भारत द्वारा बैलिस्टिक मिसाइल का प्रक्षेपण एशिया के सैन्यीकरण में एक और कदम

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19 अप्रैल 2012 को भारतीय पूंजीपति वर्ग ने आईसीबीएम बैलिस्टिक मिसाइल के अपने संस्करण अग्नि-5 का प्रक्षेपण किया और एशिया में पहले से ही उग्र हथियारों की होड़ को और बढ़ावा दिया। इस परीक्षण के साथ भारत विश्व साम्राज्यवादी अपराधियों के उस चुनिंदा क्लब में शामिल हो गया जिनके पास अंतरमहाद्वीपीय बैलिस्टिक मिसाइलें हैं। कहा जा रहा है कि अग्नि-5 की मारक क्षमता 5000 किलोमीटर तक है। इसे शंघाई तथा बीजिंग तक मार करने के सक्षम माना जा रहा है।

अग्नि-5 के प्रक्षेपण के चलते भारतीय पूंजीपति वर्ग के सभी तबके खुशी के ढोल पीट रहे हैं। कई दिनों तक समूचा प्रिंट और इलेक्ट्रानिक मीडिया इस प्रक्षेपण द्वारा चिन्हित तकनीकी  तथा सैन्य उपलब्धियों संबंधी दम्भी प्रचार से भरा रहा। चीन और अन्य शत्रुतापूर्ण देशों के सभी भागों पर मार करने की नई क्षमता बाबत विवेकहीन बातें सुनाई दी। भारतीय पूंजीपति वर्ग के गुट स्वयं को यकीन दिलाने में लगे थे कि अग्नि-5 के प्रक्षेपण के साथ वे अब अपने दुश्मनों का सामना करने और अपने विश्व साम्राज्यवादी सपनों को पूरा करने के लिए बेहतर तरीके से लैस हैं। मीडिया ने भी इस ढोल पिटाई तथा प्रचार का उपयोग करके देशभक्ति का बुखार भड़काने की कोशिश की।

एशिया में प्रचण्ड होती हथियारों की दौड़

भारत द्वारा आईसीबीएम अग्नि-5 का प्रक्षेपण एशिया में विकसित हो रही हथियारों की उन्मादी दौड़ की सिर्फ एक अभिव्यक्ति है। इस खेल में बहुत से खिलाड़ी लिप्त हैं और भारत उनमें एक प्रमुख है।

मध्य मार्च 2012 में भारतीय तथा विश्व मीडिया इन कथाओं से भरा था कि पिछले तीन वर्षों में भारत दुनिया में हथियारों का सबसे बड़ा खरीदार बन गया है। एनडीटीवी की 21 मार्च 2012 की एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत ने दुनिया के हथियारों के सबसे बड़े खरीदार की चीन की जगह ले ली है और दुनिया में पिछले पांच वर्षों में हथियारों की कुल खरीदारी में से दस प्रतिशत सिर्फ भारत ने की है। फ़रवरी 2012 में, भारत ने फ्रांस की कंपनी डसाल्ट को 126 रफ़ाल एमएमआरसीए (मध्यम बहुउद्देश्यीय लड़ाकू विमान) लड़ाकू जेट खरीदने का एक आर्डर दिया। 20 बिलियन अमरीकी डालर (टाइम्स ऑफ इंडिया, 1 फ़रवरी 2012) की लागत का यह आर्डर पूंजीवाद के इतिहास का सैन्य उपकरणों का सबसे बड़ा एकल आर्डर है। यह 272 सुखोई-30एमकेआई लड़ाकू विमानों के 12 बिलियन डालर के उस आर्डर के अतिरिक्त जो पहले ही रूस द्वारा पूर्ति की प्रक्रिया में है।  

17 मार्च 2012 के स्टेट्समैन के मुताबिक भारत ने अपना रक्षा खर्च 17.6 प्रतिशत बढ़ा कर  47 बिलियन डालर (दो लाख 35 हजार करोड रूपये) कर दिया है।

पर यह उन्मत्त सैन्यीकरण भी भारतीय पूँजीपति वर्ग के लिए काफी नहीं है। हम अप्रैल 2012 में, अग्नि-5 के प्रेक्षेपण से कुछ दिन पहले ही, भारतीय मीडिया में चलाये गए एक अन्य अभियान में यह देख सकते हैं। अप्रैल की शुरुआत में भारतीय सेना के प्रमुख ने प्रधानमंत्री को एक लंबा पत्र लिखा। पत्र में प्रधानमंत्री को बताया गया कि भारतीय सेना युद्ध के लिए तैयार नहीं है चूँकि उसके पास पर्याप्त हथियार तथा गोलाबारूद नहीं है। पत्र प्रेस को लीक कर दिया गया और संसद द्वारा उठाया गया। सेना, वायुसेना और नौसेना के प्रमुखों के साथ विचार विमर्श के बाद, अब संसद ने घोषणा की है कि भारतीय बलों के पास युद्ध छेड़ने के लिए पर्याप्त हथियार और गोला बारूद नहीं है। इसमें एक तत्व गुटीय झगड़े का भी है, पर यह अभियान पूँजीपति वर्ग के लिए दो बुनियादी प्रयोजन पूरे करता है। एक है अपनी आबादी को प्रचार से अभिभूत करना तथा उससे यह तथ्य छिपाना कि भारत पहले ही हथियारों पर भारी खर्च करता है – हथियारों के विश्व बाजार में बह सबसे बड़ा खरीदार है। दूसरा है शोषित आबादी को यकीन दिलाना कि सैन्यीकरण पर और भी अधिक खर्च की आवश्यकता है।

हमें एक बात पर स्पष्ट होना चाहिए - केवल भारतीय पूंजीपति वर्ग ही उन्मत्त सैन्यीकरण में लगा हुआ नहीं है। एशिया में सभी देश - जापान, दक्षिण तथा उत्तर कोरिया, फिलीपींस, ताइवान, सऊदी अरब आदि एक ही दौड़ में लगे हुए हैं। सऊदी अरब और उसके संगी अमीरात सैन्यीकरण पर लगभग100  अरब अमरीकी डालर खर्च कर रहे हैं। चीन एशिया में हथियारों की दौड़ में अग्रणी है और इस साल उसने अपने सैन्य खर्च को लगभग दुगना कर150 अरब अमरीकी डालर कर दिया है। यहां तक कि दुनिया के थानेदार संयुक्त राज्य अमेरिका ने एशिया पर और विशेषकर चीन पर केंद्रित अपना सैन्य खर्च बडा दिया है। 

एशिया में हथियारों की दौड़ क्यों?

पिछली सदी के आरंभ में पूंजीवाद अपने पतन के दौर में दाखिल हुआ। इसका मतलब था कि दुनिया के मौजूदा बाजार मुख्य पूंजीवादी शक्तियों में बांट लिए गए थे और ये बाजार अब सभी पूंजीवादी राष्ट्रों के उत्पादों को खपाने के लिए काफी नहीं थे। विस्तार अथवा अस्तित्व तक के लिए प्रत्येक पूंजीवादी देश अपने प्रतिद्वंद्वियों से आवश्यक बाजार छीनने के लिए मजबूर था। हर पूंजीवादी देश के सामने एक ही विकल्प था कि वह एक विश्वव्यापी सैन्य टकराव में अपने प्रतिद्वंद्वियों का सामना करे और उन्हें हराये अन्यथा अपने दुश्मनों से हार और अधीनता स्वीकार करे। यही वह कठोर विकल्प था जो 20वीं सदी के आरंभ से यूरोप और अमेरिका को विशाल सैन्यीकरण की और ले गया।  यही वह कठोर विकल्प था जो प्रथम विश्वयुद्ध में और फिर द्वितीय विश्वयुद्ध में दानवीय रूप से खेला गया, इनमें से प्रत्येक में करोडों लोगों का वध और पूरे देशों और महाद्वीपों का विनाश हुआ।

दूसरे विश्वयुद्ध के अंत के बाद से सैन्य टकरावों तथा उनके लिए तैयारी का यह सिलसिला पुरानी साम्राज्यवादी शक्तियों के बीच आज तक बेरोक जारी रहा है। पतनशीलता का वह दौर जिसमें पूंजीवाद 20वीं सदी के आरंभ से जी रहा है, इसमें पूंजीवाद केवल युद्ध से जी सकता है। परिणाम स्वरूप सभी देश स्थायी रूप से युद्ध के लिए उग्र तैयारियों में लगे हुए हैं।

पिछले कुछ दशकों में चीन, भारत और एशिया के कई अन्य देशों की आर्थिक शक्ति बढ़ी है। इन देशों में भी पूंजीवाद उसी विकल्प, उन्हीं चुनावों के रूबरू है जिनका सामना उन्नत पूंजीवादी देशों को पिछली सदी के अरंभ में करना पडा। और ये नई 'उभरती ताकतें’ भी स्थिति का जवाब पुरानी साम्राज्यवादी शक्तियों की तरह ही दे रही हैं – वह है सैन्यीकरण की व्यापक प्रक्रिया और युद्ध के लिए तैयारी में जुटना। हम एशिया भर में यह देख सकते हैं।

यह इस तथ्य के बावजूद हो रहा कि इन देशों मे, खासकर भारत और चीन में, मज़दूर वर्ग घोर गरीबी, दुखदर्द और बड़े पैमाने पर बेरोजगारी की हालत में जीते हैं।

जैसा कि हमने देखा, अन्य देशों में अपने समकक्षों की तरह भारतीय पूंजीपति वर्ग भी सैन्यीकरण की एक उन्मादी प्रक्रिया में लगा हुआ है। हाल में आईसीबीएम का प्रेक्षेपण इसी विनाशकारी निरंतरता में स्थित है। यह भारतीय पूंजीपति वर्ग द्वारा अपने निकट साम्राज्यवादी प्रतिद्वंद्वी चीन के साथ विनाशक शक्ति में समानता हासिल करने का एक प्रयास है।

पूंजीपति और मज़दूर वर्ग

हथियारों की दौड़ पतनशील पूंजीवादी व्यवस्था के लिए अनिवार्य है। यह पतनशील पूंजीवादी के उन्नत चरण की वस्तुगत्त परस्थितियों का परिणाम है। आज, पूंजीवाद केवल युद्ध से जी सकता है। पूंजीपति वर्ग इससे छुटकारा नहीं पा सकता।

दूसरी तरफ मज़दूर वर्ग पूंजीवादी राष्ट्रों में समस्त होड का मुख्य शिकार है। युद्ध और युद्धों का प्रचार उसकी एकता को नष्ट करने और उसके वर्ग दुश्मन, पूँजीपति वर्ग, के सामने उसे कमज़ोर करने का रूझान रखता है। युद्ध के लिए तैयारी उसके शोषण को तेज करती है और उसकी जीने की स्थितियों को खराब करती है। और जिन युद्धों द्वारा विभिन्न देशों के पूंजीपति वर्ग अपना हिसाब बराबर करने की कोशिश करते हैं वे मज़दूर वर्ग भारी हमले के रूप में सामने आते हैं। यह मज़दूर वर्ग ही है जो अपने जीवन से पूंजीपति वर्ग के युद्धों की कीमत अदा करता है। पूंजीवाद के भीतर अपनी स्थिति के कारण केवल मजदूर वर्ग ही पूंजीवाद को नष्ट करके पूंजीपति वर्ग के युद्धों का अन्त कर सकता है।

मज़दूर वर्ग क्या करे?

पूंजीपति वर्ग मज़दूर वर्ग तथा मेहनतकश आबादी पर राष्ट्रवादी भावनाओं का असर गहराने के लिए किसी भी साधन का सहारा लेने से पीछे नहीं हटता। अतीत में पूंजीपति वर्ग द्वारा मज़दूर वर्ग के क्रांतिकारी उभारों को कुचलने के लिए राष्ट्रवाद बहुत प्रभावी ढंग से इस्तेमाल किया गया। यह दुनिया के मज़दूर वर्ग का दुश्मन नंबर एक है। मज़दूर वर्ग को राष्ट्रवाद के जहर के खिलाफ मजबूत आक्रोश विकसित करना होगा और अंतर्राष्ट्रीयतावाद के सिद्धांत का मजबूती से बचाव करना होगा।

मज़दूर वर्ग साम्राज्यवादी युद्ध और युद्ध की तैयारी में किसी का भी पक्ष नहीं ले सकता। इसे सभी युद्ध उन्माद की निंदा करनी होगी। ‘अपने’ पूंजीपति वर्ग द्वारा आईसीबीएम के प्रेक्षेपण के प्रति भारतीय मज़दूर वर्ग की प्रतिक्रिया प्रताडना तथा निन्दा के सिवा कुछ नहीं हो सकती है।

अपने जीवन तथा काम के हालातों पर तेज़ होते हमलों के खिलाफ, मज़दूर वर्ग को दुनिया में सब जगह अपना वर्ग संघर्ष तेज करने की जरुरत है। इन सघर्षों का आत्म संगठन, विस्तार, राजनीतिकरण और उनका राष्ट्रीय तथा अंतरराष्ट्रीय एकीकरण करके ही विश्व पूंजीवादी व्यवस्था, जो तमाम आर्थिक मुश्किलों, शास्त्र दौड तथा युद्ध उन्माद की जड़ है, के अन्त के लक्ष्य की ओर आगे बढ़ा जा सकता है। केवल यही मानवता को बचा सकता हैं। कोई दूसरी राह नहीं है।

एस, 25 अप्रैल 2012

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