1985 के मई दिवस पर परचा

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विश्‍व मजदूर एकता जिन्‍दाबाद।                                मजदूर क्रांति जिन्‍दाबाद।

पूँजीवादी शोषण का नाश करो।

मजदूर साथियों,

मई 1886 की घटनाएँ जहाँ पूँजी के बहशी और खूनी रूप का, पूँजी तथा मजदूर वर्ग में असाध्‍य शत्रुता का प्रतीक हैं, वहां वे पूँजीवादी लूट के खिलाफ, पूँजीवादी राज्‍य को तहस-नहस करने के वर्ग के जुझारू ऐतिहासिक संघर्ष का भी प्रतीक हैं।

पूँजी का वामपक्ष –सीपीआई-एटक, सीपीएम-सीटू, उनके स्‍तालिनवादी लगुए भगुए तथा पूँजी के अन्‍य यूनियनी सिपहसालार– उन घटनाओं के वास्‍तविक अर्थ को छिपाने की साजिश करते हैं। उन्हें होली-दिवाली जैसे एक ‘त्‍यौहार’ में, एक निरापद तमाशे में बदल देते हैं। इन सालाना तमाशों में उन द्वारा उगली शैतानियत भरी लफ्फाजी का एक मात्र मकसद होता है मजदूरों के संघर्ष के मादे को कमजोर करना, उन्‍हें पूँजी के सामने निहत्‍था करना। मजदूर वर्ग को पूँजीवादी वाम की इन कुचालों को नाकाम करना होगा।

वर्ग के अन्‍य विगत संघर्षो की तरह ही, मई 1886 के प्रचण्‍ड संघर्ष भी वर्तमान से अछूते, किसी खत्‍म हो चुकी कहानी का अंग नहीं है। वे पूँजी तथा मजदूर वर्ग में निरन्तर जारी विश्‍वव्‍यापी वर्गयुद्ध, एक युद्ध जो किसी राष्‍ट्र की ‘अखण्‍डता’, उसकी ‘मुक्ति’ अथवा ‘आत्‍मनिर्णय’ के लिए नहीं बल्कि दानवी पूँजीवादी राज्‍य से, समस्‍त राष्‍ट्रवाद से मज़दूर वर्ग की मुक्ति के लिए है, का हिस्सा हैं। अतीत को याद करने में मज़दूर वर्ग का मुख्‍य मकसद होता है पुरानी विरासत से सबक लेकर अपनी मौजूदा मुठभेड़ो को सार्थक बनाना, उन्‍हें विश्‍व मजदूर क्रांति की ओर अग्रसर करना। लेकिन इसके लिए वर्ग-संघर्ष के वर्तमान हालातो को समझना भी जरूरी है।

संकटों तथा विश्‍व नरसंहारों (दो विश्‍वयुद्धों) का कहर बरसाता आया विश्‍व पूँजीवाद, भारतीय पूँजीवाद समेत, आज फिर तेजी से गहराते संकट में डूबता जा रहा है। पूँजी की समस्‍त अर्थव्‍यवस्‍थायें, अमेरिका, यूरोप की अपेक्षाकृत बलशाली पूँजियों से लेकर, भारत-पाक-लंका जैसी नपुसंक, बिमार पूँजियों तक – संकट की मार से चरमरा रही हैं। पूँजीवादी लूट के, विश्‍व पूँजी के अस्तित्‍व के हालात अधिकाधिक कठिन हो रहे हैं।

गहराते पूँजीवादी संकट के इस माहौल में राक्षसी पूँजीवादी राज्‍य के मजदूर वर्ग के जीवन स्‍तर पर हमले बहशी होते गए हैं। सभी जगह वर्ग को जीवन की बर्बरतापूर्ण अवस्‍थाओं में धकेला जा रहा है। हिन्‍दुस्‍तान जैसे देशों में मजदूर वर्ग तथा शोषित जनता को बढती गरीबी, बेरोजगारी, भूखमरी तथा उग्र होती पाश्‍विक हिंसा में डुबोया जा रहा है। वहां विकसित देशों के मजदूर वर्ग को भी तनख्‍वाहों में कटैती, बढ़ती बेरोजगारी आदि द्वारा पाश्‍वीकरण का शिकार बनाया जा रहा है।

दूसरी ओर विश्‍व पूँजी के सरदारों, रूस तथा अमेरिका, में और उनकी सरदारी में भारत-पाक-श्रीलंका आदि में प्रतिद्वन्द्धिता अधिकाधिक उग्र तथा खूनी हो गई है। रूस तथा अमेरिका की सरदारी में सभी देश एक दूसरे के खिलाफ युद्ध की तैयारी में, फौजीकरण में तथा एक दूसरे के प्रभावी क्षेत्रों में घूसपैठ में लगे हैं। अमेरिका अपने मा‍तह‍त पाकिस्‍तान के जरिए भारत पर दबाव डालने के लिए खालिस्‍तानी मोहरे का प्रयोग कर रहा है। रूस अपने मातहत भारत के जरिए अमरीकी कठपुतली श्रीलंका को हथियाने के लिए तामिल देश के मोहरे का प्रयोग कर रहा है।

लेकिन मजदूर वर्ग पूँजीवादी राज्‍यों/सरकारों के इन हमलों के सामने एक निरीह शिकार भर नहीं। सातवें दशक से विश्‍व पूँजी के संकट तथा मजदूर वर्ग पर पूँजी के हमलों के तेज होने के साथ-साथ वर्ग का विश्‍व-व्‍यापी प्रतिरोध भी तीव्रतर होता गया है। फ्रांस के 1968 के, उसके बाद अन्‍य अनेक देशों के, 1970-


1971 में पोलिश मजदूर वर्ग के, इस दौरान भारतीय मजदूरों के विभिन्‍न हिस्‍सों के तथा 1974 के रेलवे मजदूरों के महान संघर्ष, वर्ग प्रतिरोध की इस लहर का हिस्सा थे। भारतीय मजदूर वर्ग के दूसरे व्‍यापक संघर्ष –स्‍वदेशी काटन, बैलाडीला, फरीदाबाद, पुलिस बगावतें भी वर्ग संघर्ष की एक विश्‍वव्‍यापी लहर का हिस्‍सा थे। इस प्रकार 1980-1981 की पोलिश मजदूरों की बगावत, 1982 की बाम्‍बे सूती मिलों की हिंसक हड़ताल, हाल ही की फ्राँस, स्‍पेन, जर्मनी और विशेषकर ब्रिटिश खनिकों की साल भर लम्‍बी हिंसक हड़ताल पूँजी के हमलों के खिलाफ वर्ग प्रतिरोध की निरन्‍तर उँची उठती तथा गहन होती लहर का हिस्‍सा हैं।

आज सभी जगह पूँजी मजदूरों पर हमले तेज कर रही है। वर्ग संघर्ष की विश्‍वव्‍यापी लहरें सभी जगह इन हमलों का जवाब दे रही हैं। वर्ग के ये संघर्ष न सिर्फ विश्‍वयुद्ध का रास्‍ता रोके हुए हैं, बल्कि वे समूची मानवता को पूँजीवादी बर्बरता से मुक्ति का एकमात्र रास्‍ता, विश्‍व मजदूर इंकलाब का रास्‍ता, दिखा रहे है।

वर्ग के उभरते संघर्षों में निहित खतरे को समझते हुए पूँजीवादी राज्‍य अपने समस्‍त हथियारों को वर्ग के खिलाफ प्रयोग कर रहा है। ‘राष्‍ट्रीय अख्‍ण्‍डता’, ‘राष्‍ट्रवाद’ तथा साफ सुथरी सरकार के समस्‍त प्रपंच भारतीय पूँजीवादी राज्‍य के प्रति वर्ग की नफरत को कम करने, उनके संघर्षों को कुन्‍द करने का अस्‍त्र हैं। खालिस्‍तानियों जैसे पूँजी के अन्‍य गुट भी मजदूर वर्ग में फूट डालकर, उसे पूँजी के पीछे लामबन्‍द करके वर्ग के संघर्षों को कुचलने की समूची भारतीय पूँजी की कोशिशों को मदद पहुंचाते हैं।

इन प्रपंचों के बावजूद वर्ग संघर्ष फूट पड़ने पर उनसे निपटने के लिए पूँजीवादी राज्‍य ने अपने वामपक्ष, सीपीआई, सीपीएम, उसके स्‍तालिनवादी छुटभय्यों, ट्रेडयूनियन सरगनाओं को तैनात कर रखा है। एक वक्‍त के वर्ग के सच्‍चे संगठन, ट्रेड यूनियनें पतनशील पूँजीवाद के तहत आज अपना सर्वहारा चरित्र खो बैठी हैं। पूँजी का वामपक्ष, उसका ट्रेड यूनियनी ढांचा मजदूर वर्ग को पूँजीवादी विचारधारा के भ्रमजाल में उलझा कर, मजदूर आन्‍दोलनों को फूटने  से रोकने की भरसक कोशिश करता है। फिर भी उनके फूट पड़ने पर उसका कार्य है सेफ्टी वाल्‍व का काम करना। वर्ग के संघर्षों को विपथ करना। अपने बनकर उन्‍हें भीतर से तोड़ना तथा वर्ग को पस्‍त-हिम्‍मत करके पूँजी की सुरक्षा करना। यूनियनों की (पूँजीवादी वाम की) यह भूमिका चन्‍द लीडरों की बदमाशी का नहीं बल्कि उनके सदा के लिए पूँजीवादी राज्‍य का औजार बन जाने का नतीजा है।

मजदूर वर्ग को अपने इस समस्‍त शत्रुओं, राष्‍ट्रीय-अखण्‍डता, राष्‍ट्रवाद, खालिस्‍तान, स्थानीयतावाद, पूँजीवादी वाम तथा ट्रेड यूनियनवाद, के वास्‍तविक रूप को पहचानना होगा।

पूँजी के हमलों के खिलाफ अपने जूझारू संघर्ष विकसित करने के लिए मजदूर वर्ग को युनियनी खोल को तोड़ते हुए अपने आपको वर्ग के स्‍वायत संगठनों, आम सभाओं, हड़ताल कमेटियों में गठित करना होगा। लेकिन वर्ग को अपने हाल के संघर्षों से भी सबक लेने होंगे जो (बाम्‍बे सूती मजदूर, ब्रिटिश खनिक) बताते हैं कि एक फेक्‍टरी तो क्‍या एक उद्योग तक के संघर्ष से पूँजीवाद को राहत देने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता। इसलिए हमें अपने संघर्षों को छिड़ते ही अधिकतर संभव कारखानों/उद्योगों/क्षेृत्रों तक फैलाने की ओर बढ़ना होगा। इस धरातल पर भी वर्ग के संघर्षों के सामने विकास का आज एकमात्र परिदृश्‍य है : उन्‍हें पूँजीवादी राज्‍य के खिलाफ, उसे तहस-नहस करने की ओर तथा विश्‍व मजदूर इंकलाब की ओर बढ़ाना। सिर्फ इसी रास्‍ते से मजदूर वर्ग को, समस्‍त शोषित जनता को, तथा समूची मानवता को पूँजीवादी बर्बरता से तथा विश्‍वयुद्ध के खतरे से मुक्‍त किया जा सकता है।

मजदूरों का कोई देश नहीं होता।                             दुनिया के मजदूरों एक हो।

राष्‍ट्रवाद, स्‍थानीयतावाद – दफन करो।                मजदूर इंकलाब – गठित करो।

कम्‍युनिस्‍ट इंटरनेशनलिस्‍ट, 1 मई 1985

                           

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