी मुआवज़ा या तो रोक लिया जाता है या कम कर दिया जाता है। सिवाय एक प्राथमिक सहायता किट के, मेडिकल सुविधांएं भी साईट पर कहीं ही मौजूद है।" (Hindu, 01.08.2010)
जान जोखिम मे डालकर काम करने वाले ये मजदूर न्यूनतम निर्धारित मजदूरी भी नही पाते। "इन सभी साइटों पर मजदूरों को न्यूनतम निर्धारित मजदूरी का एक तिहाई या आधा ही मिलता है... और मजदूरों को अमानवीय हालातों मे रहने को मजबूर किया जाता है।" यह कहना है पीपुल्स युनियन फार डैमोक्रैटिक राइटस (पीयूडीआर) के शशि सक्सेना का (Hindu, 1608.2010)। खासकर वे 10 से 12 घंटे प्रतिदिन, देर रात तक, दिन प्रतिदिन बिना छुटटी के काम कर रहे हैं। "कनूनी" रुप से बनता तुछ ओवर टाइम भी उनसे छीन लिया जाता है: दस घंटे के दिन के लिए 100 स्र्पया, बारह घंटे के दिन के लिए 200 स्र्पया ।
पीयूडीआर ने निवास सूविधाअओं को प्राथमिक बताया है : शौचालयों व स्वास्थय सेवाओं की कमी, हेय सफाई व्यवस्था, टिन व पलास्टिक के शैड जो मलेरिया व डेंगू बुखार के प्रजनन स्थल हैं और दिल्ली के मौसम के प्रतिकूल हैं जो सर्दियों मे सर्द व गर्मियों मे बहुत गर्म रहता है। इससे भी बदतर, टाइम्स आफ इन्डिया करेस्ट ने विजय को एक एक गांव से भरती किया। आकर उसने पाया: "खुदा हुआ फुटपाथ जहां उसको सुन्दर गुलाबी पत्थर बिछाने थे, दिन मे उसका काम स्थल था और रात को शयनकक्ष।" ऐसे तकरीबन 150000 प्रवासी मजदूर इस काम के लिए रखे गये। बाल बच्चेदार मजदूरों के पास अपने बच्चों को इन्हीं शोचनीय हालातों में, बिना स्कूल की व्यवस्था के, जीता देखने के सिवा कोई चारा नहीं नही है।
जैसे कोलकत्ता में मार्च 2010 में हुयी 43 टैक्सटाइल मजदूरों की मौत दिखाती है (https://en.internationalism.org/ci/2010/workers-burn-india-shines), ऐसे खतरनाक हालात मात्र राष्ट्रमंडल खेलों में ही नही हैं।
आखिर में, जैसे बीजिंग में औलम्पिक के दौरान और दक्षिण अफ्रीका में विश्व कप के दौरान हुआ, झुग्गी झोपडी निवासियों को इन आयोजनों की खातिर रास्ते से हटा दिया गया गोया कि वो कीडे मकोडे हों। पिछले दिसम्बर मे एक रात-आश्रय गिरा दिया गया जिससे 250 लोग बेघर हो गये; अप्रैल में 350 दलित तामिल परिवारों की रिहायश एक स्लम बुलडोज़र से गिरा दिया गया ताकि खेलों के लिए कार पार्किंग बनायी जा सके। दिल्ली की मुख्य मंत्री शीला दीक्षित ने माना है: "हमारे यहां लगभग 30 लाख लोग राष्ट्रमंडल खेलों की वजह से बेघर हो जाएंगे।" (आउटलुक, अप्रैल 2010)
भारतीय अर्थव्यवस्था : एक घातक वृद्धि
इस साल भारतीय अर्थव्यवस्था की वृद्वि दर साढे आठ फीसद रहने की आशा है जो कि इस तरह के घोर शोषण पर आधारित है़। "इसकी प्राइवेट कंपनियां बहुत मजबूत हैं, भारतीय पूंजीवाद करोडों उद्यमियों द्वारा संचालित है जो प्रचंड तरीके से अपना काम कर रहे हैं" (द इकोनमिस्ट, 2.10.10)। पूंजीवाद को इसी तरह पसंद है।
पर यह सर्वहारा के लिए बेहतर हालात में अनुदित नही हुआ है। राष्ट्रमंडल खेलों के कार्यस्थल पर मजदूरों की दुर्दशा क्रूरतापूर्ण शोषण की मात्र एक मिसाल है। स्थाई नौकरियां घटी हैं व अस्थाई नौकरियों में इजाफा हुआ है जैसा कि हीरो होंडा गुडगांव में बवजूद इसके कि उसका उत्त्पादन बढ़ कर 43 लाख मोटरसाइकल हो गया है। इसी दौरान टेक्सटाइल व हीरा उधोग में मज़दूरों की नौकरियां छूटी हैं। सरकारी तौर पर 2009 में बेरोजगारी 10.7% रही। जबकि हकीकत इससे अलग है। यह स्टेशनों या पर्यटन स्थलों पर देखा जा सकता है जहां दर्जनों व्यक्ति कुछ रूपयों के लिए रिक्शा चलाने या सोवनिर बेचने के लिए चिल्लाते हैं। ये वे लोग हैं जिन्हे पूंजीवाद अपने उत्पादन में समाहित नही कर पाया है।
अर्थव्यवस्था में जैसे जैसे अधिक धन आया है, कीमतें 'समृद्व" अर्थव्यवस्थाओं के अनुरुप ऊपर चढ़ गई हैं और मजदूर यातायात, सेहत, शिक्षा, घर जैसी जरूरी चीज़ों के लिए संघर्ष करते रह गए हैं। सरकारी तौर पर भोज्य पदार्थो की मूल्य वृद्वि दर 18 % है।
अर्थव्य्वस्था की वृद्वि दरें जबकि ऊंची हैं, पर भारतीय अर्थव्य्वस्था के पास पतनशीलत पूंजीवाद के उन हालातों से बचने का कोई रास्ता नही जिसने अन्यों के लिए मंदी का खतरा पैदा कर रखा है। यह वृद्वि दर उन विदेशी संस्थागत निवेषकों पर टिकी हुई है जो 2008 से पहले कैसीनों अर्थव्य्वस्था में लिप्त थे। इसने कर्ज व सकल घरेलू उत्पाद के अनुपात को 20 पांइट तक चढा दिया है और 2007 में सार्वजनिक ऋण जीडीपी का 83% था। कॉल सैंटर व आउटर्सोसिंग के साथ यह सेवा क्षेत्र की वजह से था। देश में उद्योग के भारी विकास के लिए जरूरी बुनियादी ढांचे की अभी भी सख्त कमी है। जिस उद्योग का विकास हुआ है वह उन छोटी सस्ती कारों के समान है, जो वैसे ही सस्ते श्रम पर टिकी हैं तथा सेवा क्षेत्र मे लगे कामगारों के घरेलू बाज़ार के लिए लक्षित हैं। विकास की मौज़ूदा ऊंची दरों के होते हुए भी, जैसे किसानों की हालत में गिरावट आई है, वे शहरों की तरफ पलायन या खुदकुशी के लिए मज़बूर हुए हैं (see 'The Indian boom: illusion and reality')।
जो भी हो, राष्ट्रमंडल खेलों, ओलिंपिक तथा अन्य बडे एकाकी आयोजनों के लिए विशाल स्थलों तथा स्टेडियमों का निर्माण बहुधा महंगा सफेद हाथी साबित हुआ है और आवश्यकतः आर्थिक स्वास्थ्य की निशानी नहीं।
एकमात्र उत्तर मजदूर वर्ग का संघर्ष
हिन्दुस्तानी मजदूर वर्ग की भयावह हालत के बारे में, जिसे पीयूडीआर(PUDR) एवम क्राई (CRY) ने बाखूबी बयान किया है और जिस द्वारा संगृहीत आंकडों पर यह लेख आधारित है, मानवीय स्तर पर क्षोभित हुए बिना पढ़ना नामुमकिन है। इन अपराधो का जवाब जनवादी सुधार नही हो सकता। भारत पहले ही एक जनवादी देश है जहां पूंजीवाद ने मजदूर वर्ग हितों को पैरों तले कुचल रखा है। न ही इन अपराधो का जवाब मजदूरों की कानूनी सुरक्षा है जो सरलता से तोड दिए जाते हैं, और न ही परोपकार में है, कुछ खा़स लोगों की इससे कितनी ही मदद क्यों ना हो। अब हम यह इंतजार नही कर सकते कि भारतीय अर्थव्यवस्था उभरे और हमें बेहतर हालात दिलाए। चूंकि भारतीय अर्थव्यवस्था भी समूचे विश्व, जो कर्जों मे डूबा है, वही कर्ज़ जो भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए ईधंन का काम कर रहा है, के असर से अछूती नही रह सकती।
यह समझना भी जरूरी है कि मौजूदा हालात पूंजीवादी व्यवस्था की वजह से ही हैं और लगातार मुनाफे के लिए होने वाले संघर्ष की उपज है। ये सब हालात मौजूदा पूंजीवादी व्यवस्था के मुकम्मल खात्मे के जरिए ही खतम हो सकते हैं। तब तक इन्हें मात्र कम किया जा सकता है, वह भी मजदूर वर्ग के बडे पैमाने के प्रतिरोध द्वारा जैसा कि पिछले साल गुडगांव के कार मजदूरों ने, कोलकत्ता के जूट मजदूरों ने, एयर इंडिया के कर्मचारियों ने और कश्मीर के उन सरकारी कर्मचारियो ने किया जो, बावजूद इसके कि एक तरफ राज्य की बंदूक थी तो दूसरी ओर अलगाववादियों की, अपने हितों की रक्षा के लिए एकजुट हो पाए।
अलेक्स, 3 अक्टूबर 2010