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लीबिया की हालिया घटनाओं को समझना मुश्किल है। एक बात स्पष्ट है: जनता को हफ्तों तक दमन, भय और अनिश्चितता झेलनी पडी है। शुरुआत में हजारों लोग सरकारी दमन के कारण मारे गए। लेकिन अब वे सरकार और प्रतिपक्ष की देश की सत्ता हथियाने की लडाई का शिकार हो रहे हैं। वे किसके लिए मर रहे हैं? एक तरफ गद्दाफी देश पर अपना कब्जा बनाये रखने के लिए लड रहा है। दूसरी तरफ है लीबीयन नेशनल काउन्सिल, स्वघोषित "क्रांति की आवाज़", जिसका मकसद है पूरे देश पर अपना नियंत्रण सथापित करना। सर्वहारा को अपराधियों के दो धडों मे से एक को चुनने को कहा जा रहा है। लीबीया मे उनसे कहा जा रहा है कि वे राज्य और अर्थव्यवस्था पर नियंत्रण के लिए लीबीयन पूँजीपति वर्ग के प्रतिद्वंद्वी हिस्सों में लडे जा रहे गृह युद्ध में सक्रिय भाग लें। दुनिया के बाकी हिस्सों में हमे गद्दाफी के विरोधियों के बहादुराना संघर्ष के समर्थन के लिए प्रोत्साहित किया जा रहा है। मजदूरों का किसी भी गुट के समर्थन में कोई हित नहीं।
मिस्र और ट्यूनीशिया के आंदोलनों से प्रेरित, लीबिया में घटनाएं गद्दाफी के खिलाफ एक जन विरोध के रूप में शुरु हुईं। लगता है, पहले प्रदर्शनों के क्रूर दमन ने कई शहरों में क्रोध के विस्फोट को प्रोत्साहन दिया। 26 फरवरी 2011 के 'द इकोनमिस्ट' के अनुसार, 15 फरवरी को बेनगाज़ी में लगभग 60 युवकों के प्रदर्शन ने आरंभिक चिंगारी का काम किया। इसी तरह के प्रदर्शन अन्य शहरों में भी हुए और सभी को गोलियां मिली। बीसिओं युवा लोगों की हत्या के समक्ष, हजारों युवा लोग राज्य बलों से हताश लडाईयों के लिए सड़कों पर उतर आए। इन संघर्षों ने महान साहस की कार्रवाई देखी। बेनगाज़ी की जनता ने सुना कि भाड़े के सैनिकों तथा फोजियों को हवाई अड्डे में भेजा जा रहा है। उन्होंने हवाई अड्डे तथा उसके रक्षकों पर चढाई कर दी तथा भारी नुकसान के बावजूद उसे अपने नियंत्रण में ले लिया। एक अन्य कार्रवाई में, नागरिकों ने बुलडोजरों व अन्य वाहनों पर नियंत्रण कर लिया तथा तथा उनको लेकर भारी हथियारों से लैस बैरकों में जा पहुंचे। दूसरे शहरों में भी जनता ने राज्य के दमनकारी बलों को खदेड दिया। शासन का जवाब था और अधिक दमन। जिसका नतीजा यह हुआ कि सैनिकों और अधिकारियों ने प्रदर्शनकारियों को मारने से इनकार कर दिया और इस प्रकार सशस्त्र बलों का बिखराब हो गया। एक सैनिक गार्ड ने एक कमांडिंग अधिकारी की गोली मारकर तब हत्या कर दी जब उसने गोली चलाने का आदेश जारी किया। लगता है शुरू में यह क्रूर दमन और आर्थिक कष्ट में वृद्धि के खिलाफ लोकप्रिय गुस्से का एक असली विस्फोट था, खासकर शहरी युवा लोगों की ओर से।
घटनाऒं ने लीबिया में एक अलग मोड़ क्यों लिया?
गहराता आर्थिक संकट और दमन की बढ़ती खिलाफत, टयूनीशिया, मिस्र और मध्य पूर्व में अन्यत्र तथा उत्तरी अफरीका में संघर्षों की व्यापक पृष्ठभूमि रही है। श्रमिक वर्ग और आम जनता को क्रूर गरीबी और शोषण का सामना करना पड़ा है। वहीं शासक वर्ग ने विशाल धन जमा किया है।
लेकिन लीबिया में स्थिति टयूनीशिया और मिस्र से इतनी अलग क्यों है? उन देशों में दमन के बावजूद, सामाजिक असंतोष को संभालने का मुख्य साधन था लोकतंत्र। ट्यूनीशिया में बेरोजगारी के खिलाफ श्रमिक वर्ग और आबादी के विशाल हिस्सों के बढते प्रदर्शन एक तरह से रात भर में इस अन्धी गली में डाल दिये गए कि बेन अली की जगह कौन लेगा। अमेरिकी सेना के मार्गदर्शन में टयूनीशियाई सेना ने राष्ट्रपति को चलता बनने को कहा। मिस्र में मुबारक को जाने में थोडा वक्त लगा पर उसके प्रतिरोध ने भी यह सुनिश्चित करने में मदद की कि समूचा असंतोष उससे छुटकारा पाने पर केंद्रित किया जा सके। एक चीज़, जिसने अंततः उसे धक्का दिया, थी बेहतर परिस्थितियों और वेतनों के लिए हडतालों का भडकना। यह दिखाता है कि श्रमिक जबकि सरकार के खिलाफ भारी प्रदर्शनों में भाग ले रहे थे, वे अपने स्वयं के हितों के बारे में भूले नहीं थे। और लोकतंत्र को एक मौका देने के नाम पर वे अपने हितों को ताक पर रखने को तैयार नहीं थे।
मिस्र और ट्यूनीशिया दोनों में सेना राज्य की रीढ़ है और वह राष्ट्रीय पूँजी के हितों को पूँजी के विशिष्ट गुटों के हितों के ऊपर रखने में सक्षम थी। लीबिया में सेना की वह भूमिका नहीं है। गद्दाफी शासन ने जानबूझकर दशकों से सेना को, और इसके साथ ही राज्य के हर उस भाग को जो प्रतिद्वंद्वियों के लिए शक्ति का एक आधार बन सकता था, कमजोर रखा था। "गद्दाफी ने सेना को कमजोर रखने की कोशिश की ताकि वह उसका तख्ता ना पलट सके जैसे उसने राजा इदरिस का तख्ता पलटा था" पॉल सुलिवान जो वाशिंगटन स्थित नेशनल डिफेंस यूनिवर्सिटी में एक उत्तरी अफ्रीका विशेषज्ञ हैं, ने कहा। परिणाम है "एक बुरी तरह प्रशिक्षित सेना जिसे एक बुरी तरह प्रशिक्षित नेतृत्व संचालित कर रहा, जो स्वंय पतली हालत में है और जिसमें कर्मियों की स्थिरता नहीं है और बहुतेरे अतिरिक्त हथियार अनियंत्रित फैले हुए हैं" (ब्लूमवर्ग, 2 फरवरी 2011)। मतलब यह कि शासन के पास हर सामाजिक असंतोष का एक ही जवाब है: नग्न दमन।
अपनी नज़रों के सामने अपने बच्चों का संहार होते देख, राज्य की प्रतिक्रिया की क्रूरता मजदूर वर्ग को हताश गुस्से के एक प्रकोप में बहा ले गई। लेकिन प्रदर्शनों में जो मज़दूर शामिल हुए, वे बहुधा व्यक्तिगत तौर पर ही हुए : गद्दाफी की बंदूकों के सामने तनने का अत्याधिक हौसला दिखाने के बावजूद, मजदूर अपने वर्ग हितों को सामने लाने में सक्षम नहीं हुए।
ट्यूनीशिया में, जैसे हमने कहा, आंदोलन श्रमिक वर्ग तथा गरीबों के बीच से बेरोजगारी तथा दमन के खिलाफ शुरू हुए। मिस्र का सर्वहारा हाल के वर्षों में संघर्ष की अनेक लहरों में संलग्न रहने के बाद मौजूदा आंदोलन में दाखिल हुआ। इस अनुभव ने उसे अपने स्वंय के हितों की रक्षा करने की अपनी क्षमता में विश्वास दिया। इस बात का महत्व प्रदर्शनों के अंत में सामने आया जब हडतालों की एक लहर फूट पडी। (मिस्र पर हमारा लेख देखें)
लीबिया के सर्वहारा ने एक कमजोर स्थिति में वर्तमान संघर्ष में प्रवेश किया। तेल-क्षेत्र में एक हड़ताल की रिपोर्ट हैं। लेकिन यह बताना असंभव है कि वहां मजदूर वर्ग की अन्य कोई गतिविधि भी है। संभव है ऐसी कोई गतिविधि रही हो, लेकिन हमें कहना पडेगा कि एक वर्ग के रूप में श्रमिक वर्ग कमोबेशी अनुपस्थित ही है। इसका मतलब यह है कि मज़दूर वर्ग शुरू से ही अराजकता और भ्रम की स्थिति से उत्पन्न तमाम वैचारिक विष के समक्ष असुरक्षित रहा है। पुराने राजशाही ध्वज का प्रकट होना और चन्द दिनों में ही बगावत के प्रतीक के रूप में उसकी स्वीकृति, यह दिखाता है कमजोरी कितनी गहरी है। यह झंडा "मुक्त लीबिया" के राष्ट्रवादी नारे के साथ साथ सामने आया। वहां पर जातीयतावादी सोच भी अभिव्यक्त हुई है। कई मामलों मे गद्दाफी शासन का समर्थन अथवा विरोध भी क्षेत्रीयतावादी अथवा कबीलाई हितों के आधार पर तय हुआ। और कबीलाई नेताओं ने अपने अधिकार का इस्तेमाल करके स्वंय को बगावत के शिखर पर सथापित करने की कोशिश की। वहां कई प्रदर्शनों में इस्लामवाद की एक मजबूत उपस्थिति दिखाई पडती है तथा "अल्लाहो अकबर" का नारा भी सुना जा रहा है।
विचारधाराओं की इस दलदल ने स्थिति इतनी खराब बना दी है कि यदि सैकड़ों नहीं तो दसियों हजार विदेशी मज़दूरों को देश से पलायन की जरूरत महसूस हो रही है। विदेशी मज़दूर एक राष्ट्रीय ध्वज, उसका रंग चाहे कोई भी हो, के पीछे क्यों लामबन्द हों? एक असली सर्वहारा आंदोलन शुरू से ही विदेशी मज़दूरों को अपने में शामिल करेगा क्योंकि उसकी मांगें सांझी होंगी : बेहतर वेतन, काम की बेहतर स्थितियों और सभी मज़दूरों के दमन का अंत। राष्ट्र, जाति अथवा धर्म की परवाह किए बिना बे एकजुट हो गए होते चूंकि उनकी ताकत है उनकी एकता।
गद्दाफी ने इस जहर का पूरा उपयोग करके कोशिश की है कि वह मज़दूरों तथा जनता को उसकी 'क्रांति' को विदेशियों, जातीयतावाद, इस्लामवाद तथा पश्चिम द्वारा पेश खतरे के खिलाफ अपने समर्थन मे ला सके।
इंतजार में एक नई सरकार
मज़दूर वर्ग का बहुमत शासन से नफरत करता है। लेकिन मज़दूर वर्ग के लिए असली और बडा खतरा विपक्ष के पीछे हो लेने में है। यह विपक्ष, जिसका नेतृत्व अधिकधिक नई 'नेशनल काउंसिल' संभाल रही है, पूंजीपति वर्ग के विभिन्न गुटों का एक जमावड़ा है: गद्दाफी शासन के पूर्व सदस्य, राजशाहीवादी आदि के साथ साथ कबीलाई और धार्मिक नेता। उन सभी ने लीबियाई राज्य के गद्दाफी के प्रबंधन के स्थान पर अपना प्रबंधन स्थापित करने की अपनी इच्छा को थोपने के लिए इस तथ्य का पूरा लाभ उठाया है कि इस आंदोलन की कोई स्वतंत्र सर्वहारा दिशा नहीं है।
नेशनल काउंसिल अपनी भूमिका के बारे में स्पष्ट है: "नेशनल काउंसिल का मुख्य उद्देश्य है ... क्रांति के लिए.. एक राजनीतिक चेहरा पेश करना," "हम अपनी राष्ट्रीय सेना, अपने सशस्त्र बलों, जिसके एक हिस्से ने जनता के समर्थन की घोषणा की है, के माध्यम से अन्य लीबियाई शहरों विशेषकर त्रिपोली को आजाद करने में मदद करेंगे" (रायटर्स अफरीका, 27 फरवरी 2011)। "विभाजित लीबिया जैसी कोई चीज नहीं है" (रायटर्स, 27 फरवरी 2011)।. दूसरे शब्दों में उनका उद्देश्य है एक अलग चेहरे के साथ वर्तमान पूंजीवादी तानाशाही को बनाए रखना।
विपक्ष भी एकजुट नहीं है। गद्दाफी के एक पूर्व न्याय मंत्री मुस्तफा मोहम्मद ने फरवरी के अंत में कुछ पूर्व राजनयिकों के समर्थन से एक अस्थायी सरकार के गठन की घोषणा की। यह अल बैदा में स्थित थी। इस कदम को बेनगाज़ी में स्थित राष्ट्रीय परिषद ने खारिज़ कर दिया।
यह दिखाता है कि विपक्ष के भीतर भी गहरे मतभेद हैं। ये अंतता फूट पडेंगे, अगर वे गद्दाफी से छुटकारा पा गए या गद्दाफी के सत्ता में बने रहने की स्थिति में जब इन 'नेतओं' मे अपनी खाल बचाने की अफरा-तफरी मची।
नेशनल काउंसिल की एक बेहतर सार्वजनिक छवि है। यह घोगा द्वारा चालित है, जो एक मशहूर मानव अधिकार वकील है और इस प्रकार पूर्व शासन के साथ रिश्तों के लिए दागी भी नहीं है जैसे कि अन्जेली है।
जहाँ पर गद्दाफी का कब्जा नहीं रहा, उन शहरों, नगरों तथा क्षेत्रों में उभरी समितियों के बारे में मीडिया ने बहुत बतंगड बनाया है। इनमें से बहुत सी समितियाँ स्थानीय गणमान्य व्यक्तियों द्वारा खुद नियुक्त है। लेकिन फिर भी अगर उनमें से कुछ में लोकप्रिय विद्रोह के प्रत्यक्ष भाव थे, ऐसा लगता है जैसे वे नेशनल काउंसिल के पूंजीवादी, राज्यवादी ढांचे में खींच ली गई हैं। एक राष्ट्रीय सेना की स्थापना के नेशनल काउंसिल के प्रयासों और इस सेना के गद्दाफी बलों के साथ टकराने का मज़दूर वर्ग और समूची आबादी के लिए केवल एक ही अर्थ है - मौत और विनाश। वह सामाजिक भाइचारा जिसने शुरू में शासन के दमन के प्रयासॉ को खोखला किया, विशुद्ध सैन्य मोर्चे पर जमकर लड़ाईयों से बदल दिया जाएगा। और आबादी को बलिदान देने को कहा जाएगा ताकि राष्ट्रीय सेना लड़ सके।
प्रमुख शक्तियों - अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, इटली आदि का अधिकाधिक खुला समर्थन पूँजीवादी विपक्ष के एक नए शासन में रूपांतरण को तेज़ कर रहा है। साम्राज्यवादी अपराधी अब अपने पूर्व मित्र गद्दाफी से दूरी अख्तियार कर रहे हैं ताकि वे यह सुनिश्चित कर सकें कि अगर एक नई टीम सत्ता में आती है तो उस पर इनका कुछ प्रभाव हो। यह समर्थन उनके लिए होगा जो बड़ी शक्तियों के साम्राज्यवादी हितों के साथ फिट हो सकें।
लगता है जो आंदोलन दमन के खिलाफ आबादी के हिस्सों की हताश प्रतिक्रिया के रूप में शुरू हुआ था, उसे लीबिया में तथा अंतरराष्ट्रीय स्तर पर शासक वर्ग ने तेजी से अपने हितों के लिए इस्तेमाल कर लिया है। एक आंदोलन जो युवा लोगों के नरसंहार को रोकने के प्रचण्ड प्रयास के रूप में शुरू हुआ था, युवाओं के एक अन्य नरसंहार में समाप्त हो रहा है, अब "आज़ाद लीबिया" के नाम पर।
लीबिया और दूसरी जगहों पर सर्वहारा अपने संकल्प को मजबूत करके ही जवाब दे सकता है कि वह लोकतंत्र या मुक्त देश के नाम पर शासक वर्ग के गुटों की खूनी लडाईयों मे स्वंय को घसीटे जाने की इज़ाजत नहीं देगा। आने वाले दिनों और हफ्तों में, अगर गद्दाफी सत्ता में बना रहा तो इस गृहयुद्ध में प्रतिपक्ष के समर्थन में अंतरराष्ट्रीय समुहगान और तेज होगा। अगर गद्दाफी जाता है तो वहाँ लोकतंत्र की, 'जन शक्ति' की और स्वतंत्रता की विजय का एक समान रूप से गगनभेदी अभियान होगा। हर हालत में, मज़दूरों को पूंजीवादी तानाशाही के लोकतांत्रिक चेहरे से तादात्म्य स्थापित करने के लिए कहा जाएगा।
फिल, 5 मार्च 2011