28 फरवरी 2012 की अखिल भारतीय मज़दूर हड़ताल आम हड़ताल अथवा यूनियनी रस्म अदायगी?

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28 फरवरी 2012 को देश के विभिन्न हिस्सों में फैले दस करोड मज़दूरों की नुमाइंदगी करती यूनियनों द्वारा बुलाई हड़ताल हुई। सभी पार्टियों, यहां तक कि हिन्दूवादी बीजेपी, की यूनियनें भी हड़ताल में शामिल हुईं। इसके साथ ही हज़ारों स्थानीय तथा क्षेत्रीय यूनियनें भी। बैंक कर्मी, पोस्टल तथा राज़्य ट्रांसपोर्ट मज़दूर, टीचर्स, गोदी मज़दूर तथा अन्य क्षेत्रों के मज़दूरों ने हड़ताल में हिस्सा लिया। सभी यूनियनें का इस हड़ताल पर सहमत होना इसके पीछे मज़दूर संघर्षों का एक विकास दिखाता है। 

यूनियनों ने मांगों का एक घालमेल पेश किया : पब्लिक सेक्टर का बचाव, बढ़ती कीमतों पर नियंत्रण, 45 दिन में यूनियनों का लाजिमी पंजीकरण, श्रम कनूनों का सख्ती से पालन, न्यूनतम मज़दूरी को दस हज़ार रुपया करना तथा सामाजिक सुरक्षा आदि। उन्होंने यह दिखाने की कोई कोशिश नहीं की आज पूँजीवाद बेरहमी से मज़दूरों पर हमले कर रहा है क्योंकि पूँजीवादी प्रणाली संकट में है, बीमार है तथा सड़ रही है। इसके विपरीत, यूनियनों ने व्यवस्था पर भरोसा स्थापित करने की कोशिश की – पूँजीपति वर्ग जो चाहे दे सकता है, बस उसके चाहने की बात है।

यूनियनों ने हड़ताल संबंधी जो भी किया वह उनकी मंशाओं को जाहिर करता है। पहली बात तो यह कि उन्होंने अपने लाखों लाख सदस्यों को हड़ताल में औपचारिक रुप से भी शामिल होने को नहीं कहा। करीब पन्द्रह लाख रेलवे मज़दूर, इतने ही या इससे भी अधिक राज्य बिजली क्षेत्रों के मज़दूर तथा लाखों अन्य मज़दूरों को, जिनमें से अधिकतर इन्हीं यूनियनों के सदस्य हैं, को इन यूनियनों ने हड़ताल में शामिल होने के लिए भी नहीं कहा। एक ओर वे ‘आम हड़ताल’ की घोषणा कर रहीं थी, दूसरी ओर वे अपने लाखों मेम्बरों के सामन्य रुप से काम पर जाने तथा पूँजीवाद की मुख्य धमनियों में सुचारु प्रवाह में विघन न डालने से सहमत हईं।  

जिन क्षेत्रों मे यूनियनों ने हड़ताल मे शामिल होने का वादा किया, वहां भी उनका रुख एक रस्मी हड़ताल की घोषणा करना भर था। अधिकतर मज़दूर जो हड़ताल में शामिल हुए, उन्होंने यह घर बैठ कर किया। निजी क्षेत्र के करोडों मज़दूरों को, जो हड़ताली राष्ट्रीय यूनियनों का हिस्सा हैं, हड़ताल में शामिल करने की कोई कोशिश नहीं की गई। उन्हें हड़ताल से बाहर छोडने की गंभीरता हमें तब नज़र आती है जब हम पाते हैं कि हाल में और काफी अरसे से निजी क्षेत्र के मज़दूरों ने कहीं अधिक जुझारुपन तथा कनून के लिए कहीं कम इज्ज़त दिखाई है। यहां तक कि गुड़गांव जैसे औद्योगिक क्षेत्र तथा चेन्नई के इर्द-गिर्द के आटो उद्योग, गुड़गांव में मारुति तथा चेन्नई के निकट हुंडई जैसे कारखाने जहां हाल में अहम हड़तालें हुईं, वे भी इस हड़ताल में शामिल नहीं हए। अधिकतर औद्योगिक क्षेत्रों मे, भारत भर में सैंकडे बडे-छोटे शहरों में, जहां पब्लिक सेक़्टर मज़दूर हड़ताल में शामिल हुए, निजी क्षेत्र के करोडों मज़दूर काम पर गए और उनकी यूनियनें हड़ताल में शामिल नहीं हुईं।  

तो फिर यूनियनों ने हड़ताल क्यों बुलाई?

साफ है कि यूनियनों ने हड़ताल का प्रयोग मज़दूरों को लामबन्द करने, उन्हें सडकों पर उतारने तथा एकीकृत करने के लिए नहीं किया। उन्होंने इसका प्रयोग किया एक रस्म के रुप में, गुस्सा ठंडा करने के एक साधन के रुप में, मज़दूरों को अलग-थलग, निष्क्रिय तथा विघटित रखने  के लिए। घर में बैठे टीवी देखते हड़ताली मज़दूर न तो मज़दूर एकता और न ही मज़दूर चेतना बढ़ाते हैं। यह अलग-थलग होने का, निष्क्रियता का तथा मौका चूक जाने का अहसास मजबूत करता हैं। अपनी इन मंशाओं के रहते भी यूनियनों ने फिर हड़ताल क्यों बुलाई? और क्या बज़ह थी कि वे सब, जहां तक कि बीएमएस तथा इंटक भी, इसमें शामिल हुई? यह समझने के लिए हमें यह देखना होगा कि भारत मे आज आर्थिक तथा सामाजिक स्तर पर और स्वयं मज़दूर वर्ग के भीतर क्या हो रहा है।

मज़दूर वर्ग की बदतर होती जीवन परिस्थितियां 

भारतीय पूँजीपति वर्ग की आर्थिक उभार की बडी-बडी बातों के बावजूद पिछले सालों से आर्थिक हालात खराब हो रहे हैं। समूचे पूँजीवाद की तरह भारतीय अर्थव्यवस्था संकटग्रस्त है।  सरकार द्वारा जारी आंकडों मुताबिक अर्थव्यवस्था का विकास रुक गया है और उसकी विकास दर नौ प्रतिशत से घट कर छह प्रतिशत  हो गई है। संकट का असर बहुत उद्योगों पर पडा है। इसमें आई टी क्षेत्र तो शामिल है ही साथ ही प्राभावित हैं टेक्सटाईल, हीरा तथा पूँजीगत माल उद्योग व इन्फ्रास्ट्रक्चर क्षेत्र, निजी पावर कंपनियां ताथ एयरलायंस। इसके चलते मज़दूर वर्ग पर हमले तेज़ हो गए हैं। आम मुद्रास्फीति की दर कई सालों से दस प्रतिशत के आस पास है। खाद्य तथा रोज़ाना काम की ववस्तुओं में मुद्रास्फीति की दर कहीं ऊँची, जहां तक कि 16% तक रही है। इसने मज़दूर वर्ग का जीना मुश्किल कर दिया है। 

वर्ग संघर्ष का विकास 

अपने जीवन तथा काम के खराब होते हालतों के बीच, मज़दूर वर्ग संघर्ष की राह तलाशता रहा है। 2005 से हम भारत भर में वर्ग संघर्ष का धीमा उभार देख रहे हैं। हां, यह वर्ग संघर्ष के एक विश्वव्यापी उभार का हिस्सा है न कि कोई भारत की विचित्रता। 2010 और 2011 में बहुत सारे सेक़्टरों मे अनेक हड़तालें हुईं, खासकर गुड़गांव तथा चेन्नई के गिर्द आटो उद्योगों में। इनमें से कई संघर्षों में, जैसे 2010 मे होंडा मोटर साइकिल मज़दूरों तथा 2011 मे मारुति सुजुकी मज़दूरों की हड़तालो में, बहुत जुझारुपन तथा मालिकों के सुरक्षा ढ़ांचे से टकराने का ज़ज्बा सामने आया। यह चेन्नाई के निकट हुँडाई मोटर्ज़ में हुई अनेक हड़तालो में भी दिखाई दिया जहां ठेकेदारी प्रथा थोपने के मालिकों के प्रयासों के तथा दूसरे हमलों के खिलाफ मज़दूरों ने कई बार हड़ताल की। इन हड़तालों ने अन्य उद्योगों की ओर फैलने की तथा एकजुटता की शक्तिशाली प्रवृति व्यक्त की। उन्होंने अत्मगठन और आम सभाओं की स्थापना की ओर का भी रुझान दिखाया जिसे मारुति के मज़दूरों की हड़ताल में देखा जा सकता है जिन्होंने ‘अपनी’ यूनियनों की मरज़ी के खिलाफ कारखाने पर कब्जा किया।  

वर्ग संघर्ष के इस धीरे-धीरे उठते उफान के अतिरिक्त, अरब देशों मे, ग्रीस में तथा ब्रिटेन में हो रहे संघर्षों ने तथा दुनिया भर के ‘ऑक्यूपाई आंदोलनों’ ने भी भरत मे मज़दूर वर्ग मे प्रतिध्वनि पाई है।

वर्ग संघर्ष के छूत के फैलने का डर

इस स्थिति के रुबरु, बुर्जुआज़ी वास्तव में वर्ग संघर्ष फैलने के खतरे को लेकर चिंतित है। कई बार शासक वर्ग डरा नज़र आया। बहुत सारी हालिया हड़तालों के सामने यह डर देखा जा सकता है।

होंडा मोटर साइकिल में हिंसक टकरावों के तथा मारुति सुजुकी में हाल में बार बार हुई हड़तालों के समक्ष यह डर साफ देखा जा सकता है। समूचा प्रचारतंत्र कहानियों से पटा नज़र आया कि ये हड़तालें फैल सकती हैं और गुडगांवां के तमाम आटो कारखानों को अपनी चपेट में ले कर पूरे क्षेत्र को पंगु  कर सकती हैं। ये कहानियें महज़ अटकलबाज़ी नहीं थी। मुख्य हड़तालें बेशक कुछ कारखानों तक सीमित थीं, अन्य मज़दूर हड़ताली कारखानो के गेट पर गए। सांझे प्रदर्शन हुए और समुचे औद्योगिक शहर गुडगांवां में एक दिन की हड़ताल रही। राज्य सरकार हड़ताल के फैलाव को लेकर गंभीर रुप से चिंतित थी। प्रधानमंत्री तथा केन्द्रीय श्रममंत्री की दवाब के तहत, हड़ताल को ठण्डा करने के मकसद से हरियाणा के मुख्यमंत्री तथा श्रममंत्री ने मेनेजमेंट को तथा यूनियनी चौधरियों को एक जगह लाकर बैठाया।

बुर्जुआज़ी के अन्य हिस्सों के समान, यूनियनें भी बढ़ते जुझारुपन के चलते मज़दूरों पर अपना कंट्रोल खोने को लेकर चिंतित हैं। यह 2011 की मारुती की हड़तालों में देखा जा सकता है जहां मज़दूरों ने यूनियनों की मरज़ी तथा निर्देशों के खिलाफ अनेक गतिविधियां की।

इससे यूनियनों पर दवाब पड रहा है कि वे कुछ करती हुई नज़र आंएँ। उन्होंने कुछ रस्मी हड़तालों, जिसमे नवंबर 2011 की बैंक कर्मियों की हड़ताल भी शामिल है, की घोषणा की। मज़दूर वर्ग के भीतर उभरते गुस्से तथा जुझारुपन की निसंदेह अभिव्यक्ति होने के साथ ही हालिया हड़ताल उसे नियंत्रित तथा गुमराह करने का उनका नवीनतम प्रयास है।

संघर्षों को अपने हाथों में लेना 

मज़दूरों को समझना होगा कि रस्मी हड़ताल करके घर बैठने से कुछ नहीं होता। न ही पार्क में इकट्ठे हो कर यूनियन चौधरियों तथा संसद सदस्यों के भाषण सुनने से कोई मदद मिलती है। शासक और उनकी सरकार हम पर चढ़ाई कर रहे हैं क्योंकि पूँजीवाद संकट में है उनके पास इससे उभरने का कोई रस्ता नहीं है। हमे जानना होगा कि सभी मज़दूर हमलों का शिकार हैं, सभी एक ही नाव में सवार हैं। निश्चेष्ट तथा एक दूसरे से अलग-थलग रहना मालिकों को मज़दूरों पर अपने हमले तेज़ करने से नहीं रोकता। मज़दूरों को चाहिए कि वे इन अवसरों को बाहर सडकों पर उतरने, स्वयं को लामबन्द करने, एकजुट होने तथा अन्य मज़दूरों से विचार-विमर्श करने के काम लाएँ। उन्हें अपने संघर्ष अपने हाथ में लेने होंगे। यह फौरन हमारी समस्याएँ हल नहीं करेगा पर यह अपने हितों की हिफाजत तथा उनके हमलों को पीछे धकेलने कि लिए मालिकों के खिलाफ एक सच्चा संघर्ष विकसित करना हमारे लिए संभव बनाएगा। यह हमें समूचे पूँजीवाद के खिलाफ अपना संघर्ष विकसित करने और उसके विनाश के लिए काम करने में मदद देगा। फरवरी 2012 मे ग्रीस में ऐथंस ला स्कूल पर कब्जा करने वालों ने जैसे कहा, पूँजीवाद के मौजूदा संकट से स्वयं को मुक्त करने के लिए “हमें (पूँजीवादी) अर्थव्यवस्था का विनाश करना होगा” ।

 

सीआई, 9 मार्च 2012

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