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इंटरनेशनल कम्युनिस्ट करण्ट
दुनिया के मज़दूरों, एक हों!

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नवंबर 1989 के आम चुनाव पर आईसीसी का परचा

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  • कम्युनिस्ट इंटरनेशनलिस्ट – 1980 का दशक

मजदूरों का कोई देश नहीं होता।                                                         दुनिया के मजदूरों एक हो।

संसदीय सरकस में मत उलझो।  लड़ो।

मजदूर साथियों,

चुनावी पार्टियों ने महीनों, असल में बरसों से चलाए जा रहे अपने अभियानों को अब और तेज़ कर दिया है। एक दूसरे के कालिख पुते चेहरों की ओर इशारा करते, पूँजी के सभी राजनीतिक धड़े यह ‘’साबित” करने में लगे हैं कि यह सारी मंदहाली, सारा सड़न, सारा पतन बस ‘’राजीव मंडली’’ की, अथवा ‘‘राष्‍ट्र-विरोधी तत्‍वों’’  की या फिर प्रतिक्रियावादी ताकतों की देन है। बस सही मंडली चुनने की बात है। हमें चुनो सब ठीक कर देंगे। यह घोर कुफर है। हमें इस कुफर को समझना होगा।

जब चोर झगड़ पड़ते हैं

विपक्ष तथा शासक पार्टियाँ दोनों एक-दूसरे के घोर भ्रष्‍टाचार की, अपराधीकरण की, बेहयाई तथा नीचता में लिप्‍त होने की बात कहते हैं। वे सच कहते हैं। पर न सिर्फ पूँजी की राजसी मशीन, बल्कि उसका सारा आर्थिक-सामाजिक-प्रशासनिक तंत्र, सिर से पैर तक, रोम-रोम तक गबन, फ्राड, नीचता तथा हिंसा से सराबोर है। पर पूँजीवादी राजनीतिक गुटों में झगडा इस उफनते गंदे नाले को साफ करने को लेकर नहीं। यह मजदूर वर्ग की ‘भलाई’ को लेकर तो कतई नहीं। एक हद तक य‍ह हिस्‍से-पत्‍ती को लेकर है। पर ‘पाक-साफ शासन’, ‘‘धर्म-निरपेक्षता’’, ‘‘राष्‍ट्रीय एकता’’ के ये सारे अभियान मुख्‍़यता मजदूरों-मेहनतकशों को संघर्ष से विमुख रखने के लिए हैं।

भ्रष्‍टचार मजदूरों के जीवन को भी अभिशप्‍त करता है। पर मजदूरों को अगर घिसे पूर्जों के समान ‘छॉंट’ फेंका जा रहा है, अपनी गर्दन को अगर वे ले-आफों, तालाबंदियों, बेरोजगारी, बढ़ती मँहगाई की कडिकी में फँसा पा रहे हैं तो इसलिए कि वे मेहनतकश हैं, मजदूर हैं पूँजी के गुलाम हैं। हमारे जीवन के वीरानों की जड़ है पूँजीवादी निजाम। इस निजाम की पहरेदार हैं ये सब वामपंथी-दक्षिणपंथी पार्टिंयाँ।

पूँजीवादी संकट

और विश्‍व पूँजीवाद आज बीमार है। संकट में है। रूस, चीन, पौलैंड का राक्षसी सरकारी पूँजीवाद हो या अमेरिका, ब्रिटेन, मैक्‍सीको, भारत का पूँजीवाद, सब गहराते संकट में है। सरकारी नुमाइंदे तक कहते हैं – ‘देश पर 70000-93000 करोड रुपये तक विदेशी कर्ज है”। भारत दुनियां का चौथा या पाँचवां बड़ा कर्जदार देश है। सभी कर्जदार देशों की तरह जहां भी कीमतों में बढ़ोतरी तथा आर्थिक बदहाली बेकाबू होती जा रही है। इस संकट को मजदूर सभी औद्योगिक ऐरियों में बेरहम छँटनियों, ले-आफों, काम-बाढ़, तालाबंदियों, जीवन, काम तथा संघर्ष के मुश्किल होते हालातों के रूप में अपनी पीठ पर झेलते हैं। यह सब हमें बताता है कि पूँजी की आर्थिक मशीन को जंग लग रखा है।

इकोनमी का यही सड़न शासक वर्ग को मुनाफे के आसान तरीकों – महाफ्राड, रिश्‍वतखोरी, विशाल पैमाने पर चोरी-तस्‍करी, नशीली चीजों का व्‍यापार, अंत दर्जे की हर गंदगी तथा सड़न की ओर ले जाता है। पूँजी के हर धडे़ का – भारतीय राज्‍य, खालीस्‍तानी-कश्मीरी, हिंदू-मुस्लिम, असमी, श्रीलंका तमिल, सिंहली – हर दूसरे धडे से रिश्‍ता बर्बरता का, खूनी हिंसा का, आतंकवाद का रिश्‍ता बन गया है।

कांग्रेस, राष्‍ट्रीय मोर्चा, भाजपा अथवा वामपंथी मोर्चा, सभी एक-न-एक जगह राजकाज सँभाले हैं। हालात सभी के शासन में और खराब होते जा रहे हैं, होते जाऍंगे। भारत के ही समान संकटग्रस्‍त तथा करजाई अन्‍य देशों में – राक्षसी सरकारी पूँजीवाद के वकील नकली कम्‍युनिस्‍टों (स्‍तालिनवादियों-माओवादियों) के अधीन पौलैंड-रूसा-चीन आदि में अथवा अमेरिकी सरगनाओं के तहत ब्राजील, मैक्‍सीको, जार्डन आदि में – पूँजी के सभी धडे अपने हाथ में दमन का मुगदर उठा कर मजदूर वर्ग को एक ही पाठ पढ़ा रहे हैं। उन्‍हें ‘देश’ की इकोनमी के लिए और बलिदान देने होगें, कड़की, महँगाई, बेरोजगारी झेलनी होगी तथा शान्ति और सब्र करना होगा। समूचे पूँजीपति वर्ग के पास हालात का कोर्इ हल नहीं। असल में अपनी सभी वामपंथी-दक्षिणपंथी पार्टियों के साथ-साथ वह खुद इस सड़न का, संकट का हिस्‍सा है, इसकी जड़ है।

मजदूर वर्ग की तरफ से हालात का जवाब है उसका वर्ग संघर्ष। डीटीसी मजदूरों के, कानपुर में सूती मिल मजदूरों के, कई राज्‍यों में बिजली तथा अन्‍य सरकारी कामगरों के संघर्ष तथा जगह-जगह बिखरे अनेकों अज्ञात संघर्ष इस जबाव का हिस्‍सा हैं। वे जन-समूहों के उमड़ते असंतोष के लिए पलीते की संभावना भी लिए हैं।

संसद -- पूँजी का एक कवच

सामाजिक बायलर के भीतर दबाव उमड़ता पाकर शासक वर्ग ने सभी सेफटी वाल्‍वों को खोल रखा है – ‘धार्मिक भाषाई दंगे”, दंगों का ‘विरोध’,  ‘आंतकवाद - आंतकवाद विरोध’, ‘अलगाववाद-राष्‍ट्रीय एकता’ ‘भ्रष्‍टाचार विरोध।’  सामाजिक मैदान को अपनी हिस्‍से-पत्‍ती की लड़ाईयों से घेरकर तथा उन लड़ाईयों से उड़ाई वैचारिक गर्द से मजदूर वर्ग का दिमाग ढकने का प्रयास करके, पूँजी की वामपंथी-दक्षिणपंथी पार्टियां मजदूरों मेहनतकशों को हालात की समझ हासिल करने से रोकना चाहती हैं।

चुनाव इन प्रयासों का चरमबिंदू है। इसकी मार्फत मालिक वर्ग अपने राजसी ढॉंचे को पुख्‍ता करेगा।  शोषण दमन, तांडवी हिंसा, भ्रष्‍टाचार के एक और राऊंड पर वह फिर ‘जन सहमति’ से उतरेगा। इसी की मार्फत शासक वर्ग प्रयास करता है कि मजदूर-मेहनतकश अपने आपको पूँजी के खिलाफ एक वर्ग के रूप में देखना बंद कर दें और अपने आपको वे मालिकों, मैनेजरों, नेताओं, दलालों, बनियों के साथ-साथ जिम्‍मेवार ‘नागरिक’ के रूप में देखें। अगर शासक वर्ग अपनी इस चाल में सफल हो जाता है तो हम अपना एकमात्र हथियार – वर्ग कार्यवाही, वर्गीय एकजुटता गँवा देंगे।

मजदूर साथियों,

हममें करोड़ों मजदूर पहले ही अपने दिल में यह महसूस करते हैं कि सब पार्टियाँ खराब हैं, पैसेवालों की हैं, कि चुनावी उठापटक से मजदूरों को कुछ मिलने वाला नहीं, कि संसद एक तमाशा है और असल ताकत पैसे वालों के पास है, कि वोट से कुछ नहीं बदलता। फिर भी वे वोट डालते है क्‍योंकि कोई विकल्‍प नहीं दिखता।

साथियों, विकल्‍प है। विकल्‍प है वर्ग संघर्ष।

एकजुट, सामूहिक कार्यवाही के जरिये ही हम कहीं पहुँच सकते हैं। अपने एकजुट, सामुहिक संघर्ष से न केवल हम अपना बचाव करेंगे बल्कि पूँजीवादी समाज के संकट-सड़न-पतन से बाहर ले जाती एकमात्र राह खोलेंगे। यह काम हम दूसरों पर नहीं छोड़ सकते। पूँजीवादी पार्टियों व युनियनों के चंगुल से मुक्‍त होकर, हमें अपने संघर्ष अपने हाथ में लेने होंगे। हड़ताल कमेटियों, आम सभाओं के जरिये तथा संघर्ष के बाहर जुझारू मजदूरों की कमेटियों के जरिये। मजबूती से इस राह पर पॉंव रखकर, देश-धर्म-जाति का मायाजाल भेद कर ही हम मज़दूर जनवाद के औजार, क्रांतिकारी मज़दूर कौंसिल की राह खोलेंगे, तथा संकट-सड़न-पतन के मज़दूर वर्गीय विकल्‍प, पूँजीवादी राजनेताओं के थोथे वादों के खिलाफ वर्ग संघर्ष के सच्‍चे वादे की घोषणा करेंगे – पूँजीवाद का विश्‍व-व्‍यापी विनाश। विश्‍व मजदूर इंकलाब।

(1) राष्‍ट्रीय-भाषायी-मजहबी जहर के खिलाफ मजदूर वर्ग की राह – वर्ग एकता, वर्ग चेतना, वर्ग संघर्ष।

(2) पूँजी के थोथे नकली जनवाद के खिलाफ मजदूर सभाओं/हड़ताल कमेटियों का असल जुझारू जनवाद।

(3) संकट-सड़न-लूट-भ्रष्‍टाचार भरे गंदे नाले के चुनावी मंथन की जगह उसका इंकलाबी विनाश।

कम्‍युनिस्‍ट इंटरनेशनलिस्‍ट, नवंबर 1989,  पोस्‍ट बाक्‍स 25, एन आर्इ टी, फरीदाबाद – 121 001

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