अमेरिका और अन्य पश्चिमी शक्तियों का जल्दबाजी और हडबडी में अफगानिस्तान से पीछे हट जाना, पूंजीवाद द्वारा समाज को कुछ न दे पाने व बढती बर्बरता की स्पष्ट अभिव्यक्ति के अलावा और कुछ नहीं. २०२१ की गर्मियों से पहले से ही परस्पर जुडी घटनाओं की तेजी यह प्रदर्शित करती है कि ग्रह पहले से ही आग की चपेट में है : संयुक्त राष्ट्र अमेरिका के पश्चिमी तट से लेकर साइबेरिया तक गर्मी की लहरों और बेकाबू आग का प्रकोप,बाढ़ और कोविद – १९ की महामारी की भयंकर तबाही के कारण चौपट हुई अर्थ व्यवस्था.यह सब “ विगत ३० सालों में हुई सड़ांध का रह्स्योद्घाटन है.(1) मार्क्सवादियों के रूप में हमारीd भूमिका, सिर्फ इस बढती हुई अराजकता के बारे में टिप्पणी करने की ही नहीं, बल्कि पूँजीवाद के ऐतिहासिक संकट में निहित,इसकी जड़ों तक पहुंच,उसका विश्लेषण करने की है .साथ ही मजदूर वर्ग तथा समूची मानवता के प्रति द्रष्टिकोण प्रस्तुत करने की भी.
तालिबान को सभ्यता के दुश्मन, मानवाधिकारों विशेषरूप से महिलाओं के अधिकारों के लिए खतरे के रूप में प्रस्तुत किया जाता है. वे निश्व्हित रूप से क्रूर हैं,और ऐसी द्रष्टि से प्रेरित हैं जो मध्य युग के सबसे बुरे पहलुओं से जोडती है. हालाँकि,वे उस समय के दुर्लभ अपवाद नहीं हैं जिसमें हम रह रहे हैं. वे प्रत्क्रियावादी व्यवस्था- पतनशील पूँजीवाद का उत्पाद हैं. विशेषरूप से,उनका उदय पूँजीवाद के अंतिम चरण -विघटन की अभिव्यक्ति है.
सत्तर के दशक के उत्तरार्ध में अमेरिकी और रूसी साम्राज्यवादी शक्तियों के बीच शीत युद्ध में तेजी देखी गई, जिसमें अमेरिका ने पश्चिमी यूरोप में मिसाइलें तैनात करदीं और रूस को हथियारों की दौड़ में शामिल होने के लिए मजबूर किया जो इस मद में कम से कम खर्च कर सकता था.हालाँकि, पश्चिमी धड़े का मध्य पूर्व का एक खम्भा – ईरान, अराजकता के दलदल में पहले ही गिर चुका था. जब पूंजीपत वर्ग की विद्वान मंडली द्वारा व्यवस्था को बनाये रखने के सभी प्रयास असफल हो गये तब पादरी वर्ग के सबसे पिछड़े तत्वों ने सत्ता पर कब्जा करने के लिए इस अराजकता का भरपूर लाभ उठाया. नई सत्ता पश्चिम से तो टूट गयी लेकिन उसने रूसी धड़े में शामिल होने से भी इंकार कर दिया.ईरान की लम्बी सीमा रूस के साथ जुडी हुई है और उसने यू. एस. एस. आर. को घेरने की पश्चिम की रणनीति के रूप में एक प्रमुख खिलाड़ी के रूप में काम किया.इस क्षेत्र में अब यह एक ढीली तोप बन गई. इस नयी अव्यवस्था ने यू. एस. एस. आर. को अफगानिस्तान पर आक्रमण करने के लिए प्रेरित किया.जब पश्चिम ने रूस समर्थक शासन को उखाड फेंकने की कोशिश की जिसे वह १९७८ में ही काबुल मे स्थापित करने में सफल रहा था.अफगानिस्तान पर कब्जा करके रूस को यह उम्मीद थी कि वह बाद के चरण में हिन्द महासागर तक पहुंच कर यह लक्ष्य भी हासिल करने कामयाव होगा .
हमने अब अफगानिस्तान में सैन्य बर्बरता का भयंकर विस्फोट का देखा. यू. एस. एस. आर. ने मुजाहिदीन (“स्वतंत्रता सेनानी”) और सामान्यरूप से समूची आबादी पर अपनी पूरी शक्ति लगादी.दूसरी तरफ अमेरिकी गुट ने मुजाहिदीन को सशस्त्र, वित्त पोषित और रूस का विरोध करने वाले अफगान सरदारों को सैन्य प्रशिक्षण से लैस किया. इनमें कई इस्लामिक कट्टरपंथी और दुनियां भर के जिहादियों की भारी संख्या में आमद भी शामिल थी. इन “ स्वतंत्रता सैनानियों” को अमरिका और उसके अन्य सहयोगियों द्वारा आतंक और युद्ध की सभी कलाओं में पारंगत किया गया.आजादी के इस युद्ध में ५००,००० से २० लाख निरपराध लोगों की जानें गयीं और देश तबाह हो गया.यह इस्लामिक आतंकवाद के एक अधिक वैश्विक रूप का जन्म स्थान भी था,जो अल कायदा और बिन लादेन के उदय के कारण विशिष्ट बना.
उसी समय अमेरिका ने इराक को ईरान के खिलाफ आठ वर्षीय युद्ध में धकेल दिया,जिसमें लगभग १४ लाख लोग मारे गये.जबकि थके- हारे रूस ने अफ्गानिस्तान में युद्ध समाप्त कर दिया और इस युद्ध का १९८९ में रूसी ब्लाक के पतन में जोरदार योगदान रहा तथा ईरान और इराक को कुन्डलीमार युद्ध में धकेल दिया. इस क्षेत्र की गतिशीलता ने प्रदर्शित किया कि ईरान का “दुष्ट राज्य” में परिवर्तन, प्रमुख संकेतों में से एक था पूंजीवाद के गहरे अन्तर्विरोध, ग्रह के विभिन्न क्षेत्रों में अपने अधिकारों को लागू करने की प्रमुख राज्यों की क्षमता को कमजोर करने में लगे थे.इस प्रव्रति के पीछे कुछ और गहरे राज भी हैं : विश्व मजदूर वर्ग पर
व्यवस्था के संकट समाधान थोपने में शासक वर्ग की अक्षमता –एक और विश्व युद्ध जिसने संघर्षों की एक श्रंखला में पूंजीवाद की ओर से स्वयं को बलिदान करने की अनिक्षा जताई. १९६८ औए ८० के दशक के उत्तरार्ध के बीच, हालाँकि मजदूर वर्ग, व्यवस्था के एक क्रांतिकारी विकल्प को सामने रखने में सक्षम नहीं था, संक्षेप में.दो प्रमुख वर्गों के बीच गतिरोध ने पूँजीवाद के अंतिम चरण में प्रवेश को निर्धारित किया, दो ब्लाकों की प्रणाली के अंत तक,साम्राज्यवादी स्तर पर, विघटन के चरण की विशेषता “ हर व्यक्ति सिर्फ अपने लिए “ की और तेजी से कदम में प्रदर्शित हुई.
१९९० के दशक में रूस के अफगानिस्तान से चले जाने के बाद विजयी सरदारों द्वारा देश के खंडहरों के नियंत्रण के लिए पश्चिमी देशों द्वारा दिए गये सभी हथियारों तथा ज्ञान का उपयोग करते हुए एक दूसरे पर हमला बोल दिया.थोक में नर संहार, विनाश और सामूहिक बलात्कार ने युद्ध द्वारा छोडी गई सामूहिकता को नष्ट कर दिया.
इस युद्ध का सामाजिक प्रभाव अफगानिस्तान तक ही सीमित नही था. हेरोइन की लत का प्लेग, जो १९८० के दशक के बाद से दुनियां भर में दुःख और मृत्यु ले कर आया था, युद्ध के प्रत्यक्ष परणामों में से एक था.पश्चिम ने तालिबान के विरोध को युद्ध पोषण के लिए अफीम की खेती करने के लिए प्रोत्साहित किया.
इस भांति, तालिबान की निर्मम कट्टरता दशकों की बर्बरता की उपज थी. पाकिस्तान द्वारा उसके दरवाजे पर किसी प्रकार के आदेश को लागू करने की कोशिश करने के लिए उसके साथ भी छेड़खानी की गई थी.
वर्ष २००१ में अमेरिकी आक्रमण, अल- कायदा और तालिबान से छूटकारा पाने के बहाने, २००३ में इराक पर आक्रमण के साथ,अमेरिकी साम्राज्यवाद द्वारा उसके पतन के परिणामों का सामना करने वाले अपने अधिकार को लागू करना था. इसने अपने सदस्यों में से एक पर हमले के जवाब में कार्यवाही करने के लिए अन्य शक्तियों, विशेषरूप से यूरोपीय लोगों का सहयोग प्राप्त करने की कोशिश की.इस ओर ब्रिटेन के आलावा सभी शक्तियाँ अनुत्साही थी.वास्तव में जर्मनी ने पहले ही ९० के दशक की शुरूआत में क्रोशिया के अलगाव का समर्थन करके एक नया “स्वतंत्र” रास्ता तय कर लिया था, जिसने बदले में बाल्कन के भयानक नर संहार को उकसाया. अगले दो दशकों में, अमेरिका के प्रतिद्वंदी औरभी उत्साहित हो गये क्योंकि उन्होंने देखा कि अमेरिका अफगानिस्तान,इराक और सीरया में अजेय युद्धों में उलझा हुआ है .संयुक्त राज्य अमेरिका की एकमात्र शेष महाशक्ति के रूप में अपने प्रभुत्व का दावा करने का प्रयास अमेरिका के साम्राज्यवादी” नेत्रत्व “ की वास्तविक गिरावट को अधिक से अधिक प्रकट करेगा और यह शेष ग्रह पर एक अखंड व्यवस्था थोपने में सफल होने से कहीं दूर, संयुक्त राज्य अमेरिका अब अराजकता और अस्थिरता का मुख्य वाहक बन गया है जो पूंजीवाद के सड़ांध को चिन्हित करता है.
अमेररिका का अफगानिस्तान से पीछे हटने की नीति, वास्तविक राजनीत का स्प्ष्ट उदाहरण है. रूस और चीन को रोकने और कमजोर करने के अपने प्रयाशों को मजबूत करने के लिए अपने संसाधनों को केन्द्रित करने के लिए अमेरिका को अपने मंहगे औरदुर्बल युद्धों से खुद को मुक्त करना होगा. बाइडेन प्रशासन ने खुद को ट्रम्प की तुलना में अमेरिकी महत्वाकांक्षाओं की खोज में कम सनकी नहीं दिखाया है.
साथ ही अमेरिकी वापसी की शर्तों को गम्भीर झटका लगा है. लम्बी अवधि में प्रशासन शायद चीन के डर पर भरोसा कर रहा है कि वह जापान, दक्षिण कोरिया और ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों को “ पूर्व की ओर धुरी” के साथ सहयोग करने के लिए मजबूर करे, जिसका उद्देश्य दक्षिण चीन सागर और अन्य क्षेत्रों को शामिल करना है .
इससे ये अर्थ निकालना गलत होगा कि अमेरिका मध्य पूर्व और मध्य एशिया से दूर चला गया है. बाइडेन ने स्पष्ट कर दिया है कि अमेरिकाआतंकवादी खतरों ( दूसरे शब्दों में , हवाई हमलों के माध्यम से ) के सम्बन्ध में सम्पूर्ण क्षितिज के ऊपर ( ओवर द होरिज़न )की नीति अपनाएगा. इसका मतलब यह है कि यह दुनियां भर में अपने सैन्य ठिकानों,अपने नौसेना और वायु सेना का प्रयोग इन क्षेत्रों में, यदि वे अमेरिका को खतरे में डालते हैं तो उन राज्यों को नष्ट करने के लिए के लिए करेगा. यह खतरा अफ्रीका में बढती हुई अराजक स्थिति से भी सम्बंधित है ,जहाँ सोमालिया जैसे असफल राज्यों को इथोपिया द्वारा शामिल किया जा सकता है क्योंकि यह ग्रहयुद्ध में तबाह हो गया है ,इसके पडौसियों ने दोनों पक्षों का समर्थन किया है. यह सूची लम्बी होगी क्योंकि नाइजीरिया चाड और अन्य जगहों पर इस्लामी आतंकवादी समूहों को तालिबान की जीत से अपने अभियानों को आगे बढ़ाने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है.
यदि अफगानिस्तान से अमेरिका की वापसी, चीन के उदय और विश्व शक्तियों के रूप में रूस के पुनर्स्थान से उत्पन्न खतरे पर ध्यान केन्द्रित करने की आवश्यकता से प्रेरित है, तो इसकी सीमायें स्पष्ट प्रतीत होती हैं , यहाँ तक कि चीनी और रूसी साम्राज्यवाद को भी अफगानिस्तान में एक रास्ता प्रदान करना.चीन पहले से ही अफगानिस्तान में अपनी नयी सिल्क रोड परियोजना पर बड़े पैमाने पर निवेश कर चुका है और दोनों राज्यों ने तालिबान के साथ राजनयिक सम्बन्ध शुरू कर दिए हैं. लेकिन इन राज्यों में से कोई भी एक तेजी से विरोधाभासी विश्व विकार से ऊपर नहीं उठ सकता है. अफ्रीका, मध्य पूर्व ( लेबनान का सबसे हालिया पतन) मध्य एशिया और सुदूर पूर्व (विशेष रूप से म्यामांर) में फैली अस्थिरता की लहर चीन और रूस के लिए उतना ही खतरा है जितना कि अमेरिका से.वे पूरी तरह जानते हैं कि अफगानिस्तान के पास कोई वास्तविक कार्यशील राज्य नहीं है और तालिबान एक का निर्माण नही कर पायेगा. नई सरकार को सरदारों से खतरा सर्व विदित है .उत्तरी गठबंधन के कुछ हिस्सों ने पहले ही कहा है कि वे सरकार को स्वीकार नहीं करेंगे और आइएस, जो अफगानिस्तान में भी शामिल रहा है,तालिबान को धर्म त्यागी मानता है. क्योंकि वे काफ़िरपश्चिम के सौदेबाजी करने के लिए तैयार हैं .अफगानिस्तान के पुराने शासक वर्ग के हिस्से तालिबान के साथ काम करने की कोशिश कर सकते हैं और कई विदेशी सरकारें चैनल खोल रही हैं, लेकिन यह इसलिए है कि काउंटी के फिर से युद्धवाद और अराजकता के पूरे क्षेत्र में फ़ैल जाने के डर से , उतरने से डरते हैं .
तालिबान द्वारा समर्थन न करने की स्थिति में भी, तालिबान की जीत, चीन में सक्रिय उइगर इस्लामिक आतंकवादियों को प्रोत्साहित कर सकती है. रूसी साम्राज्यवाद अफगानिस्तान में उलझने की कडवी कीमत जानता है और यह देख सकता है कि तालिबान की जीत, उज्बेकिस्तान, तुर्कमेनिस्तान और ताजकिस्तान में कट्टरपंथी समूहों को एक नया प्रोत्साहन प्रदान करेगी, जो दोनों के देशों की बीच एक बफर बनाते हैं. वह इन राज्यों और अन्य स्थानों पर अपने सैन्य प्रभाव को मजबूत करने के लिए इस खतरे का लाभ उठाएगा, लेकिन यह देख सकता है कि अमेरिकी युद्ध मशीन की ताकत भी इस तरह के विद्रोह को कुचल नहीं सकती, बाद वाले को अन्य राज्यों का पर्याप्त समर्थन मिलता है.
संयुक्त राज्य तालिबान को हराने और वहां एक जुट राज्य स्थापित करने में असमर्थ था.वह अपमानित होने के पूरे ज्ञान के साथ वहां से पीछे हटा.लेकिन इसके मद्दे नजर उसने अस्थिरता का टाइम बम छोड़ दिया है. रूस और चीन को अब इस अराजकता को रोकना होगा.कोई भी विचार कि पूंजीवाद इस क्षेत्र में स्थिरता और भविष्य का कोई रूप ला सकता है,एक शुद्ध भ्रम है .
अमेरिक , ब्रिटेन, और अन्य सभी शक्तियों ने पिछले ४० सालों में अफगानिस्तान की आबादी पर थोपे गये आतंक और विनाश पर पर्दा डालने के लिए तालिबान के हौसले का इस्तेमाल किया है. अमेरिका समर्थित मुजाहिदीन ने रूसियों की तरह ही हत्या, बलात्कार, दमन,अनाचार और लूटपाट की है.तालिबान के साथ मिल कर उन्होंने रूसियों द्वारा नियंत्रित शहरी केन्द्रों में आतंकी अभियान छेडे. हालाँकि यह सावधानीपूर्वक पश्चिम की नजर से ओझल रखा गया. अफगानिस्तान में पिछले २० सालों से ऐसा ही हो रहा है. पश्चिमी मीडिया नें तालिबान की भयंकर क्रूरता को उजागर किया गया है.जबकि “लोकतान्त्रिक” सरकार और उसके समर्थकों द्वारा किये गये नरसंहार, हत्याएं, बलात्कार और यातनाओं की खबरें निंदनीय रूप से कालीन के नीचे दबा दी गईं.किसी भी तरह से ”लोकतान्त्रिक,” “ मानवाधिकारों” से प्यार करने वाले अमेरिका और ब्रिटेन द्वारा समर्थित सरकार के गोले, बम औए गोलियों से युवा, बूढ़े, महिलाओं औरपुरूषों के टुकड़े-टुकड़े कर फेंक देना उल्लेख के लायक नहीं. वास्तव में तालिबान द्वारा किये गये आतंक की विस्तृत रूप से रिपोर्ट नहीं की गयी है. इन अमानवीय घटनाओं को मात्र “ समाचारों” के रूप में ही देखा जाता है जब तक कि यह युद्ध को सही ठहराने में मदद न कर सके.
अफगानिस्तान की समूची आबादी और विशेषकर महिलाओं पर किये गए अत्याचारों की यूरोप की संसदों में अमेरिका और ब्रिटेन के राजनेताओं की प्रतिध्वनि गूंजती रही. उन्हीं नेताओं ने आव्रजन क़ानून लागू किये हैं, जिसके कारण हजारों हताश शरणार्थी, जिनमे बहुत से अफगानी भी शामिल हैं, ने अपने जीवन को जोखिम में डालने लिए भूमध्य सागर या चैनल को पर करने का प्रयास किया है. हाल के वर्षों में भूमध्य सागर में डूबे हजारों लोगों के लिए रोने वाला तक पैदा नहीं ? जो इन शरणार्थियों के लिए किंचित मात्र भी चिंतित दिखे? तुर्की या जॉर्डन( यूरोपीय संघ और ब्रिटेन द्वारा वित्त पोषित )या लीबिया के गुलाम बाजारों में बेच दिए जाने वाले यातना ग्रहों की तुलना में थोडा बेहतर रहने को मजबूर है? पूंजीवादी मुखपत्र जो तालिबान की अमानवीयता और दरिन्दिगी की आलोचना करते हैं, वही शर्णार्थियो की आवाजाही को रोकने के लिए पूर्वी यूरोप के चारों और स्टील और कंक्रीट की दीवार के निर्माण को प्रोत्साह दे रहे हैं. पाखंड की बदबू लगभग भारी है.
युद्ध, महामारी,आर्थिक संकट और जलवायु परिवर्तन का द्रश्य वास्तव में अत्यंत भयावह है. यही कारण है कि शासक वर्ग अपने मीडिया को इनसे भर देता है ताकि इस सडती सामाजिक व्यवस्था की कडवी सच्चाई से डरने के लिए सर्वहारा वर्ग को वश में में किया जा सके.वे चाहते हैं कि हम बच्चो की तरह बनें जो शासक वर्ग और उनके राज्य की स्कर्ट को पकड़े हुए हैं. पिछले ३० वर्षों में अपने हितों की रक्षा करने के संघर्ष में सर्वहारा वर्ग को जो कठिनाइयाँ हुई हैं, वह इस भय को और पकड़ लेती हैं. यह विचार कि सर्वहारा वर्ग ही वह शक्ति है जो एक भविष्य, पूरी तरह से एक नया समाज प्रदान करने में सक्षम है, बेतुका लग सकता है. लेकिन सर्वहारा वर्ग ही क्रांतिकारी वर्ग है और तीन दशकों के पीछे हटने से भी मिटाया नहीं जा सका, भले ही पीछे हटने की लम्बी और गहरी, अंतर्राष्ट्रीय मजदूर वर्ग के लिए अपनी आर्थिक स्थितियों पर बढ़ते हमलों का विरोध करने की क्षमता में विश्वास हासिल करने के लिए कठिन बनादे. लेकिन इन संघर्षों के माध्यम से मजदूर वर्ग अपनी ताकत को फिर से विकसित कर सकता है जैसा कि रोजा लक्समबर्ग ने कहा था कि सर्वहारा वर्ग ही एक मात्र वर्ग है जो हार के अनुभव के माध्यम से अपने चेतना को विकसित करता है. इस बात की गारंटी नहीं है कि सर्वहारा शेष मानवता को भविष्य प्रदान करने की अपनी ऐतिहासिक जिम्म्मेदारी को निभाने में सक्षम होगा. यह निश्चित रूप से नहीं होगा कि सर्वहारा वर्ग और उसके क्रांतिकारी अल्पसंख्यक हमारे वर्ग शत्रु द्वारा प्रचारित निराशा और कुचलने वाले वातावरण के आगे झुक जाते हैं. सर्वहारा वर्ग अपनी क्रांतिकारी भूमिका तभी निभा सकता है जब वह पूंजीवाद के विघटन की वास्तविकता को चेहरे पर देख कर उनकी आर्थिक और सामाजिक परस्थितियों पर हमलों को स्वीकार न करने और इनकार करके अलगाव और लाचारी को एकजुटता, संगठन और बढती वर्ग चेतना में बदल दे.
आई.सी.सी. २२ अगस्त २०२१
[1] [1] https://en.internationalism.org/content/17042/report-pandemic-and-development-decomposition [2]
समूचा विश्व जब कोविद १९ नामक दैत्य से जूझ रहा था, तब हम आई सी सी के साथियों के ऊपर एक वज्रपात हुआ. २० मार्च २०२० को हमारे प्रिय साथी कामरेड किशन ने हमसे अंतिम विदाइ ली. कामरेड किशन के यूं चले जाने से इंडियन सैक्शन को ही नहीं पूरी आई सी सी की भारी क्षति हुई है. हमें हमेशा ही उनकी कमी खलेगी. कामरेड किशन ने आई सी सी को सुद्रढ़ बनाने में एक महत्वपूर्ण योग्दान दिया है . वे अपने जीवन की अंतिम साँस तक उच्चतम भावना के साथ लड़ाकू योद्धा बने रहे.
किशन का जन्म भारत के पश्चिम बंगाल प्रान्त के एक सुदूर गाँव में हुआ था. उन्होंने १९६०के दशक में, विश्वविद्यालय ऐसे समय प्रवेश लिया था, जब कुछ समय पहले ही फ़्रांस में ९० लाख मजदूरों ने हडताल के साथ विश्व मंच पर पुन: दस्तक दी थी, इसके पश्चात इटली में गरम ऋतू ,१९७० में पोलेंड के मजदूरों का संघर्ष, विश्व पटल पर घटित इन घटनाओं का अर्थ था, प्रति क्रांति के युग का अंत. १९६० का दशक, विशेषकर वियतनाम युद्ध और नस्लवाद के खिलाफ दुनियां भर के विश्वविद्यालयों में विरोध का दौर था. इन आंदोलनों में भाग लेने वाले युवा क्रांतिकारी परिवर्तन की इच्छा के प्रति बेहद ईमानदार थे किन्तु जीवन में तात्कालिक परिवर्तन के भ्रम के साथ वे निम्न पूंजीवादी क्षेत्रों में ही संलग्न रहे. हालाँकि, १९६८ से पहले और बाद में, दोनों पूंजीवादी वाम संगठन को किशन जब नौजवानों को एकजुट करने में तो लगे थे, लेकिन उनकी रूचि युवा चेतना को मजदूर वर्ग के प्रति कुंद करना भर थी. इस वैश्विक स्थिति में किशन नक्सलवादी आन्दोलन में शामिल हो गये. १९६३-६५ के दौरान उन्होंने उत्तर बंगाल के विश्वविद्यालय से भौतिकी में प्रथम श्रेणी में मास्टर्स डिग्री प्राप्त की. किशन अपने स्नातक छात्र जीवन में ही नक्सलवादी आन्दोलन के प्रति आकर्षित युवा पीढी का हिस्सा बन गये. धीरे- धीरे नक्सलवाद माओवाद का पर्याय बन गया. एक युवा छात्र के रूप में किशन आन्दोलन की इतनी गहराई तक डूबते चले गये कि उन्होंने अपने शोध कार्य को भी तिलांजली दे दी और आन्दोलन की गतिविधियों में पूरी तरह संलग्न हो गये. आठ साल की कैद के पश्चात उन्हें १९७८ में रिहा किया गया. इन आठ सालों में जेल में उन्हें इतनी अकथनीय यातनाएं दी जो उन्हें जीवन की अंतिम साँसों तक सालती रहीं. एक छोटी सी काल कोठरी में रहना, अपर्याप्त और कभी - कभी न खाए जाने योग्य भोजन दिए जाने के कारण वह क्षय रोग के शिकार हो गये. फेंफडों का यह सक्रमण उनके जीवन का अटूट हिस्सा बन गया. जो आखिर में किशन को साथ ले कर ही गया. जेल जीवन के दौरान किशन ने विशेषतया मार्क्सवाद का गहन अध्ययन किया. जिससे उन्हें अन्य साथियों के साथ मार्क्सवाद पर विचार विमर्श करते समय बड़ी मदद मिली.
किशन उन बहुत कम लोगों में से एक थे ,जो पूंजीवादी की वामपंथी विचारधारा की दूषित धारा माओवाद में गहराई तक दुबकी लगाने के बावजूद भी इससे अपने को पूरी तरह अलग कर लेने तथा कम्युनिस्ट वाम की परम्परा से जोड़ कर सर्वहारा वर्ग के लिए अपना जीवन समर्पित करने में सक्षम थे. इस विच्छेद के लिए अपरहार्य रूप से यह आवश्यक था कि स्पष्टीकरण के लिए १९८०,१९९० के दशक में आई सी सी के साथ धैर्य के साथ विचार विमर्श मे हिस्सेदारी करें. वर्ष १९८९ में भारत में आई सी सी के न्युक्लीयस का गठन स्पष्टीकरण के लिए एक उत्प्रेरक, गतिवान कदम था. किशन जब आई सी से के संपर्क में आये तब उन्हें विदित हुआ कि कम्युनिष्टों का वास्तविक इतिहास अभी शेष है. जब उन्हें आई. सी. सी. के सैद्धांतिक विविधता के गहन अध्ययन से अहसास हुआ कि माओवाद एक पूंजीवादी विचारधारा, एक प्रतिक्रांतिकारी धारा के आलावा और कुछ नहीं, किशन आश्चर्यचकित थे. “ माओवाद का मजदूर वर्ग के संघर्ष , उसकी चेतना और न उसके क्रांतिकारी संगठन से कोई लेना –देना नहीं. इसका न तो मार्क्सवाद से कोई सरोकार नहीं.यह न कोई आंतरिक प्रवृति है और न कोई सर्वहारा की विचारधारा में कोई विकास. इसके विपरीत,माओवाद का मार्क्सवाद से कोई लेनादेना नहीं बल्कि इसको समग्र रूप में झुठलाना भर है. इसका एकमात्र कार्य क्रांतिकारी सिद्धांत को दफन करना तथा सर्वहारा वर्ग की चेतना को भ्रमित कर इसको इन्तहा दर्जे की मूर्खता और संकीर्णतावादी राष्ट्रवादी विचारवादी में बदलना है. “सिद्धान्तत “माओवाद पूँजीवाद के क्रांतिविरोधी पतनशीलता के साम्राज्यवादी युद्धों के दौर में एक घ्रणित सड़े गले पूंजीवादी विचार के अलावा और कुछ नहीं.” [1] [3] माओवाद की इस गहन पड़ताल ने कामरेड किशन के ऊपर गहरा प्रभाव डाला. अपने विगत को आलोचनात्मक राजननैतिक द्रष्टिकोंण से विवेचना करने में सक्षम कामरेड किशन को अब एक वास्तविक क्रांतिकारी संगठन का लडाका बनना आवश्यक था
जबकम्युनिष्ट इंटरनेशनल पहले से पतनशील हो चुका था,और विशेषरूप से रूस और जर्मनी में क्रांतियों की अति महत्वपूर्ण क्रांतिकारी संघर्षों की लहर पूरी तरह पराजित हो चुकी थी,तब १९२५ में भारत में कम्युनिष्ट पार्टी का का गठन हुआ था . कम्युनिस्ट पार्टी का लक्ष्य भी अन्य तमाम राष्ट्र्वादी आंदोलनों से जुडा उपनेशविरोधी, ब्रिटिश विरोधी आन्दोलन ही था. भाकपा पर राष्ट्रवाद और देशभक्ति पर गहरा प्रभाव था. भारत का मजदूर, वामपंथी कम्युनिज्म की परम्परा और उसकी निरन्तरता की कमी से ग्रस्त था. यह आई. सी.सी. के लिए भारत में कम्युनिस्ट वाम की ऐतिहासिक विरासत को बेहतर बनाने के दायित्व को रेखांकित करता है.
कामरेड किशन अपने गहन अध्ययन और निरंतर चर्चा का मार्ग पर चले हुए भारत में आई. सी. सी. के योद्धा बन गये. आई. सी. सी. के प्रति निष्ठा और विश्व सर्वहाराके संघर्षों ने उन्हें एक सच्चे अंतर्राष्ट्रीयतावादी सर्वहारा रूप में चिन्हित किया. उन्होंने सदैव ही आई. सी. सी. के सिद्धातों में गहरी निष्ठां के साथ वचाव किया. वे अपने निरंतर योगदान के माध्यम से आई. सी. सी. की अंतर्राष्ट्रीय व भारत के सैक्शन स्तर की बहसों में बड़ी द्रढ़ता के साथ भाग लेते थे . का. किशन ने आई. सी. सी. के जीवन में कई स्तरों पर महत्वपूर्ण योगदान दिया. उन्होंने उन बुकशापों की खोज में देश भर में कई यात्रायें की जहाँ आई. सी. सी के साहित्य को बेचा जा सकता हो. उन्होंने जब भी जहाँ भी संभव हो सका कितने ही चर्चा केन्द्रों व् सार्वजनिक सभाओं में भाग लिया. आई . सी. सी. के साहित्य की बिकवाली में किशन ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. उन्होंने विभिन्न आई. सी. सी की अंतर्राष्ट्रीय कांग्रेस के साथ- साथ क्षेत्रीय सम्मेलनों में भी सक्रिय भूमिका निभाई.किशन के बहुमूल्य और सुविचारित योगदानों ने राजनैतिक स्पष्टीकरण की प्रक्रिया में जबर्दस्त इजाफा किया. हमारे संगठन पर होने वाले सभी हमलों और बदनामियों से मजबूती के साथ बचाव करने में उनका महत्वपूर्ण योगदान रहा है .
कामरेड किशन में जीवन में आने वाले अनेकानेक उतार चढ़ावों पर पार पाने की असीम क्षमता थी. आई.सी.सी. की राजनीति और उनके आशावादी रवैये ने उन्हें कठिन परस्थितियों में भी लम्बे समय तक खड़े रहने में सहायता की. श्रद्धांजलि के इस छोटे से आलेख में, मजदूर वर्ग की मुक्ति के लिए किये उनके राजनैतिक संघर्ष का मूल्यांकन करना अत्यंत ही कठिन है. हमें उनके विषय में यह बताना नहीं भूलना चाहिए कि वे जमीन से जुड़े गजब के मेहमाननवाज थे. विदेशों अथवा देश के विभिन्न भागों से आये आई.सी.सी. के साथियों ने उनके उदार एवं प्रेमपूर्वक आथित्य का अनुभव किया. हम उन्हें क्रन्तिकारी सलाम अर्पित करते हुए उनके परिवार के प्रति एकजुटता व्यक्त करते हैं. आई.सी.सी . उनकी बेटी और उनकी अर्धांगिनी के साथ अपनी पूरी सहानुभूति और एकजुटता के साथ खडी है.
आई. सी. सी., अक्टूबर २०२०.
. https://en.internationalism.org/ir/094_china_part3.html#_ftnref4 [4]
अप्रैल के प्रारंभ से ही कोविद-१९ने, ग्रह के चारों कोनों में पैर पसार लिए हैं. नवम्बर २०२० से महामारी ने अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर हालत बेहद खराब कर रखे हैं . यदि यूरोप में स्थिति स्थिर लगती है तो, दूसरी ओर प्रदूषण के विकराल रूप धारण कर लेने के कारण अमेरिका में महामारी उलटे पांव लौट आई है, तथा लैटिन अमरीका और भारतीय उपमहाद्वीप के लोग भीषण यातना झेल रहे हैं. चीन जैसे देश जिनका चीनी टीके से बृहद रूप में इलाज किया जा रहा है, वे विशाल रूप से संक्रमित हो रहे हैं.[1] स्थिति इतनी गम्भीर हैं कि चीन के अधिकारीयों के बीच तक टीके की कम “क्षमता “ की बात की जा रही है. विश्व स्तर पर कोविद अब तक लगभग ३० लाख २० हजार प्राणियों की भेट ले चुका है. निसंदेह, यह संख्या,चीन और अन्य देशों द्वारा सार्वजनिक तौर पर दिए गये आंकड़ो से कहीं अधिक है.
यदि वाइरस के विषय में किये गये एक वर्ष के शोध से विदित तथ्यों पर चर्चा करें , तो हम पायेंगे : यह वाइरस कैसे फैलता है और इससे कैसे लडा जा सकता है? अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर सीमित सीमा तक ही इसे रोक देने के लिए उपयुक्त,सघन उपाय किये जाने में सभी सरकारों और पूंजीपतियों ने परले दर्जे की लापरवाही बरती. सभी राज्य, आपसी होड़ की म्रग मरीचिका का के बशीभूत हो कर, वैक्सीन नीति के बारे में कोई सामूहिक नीति पर कोई न्यूनतम आपसी सहयोग तक स्थापित करने में असफल रहे .
आपसी सहयोग के अभाव के कारण सभी राज्यों को अल्पकालिक उपायों का सहारा लेना पड़ा जिसमें लौक डाउन थोपने, फिर थोड़े समय बाद हटा लेने, फिर लगाने और हटा लेने,मिनी लौक डाउन, राज्य की ओर से तमाम चेतावनियां,कर्फ्यू लागू करना और उठाना आदि शामिल हैं. दशकों से संकट के समय थोपी गयी बजट में तमाम कटौतियों के पश्चात, महामारी के खिलाफ लड़ने के लिए उपयुक्त और भरपूर साधनों के मरीअभाव तथा पूर्वाधिकृत “अर्थव्यवस्था” अपने प्रतिद्वंदियों द्वारा पीछे धकेल दिए जाने की जोखिमों के कारण पूंजीवादी राज्यों ने प्रतिदिन होने वाली मौतों की चिंता छोड़,अस्पतालों और कब्रिस्तानों में फैली अराजकता से ( कमोवेश ) बचने के लिए अपने स्वास्थ्य साधनों को समायोजित करना जारी रखा, और इसे ही प्रभुत्वशाली वर्ग “वाइरस के साथ जीना सीखने “ की बात करता है . परिणाम! यदिसाथ किसी राज्य ने अपने देश की जनता को तेजी के साथ टीकाकरण करना शुरू साथकर दिया, फिरभी, टीके के प्रति और अधिक प्रतिरोधी कोविद- १९ के अन्य रूप में अन्य स्थानों पर तेजी से फ़ैल रहा है .
परन्तु इस भयानक तबाही में,भारत और ब्राजील के बुरे द्रश्य महाविपत्ति की गवाही देते हैं. ब्राजील के एक वैज्ञानिक के शब्दों में ( ब्राजील में महामारी नियंत्रण से बाहर है): हर जगह नये नये श्मशान ग्रह बनाये जा रहे हैं, शवों को बसों से ढोया जा रहा है, बीमारी रोजाना लाखों लोगों को ग्रसित कर रही है, शीघ्र ही, इस मामले में अमेरिका के डरावने रिकार्ड को पीछे धकेलते हुये,मृतकों की संख्या पांच लाख को पार कर जायेगी. अस्पताल ठसाठस भरे हुए हैं , पीड़ित,अस्पतालों में बिस्तरों के अभाव में स्ट्रेचरों पर ही दम तोड़ रहे हैं, और यह सब अमेजन राज्य के सबसे बड़े शहर मानौस से आने वाले वाइरस के नये संस्करण का आगाज है, जहां समूह प्रतिरक्षा की म्रग मरीचिका में समय नष्ट किया गया था. उसी समय ब्राजील में दूसरी लहर प्रवेश कर गयी.देश के राष्ट्रपति बोल्सोनारो ने वाइरस को एक छोटा फ़्लू ( ग्रिपेंजिन्हा) होने का बहाना किया था,उसने विपत्ति में फंसी सरकार को मौज मस्ती के मूड में सरकारके मंत्रियों को कमीज बदलने की भांति बदलता रहा, तथा लगातार दोहराता रहा, ” काम पर वापस जाना और शिकायत बंद करना आवश्यक है.”
ब्राजील में अमेजन से पशुओं की तस्करी और जंगल की अंधाधुंध कटाई ने लोगों को वाइरस के सम्पर्क में ला दिया जो आज तक एक आवरण के नीचे रहने को अभिशप्त हैं. मानोस के शोधकर्ता, जीव विज्ञानी, लुकास फर्रान्ते ने कहा , “ यह अमेजन है, जहाँ वुहान में हमारे द्वारा देखे गये वाइरस से भी अधिक विनाशकारी वाइरस के प्रकट होने का जोखिम है.”[2] इन पिछले वर्षों में अमेजन के जंगलों के विनाश ने विध्वन्श्कारी आयाम ले लिया है और इससे लाभान्वित होने वाले पूंजीपति, इसे रोकने के लिए तैयार नहीं है.
लेकिन दो सप्ताहों के बीच कोविद से सम्बंधित खबरों के मामले में, भारत प्रथम स्थान पर पहुंच गया है. वह देश जो दूनियाँ में सबसे अधिक आबादी वाला देश है, इस देश की स्वास्थ आपदा के बारे में शब्द खोजना मुश्किल है.आर्थिक तौर पर विकसित होने के बावजूद महामारी के मद्दे नजर यहाँ स्वास्थ सेवाएं अविकसित थीं; स्वास्थ्य सेवाएं भारत सरकार की प्राथमिकता नहीं रहीं.मसीहाई अहंकार से ओतप्रोत बोल्सोनारो की भांति भारत के प्रधामंत्री नरेंद्र मोदी`ने शेखी बघारते हुए कहा. “ हमने वाइरस को हरा दिया है, “और दावा किया की, “ भारत ने दुनियां में एक मिसाल कायम की है.” अपने साम्राज्यवादी अहं का दम्भ हरते हुए चीन आदि अन्य देशों की भांति देश में वैकसीन के निर्माण और लोगों को लगाये जाने का दम्भ भरा. हालाँकि टीके के निर्यात पर रोक लगादी है.
जनवरी के बाद से ही, बड़ी द्रढ़ता से हिन्दू कट्टरपन्थ से संचालित सरकार ने जान बूझ कर देश के कौने- कौने से आने वालीं धार्मिक तीर्थ यात्रा की ( हरिद्वार के कुम्भ मेला )अपार भीड़ को यहाँ आने के लिए प्रोत्साहित किया. अप्रैल के पहले दो सप्ताह में ही बिना मास्क लगाये, आवश्यक दूरी बनाये रखने के नियम का बिना ध्यान रखते हुए, परीक्षण और तापमान निरीक्षण के बिना, लगभग बीस लाख अस्सी हजार यात्री कुम्भ मेले में पहुंचे और गंगा के पानी में डूबकी लगाई. यह पानी धार्मिक कर्म कांड के अंतर्गत शवों के गंगा में विसर्जन के कारण अत्यधिक प्रदूषित “असली वाइरस बम) हो चुका था, और हमें चुनावी अभियान के दौरान होने वाली सभाओं में होने वाली विशाल भीड़ को नहीं भूल जाना चाहिए .
इस प्रकार के अहंकार और अवमानना के घटाटोप को उजागर होने में देर नहीं लगी. प्रति दिन वाइरस के कारण होने वाली मौतें ४००० और संक्रमित होने का आंकड़ा ४०लाख को भी पार कर गया. और ये “आंकड़ा वास्तविक संख्या से कम ही है “ प्रैस ने, ओक्सीजन की कमी के कारण, लोगों द्वारा अस्पतालों में बिस्तरों पर कब्जा कर लेने के कारण पर, हथठेलों , मोटर साइकिलो, कारो और जमीन पर ही दम तोड़ने वाले लोगों के भयावह और चिन्ताजनक द्रश्यों की पुष्टि की है.
यह, उस देश की जनता के प्रति फर्ज अदायगी की भोंडी अभिव्यक्ति है,जो अपने आप को ब्राजील के समान आर्थिक दिग्गज होना प्रस्तुत करता है . इसके बजाय हम उन परिवारों की तस्वीर भी देखते हैं जो, दाह संस्कार करने के लिए उचित स्थान खोजने के लिए श्मशानों के चक्कर लगा रहे हैं. अपने मृतक परिजनों को अंतिम समय सम्मान पूर्वक श्रद्धांजलि अर्पित करने के लिए सैकड़ों मीटर लम्बी लाइनों में घंटों से खड़े इन्तजार कर रहे हैं, और हालत ये हैं कि हर श्मशान के आस पास लाशों के ढेर लगे हें . ब्राजील के समान अन्य सभी स्थानों पर समाज का सबसे वंचित तबका, सर्वहारा और अन्य शोषित, पीड़ित समूह ही इस लापरवाही और उसके कारण कष्टों का जोखिम उठाते हैं .
और सोचने वाली बात ये है कि (दक्षिण अफ्रीका) के साथ इन दोनों देशों को , चीन के समान विकास की क्षमता रखने वाले देशों में वर्गीक्रत किया है[3], और एक शास्वत व गतिशील पूँजीवादी हिस्से के रूप में प्रस्तुत किया गया है .
मानव जाति के सामने खतरा पैदा करने वाले कोविद- १९, अन्य महामारियां तथा अन्य विपत्तियाँ केवल उत्पाद ही नहीं वल्कि ग्रह स्तर पर सामाजिक पतनशीलता के शक्तिशाली और त्वरक कारक भी हैं .मोदी का भारत और बोल्सोनारो का ब्राजील,भले ही लोकलुभावन नारों से संचालित होते हों, लेकिन उनके मूर्खतापूर्ण और तर्कहीन निर्णय, सिर्फ गतिरोध की दो उच्चतम अभिव्यक्तियां, मानवता के लिए पूंजीवादी गतिरोध का प्रतिनिधत्व करते हैं.
गलत न समझें : मोदी, बोल्सोनारो, ट्रम्प और अन्य लोकलुभावन नारों की उत्पत्ति के शक्तिशाली प्रतिनिधि अनिश्चित औए संकीर्ण प्रशासन और (अभिजात्य विरोधी ) भाषणों के कारण राष्ट्रीय पूँजी के कट्टर रक्षक बने हुए है: सोया का आयात करने वाले देशो द्वारा प्रोत्साहित, अमेजन के जंगल का क्रूर शोषण औए लूट के साथ ही खनिजों की खुदाई के कारण, विश्व पूँजी की आवश्यकताओं के प्रतीक बने हुए हैं.जहाँ तक मोदी के भारत का सवाल है, “संरक्षित” कृषि की समाप्ति के लिए क़ानून बनाया गया है,ताकि वहां पूँजी की आवश्यकताओं को पूरा कने करने लिए ग्रामीण क्षेत्रो को और भी अधिक खोला जा सके.[4]
जैसा की हमने अपनी जुलाई २०२० की “ कोविद १९ की महामारी और पूंजीवाद की पतनशीलता की अवधि “ की रिपोट में कहा है : “ कोविद महामारी ( .......) पूंजीवादी व्यवस्था के सामान्यीकृत सडांध का प्रतीक, अराजकता की श्रंखला को एक साथ रखते हुए निस्संदेह , पतनशीलता की समूची अवधि के प्रतीक बन गये हैं.और भी ;
यदि, महामारी के प्रकट होने से विश्व मेंसर्वहारा का संघर्ष ठहर गया है तो इसने पूंजीवाद के अराजक चरित्र पर प्रतिबिम्ब को नही बदला है . महामारी, सर्वहारा क्रांति की आवश्यकता का एक और प्रमाण है. लेकिन यह ऐतिहासिक परिणाम सबसे पहले और हर चीज से पहले मजदूर वर्ग की क्षमता पर निर्भर करता है, जो एकमात्र क्रांतिकारी शक्ति है, जो अपने बारे में,अपने अस्तित्व की और अपनी क्रांतिकारी क्षमताओं की चेतना को फिर से खोजतीहै, क्योंकि अकेले सर्वहारा वर्ग ही, अपने हितों और वर्ग स्वायतता की रक्षा के लिए संघर्ष के इर्द गिर्द संगठित होता है और उसका यह संघर्ष. पूँजी के कानूनी और घातक जुए को उतार फेकने और एक नये समाज को जन्म देने की क्षमता रखता है.
इनिगो, ६ मई २०२१.
[1] चीन और रूस ने अफ्रीकी और लैटिन अमरीकी देशों को अपनेसाम्राजवादी अंत के लिए टीकों के साथ बाढ़ के स्थिति का लाभ उठाया है .
[2] “ अमेजन: एक नई महामारी का प्रस्थान बिंदु” फ़्रांस संस्क्रति( १९ अप्रैल २०२१)
[3] अफ्रीका और विशेष रूप सेसे अफ्रीका लिए देखें’
https:// en .internationalism.org/ content/ covid-19-africa-vain.hopes…
[4] https: // en internationalism.org/ content/16997/lessons-Indian- farmers move…
लिंक
[1] https://en.internationalism.org/content/17056/behind-decline-us-imperialism-decline-world-capitalism#_ftnref1
[2] https://en.internationalism.org/content/17042/report-pandemic-and-development-decomposition
[3] https://en.internationalism.org/content/16926/homage-our-comrade-kishan#_ftnref1
[4] https://en.internationalism.org/ir/094_china_part3.html#_ftnref4