संकट द्वारा विभाजित है पूँजीपति वर्ग, पर मज़दूर वर्ग के खिलाफ वह एकजुट है!

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पिछले कुछ महीनों से विश्व अर्थव्यव्स्था तबाही में से गुज़र रही है जिसे छिपाना  शासक वर्ग के लिए कठिनतर होता गया है। जी20 से लेकर जर्मनी और फ्रांस की अन्तहीन मीटिंगों समेत,  ‘दुनिया को बचाने’ के लिए की गईं विभिन्न अंतरराष्ट्रीय शिखर वार्ताओं ने साबित कर दिया है कि पूँजीपति वर्ग अपनी व्यवस्था को पुनरुज्जीवित करने में असमर्थ है। पूँजीवाद एक अन्धीगली में फंस गया है। और किसी समाधान अथवा संभावना का यह नितान्त अभाव विभिन्न राष्ट्रों में तनाव भड़काने लगा है। यह यूरोजोन की एकता को तथा स्वयं यूरोपियन यूनियन को दरपेश खतरों में देखा जा सकता है। और इसे हर देश के भीतर राष्ट्रीय राजनीतिक ढांचे को गठित करते तमाम बुर्जुआ गुटों में तनाव में देखा जा सकता है। पहले ही गंभीर राजनीतिक संकट फूट पडे हैं:

- पुर्तगाल में। 23 मार्च 2011 को पुर्तगाली प्रधानमन्त्री जोस सोक्राटिज़ को तब त्यागपत्र देना पडा जब विपक्ष ने कटौतियों की चौथी योजना के पक्ष मे मत देने से मना कर दिया जिसका मकसद था यूरोपियन युनियन तथा आईएमएफ के समक्ष आर्थिक सहायता की एक नई अरज़ी देने से बचना;

 - स्पेन में। अप्रैल में प्रधानमन्त्री जोस जापाटेरो को कटौतियों की अपनी योजना को स्वीकार करवाने के लिए अग्रिम में घोषणा करनी पडी कि वह 2012 के चुनाव में खडा नहीं होगा; पर पेंशन पर भारी हमलों की उसकी योजना के फलस्वरूप उसकी पार्टी, पीएसओई को 20 नवंबर के संसदीय चुनावों में भारी हार झेलनी पडी और मारियनो राज़ोये की दक्षिण पंथी सरकार बनी;

- स्लोवाकिया में। प्रधानमन्त्री इवेटा रादीकोवा को अक्तूबर 2011 के आरंभ में अपनी सरकार भंग करनी पडी ताकि संसद से ग्रीस के बचाब की एक योजना के लिए हरी झंडी मिल सके;

 - ग्रीस में। 26 अक्तूबर की यूरोपीय शिखर वार्ता के बाद एक नवंबर को जनमत-संग्रह कराने की आश्चर्यजनक घोषणा, जिसने अन्य यूरोपीय ताकतों में भारी तुफान मचा दिया था, के बाद जार्ज पापन्द्रुऔ को भारी अंतरराष्ट्रीय दवाब के तहत फौरन अपना विचार बदलना पडा। स्वंय अपनी पार्टी, पासोक, में अल्पमत में आ जाने के बाद उसने 9 नवंबर को त्यागपत्र दे दिया और बागडोर पापन्दप्युलोस को सौंप दी;

- इटली में। 13 नवंबर 2011 को विवादास्पद राष्ट्रपति सिल्वियो बर्लुस्कोनी को अपना पद छोडना पडा चूँकि उसे जरूरी समझे जाने वाले कठोर कदम उठाने के असमर्थ माना जा रहा था जबकि इससे पहले न तो अन्तहीन कांड और न ही गलियों में भारी विरोध प्रदर्शन उसे जाने के लिए मज़बूर कर पाए थे;

- अमेरिका में। अमेरिकी पूँजीपति वर्ग कर्ज़ सीमा बढ़ाने के सवाल पर दोफाड है। इन गर्मियों मे आखिरी घड़ी में एक अल्पकालिक सौदा हुआ। और चन्द हफ्तों व महीनों में यही सवाल फिर बखेडा खडा करने का अन्देशा लिये है। इसी प्रकार, असल फैसले लेने की ओबामा की असमर्थता, डेमोक्रेटिक पार्टी में फूट, रिपब्लिकन पार्टी की प्रचण्डता, रूढ़िवादी टी पार्टी का उदय ... यह सब दिखाता है कि किस प्रकार आर्थिक संकट दुनिया के सबसे ताकतवर पूँजीपति वर्ग की एकजुटता को खोखला कर रहा है।  

इन विभाजनों के कारण क्या हैं?

इन मुश्किलों की तीन अन्तर सम्बन्धित जड़ें हैं: 

1. आर्थिक संकट हर राष्ट्रीय पूँजीपति वर्ग की तथा हर गुट की पिपासांओं को भडका रहा है। एक रूपक का प्रयोग करें तो बांटा जाने वाला केक छोटा होता जा रहा है और उस में से टुकडा छीनने की लडाई अधिकाधिक भीषण। मसलन, फ्रांस में विभिन्न पार्टियों के बीच और कई बार एक ही पार्टी के अन्दर नैतिक तथा वित्तीय घोटालों द्वारा, भृष्टाचार के रहस्योद्घाटनों तथा सनसनीखेज़ मुकदमों द्वारा हिसाब चुकता करना; सत्ता, तथा उसके साथ जुडे फायदों, के लिए, निर्मम होड़ की स्पष्ट अभिव्यक्ति हैं। इसी प्रकार बडी-बडी शिखर वार्ताओं में जो ‘विचारों मे मतभेद’ सामने आते हैं वे संकटग्रस्त विश्व बाज़ारों के लिए घातक लडाई का फल हैं।  

2. पूँजीपति वर्ग के पास विश्व अर्थव्यवस्था को दरपेश दुर्गति का कोई वास्तविक हल नहीं है। दक्षिण तथा वाम का हर धड़ा सिर्फ निरर्थक तथा अव्यावहारिक प्रस्ताव ही पेश कर सकता है। हर धड़ा अपने प्रतिद्वंदियों के सुझावों की व्यर्थता साफ देख सकता है पर अपने सुझावों की प्रभावहीनता नहीं। हर धड़ा जानता है कि दूसरों की नीतियाँ अन्धीगली मे ले जाती हैं। अमेरिका में कर्ज़ सीमा बढ़ाने को लेकर पैदा अवरोध की यही व्याख्या है: डेमोक्रेट जानते हैं कि रिपब्लिकनों की नीतियाँ देशा को विनाश की ओर ले जाएँगी ... और इसके उल्ट भी।

इसलिए, ग्रीस से लेकर इटली तक, हंगरी से अमेरिका तक, दुनिया भर में सभी पार्टियों द्वारा ज़ारी ‘राष्ट्रीय एकता’ तथा उत्तरदायित्व की भावना की अपीलें हताशा तथा भ्रांतिमूलक हैं। वास्तव में, डूबने के खतरे से घिरे एक जहाज में शासक वर्ग की मुख्य सोच है ‘जो बचा सको, बचा लो’। हर गुट दूसरे की कीमत पर अपनी चमडी बचाने की फिराक में है।

3. कटौती की इन योजनायों के खिलाफ शोषितों का गुस्सा निरन्तर बढ़ रहा है और सत्तासीन दल विश्वास खो रहे हैं। दक्षिण का हो या वाम का, प्रतिपक्ष के पास पेश करने के लिए कोई भिन्न नीति नहीं है और हर चुनाव के बाद वे बहुधा अदल-बदल कर आते हैं। और जब नियमित चुनाव अभी दूर हों तो राष्ट्रपतियों तथा प्रधानमंत्रियों के त्यागपत्रों द्वारा उन्हें कृत्रिम रूप से जल्द लाया जाता है। यूरोप में हाल में कई बार ठीक यही हुआ। ग्रीस में जनमत-संग्रह कराने का प्रस्ताव इस लिए रखा गया क्योंकि गुस्साई भीड ने पापन्द्रुऔ और उसके  पिछलग्गूयों को 28 अक्तूबर की राष्ट्रीय परेड से खदेड दिया था।

ग्रीस में अथवा मारियो मोन्टी की सरकार के साथ इटली में, राजनीतिज्ञों की विश्वसनीयता इस कदर गिर गई है कि सत्तासीन नई टीमों को तकनीकतंत्रीयों (टेक्नोक्रेट) के रूप में पेश किया जा रहा है बावजूद इसके कि सत्ता के ये नए नुमाइंदे अपने पूर्ववर्तियों के बराबर ही राजनीतिज्ञ हैं (वे पहले ही पिछली सरकार मे अहम पदों पर रह चुके हैं)। यह ‘राजनीतिक जमात’ की बदनामी के स्तर को इंगित करता है। आबादी के विशाल हिस्सों की तरफ से, शोषितों की तरफ से, नई सरकारों के लिए कहीं भी कोई असल समर्थन दिखाई नहीं देता, है तो मात्र पुरानों की खारिज़ी। यह स्पेन में रिकार्डतोड संख्या में, वोटिंग आबादी के 53% तक, लोगों द्वारा मताधिकार का प्रयोग न करने से पुष्ट होता है। फ्रांस मे 47% मतदाता मई 2012 के राष्ट्रपति चुनावों की दूसरे दौर की वोटिंगे में दोनो मुख्या प्रत्याशीयों में से किसी को भी वोट देने का इरादा नहीं रखते, उनका कहना है कि वे न तो सरकोज़ी के और न ही हॉलेंड के पक्ष में है।

दक्षिणपंथ तथा वामपंथ के खिलाफ – वर्ग संघर्ष! 

यह साफ है कि सरकारों को बदलना हमारे जीवन स्तर पर हो रहे हमलों पे कोई असर नहीं डालता, कि बुर्जुआजी के खेमे में तमाम विभाजन शोषितों के खिलाफ कठोर कटौती की योजनायें लागू करने के मामले में उनके मतैक्य को नहीं बदलते। इसका एक सबूत यह है कि अतीत में चुनाव तुलनात्मक सामाजिक शान्ति का काल हुआ करते थे। आज ऐसा कोई ‘युद्दविराम’ नहीं है। ग्रीस में एक दिसंबर को एक और नई आम हड़ताल तथा विशाल प्रदर्शन हुए। पुर्तगाल में 24 नवंबर को हमने 1975 के बाद की सबसे बडी राष्ट्रव्यापी लामबंदी देखी जिसमें स्कूल, पोस्ट आफिस, बैंक तथा अस्पताल सेवाओं जैसे बहुत से क्षेत्र ठप्प कर दिये गए; लिसब्न में मेट्रो सेवाएँ पंगु रहीं और मुख्या एयरपोर्टों में तथा हाईवे विभाग में काम भंग रहा।  ब्रिटेन में 30 नवंबर को पब्लिक सेक़्टर कर्मियों की जनवरी 1979 (20 लाख शरीक) के बाद की सबसे व्यापक हड़ताल रही।  बेल्जियम में 2 दिसंबर को युनियनों ने 24 घंटे की हड़ताल की घोषणा की जिसका भी व्यापक अनुसरण हुआ। युनियनों ने यह हड़ताल भावी डी रुपो सरकार, जो देश की ‘सरकार विहीन’ स्थिति के 540 दिन बाद बडी मुश्किल से गठित की जा रही है, द्वार घोषित कटौती की योजनायों के खिलाफ बुलाई थी। और यह राजनीतिक संकट खत्म  होने बाला नही चूँकि बुर्जुआ पार्टियों में तनाव के स्रोत खत्म नहीं हुए हैं। इटली मे 5 दिसंबर को ज्यों ही कटौती की निष्ठुर योजनाओं की घोषणा हुई, नरमपंथी यूआईएल तथा सेअईएसएल युनियनें 12 दिसंबर को दो घंटे की संकेतिक हड़ताल बुलाने पर मज़बूर हुईं।

सिरफ यही रास्ता, गलियों में संघर्ष का, वर्ग के खिलाफ वर्ग का रास्ता हमारे जीवन स्तरों पर हमलों के खिलाफ कारगर प्रतिरोध की ओर ले जा सकता है। फ्रांस में, जहां मूर्ख सरकोज़ी के रूप में हम दंभी दक्षिणपंथ को सरकार की बागडोर संभाले देखते हैं, राष्ट्रीय पूँजीपति वर्ग एक हद तक वर्ग संघर्ष के खतरे के डर से पंगु है। उसकी अर्थव्यवस्था के 'एएए'  स्तर को घटाए जाने के समक्ष, जिसके चलते जर्मनी के संग उसकी नेतृत्वकारी भूमिका जा सकती है, यह सरकार अन्य देशों के मुकाबले छोटे स्तर पर ही कटौती की नीतियां लागू कर पाई है। इसका एक अहम उदाहरण है बीमारी तनखाह (सिक पे) पर हमला जो सबसे कठोर है: सरकार को तिकडमें करनी पडी के वह सीधा हमला करती न नज़र आए। यह घोषणा करने के बाद कि बीमारी की बजह से गैरहाज़िर रहने पर मज़दूरों को पहले दिन की तनखाह नहीं मिलेगी, सरकोज़ी को यह दिखाना जरूरी लगा कि वह निजी क्षेत्र (जहां पहले ही बीमारी के पहले तीन दिन की कोई तनखाह नही मिलती) पर कम सख्त है और कि उसने यह कदम मात्र पब्लिक सेक़्टर कर्मियों के लिए उठाया है (जिन्हें फिलहाल पहले दिन की गैरहाज़िरी के लिए दन्डित नहीं किया जा सकता)। यह दिखाता है कि फ्रांसीसी पूँजीपति वर्ग, अन्य की बजाए, बहुत बेरहमी से चोट करने की हिम्मत नही जुटा पा रहा है चूँकि वह उस देश में, जो ऐतिहासिक रूप से 1789, 1848, 1871 तथा 1968 में यूरोप में सामाजिक विस्फोटों का डेटोनेटर रहा है, व्यापक सर्वहारा लामबन्दी से डर रहा है। और 2006 में सीपीई के खिलाफ युवकों का आंदोलन, जब फ्रांसीसी सरकार को पीछे हटना पडा, भी इसकी सख्त चेतावनी था।

यह सारी स्थिति बढती अस्थिरता के एक दौर का उदघाटन कर रही है जिसमें आबादी पर अपने हमलों के चलते सरकारें अधिकाधिक बदनाम ही हो सकती हैं। और इन राजनीतिक संकटों में, विभिन्न गुटों के बीच कच्चे तथा अल्पकालिक समझौतों के बावजूद, जो सिद्धान्त काम करता है वह है ‘हर कोई सिरफ अपने लिए’। विभिन्न गुटों तथा प्रतिस्पर्घी  राष्ट्रों के बीच तनाव तथा होड़  तेज़ ही हो सकती है।

इसके विपरीत हमें, रोज़गार याफ्ता सर्वहाराओं को या बेरोज़गारों को, रिटायर हों या अभी पढ रहे हों, उन्हीं हमलों के खिलाफ उन्हीं हितों के लिए लडना पडता है। हमारे वर्ग दुश्मन के विपरीत, जो संकट के सामने दो-फाड होता जाता है, यह परस्थिति हमे अधिकधिक बडे तथा एकीकृत तरीके से जवाब देने की ओर धकेल रही है!

डब्लूपी, 8 दिसंबर 2011, बर्ल्ड रेवोल्यूशन-350, दिसंबर 2011- जनवरी 2012