अफगानिस्तान: अमेरिकी साम्राज्यवाद के पतन के पीछे ; विश्व पूंजीवाद का पतन

Printer-friendly version

अमेरिका और अन्य पश्चिमी शक्तियों का जल्दबाजी और हडबडी में अफगानिस्तान से पीछे हट जाना,  पूंजीवाद द्वारा समाज को कुछ न दे पाने व बढती बर्बरता की स्पष्ट अभिव्यक्ति के अलावा और कुछ नहीं. २०२१ की गर्मियों से पहले से ही परस्पर जुडी  घटनाओं  की तेजी यह प्रदर्शित करती है कि ग्रह पहले से ही आग की चपेट में है : संयुक्त राष्ट्र अमेरिका के पश्चिमी तट से लेकर साइबेरिया तक गर्मी की लहरों और  बेकाबू आग का प्रकोप,बाढ़ और कोविद – १९ की महामारी की भयंकर तबाही के कारण चौपट हुई अर्थ व्यवस्था.यह सब “ विगत ३० सालों में हुई सड़ांध का रह्स्योद्घाटन है.(1) मार्क्सवादियों के रूप में हमारीd भूमिका, सिर्फ इस बढती हुई अराजकता के बारे में टिप्पणी करने की ही नहीं, बल्कि पूँजीवाद के ऐतिहासिक संकट में निहित,इसकी जड़ों तक पहुंच,उसका विश्लेषण करने की है .साथ ही मजदूर वर्ग तथा समूची मानवता के प्रति द्रष्टिकोण प्रस्तुत करने की भी.

अफगानिस्तान में घटनाओं की ऐतिहासिक प्रष्ठभूमि

तालिबान को सभ्यता के दुश्मन, मानवाधिकारों विशेषरूप से महिलाओं के अधिकारों के लिए खतरे के रूप में प्रस्तुत किया जाता है. वे निश्व्हित रूप से क्रूर हैं,और ऐसी द्रष्टि से प्रेरित हैं जो मध्य युग के सबसे बुरे पहलुओं से जोडती है. हालाँकि,वे उस समय के दुर्लभ अपवाद नहीं हैं जिसमें हम रह रहे हैं. वे प्रत्क्रियावादी व्यवस्था- पतनशील पूँजीवाद का उत्पाद हैं. विशेषरूप से,उनका उदय  पूँजीवाद के अंतिम  चरण  -विघटन की अभिव्यक्ति है.

सत्तर के दशक के उत्तरार्ध में अमेरिकी और रूसी साम्राज्यवादी शक्तियों के बीच शीत युद्ध में तेजी देखी गई, जिसमें अमेरिका ने पश्चिमी यूरोप में मिसाइलें तैनात करदीं और रूस को हथियारों की दौड़ में शामिल होने के लिए मजबूर किया जो इस मद में कम से कम खर्च कर सकता था.हालाँकि, पश्चिमी धड़े का मध्य पूर्व   का एक खम्भा – ईरान, अराजकता के दलदल में पहले ही गिर चुका था. जब पूंजीपत वर्ग की विद्वान मंडली द्वारा व्यवस्था को बनाये रखने के सभी प्रयास असफल हो गये तब पादरी वर्ग के सबसे पिछड़े तत्वों ने  सत्ता पर कब्जा करने के लिए इस अराजकता का भरपूर लाभ उठाया. नई सत्ता पश्चिम से तो टूट गयी लेकिन उसने रूसी धड़े में शामिल होने से भी इंकार कर दिया.ईरान की लम्बी सीमा रूस के साथ जुडी हुई है और उसने यू. एस. एस. आर. को घेरने की पश्चिम की रणनीति के रूप में एक प्रमुख  खिलाड़ी के रूप में  काम किया.इस क्षेत्र में अब यह एक ढीली तोप बन गई. इस नयी अव्यवस्था ने यू. एस. एस. आर. को अफगानिस्तान पर आक्रमण करने के लिए प्रेरित किया.जब पश्चिम ने रूस समर्थक शासन को उखाड फेंकने की कोशिश की जिसे वह १९७८ में ही काबुल मे स्थापित करने में सफल रहा था.अफगानिस्तान पर कब्जा करके रूस को  यह उम्मीद थी कि वह बाद के चरण में हिन्द महासागर तक पहुंच कर यह लक्ष्य भी हासिल करने कामयाव होगा .

हमने अब अफगानिस्तान में सैन्य बर्बरता का भयंकर विस्फोट का  देखा. यू. एस. एस. आर. ने  मुजाहिदीन  (“स्वतंत्रता  सेनानी”) और सामान्यरूप से समूची आबादी पर अपनी पूरी शक्ति लगादी.दूसरी तरफ अमेरिकी गुट ने मुजाहिदीन को सशस्त्र, वित्त पोषित और रूस का विरोध करने वाले अफगान सरदारों  को सैन्य प्रशिक्षण से लैस किया. इनमें कई इस्लामिक कट्टरपंथी और दुनियां भर के जिहादियों की भारी संख्या में आमद भी शामिल थी. इन “ स्वतंत्रता सैनानियों” को अमरिका और उसके अन्य सहयोगियों द्वारा आतंक और युद्ध की सभी कलाओं में पारंगत किया गया.आजादी के इस युद्ध में ५००,०००  से २० लाख निरपराध लोगों की जानें गयीं और देश तबाह हो गया.यह इस्लामिक आतंकवाद के एक अधिक वैश्विक रूप का जन्म स्थान भी था,जो अल कायदा और बिन लादेन के उदय के कारण विशिष्ट बना.

उसी समय अमेरिका ने इराक को ईरान के खिलाफ आठ वर्षीय युद्ध में धकेल दिया,जिसमें लगभग १४ लाख लोग मारे गये.जबकि थके- हारे रूस ने अफ्गानिस्तान में युद्ध समाप्त कर दिया और इस युद्ध का १९८९ में रूसी ब्लाक के पतन में जोरदार योगदान रहा तथा ईरान और इराक को कुन्डलीमार युद्ध में धकेल दिया.  इस क्षेत्र की गतिशीलता ने प्रदर्शित किया कि ईरान  का “दुष्ट राज्य” में परिवर्तन, प्रमुख संकेतों में से एक था पूंजीवाद के गहरे अन्तर्विरोध, ग्रह के विभिन्न क्षेत्रों में अपने अधिकारों को लागू करने की प्रमुख राज्यों की क्षमता को कमजोर करने में लगे थे.इस प्रव्रति के पीछे कुछ और गहरे राज भी हैं : विश्व मजदूर वर्ग पर

व्यवस्था के संकट समाधान थोपने में शासक वर्ग की अक्षमता –एक और विश्व युद्ध जिसने संघर्षों की एक  श्रंखला में पूंजीवाद की ओर से स्वयं को बलिदान करने की अनिक्षा जताई. १९६८ औए ८० के दशक के उत्तरार्ध के बीच, हालाँकि मजदूर वर्ग, व्यवस्था के एक क्रांतिकारी विकल्प को सामने रखने में सक्षम नहीं था, संक्षेप में.दो प्रमुख वर्गों  के बीच गतिरोध ने पूँजीवाद के अंतिम चरण में प्रवेश को निर्धारित किया, दो ब्लाकों की प्रणाली के अंत तक,साम्राज्यवादी स्तर पर, विघटन के चरण की  विशेषता “ हर व्यक्ति सिर्फ अपने लिए “ की और तेजी से कदम में प्रदर्शित हुई.

साम्राज्यवादियों के दिल में अफगानिस्तान सभी के लिये आजाद

१९९० के दशक में रूस के अफगानिस्तान से चले जाने के बाद विजयी सरदारों द्वारा देश के खंडहरों के नियंत्रण के लिए पश्चिमी देशों  द्वारा दिए गये सभी हथियारों तथा ज्ञान का उपयोग करते हुए एक दूसरे पर  हमला बोल दिया.थोक में नर संहार, विनाश और सामूहिक बलात्कार ने युद्ध द्वारा छोडी गई  सामूहिकता को नष्ट कर दिया.

इस युद्ध का सामाजिक प्रभाव अफगानिस्तान तक ही सीमित नही था. हेरोइन की लत का प्लेग, जो १९८० के दशक के बाद से दुनियां भर में दुःख और मृत्यु ले कर आया था, युद्ध के प्रत्यक्ष परणामों में से एक था.पश्चिम ने तालिबान के विरोध को युद्ध पोषण के लिए अफीम की खेती करने के लिए प्रोत्साहित किया.

इस भांति, तालिबान की निर्मम कट्टरता दशकों की बर्बरता की उपज थी. पाकिस्तान द्वारा उसके  दरवाजे पर किसी प्रकार के आदेश को लागू करने की कोशिश करने के लिए उसके साथ भी छेड़खानी की गई थी.

वर्ष २००१ में अमेरिकी आक्रमण, अल- कायदा और तालिबान से छूटकारा पाने के बहाने, २००३ में इराक पर आक्रमण के साथ,अमेरिकी साम्राज्यवाद द्वारा उसके पतन के  परिणामों का सामना करने वाले अपने अधिकार को लागू करना था. इसने अपने सदस्यों में से एक पर हमले के जवाब में कार्यवाही करने के लिए अन्य शक्तियों, विशेषरूप से यूरोपीय लोगों का सहयोग प्राप्त करने की कोशिश की.इस ओर ब्रिटेन के आलावा सभी शक्तियाँ अनुत्साही थी.वास्तव में जर्मनी ने पहले ही ९० के दशक की शुरूआत में  क्रोशिया के अलगाव का समर्थन करके एक नया  “स्वतंत्र” रास्ता तय कर लिया था, जिसने बदले में बाल्कन के भयानक नर संहार को उकसाया. अगले दो दशकों में, अमेरिका के प्रतिद्वंदी औरभी उत्साहित हो गये क्योंकि उन्होंने देखा कि अमेरिका अफगानिस्तान,इराक और सीरया में अजेय युद्धों में उलझा हुआ है .संयुक्त राज्य अमेरिका की एकमात्र शेष महाशक्ति के रूप में अपने प्रभुत्व का दावा करने का प्रयास अमेरिका के  साम्राज्यवादी” नेत्रत्व “ की वास्तविक गिरावट को अधिक से अधिक प्रकट करेगा और यह शेष ग्रह पर एक अखंड व्यवस्था थोपने में सफल होने से कहीं दूर, संयुक्त राज्य अमेरिका अब अराजकता और अस्थिरता का मुख्य  वाहक बन गया है जो पूंजीवाद के सड़ांध को चिन्हित करता है.

ट्रम्प नीति की निरंतरता ही बाइडेन  की वास्तविक राजनीति

अमेररिका का अफगानिस्तान से पीछे हटने की नीति, वास्तविक राजनीत  का स्प्ष्ट उदाहरण है. रूस और चीन को रोकने और कमजोर करने के अपने प्रयाशों को मजबूत करने के लिए अपने संसाधनों को केन्द्रित करने के लिए अमेरिका को अपने मंहगे औरदुर्बल युद्धों से खुद को मुक्त करना होगा. बाइडेन प्रशासन ने खुद को ट्रम्प की तुलना में अमेरिकी महत्वाकांक्षाओं की खोज में कम सनकी नहीं दिखाया है.

साथ ही अमेरिकी वापसी की शर्तों  को गम्भीर झटका लगा है. लम्बी अवधि  में प्रशासन शायद चीन के डर पर भरोसा कर रहा है कि वह जापान, दक्षिण कोरिया और ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों को “ पूर्व की ओर धुरी”  के साथ सहयोग करने के लिए मजबूर करे, जिसका उद्देश्य दक्षिण चीन सागर और अन्य क्षेत्रों को शामिल करना है .  

इससे ये अर्थ निकालना  गलत होगा कि अमेरिका  मध्य पूर्व और मध्य एशिया से दूर चला गया है. बाइडेन ने स्पष्ट कर दिया है कि अमेरिकाआतंकवादी खतरों ( दूसरे शब्दों में , हवाई हमलों के माध्यम से ) के सम्बन्ध में सम्पूर्ण क्षितिज के ऊपर ( ओवर द होरिज़न )की नीति अपनाएगा. इसका मतलब यह है कि यह दुनियां भर में अपने सैन्य ठिकानों,अपने नौसेना और वायु सेना का प्रयोग इन क्षेत्रों में, यदि वे अमेरिका को खतरे में डालते हैं तो उन राज्यों को नष्ट करने के लिए के लिए करेगा. यह खतरा अफ्रीका में बढती हुई अराजक स्थिति से भी सम्बंधित है ,जहाँ सोमालिया जैसे असफल राज्यों को इथोपिया द्वारा शामिल किया जा सकता है क्योंकि यह ग्रहयुद्ध में तबाह हो गया है ,इसके पडौसियों ने दोनों पक्षों का समर्थन किया है. यह सूची लम्बी होगी क्योंकि नाइजीरिया चाड और अन्य जगहों पर इस्लामी आतंकवादी समूहों को तालिबान की जीत से अपने अभियानों को आगे बढ़ाने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है.  

यदि अफगानिस्तान से अमेरिका की वापसी, चीन के उदय और विश्व शक्तियों के रूप में रूस के पुनर्स्थान से उत्पन्न खतरे पर ध्यान केन्द्रित करने की आवश्यकता से प्रेरित है, तो इसकी सीमायें स्पष्ट प्रतीत होती हैं , यहाँ तक कि  चीनी और रूसी साम्राज्यवाद को भी अफगानिस्तान में एक रास्ता प्रदान करना.चीन पहले से ही अफगानिस्तान में अपनी नयी सिल्क रोड परियोजना पर बड़े पैमाने पर निवेश कर चुका है और दोनों राज्यों ने तालिबान के साथ राजनयिक सम्बन्ध शुरू कर दिए हैं. लेकिन इन राज्यों में से कोई भी एक तेजी से विरोधाभासी विश्व विकार से ऊपर नहीं उठ सकता है. अफ्रीका, मध्य पूर्व ( लेबनान का सबसे हालिया पतन) मध्य एशिया और सुदूर पूर्व (विशेष रूप से म्यामांर) में फैली अस्थिरता की लहर चीन और रूस के लिए उतना ही खतरा है जितना कि अमेरिका से.वे पूरी तरह जानते हैं कि अफगानिस्तान के पास  कोई वास्तविक कार्यशील राज्य नहीं है और तालिबान एक का निर्माण नही कर पायेगा. नई सरकार को सरदारों से खतरा सर्व विदित है .उत्तरी गठबंधन के कुछ हिस्सों ने पहले ही कहा है कि वे सरकार को स्वीकार नहीं करेंगे और  आइएस, जो अफगानिस्तान में  भी शामिल रहा है,तालिबान को धर्म त्यागी मानता है. क्योंकि वे काफ़िरपश्चिम के सौदेबाजी करने के लिए तैयार हैं .अफगानिस्तान के पुराने शासक वर्ग के हिस्से तालिबान के साथ काम करने की कोशिश कर सकते हैं और कई विदेशी सरकारें  चैनल खोल रही  हैं,  लेकिन यह इसलिए है कि काउंटी के फिर से युद्धवाद और अराजकता के पूरे क्षेत्र में फ़ैल  जाने के डर से , उतरने से डरते  हैं .

तालिबान द्वारा समर्थन न करने की स्थिति में भी, तालिबान की जीत, चीन में सक्रिय उइगर इस्लामिक आतंकवादियों को प्रोत्साहित कर सकती  है. रूसी साम्राज्यवाद अफगानिस्तान में उलझने की कडवी कीमत जानता है और यह देख सकता है कि तालिबान की जीत, उज्बेकिस्तान, तुर्कमेनिस्तान और ताजकिस्तान में कट्टरपंथी समूहों को एक नया प्रोत्साहन प्रदान करेगी, जो दोनों के देशों की बीच एक बफर बनाते हैं. वह इन राज्यों और अन्य स्थानों पर अपने सैन्य प्रभाव को मजबूत करने के लिए इस खतरे का लाभ उठाएगा,  लेकिन यह देख सकता है कि अमेरिकी युद्ध मशीन की ताकत भी इस तरह के विद्रोह को कुचल नहीं सकती, बाद वाले को अन्य राज्यों का  पर्याप्त समर्थन मिलता है.

संयुक्त राज्य तालिबान को हराने और वहां एक जुट राज्य स्थापित करने में असमर्थ था.वह अपमानित  होने के पूरे ज्ञान के साथ वहां से पीछे हटा.लेकिन इसके मद्दे नजर उसने अस्थिरता का टाइम बम छोड़ दिया है. रूस और चीन को अब इस अराजकता को रोकना होगा.कोई भी विचार कि पूंजीवाद इस क्षेत्र में स्थिरता और भविष्य का कोई रूप ला सकता है,एक शुद्ध भ्रम है .

मानवतावादी चेहरे के साथ बर्बरता

अमेरिक , ब्रिटेन, और अन्य सभी शक्तियों ने पिछले ४० सालों  में अफगानिस्तान की आबादी पर थोपे गये आतंक और विनाश पर पर्दा डालने के लिए तालिबान के हौसले का इस्तेमाल किया है. अमेरिका समर्थित मुजाहिदीन ने रूसियों की तरह ही हत्या, बलात्कार, दमन,अनाचार और लूटपाट की है.तालिबान के साथ मिल कर उन्होंने रूसियों द्वारा नियंत्रित शहरी केन्द्रों में आतंकी अभियान छेडे. हालाँकि यह सावधानीपूर्वक पश्चिम की नजर से ओझल रखा गया. अफगानिस्तान में पिछले २० सालों से ऐसा ही हो रहा है. पश्चिमी मीडिया नें तालिबान की भयंकर क्रूरता को उजागर किया गया है.जबकि “लोकतान्त्रिक” सरकार और उसके समर्थकों द्वारा किये गये नरसंहार, हत्याएं, बलात्कार और यातनाओं की खबरें निंदनीय रूप से कालीन के नीचे दबा दी गईं.किसी भी तरह से ”लोकतान्त्रिक,” “ मानवाधिकारों” से प्यार करने वाले अमेरिका और ब्रिटेन द्वारा समर्थित सरकार के गोले, बम औए गोलियों से युवा, बूढ़े, महिलाओं  औरपुरूषों  के टुकड़े-टुकड़े कर फेंक देना उल्लेख के लायक नहीं. वास्तव में तालिबान द्वारा किये गये आतंक की विस्तृत रूप से रिपोर्ट नहीं की गयी है. इन अमानवीय घटनाओं को मात्र “ समाचारों” के रूप में ही  देखा जाता है जब तक कि यह युद्ध को सही ठहराने में मदद न कर सके.

अफगानिस्तान की समूची आबादी और विशेषकर महिलाओं पर किये गए अत्याचारों की यूरोप की संसदों में अमेरिका और ब्रिटेन के राजनेताओं की प्रतिध्वनि गूंजती रही. उन्हीं नेताओं ने आव्रजन क़ानून लागू किये हैं,  जिसके कारण हजारों हताश शरणार्थी,  जिनमे बहुत से अफगानी भी शामिल हैं, ने अपने जीवन को जोखिम में डालने लिए भूमध्य सागर या चैनल को पर करने का प्रयास किया है. हाल के  वर्षों में भूमध्य सागर में डूबे हजारों लोगों के लिए  रोने वाला तक पैदा नहीं ? जो इन शरणार्थियों के लिए किंचित मात्र भी चिंतित दिखे?  तुर्की या जॉर्डन( यूरोपीय संघ और ब्रिटेन द्वारा वित्त पोषित )या लीबिया के गुलाम बाजारों में बेच दिए जाने वाले यातना ग्रहों  की तुलना में थोडा बेहतर रहने को मजबूर है? पूंजीवादी  मुखपत्र जो तालिबान की अमानवीयता और दरिन्दिगी की आलोचना करते हैं, वही शर्णार्थियो की आवाजाही को रोकने के लिए पूर्वी यूरोप के चारों और स्टील और कंक्रीट की दीवार के  निर्माण को प्रोत्साह दे रहे हैं. पाखंड की बदबू लगभग  भारी है.      

सर्वहारा वर्ग ही वह एकमात्र शक्ति है जो इस नर्क का अंत कर सकती है 

युद्ध, महामारी,आर्थिक संकट और जलवायु परिवर्तन का द्रश्य वास्तव में अत्यंत भयावह है. यही कारण है कि शासक वर्ग अपने मीडिया को इनसे भर देता है ताकि इस सडती सामाजिक व्यवस्था की कडवी  सच्चाई से डरने के लिए सर्वहारा वर्ग को वश में में किया जा सके.वे चाहते हैं  कि हम बच्चो की तरह बनें जो शासक वर्ग और उनके राज्य की स्कर्ट को पकड़े हुए हैं. पिछले ३० वर्षों में अपने हितों की रक्षा करने के संघर्ष में सर्वहारा वर्ग को जो कठिनाइयाँ हुई हैं, वह इस भय  को और पकड़ लेती हैं. यह विचार कि सर्वहारा वर्ग ही वह शक्ति है जो एक भविष्य, पूरी तरह से एक नया समाज प्रदान करने में सक्षम है, बेतुका लग सकता है. लेकिन सर्वहारा वर्ग ही क्रांतिकारी वर्ग है और तीन दशकों के पीछे हटने से भी  मिटाया नहीं जा सका, भले ही पीछे हटने की लम्बी और गहरी, अंतर्राष्ट्रीय मजदूर वर्ग के लिए अपनी आर्थिक  स्थितियों पर बढ़ते हमलों का विरोध करने की क्षमता में विश्वास हासिल करने के लिए कठिन बनादे. लेकिन इन संघर्षों के माध्यम से मजदूर वर्ग अपनी ताकत को फिर से विकसित कर सकता है  जैसा कि रोजा लक्समबर्ग  ने कहा था कि सर्वहारा वर्ग ही एक मात्र वर्ग है जो हार के अनुभव के  माध्यम से अपने चेतना को विकसित करता है. इस बात की गारंटी नहीं है कि सर्वहारा शेष मानवता को भविष्य प्रदान करने की अपनी ऐतिहासिक जिम्म्मेदारी को निभाने में सक्षम होगा. यह निश्चित रूप से नहीं  होगा कि सर्वहारा वर्ग और उसके क्रांतिकारी अल्पसंख्यक हमारे वर्ग शत्रु द्वारा प्रचारित निराशा और कुचलने वाले  वातावरण के आगे झुक जाते हैं. सर्वहारा वर्ग अपनी क्रांतिकारी भूमिका तभी निभा सकता है जब  वह पूंजीवाद के विघटन की वास्तविकता को चेहरे पर देख कर उनकी आर्थिक और सामाजिक परस्थितियों पर हमलों को स्वीकार न करने और इनकार करके अलगाव और लाचारी को एकजुटता, संगठन और बढती वर्ग चेतना में बदल दे.

आई.सी.सी. २२ अगस्त २०२१

[1] https://en.internationalism.org/content/17042/report-pandemic-and-development-decomposition